बुधवार, 13 मई 2020

सन् 1857 के अमर क्रांतिकारी एवं किला-परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह- लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम का प्रारंभ मेरठ से हुआ।इस स्वतंत्रता-संग्राम में मेरठ के किला-परिक्षत गढ़ कस्बे के निकटवर्ती गांव पूठी के निवासी राव कदम सिंह ने विदेशी अत्याचारी ब्रिटिश सत्ता से भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जो संघर्ष किया,वह भुलाने योग्य नहीं है।
आखिर राव कदम सिंह किस पृष्ठभूमि से थे,वो कोन सी सामाजिक पूंजी थी जिसने राव कदम सिंह को अपने क्षेत्र के क्रांतिकारियों का नेता बना दिया,इस पर नजर डालें तो हमें सन् 1857 से 67 वर्ष पूर्व में सन् 1790  में जाना होगा जब किला-परिक्षत गढ़ के राव जेत सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात उनके दत्तक पुत्र नैन सिंह नागर राज गद्दी पर बैठे। 
राव जेत सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात नैन सिंह नागर पूर्वी परगने के राजा बने। उनकेे दो पुत्र थे। एक पुत्र का नाम नत्था सिंह तथा दूसरे पुत्र का नाम गुमानी सिंह था।राजा नैन सिंह नागर ने अपने क्षेत्र के प्रत्येक वर्ग को खुशहाल बनाने के लिए भरसक कार्य किया।कई सड़कों का निर्माण करवाया, चिकित्सालय खुलवाये,, चरागाहों के लिए भूमि  दी। उन्होंने बहसूमा के अंदर अपने सहित, अपने छः भाइयों के लिए सात महल बनवाये।अनेक मंदिर बनवाये जैसे परिक्षत गढ़ का कात्यानी मंदिर,शिव मंदिर, हस्तिनापुर में जैन मन्दिर के लिए भूमि दान तथा बहसूमा व गढ़-मुक्तेश्वर में भी कई मंदिर व धर्मशालाएं बनवायी। उन्होंने अपने क्षेत्र में सैयद मुसलमानों के अत्याचारों  से आम गरीब आदमी को मुक्त कराया तथा अत्याचार करने वाले सैयद जागीरदारों को मौत के घाट उतार दिया। राजा नैन सिंह नागर ने अपने राज्य की सुरक्षा एवं राजस्व प्राप्ति के लिए अपने छः भाइयों को गढ़ियों में तेनात किया। गोहरा आलमगीर की गढ़ी में चेन सिंह सिंह को, बहसूमा में भूप सिंह को,परिक्षत गढ़ के निकट पूठी में गढ़ी बनवाकर जहांगीर सिंह को, मवाना के निकट ढिकोली में बीरबल सिंह को,कनखल में अजब सिंह को,  सीकरी में खुशहाल सिंह को नियुक्त कर दिया।
राजा नेन सिंह नागर ने 13 वर्ष मराठों तथा 15 वर्ष अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत अपने क्षेत्र की जागीर का नेतृत्व किया।
सन् 1803 में जब अंग्रेज दिल्ली पर काबिज हो गये,उस समय अंग्रेजों के अनुसार ऊपरी दोआब क्षेत्र में सहारनपुर से लेकर बुलंदशहर तक पांच राजनीतिक परिवार थे, जिनमें एक लंढोरा के राजा रामदयाल सिंह, जिन पर 804 गांव थे, दूसरे किला परिक्षत गढ/बहसूमा के राजा नैन सिंह नागर जिनके पास 350 गांव तथा तिसरे दादरी के राव अजीत सिंह भाटी जिनके पास 138 गांव थे,चौथे कुचेसर के मगनीराम जाट और पांचवें कुवंर छतारी बुलंदशहर के,जो बडगूजर मुस्लिम राजपूत थे।इन पांच परिवारों मे से लंढोरा, किला परिक्षत गढ़ और दादरी के परिवार गुर्जर जाति से थे।
राजा नैन सिंह नागर के राज्य क्षेत्र से लगी लंढोरा नाम की गुर्जरों के पंवार गोत्र की रियासत थी, जिसके राजा रामदयाल थे, सन् 1813 में राजा रामदयाल की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने राजा की मृत्यु के बाद ही इस रियासत को छिन्न-भिन्न कर दिया तथा राजपरिवार के सदस्यों में से कई ताल्लुकेदार बना कर रियासत को बांट दिया। इस घटना से क्षेत्र मे तनाव बन गया, जिसका असर किला-परिक्षत गढ़ की रियासत पर भी पडा।
अपने पूर्वज राव जेत सिंह नागर की तरह ही अपने क्षेत्र की सेवा करते हुए सन् 1818 में राजा नेन सिंह नागर स्वर्गवासी हो गये।राजा नेन सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात उनका बेटा नत्था सिंह परिक्षत गढ़ की राजगद्दी पर बेठा।राजा नेन सिंह नागर के दूसरे पुत्र गुमानी सिंह सन्यासी बन  गए थे।
यह तो सर्वविदित है कि किला-परिक्षत गढ़ की रियासत दिल्ली के बादशाह के अन्तर्गत आती थी, अतः राजा नेन सिंह नागर के राजा बनने (सन् 1790)से उनकी मृत्यु ( सन् 1818)तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति में क्या हो रहा था,उसकी जानकारी के लिए देखें परिशिष्ट नंबर-1 

इस लेख में हमारे लेखन का उद्देश्य मेरठ के किला-परिक्षत गढ़ के राव कदम सिंह नागर की सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में भूमिका पर प्रकाश डालना है। इसलिए हम पुनः किला-परिक्षत गढ़ रियासत में घट रही घटनाओं की ओर केंद्रित होते हैं-
 राजा नेन सिंह नागर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र नत्था सिंह राजा बने।इस समय दिल्ली में अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया था। अंग्रेज भारतीय राजाओं, रजवाड़ों व जागीरदारों को समाप्त करते जा रहे थी।
अंग्रेजों ने सन् 1819 में परिक्षत गढ़ की निकटवर्ती रियासत लंढोरा के अंतर्गत आने वाले  कुंजा-बहादुर पुर ताल्लुके का ताल्लुकेदार विजय सिंह को  बना दिया। स्थानिय किसानों ने अंग्रेजों की शोषणकारी निति से क्षुब्द होकर हथियार उठा लिए विजय सिंह ने किसानों का नेतृत्व किया। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी थे।। 03 अक्टूबर सन् 1824 को किसानों व  ब्रिटिश सेना में घमासान युद्ध हुआ।इस युद्ध में विजय सिंह अपने सेनापति कल्याण सिंह सहित शहीद हो गए।ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी  इस युद्ध में शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। किसानों के इस संघर्ष से किला-परिक्षत गढ़ के किसानों में भी तनाव व्याप्त हो गया।
अंग्रेजी सरकार ने इस क्षेत्र में लोगों को निशस्त्र करने का अभियान चलाया।किला-परिक्षत गढ़ के किले की बुर्ज पर तीन तोपें लगी हुई थी। राजा नत्था सिंह ने उन तोपों को किले की बुर्ज से उतार कर गुप्त स्थान पर छिपा दिया।
 परिक्षत गढ़ की रियासत को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। नत्था सिंह को केवल 3.5 गांव की जमींदारी का अधिकार दिया तथा 183 गांवों में केवल 5% ननकारा दिया।इस परिस्थिति में नत्था सिंह ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध दीवानी दावा कोर्ट में दायर कर दिया। राजा नत्था सिंह का दावा आंशिक रूप से स्वीकार हो गया।अब नत्था सिंह को 274 गांव मिले, जिनकी मालगुजारी 50000 रूपए वार्षिक थी। इस प्रकार राजा नत्था सिंह नागर के समय परिक्षत गढ़ रियासत एक छोटे-से हिस्से में सिमट कर रह गई। राजा नत्था सिंह के संतान के रूप में एक पुत्री थी।जिसका नाम लाडकौर था।जिसकी शादी लंढोरा रियासत के राजा खुशहाल सिंह के साथ हो गई थी।समय चक्र चलता रहा अगस्त सन् 1833 को राजा नत्था सिंह की मृत्यु हो गई।
 इससे आगे रियासत के बारे में जानने से पहले अंग्रेजों की शासन व्यवस्था जानने के लिए देखें -
परिशिष्ट नंबर-2 

