बुधवार, 20 मार्च 2019

ईश्वर का प्रकोप और सेनापति जोगराज सिंह -लेखक अशोक चौधरी


हिन्दू जनमानस में संकटों से लड़ने की अपार शक्ति है। हमारे महापुरुषों व ॠषि-मुनियों ने जीवन जीने का जो तरीका यहां के जनमानस को दिया, उसमें उन्होंने कहा कि व्यक्ति समाज के लिए हैं, समाज सृष्टि के लिए हैं और सृष्टि ब्रह्मांड के लिए है। यही जीवन शैली भारतीय जनमानस का आधार रही हैं। अतः भारतीयों ने अपने व्यक्तिगत हितों से पहले समाज हित के लिए संघर्ष किया, सृष्टि में रहने वाले मानव ही नहीं बल्कि पशुओं के लिए भी श्रद्धाभाव प्रकट किया तथा उनके हितों के लिए संघर्ष किये। सूर्य को जल अर्पित कर ब्रह्मांड के प्रति भी अपनी निष्ठा प्रदर्शित की। इस्लाम व ईसाइयत के अनुयायी विश्व में कहीं भी यदि पच्चीस वर्ष तक शासक रहे तो उन्होंने वहां के मूल धर्म को समाप्त कर अपनी धार्मिक, राजनैतिक व सैनिक सत्ता स्थापित कर दी। परन्तु भारत में सैकड़ों वर्षों तक शासन करने के बाद भी भारतीयों को उनके मूल से न उखाड़ सकें। यदि हम अपने देश की तुलना एशिया तथा यूरोप के उन देशों से करें, जिन्होंने अरब व तुर्क आक्रमणकारियों के सम्मुख कायरता पूर्वक आत्मसमर्पण कर दिया तो हमें अपने पूर्वजों के साहस की सराहना, प्रशंसा तथा उन पर गर्व अवश्य ही करना पडेगा, क्योंकि उन्होंने लम्बे समय तक उन शत्रुओं के विरूद्ध, जिन्होंने सरलता और वेग से संसार के तीन महाद्वीपों पर अपना सैनिक, राजनैतिक तथा धार्मिक प्रभुत्व स्थापित कर लिया था, से डट कर संघर्ष किया।
संघर्ष की उन गाथाओं में एक गाथा तैमूर के भारत पर हमले की भी है। 

तैमूर के विषय में हमें जानकारी तैमूर की आत्मकथा "मै हूं तैमूर" व सर्वखाप पंचायत के इतिहास से प्राप्त होती है।

तैमूर जब 70 वर्ष का था,तब उसने अपनी आत्मकथा को लिखना प्रारम्भ किया, परंतु आत्मकथा पूरी होने से पूर्व ही तैमूर की मृत्यु हो गई। तैमूर की मृत्यु के बाद उसकी आत्मकथा को इब्ने अरब शाह नाम के एक व्यक्ति ने पूरा किया। परंतु इब्ने अरब शाह ने तैमूर की आत्मकथा जो "मै हूं तैमूर" नाम से लिखी जा रही थी,का नाम बदलकर "अजायब उल मुकर्दनी बवायक तैमूर" कर दिया।

इस किताब की मूल प्रति यमन के बादशाह जफर पाशा के पास थी।वही पर किसी लेखक ने इस पुस्तक की हस्तलिखित प्रति तैयार की और इसे वह भारत ले आया। भारत में यह किताब एक अंग्रेज अधिकारी के हाथ लग गई।यह अंग्रेज अधिकारी इस किताब को इंग्लैंड ले गया। अंग्रेज अधिकारी ने इस पुस्तक को डेवी नाम के एक अनुवादक को दे दिया।डेवी ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर व्हाइट की सहायता से इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया।इस प्रकार सन् 1783 में पहली बार तैमूर की आत्मकथा "मै हूं तैमूर"आम जनता के सामने आई।

इस किताब का हिंदी में अनुवाद संजना कोल के द्वारा किया गया तथा उर्दू में अनुवाद खलील उल रहमान तथा डॉ हमीद वजदानी ने किया।

