बुधवार, 9 अक्टूबर 2019

प्रतिनिधत्व/आरक्षण और भारत-लेखक अशोक चौधरी

आरक्षण/प्रतिनिधित्व को लेकर आज भारत में सबसे अधिक सुगबुगाहट है। कुछ लोगो का यह कहना है कि आरक्षण के कारण भारत में प्रतिभा हनन हो रहा है, इसलिए इसे समाप्त कर देना ही देश हित में है।

वहीं कुछ लोग यह कहते हैं कि आरक्षण गरीबी हटाओ अभियान नहीं है,यह भारत में रहने वाले प्रत्येक वर्ग को प्रतिनिधित्व देता है,जो इस प्रतिनिधित्व को समाप्त करने के लिए कहते हैं वो एक तरह से देशद्रोह कर रहे हैं।
आइए हम उपरोक्त दोनों विचारों का विश्लेषण करते हैं।

शासन का उद्देश्य जनता को  न्याय और सुरक्षा प्रदान करना होता है।न्याय का आधार करूणा (संवेदनशीलता) है तथा करूणा का आधार सम्बंध है। लेकिन शासन चलाने के लिए वित्त (धन)तथा सेना का होना जरूरी है।हम भारत के इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि यहां सैकड़ों वर्षों तक धन व सेना के बल पर विदेशी भी शासन करने में सफल रहे,जिनका इस देश के नागरिकों को न्याय व सुरक्षा देने का कोई उद्देश्य नहीं था। इसलिए समय समय पर अपनी शक्ति का प्रयोग कर लोगों ने सत्ता पर अधिकार करने का प्रयास किया है।

 रामायण काल में जब राम का राजतिलक किया जा रहा था,  तब रानी केकई ने अपनी शक्ति का प्रयोग करके राम को कानून के द्वारा प्राप्त अधिकार को समाप्त करके अपने पुत्र भरत को प्रशासनिक पद पर बैठा दिया। जिसका परिणाम यह निकला कि पूरा राजपरिवार दुख के सागर में डूब गया तथा रामायण ग्रन्थ की रचना हो गई। केकई को आज तक बदनामी मिल रही हैं। राजा दशरथ असमय मृत्यु को प्राप्त हुए। सीता माता की परेशानी की कोई सीमा नही रही। लक्ष्मण जी का आत्मबलिदान हुआ, राम, भरत व शत्रुघ्न ने जल समाधि लेकर संसार से प्रस्थान करना पड़ा।

 यदि गुण के सामने क्षेत्र जाति व आयु मे से किसी का चुनाव करना पडे तो गुण का ही चुनाव करना लाभकारी होता है, इसलिए ही धृतराष्ट्र के बडा होने पर भी उसके छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया था। लेकिन शकुनि ने छल के बल का प्रयोग करके सत्ता पर कौरवों का अधिकार करवा दिया था।

एक समय जब युधिष्ठिर से प्रश्न किया गया कि राज चलाते समय अपने देश के नागरिकों के साथ कैसा बर्ताव किया जाना चाहिए,तब युधिष्ठिर ने कहा था कि सब एक तुला पर नहीं तुल सकते।
महाभारत में कोरवो ने पांडवो को पाच गांव का प्रतिनिधित्व/आरक्षण भी नहीं दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि दोनों में घमासान युद्ध हो गया तथा प्रतिनिधित्व ना देने वाला पक्ष पुरी तरह समाप्त हो गया।
आधुनिक युग में जब अकबर ने भारत में शासन स्थपित किया तो लंबे समय तक शासन स्थपित रहे, इसके लिए भारतीयों को मंसबदार के रूप में प्रतिनिधित्व दिया, परंतु ओरंगजेब ने शासन में भारतीयों के प्रतिनिधित्व को समाप्त करने का प्रयास किया, जबकि औरंगजेब की  सगी बहन जाहां आरा ने औरंगजेब को उसके द्वारा किए जा रहे कार्यों के कुपरिणाम के बारे में चेताया था, परिणाम यह निकला कि उसके काल से ही मुगल सत्ता समाप्ति की ओर चल दी।
मुगलों के बाद अंग्रेजो का शासन प्रारंभ हुआ। पहले तो उन्होंने भारतीयों राजाओं से संधि की, परंतु  अंग्रेजों ने  सोचा कि भारतीय उनसे कम बुद्धिमान है,इसलिए भारतीयों को राज करने का अधिकार नहीं है, अतः अंग्रेजों ने राज्य  हड़पने की नीति के द्वारा भारतीयों के प्रतिनिधित्व को समाप्त करने का प्रयास किया। सन् 1825 में एक अंग्रेज़ अधिकारी  सर जॉन  स्टूवर्ट मिल ने देशी राज्यों को हड़पने की सलाह दी तो दूसरे अंग्रेज अधिकारी सर्जेन वेलकम ने कहा कि देशी राज्यों का प्रतिनिधित्व समाप्त होते ही  शासन करना मुश्किल हो जाएगा। अंग्रेजों  के राज्य हड़पने कारण  1857 की क्रांति हो गई। क्रांति के बाद अंग्रेजो को समझ में आया कि भारतीयों को प्रतिनिधित्व देना चाहिए। 