सन् 1833 में राजा नत्था सिंह की मृत्यु होने के बाद जागीर को पुनः समाप्त कर दिया गया। नत्था सिंह की रानी को 9000 रूपए प्रति वर्ष पेंशन तथा 5% एलाउंस अंग्रेजों ने दिया। सन् 1836 में सर एच एम इलियट ने जिले का बंदोबस्त किया। राजा नत्था सिंह के अन्य राजपरिवार के सदस्यों में 20 गांव वितरित कर दिए गए।जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं कि राजा नैन सिंह के छः भाई थे।उन सबको चार-चार गांव दे दिए गए। ऐसा लगता है कि छः भाईयों में से एक निसंतान स्वर्गवासी हो गये थे, इसलिए 20 गांवों में से पांच भाइयों में चार-चार गांव दिये गये। राजा नैन सिंह के भाई जहांगीर सिंह जो पूठी गांव की गढ़ी में रहते थे,राव कदम सिंह इन्हीं जहांगीर सिंह के पोत्र तथा कुंवर देवी सिंह के पुत्र थे,राव कदम सिंह की माता का नाम प्राणकौर था। राव कदम सिंह का जन्म 25-10-1831को हुआ था।इस समय राव कदम सिंह 26 वर्ष के नौजवान बलिष्ठ नवयुवक थे तथा किला परिक्षत गढ रियासत के रानी लाडकौर की ओर से केयरटेकर थे। 
अब हम लालकिले में घट रहे उस घटनाक्रम पर नजर डालते हैं जिसकी वजह से मेरठ में सन् 1857 की स्वतंत्रता-संग्राम का प्रारम्भ हुआ तथा राव कदम सिंह ने इस संग्राम में अपनी आहूति दे दी थी । देखें-
परिशिष्ट नंबर-3

10 मई 1857 को मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के निर्देश पर सभी सड़के रोक दी और अंग्रेजों के यातायात और संचार को ठप कर दिया। मार्ग से निकलने वाले सभी अंग्रेजो पर हमले किए गए। मवाना-हस्तिनापुर के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के भाई दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के नेतृत्व में बिजनौर के विद्रोहियों के साथ साझा मोर्चा गठित किया और बिजनौर के मण्डावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्र में धावे मारकर वहाँ अंग्रेजी राज को हिला दिया। राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया गया। राव कदम सिंह और दलेल सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने परीक्षतगढ़ की पुलिस पर हमला बोल दिया और उसे मेरठ तक खदेड दिया।राजा नैन सिंह नागर के भाई भूप सिंह नागर के दो पुत्र थे जिनका नाम तुला सिंह और लक्ष्मण सिंह था, कुंवर तुला सिंह के पुत्र कुंवर दलेल सिंह नागर थे,दलेल सिंह नागर का विवाह पांचली गांव के जयपाल सिंह की पुत्री जैन कौर के साथ हुआ था।जो धन सिंह कोतवाल के परिवार के थे।
उस समय अंग्रेज आईसीएस अधिकारी से नीचे क्लर्क लेवल पर स्थानीय राजाओं और जागीरदारों की सिफारिश पर भारतीयों को नौकरी पर रखते थे। अतः इस बात की प्रबल संभावना है कि धन सिंह कोतवाल को पुलिस में अंग्रेजों ने राव कदम सिंह की सिफारिश पर ही नौकरी पर रखा हो। सन् 1925 में नवाब मुहम्मद अहमद सैयद खान छतारी जो  यूपी लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिए जमींदारों के द्वारा नॉमिनेट कर दिये गये थे। 1925 में होम मेंबर यानी मिनिस्टर टाइप की पोजीशन पर पहुंचे। बहुत ज्यादा पावर तो नहीं थी फिर भी रिकमेंड करने भर की पावर थी।  इन्होंने एक बदलाव किया। उस वक्त भी नौकरियां सिफारिश पर लगती थीं। इनका कहना था कि सिफारिश के बजाए क्लर्कों के लिए परीक्षा करा ली जाए।  तब सन् 1925 के बाद से सामान्य नौकरी पर सिफारिश के स्थान पर परीक्षा प्रारम्भ हुई।
  राव कदम सिंह अपने पूर्वज जैत सिंह नागर के समय का राज्य स्थापित करना चाहते थे।पांचली और सीकरी में अपनी गढी  स्थापित करना चाहते थे। 
अंग्रेजो से सम्भावित युद्व की तैयारी में परीक्षतगढ़ के किले की बुर्ज पर उन तीन तोपों को चढ़ा दिया जो राव कदम सिंह के पूर्वज राजा नत्था सिंह द्वारा छिपा कर रख दी गई थी। 30-31मई को हिंडन के तट पर क्रांतिकारी सेना व अंग्रेजी सेना में युद्ध हुआ जिसमें क्रांतिकारी सेना जीत न सकी परन्तु हारी भी नहीं।31 मई को बरेली में भी क्रांति हो गई,बरेली से भी अंग्रेजों को भगा दिया गया। बिजनौर के नजीबाबाद का नबाब महमूद खां रूहेला सरदार नजीबुद्दौला का वंशज था,इस परिवार से राव कदम सिंह के परिवार के राव जैत सिंह के समय से ही सम्बन्ध थे। महमूद खां के परिवार का बख्त खां अंग्रेजों की सेना में सूबेदार था तथा बरेली में क्रांतिकारी सेना का सेनानायक था।बरेली में शासन की व्यवस्था बनाने के बाद बख्त खां अपनी सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया।इस समय गढ़-मुक्तेश्वर में गंगा नदी पर नावों का पुल बना हुआ था। अंग्रेज नही चाहते थे कि यह सेना दिल्ली पहुंचे। अतः अंग्रेजों ने इस  पुल को तोड दिया। लेकिन राव कदम सिंह ने अपने सामर्थ्य का प्रयोग करते हुए नावों की व्यवस्था कर दी तथा इस सेना को 27 जून सन् 1857 को गंगा नदी को पार करा दिया। अंग्रेज देखते रह गए। 
 बरेली ब्रिगेड ने राव कदम सिंह गूजर तथा अन्य गूजरों की मदद से गढ़मुक्तेश्वर के पूर्वी घाट पर नावो का इंतजाम कर लिया और 27 जून को बख्त खान के नेतृत्व में गढ़ मुक्तेश्वर से गंगा नदी पार कर ली और दिल्ली की तरफ कूच कर गईबरेली ब्रिगेड ने रास्ते में पड़नेवाले बाबूगढ़ स्थित अस्तबल की ईमारत सहित सभी सरकारी भवनों को नष्ट कर दिया
27 जून का दिन गंगा जमुना के दोआबा में अंग्रेजों और भारतियों के लिए विशेष महत्व रखता है।27 जून को ही चौधरी शाहमल सिंह ने यमुना पर बने पुल को तोड़ डाला, जिससे अंग्रेजी सेना की मदद के लिए अंग्रेजों के समर्थकों की सेना दोआबा में प्रवेश नही कर पाई।27 जून को ही सहारनपुर के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट रोबर्ट सन की सेना को गंगोह में क्रांतिकारी नेता फतुआ गुर्जर ने वही रोक दिया तथा युद्ध के मेदान में अपने हजारों सहयोगियों के साथ बलिदान दे दिया। सहारनपुर से भी अंग्रेजी सेना बरेली ब्रिगेड को दिल्ली जाने से रोकने के लिए अंग्रेजी सेना की मदद को नही जा सकी।इस प्रकार 27 जून को तीन मोर्चों पर अंग्रेजों के साथ भारतीय क्रांतिकारियों का युद्ध हुआ। जिसमें भारतीय सफल रहें।
मजिस्ट्रेट साप्टे अपने यूरोपिय साथियो के साथ मेरठ भाग गयाबरेली ब्रिगेड के दिल्ली पहुँचने से विद्रोही मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की स्थिति बहुत मज़बूत हो गईइस सम्पूर्ण घटनाक्रम से दिल्ली और दोआब सहित पूरे देश में क्रांतिकारियों के होंसले बुलंद हो गए
यदि यह सेना गंगा पार कर दिल्ली ना पहुचती तो दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार जुलाई के पहले सप्ताह में ही हो जाता।एक जुलाई को बख्त खां अपनी सेना सहित दिल्ली पहुंच गए।अब दिल्ली पर क्रांतिकारियों का अधिकार सितंबर के अंत तक रहा।
अब राजनीति के पत्ते खुल चुके थे।यह साफ हो गया था कि अंग्रेजों व क्रांतिकारी सेना में युद्ध होने के बाद यदि परिणाम क्रांतिकारी सेना के पक्ष में रहा तो राव कदम सिंह किला-परिक्षत गढ़ के राजा रहेंगे,यदि परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गया तो वो होगा जो अंग्रेज चाहेंगे।एक जुलाई को बख्त खां सेना लेकर दिल्ली पहुंच गया। 
10 मई से लेकर बख्त खां के दिल्ली में पहुचने के बीच दिल्ली में चल रहे घटनाक्रम की जानकारी के लिए देखें-