इस किताब के अनुसार तैमूर समरकंद से काबुल, काबुल से कंधार के बाद खैबर के दर्रे से होता हुआ 12 मार्गदर्शकों तथा 120000 की सेना के साथ क्वेटा होता हुआ मुल्तान पहुंचा,उस समय मुल्तान का राजा हिंदू था। समरकंद से चलने के बाद मुल्तान के राजा तक सबने तैमूर के सामने समर्पण कर दिया।उस समय हिंदुस्तान की सीमा मुल्तान से शुरू होती थी। मुल्तान के राजा ने दिल्ली तक पहुंचने के लिए चार मार्गदर्शक तैमूर को दिये। मुल्तान से निकलने के बाद तैमूर दिल्ली की ओर बढ़ चला। 

सन् 1398 में समरकंद के शासक तैमूर ने भारत पर हमला कर दिया। दिल्ली में उस समय तुगलक वंश का शासन था। भारतीय इतिहासकारों ने तैमूर के इस हमले को ईश्वर का प्रकोप (खुदा का कहर) कहा है, क्योंकि भारत को जितनी हानि और दुख तैमूर ने पहुंचाया, उतना उससे पहले किसी भी आक्रमणकारी ने एक आक्रमण में नहीं पहुंचाया था। तैमूर के आक्रमण का गंगा-यमुना के मध्य बसे मेरठ, सहारनपुर तथा वर्तमान हरियाणा में जबरदस्त प्रतिरोध यहां कि जनता व स्थानीय नेतृत्व सर्वखाप पंचायत तथा सेनापति जोगराज सिंह व उप सेनापति हरबीर सिंह गूलिया द्वारा किया गया।

इस लेख का उद्देश्य भी पाठकों को स्थानीय नेतृत्व द्वारा विदेशी आक्रांता से ईश्वर प्रदत्त अधिकारों की रक्षा के लिए लडे गये इस युद्ध में दिखाई गई वीरता व बलिदान पर प्रकाश डालना है।
गंगा-यमुना के मध्य  सहारनपुर जनपद में गुर्जर जाति के पंवार (खूबड) वंश की रियासत समय के थपेड़े झेलते हुए तैमूर के आक्रमण के समय भी मौजूद थी। इस रियासत के तत्कालीन स्वामी राजा मान सिंह थे। फिरोज शाह तुगलक के शासन काल में राजा मानसिंह ने इस रियासत को नया आकार प्रदान करते हुए हरिद्वार के निकट मायापुरी नामक राज्य की स्थापना की और कनखल को अपनी राजधानी बनाया। सन् 1373 में राजा मानसिंह के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ। यही बालक जोगराज सिंह के नाम से जाना गया। तैमूर के आक्रमण के समय जोगराज सिंह की आयु 26 वर्ष थी। जोगराज सिंह साढ़े सात फुट लम्बा, भीमकाय, बलशाली एवं आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था, शारिरिक बल में उस समय दूर-दूर तक जोगराज सिंह का कोई मुकाबला नहीं था।
मुल्तान से तैमूर पाकपटन, दियालपुर, भटनेर, सिरसा और कैथल होता हुआ, मार्ग में आग लगाता तथा लोगों की हत्या करता हुआआ रहा था कि दिल्ली से पहले वर्तमान हरियाणा में अहरूनी पर हमला करने के विरोध में वहां के अहीरो ने तैमूर का प्रतिरोध किया फलस्वरूप हजारों अहीर संघर्ष में शहीद हो गए और सैकड़ों गिरफ्तार कर लिए गए। तैमूर की सेना ने नगर को जलाकर राख कर दिया।(देखें परिशिष्ट - 1)