मुगलों के शासन में न्याय शरियत के आधार पर होता था।शासन का काम फारसी भाषा में होता था। राजा टोडरमल जो कायस्थ थे, ने अकबर को विश्वास में लेकर शासन की भाषा फारसी करवा दी थी। जिस कारण ब्राह्मण वर्ग शासन की उच्च नौकरियों से वंचित हो गया था।जब अंग्रेजों ने शासन की भाषा बदलकर अंग्रेजी की तो ब्राह्मणों ने अंग्रेजों को समझाया कि भारत में नौकरियां वर्ण व्यवस्था के आधार पर होती है, यहां शुद्रो को निम्न स्तर की नौकरियों पर रखा जाता है, अतः ब्राह्मणों ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में केस डालकर सन् 1873 मे कायस्थों को शुद्र केटेगरी में डलवा दिया, जिस पर कायस्थों ने पटना व इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील कर कायस्थों को सन् 1877 मे क्षत्रिय केटेगरी में डलवा दिया। सन् 1872मे पहला सेंसस ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया।सेंसस सरकार द्वारा सोशल इंजीनियरिंग के लिए किया जाता है।

सन् 1881मे दूसरा सेंसस किया गया, जिसका आधार वर्ण व्यवस्था थी अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय वैश्य शूद्र की केटेगरी में जनगणना की गई, इसमें सरकार को बड़ी परेशानी महसूस हुई, भारत में लोगों में चेतना जाति के नाम पर तो थी, परंतु उसका वर्ण क्या है,अधिकतम लोग उससे अनजान थे, दुसरे एक ही जाति अलग अलग प्रदेशों में अलग केटेगरी में होने के कारण ज्यादा असुविधा हुई।

1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई। महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की।

सन् 1891का सेंसस सरकार द्वारा जाति के आधार पर किया गया,इस सेंसस में 646 जातियां चिंहित की गई,सभी भारतवासियों को 21भागो में बांटा गया, इसमें पहले भाग में कृषि करने वाली जातियों को लिया गया। कृषि वाले भाग को भी तीन भागों में बांटा गया, जिसमें पहले भाग में मिल्ट्री एंड डोमिनेंट कास्ट (सैनिक व शासक जातियां)रखी गई। जिसे मार्शल रेस कहा जाता है,इनकी संख्या 14दर्शायी गयी। जो निम्न थी | 1.राजपूत  (Rajput)2.जाट (Jat) )3. गूजर (Gujar)4. मराठा (Maratha)  5. बब्बन (Babban) 6. नायर (Nair)7. कल्ला (Kalla) 8. मारवा (Marwa)9. वेल्लमा (Vellama) 10.  खंडैत (khandait)11.  अवान (Awan)12.  काठी (Kathi)13.  मेव (Meo) 14. कोडगु (Kodagu)

अंग्रेजों को सेना में भर्ती के लिए सैनिक चाहिए थे, अपनी सैनिक लेबर की पूर्ति के लिए उन्होंने जातियां चिंहित कर ली। जरूरत के अनुसार आगे चलकर अहीर, डोगरा आदि जातियां बढ़ा ली गई।

  • 1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।           सन् 1893मे जब अमेरिका के शिकागो  में विश्व धर्म सम्मेलन किया गया तब कलकत्ता के ब्राह्मणों ने स्वामी विवेकानंद जी को यह कहकर रोकने का प्रयास किया गया कि वो कायस्थ है और कायस्थ शुद्र में आते हैं इसलिए इस सम्मेलन में भारतीय धर्म की ओर से मार्गदर्शन नहीं कर सकते। जिस पर स्वामी विवेकानंद जी ने उन्हें फटकार लगाई तथा एक पत्र के माध्यम से अपना पक्ष स्पष्ट किया। यदि स्वामी विवेकानंद जी शिकांगो ना जातें तों भारत के पक्ष की क्या स्थिति होती ?
  • 1901- महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।
  • 1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।
  • 1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
  • 1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया।
  • 1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

