शनिवार, 29 जून 2019

भारत का कश्मीर -लेखक अशोक चौधरी


टू -नेशन थ्योरी के आधार पर सन् 1946 का लोकसभा चुनाव हुआ था। इस चुनाव में मुस्लिम लीग ब्रिटिश इंडिया में से इस्लाम के आधार पर चलने वाले देश को प्राप्त करने के लिए चुनाव में उतरी तथा कांग्रेस सबको साथ लेकर चलने वाले देश के लिए चुनाव लडी। उस समय का ब्रिटिश भारत का एक भाग वह था जो सीधे ब्रिटेन के शासन में था, दूसरा भाग वह था जिसमें करीब 563 रियासते थी, इन रियासतों को कुछ हद तक स्वायत्ता थी, लेकिन शासन में ब्रिटेन के ही थी। 25 जुलाई सन् 1947 को माउंटबेटन(भारत के अंतिम वायसराय 12 फरवरी सन् 1947से 15 अगस्त सन् 1947 तक व गवर्नर जनरल 15 अगस्त 1947 से 21 जून 1948) ने सभी रियासत के राजाओं को बुलाकर एक बैठक की और कहा कि भारत व पाकिस्तान बनने जा रहा है, अतः जो रियासत जिसमें रहना चाहे, उसका राजा उस देश में मिल सकता है, कोई भी रियासत स्वतंत्र नहीं रह सकती। लेकिन रियासत की सीमा देश से मिलनी चाहिए। जैसे बलूचिस्तान भारत में नहीं मिल सकता और हैदराबाद पाकिस्तान में नहीं जा सकता। जितनी भी रियासते थी सबको एक ही अधिमिलन पत्र (सम्बंधो को बढाना) बाटा गया, इस प्रपत्र का एक ही फॉर्मेट था, रियासत के राजा को इस पर अपनी रियासत का नाम व हस्ताक्षर तथा भारत व पाकिस्तान में से किसी एक का नाम भर कर देना था और कुछ नहीं। इस समय भारत में सन् 1935 के ब्रिटिश भारत के संविधान से शासन चल रहा था। रियासतों का काम भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल देख रहे थे। हैदराबाद का निजाम व जूनागढ़ का नवाब गडबड कर रहे थे, हैदराबाद को तो हिंदुस्तान में मिलना ही था, जूनागढ़ का एक सिरा समुद्र को छूता था, इस रियासत की 80%आबादी हिंदू थी, यही पर ही सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर था। सरदार पटेल ने जिन्ना (पाकिस्तान का गवर्नर जनरल 15 अगस्त 1947 से 11 सितम्बर 1948) से व्यक्तिगत रूप से कहा कि यदि जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में मिलने के लिए पत्र लिखे तो वह उसे स्वीकार न करें। जूनागढ़ के नवाब ने वही किया, जिसका सरदार पटेल को अंदाजा था। 13 सितम्बर सन् 1947 को जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में मिलने के प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर जिन्ना को दे दिए।जिन्ना ने स्वीकृति भी प्रदान कर दी। सूचना मिलते ही जनता ने विद्रोह कर दिया। सरदार पटेल ने सेना को जूनागढ़ भेज दिया। जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। जब सरदार पटेल जूनागढ़ पहुंचे तो वहां की जनता ने हजारों की संख्या में हाथ उठाकर भारत के पक्ष में अपने समर्थन का प्रदर्शन किया।  पाकिस्तान के मंसूबे पर पानी फिर गया। अब अगली रियासत जम्मू-कश्मीर थी। जिसमें जम्मू व लद्दाख तो गैर मुस्लिम आबादी वाले थे। कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य था। पहले सरदार पटेल भी यही सोचते थे कि जिस तरह आधा पंजाब, आधा बंगाल व आधा असम जनसंख्या के हिसाब से पाकिस्तान व हिंदुस्तान में मिल गया है, उसी प्रकार जम्मू व लद्दाख तो भारत में रह जायेगा और कश्मीर पाकिस्तान में चला जाएगा। परन्तु पाकिस्तान के द्वारा 80%हिंदू आबादी वाले जूनागढ़ को