 तैमूरी सेना के अत्याचार का तोहाना के जाटों ने प्रतिरोध किया , परन्तु वो भी सफल ना हुए, कुछ जाट इस संघर्ष से जान बचाकर भागने लगे परन्तु तैमूर ने अपनी सेना से उन्हें घेर लिया तथा तैमूरी सेना ने दो हजार जाटों को मार डाला। उनके बीवी-बच्चों को बन्दी बना लिया तथा धन-सम्पत्ति को छीन लिया। इस अत्याचार के विरोध में स्थानीय जनता लामबंद हो गई।
हरयाणा सर्वखाप पंचायत के ऐतिहासिक रिकार्ड, दस्तावेज-43 तथा सर्वखाप पंचायत के तत्कालीन चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) के लिखित लेखों (पोथी) के अनुसार तैमूर के सार्वजनिक कत्लेआम, लूट खसोट और सर्वनाशी अत्याचारों की सूचना मिलने पर संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) कार्तिक बदी 5 को देवपाल राजा (जिसका जन्म निरपड़ा गांव जि० मेरठ में एक जाट घराने में हुआ था) की अध्यक्षता में  सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन जि० मेरठ के गाँव टीकरी, निरपड़ा, दोगटऔर दाहा के मध्य जंगलों में हुआ।पंचायत में सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये -
(1) सब गांवों को खाली कर दो। (2) बूढे पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों को सुरक्षित स्थान पर रखो। (3) प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति सर्वखाप पंचायत की सेना में भर्ती हो जाये। (4) युवतियाँ भी पुरुषों की भांति शस्त्र उठायें। (5) दिल्ली से हरद्वार की ओर बढ़ती हुई तैमूर की सेना का छापामार युद्ध शैली से मुकाबला किया जाये तथा उनके पानी में विष मिला दो। (6) 500 घुड़सवार युवक तैमूर की सेना की गतिविधियों को देखें और पता लगाकर पंचायती सेना को सूचना देते रहें।
पंचायती सेना - पंचायती झण्डे के नीचे 80,000 मल्ल योद्धा सैनिक और 40,000 युवा महिलायें शस्त्र लेकर एकत्र हो गये। इन वीरांगनाओं ने युद्ध के अतिरिक्त खाद्य सामग्री का प्रबन्ध भी सम्भाला। दिल्ली के सौ-सौ कोस चारों ओर के क्षेत्र के वीर योद्धा देश रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने रणभूमि में आ गये। सारे क्षेत्र में युवा तथा युवतियां सशस्त्र हो गये। इस सेना को एकत्र करने में धर्मपालदेवजाट योद्धा जिसकी आयु 95 वर्ष की थी, ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उसने तथा उसके भाई करणपाल ने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया।
प्रधान सेनापति, उप-प्रधान सेनापति तथा सेनापतियों की नियुक्ति
सर्वखाप पंचायत के इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया।
महिलाएं वीरांगनाओं की सेनापति चुनी गईं उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) रामप्यारी गुर्जर युवति (2) हरदेई जाट युवति (3) देवीकौर  युवति (4) चन्द्रो ब्राह्मण युवति (5) रामदेई तगा (त्यागी) युवति। इन सब ने देशरक्षा के लिए शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की।
उपप्रधान सेनापति - (1) धूला भंगी (बालमीकी)
 (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध में महारथ पाये हुए था।
दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था जिसका गोत्र गुलिया था। यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी । यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था।
सेनापतियों का निर्वाचन - उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) गजेसिंह जाट गठवाला (2) तुहीराम  (3) मेदा रवा (4) सरजू ब्राह्मण (5) उमरा तगा (त्यागी) (6) दुर्जनपाल अहीर।
जो उपसेनापति चुने गये - (1) कुन्दन जाट (2) धारी गडरिया (3) भौन्दू सैनी (4) हुल्ला नाई (5) भाना जुलाहा (6) अमनसिंह पुंडीर (7) नत्थू पार्डर  (8) दुल्ला  जाट  (9) मामचन्द गुर्जर (10) फलवा कहार।
सहायक सेनापति - भिन्न-भिन्न जातियों के 20 सहायक सेनापति चुने गये।
वीर कवि - प्रचण्ड विद्वान् चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) को वीर कवि नियुक्त किया गया जिसने तैमूर के साथ युद्धों की घटनाओं का आंखों देखा इतिहास लिखा था।
तैमूर दिसंबर के प्रथम सप्ताह में दिल्ली के निकट आ धमका। तैमूर के आगमन का समाचार सुनकर सुल्तान महमूद और उसके प्रधानमंत्री मललू इकबाल ने तैमूर का मुकाबला करने का प्रयत्न किया। तदुपरांत 17 दिसंबर को तैमूर ने तुगलक को युद्ध में पराजित कर दिया। पराजित होने पर तुगलक गुजरात की ओर तथा मललू इकबाल बुलंदशहर को भाग गया। 18 दिसंबर 1398 को तैमूर का दिल्ली पर अधिकार हो गया। उलेमाओं के नेतृत्व में राजधानी के नागरिक विजेता की सेवा में उपस्थित हुए और दया की प्रार्थना की। तैमूर ने नागरिकों को जीवन दान देना स्वीकार कर लिया,इस समय दिल्ली की आम जनता तैमूर की तलवार की नोक पर घुटनों के बल पर आ गई थी।