सन् 1919 में साउथ ब्रो कमिशन के माध्यम से भारतीय राजाओं के साथ जनता के नेताओ को भी प्रतिनिधित्व मिला, तभी आरक्षण का विरोध भी शुरू हो गया।भारत को मिले इस प्रतिनिधत्व में दलितों को आरक्षण देते हुए ब्रिटिश सरकार के द्वारा डॉ आंबेडकर को भी प्रतिनिधित्व मिला।तब लोकमान्य तिलक ने इसका विरोध करते हुए कहा कि तेली तमोली कुनबट्टे विधि मंडल में जाकर क्या हल चलायेंगे।

  • 1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।

सन् 1927मे साइमन कमीशन भारत की सामाजिक स्थिति का अवलोकन करने के लिए भारत आया, महात्मा गांधी जी ने उसका विरोध किया,डा अम्बेडकर ने समर्थन किया। विरोध के कारण साइमन कमीशन वापस चला गया।अब गोलमेज सम्मेलन लंदन में हुआ। जब सन् 1932 में गोलमेज सम्मेलन हुआ तब अम्बेडकर ने  ब्रिटिश सरकार से कहा कि यदि आप भारत में एक जिम्मेदार सरकार चाहते हो तो आपको प्रतिनिधित्व/आरक्षण वाली सरकार देनी होगी। अंग्रेजो ने अम्बेडकर जी की बात को मानते हुए भारत में सभी वर्गो के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था सरकार में की। महात्मा गांधी जी ने इस का विरोध किया तथा पूना में आमरण अनशन शुरू कर दिया।तब महात्मा गांधी और डा अम्बेडकर के बीच पूना-  पेक्ट हुआ।

  • 1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।
  • 1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
  • 1942 - बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।
  • 1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।

 भारत आजाद हुआ तो भारत के संविधान में भी समाज के वर्गो के प्रतिनिधित्व/आरक्षण की वयवस्था की गई। सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों को संविधान के अनुच्छेद 340 में यह अधिकार दिया गया कि उनको चिन्हित कर विभिन्न क्षेत्रों में विशेष अवसर दिया जाय.

29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग महान साहित्यकार काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ, जिसे काका कालेलकर आयोग कहा गया.

कालेलकर साहब ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंदीय सरकार को सौंपी थी।

तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु ने पंडित कालेलकर की सिफारिशें ख़ारिज कर दी थी और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा दिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा अतः इसे लागू न किया जाय।

भारत के संविधान को लागू करते हुए कहा गया कि भारत में राजनीतिक असमानता, सामाजिक असमानता तथा आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए निरंतर प्रयास किया जायेगा। राजनेतिक असमानता तो संविधान को लागू करते ही दूर हो गई थी।वन मेन,वन वोट,वन वेल्यू तथा अनूसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए लोकसभा व विधानसभा में सीटें आरक्षित हो गई थी। आर्थिक व सामाजिक असमानता के लिए कार्य होना था। इसके लिए उपेक्षित वर्गों के लिए सरकारी नौकरी व शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की गई।इसका उद्देश्य यह था कि देश की ब्यूरोक्रेसी में उपेक्षित वर्गों के लोग भी हो ताकि इन वर्गों के लिए जो योजनाएं संसद में बने वो धरातल पर लागू हो सके। यदि ब्यूरोक्रेसी उन्हें लागू ना करें तो विधानसभा तथा लोकसभा में बैठे लोग उनको लागू करने के लिए दबाव बना सके।यदि वहां भी बात ना बने तो राष्ट्रपति महोदय के सामने रख सके, जरूरत पड़ने पर संविधान के अभिभावक सुप्रीमकोर्ट के सामने रखे। परंतु देश के आजाद होने के बाद देश अंग्रेजों की निति पर ही चलता रहा। मशीनीकरण के कारण जो बेरोजगारी बढ़ी, पूंजी का प्रवाह जो भारत के किसान व मजदूर की ओर से हटकर मशीन बनाने वाली कंपनियों की ओर हो गया। जिस कारण गांव का छोटा किसान तथा मजदूर भूखा मरने लगा।

