रविवार, 9 दिसंबर 2018

संसार में भारतीयों का सैनिक चरित्र -लेखक अशोक चौधरी

दुनिया का इतिहास पूछता, मिस्र कहा यूनान कहा है।
घर-घर में शुभ अग्नि जलाता, वो उन्नत ईरान कहा है।।
दीप बुझे पश्चिमी जगत के, व्याप्त हुआ गहरा अंधियारा।
तम की छाती चीर के निकला, फिर से हिन्दुस्तान हमारा।।
-श्री अटल बिहारी वाजपेयी
संसार में मानव सभ्यता का विकास धीरे-धीरे हुआ है। जब मानव समूहों के रूप में संगठित हुआ तथा राजतंत्र की अभिलाषा उत्पन्न हुई तो उसके साथ ही शक्ति के माध्यम से सब चीजें नियंत्रित होने लगी। राजतंत्र के शक्ति के उस युग में शौर्य सेवा सबसे उच्च सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। तब सेना में भर्ती के लिए आज जैसे आधुनिक मापदंड नहीं थे। एक ही वंश या जाति के लोग खून के रिश्ते के आधार पर अपने मुखिया के नेतृत्व में लडते थे, युद्ध में जीत व हार होने पर लाभ व हानि से भी सब लोग ही प्रभावित होते थे। इसी आधार पर ग्राम की संरचना बनी। जो शासन में नेतृत्व करने वाली जातियां थी, गांव की सब जमीन उनके पास होती थी तथा बाकी जातियां सेवा के अन्य कार्य करती थी , जमीन के मालिक ही अन्य लोगों के जीवन की धुरी होते थे।
सम्भवतः भारत ही विश्व में सबसे पहला देश रहा होगा, जहां के मानव ने शक्ति के साथ न्यायप्रिय विचारों को अपने ऊपर स्वीकार किया। इस कारण से ही भारतीय -आर्यावर्त -जम्बू दीप के लोग विश्व के सर्वश्रेष्ठ व चरित्रवान सैनिक के रूप में स्थापित हुए। भारत ने ही ईश्वर की शक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए, भगवान् शिव को अपने आपको समर्पित कर देवो के देव महादेव को मृत्यु का देवता मानते हुए, युद्ध में हर-हर महादेव का नारा लगाकर असंख्य युद्ध लडे।
श्री राम ने विश्वामित्र के साथ वन में तथा वनवास के समय रावण के साथ युद्ध में जिस शौर्य व उच्च सैनिक चरित्र का प्रदर्शन  किया, वह आज तक भी प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में कमजोर पक्ष की ओर रहते हुए जो न्याय का मार्ग अपनाया तथा संघर्ष से विमुख हो रहे पांडव सेना के नायक अर्जुन को गीता का उपदेश देकर युद्ध के लिए जिस प्रकार तैयार किया वह आज भी भारत के साथ विश्व के लोगों का मार्गदर्शन कर रहा है।
आज के भारत में जो 2500 वर्ष पूर्व तक का लिखित इतिहास हमारे समक्ष प्रस्तुत है, यदि उसका निष्पक्षता पूर्वक अवलोकन हम करे तो जितना संघर्ष हमारे पूर्वजों ने, अपने जीवन के नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए तथा अपनी सम्पत्ति व सम्मान को बचाने के लिए किया है, शायद ही विश्व में कही हुआ हो।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार उत्तर कुरू वर्ष, जिसकी पहचान आज इतिहासकार तारिम घाटी क्षेत्र से करते हैं। इस कुरू वर्ष की पहचान जम्बू दीप से भी करते हैं। प्राचीन भारतीय समस्त जम्बू दीप के साथ एक भौगोलिक व सांस्कृतिक एकता मानते थे। आज भी हवन यज्ञ से पहले ब्राह्मण पुरोहित यजमान से संकल्प कराते समय "जम्बू दीपे भरत खण्डे भारत वर्षे" का उच्चारण करते हैं। अतः जम्बू दीप भारत की पहचान से जुडा रहा है।
ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब सिकंदर ने भारत पर हमला किया था, उस समय पौरस ने बड़ी बहादुरी से उसका सामना किया तथा अपने उच्च सैनिक चरित्र से अपने शत्रु सिकंदर को भी प्रभावित किया था। ईसा से 300 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने अपने जीवनकाल में अनेक युद्ध लडे तथा अपनी सैनिक शक्ति की धाक से विश्व को अवगत कराया। सम्राट अशोक को जम्बू दीप का सम्राट भारतीय अभिधारणा के अनुसार माना जाता है।सन् 74 में सम्राट कनिष्क जम्बू दीप के सम्राट माने गये हैं। सम्राट कनिष्क के साम्राज्य में मध्य एशिया के तत्कालीन बैक्टीया (आधुनिक बल्ख), यारकंद, खोटन एवं कश्गर, आधुनिक अफगानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तरी भारत के क्षेत्र जम्बूदीप में थे। सम्राट कनिष्क अपने साम्राज्य पर चार राजधानियों से शासन करते थे। आधुनिक पेशावर उसकी मुख्य राजधानी थी, मथुरा, त क्षशिला और कपिशा (बे ग्राम) उसकी अन्य राजधानी थी। सम्राट कनिष्क की सैन्य शक्ति का चीन भी उस समय लोहा मानता था। सम्राट कनिष्क के पश्चात भारत में सम्राट हर्षवर्धन, सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, सम्राट मिहिर कुल हूण जैसे शासक हुए जिन्होंने अपनी सैनिक शक्ति का लोहा मनवाया। परन्तु सबसे बड़ा संघर्ष भारत में सन् 730 से प्रारम्भ हुआ, जब अरब से प्रारम्भ इस्लाम की शक्ति ने  अरब, ईरान, ईराक व अफगानिस्तान तक परचम लहरा दिया  और अरब के खलीफा के गवर्नर जुनैद ने सिन्धु नदी को पार कर तत्कालीन गुर्जर देश (वर्तमान राजस्थान व गुजरात) पर हमला कर गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल को तहस-नहस कर दिया तथा भारत की सांस्कृतिक एकता के प्रतिक सोमनाथ के मन्दिर को तोड दिया। प्रतिक्रिया में गुर्जर प्रतिहार नागभट्ट प्रथम ने जुनैद को मार डाला तथा उज्जैन को अपनी राजधानी बनायी। सम्राट नागभट्ट द्वितीय ने सन् 815 में सोमनाथ के मन्दिर का पुन:निर्माण कराया तथा अजमेर में पुष्कर तीर्थ का निर्माण कराया और अपनी राजधानी कन्नौज में स्थापित कर गुर्जर प्रतिहार शासन को स्थापित कर दिया जो सम्राट मिहिर भोज के शासन काल में अपने चरम पर था। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने 250 वर्षो तक अरब की सेनाओं को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया तथा अरब के हमलों को विफल कर दिया। गुर्जर प्रतिहार शासकों ने अरब की सेनाओं को तो परास्त किया ही, उसके साथ राष्ट्रकूट व पाल राजाओं की सैनिक शक्ति का भी मुकाबला कर अपनी सैनिक सर्वोच्चता का प्रदर्शन किया।
लेकिन सन् 1000 के पश्चात मध्य एशिया में नयी सैनिक तकनीक व हथियारों का निर्माण हुआ। जिसका सफल प्रदर्शन महमूद गजनवी ने किया। उसकी सैनिक शक्ति को रोकने के लिए भारतीयों ने महान त्याग व पराक्रम किया, परन्तु सफलता नहीं मिली महमूद गजनवी हिन्दू कुश के राजा जयपाल, उसके बाद आनंद पाल व गुर्जर प्रतिहार राजा राजपाल को हराकर चला गया। परन्तु भारतीयों ने हिम्मत नहीं हारी, हमारे सैनिक युद्ध के मैदान में मृत्यु का आलिंगन कर वीर गति को प्राप्त तो हो गये लेकिन संघर्ष से विमुख नहीं हुए। गुजरात के रानी नायिका देवी सोलंकी ने सन् 1176 में मोहम्मद गोरी को पराजित कर दिया, सन् 1191 में पृथ्वीराज चौहान ने पुनः मोहम्मद गोरी को तराईन के मैदान में हरा दिया। परन्तु सन् 1192 में मोहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान को हरा कर दिल्ली में अपना शासन स्थापित करने में कामयाब हो गया।