परिशिष्ट नंबर-4 

 अंग्रेजों ने दिल्ली में लड रही क्रांतिकारी सेना की सहायता को रोकने के लिए चारों ओर से घेराबंदी शुरू कर दी।27 जून को जब राव कदम सिंह ने बख्त खां की सेना को गंगा पार करायी थी, उसके अगले ही दिन मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे।चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने धन सिंह कोतवाल के गांव पर हमला कर दिया। पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 46 कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को फांसी दे दी गई। 
9 जुलाई को खाकी रिसाला ने दिल्ली रोड पर स्थित सीकरी गांव पर हमला कर दिया।मेरठ के तत्कालीन कमिश्नर एफ0 विलियमस् की शासन को भेजी रिपोर्ट के अनुसार गुर्जर बाहुल्य गाँव सीकरी खुर्द का संघर्ष पूरे पाँच घंटे चला और इसमें 170 क्रान्तिकारी शहीद हुए।
17 जुलाई को खाकी रिसाला ने बागपत के पास बासोद गांव पर हमला किया। डनलप के अनुसार बासौद में लगभग 150 लोग मारे गये। 18 जुलाई को खाकी रिसाला ने चौधरी शाहमल सिंह पर हमला किया गया।इस लडाई में करीब 200 भारतीय शहीद हुए। जिनमें बाबा शाहमल भी थे।22 जुलाई को खाकी रिसाला सरधना के पास अकलपुरा पहुँच गया।क्रान्तिकारी नरपत सिंह के घर के आस-पास मोर्चा जमाए हुये थे। परन्तु आधुनिक हथियारों के सामने वे टिक न सकें। गांव  मे जो भी आदमी मिला अंग्रेजो ने उसे गोली से उडा दिया। नरपत सिंह सहित सैकडो क्रान्तिकारी शहीद हो गए।
अंग्रेजों ने दिल्ली की क्रांतिकारी सेना को गंगा-यमुना के मध्य मेरठ से दिल्ली के बीच से मिलने वाली सहायता की हर सम्भावना को ध्वस्त करने का प्रयास किया।
इन घटनाओं के बाद राव कदम सिंह ने परीक्षतगढ़ छोड दिया और बहसूमा में मोर्चा लगाया, जहाँ गंगा खादर से उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ लडाई जारी रखी।
18 सितम्बर को  राव कदम सिंह के समर्थक क्रान्तिकारियों ने मवाना पर हमला बोल दिया और तहसील को घेर लिया। खाकी रिसाले के वहाँ पहुचने के कारण क्रान्तिकारियों को पीछे हटना पडा। 20 सितम्बर को अंग्रेजो ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। हालातों को देखते हुये राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। थाना भवन के काजी इनायत अली और दिल्ली से तीन मुगल शहजादे भी भाग कर बिजनौर पहुँच गए।

 14 जुलाई के बाद से दिल्ली में क्रांतिकारी सेना की पराजय तक के घटनाक्रम को जानने के लिए देखें-

परिशिष्ट नंबर-5

दिल्ली में क्रांतिकारियो की हार के पश्चात अब पुनः पाठको को मेरठ की ओर ले चलते हैं। जहां राव कदम सिंह संघर्ष कर रहे थे। इन परिस्थितियों में राव कदम सिंह तथा उनके सहयोगियों ने निर्णय लिया कि अंतिम सांस तक संघर्ष किया जायेगा। अंजाम चाहें जो हो। अंग्रेजों की सेना ने परिक्षत गढ़ के किले तथा पूठी की गढ़ को जमींदोज कर दिया।
राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। 
राव कदम सिंह आदि के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजनौर से नदी पार कर कई अभियान किये। उन्होने रंजीतपुर मे हमला बोलकर अंग्रेजो के घोडे छीन लिये। 5 जनवरी 1858 को नदी पार कर मीरापुर मुज़फ्फरनगर मे पुलिस थाने को आग लगा दी। इसके बाद हरिद्वार क्षेत्र में मायापुर गंगा नहर चौकी पर हमला बोल दिया। कनखल में अंग्रेजो के बंगले जला दिये। इन अभियानों से उत्साहित होकर नवाब महमूद खान ने कदम सिंह एवं दलेल सिंह आदि के साथ मेरठ पर आक्रमण करने की योजना बनाई परन्तु उससे पहले ही 28 अप्रैल 1858 को बिजनौर में क्रान्तिकारियों की अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में हार हो गई।अंग्रेजो ने नवाब को रामपुर के पास से गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद बरेली मे मे भी क्रान्तिकारी हार गए। कदम सिंह एवं दलेल सिंह का उसके बाद क्या हुआ कुछ पता नही चलता।
लोक मृत्यु भी मृत्यु ही मानी गई है। अतः 28 अप्रैल सन् 1858 को हम किला-परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह तथा उनके सहयोगियों का बलिदान दिवस मान सकते हैं।
राव कदम सिंह व उनके साथियों को शत् शत् नमन।
समाप्त