हडपने का प्रयास किया गया, उसके बाद सरदार पटेल का विचार बदल गया। अब माउंटबेटन ने महाराजा हरि सिंह से बात की और कहा कि वह जिस तरफ भी रहना चाहे, रह सकते हैं। अपनी इच्छा के अनुसार अधि पत्र पर लिख कर हस्ताक्षर कर दे। महाराजा हरि सिंह ने अपने दीवान (प्रधानमंत्री) मेहरचंद महाजन व मुस्लिम जनता के नेता शेख अब्दुल्ला से विचार विमर्श कर भारत में मिलने का मन बना लिया। ऊधर जिन्ना हर हाल में कश्मीर को पाकिस्तान के साथ चाहता था। जब कश्मीर की जनता में कोई सुगबुगाहट भारत के विरुद्ध नहीं हुई तो दुनिया को यह दिखाने के लिए कि आम कश्मीरी भारत में मिलने के विरुद्ध है, सादे लिबास में पाकिस्तानी सेना व कबायली पठानो को कश्मीर में 22 अक्टूबर सन् 1947 को हमले के लिए भेज दिया। पाकिस्तान द्वारा भेजे गए इन अनुशासनहीन कबालियो ने कश्मीर में घुस कर हिंदू व मुसलमान दोनों पर ही अत्याचार किए, लूटपाट की तथा महिलाओं के साथ बदसलूकी की। इन परिस्थितियों में महाराजा हरि सिंह ने भारत से सैनिक सहायता की मांग की। माउंटबेटन ने कहा कि जब तक विलय के पत्र पर हस्ताक्षर नहीं हो जाते भारत सैनिक सहायता कैसे दे। 26 अक्टूबर सन् 1947 को महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय पर बिना किसी शर्त के वैसे ही हस्ताक्षर कर दिए, जैसे अन्य रियासत के राजाओं ने किये थे।अब जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विधिवत् विलय हो गया था। अतः अवैध रूप से घुसपैठ करने वालों को कश्मीर से बाहर निकालने के लिए भारत ने सेना भेज दी। इस सैनिक कार्रवाई से घुसपैठिए पीछे हटने लगे। माउंटबेटन पर ब्रिटिश भारत के बंटवारे की जिम्मेदारी थी, परिस्थिति ऐसी बन रही थी कि भारत व पाकिस्तान में युद्ध के हालात बन गए थे। यदि यह युद्ध हो जाता तो वह एक तरह से माउंटबेटन की बंटवारे की योजना की असफलता थी। अतः माउंटबेटन किसी भी सूरत में भारत व पाकिस्तान के बीच युद्ध नहीं चाहते थे। इन हालात में माउंटबेटन ने जिन्ना से बात की, जिन्ना ने कहा कि घुसपैठ करने वाले लोगों पर उसकी पकड़ है, यदि भारत अपनी सेना कश्मीर से वापस बुलावा ले तो घुसपैठियों को भी वह वापस बुला लेगा तथा भारत के साथ पाकिस्तान में बैठकर कश्मीर के विषय में बात कर ली जाए।जब यह बात सरदार पटेल व जवाहरलाल नेहरू के सामने आयी तो पटेल ने कहा कि घुसपैठियों से सेना कश्मीर को कुछ ही दिनों में पूरी तरह खाली करा लेगी। भारत सेना नहीं हटायेगा। क्योंकि भारत का कश्मीर पर संवैधानिक अधिकार है, कश्मीर के विषय में यदि कोई बात होगी तो वह भारत में बैठकर होगी, पाकिस्तान में नहीं। परन्तु माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर में जनमत संग्रह व यूएनओ की मध्यस्थता के लिए भी राजी कर लिया जबकि सरदार पटेल इस मुद्दे को यूएनओ में ले जाने के पक्ष में नहीं थे। 31 दिसंबर सन् 1947 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू माउंटबेटन की सलाह पर यूएनओ चले गए।  पाकिस्तान द्वारा अनाधिकृत कब्जा छोडने के बाद जनमत संग्रह यूएनओ की निगरानी में करने का वादा भारत ने किया। परन्तु पाकिस्तान ने अपने कब्जे में आये कश्मीर के हिस्से को खाली नहीं किया, तो वहां जनमत संग्रह भी न हो सका। लेकिन 20 फरवरी सन् 1948 को भारत ने जूनागढ़ में जनमत संग्रह करा दिया। इस चुनाव में 201457 रजिस्टर्ड वोटरों ने भाग लिया, कुल 91 वोटर ने पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया।जून 1948 में माउंटबेटन भारत से चले गए। एक जनवरी सन् 1949 को कश्मीर में युद्ध विराम कर दिया। 20 जून सन् 1949 को राजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह को कश्मीर का राज्य प्रतिनिधि (रीजेंट) बना दिया गया। दूसरी ओर भारत का संविधान बन रहा था। 17 अक्टूबर सन् 1949 को संविधान सभा की बैठक में एक सदस्य ने कहा कि भारत के संविधान को दूसरे प्रदेशों में जिस तरह लागू किया जा रहा है, उस तरह कश्मीर में लागू करने में कठिनाई है, क्योंकि कश्मीर को लेकर भारत व पाकिस्तान के मध्य युद्ध होने के कारण कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है, भारत यूएनओ में इस विषय को लेकर जा चुका है। पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की व्यवस्था को लेकर भी समस्या है, अतः कुछ ऐसा प्रावधान किया जाए, जिससे कश्मीर में संविधान को लागू करने में मुश्किल ना हो। तब संविधान सभा ने यह हल निकाला कि कश्मीर में हालात ठीक करने के लिए वहां की सरकार को समय दिया जाय, जैसे हालात सही होते जायेगे, कश्मीर की सरकार राष्ट्रपति महोदय को सूचित करती रहेगी, भारत के दूसरे प्रदेशों की तरह राष्ट्रपति महोदय कश्मीर में कानून पारित करते रहेंगे।इस समस्या के हल के लिए एक अस्थायी धारा को बनाया गया। ऐसा करने के लिए जो धारा बनायी गयी, उसे 25 नवंबर सन् 1949 को संविधान में जोड़ दिया गया, जिसका नंबर था 306 A। जब दोबारा संविधान की धारा की गिनती कर फाइनल नम्बर दिये गये, तब इस धारा का नम्बर 370 आया।
धारा 370 कश्मीर राज्य व केन्द्र सरकार के मध्य एक पुल का काम करने के लिए बनाई थी, जिस पुल से भारतीय संविधान के वे कानून जो अन्य राज्यों में लागू हो चुके थे, कश्मीर राज्य में लागू किए जाने थे।
15 दिसंबर सन् 1950 को सरदार पटेल की मृत्यु हो गई।
15 नवंबर सन् 1952 को कश्मीर की सरकार ने अपने प्रदेश में सदर -ए -रियासत व वजीर -ए -आजम के पद का कानून बना कर भेज दिया। पूरे भारत के राज्यों में केन्द्र सरकार राज्यपाल नियुक्त कर रही थी परंतु कश्मीर में सदर -ए -रियासत कश्मीर की विधानसभा ने ही नियुक्त कर दिया। कश्मीर के पहले सदर -ए -रियासत 17 नवंबर सन् 1952 को राजा कर्ण सिंह को नियुक्त कर दिया गया। जब यह सूचना देश की जनता व सभी राजनीतिक दलों को मिली तो प्रतिक्रिया आनी ही थी।
इस समय भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे, वे विलक्षण प्रतिभा के स्वामी तथा दूरदर्शी नेता थे। वे जान गये की जो धारा 370 कश्मीर में भारत के कानून राज्य में लागू करने के लिए बनाई गई है, उस धारा के माध्यम से कानून उल्टे कश्मीर से बनकर आ रहा है। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान दो प्रधान देश में नहीं चलेगे का नारा देकर, इस व्यवस्था का जोरदार विरोध किया तथा उन्होंने कश्मीर की तरफ कूच कर दिया। जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा 23 जून सन् 1953 को डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर जेल में ही संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। उस समय कश्मीर के वजीर -ए -आजम शेख अब्दुल्ला (5 मार्च सन् 1948 से 9 अगस्त सन् 1953) थे। सम्पूर्ण भारत की राजनीति में इस घटना से अफरा-तफरी सी हो गई। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को हटा कर देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद कर दिया। अब कश्मीर के वजीर -ए -आजम बख्शी गुलाम मोहम्मद (9 अगस्त सन् 1953 से 12 अक्टूबर सन् 1963) बन गए। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान से शेख अब्दुल्ला तो हट गए परंतु धारा 370 की आड़ में जो कश्मीर में असंवैधानिक कानून बनने प्रारम्भ हो गए थे, उन पर अंकुश नहीं लग सका।
समय बीतने लगा राष्ट्रपति महोदय के माध्यम से पहली बार में ही 100 आर्टिकल कश्मीर में कानून के रूप में चले गये। लेकिन सन् 1954 में कश्मीर की विधानसभा ने एक कानून पारित कर राष्ट्रपति महोदय को भेज दिया, जिसका नंबर था 35 A। इस कानून के अंतर्गत कश्मीर की विधानसभा ने अपने राज्य में कौन कश्मीर का नागरिक होगा, बनाने का अधिकार ले रखा था। कश्मीर के नागरिक को ही राज्य में चुनाव में मत देने का अधिकार, सरकारी नौकरी करने का अधिकार, सरकारी सहायता का अधिकार व प्रोफेशनल ऐजुकेशन का अधिकार होगा, सबसे अजीब बात यह थी की नागरिकता देने के लिए सन् 1944 से जम्मू-कश्मीर में रहने वाले को ही नागरिकता मिलेगी, ऐसा प्रावधान इस कानून में था। जब तत्कालीन राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद के सामने यह कानून बनकर पहुचा तो उन्होंने आफिसयली तौर पर एक चिट्ठी देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस कानून के विषय में लिखी, प्रधानमंत्री कार्यालय से इस चिट्ठी के जबाव में पत्र में यह लिखकर भेजा गया कि इस विषय पर अनआफिसियली बैठ कर विचार विमर्श करेंगे। इस कानून के बनने से सबसे बड़ी गडबड यह थी कि जम्मू-कश्मीर के नागरिक तो भारत के नागरिक थे परन्तु भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर का नागरिक नहीं था। पूरे भारत में राज्य का नागरिक व भारत का नागरिक एक ही है। दूसरी गडबड यह थी कि नागरिकता उसे ही मिलनी थी जो जम्मू-कश्मीर राज्य में सन् 1944 से रहता हो। देश का बंटवारा सन् 1947 में हुआ था। जो शरणार्थी पाकिस्तान से आकर सन् 1947 में जम्मू-कश्मीर में रह रहे थे, उन्हें इस कानून ने नागरिकता से वंचित कर दिया। उनके साथ क्या हो गया है इसकी उन्हें भनक तक भी नहीं लगी, देश के सामने मीडिया के माध्यम से, संसद में इस कानून की चर्चा तक नहीं की गई। यह एक तरह से भारत की जनता के साथ संवैधानिक धोखेबाजी कर दी गई। इस कानून के कारण जहां कश्मीर में बसे लाखों शरणार्थी बर्बाद हो गए, वहीं दूसरी ओर गुलाम कश्मीर से आने वाले लोगों को जम्मू-कश्मीर राज्य नागरिकता देता चला गया। गुलाम कश्मीर से कुछ कश्मीरी हिंदू (ब्राह्मण) भी आयें, परन्तु मुस्लिम ज्यादा संख्या में आये, जिस कारण कश्मीर घाटी में मुस्लिम आबादी का दबाव बढता चला गया।