दिल्ली में विदेशी शासन स्थापित होने के बाद भी भारतीयों ने हार नहीं मानी तथा लगातार अपना संघर्ष जारी रखा। विदेशी सत्ता पर सीधा हमला कर, उसे भगाने का जब कोई रास्ता भारतीयों को नहीं सूझा, तब भारतीय देशभक्तों ने लूट तथा नाश की नीति का अनुसरण किया। जिससे विदेशियों को देश में अपनी सत्ता सुदृढ़ करने का अवसर न मिल सके। इस समय से ही तुर्की व भारतीय सेनानियों में गुरिल्ला युद्ध प्रारम्भ हो गया। सन् 1211 में कुतुबुद्दीन एबक का दामाद इल्तुतमिश दिल्ली का शासक बना। सन् 1228 में इल्तुतमिश ने उच व मुल्तान छीनने के लिए सेना भेजी। रास्ते में सुल्तान की सेना ने व्यास नदी के क्षेत्र में पड़ाव डाला तथा वहाँ की जनता को बहुत तंग किया।शाही सेना के अत्याचार से तंग आकर एक दिन कैथल तथा गहराव के गूजरो ने संगठित होकर सेना के पडाव पर हमला कर दिया तथा शराब के नशे में चूर सेनापति रजि-उल- मुल्क को मार डाला। सन् 1265 से सन् 1287 तक बलबन के शासन काल में भारतीय जनता ने जबर्दस्त संघर्ष किया। विशेषकर दिल्ली के चारों ओर मेवों व गूजरो ने सडकें बंद कर दी। दिल्ली की स्थिति यह हो गई कि भय के कारण मध्याह्न की नवाज के बाद नगर के फाटक बंद हो जाते थे। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 28 जनवरी सन् 1303 को चित्तौड़ पर हमला कर अधिकार तो कर लिया। परन्तु इस युद्ध में रावल रतन सिंह गहलोत तथा उनके सेनानायक गोरा-बादल ने जिस बहादुरी का प्रदर्शन किया, उसके किस्से आज तक भी गांव देहात में रागनियों के माध्यम से राजस्थान ही नहीं पूरे उत्तरी भारत में सुनाये जाते हैं। इस युद्ध में लगभग 30000 भारतीय शहीद हुए। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद सन् 1321 में गहलोत वंश के हम्मीर देव ने हमला कर चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आजाद करवा लिया। सन् 1398 में समरकंद के शासक तैमूर ने भारत पर हमला कर दिया। दिल्ली पर इस समय तुगलक वंश का शासन था, भारतीय इतिहासकारों ने तैमूर के हमले को ईश्वर का प्रकोप (खुदा का कहर) कहा है। 17 दिसंबर सन् 1398 को तैमूर ने तुगलक को युद्ध में पराजित कर दिया, पराजित होने पर तुगलक गुजरात तथा उसका प्रधानमंत्री मल्लू इकबाल बुलंदशहर को भाग गया। शाही सेना के परास्त होने के बाद तैमूर के अत्याचार से पीडि़त जनता ने अपनी रक्षा के लिए स्वयं हथियार उठा लिए। वर्तमान हरियाणा में तैमूर के साथ पहला संघर्ष अहीरो ने किया, जिसमें हजारों की संख्या में अहीर शहीद हो गए। जिला रोहतक के बादली गांव के गुलिया खाप के जाट योद्धा हरवीर सिंह गुलिया तथा हरिद्वार के निकट गांव पथरी के जोगराज सिंह गूजर ने दिल्ली मेरठ व हरिद्वार में तैमूर की सेना पर लगातार हमले किए। इस क्षेत्र के रहने वाले जाट व गूजर किसानों ने प्रशिक्षण प्राप्त तैमूर की सेना का डटकर मुकाबला किया तथा अपने नायक जोगराज सिंह गूजर व हरवीर सिंह गुलिया सहित हजारों की संख्या में बलिदान दिया।
सत्ता संघर्ष की इस भगदड़ में भारत के सैनिक इतिहास में एक नया मोड़ सन् 1433 में आया, तब सिसौदिया वंश के राणा कुम्भा मेवाड़ के शासक बने। राणा कुम्भा का भारत के राजाओं में उच्च स्थान है। गुर्जर प्रतिहारो के पतन के बाद के राजा अपनी स्वतंत्रता की जहां-तहां रक्षा कर सके थे। परन्तु राणा कुम्भा ने भारतीय राजाओं को एक शक्तिशाली नेतृत्व प्रदान किया। राणा कुम्भा ने 32 दुर्ग बनवाये। जिसमें कुम्भल गढ़ का विशाल दुर्ग भी है। जिसकी दीवार चीन की दीवार के बाद विश्व में दूसरे नंबर की है। राजा बनने के सात वर्षों के अंदर ही राणा कुम्भा ने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, बूंदी, खाटू आदि के सुदृढ़ किलो को जीत लिया। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को हराकर चित्तौड़ में कीर्ति स्तम्भ बनाया। दिल्ली के सुल्तान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुल्तान अहमद शाह को भी परास्त किया। उन्हें चित्तौड़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता भी कहा जाता है वर्तमान में चित्तौड़ दुर्ग के अधिकांश भाग का निर्माण भी कराया। इस प्रकार आधुनिक राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा तथा दिल्ली के कुछ भाग जीतकर राणा कुम्भा ने मेवाड़ को महा राज्य बना दिया ।   परन्तु राणा कुम्भा के बड़े बेटे उदय सिंह प्रथम ने सन् 1468 में उनकी हत्या कर दी। सन् 1526 में बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इस समय राणा सांगा मेवाड़ के शासक थे। दिल्ली पर कब्जे को लेकर राणा सांगा व बाबर में युद्ध होना ही था, पहला आमना-सामना बयाना में हुआ, इस युद्ध में राणा सांगा ने बाबर को परास्त कर दिया। सन् 1527 में खानवा का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में पराक्रम के स्थान पर बाबर की राजनैतिक चतुराई की जीत हुई। रायसीना रियासत का राजा राय सिलहदी  युद्ध प्रारम्भ होते ही अपनी 35000 की सेना लेकर बाबर की ओर चला गया। जिससे युद्ध का रूख ही बदल गया। राणा सांगा युद्ध हार गए। भारत में मुगल सत्ता की नींव पड गई। सन् 1528 में राणा सांगा की मृत्यु हो गई। राणा सांगा का अल्प वयस्क पुत्र कुंवर विक्रम राजा बना, रानी कर्मवती शासन की देखरेख करने लगी। सन् 1535 में गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया, राज्य के शुभचिंतकों की सलाह पर रानी कर्मवती ने अपने दोनों पुत्रों विक्रम व उदय सिंह को अपने पीहर बूंदी, अपनी विश्वसनीय पन्ना के साथ भेज दिया। पन्ना का पति व पिता बाबर के साथ खानवा के युद्ध में शहीद हो गए थे। पन्ना बडी बहादुर, घुड़सवारी व शस्त्र चलाने में निपुण व वफादार प्रवृत्ति की गूजर जाति की महिला थी। बहादुर शाह के साथ युद्ध में चित्तौड़ का पतन हो गया। रानी कर्मवती ने जौहर कर आत्मबलिदान कर दिया। बहादुर शाह का कब्जा चित्तौड़ से हटने के बाद विक्रम सिंह पुनः राजा बन गया। अल्प आयु होने के कारण बनवीर कार्यवाहक राजा बन गया। पन्ना बालक उदयसिंह की राजधाय बना दी गई। बनवीर स्वयं मेवाड़ का शासक बनने के लिए षडयंत्र करने लगा। बनवीर ने मौका देख कुंवर विक्रम सिंह को मौत के घाट उतार दिया। वह उदयसिंह को मारने के लिए निकल पड़ा। परन्तु जैसे ही विक्रम की हत्या की सूचना पन्ना को प्राप्त हुईं, वह उदयसिंह की रक्षा के लिए उठ खड़ी हुई, पन्ना का सैनिक चरित्र, उसके धाय के चरित्र पर हावी हो गया। पन्ना ने मेवाड़ के असिमित साधनों के स्वामी बनवीर की योजना को ध्वस्त कर दिया, भले ही इस संघर्ष में उसके बेटे चंदन का बलिदान हो गया। पन्ना ने उदयसिंह पर आंच न आने दी। एक महिला के साहस का ऐसा उदाहरण विश्व के इतिहास में इक्का-दुक्का ही मिलता है।