दूसरी ओर लम्बे समय तक पिछड़ों का क़ानूनी अधिकार समाजवादियों के नारों में “सोशलिस्ट पार्टी बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ” गूंजता रहा।

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर समाजवादियों के दबाव पर कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बजाय पुनः दुबारा दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (यादव) के नेतृत्व में 1 जनवरी 1979 को बनाया गया, जिसे मंडल आयोग कहा गया।

मंडल साहब ने पूरे देश में घूम-घूमकर रिपोर्ट तैयार कर 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी ।

सन् 1985 में जब राजीव गांधी जी प्रधानमंत्री थे।तब द्रोणाचार्य के नाम से द्रोणाचार्य पुरस्कार चलाया, भारत का संविधान जहां समानता की बात करता है, उस देश में एकलव्य का अंगूठा काटने वाले के नाम से पुरूस्कार चालू हो गया। उस द्रोणाचार्य पर पुरूस्कार शुरू हुआ जिसने उस एकलव्य का अंगूठा काट लिया, जिसने उससे कुछ नही सीखा था,बस मूर्ति बनाकर गुरु बना लिया था,ये ऐसा ही है जब कोई आपका जानने वाला अपने मकान पर खडा हो और आप उससे पूछे कि यह मकान किसका है तो साधारण रूप से वह कह देता है कि आपका ही हैं तो आप तुरंत उस मकान की कीमत मांग ले और कहें कि जब मकान आपने हमारा बता दिया तो लाओ इसकी कीमत। जिस द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्यों कौरवों व पांडवों से दक्षिणा में वह मांगा जो उनके पास नहीं था, शास्त्रों में लिखा है कि दान-दक्षिणा में वही मांगा जा सकता है।जो दाता के पास हो और वह निर्जीव हो, परंतु अपनी नीजी इच्छा पूर्ति के लिए राजा द्रोपद को मांग कर महाभारत की नींव रख दी, पुत्र मोह इतना कि अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर हथियार डाल दिए तथा मारे गए। पुत्र की मृत्यु के समाचार ने द्रोणाचार्य को विचलित कर दिया। जबकि वीर पुरुष की यह पहचान है कि वह विचलित नहीं होता।द्रोणाचार्य के नाम पर जब पुरस्कार प्रारंभ हुआ तो अनुसूचित वर्ग के सांसदों को विरोध करना चाहिए था।पर किया नही,संसद में उनका होना ना होना एक सा हो गया।

मंडल आयोग की सिफारिशों को इंदिरा गाँधी एवं राजीव गाँधी ने लागू नहीं किया। कांशीराम द्वारा चलाए गए आंदोलन तथा शरद यादव जी द्वारा सरकार पर बनाए गए दबाव के कारण वी पी सिंह ने 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की इस रिपोर्ट को आंशिक रूप में लागू किया, मंडल कमीशन लागू करने के लिए सन् 1931की जनगणना से जातियों को लिया गया। सुप्रीम कोर्ट में चैलेन्ज हो गयी। लम्बी लड़ाई के बाद 16 नवम्बर 1992 को क्रीमी लेयर की बाधा के साथ मंडल आयोग की सिफारिशों को आंशिक रूप से लागू करने का फैसला हुआ. 