सन् 1957 में कश्मीर में एक घटना घटी, कश्मीर में सफाई कर्मचारियों (बाल्मीकि समुदाय) ने हड़ताल कर दी। कश्मीर के मुख्यमंत्री ने पंजाब के मुख्यमंत्री से निवेदन किया कि वो पंजाब से कुछ सफाई कर्मचारियों के परिवार कश्मीर भेज दे। ताकि व्यवस्था बन सके। पंजाब के मुख्यमंत्री ने कहा कि भाई आपके यहाँ नागरिकता को लेकर चक्कर है, हम नहीं भेज सकते। कश्मीर के मुख्यमंत्री ने पंजाब के मुख्यमंत्री को भरोसा दिलाया कि पंजाब से आने वाले सफाई कर्मचारियों के परिवारों को कोई परेशानी नहीं होगी, हम उसकी व्यवस्था कर देंगे। पंजाब से कई सो बाल्मीकि परिवार कश्मीर पहुंच गए। वो अनपढ़, सीधे साधे लोग थे। कश्मीर की सरकार ने उनके साथ यह धोखाधड़ी की, उन्हें नागरिकता तो दी नहीं, एक सर्विस क्लोज में बस यह लिख दिया कि पंजाब से आए बाल्मीकि परिवार कश्मीर में सफाई कर्मचारी का कार्य करने के लिए अधिकृत रहेगें। जब तो पता नहीं लगा। परन्तु 20 -30 वर्ष बाद जब उन बाल्मीकि परिवारों के बच्चे पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी के लिए पहुंचे तो कश्मीर की सरकार ने कहा की आप यहाँ के नागरिक नहीं है, आपको यहां सिर्फ सफाई कर्मचारी बनने की अनुमति है, आप पर चाहे कितनी ही बडी डिग्री क्यों न हो, आप कश्मीर में सिर्फ सफाई कर्मचारी ही बन सकते हैं। ऐसा कानून भारत तो क्या, विश्व के किसी देश में भी आज नहीं होगा कि एक सफाई कर्मचारी का बेटा, चाहे कितना भी बडा विद्वान क्यों न हो, वह सिर्फ सफाई कर्मचारी ही बन सकता है। क्योंकि धारा 35 A के बारे में देश में सूचना ही नहीं थी, अतः कश्मीर में गडबड के लिए धारा 370 को ही दोष दिया जाता रहा। बाकि दल को तो कश्मीर में क्या हो रहा है इससे मतलब ही नहीं था परन्तु जनसंघ व भाजपा ने कश्मीर के विषय को लगातार उठाया।
समय व्यतीत होता रहा। 26 अप्रैल सन् 1961 को महाराजा हरि सिंह की मृत्यु हो गई। 27 मई सन् 1964 को जवाहरलाल नेहरू की भी मृत्यु हो गई। मार्च सन् 1965 में कश्मीर विधानसभा ने प्रस्ताव पारित कर कश्मीर से सदर -ए -रियासत व वजीर -ए -आजम की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। 30 मार्च सन् 1965 को कश्मीर के सदर -ए -रियासत कर्ण सिंह को राष्ट्रपति महोदय ने कश्मीर का राज्यपाल बना दिया।इस समय कश्मीर के वजीर -ए -आजम गुलाम मोहम्मद सादिक (28 फरवरी सन् 1964 से 30 मार्च सन् 1965) थे, जो कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री (30 मार्च सन् 1965 से 12 दिसंबर सन् 1971) बने। इस समय भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे तथा भारत के राष्ट्रपति डॉ सर्वपलली राधा कृष्णन थे। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान सार्थक हुआ। करीब 450 कानूनों में से राष्ट्रपति महोदय के माध्यम से कश्मीर में 350 कानून लागू करा दिए।
परंतु कश्मीर घाटी में आबादी का संतुलन बिगड़ने के कारण साम्प्रदायिक संघर्ष बढ़ने लगा। इस संघर्ष का परिणाम यह निकला कि 19 जनवरी सन् 1990 को घाटी से हिंदुओं (ब्राह्मण) का पलायन हो गया। उस समय देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे, कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला थे। भारत के गृहमंत्री कश्मीर के ही मुफ्ती मोहम्मद सईद थे, कश्मीर के राज्यपाल के वी कृष्ण राव थे। धर्मांध लोगों के समूहों ने मस्जिद से लाउडस्पीकर पर घोषणा करके कि यदि कश्मीर में रहना चाहते हो तो मुसलमान बनो वर्ना कश्मीर खाली करो कि घोषणा करके लाखों की संख्या में हिंदूओ को बेघर कर दिया। देश की चुनी हुई सरकार अपने देश