परिशिष्ट नंबर-1

मराठा सरदार महादजी सिंधिया जिनका केन्द्र ग्वालियर था,का सन् 1794 में स्वर्गवास हो गया।अब दोलत राव सिंधिया ने महादजी सिंधिया का स्थान ले लिया।समय व्यतीत होता रहा।नो वर्ष पश्चात 11 सितम्बर सन् 1803 को इस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने दिल्ली पर हमला कर दिया।दोलत राव सिंधिया की सेना ने अंग्रेज सेना से डटकर युद्ध किया। परंतु मराठा सेना परास्त हो गई। अंग्रेजों का दिल्ली पर अधिकार हो गया।अब 16 सितंबर सन् 1803 को इस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी जनरल वेग ने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से भेंट की तथा बादशाह को विश्वास दिलाया कि उसे घबराने की जरूरत नहीं है,वह पहले की तरह ही बादशाह रहेगा।8 अक्टूबर सन् 1803 को लार्ड वैलेजली ने बादशाह को पत्र लिखकर कहा कि बादशाह के लिए शांति व सम्मान का कम्पनी शासन पूरा ध्यान रखेगा। अंग्रेज चाहते तो बादशाह को हटा सकते थे परंतु वे बादशाह की आड़ लेकर भारतीयों का शोषण करना चाहते थे।अपनी योजना के अनुसार अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम द्वितीय की पेंशन जो मराठे 17 हजार रुपए प्रति माह देते थे,इस पेंशन को बढ़ाकर अंग्रेजों ने 60 हजार रुपए प्रति माह कर दिया। अब गंगा-यमुना के दोआबा का क्षेत्र अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।19 नवम्बर सन् 1806 को बादशाह शाह आलम द्वितीय की मृत्यु हो गई। अब अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम द्वितीय के पुत्र को दिल्ली का बादशाह बना दिया।जिसका नाम अकबर द्वितीय था,यह भारत का 18 वा मुगल बादशाह था।समय व्यतीत होने लगा। सन् 1818 में दो घटनाएं और घटित हुई।एक मुगल बादशाह के अन्तर्गत आने वाली अवध रियासत पूर्ण रूप से इस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की अधिनस्थ रियासत हो गई। दूसरे मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने पूना से हटा कर तथा पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में भेज दिया।
भारत में अंग्रेजी न्यायालय स्थापित होने लगे थे। सिविल के मुकदमों के फैसले अंग्रेजी कानून के अनुसार तथा क्रिमिनल मुकदमे शरियत के अनुसार चलते रहें। भारतीयों को फांसी देने के लिए अंग्रेज बादशाह से आज्ञा लेते थे। परन्तु यह आज्ञा एक दिखावा थी, बादशाह तो अंग्रेजों का वेतन भोगी था,प्रत्येक आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करना बादशाह की मजबूरी थी। अंग्रेजी शासन के दो चेहरे थे,एक उदारवादी चेहरा था,इस चेहरे में उनके न्यायालय, चर्च, चिकित्सालय, सड़कें,पुल तथा रेल- मार्ग दिखाई देते थे।जो बडा न्यायप्रिय था।
 परंतु इस न्यायप्रिय चेहरे के पीछे जो असली चेहरा था, उसके अन्तर्गत अंग्रेज अपने न्यायालयों का उपयोग भारतीयों को फांसी पर चढ़ाने के लिए, रेल, सड़कों व पुलों का उपयोग सैन्य सामग्री को ले जाने तथा भारत में बने कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुचाने के लिए करते थे। विद्यालयों, चर्चों व चिकित्सालयों का उपयोग भारतीयों को ईसाई धर्म में ले जाने के लिए करने लगे थे।

परिशिष्ट नंबर-2

अंग्रेज भारतीयों को निम्न दर्जे का मानते थे,आम आदमी के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था। अंग्रेज अधिकारी भ्रष्टाचार में डूबे हुए थे। भारतीयों पर शासन करने के लिए अंग्रेजी ने इंडियन सिविल सर्विस का निर्माण किया, इसमें 2000 अंग्रेज़ अधिकारी थे ,10000 अंग्रेज अधिकारी सेना में और 60 हजार अंग्रेज सिपाही भारत में तेनात थे। कोई भारतीय उच्च पद पर नहीं जा सकता था, भारतीय कर्मचारियों को अपमानित किया जाता था। भारतीय जज की अदालत में किसी भी अंग्रेज के विरुद्ध कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता था।रेल गाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में कोई भारतीय नहीं बैठ सकता था। अंग्रेजों द्वारा संचालित होटलों और क्लबों में तख्तियो पर लिखा होता था कि कुत्तों और भारतीयों का आना वर्जित है।
भारतीय सिपाही भी असंतुष्ट थे। सेना में एक भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रूपय प्रति माह था, जबकि उसी पद पर तैनात अंग्रेज सूबेदार का वेतन 195 रूपये प्रति माह था। भारतीय सैनिकों को पदोन्नति नहीं दी जाती थी। सन् 1806 से लेकर सन् 1855 तक भारतीय सैनिकों ने कई बार विद्रोह किये। लेकिन अंग्रेजों ने उनको बडी क्रुरता से कुचल दिया था। अंग्रेजों ने भारतीय कृषि को तहस नहस कर दिया था।वह किसानों से अपनी मनचाही फसल उगवाते थे, जिस कारण भारतीय किसानों का फसल चक्र बिगड़ गया था।
देशी राजाओं की स्थति यह थी कि एक ओर तो वह अंग्रेजों के पंजो में छटपटा रहे थे, दूसरी ओर उन्हें लगता था कि अंग्रेजों से अलग हटते ही उनका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। बहुत से राजे रजवाड़ों को अंग्रेजों ने युद्ध में नहीं जीता था बल्कि राजाओं के मर जाने के बाद सीधे ही हडप लिया था।
औरंगजेब के बाद जो भारत बिखर गया था,वह पुनः अंग्रेजों के नेतृत्व में एक साथ आ गया था। परन्तु यह एकीकरण मुगल शासन की तरह ही पीड़ादायक था।
अंग्रेज अपने उदारवादी चेहरे का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार करते थे कि उनका शोषणकारी चेहरा आम भारतीय को तो क्या दिखता? जिसका शोषण होता था उसे ही तब पता लगता था जब वह कुछ करने की स्थति में नहीं रहता था।यह अंग्रेजों की राजनीतिक कुशलता थी या उनकी धोखाधड़ी। ये तो हर कोई अपने नजरिए से तय करेगा।