सन् 1995 से लेकर 2011 तक करीब तीन लाख किसानों ने आत्म हत्या कर ली है। जो आज तक जारी है। मजदूर वर्ग का पलायन शहर की ओर को बढ़ गया। शहर में झुग्गी झोपड़ी की बस्तियां बढ़ गई।
इन परिस्थितियों से निपटने के लिए सरकार ने समय समय पर आयोग बनाए, जिसमें  सन् 2006 में स्वामी नाथन आयोग ने किसानों के विषय में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कहा, किसानों के कर्ज भी माफ हुए। सन् 2006 में ही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बताया कि देश में मुस्लिमो की स्थिति दलितों से भी खराब बताई गई है। सन् 2006 में ही छ्ठे व सातवें पे -कमिशन की रिपोर्ट भी आ गई। सरकारी कर्मचारियों के लिए पे कमिशन की रिपोर्ट तो लागू हो गई, परन्तु किसान हित के लिए स्वामी नाथन आयोग की रिपोर्ट आज तक लागू ना हो सकी।
अर्जुन सेन गुप्ता कमिशन ने अप्रैल 2009 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश की 75% आबादी भूखमरी के कगार पर है। इससे निबटने के लिए भारत सरकार ने मनरेगा योजना का प्रारम्भ किया। 
जवाहलाल नेहरू विश्ववद्यालय (जे एन यू), सावित्री बाई फुले युनिवर्सटी , भारतीय दलित अध्ययन संस्थान द्वारा दो साल तक किए गए अध्ययन में सामने आया कि
देश की कुल संपत्ति का 
41% हिन्दू उच्च जातियों के पास है जिसकी भारत में आबादी 22.3% है।
3.7% सम्पत्ति अनुसूचित जनजाति के पास है जिसकी आबादी भारत में 7.8% है।
30% हिन्दू ओबीसी के पास जिसकी आबादी भारत का 50% है।
9% अन्य के पास है।
8% मुस्लिमो के पास है जिनकी आबादी 16% है।
7.6% अनुसूचित जाति के पास है।

 लोकसभा में पूछे गए प्रश्न के जवाब में मंत्री प्रकाश जावडेकर जी ने बताया कि 23 आईआईटी के कुल 6043 फैकल्टी मेम्बरस में से 149 एससी व 21 एसटी केटेगरी के प्रोफेसर हैं। अतः कुल 2.8 %फैकल्टी मेम्बरस रिजर्व केटेगरी से है। 
481 हाईकोर्ट जजों में से सिर्फ 15 अनुसूचित जाति व 5 अनुसूचित जनजाति के जज है। सुप्रीम कोर्ट में एससी-एसटी का प्रतिनिधित्व आज शून्य है।
सन् 2018 में दि प्रिंट द्वारा फाईल की गई आरटीआई के जबाव में भारत सरकार ने बताया कि भारत सरकार के 81 सेक्रेटरी लेवल अफसरों में केवल 2 एससी वर्ग के हैं, 3 एसटी वर्ग से तथा ओबीसी वर्ग से शून्य है।
ऐडिसनल सैकररेटरी 75 में से 6 एससी, 4 एसटी व शून्य ओबीसी। 
जोइननट सैकररेटरी 295 में से 16 एससी, 9 एसटी व 13 ओबीसी।
सामान्य श्रेणी के प्रोफेसर 95.2%,ऐसोसिएट प्रोफेसर 92.9%,असिस्टेंट प्रोफेसर 66.27%।
अनुसूचित जाति के प्रोफेसर 3.47%,एसोसिएट प्रोफेसर 4.96%,असिस्टेंट प्रोफेसर 12.02%।
अनुसूचित जनजाति के प्रोफेसर 0.7%,एसोसिएट प्रोफेसर 1.3%,असिस्टेंट प्रोफेसर 5.46%।
ओबीसी वर्ग का कोई भी प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी में रिजर्वेशन के तहत अब तक ऐपोइंटमेंट नहीं किया गया है, असिस्टेंट प्रोफेसर 14.38%।
2012 Don't रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की कुल जनसंख्या 41.1%है परन्तु GPA सर्विसेज में उनका प्रतिनिधित्व केवल 8.4%है और GPB सर्विसेज में 6.1%है। 
अनुसूचित जनजाति वर्ग GPA में 4.5%और GPB में 5.7%है। जबकि जनसंख्या में यह वर्ग 8.5%है।

सन् 2015 से अब तक 150 लोग नोकरी पर नहीं रखे, क्योंकि वो ओबीसी के थे तथा मेरिट के हिसाब से क्रीमीलेयर में आ गए थे।

रोहिणी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी की 1997 जातियों में से 2.6% सरकारी नौकरी में है।994 जातियां ऐसी है जिनमे से एक भी आदमी सेंट्रल गवर्मेंट की नोकरी में नहीं है।

