शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

1857 की क्रांति के अमर क्रांतिकारी कोतवाल धन सिंह गुर्जर - लेखक अशोक चौधरी मेरठ

धन सिंह कोतवाल का जन्म 27 नवम्बर सन् 1814 दिन रविवार (सम्वत् 1871 कार्तिक पूर्णिमा) को प्रात:करीब छ:बजे माता मनभरी के गर्भ से हुआ था।इनके पिता का नाम सालिगराम था,जो गांव के मुखिया थे।धन सिंह मेरठ की सदर कोतवाली में पुलिस मे कोतवाल थे। पुलिस में कोतवाल तथा सेना में सूबेदार का पद भारतियों के लिए उच्च पद था।इस पद से ऊपर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त रहते थे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में ब्रिटेन ने पूरे भारत पर अधिकार कर लिया था ।अंग्रेजो का शासन इतना फैल गया कि उनके शासन में सूर्य अस्त ही नहीं रहता था, वे विश्व की सबसे बड़ी शक्ति बन गए। अंग्रेजों ने भारतीयों से बड़ा व्यापार छीन कर अपने हाथ में ले लिया तथा भारतीय व्यापारियों को जमींदारे बेच दिए। साहूकारे के लाइसेंस दे दिये। लगान व ब्याज बडी कठोरता से वसूला जाने लगा। उस वसूली के लिए जिस पुलिस का उपयोग अँग्रेज कर रहे थे, वे किसानों के ही बेटे थे। जिस सेना के बल पर अंग्रेजों ने भारत जीता था वे सिपाही भी भारतीय किसान के ही बेटे थे,अतः जब अंग्रेजों की दमनकारी नीति से किसानों को दर्द हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया सेना व पुलिस मे बंदूक थामे, उसके बेटो में होनी स्वभाविक थी। रही - सही कसर डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति ने पूरी कर दी। दारूल इस्लाम के स्थान पर दारूल हरब बन गया था। इसलिए वहाबी भी सक्रिय थे, परंतु हथियार तो सेना व पुलिस के पास थे, जब तक भारतीय सेना अंग्रेजों के विरुद्ध न खडी हो, कोई प्रयास कामयाब नहीं था। वो दिन आया 10 मई 1857 को, जब मेरठ की भारतीय सेना, मेरठ की पुलिस व मेरठ के किसान एक साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से भिड़ गए। 
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30 बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सीकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए।  मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे। सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी, मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था। अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
बरेली में बंगाल नेटिव इंफेंट्री के सिपाहियों ने क्रांति का बिगुल बजा दिया तथा बख्त खां जो सेना में सूबेदार था तथा नजीबुद्दौला के परिवार से था,को अपना नेता चुन लिया। सेनापति बख्त खान बरेली से सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। सेना दिल्ली ना पहुंचे, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने गढ़ मुक्तेश्वर में बने नावों के पुल को तोड दिया। परंतु राव कदम सिंह ने 27 जून को नावों की व्यवस्था कर बख्त खान की सेना को गंगा पार करा दी।
यदि 27 जून को यह सेना गंगा पार कर दिल्ली नही पहुंचती तो दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार जुलाई के प्रथम सप्ताह में ही हो जाता। लेकिन सेना के एक जुलाई को दिल्ली पहुंच जाने के बाद दिल्ली ने 20 सितंबर सन् 1857 तक अंग्रेजों से संघर्ष किया।
 तब मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे। इस फोर्स को लेकर सबसे पहले क्रांतिकारियों के गढ़ धनसिंह कोतवाल के गांव पांचली, नगला, घाट गांव पर कार्रवाई करने की योजना बनी।
सबसे बडी बात यह रही कि इस हमलें में तोप का प्रयोग किया गया। कहने का अर्थ यह है कि अब अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को और अपने को दो अलग-अलग शासकों के मध्य युद्ध में कोतवाल धन सिंह को क्रांतिकारी पक्ष का मान लिया। वर्ना सामान्य घटनाक्रम में कितना भी बडा अपराधी हो, सरकार तोप जैसे बड़े हथियार का इस्तेमाल नहीं करती।
धनसिंह कोतवाल पुलिस में थे, वह क्रांतिकारी गतिविधियों में राव कदम सिंह के सहयोगी थे। अतः उनके पास भी अपना सूचना तंत्र था। धनसिंह को इस हमले की भनक लग गई। वह तीन जुलाई की शाम को ही वह अपने गांव पहुंच गए। धनसिंह ने पांचली, नंगला व घाट के लोगों को हमले के बारे में बताया और तुरंत गांव से पलायन की सलाह दी। तीनों गांव के लोगों ने अपने परिवार की महिलाएं, बच्चों, वृद्धों को अपनी बैलगाड़ियो में बैठाकर रिश्तेदारों के यहाँ को रुखसत कर दिया। धनसिंह जब अपनी हबेली से बाहर निकले तो उन्होंने गांव की चौपाल पर अपने भाई बंधुओं को हथियारबंद बैठे देखा। ये वही लोग थे जो धनसिंह के बुलावे पर दस मई को मेरठ पहुंचे थे। धनसिंह ने उनसे वहां रूकने व एकत्र होने का कारण पूछा। जिस पर उन्होंने जबाब दिया कि हम अपने जिंदा रहते अपने गांव से नहीं जायेंगे, जो गांव से जाने थे वो जा चुके हैं। आप भी चले जाओ। धन सिंह परिस्थिती को समझ गए कि उनके भाई बंधु साका के मूड में आ गए हैं। जो लोग उनके बुलावे पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ने मेरठ पहुंच गए थे, उन्हें आज मौत के मुंह में छोड़कर कैसे जाएं? धनसिंह ने अपना निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने गाँव के क्रांतिकारियों को हमले का मुकाबला करने के लिए जितना हो सकता था मोर्चाबंद कर लिया।
चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने गांव पर हमला कर दिया। अँग्रेज अफसर ने जब गाँव में मुकाबले की तैयारी देखी तो वह हतप्रभ रह गया। वह इस लड़ाई को लम्बी नहीं खींचना चाहता था, क्योंकि लोगों के मन से अंग्रेजी शासन का भय निकल गया था। कहीं से भी रेवेन्यू नहीं मिल रहा था और उसका सबसे बड़ा कारण था धनसिंह कोतवाल व उसका गांव पांचली। अतः पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया। धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 40 कैद कर लिए गए और इनमें से 36 को मिल्ट्री कमीशन के माध्यम से फांसी दे दी गई। मृतकों की किसी ने शिनाख्त नहीं की। इस हमले के बाद धनसिंह कोतवाल की कहीं कोई गतिविधि नहीं मिली। सम्भवतः धनसिंह कोतवाल भी इसी गोलीबारी में अपने भाई बंधुओं के साथ शहीद हो गए। उनकी शहादत को शत् -शत् नमन।