मेरठ के किले का किलेदार आलाशर नाम का एक मुस्लिम था, तैमूर ने आलाशर से आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, परंतु वह नही माना, तैमूर ने मेरठ के किले पर हमला कर अपने अधिकार में ले लिया,आलाशर को एक लोहे के पिंजरे में बंद कर जलती हुई आग के ऊपर रखवा दिया गया। परंतु तभी अचानक तेज बारिश शुरु हो गई।आग बुझ गई। तैमूर ने कहा कि शायद कुदरत अभी आलाशर की मौत नही चाहती।अब तैमूर ने आलाशर को कैद मे डाल दिया।

 सेना के दूसरे भाग को तैमूर ने अपने बेटे सादवकार को देकर लोनी के किले पर हमला करने के लिए भेजा। तैमूर ने लोनी और दिल्ली के बीच स्थित जुंबा के किले पर हमला कर अपने अधिकार में ले लिया।जुंबा के किले में कोई सेना नही थी,इस किले मे सन्यासीनिया रहती थी। तैमूर ने बूढी सन्यासनियो को छोड़ दिया तथा जवान सन्यासनियो को अपने सिपाहियों में बाट दिया।लोनी का किलेदार करतार सिंह एक बहादुर व्यक्ति था, तैमूर ने अपनी आत्मकथा में उसकी जाति तो नही लिखी परंतु सबसे अधिक सम्भावना उसके गुर्जर जाति के होने की है। ऐसी मान्यता गुर्जरों मे बहुत पुराने समय से चली आ रही है कि पृथ्वीराज चौहान के ताऊ बिसल देव जब चौहानों मे भारत के प्रथम सम्राट बने तब दिल्ली के तोमर राजा को अपने सामंत बनाने के बाद सम्राट बिसल देव ने दिल्ली के आसपास के 360 गांवों की जागीर भाटी गुर्जरों को तथा 84 गांव की जागीर केराणा के चौहान गुर्जरों को दी थी।360 गांवों में से 80 गांवों में खुद भाटी गुर्जर बस गये थे,लोनी के आसपास 12-12 गांवों की दो यूनिट भाटियो ने अपने रिश्तेदार कसाना और बैसला गोत्र के गुर्जरों को,दादरी और दनकौर के पास 27-27 गांवों की दो यूनिट नागडी/नागर गुर्जरों को दे दी थी। अतः लोनी के आसपास गुर्जर उस समय से ही मजबूत स्थिति में थे।आगे चलकर मुस्लिम सत्ता पर काबिज हो गये थे, परंतु तैमूर के हमले के समय दिल्ली की मुस्लिम सत्ता अत्यधिक कमजोर थी।इस समय किसी हिन्दू का लोनी के किले का किलेदार होना इस बात की ओर इशारा करता है कि हिंदू शक्तिशाली हो रहें थे। हिंदूओं में गुर्जर लोनी में सर्वाधिक शक्तिशाली थे।