परिशिष्ट नंबर-3

सन् 1835 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह का टाइटिल बदल दिया।अब वह बादशाह को भारत के बादशाह के स्थान पर king of Delhi(किंग आंफ देहली) कहने लगे।इसी वर्ष सिक्कों की लिखाई भी बदल दी।अब तक सिक्कों पर फारसी भाषा में लिखा जाता था। दूसरी ओर बादशाह का नाम अंकित रहता था।अब सिक्कों पर लिखी भाषा अंग्रेजी कर दी गई। बादशाह का नाम हटा दिया गया।यह एक तरह से मुगल शासन की समाप्ति की घोषणा ही थी। परन्तु इस पर विरोध तो तब होता,जब बादशाह वास्तव में बादशाह होता। सन् 1837 में गंगा-यमुना के दोआबा में भयंकर अकाल पड़ा।इस अकाल में करीब 8 लाख लोगों की मौत हो गई। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी।इस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कुछ भी नहीं किया।जब जनता ने विरोध किया तों शक्ति के बल पर जनता का दमन कर दिया गया। सन् 1837 में ही मुगल बादशाह अकबर द्वितीय की मृत्यु हो गई।अब अंग्रेजों ने अपने हित को ध्यान में रखते हुए मरहूम बादशाह अकबर द्वितीय के बड़े पुत्र के स्थान पर छोटे पुत्र मिर्जा अबू जफर उर्फ बहादुर शाह जफर को बादशाह बना दिया।यह भारत का 19 वां मुगल बादशाह था। समय चक्र चलता रहा। कम्पनी से मिलने वाली पेंशन से बादशाह का गुजारा चल रहा था। परन्तु ऐसा हमेशा नहीं चलना था। सन् 1842 में लार्ड एलन ब्रो भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया। उसने बादशाह को कम्पनी सरकार की ओर से मिलने वाले उपहार बंद करा दिए। सन् 1848 में लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया। उसने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को लालकिला छोड़ कर महरोली में जाकर रहने के लिए कहा। परंतु यह बात बादशाह ने नहीं मानी।वह लालकिले से बाहर नहीं गया।इस पर अंग्रेजों ने सन 1856 में बादशाह के एक आवारा शहजादे मिर्जा कोयस से संधि कर ली। अंग्रेजों ने मिर्जा कोयस से यह तय कर लिया कि वह लालकिले को छोड़कर महरोली चला जायेगा। कम्पनी सरकार उसे 15 हजार रुपए महीने की पेंशन देगी।वह बादशाह का टाइटिल न लगाकर शहजादा के टाइटल का प्रयोग करेगा।
सन् 1856 में ही अंग्रेजों ने अवध की रियासत को हडप लिया।अवध का नवाब इस समय वाजिद अली शाह था।यह एक सम्पन्न रियासत थी तथा कम्पनी सरकार पर ही रियासत का चार करोड़ रुपया कर्ज था। अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को निर्वासित कर कलकत्ता भेज दिया। नवाब की बेगम हजरत महल को रियासत का शासक बना दिया।इस घटना की सूचना जब देश में फैलीं तो सभी रियासतों के राजा सकपका गये।
सन् 1852 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने पेशवा के दत्तक पुत्र पेशवा नाना साहब द्वीतिय की पेंशन बंद कर दी।इस समय नाना साहब द्वीतिय ने जिन राजाओं की पेंशन अंग्रेजों ने बंद कर दी थी अथवा जिन राजाओं, जागीर दारो की जागीरें जब्त कर ली थी, सबको अंग्रेजों के विरुद्ध एकत्रित होकर संघर्ष करने के लिए पत्र लिखे।नाना साहब ने नवाब वाजिद अली शाह का वजीर अली नकी खां जो कलकत्ते में था तथा बेगम हजरत महल को भी अपने साथ योजना में शामिल कर लिया । सन् 1857 के प्रारंभ में दमदम शास्त्रागार में पानी पीने को लेकर एक दलित कर्मचारी से एक ब्राह्मण सिपाही की बोलचाल हो गई।इस मूंह-भाषा में दलित कर्मचारी ने गाय व सूअर की चर्बी कारतूस पर लगीं होने की बात का खुलासा कर दिया।जिसका नाम मतादिन बाल्मिकि बताया जाता है। इससे सेना में आक्रोश फैल गया। कहने का तात्पर्य यह है कि चारों तरफ अंग्रेजों के विरुद्ध माहोल गर्म हो रहा था।इन परिस्थितियों में नाना साहब व वजीर अली नकी खां ने मुस्लिम फकीर व हिन्दू साधुओं के भेष में अपने दूत समस्त उत्तर भारत में भारतीय सैनिकों तथा पीड़ित जागीरदारों से सम्पर्क करने के लिए भेजे। सन् 1857 के प्रारंभ में ही नाना साहब पेशवा अपने छोटे भाई बाला साहब व अपने सेनापति अजीबुल्ला खां के साथ तीर्थयात्रा करने के बहाने भारत भ्रमण पर निकल लिए।नाना साहब ने भारत के सभी रजवाड़ों के राजाओं से, सैनिक छावनी में सैनिकों से सम्पर्क किया।नाना साहब ने दिल्ली में पहुंच कर लालकिले में बादशाह बहादुर शाह जफर व उसकी बेगम जीनत महल से भी भेंट की। शायद तभी 31मई की तिथि क्रांति के लिए तय हुई तथा भारतीय सेना भी इस मुहिम में जुड गईं। क्रांति के प्रचार के लिए फकीरों व संन्यासियों के भेष में नाना साहब के कार्यकर्ताओं ने बंगाल के बैरकपुर से लेकर पखनूतिस्थान के पेशावर तक तथा लखनऊ से लेकर महाराष्ट्र के सतारा तक सघन प्रचार किया।इस प्रयास से दिल्ली, बिठूर, लखनऊ, कलकत्ता व सतारा क्रांति के प्रमुख केन्द्र बन गए।एक अंग्रेज़ अधिकारी विलसन ने अपने अधिकारी को सूचित किया कि 31 मई की तारीख भारतीयों ने विद्रोह के लिए निश्चित कर ली है।उस समय भारत की राजधानी कलकत्ता थी, परंतु मुगल बादशाह दिल्ली के लालकिले में बैठा था तो दिल्ली का महत्व भी कम नहीं था।
नाना साहब ने अपनी शक्ति और बुद्धि बल से क्रांति की देवी व उसके पुत्रों (भारतीय सैनिक व अंग्रेजों के विरोधी जागीरदार तथा राजा)को झकझौर कर जगा दिया था।जब क्रांति की देवी ने आंखें खोल कर लालकिले की ओर देखा तो लालकिले के अंदर बैठा बादशाह अत्यंत कमजोर, निर्धन, बूढ़ा और उत्साहहीन था। उसमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वह खड़ा होकर क्रांति की देवी के स्वागत के लिए लालकिले का दरवाजा खोल दे।इस अवस्था में क्रांति की देवी के पुत्रों ने स्वयं आगे बढ़कर लालकिले के दरवाजे को लात मारकर खोल दिया तथा लालकिले के अंदर बैठे बादशाह को अपने आगोश में भरकर ना चाहते हुए भी क्रांति की देवी के स्वागत के लिए लालकिले के दरवाजे पर खडा कर दिया।
जब अंग्रेजों पर 31 मई को बगावत होने की सूचना पहुची तो वे भी चोकन्ने हो गये। अंग्रेज जहां जहां से खतरा समझते थे, वहां निगाह गड़ाए हुए थे। बंगाल आर्मी की छावनियों में एक छावनी मेरठ में भी थी। अंग्रेजों पर पहुंची सूचनाओं के आधार पर उन्हें मेरठ से कोई खतरा नहीं था।मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, मेरठ में 2200 अंग्रेज़ सिपाही थे।एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। लेकिन यह ईश्वर की कृपा ही थी कि 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के प्रारंभ करने का श्रेय मेरठ को प्राप्त हुआ।