यह वह समय था जब भारत में शेरशाह सूरी व हुमायूं का सत्ता संघर्ष चल रहा था, भारतीय दोनों ओर से सत्ता में सहायक की भूमिका निभा रहे थे। शेरशाह सूरी ने हुमायूं को भारत से बाहर निकाल दिया था, शेरशाह सूरी के सहयोग में एक भारतीय हेमू जो धूसर जाति का व्यापार करने वाला व्यक्ति था, ने विषेश भूमिका निभाई थी। शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात हेमू भारत का बादशाह बन गया था, उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर ली थी। लेकिन वह मुश्किल से 15 दिन ही शासक रहा। अकबर के संरक्षक बैरम खां ने पानीपत के युद्ध में हराकर हेमू का वध कर दिया। अब दिल्ली पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। अकबर भारत पर शासन करना चाहता था, अतः मेवाड़ के शासक राणा उदय सिंह, जो राजधानी चित्तौड़ में थे, से युद्ध आवश्यक था।  अकबर ने चित्तौड़ का घेरा डाल दिया। राणा उदयसिंह के रिश्तेदार जयमल राठौड़ व गल्ला राठौड़ तथा पत्ता सिसोदिया ने युद्ध की कमान सम्भाल ली। राणा उदयसिंह व राणा प्रताप को किले से सुरक्षित बाहर निकाल दिया गया। अकबर ने चित्तौड़ को जीत लिया, परन्तु इस युद्ध में जयमल राठौड़ व गल्ला राठौड़ तथा पत्ता सिसोदिया ने 25 फरवरी सन् 1568 को जो वीरता का प्रदर्शन कर शहादत दी, उससे अकबर भी प्रभावित हुए बिना न रह सका। अकबर की समझ में आ गया कि वह बलपूर्वक भारतीयों को सत्ता से हटा तो सकता है, परन्तु भारत में भारतीयों के बिना सहयोग के शासन नहीं कर सकता। अब दूसरे राजाओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मुगल सल्तनत के साथ सन्धि प्रारम्भ की गई। परन्तु उदयपुर के शासक राणा प्रताप ने अकबर से किसी प्रकार की सन्धि नहीं की। इसी कारण 15 जून सन् 1576 को हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप की अपार हानि हुई। राणा प्रताप के बहनोई शालिवाहन तोमर जो ग्वालियर के राजा थे इस युद्ध में अपने पिता, भाई व पुत्रों सहित शहीद हो गए। राणा प्रताप के 500 रिश्तेदार इस युद्ध में शहीद हुए। परन्तु राणा प्रताप ने भामाशाह द्वारा दी गई आर्थिक मदद (20000 सोने की गिन्नी तथा 25 लाख रूपये) से पुनः सेना बना कर आजीवन युद्ध किया तथा चित्तौड़ को छोड़कर उदयपुर सहित अपना भू-भाग अकबर से वापस छीन लिया। उस समय मे राणा प्रताप भारतीयों के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सामने आए। राणा प्रताप की मृत्यु के बाद उनके बेटे अमर सिंह ने जहांगीर से संधि की। भारतीय राजाओं को मुगल दरबार में उच्च पद दिये गये। अकबर की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह जहांगीर जो आमेर की राजकुमारी जोधाबाई/हरकाबाई के पुत्र थे, तथा बादशाह शाहजहां मारवाड़ (जोधपुर) की राठौड़ राजकुमारी जगत गोसाईं के पुत्र थे, भारत के सम्राट बने। इन हालातों में राजपूत राजाओं ने मुगल सल्तनत को भारत में स्थापित करने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई। मुगल सत्ता में भारतीय (राजपूत) एक प्रकार से बराबर के हिस्सेदार बन गए।जहांगीर के समय में गुरू अर्जुन देव के बलिदान की घटना से टकराव बनना प्रारम्भ हो गया, परन्तु औरंगजेब के सम्राट बनने के बाद तथा आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु के बाद भारत की बहुसंख्यक हिन्दू जनता के साथ मुगल सत्ता का टकराव प्रारम्भ हो गया। औरंगजेब ने समस्त हिन्दू जनता, जिसमें मुगल सत्ता को स्थापित करने वाले राजपूत शासक भी थे, जजिया कर लगा दिया। औरंगजेब सम्पूर्ण भारतीय जनता का इस्लामीकरण चाहता था, बादशाह के ऐसे प्रयास देख, देश की जनता ने जगह-जगह विद्रोह कर दिया। मथुरा के गोकुल जाट ने गूजर व मेव किसानों के सहयोग से मुगल सत्ता पर हमला कर दिया, इस संघर्ष में गोकुल जाट सहित सैकड़ों किसानों का बलिदान हो गया।महाराष्ट्र में शिवाजी के नेतृत्व में भारतीयों ने संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। सन् 1672 में सलहेर के युद्ध में शिवाजी के सेनापति प्रताप राव गूजर के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने आमने-सामने की लड़ाई में मुगल सेना को बुरी तरह परास्त कर दिया। सन् 1673 में उमरानी के युद्ध में मराठा सेनापति प्रताप राव गूजर ने आदिलशाह की सेना को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया। 27 फरवरी सन् 1674 को नैसरी के युद्ध में मराठा सेनापति प्रताप राव गूजर का बलिदान हो गया। जून 1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हो गया। सन् 1675 में गुरू तेगबहादुर का बलिदान होने से सिक्ख मुगल सत्ता से दो-दो हाथ करने के लिए मजबूर हो गये।सन् 1680 में औरंगजेब भारी-भरकम सेना के साथ महाराष्ट्र की ओर चल दिया। औरंगजेब के दक्षिण जाते ही मथुरा के जाटों ने राजाराम के नेतृत्व में मुगल सत्ता पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक युगीर खां को मार डाला। इस संघर्ष में राजाराम की हजारों किसानों के साथ शहादत हो गई। दक्षिण में पहुँचते ही औरंगजेब ने तीन दिन में ही आदिल शाही व कुतुब शाही को समाप्त कर दिया। परन्तु मराठा सम्भा जी के नेतृत्व में मुगल सेना से जमकर लडे। सन् 1687 में मराठा सेनापति हम्मीर राव मोहिते सतारा के पास युद्ध में शहीद हो गए। सन् 1689 को सम्भा जी भी शहीद हो गए। अब मराठा सेना की कमान शिवाजी के छोटे बेटे राजाराम ने सम्भाल ली। सन् 1699 में गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कर सिक्खों का सैन्यकरण कर दिया तथा मुगल सत्ता के विरुद्ध खुला संघर्ष छेड़ दिया। सन् 1700 में शिवाजी के छोटे बेटे राजाराम की मृत्यु हो गई। अब मराठों की ओर से युद्ध की कमान राजाराम की पत्नी ताराबाई ने सम्भाल ली। सन् 1707 में औरंगजेब दक्षिण में मराठों से लडते हुए ही मर गया। अब मुगल बादशाह ने शांति कायम करने के लिए भारतीयों से संधि प्रारम्भ कर दी। शिवाजी के पोते साहू जी महाराज को मुगल कैद से आजाद कर छत्रपति की मान्यता दे दी पेशवा का पद पैतृक कर पेशवा को ही प्रधानसेनापति बना दिया गया । भरतपुर के जाट नेता चूडामण से भी सन्धि कर ली गई। औरंगजेब 27 वर्ष दक्षिण में रहा, इतने लम्बे समय तक उत्तर भारत में राजनीतिक शक्ति मुख्य रूप से भारतीयों (राजपूतों) के हाथों में रही। राजपूत स्वयं सम्राट भले ही न रहे हो, परन्तु भारतीय जनता के वे ही शासक रहे। भारतीय जनमानस में राजपूत शब्द की ऐसी छाप पडी कि जो राजपूत जाति के भी नहीं थे वो अपने आगे राजपूत नाम लगाने लगे। जैसे लोधा राजपूत, रवा राजपूत, मेढ राजपूत, कश्यप राजपूत आदि।
सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद कुछ शांति हुई, परन्तु सिक्खों के साथ संघर्ष कम नहीं हुआ। गुरु गोविंद सिंह जी की मृत्यु के बाद सिक्खों की कमान बंदा बैरागी ने सम्भाल ली। बंदा बैरागी ने सर हिन्द के नबाब वजीर खा को मार डाला जो गुरु पुत्रों की हत्या का दोषी था।

बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 12 मार्च तक सात दिनों में 100 की संख्या में सिक्खों की हत्या की जाती रही । 16 जून को बादशाह फ़ार्रुख़शियार के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों की हत्या कर दी गई ।कुछ समय के लिए सिक्ख नेतृत्व विहिन हो गये। उधर मराठा शक्ति बढने लगी। जिस कारण मुगल बादशाह से टकराव की स्थिति बन गई। सन् 1737 में भोपाल के पास युद्ध में पेशवा बाजीराव ने मुगल सेना जो आमेर के राजा जयसिंह द्वितीय के नेतृत्व में थी को हरा कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर दिया। पेशवा जो कि ब्राह्मण थे ने सन् 1750 में अल्प वयस्क छत्रपति पर दबाव बना कर पूरी शक्ति अपने हाथ में ले ली तथा हेडक्वार्टर सतारा से बदल कर पूना में ले आये।
1748 और 1765 के बीच सिक्खों के बुड्ढा और तरुण दलों के पाँचों जत्थों ने द्रुत गति से अपना प्रसार किया और अनेक राज्यसंघ बने जो मिसलें कहलाई। निम्नलिखित 12 मिसलें मुख्य थीं :
(1) भंगी- इसे छज्जासिंह ने स्थापित किया, बाद में भन्नासिंह और हरिसिंह ने भंगी मिसल का नेतृत्व किया। इसके केन्द्र अमृतसर, रावलपिंडी और मुलतान आदि स्थानों में थे।
(2) अहलूवालिया- जस्सासिहं अहलूवालिया के नेतृत्व में स्थापित हुई। इसका प्रधान केंद्र कपूरथला था।
(3) रामगढ़िया- इस समुदाय को नंदसिंह संघानिया ने स्थापित किया। बाद में इसका नेतृत्व जस्सासिंह रामगढ़िया ने किया इसके क्षेत्र बटाला, दीनानगर तथा जालंधर दोआब के कुछ गाँव थे।
(4) नकई- लाहौर के दक्षिण-पश्चिम में नक्का के हरिसिंह द्वारा स्थापित।
(5) कन्हैया- कान्ह कच्छ के जयसिंह के नेतृत्व में गठित इस मिसलश् के क्षेत्र गुरदासपुर, बटाला, दीनानगर थे। यह रामगढ़िया मिसल में मिला जुला था।
(6) उल्लेवालिया- गुलाबसिंह और तारासिंह गैवा के नेतृत्व में यह मिसल थी। राहों तथा सतलुज के उत्तर-दक्षिण के इलाके इसके मुख्य क्षेत्र थे।
(7) निशानवालिया- इसके मुखिया संगतसिंह और मोहरसिंह थे। इसके मुख्य क्षेत्र अंबाला तथा सतलुज के दक्षिण और दक्षिण पूर्व के इलाके थे।
(8) फ़ैजुल्लापुरिया (सिंहपुरिया)- नवाब कपूर सिंह द्वारा स्थापित, जालंधर और अमृतसर जिले इसके क्षेत्र थे।
(9) करोड़सिंहिया- 'पंज गाई' के करोड़ सिंह द्वारा स्थापित। बाद में बघेलसिंह इसके मुखिया हुए। कलसिया के निकट यमुना के पश्चिम और होशियारपुर जिले में इस मिसल के क्षेत्र थे।
(10) शहीद- दीपसिंह इस मिसल के अगुआ थे। बाद में गुरुबख्शसिंह ने उत्तराधिकार ग्रहण किया। दमदमा साहब और तलवंडी साबो इस मिसल के मुख्य केन्द्र थे।
(11) फूलकियाँ- पटियाला, नाभा और जींद के सरदारों के पूर्वज फूल के नाम पर स्थापित।
(12) सुक्करचक्किया- चढ़तसिंह ने अपने पूर्वजों के निवास ग्राम सुक्करचक के नाम पर स्थापित किया।