अतः सबसे अधिक विरोध तैमूर का लोनी में ही होना था,वही हुआ भी।जब तैमूर के बेटे सादवकार ने लोनी के किले का घेरा डाला,तो रात में ही करतार सिंह ने एक जोरदार हमला तैमूरी सेना पर किया तथा कुछ तैमूरी सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया।उन सैनिकों से पूछताछ करने के बाद अगले दिन करतार सिंह ने अपनी हाथियों की सेना के द्वारा सादवकार पर एक ओर जोरदार हमला किया तथा सादवकार को गिरफ्तार कर लिया। करतार सिंह को तैमूर के द्वारा हिंदूओं पर किए जा रहे अत्याचारों की लगातार सूचना मिल रही थी, अतः करतार सिंह ने तैमूर को सबक सिखाने के लिए तैमूर के बेटे सादवकार को मार कर उसके शव के अंदर भूसा भरवा कर किले की प्राचीर पर टंगवा दिया।जब तैमूर को अपने बेटे की दर्दनाक मौत की सूचना मिली तो वह चित्कार कर उठा। तैमूर को सपने में भी यह आभास नही था कि एक छोटे से किले का किलेदार उसको इतना गहरा जख्म देगा। तैमूर ने अपनी सेना लेकर लोनी पर आक्रमण कर दिया। परंतु करतार सिंह ने आत्मसमर्पण नही किया। करतार सिंह ने अपने किले का दरवाजा खोल कर युद्ध के मैदान में साका कर अपना बलिदान दे दिया।अब तैमूर की समझ में आ गया था कि भारतियों को हराया तो जा सकता है, परंतु वो मन से हार स्वीकार करने वालों में से नही है।

 उसी समय पंचायत सेना के 20000 योद्धाओं ने सेनापति जोगराज सिंह व हरबीर सिंह गुलिया के नेतृत्व में तैमूर की सेना के 52000 सिपाहियों पर आधी रात को आक्रमण कर दिया, इस तरह के हमले का क्रम लगातार तीन रात तक बना रहा। इस हमले में तैमूर की सेना के 9000 सिपाही मारे गए। पंचायत सेना ने तैमूर की सेना के सिपाहियों के शव यमुना में फेंक दिए। दिन निकलते ही पंचायत सेना शहर की सीमा से बाहर चली जाती थी। पंचायत सेना के इस प्रकार के हमलों से तैमूर खीझ गया। क्रुद्ध होकर तैमूर ने लूट तथा नरसंहार की आज्ञा दे दी। जो कई दिनों तक चलता रहा। दिल्ली के हजारों नागरिकों की हत्या कर दी गई और हजारों को बन्दी बना लिया गया।