के नागरिकों को सुरक्षा देने में असफल रही। राजनीतिक खानापूर्ति जरूर हुई। कश्मीर के मुख्यमंत्री को हटा कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, राज्यपाल को भी हटा कर दूसरा बना दिया गया। इतने बड़े पलायन पर देश में प्रतिक्रिया होती तभी 13 अगस्त सन् 1990 को प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिश को लागू कर पिछडी जातियों को 27 % आरक्षण दे दिया। देश का अनारक्षित वर्ग, जिसका नेतृत्व ब्राह्मण कर रहे थे, अपने कश्मीरी भाईयों के दर्द को भूलकर आरक्षण के विरोध में लग गये। इस सामाजिक उथल-पुथल को संतुलित करने के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी ने 25 सितम्बर सन् 1990 को सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा आरम्भ कर दी। 23 अक्टूबर सन् 1990 को आडवाणी जी की रथयात्रा को बिहार में रोक दिया गया। 10 नवंबर सन् 1990 को वीपी सिंह की सरकार गिर गई।
समय चक्र चलता रहा। 19 मार्च सन् 1998 को अटलबिहारी बाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने। परन्तु उनकी सरकार गठबंधन की सरकार थी, भाजपा के पास पूरा बहुमत नहीं था। इसलिए सहयोगी दलों के कारण कश्मीर का मुद्दा सरकार के एजेंडे से बाहर रहा। धारा 370 का विरोध आंशिक तौर पर भाजपा की ओर से जारी रहा। सन् 2009 की मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में यह सूचना देश के राजनीतिक दलों को प्राप्त हुई कि धारा 370 की तरह तो देश के 15 प्रदेशों में धारा है परन्तु वहां कश्मीर जैसी समस्या नहीं है। अतः कश्मीर में धारा 370 की वजह से समस्या नहीं है बल्कि धारा 370 की आड़ लेकर लागू की गई धारा 35 A के कारण समस्या है। सन् 2014 में पुनः भाजपा की सरकार बनी। कश्मीर से धारा हटाने के लिए यह जरूरी है कि या तो कश्मीर की विधानसभा उसे हटाने का प्रस्ताव पारित करके दे या संसद के दोनों सदनों (लोकसभा व राज्यसभा) मे दो तिहाई बहुमत से यह धारा हट सकती है। दो तिहाई बहुमत भाजपा के पास है नहीं, कश्मीर विधानसभा प्रस्ताव पास करेगी नहीं। ऐसी परिस्थिति में 19 अगस्त सन् 2014 को कोर्ट में संदीप कुलकर्णी नामक व्यक्ति ने रिट इस धारा की सुनवाई के लिए डाल दी, कोर्ट में केस विचाराधीन है, संदीप कुलकर्णी की मृत्यु हो चुकी है, डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान व कश्मीर के बेबस नागरिक न्याय का इंतजार कर रहे हैं।
उपरोक्त घटनाओं पर जब दृष्टि डालते हैं तो दिखाई देता है कि भारत का शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की नियत भले ही ठीक हो परन्तु निति ठीक नहीं थी, इस कारण भारत को ज्यादा हानि हुई।
जवाहरलाल नेहरू जी का कश्मीर में घुसपैठियों के रहते युद्ध विराम करना, यूएनओ में जाना, कश्मीर विधानसभा से पारित 35 A धारा का लागू हो जाना तथा चीन के हमले में जो हानि भारत को उठानी पड़ी, वह नेहरू जी की नीतियों की असफलता को दर्शाती है।
भारत में विचारवान व्यक्तियों की यह धारणा रही है कि नेहरू जी के स्थान पर यदि सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते तो भारत के लिए ज्यादा लाभकारी होता। सरदार पटेल का कश्मीरी घुसपैठियों के सामने युद्ध विराम का विरोध करना, यूएनओ में जाने का विरोध करना, नेहरू जी को चीन की ओर से सचेत करना, भारतीयों की इस धारणा को सही दर्शाता है।
तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी यदि 35 A धारा को सलाह के लिए  सर्वोच्च न्यायालय को भेज देते तो यह धारा लागू ही नहीं होती, जैसे सन् 1981 में रीसेटलमेंट एक्ट का कानून जो कश्मीर विधानसभा ने पास कर राष्ट्रपति जैल सिंह जी को भेजा तो उन्होंने उसे कानून को  सर्वोच्च न्यायालय भेज दिया, वह पास ही नहीं हुआ।
कश्मीर घाटी के हिंदूओ के खाली होने के सन् 1990 के समय कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला दोबारा मुख्यमंत्री बने, भारत के गृहमंत्री कश्मीर के मुफ्ती मोहम्मद सईद भी कश्मीर के मुख्यमंत्री बने, कश्मीर के राज्यपाल केवी कृष्ण राव भी दोबारा कश्मीर के राज्यपाल बने, किसी की कोई हानि नहीं हुई। परन्तु कश्मीर का हिंदू आज भी दर-दर भटक रहा है।
पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों में से इन्द्रकुमार गुजराल व डा मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने, लालकृष्ण आडवाणी जी गृहमंत्री बने। परन्तु जो शरणार्थी कश्मीर चले गए वो गांव के प्रधान भी ना बने, वे बर्बाद हो गए। लेकिन पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने उनके हक के लिए कोई आवाज़ नहीं उठायी।
जो बाल्मीकि परिवार पंजाब से कश्मीर गए, उनके बच्चे चाहे कितनी बड़ी डिग्री ले ले, वह सफाई कर्मचारी ही बनेगे। उनके लिए दलित राजनीति करने वालों ने आज तक कोई आवाज नहीं उठायी।
कश्मीर घाटी में हिंदूओ के पलायन के समय देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह को भी भारतीय समाज मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने का दोषी मानकर निंदा करता है। इतने बड़े पलायन के लिए दोष देता कोई देखा नहीं।
आज कश्मीर में भारत सरकार प्रयास करती दिख रही है। अभी कुछ दिन पूर्व भारत के गृहमंत्री अमित शाह जी कश्मीर गये। यह तीस वर्षों में किसी गृहमंत्री का पहला ऐसा दौरा है, जब कश्मीर में किसी अलगाववादी संगठन ने बंद का आह्वान नहीं किया। गृहमंत्री जी कश्मीर जाकर अनुसूचित जनजाति के लोगों से मिले। वर्ना अब से पहले नेता अलगाववादियों से ही बात करते थे। कश्मीर के एसटी वर्ग के लोग कश्मीर में शांति व कानून व्यवस्था कायम करने में सहयोगी हो सकते हैं। भारत सरकार को कश्मीर राज्य में विधायक के लिए एसटी वर्ग की सीटें आरक्षित कर देनी चाहिए। कश्मीर के विषय में जब केंद्र सरकार कश्मीर के लोगों से बात करें, उस बातचीत में कश्मीर के एसटी वर्ग की भी नुमाइंदगी होनी चाहिए। क्योंकि कश्मीर के एसटी वर्ग की समस्या, घाटी के मुस्लिम से अलग है।
5 अगस्त सन् 2019 को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह व कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मलिक जी के द्वारा कश्मीर पूर्ण रूप से भारत का हुआ। धारा 370 व 35 A समाप्त। लद्दाख अलग केंद्र शासित प्रदेश बना। जम्मू-कश्मीर भी केंद्र शासित प्रदेश बना। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान को श्रद्धांजलि अर्पित हुई।
संदर्भ :-
1- संविधान विशेषज्ञ श्री डी के दूबे -धारा 370 और 35 A भ्रम व सत्य।
2- संविधान विशेषज्ञ श्री अमर सिंह -जम्मू-कश्मीर धारा 370 और 35 A।
समाप्त