अब मुगल सत्ता नाम मात्र की ही रह गई थी,दिल्ली के निकट मेरठ के किला-परि क्षत गढ में राजा जैत सिंह नागर तथा हरिद्वार के निकट लंढोरा में राजा मनोहर सिंह को मुगल बादशाह द्वारा राजा की मान्यता देनी पड़ी।

इस संघर्ष के समय में भारत में यह सनातन संस्कृति की मान्यता बनी कि क्षत्रियों के 36 कुलों/जातियों ने जिनके नेतृत्व में समस्त भारतीय थे,ने लगातार विदेशी हमलावरों से संघर्ष किया। भारत के जब आज भी किसी अन्याय के विरोध में खड़े होते हैं तो 36 जातियों का ही नारा लगाते हैं।इन 36 जातियों की तीन सूची अब तक प्राप्त हुई है।जो निम्न है -

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने पृथ्वीराज रासो वर्णित पद्य को अपनी पुस्तक 'मिडाइवल हिन्दू इण्डिया' में 36 शाखाओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि रवि, राशि और यादव वंश तो पुराणों में वर्णित वंश है, इनकी 36 शाखाएँ हैं। एक ही शाखा वाले का उसी शाखा में विवाह नहीं हो सकता। इसे नीचे से ऊपर की ओर पढ़ने से क्रमशः निम्न शाखाएँ हैः 1. काल छरक्के 'कलचुरि' यह हैहय वंश की शाखा है। 2. कविनीश 3. राजपाल 4. निकुम्भवर धान्यपालक 6. मट 7. कैमाश 'कैलाश' 8. गोड़ 9. हरीतट्ट 10. हुल-कर्नल टॉड ने इसी शाखा को हुन लिख दिया है जिससे इसे हूणों की भा्रंति होती है। जबकि हुल गहलोत वंश की खांप है। 11. कोटपाल 12. कारट्टपाल 13. दधिपट-कर्नल टॉड साहब ने इसे डिडियोट लिखा है। 14. प्रतिहार 15. योतिका टॉड साहब ने इसे पाटका लिखा है। 16. अनिग-टॉड साहब ने इसे अनन्ग लिखा है। 17. सैन्धव 18. टांक 19. देवड़ा 20. रोसजुत 21. राठौड़ 22. परिहार 23. चापोत्कट 'चावड़ा' 24. गुहीलौत 25. गोहिल 26. गरूआ 27. मकवाना 28. दोयमत 29. अमीयर 30. सिलार 31. छदंक 32. चालुक्य 'चालुक्य' 33. चाहुवान 34. सदावर 35. परमार 36. ककुत्स्थ ।


श्री मोहनलाला पांड्या ने इस सूची का विश्लेषण करते हुए ककुत्स्थ को कछवाहा, सदावर को तंवर, छंद को चंद या चंदेल, दोयमत को दाहिमा लिखा है। इसी सूची में वर्णित रोसजुत, अनंग, योतिका, दधिपट, कारट्टपाल, कोटपाल, हरीतट, कैमाश, धान्यपाल, राजपाल आदि वंश आजकल नहीं मिलते। जबकि आजकल के प्रसिद्ध वंश वैस, भाटी, झाला, सेंगर आदि वंशों की इस सूची में चर्चा ही नहीं हुई।


मतिराम के अनुसार छत्तीस कुल की सूची इस प्रकार है:-

1. सुर्यवंश 2. पेलवार 3. राठौड़ 4. लोहथम्भ 5. रघुवंशी 6. कछवाहा 7. सिरमौर 8. गहलोत 9. बघेल 10. काबा 11. सिरनेत 12. निकुम्भ 13. कौशिक 14. चन्देल 15. यदुवंश 16. भाटी 17. तोमर 18. बनाफर 19. काकन 20.रहिहोवंश 21. गहरवार 22. करमवार 23. रैकवार 24. चंद्रवंशी 25. शकरवार 26. गौर 27. दीक्षित 28. बड़वालिया 29. विश्वेन 30. गौतम 31. सेंगर 32. उदयवालिया 33. चैहान 34. पडि़हार 35. सुलंकी 36. परमार। इन्होनें भी कुछ प्रसिद्ध वंशों को छोड़कर कुछ नये वंश लिख दिये है। इन्होंने भी प्रसिद्ध बैस वंश को छोड़ दिया है।


कर्नल टॉड के पास छत्तीस कुलों की पाँच सूचियाँ थी जो उन्होंने इस प्रकार प्राप्त की थी:-

यह सूची उन्होंने मारवाड़ के अंतर्गत नाडौल नगर के एक जैन मंदिर के यती से ली थी। यह सूची यती जी ने किसी प्राचीन ग्रंथ से प्राप्त की थी।

यह सूची उन्होंने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि चन्दबरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासों से ग्रहण की थी।

यह सूची उन्होंने कुमारपाल चरित्र से ली थी। यह ग्रंथ महाकवि चन्दबरदाई के समकालीन जिन मण्डोपाध्याय कृत हैं। इसमें अनहिलावाड़ा पट्टन राज्य का इतिहास है।

यह सूची खींचियों के भाट से मिली थीं

पाँचवीं सूची उन्हें भाटियों के भाट से मिली थी।


इन सभी सूचियों से सामग्री निकालकर उन्होंने यह सूची प्रकाशित की थी:-

1. ग्रहलोत या गहलोत 2. यादु (यादव) 3. तुआर 4. राठौर 5. कुशवाहा 6. परमार 7. चाहुवान या चैहान 8. चालुक या सोलंकी 9. प्रतिहार या परिहार 10. चावड़ा या चैरा 11. टाक या तक्षक 12. जिट 13. हुन या हूण 14. कट्टी 15. बल्ला 16. झाला 17. जैटवा, जैहवा या कमरी 18. गोहिल 19. सर्वया या सरिअस्प 20. सिलार या सुलार 21. डाबी 22. गौर 23. डोर या डोडा 24. गेहरवाल 25. चन्देला 26. वीरगूजर 27. सेंगर 28. सिकरवाल 29. बैंस 30. दहिया 31. जोहिया 32. मोहिल 33. निकुम्भ 34. राजपाली 35. दाहरिया 36. दाहिमा।

जब हम इन तीनों सूचियों का अध्धयन करते हैं तो देखते हैं कि प्रत्येक सूची में जातियों के नाम अलग है।जो इस बात को प्रमाणित करता है कि भारत के सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी, यदि जन्म पर आधारित होती तो प्रत्येक सूची में जातियों के नाम जुड़ तो सकते थे, परंतु हटते नही।


सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों ने राजनीतिक साजिश कर मीरजाफर की सहायता से बंगाल पर अधिकार कर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का प्रारम्भ कर दिया। ऐसी परिस्थिति में दिल्ली में मुस्लिम सत्ता को बनाए रखने के लिए रूहेला सरदार नजीबुद्दोला ने अफगान के शासक अहमदशाह अब्दाली को बुला लिया। सन् 1761 मे मराठो और अब्दाली के बीच पानीपत में घमासान युद्ध हुआ। जिसमें मराठा सेना हार गई। अफगानो का भय ज्यादा समय तक नहीं रहा। सन् 1763 में भरतपुर के राजा सूरजमल तथा उनके बाद उनके बेटे जवाहर सिंह ने होल्कर व सिक्खों को साथ लेकर  दिल्ली पर हमला बोल दिया। सन् 1771 में मराठो ने पुनः अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए महादजी शिंदे (सिंधिया) ने दिल्ली से अफगान शासन का अंत कर मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को गद्दी पर बैठा दिया। मुगल बादशाह अब नाम का ही शासक था। सन् 1783 में करोड़सिंहिया मिसल के नायक जट सिक्ख बघेल सिंह ने 30 हजार की सेना लेकर दिल्ली पर हमला कर दिया। दिल्ली पहुंच कर जहां बघेल सिंह की सेना रूकी वहां आज तीस हजारी कोर्ट स्थापित है। अहलूवालिया मिसल के जस्सा सिंह अहलूवालिया व बघेल सिंह ने लाल किले पर कब्जा कर खालिस्तानी ध्वज फहरा दिया। बघेल सिंह नौ महीने दिल्ली पर काबिज रहा तथा उसने दिल्ली में सात गुरुद्वारों का निर्माण कराया। जो निम्न है -गुरूद्वारा माता सुंदरी, गुरुद्वारा बंगला साहिब, गुरूद्वारा रकाबगंज, गुरूद्वारा शीशगंज, गुरूद्वारा मजनू का टीला, गुरूद्वारा बाला साहिब, गुरूद्वारा मोतीबाग। रूहेला सरदार नजीबुद्दोला के पोते गुलाम कादिर ने दिल्ली पर कब्जा कर मुगल बादशाह की आंख फोड़ कर अंधा कर दिया। मराठा महादजी शिंदे ने गुलाम कादिर पर आक्रमण कर मार डाला तथा अक्टूबर 1789 में अंधे शाहआलम को पुनः दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया। सन् 1801 में महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के राजा बन गए।सन् 1802 में रणजीत सिंह ने सियालकोट पर अधिकार कर लिया। सन् 1803 में द्वितीय मराठा और अंग्रेज़ों के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेज जीत गए। दिल्ली के आसपास का इलाका अंग्रेजों के अधीन हो गया। सन् 1806 में महाराजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से संधि कर ली कि वह सतलज नदी के पार दखल नहीं देंगे। अँग्रेज उनके क्षेत्र में दखल न दे। महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति हरि सिंह नलवा ने सन् 1807 में कसूर, सन् 1818 में मुल्तान को जीत लिया। इधर सन् 1818 में अंग्रेजों ने पेशवा को परास्त करने के लिए तत्कालीन छत्रपति प्रताप सिंह को विश्वास में लेकर पेशवा पद को समाप्त करवा दिया। अब संघर्ष के समय गायकवाड़, होल्कर सहित अन्य मराठा पेशवा से अलग हट गए, इन परिस्थितियों में अंग्रेजों ने पेशवा को परास्त कर सम्पूर्ण क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया। राजस्थान की तथा देश की अन्य रियासतों ने ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि कर अधिनता स्वीकार कर ली। मुगल सत्ता का भार उतरा भी न था कि अंग्रेजी सत्ता का अतिक्रमण हो गया। लेकिन भारतीयों ने अंग्रेजी सत्ता का तुरंत विरोध प्रारंभ कर दिया। सन् 1822 में वर्तमान हरिद्वार जिले में स्थित कुंजा-बहादुरपुर के गूजर किसानों ने अपने नेता विजय सिंह - कल्याण सिंह के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष किया। इस संघर्ष में विजय सिंह - कल्याण सिंह सहित सैकड़ों किसानों की शहादत हो गई। सन् 1834 में हरि सिंह नलवा ने पेशावर सन् 1836 में खैबर हिल्स में जमरूद को जीत लिया। नलवे ने अफगान सेना को खैबर दर्रे के उस पार खदेड़ दिया। जहां से भारत पर सैकड़ों वर्ष से हमले होते आ रहे थे। सन् 1839 में शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद खालसा सेना में अव्यवस्था फैल गई और सन् 1845 में अंग्रेजों और सिक्खों के बीच युद्ध हुआ। आपसी मनमुटाव के कारण सिक्ख सेना के सेनापति लाल सिंह अपनी सेना लेकर लाहौर चले गए। जम्मू के राजा गुलाब सिंह का झुकाव भी अंग्रेजों की ओर हो गया। अंग्रेज राजनैतिक पेतरेबाजी से युद्ध जीत गये। अंग्रेजों ने सिक्खों पर डेढ़ करोड़ रुपये का युद्ध जुर्माना लगाया। 50 लाख रूपये तो सिक्खों ने दे दिए। कश्मीर व लेह-लद्दाख का क्षेत्र 75 लाख रुपये में जम्मू के राजा गुलाब सिंह को दे दिया गया। अब सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था। लेकिन अंग्रेज भारतीयों के सैनिक चरित्र से अनजान थे जिसका प्रकटीकरण सन् 1857 की 10 मई को मेरठ में हुआ। मेरठ की छावनी में अंग्रेज सैनिक भारतीय सैनिकों से अधिक थे। हथियार भी अंग्रेज सैनिकों के पास अधिक थे, लेकिन मेरठ के सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर के माध्यम से पूरी गुर्जर जाति ने मेरठ में सेना का सहयोग कर हमला कर दिया। 27 जून 1857 को किला परि क्षत गढ़ के क्रांतिकारी राव कदम सिंह ने बरेली के क्रांतिकारी नेता बखत खां की सेना को गंगा पार करा कर दिल्ली जाने का मार्ग साफ कर दिया। मेरठ में दो जेल 10 मई की रात को तोड दी गई। नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस (आधुनिक उत्तर प्रदेश) में 27 जेल तोड दी गई। पूरे भारत में 41 जेल तोड दी गई, भारत में सन् 1857 में एक लाख पचास हजार भारतीय सैनिक थे। 45 हजार अँग्रेज सिपाही थे, 70 हजार भारतीय सैनिकों ने क्रांति में भागीदारी की, लेकिन इन 70 हजार सैनिकों के साथ जब भारतीय जनता ने भागीदारी की तो इस क्रांति पर काबू पाने के लिए एक लाख बारह हजार सैनिक यूरोप से बुलाये गए, तीन लाख चालीस हजार सैनिक भारत से ही भर्ती किए गए।भारत को आजाद कराने के लिए बहादुर शाह जफर द्वितीय, मिर्जा मुगल, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब पेशवा, ब्रिजिश कदर,तात्या टोपे, बेगम हजरत महल, अवध, बाबू कुंवर सिंह, बल्लभगढ़ के नाहर सिंह, राव तुलाराव, शाहमल सिंह, दादरी के उमराव सिंह भाटी जी-जान से लडे, वही कुछ रजवाड़े खुलकर अंग्रेजों के साथ खडे हो गए। जिनमें जयपुर, बीकानेर, मारवाड़ (जोधपुर), रामपुर, कपूरथला, नाभा, भोपाल, सिरोही, मेवाड़ (उदयपुर), पटियाला, सिरमौर, अलवर, भरतपुर, बूंदी, जावरा, बीजावर, अजयगढ, रीवा, केन्दूझांड, हैदराबाद, कश्मीर मुख्य रूप से थे। एक नवंबर सन् 1858 तक चले इस युद्ध में लगभग तीन लाख भारतीय शहीद हुए। भारतीय अंग्रेजों को भारत से तो बाहर ना कर पाए, परन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से सत्ता निकल कर रानी विक्टोरिया के हाथ में चली गई।