मेरठ युद्ध - एक जनवरी सन् 1399 को तैमूर ने अपनी बड़ी संख्यक एवं शक्तिशाली सेना, जिसके पास आधुनिक शस्त्र थे, के साथ दिल्ली से मेरठ की ओर कूच किया। 19 जनवरी सन् 1399 को तैमूर मेरठ पहुंच गया। पंचायत सेना के सेनानायक दुर्जन पाल अहीर मेरठ के दिल्ली दरवाजे के निकट तैमूरी सेना से युद्ध करते हुए अपने 200 साथियों के साथ शहीद हो गये। इस क्षेत्र में तैमूरी सेना को पंचायती सेना ने दम नहीं लेने दिया। दिन भर युद्ध होते रहते थे। रात्रि को जहां तैमूरी सेना ठहरती थी वहीं पर पंचायती सेना धावा बोलकर उनको उखाड़ देती थी। वीर देवियां अपने सैनिकों को खाद्य सामग्री एवं युद्ध सामग्री बड़े उत्साह से स्थान-स्थान पर पहुंचाती थीं। शत्रु की रसद को ये वीरांगनाएं छापा मारकर छीन लेती थीं। आपसी मिलाप रखवाने तथा सूचना पहुंचाने के लिए 500 घुड़सवार अपने कर्त्तव्य का पालन करते थे। रसद न पहुंचने से तैमूरी सेना भूखी मरने लगी। उसके मार्ग में जो गांव आता उसी को नष्ट करती जाती थी। तंग आकर तैमूर गंगा के किनारे हरद्वार की ओर बढ़ा।
हरद्वार युद्ध - मेरठ से आगे  सहारनपुर तक पंचायती सेनाओं ने तैमूरी सेना से भयंकर युद्ध किए तथा इस क्षेत्र में तैमूरी सेना के पांव न जमने दिये। प्रधान एवं उपप्रधान और प्रत्येक सेनापति अपनी सेना का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। हरद्वार से 5 कोस दक्षिण में तुगलुकपुर-पथरीगढ़ में तैमूरी सेना पहुंच गई। इस क्षेत्र में पंचायती सेना ने तैमूरी सेना के साथ तीन घमासान युद्ध किए।
उप-प्रधानसेनापति हरबीरसिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों तथा 2000 पहाड़ी तीरंदाजों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीरसिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र खान ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। (तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया)। वीर योद्धा हरबीरसिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा।
उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराजसिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीरसिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया। जोगराजसिंह को इस योद्धा की वीरगति से बड़ा धक्का लगा।हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला  भंगी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला भंगी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगति को प्राप्त हो गये।
तीसरे युद्ध में प्रधान सेनापति जोगराजसिंह ने अपने वीर योद्धाओं के साथ तैमूरी सेना पर भयंकर धावा करके उसे अम्बाला की ओर भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध में वीर योद्धा जोगराजसिंह को 45 घाव आये परन्तु वह वीर होश में रहा। पंचायती सेना के वीर सैनिकों ने तैमूर एवं उसके सैनिकों को हरद्वार के पवित्र गंगा घाट (हर की पौड़ी)पर जाने से रोकने का भरसक प्रयास किया ।
इस युद्ध में केवल 5 सेनापति बचे थे तथा अन्य सब देशरक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुये।
हमारी पंचायती सेना के वीर एवं वीरांगनाएं 35,000, देश के लिये वीरगति को प्राप्त हुए थे।
जब यह सेना हरिद्वार के ओर निकट पहुंची तो उस समय नागा साधुओं का शाही स्नान चल रहा था।(नागा साधुओं का पराक्रम- देखें परिशिष्ट नंबर-2) उन साधुओं और तैमूर की सेना में तुरन्त भिड़ंत हो गई। अतः तैमूर को यहां भी साँस नहीं मिला। वह सेना को शिवालिक की पहाड़ियों में से होता हुआ समरकंद चला गया।
यह शुभ सूचना लेकर संदेशवाहक जब सेनापति जोगराज सिंह के शिविर में प्रविष्ट हुआ। संदेशवाहक के आने से कुछ पल पूर्व ही जोगराज सिंह अपनी नश्वर देह को त्याग चुके थे। नौजवान जोगराज सिंह की शहादत का समाचार जब स्थानीय जनता को मिला, तब सम्पूर्ण क्षेत्र की जनता श्रद्धा के वशीभूत हो नतमस्तक होकर, शोक में हा-हाकार कर उठी।
सेनापति जोगराज सिंह इस क्षेत्र के घोषित राजा नहीं थे, अतः यहां के निवासियों की रक्षा का दायित्व भी सीधे उनपर नहीं था। वह दिल्ली के सुल्तान तुगलक पर था, लेकिन तुगलक यहां की जनता को उसके भाग्य के भरोसे छोड़कर भाग गया था। परन्तु समाज व क्षेत्र के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए सेनापति जोगराज सिंह तथा उनके साथियों ने एक ट्रेंड सेना के साथ, सामान्य किसानों को साथ लेकर युद्ध लडा तथा अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका यह बलिदान अविस्मरणीय है। आज भी मुजफ्फरनगर, सहारनपुर के देहात में लोग जोगराज सिंह के बारे में कहानियां सुनाते रहते हैं। उनकी शहादत को शत-शत नमन।
संदर्भ ग्रंथ
1- भारत का इतिहास -डॉ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव।
2- स्वतंत्रता की तडप -अभय कुमार योद्धेय (गुर्जर भारती, सितंबर 2005)
3- सत्ता के विरुद्ध दिल्ली एवं आसपास के गुर्जरों का प्रतिरोध -राणा अली हसन चौहान अनुवाद ओमप्रकाश गांधी (आवाज -ए- गुर्जर, जनवरी 2006, जम्मू)।
4- jat History -Dilip Singh ahlawat।