इस समय केंटोनमेंट का क्षेत्र मेरठ की सदर कोतवाली के अंतर्गत आता था तथा इस कोतवाली का कोतवाल धन सिंह गुर्जर था जो मेरठ से बागपत रोड पर स्थित पांचली खुर्द गांव का निवासी था।जैसा ऊपर बताया जा चुका है कि साधु संन्यासी तथा फकीरों के भेष में नाना साहब के गुप्तचरों द्वारा क्रांति में भाग लेने वाले लोगों से सम्पर्क किया गया था।इस निमित्त धन सिंह कोतवाल का सूरजकुंड पर अयोध्या से आये एक साधु से सम्पर्क हुआ था। सम्भवतः राव कदम सिंह से भी किसी ना किसी का मेल-मिलाप अवश्य हुआ होगा।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सीकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी। मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
रात भर 70 किलोमीटर चलने के बाद 11 मई को दिन निकलने से पहले मेरठ के ये क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली के यमुना तट पर पहुच गये।इन सैनिकों में बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के 3,11,20 नम्बर बटालियन के घुड़सवार सैनिक थे।इन तीनों दस्तों का नेतृत्व तीन नम्बर बटालियन के सैनिक कर रहे थे। दिल्ली में घुसने के लिए नावों को जोड़ कर एक पुल बना हुआ था।इस पुल से ही ये सैनिक शहर में प्रवेश कर गये।इन सैनिकों ने लाल किले के बाहर पहुंच कर किले के चोबदार के हाथों बादशाह के पास सूचना भिजवाई कि मेरठ से आये सिपाही मिलना चाहते हैं। बादशाह ने मिलने के लिए मना कर दिया और कहा कि वे शहर से बाहर बादशाह के आदेश का इंतजार करें।इस समय तक अंग्रेजों को मेरठ से आने वाली इस सेना की सूचना मिल चुकी थी। अंग्रेजों ने दिल्ली नगर के परकोटे के दरवाजे बंद करने का प्रयास किया। लेकिन तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। क्रांतिकारी सिपाही दक्षिणी दिल्ली में राजघाट दरवाजे की तरफ से दिल्ली में घुस गये थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने घुसते ही चुंगी के एक दफ्तर में आग लगा दी।अब वे उत्तरी दिल्ली में स्थित सीविल लाइन की तरफ बढ़ चले, जहां दिल्ली के उच्च अधिकारी व उनके परिवार रहते थे।इस समय दिल्ली से तीन किलोमीटर दूर बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की दो बेरकें थी,इन बेरकों में इंफेंट्री की 38,54,74 वी बटालियन के जवान थे। उन्होंने मेरठ से आये सिपाहियो को बारूद और तोपे उपलब्ध करा दी।असलाह मिल जाने के बाद क्रांतिकारी सैनिकों ने उत्तरी दिल्ली के अंग्रजों द्वारा बनाए गए सभी महत्वपूर्ण कार्यालयों को बर्बाद करने के बाद अंग्रेज़ अधिकारियों व पादरियों के बंगलों को आग के हवाले कर दिया तथा जो भी अंग्रेज मिला उसे मार डाला। कुछ अंग्रेज इस मारकाट से बच कर मुख्य गार्ड में जा कर छिप गए। क्रांतिकारी सैनिकों ने उन्हें वहीं जा घेरा। लेकिन तब तक बेरको से अंग्रेज़ सिपाही पहुंच गए, वहां छिपे अंग्रेज बचा लिए गए।अब क्रांतिकारी सैनिकों ने ब्रिटिश शस्त्रागार पर धावा बोल दिया।इस मेगज़ीन को बचाने के लिए अंग्रेजी सिपाहियो ने भरसक प्रयत्न किया, लेकिन मेगज़ीन में उपस्थित भारतीय सिपाही व कर्मचारी क्रांतिकारी सैनिकों की ओर हो गये। पांच घंटे संघर्ष हुआ। अंग्रेजों ने मेगजीन छीनती देख, अपने हाथों से इसमें आग लगा दी।यहा उपस्थित सभी अंग्रेज अधिकारी मारे गए, सिर्फ तीन बच कर निकल गये।इन तीनों अधिकारियों को बाद में विक्टोरिया क्रास दिया गया।इसके बाद क्रांतिकारी सैनिक कश्मीरी बाजार में पहुंच गए।इन सैनिकों को देखकर अंग्रेजों मे भगदड़ मच गई। कुछ अंग्रेज अधिकारी व उनके परिवार फखरूर मस्जिद में जाकर छिप गए। जिन्हें वहीं जाकर मार डाला गया।इसके बाद अंग्रेज़ अधिकारी कालिंग साहब की हबेली व सेंटजिन्स चर्च को फूंक डाला गया।इस समय तक क्रांतिकारी सैनिकों के सर पर खून सवार हो गया था।स्थानिय लोग उनके सहयोग के लिए निकल पड़े। दिल्ली की गलियों में ढूंढ-ढूंढ कर अंग्रेजों को मार डाला गया। चर्च में मिले 23 अंग्रेजों को मार दिया गया। अंग्रेजों के मारने के बाद अंग्रेजों के समर्थक रहे भारतीयों को स्थानिय लोगों ने बताना शुरू कर दिया।अब क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेज समर्थक रहे भारतीयों को मार डाला। अंग्रेज परस्त जैन व मारवाड़ी साहूकारों को उनके घर सहित नेस्तनाबूद कर दिया गया।यह मारकाट 11 मई के पूरे दिन व रातभर चली।जिन अंग्रेजो की जान बच गई वो उत्तर-पश्चिम दिल्ली में स्थित एक पहाड़ी टेकरी में बने फ्लेग स्टाफ टावर पर एकत्रित हो गए, जिसे रिज कहां जाता हैं।जो आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट है,यही से टेलीग्राफ के माध्यम से दूर अंग्रेज अधिकारियों को दिल्ली में घटित घटना 
  की सूचना भेज दी गई।इसी रात अंग्रेज करनाल के लिए चल दिए।
12 मई को दोपहर बाद बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपने चोबदार को दरिया गंज में भेजकर यह मनादी करवाई कि मार-काट बंद कर दो।जो अंग्रेज या उनके परिवार कहीं छिपे हुए हैं उन्हें लालकिले में ले आओ तथा मृत पडे अंग्रेजों के शवों का दाह-संस्कार किया जाय। बादशाह ने थानेदार मुहद्दीन खां को यह कार्य सोंपा।एक चर्च में छिपे 19 अंग्रेज मिले, जिन्हें लालकिले मे पहुंचा दिया गया।सभी अंग्रेजो के शवों का दाह-संस्कार बादशाह ने करवा दिया।12 तारिख की रात को क्रांतिकारी सैनिक पुनः लालकिले में स्थित बादशाह के महल पर पहुंच गए। उन्होंने बादशाह के चोबदार के माध्यम से बादशाह से मिलने की सूचना पहुचवाई। बादशाह ने मिलने से मना कर दिया।ये सिपाही चाहते तो बलपूर्वक जा सकते थे, परंतु वो समय की नजाकत को समझ रहे थे। यदि बादशाह का बरदहस्त नही मिला तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा।वो अकेले पड़ जायेंगे। इसलिए वो बाहर ही डटे रहे तथा बादशाह से बार-बार मिलने का आग्रह करते रहे। आधीरात को क्रांतिकारी सैनिकों की बादशाह से मुलाकात हुई। बादशाह ने उनको फटकार लगाते हुए कहा कि शहर के लोगों को मारकर क्या मिलेगा? उन्होंने बहुत गलत किया है।अंत में बादशाह ने नेतृत्व स्वीकार कर लिया। बादशाह ने कहा कि अब वो किसी निरपराध को ना मारे, अनुशासन में रहे।12 मई की रात को 12 बजे बादशाह को 21 तोपों की सलामी देदी गई।पूरी दिल्ली तोपों की गर्जना से दहल गयी। बादशाह ने अपने बड़े शहजादे मिर्जा मुगल को अपनी इस सेना का सेनापति बना दिया।अब क्रांतिकारी सिपाही नेतृत्व विहिन नही थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह से निवेदन किया कि दिल्ली की जनता को भी पता चलना चाहिए कि आप बादशाह हैं और हम आपके सैनिक। इसलिए 13 मई को बादशाह को हाथी पर बैठाकर दिल्ली की सड़कों पर जुलूस निकाला गया, जिसमें बादशाह के नाम के नारे लग रहे थे।यह समय का कैसा चक्र था कि जिस बादशाह के पास एक सिपाही को वेतन देने के लिए धन नहीं था वह एशिया की सबसे उन्नत सेना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाहियो का स्वामी बन गया था।