वर्तमान सरकार ने जनधन योजना, उज्जवला योजना, प्रधानमंत्री किसान योजना के अंतर्गत भारत के गरीब आदमी को राहत देने की कोशिश जरूर की है। परंतु समस्या का दायरा इतना बड़ा है कि जो भी हो कम ही दिखाई देता है। दूसरी ओर आरक्षित वर्ग के लिए सवर्ण वर्ग का नजरिया विरोध का ही है।अभी राम मंदिर निर्माण के ट्रस्ट का गठन हुआ।देश के गृहमंत्री जी ने ट्रस्ट में एक दलित सदस्य के होने का आरक्षण कर दिया।बाकि सभी ब्राह्मण रख लिए। एक महामंत्री के पद पर वेश्य वर्ग के हैं। यदि गृहमंत्री जी एक दलित का आरक्षण ना करते तो वो भी नहीं होता। गृहमंत्री जी को एक एसटी,एक हिन्दू ओबीसी तथा एक हिन्दू महिला के लिए भी ट्रस्ट मैं आरक्षण कर देना चाहिए था। इनमें से भी एक एक सदस्य हो जाता तो पूर्व राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि पिछड़े भी राम भक्त होते हैं,उमा भारती जी को भी संतोष हो जाता,डा प्रवीन तोगड़िया जी भी शांत रहते, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर जी के हाथ से विरोध का मुद्दा निकल जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ब्यूरोक्रेसी व सरकारी नौकरी में एससी एसटी और ओबीसी के असंतुलन के कारण भारतीय राजनीति मुद्दा विहिन होकर मुस्लिम तुष्टिकरण की ओर चली गई जो देश के लिए हानिकारक हो गई है।जय भीम जय मीम का नारा लग रहा है।यह जय भीम जय मीम का नारा योजना के तहत है, मुसलमान सरकारी नौकरी में रोडा नहीं है, इसलिए उससे किसी का मुकाबला भी नहीं है, मुसलमान मंत्रालय बटने में भी रोडा नहीं है। इसलिए सब पार्टी उसे साथ लेना चाहती है। सबसे पहले कांग्रेस ने ब्रह्म (ब्राह्मण+हरिजन+मुसलमान)का समीकरण बनाया।उसे सत्ता से बाहर करने के लिए चौधरी चरण सिंह जी ने किसान (जाट+मुसलमान), मुलायम सिंह यादव जी ने (यादव+मुसलमान),लालू प्रसाद यादव जी ने(यादव+मुसलमान)का समीकरण बनाया, कांशीराम जी ने बहुजन समाज (एससी एसटी+ओबीसी+मुसलमान)का समीकरण बना कर दलितों को कांग्रेस से छीन लिया। मुसलमान को मुलायम सिंह यादव व लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस से छीन लिया। सवर्ण भाजपा पर आ गए। सरकारी नौकरी में 80%मे ब्राह्मण काबिज है,10%मै बाकि सवर्ण है। बाकि 10%मे एससी एसटी ओबीसी व मुसलमान है। इसलिए जय भीम जय मीम हो रही है।

भारत में जो वर्ग आरक्षण से बाहर है उसकी यह शिकायत रही है कि आरक्षित वर्ग के लोग कम अंक प्राप्त करके जगह घेर रहे हैं जो देश हित में नहीं है, परंतु अब यह हो रहा है कि आरक्षित वर्ग की मेरिट जनरल से ऊपर जा रही है।अपना दल की नेता श्रीमती अनुप्रिया पटेल जी ने यह विषय संसद में भी उठाया है,जो लोग कम अंक वाले को देश के विरोध में बता कर हल्ला मचा रहे थे वो गायब हो चुके है,सही बात तो यह है कि अपने हित को ही देश हित बताया जाता रहा है जो गलत है।

भारत में जो लोग भारत के संविधान के माध्यम से मिले भारत के ही लोगो के प्रतिनिधितव/आरक्षण को समाप्त करने के लिए प्रयासरत है वो नहीं जानते की यदि प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व विधायिका, कार्यपालिका, नयायपालिक, व मीडिया में नहीं होगा तो न्याय  नहीं होगा। क्योंकि न्याय का आधार संवेदनशीलता है और संवेदनशीलता का आधार सम्बन्ध है। यदि प्रत्येक वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले लोग शासन के प्रत्येक क्षेत्र में नहीं होगे तो सत्ता के प्रति आक्रोश पनपने का ख़तरा बना रहता है। क्योंकि सत्ता में भागेदारी के साथ आदर व सम्पत्ति का जुड़ाव बना रहता है। लेकिन सत्ता से भागेदारी समाप्त होने पर आदर व सम्पत्ति दोनों की हानि अपने आप ही हो जाती है।

अत जो लोग प्रतिनिधित्व/आरक्षण के समाप्ति का प्रयास कर रहे है वो समाजद्रोह व देशद्रोह दोनों कर रहे है।
समाप्त।