5 - https://youtu.be/-hwmSHT3vUE

परिशिष्ट नम्बर- 1

अहिरूनी  नाम "अहीर की भूमि" के रूप में अनुवादित है। जेई श्वार्ट्ज़बर्ग ने इसे "लोक क्षेत्र" और लुसिया माइकलुट्टी को "सांस्कृतिक-भौगोलिक क्षेत्र" के रूप में वर्णित किया है। .. जिसमें वर्तमान राजस्थान के अलवर, भरतपुर और वर्तमान हरियाणा राज्य में गुड़गांव महेंद्रगढ़ शामिल हैं। अहिरवाल के अहीरो की विदेशी और दिल्ली के शासकों को बार बार टक्कर देने के कारण इस क्षेत्र को "भारत का इस्राइल " भी कहते है।

परिशिष्ट नम्बर-2

नागा साधुओं का पराक्रम

आठवीं सदी के मध्य में आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ।यह वह समय था जब भारत पर अरब के द्वारा इस्लामिक हमले शुरू हो गये थे।ये हमलावर मंदिरों को क्षतिग्रस्त कर रहे थे,सम्पदा को लूट रहे थे, निहत्थे और सात्विक पुजारी और भारतियों की हत्या कर रहें थे। सत्ता की ओर से गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने सभी स्थानीय शक्तियों को एकत्रित कर इन हमलावरों को रोकने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा रखी थी, परन्तु दूसरी ओर राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रकूट और पाल शासक या तो उदासीन थे या इन अरब हमलावरों से मिल जाते थे।