सन् 1891 में अंग्रेजी शासन ने एक सेंसस कराया। भारतीयों के सैनिक चरित्र को लेकर सन् 1891 की भारतीय जनगणना  तथा ब्रिटिश भारत काल में प्रचलित ‘यौद्धा जाति सिद्धांत’ ‘मार्शल रेस थ्योरी’ काफी महतवपूर्ण है। सन् 1891 की भारतीय जनगणना में खास बात यह थी की इसमें व्यवसाय के आधार पर जनसख्या की गिनती की गई थी | 1891 की भारतीय जनगणना के उच्च आयुक्त ए. एच. बैंस ने भारतीय जनसख्या को कृषक, पशुपालक, पेशेवर, व्यापारी, कारीगर, घुमंतू आदि 21 वर्गों में विभाजित किया हैं| इसमें प्रथम कृषक वर्ग (Agricultural Class) को पुनः तीन भाग में विभाजित किया गया हैं- 1. सैनिक एवं प्रभू जाति  (Military and Dominant) 2. अन्य कृषक (Other Cultivators) 3. खेत मजदूर (Field Labourers). ए. एच. बैंस लिखते हैं कि जनसख्या का 30% भाग कृषक वर्ग के अंतर्गत आता हैं, जिसके प्रथम सैनिक भाग में वो जातियां और कबीले आते हैं जो इतिहास के विभिन्न कालो में अपने प्रान्तों में शासन किया हैं|1891 की भारतीय जनगणना में  सैनिक एवं प्रभू जातियां जनसख्या का लगभग 10 % थी|
1891 की भारतीय जनगणना की जनरल रिपोर्ट के अनुसार भारत में चौदह सैनिक जातियां और कबीले हैं| 1. राजपूत  (Rajput)
2. जाट (Jat) )
3. गूजर (Gujar)
4. मराठा (Maratha) 
5. बब्बन (Babban)
6. नायर (Nair)
7. कल्ला (Kalla)
8. मारवा (Marwa)
9. वेल्लमा (Vellama)
10.  खंडैत (khandait)
11.  अवान (Awan)
12.  काठी (Kathi)
13.  मेव (Meo)
14. कोडगु (Kodagu)
उन्नीसवी शताब्दी के अंतिम तथा बीसवी शताब्दी के आरभिक दशको में भारतीय सेना के उच्च अधिकारियो का एक वर्ग यह मानता था कि भारत में कुछ जातियां और कबीले अन्यो से अधिक लडाकू योद्धा हैं तथा वो इन्हें ही सेना में भर्ती करने के समर्थक थे| भारतीय सेना के प्रमुख कमांडर फ़ील्ड मार्शल रोबर्ट्स (1885- 1893 ई.) तथा लार्ड किचेनेर (Lord Kitchener) (1902- 1909 ई.) सेना के भर्ती मामलो में इसी योद्धा जाति सिधांत  ‘मार्शल रेस थ्योरी’ के समर्थक थे अतः इनके कार्यकाल में लडाकू योद्धा जातियों की खोजबीन की गई|
इसी क्रम में मेजर ए. एच. बिंगले ने भारत सरकार के आदेश पर जाट और गूजर जातियों का सर्वेक्षण किया और 1899 में “हिस्ट्री, कास्ट्स एंड कल्चर ऑफ़ जाट्स एंड गूजर्स” नामक एक पुस्तक लिखी जिसमे उसने जाट और और गूजरों के भोगोलिक वितरण, धर्म, रीति-रिवाज़, इतिहास और उनके सैनिक चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उसने इन्हें बहादुर और श्रेष्ठ सैनिक बताया हैं| भारत सरकार द्वारा मेजर ए. एच. बिंगले से इस पुस्तक को लिखवाने का उद्देश्य जाटो और गूजरों की भर्ती से सम्बंधित सैन्य अधिकारियो के लिए हस्तपुस्तक (Handbook) उपलब्ध कराना था, जिसके आधार पर इन जातियों से सम्बंधित उच्च कोटि के सैनिक भर्ती  किये जा सके| इस पुस्तक के आधार पर ब्रिटिश भारत में जाट और गूजरों को सेना में भर्ती किया गया| मेजर ए. एच. बिंगले ने अपने इस अध्ययन का दायरा बढ़ाते हुए अहीरों को भी इसमें सम्मिलित किया तथा 1904 में “कास्ट हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स” पुस्तक लिखी| इसी क्रम में बी. एल. कोले ( B L Cole) ने 1924 में “हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : राजपूताना क्लासेज लिखी| इसी प्रकार आर. सी. क्रिस्टी (R C Christie) ने 1937 में हैंडबुक्स फॉर दी इंडियन आर्मी : जाट्स, गूजर्स एंड अहीर्स” पुस्तक का संपादन किया| भारत सरकार के आदेश पर सैन्य अधिकारियो ने इसी प्रकार की हैंडबुक्स राजपूत, डोगरा, मराठा, गोरखा आदि जातियों पर भी लिखी थी। 1857 की जनक्रांति में गूजर, रांघड, बंजारा, लोध समुदायों ने आदि बड़े पैमाने पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष किया था| ब्रिटिशराज के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले इन समुदायों को भी अपराधी जाति अधिनियम, 1871 में निरुद्ध किया गया तथा उनकी अपराधिक छवि प्रस्तुत की गई| ब्रिटिश काल में, इसका विपरीत प्रभाव इन जातियों की सैन्य भर्ती पर भी पड़ा| 28 जुलाई सन् 1914 से प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ।जब यह युद्ध आरम्‍भ हुआ था उस समय भारतऔपनिवेशिक शासन के अधीन था। यह काल भारतीय राष्ट्रवाद का परिपक्वता काल था। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की भागेदारी के प्रति राष्ट्रवादियों का प्रत्युत्तर तीन अलग-अलग प्रकार का था-
(१)नर्म दल के नेताओं ने इस युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन ताज के प्रति निष्ठा का कार्य समझा तथा उसे पूर्ण समर्थन दिया।(२) गर्म दल , (जिनमें तिलक भी सम्मिलित थे) ने भी युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत में स्वशासन के संबंध में ठोस कदम उठायेगा।(३) जबकि क्रांतिकारियों का मानना था कि यह युद्ध ब्रिटेन के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करने का अच्छा अवसर है तथा उन्हें इस सुअवसर का लाभ उठाकर साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहिए।
इस युद्ध में भारतीय सिपाही सम्‍पूर्ण विश्‍व में अलग-अलग लड़ाईयों में लड़े। भारत ने युद्ध के प्रयासों में जनशक्ति और सामग्री दोनों रूप से भरपूर योगदान किया। भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम , एडीन, अरब, पूर्वी अफ्रीका, गाली पोली, मिस्र, मेसोपेाटामिया, फिलिस्‍तीन, पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्‍व में विभिन्‍न लड़ाई के मैदानों में बड़े पराक्रम के साथ लड़े। गढ़वाल राईफल्स रेजिमेण्ट के दो सिपाहियों को संयुक्त राज्य का उच्चतम पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था।