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

भारत की विस्मृत वीरांगना रामप्यारी चौहान ( गुर्जर)- डा नीलम सिंह विभागाध्यक्ष अंग्रेजी विभाग किसान पी जी कालेज सिंभावली हापुड़।

"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
अर्थात जननी व जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। इसलिए भारत माता हमारे लिए स्वर्ग से भी बढ़कर है। क्योंकि भारत माता की कोख से अनेक वीरों और वीरांगनाओं ने जन्म लिया है। जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा व धर्म की स्थापना के लिए सर्वस्व समर्पित कर दिया। भारत माता की पवित्र धरा पर अनगिनत वीरांगनाओं जैसे रानी लक्ष्मीबाई,रानी दुर्गावती, मेवाड़ की महाबलिदानी माता पन्ना आदि ने मातृभूमि और अपने पक्ष के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।ऐसी ही एक महान वीरांगना हुई है रामप्यारी चौहान (गुर्जर)।जब भी तैमूर लंग के भारत पर आक्रामण का क्रुर इतिहास याद किया जाएगा तो रामप्यारी गुर्जर के साहस, शौर्य और पराक्रम को स्वत: ही याद किया जाएगा।
रामप्यारी गुर्जर का जन्म तत्कालीन समय के गुर्जर गढ जो वर्तमान में सहारनपुर के नाम से जाना जाता है, में हुआ था।वह चौहान गोत्र की गुर्जर जाती मे जन्मी थी।इनको बचपन से ही वीरता की कहानियां सुनने का बहुत शौक था। रामप्यारी बचपन से ही निर्भय और हठी स्वभाव की थी। देश मे गुलामी का दौर होते हुए भी बचपन में खेतों में अकेले चले जाना उनके स्वभाव में था। अपनी मां से पहलवान बनने के लिए वह जिज्ञासा पूर्वक पूछा करती थी और प्रातः सायं खेतों में जाकर एकांत स्थान पर व्यायाम किया करती थी। कुछ तो स्वयं बचपन से ही स्वच्छ, सुडौल और आकर्षक शरीर की लड़की,उस पर व्यायाम ने वही काम किया जो सोने पर अग्नि में तपकर कुन्दन बनने का होता है अर्थात आप कुन्दन बन गई थी।आप सदैव पुरूष जैसे वस्त्र पहनती थी और अपने गांव व पड़ोसी गांवों में पहलवानों के कौशल देखने अपने पिता व भाई के साथ जाती थी। रामप्यारी की इन बातों की चर्चा सारे गांव व क्षेत्र में फैलने लगी। सन् 1398 में जब समरकंद के शासक तैमूर लंग ने दिल्ली पर आक्रामण किया,उस समय दिल्ली पर तुगलक वंश का शासन था। तैमूर के आक्रमण होने पर तुगलक दिल्ली छोड़कर भाग गया, तैमूर दिल्ली से मेरठ होते हुए जब गंगा के किनारे हरिद्वार की ओर बढा तब क्रूरता और निष्ठुरता के लिए कुख्यात तैमूर लंग का उस समय सामना करने में रामप्यारी चौहान की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। तैमूर लंग के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के कारण ही रामप्यारी चौहान के नाम के साथ वीरांगना शब्द लग गया। रामप्यारी गुर्जर के रण कौशल को देखकर तैमूर भी दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो गया था। उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी ऐसी वीरता व शौर्य से भरी महीला नही देखी थी। जिसने 40000 महिलाओं की सेना बनाकर,उसका नेतृत्व करते हुए तैमूर को युद्ध के लिए ललकार दिया था। इतिहास में लुप्त ऐसी महानायिका रामप्यारी गुर्जर की कहानी,जिसे कभी प्रचारित ही नहीं किया गया,ऐभी वीरांगना का परिचय भारत के बच्चे बच्चे से होना चाहिए था, लेकिन ऐसा ना हो सका। रामप्यारी गुर्जर एक ऐसी वीरांगना थी, जिसने मात्र 20 वर्ष की आयु में अपनी 40000 महीला सेनानियों की सहायता से तैमूर की सेना को गाजर मूली की तरह काट कर रख दिया था।