इन परिस्थितियों में आदि शंकराचार्य ने धर्म व धार्मिक स्थलों की सुरक्षा के लिए साधुओं में सैन्य पथ की स्थापना की।
साधुओं को शस्त्र चलाने की शिक्षा दी जाने लगी।इन सैन्य पथ के शिविरों को अखाड़ा कहा गया।13 अखाड़े बनाये गये।इन अखाड़ों में साधुओं को घुड़सवारी, तलवार,भाला चलाना आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था।इन साधुओं की सबसे शक्तिशाली टुकडी को नागा नाम दिया गया। गुजरात में नागा शब्द का अर्थ लडाका है।
नागा साधु बनने के लिए बडा कठीन प्रशिक्षण दिया जाता है।तीन साल तक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद कुंभ में 108 डुबकी लगाकर स्नान करने के पश्चात नागा साधु को महापुरुष की पदवी प्राप्त होती है।
इसके बाद साधु स्वयं का पिंडदान करता है,जिस कारण उसका पिछला जीवन समाप्त माना जाता है और वह सिर्फ धर्म का सिपाही रह जाता है। अपने जीवन यापन के लिए सिर्फ एक दिन में सात घर भिक्षा मागता है। यदि सात घर से कुछ नहीं मिला तो भूखा ही रहता है फिर अगले दिन भिक्षा मागता है।आम आदमी की बस्ती से दूर जमीन पर सोना, वस्त्र के रूप में सिर्फ एक लंगोटी ही पहनता है। हवन की भस्म या श्मशान घाट में जले शव की राख को शरीर पर लपेटे रखते हैं।यही राख ही एक तरह से इन साधुओं का वस्त्र है।
यह स्थिति उसे अवधूत की पदवी प्रदान करती है।
इससे आगे की श्रेणी दिगम्बर की होती है जिसमें नागा साधु निर्वस्त्र रहते हैं।
इससे आगे की श्रेणी श्री दिगम्बर की होती है जिसमें नागा साधु के लिंग की नस तोड दी जाती है।
नागा साधु बनने के लिए किसी प्रकार का जाति व क्षेत्र का बंधन नही है।उसका सिर्फ सनातनी हिन्दू होना ही काफी है।
इन साधुओं के अखाड़े हरिद्वार, उज्जैन, ऋषिकेश, प्रयागराज प्रमुख रूप से रहें हैं।
इन नागा योद्धाओं ने जब भारतीय राजाओं की सेना कुछ न करने की स्थिति में पहुंच जाती थी,तब आगे बढ़ कर विधर्मी सेना से अनेक बार संघर्ष किया और अकल्पनीय बलिदान दिये हैं।
तैमूर लंग के हमले के समय जब सर्वखाप पंचायत के नेतृत्व में सेनापति जोगराजसिंह पंवार, हरबीर सिंह गूलिया,धूला भंगी/बाल्मीकि, महिला सेनापति रामप्यारी चौहान के नेतृत्व में असंख्य भारतीयों ने तैमूर को रोकने के लिए बलिदान दिये थे तब तैमूर की सेना से अंतिम लडाई हरिद्वार में इन नागा साधुओं ने लडी तथा तैमूर की सेना को ऐसी मार लगाई कि वो हरिद्वार तीर्थ के मंदिरों को बिना लूटे ही शिवालिक की पहाड़ियों से चला गया।
जब सन् 1757 में अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर हमला किया और मथुरा वृंदावन को लूट कर अफगान कमांडर सरदार खां गोकुल की ओर बढा,तब तक गोकुल में चार हजार नागा साधु इकट्ठा हो चुके थे।अफगाग सरदार खां के दस हजार सिपाहियों को चार हजार नागा साधुओं ने भगा भगाकर मारा।एक एक नागा साधु ने 100-100 अफगान सिपाहियों को मार डाला।जब अफगान सिपाही भागने लगे तब सरदार खां ने एक पत्र अहमद शाह अब्दाली को लिखा कि उसकी सेना में हैजा फैल गया है, इसलिए सिपाही मर गए हैं।
अहमदशाह अब्दाली ने बंगाल के एक कानून विद जुगल किशोर को अफगान सरदार खां द्वारा दी गई हैजा फैलने से सिपाहियों के मरने की सूचना की सत्यता की जांच का कार्य सोंपा। लेकिन सरदार खां ने एक बडी रिश्वत देकर जुगल किशोर से अपने मनमाफिक रिपोर्ट तैयार करवा ली। अर्थात जुगल किशोर ने भी रिपोर्ट दे दी कि सिपाही हैजा फैलने से ही मरे है। अहमदशाह अब्दाली ने गोकुल से लूट मे मिले धन की जानकारी चाही। जुगल किशोर और सरदार खां ने कह दिया कि गोकुल में सिर्फ झोपड़ी थी,वहा लूटने के लिए कुछ नही था।
सन् 1664 में कांशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी के समीप औरंगजेब की सेना और नागा साधुओं मैं उस समय भयंकर युद्ध हुआ,जब औरंगजेब ने मंदिर को गिराने के लिए सेना को आदेश दिया था।इस युद्ध को बैटल आफ ज्ञानव्यापी भी कहा जाता है। सन् 1666 में नागा साधुओं ने औरंगजेब की सेना पर पुनः हमला किया।
सन् 1669 में औरंगजेब की सेना ने फिर वाराणसी के मंदिर पर हमला किया। फिर नागा साधु औरंगजेब की सेना के सामने अड कर खड़े गये। कुछ पैसों के लालच में भारतियों के भीतर घात के कारण इस बार औरंगजेब सफल हो गया। वाराणसी के इन दोनों युद्धों में करीब 40000 नागा साधु वीर गति को प्राप्त हुए।
भारतीय इतिहास कार यदुनाथ सरकार ने " द हिस्ट्री ऑफ दसनामी नागा संन्यासी" नामक पुस्तक में"बैटल आफ ज्ञानव्यापी" से वाराणसी के युद्ध का वर्णन  किया है। 
सन् 1947 में देश आजाद हुआ,तब नागा साधुओं ने यह तय किया कि अब वो शस्त्र नही उठायेंगे।






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