युद्ध आरम्भ होने के पहले जर्मनों ने पूरी कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जा सके। बहुत से लोगों का विचार था कि यदि ब्रिटेन युद्ध में लग गया तो भारत के क्रान्तिकारी इस अवसर का लाभ उठाकर देश से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने में सफल हो जाएंगे। किन्तु इसके उल्टा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का मत था स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए इस समय ब्रिटेन की सहायता की जानी चाहिए और जब 4 अगस्त को युद्ध आरम्भ हुआ तो ब्रिटेन ने भारत के नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया। रियासतों के राजाओं ने इस युद्ध में दिल खोलकर ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की। कुल 8 लाख भारतीय सैनिक इस युद्ध में लड़े जिसमें कुल 47746 सैनिक मारे गये और 65000 घायल हुए। इस युद्ध के कारण भारत की अर्थव्यवस्था लगभग दिवालिया हो गयी थी।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन ने ब्रिटिश चिन्तकों को भी चौंका दिया था। भारत के नेताओं को आशा थी कि युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन से ख़ुश होकर अंग्रेज भारत को इनाम के रूप में स्वतंत्रता दे देंगे या कम से कम स्वशासन का अधिकार देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उलटे अंग्रेज़ों ने जलियाँवाला बाग नरसंहार जैसे घिनौने कृत्य से भारत के मुँह पर तमाचा मार दिया। 11 अक्टूबर सन् 1918 को युद्ध समाप्त हो गया।
द्वितीय विश्व युद्ध 1 सितम्बर सन् 1939 को प्रारम्भ हो गया।       1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना में मात्र 200,000 लोग शामिल थे।युद्ध के अंत तक यह इतिहास की सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना बन गई जिसमें कार्यरत लोगों की संख्या बढ़कर अगस्त 1945 तक 25 लाख से अधिक हो गई। 
भारतीय सेना ने इथियोपिया में इतालवी सेना के खिलाफ; मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया में इतालवी और जर्मन सेना के खिलाफ; और इतालवी सेना के आत्मसमर्पण के बाद इटली में जर्मन सेना के खिलाफ युद्ध किया। हालांकि अधिकांश भारतीय सेना को जापानी सेना के खिलाफ लड़ाई में झोंक दिया गया था, सबसे पहले मलाया में हार और उसके बाद बर्मा से भारतीय सीमा तक पीछे हटने के दौरान और आराम करने के बाद ब्रिटिश साम्राज्य की अब तक की विशालतम सेना के एक हिस्से के रूप में बर्मा में फिर से विजयी अभियान पर आगे बढ़ने के दौरान. इन सैन्य अभियानों में 36,000 से अधिक भारतीय सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी, 34,354 से अधिक घायल हुए  और लगभग 67,340 सैनिक युद्ध में बंदी बना लिए गए।उनकी वीरता को 4,000 पदकों से सम्मानित किया गया और भारतीय सेना के 38 सदस्यों को विक्टोरिया क्रॉस या जॉर्ज क्रॉस प्रदान किया गया।2 सितम्बर सन् 1945 को द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया।
अब भारत के स्वाधीन होने का समय आ गया। लार्ड माउंटबेटन भारत (ब्रिटिश इंडिया) के गवर्नर जनरल थे। भारत में उस समय 17 राज्य थे। विभाजन के समय 11 राज्य भारत को मिले, तीन राज्य पाकिस्तान को मिले। आसाम, बंगाल व पंजाब राज्य का विभाजन कर भारत व पाकिस्तान को दे दिए गए। पाकिस्तान का गवर्नर जनरल जिन्ना को बना दिया गया। इसी अनुपात में सेना का बंटवारा भी कर दिया गया। राजपूत रेजिमेंट में आधे मुसलमान सिपाही थे, जो पाकिस्तान को दे दिए गए। पंजाब रेजिमेंट में से गूजर सिपाही लेकर राजपूत रेजिमेंट में समायोजित कर दिए गए।
विभाजन के बाद के महीनों में दोनों नये देशों के बीच विशाल जन स्थानांतरण हुआ।  सीमा रेखाएं तय होने के बाद लगभग 1.45 करोड़ लोगों ने हिंसा के डर से सीमा पार करके बहुमत संप्रदाय के देश में शरण ली। 1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। इसमें से 78 प्रतिशत स्थानांतरण पश्चिम में, मुख्यतया पंजाब में हुआ।इतना ही नहीं कश्मीर को लेकर भारत व पाकिस्तान में युद्ध हो गया। सन् 1962 में भारतीय सेना को चीन के साथ युद्ध लडना पडा। सन् 1965 में पुनः पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ। सन 1971 में बंग्लादेश को लेकर फिर पाकिस्तान व भारत में युद्ध हुआ। जिसे विजय दिवस के रूप में भारतवासी मनाते हैं।
         विजय दिवस 16 दिसम्बर को 1971 के युद्ध में  पाकिस्तान पर भारत की जीत के कारण मनाया जाता है। इस युद्ध के अंत के बाद 93,000 पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था। साल 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी, जिसके बाद पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया, जो आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। यह युद्ध भारत के लिए ऐतिहासिक और हर देशवासी के दिल में उमंग पैदा करने वाला साबित हुआ।
देश भर में 16 दिसम्बर को 'विजय दिवस' के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1971 के युद्ध में करीब 3,900 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे, जबकि 9,851 घायल हो गए थे।
पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी बलों के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने भारत के पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था, जिसके बाद 17 दिसम्बर को 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया।भारत ने युद्धबंदी सिपाहियों के साथ कोई अपमान जनक व्यवहार नहीं किया। जो भारतीयों के उच्च सैनिक चरित्र को दर्शा गया।
इस लेखन का उद्देश्य भी इसी विषय पर प्रकाश डालना है कि भारत सदा अहिंसा व शांति का समर्थक रहा है परन्तु कायरता से भारतीयों का कोई वास्ता नहीं रहा। कायरता और हिंसा में से यदि चुनाव करना पड़ा तो हिंसा को ही चुना। मुस्लिम व ईसाई धर्म के मानने वालो की विश्व में जहां भी 25 वर्ष तक हुकूमत रही, वहां दूसरी पूजा पद्धति बची नहीं। परन्तु भारत में सैकड़ों सालों के शासन के बाद भी भारतीयों को कोई अपने मूल से नहीं उखाड़ सका, यह सब हमारे पूर्वजों के उच्च सैनिक चरित्र व बलिदान के कारण ही सम्भव हो सका।
समाप्त
संदर्भ ग्रंथ
1- विद्याधर महाजन -प्राचीन भारत का इतिहास।
2- आशीर्वादी लाल श्री वास्तव -भारत का इतिहास।
3- डां सुशील भाटी -गुर्जरों का सैनिक चरित्र।