परिशिष्ट नंबर-4

13 मई को बादशाह बहादुर शाह जफर का शाही जुलूस जब दिल्ली की सड़कों पर निकला तो दिल्ली की जनता ने क्रांतिकारी सैनिकों का फूल बरसाकर तथा जगह-जगह मिठाई खिलाकर स्वागत किया।जो अंग्रेज दिल्ली में बच गये थे वो सब बादशाह के संरक्षण में लालकिले में थे,उनकी संख्या 52 थी। बादशाह ने मृत अंग्रेजों का दाह-संस्कार भी करवा दिया था। अतः क्रांतिकारी सैनिकों के नेतृत्व कर्ताओं को ऐसा आभास हुआ कि बादशाह दोहरी राजनीति कर रहा है, यदि किसी कारणवश क्रांतिकारी सेना हार गयी और अंग्रेज पुनः दिल्ली पर काबिज हो गये तो बादशाह अंग्रेजों के साथ अपने द्वारा किए गए सकारात्मक व्यवहार के बदले क्षमादान प्राप्त कर सकता है। अतः इस सम्भावना को समाप्त करने के लिए क्रांतिकारी सिपाही 16 मई को बादशाह के पास पहुंच गए और उन्होंने बादशाह से उन 52 अंग्रेजों के वध की आज्ञा मांगी जो बादशाह के संरक्षण में थे। बादशाह ने अनुमति नहीं दी लेकिन क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह की बिना अनुमति के ही इन 52 अंग्रेजों को लालकिले के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे लाकर मार डाला।जब यह समाचार दिल्ली की जनता को मिला तो अधिकांश प्रसन्न हुए। परंतु बादशाह बडा दुखी हुआ। अंग्रेजों के चापलूस अब भी बादशाह के आसपास मौजूद थे, उन्होंने इस घटना की सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी। बादशाह व उसके शहजादे को युद्ध का कोई अनुभव नहीं था। इसलिए अंग्रेजों का सामना करने की तैयारी क्या हो? वो नहीं जानते थे। उन्हें सेना के लिए रसद,घायलो के लिए चिकित्सा तथा दिल्ली के चारों ओर जहां से बादशाह को मदद मिलने वाली थी उन लोगों की सुरक्षा का प्रबंध तथा अंग्रेजों को जो मदद कर सकते थे उनका दमन तथा अंग्रेजों की रणनीति का पता चलता रहे इसके लिए गुप्तचरों की व्यवस्था करनी थी, परंतु उन्होंने कुछ नहीं किया।जो कुछ भी था क्रांतिकारी सैनिकों तथा जनता के भरोसे था। क्रांतिकारी सैनिकों के भोजन का भार दिल्ली की जनता उठा रही थी। दिल्ली के चारों ओर बसें गुर्जर क्रांतिकारी सैनिकों के साथ उसी तरह का सहयोग कर रहे थे जैसा मेरठ में दस मई को किया था।वो दिल्ली के रास्तों पर नाके स्थापित कर तैनात हो गये तथा व्यवस्था बनाने में सेना का सहयोग देने लगे।
दूसरी ओर अंग्रेजों की तैयारी तेजी से चल रही थी। अंग्रेजों की सबसे बड़ी सेना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री थी। जिसमें 139000 सिपाही थे, जिनमें से 132000 हजार सिपाहियों ने क्रांति का झंडा उठा लिया था।अब इन्हें काबू में करने के लिए अंग्रेजों के पास बडी सेना अफगानिस्तान के बार्डर पर तैनात थी,जब तक वो सेना दिल्ली पहुंचे तब तक क्रांतिकारी सैनिकों को घेरे रखने के लिए दिल्ली के आसपास मेरठ,अम्बाला, करनाल में स्थित अंग्रेजी सेनाओं के उपयोग की योजना तैयार की गई तथा 17 मई सन् 1857 को अम्बाला व मेरठ की गोरी पलटनों को दिल्ली की ओर भेजा।अम्बाला की सेना जब करनाल पहुंची तभी सेना में हैजा फ़ैल गया। सेना का जनरल जांन एनसन हैजे से मर गया। कुछ दिनों बाद हैजे का प्रकोप कम होने पर जनरल हेनरी बर्नाड के नेतृत्व में सेना ने कूच किया।मेरठ और अम्बाला की ये गोरी पलटन 7 जून 1857 को अलीपुर नामक स्थान पर मिल गयी।एक गोरखा पलटन भी इनके साथ आ जुडी।
इसी बीच विलियम होडसन जो एक अंग्रेज़ अधिकारी था और अमृतसर का डिप्टी कमिश्नर रहा था, कमांडर इन चीफ जान एनसन के सहयोग के लिए नियुक्त था ने पंजाब से एक घुड़सवार दस्ता बनाया जिसमें सब सिक्ख घुड़सवार थे।इस दस्ते का नाम होडसन होर्डस रखा गया।इस दस्ते को शत्रु पक्ष से युद्ध नही करना था।इस का काम अंग्रेजों की सेना के आगे रहकर जासूसी करना था ताकि सेना को सटीक जानकारी प्राप्त होती रहें।इतना ही नहीं होडसन ने मोलवी रजब अली को अपनी गुप्तचर विभाग का प्रमुख बनाया।यह रजब अली पहले भी अंग्रेजों के लिए जासूसी करता था। इसके आदमी पूरे दोआबा तथा दिल्ली के लालकिले के अंदर तक थे।इस रजब अली के कारण ही लालकिले की हर खबर होडसन तक पहुंच रही थी।रजब अली का कमाल यह था कि बादशाह बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल, प्रधानमंत्री हकीम अहसन उल्ला खां व बादशाह के शहजादे मिर्जा फखरु का ससुर मिर्जा इलाही बख्श भी होडसन के मुखबिर बन गए थे।ये वो लोग थे जो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते थे। वे ऐसा सोचते थे कि यदि क्रांतिकारी सेना अंग्रेजों से हार गई तो होडसन से लाभ प्राप्त कर लेंगे, यदि बादशाह जीत गया तो वो उसके नजदीक थे ही। बेचारे बादशाह और उसके सेनापति शहजादे को कुछ मालूम नही था।
8 जून सन् 1857 को अंग्रेजों की सेना यमुना तट से दस किलोमीटर दूर बडली की सराय नामक स्थान पर पहुंची। क्रांतिकारी सेना भी यही पर डेरा डाले हुए थी। गोरी सेना ने इस सेना पर हमला कर दिया तथा क्रांतिकारी सेना को दिल्ली की ओर धकेल दिया। अंग्रेजी सेना ने रिज पर कब्जा कर लिया जो एक बडी सफलता थी।10 जून से गोरी सेना ने छोटी तोपों से दिल्ली पर गोलीबारी शुरू कर दी। होडसन ने रिज पर ही अपना कार्यालय बना लिया।13 जून को हिंदू राव हाउस तथा बैंक आफ देहली का भवन गोलाबारी में तबाह हो गया। दिल्ली में हलचल पैदा हो गई।19 जून को क्रांतिकारी सेना ने रिज पर जमी गोरी सेना पर जोरदार हमला किया परन्तु रिज पर कब्जा न हो सका।23 जून 1857 को फिर एक बडा हमला क्रांतिकारी सेना ने रिज पर जमें अंग्रेजों पर किया।यह हमला भी विफल हो गया।
अंग्रेजों की सेना में फिर से हैजा फ़ैल गया।5 जुलाई को जनरल बर्नाड हैजे से मर गया। इन परिस्थितियों में आरकिडेल विल्सन मेजर जनरल बना।
14 जुलाई सन् 1857 को क्रांतिकारी सैनिकों की गोलीबारी में ब्रिगेडियर लेविली चैम्बर लेन बुरी तरह घायल हो गया।
दूसरी ओर बादशाह बहादुर शाह जफर की सेना में नेतृत्व की कमजोरी के कारण आक्रोश फैल रहा था। क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह बहादुर शाह जफर से साफ कह दिया कि मिर्जा मुगल व बादशाह के पोते अबू बक्र का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है।इन परिस्थितियों में बादशाह ने बख्त खां को क्रांतिकारी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर दिया।