तैमूर विस्तार वादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था,इसका मुख्य उद्देश्य भारत में कुफ्र/गैर मुस्लिम धर्म अर्थात सनातन को समाप्त करना था।यह उस समय की बात है जब दिल्ली में तुगलक वंश का शासन था।पूरे भारत में इस्लाम की ध्वजा फहराने का बहाना लेकर भारत पर हमला करने वाले तैमूर लंग के सामने दिल्ली के शासक की एक न चली। तैमूर ने मुस्लिम इलाकों को छोड़कर हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों में भयंकर नरसंहार और लूटपाट की।यह इतना भयावह था कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तक "द आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया-फ्राम द अर्ली एस्टेट टाइम्स टू द एंड आफ 1911" नामक पुस्तक में उन्होंने ने लिखा है कि तैमूर लंग का मुख्य उद्देश्य भारत में सनातनियों का सर्वविनाश कर इस्लाम की ध्वजा फहराना था। दिल्ली पर आक्रमण होते ही तुगलकी सेना ने तैमूर के सामने घुटने टेक दिए, जिससे उसके हौसले और अधिक बुलंद हो गये।वह अपनी विशालकाय सेना लेकर मेरठ की ओर चल दिया,जिसकी सूचना आसपास के सम्पूर्ण क्षेत्र में फैल गई थी।इस आक्रमण का सामना करने के लिए क्षेत्र में सर्वखाप पंचायत के नाम से बने संगठन ने पहल की तथा क्षेत्र के स्थानीय किसानों की एक सेना हरिद्वार के निकट पथरी गांव के जोगराजसिंह गुर्जर के नेतृत्व में तैयार की गई,उस सेना की सहायता के लिए ही महिलाओं की भी एक सेना रामप्यारी गुर्जर के नेतृत्व में तैयार हुई। मेरठ से गंगा के किनारे होते हुए तैमूर की सेना ने हरिद्वार की ओर प्रस्थान किया,इसी रास्ते पर तैमूर की सेना का मुकाबला महाबली जोगराजसिंह गुर्जर व रामप्यारी गुर्जर की सेना के साथ हुआ।इस संघर्ष में महाबली जोगराजसिंह गुर्जर, हरबीर सिंह गुलिया तथा रामप्यारी गुर्जर युद्ध में बारी बारी से बलिदान हो गये। तैमूर की सेना की भी भारी क्षती हुई।वह हरिद्वार तीर्थ को नही लूट सका और न ही भारत में टीक सका।
देश की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही की ऐसी वीरांगनाओं और वीरों की अमर गाथाओं को आजाद भारत में भी याद नही किया जा सका। रामप्यारी गुर्जर द्वारा लडा गया यह युद्ध कोई आम युद्ध नही था अपितु अपने सम्मान और संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्म युद्ध था। जिसमें सभी तुच्छ मानसिकता का त्याग करते हुए हमारे वीर योद्धाओं तथा वीरांगनाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में जबाब दिया। परंतु इसे हमारी विडम्बना ही कहिए कि इस युद्ध के किसी नायक का गुणगान तो दूर की बात है, हमारे देशवासियों को इस एतिहासिक युद्ध के बारे में लेश मात्र भी जानकारी नही होगी। रामप्यारी गुर्जर जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर लंग को नाकों चने चबाने पर विवश किया वह अपने आप में सभी भारतीय महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि ईश्वर प्रदत्त अधिकारों की सुरक्षा हेतु किए गए संघर्ष के लिए समूचे विश्व की महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।यह संघर्ष अधर्म पर धर्म की विजय की प्रेरणा का स्रोत है। मानोशी सिन्हा की पुस्तक "सैफरन स्वार्डस" में भी रामप्यारी गुर्जर के साहस और पराक्रम को बड़े ही सुन्दर शब्दों में सहेजा गया है।
समाप्त