परिशिष्ट नंबर-5

दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर लगीं तोपों से क्रांतिकारी सेना तथा रिज पर लगी तोपों से अंग्रेजी सेना की ओर से लगातार गोलीबारी हो रही थी। भारत की अलग-अलग छावनियों से बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की बटालियन दिल्ली पहुंच कर क्रांतिकारी सेना में मिलती जा रही थी।इसी क्रम में 14 अगस्त सन् 1857 को अफगानिस्तान बार्डर पर तैनात एक बहादुर अंग्रेज अधिकारी जान निकलसन करीब चार हजार गोरे सैनिकों के साथ रिज पर पहुंच गया। क्रांतिकारी सैनिकों ने रिज पर फिर जोरदार हमला किया। परन्तु अंग्रेजों की सेना ऊंचाई पर होने के कारण क्रांतिकारी सेना को कोई सफलता नहीं मिली।25 अगस्त को निकलसन ने नजबगढ़ गढ़ में मोर्चा लगाये क्रांतिकारी सेना पर जोरदार हमला किया।इस हमले में क्रांतिकारी सेना को नजबगढ़ से पीछे हटना पड़ा।निकलसन ने हाथ आये क्रांतिकारी सैनिकों को मार डाला।सर जॉन लोरेंस नाम के एक अधिकारी ने निकलसन को पत्र लिखकर कहा कि बागी सैनिकों का पहले कोर्ट मार्शल होना चाहिए,ऊनकी लिस्ट बननी चाहिए तब सजा देनी चाहिए।इस पत्र के पीछे निकलसन ने एक लाइन लिखकर पत्र वापस भेज दिया, जिसमें लिखा था कि प्रत्येक बागी की एक ही सजा है और वो है मोत।इस समय रिज पर तैनात तीनों अंग्रेज अधिकारी निकलसन,होडसन व मेटकाफ एक मत हो गये थे। आर्क डेल विल्सन के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना लड़ रही थी। क्योंकि अंग्रेजों के पास बडी तोपें नही थी इसलिए दिल्ली के अंदर घुसने का मार्ग नहीं बन पा रहा था। सितंबर सन् 1857 को पंजाब से बडी तोपें गोरी सेना के पास पहुंच गयी।6 सितंबर व 8 सितंबर को गोरी सेना ने बडी तोपों से क्रांतिकारी सेना पर जोरदार हमला किया तथा दिल्ली में घुसने का प्रयास किया। परंतु क्रांतिकारी सेना ने यह प्रयास विफल कर दिया तथा गोरी सेना को पीछे धकेल दिया।अब अंग्रेजों ने 50 तोपों से भारी गोलीबारी की जिसमें 300 के करीब क्रांतिकारी सिपाही शहीद हो गए।14 सितंबर को निकलसन के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना पर जबरदस्त हमला किया गया, क्रांतिकारी सैनिकों ने काबुल गेट के बाहर किशनगंज में भारी युद्ध किया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी ओर से सर हथेली पर रखकर लड़े।सर जान चर्च पर अधिकार को लेकर भयानक युद्ध हुआ जिसमें 1170 अंग्रेज सैनिक मारे गए। अंग्रेज अधिकारी निकोलसन घायल हो गया। इस संघर्ष में इतने अंग्रेज अधिकारी मारे गए कि अंग्रेज सैनिकों को यह भ्रम होने लगा कि उनका अधिकारी कौन है।
16 सितंबर को अंग्रेजों का पुनः उस मेगज़ीन पर अधिकार हो गया, जिसे 11 मई को क्रांतिकारी सैनिकों ने कब्जाया था।16 सितंबर की को ही सेनापति बख्त खां बादशाह से मिला।बख्त खां ने कहा कि अब दिल्ली हमारे अधिकार से निकलने वाली है अतः हमें एक स्थान पर लड़ने के बजाय खुलें मैदान में बाहर लडना चाहिए। हमें शत्रु के सामने आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए।बख्त खां ने बादशाह को अपने साथ चलने के लिए कहा। परन्तु बादशाह डरा हुआ,हताश और निराश था, जिस वीरता की इस समय आवश्यकता थी वह तो उसमें दूर-दूर तक नहीं थी। बहुत से जेहादी लालकिले के नीचे इकट्ठा होने लगे, दिल्ली के आम नागरिक भी लाठी बंदूक लेकर लालकिले के सामने पहुंच गए।जिनकी संख्या करीब 70000 के करीब थी।इस भारी भीड़ को देखकर बादशाह भी अपनी पालकी में बैठकर बाहर निकल आया।शहर में हल्ला मच गया कि बादशाह बहादुर शाह जफर युद्ध के लिए मैदान में आ गया है। सामने गोरी सेना की ओर से फायरिंग चल रही थी। तभी अंग्रेज अधिकारी होडसन के जासूस हकीम एहसान अल्ला खां ने बादशाह को डरा दिया कि वो बाहर क्यो आ गये। जबर्दस्त हमला हो रहा है जान चली जायेंगी। बहादुर शाह जफर अपने जीवन में पहली बार लडने निकला था, करीब तीन घंटे में बिना लड़े ही वापस किले में चला गया।शहर में फिर हल्ला मच गया कि बादशाह भाग गया। दिल्ली में भगदड़ मच गई। अंग्रेज अधिकारी यह देखकर हैरान रह गए,वो समझ गये कि दिल्ली ने हार मान ली है।16 सितंबर की रात को 11 बजे बादशाह ने अपनी पुत्री कुलसुम जमानी को बुलाकर कुछ गहने व धन दिया तथा कहा कि वह अपने शोहर मिर्जा जियाउद्दीन के साथ चली जाय। यहां उसकी जान को खतरा है। कुलसुम जमानी रात को ही दिल्ली से मेरठ की ओर को निकल चली। परन्तु रास्ते में गुर्जर क्रांतिकारी सड़कों पर लगे हुए थे। बादशाह के भागने की खबर से ये सब कुपित थे।जब बादशाह की लड़की को भागते देखा तो इन्होंने कुलसुम जमानी से सारा धन छिन लिया।

17 सितंबर को सूरज निकलने से पहले ही बहादुर शाह जफर लालकिले से अपने भरोसे के नोकरो के साथ निकल लिया।वह साथ में कुछ सामान भी लिए हुए था।वह कश्ती में बैठकर यमुना नदी के पुराने किले के घाट की ओर उतरा तथा शहाजहानाबाद से तीन मील दूर दक्षिण में ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर पहुंचा। उसने वह सामान वहीं रख दिया।इस सामान में पैगम्बर साहब की दाढ़ी के तीन पवित्र बाल भी थे जो तेमूरी खानदान की विरासत के रूप में उसे मिले थे। इसके बाद बादशाह अपने महरोली के महल की ओर चल दिया जहां बख्त खां से उसकी मुलाकात होनी थी। बादशाह समझ रहा था कि उसे किसी ने नही देखा है परन्तु होडसन के जासूस उसके पीछे ही थे। बादशाह के रिश्तेदार इलाही बख्श बादशाह के पास पहुंच गया, उसने बादशाह को बताया कि वह दिल्ली के बाहर न जाय, दिल्ली के सब रास्तों पर गुर्जरों ने कब्जा कर रखा है।वे उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा अब तक अंग्रेजों के साथ किया है। लेकिन बादशाह ने उसकी बात नहीं सुनी तथा चलता रहा। इलाही बख्श ने बादशाह को बताया कि बेगम जीनत महल का होडसन के साथ समझौता हो गया है।उसकी जान को कोई खतरा नहीं है। बेगम निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में उसका इंतजार कर रही है। अब बादशाह रुक गया।वह बेगम जीनत महल को साथ लेकर हूमायू के मकबरे में चला गया। अब बादशाह एक तरह से होडसन का बंदी बन चुका था।जिसकी उसे भनक तक नहीं थी।
जब दिल्ली में यह सूचना फैल गई कि बादशाह लाल किला छोड़कर भाग गया है तो दिल्ली की आम जनता साहस खो बैठी।आम जनसाधारण का पलायन शुरू हो हो गया। इतने में यह अफवाह फैली कि दिल्ली के बाहर जाने वाले रास्तों पर गूजर और मेवाती मोर्चा लगाये बैठे हैं।तो यह जनता वापस अंग्रेज़ों की ओर लौट चली।जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि अंग्रेजों के उदारवादी चेहरे का प्रचार इतना अधिक था कि दिल्ली की जनता अपने भारतीय गूजर और मेवाती क्रांतिकारियों के स्थान पर अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेजों को अधिक उपयुक्त मान रही थी। परन्तु जब उनका सामना अंग्रेजों से हुआ तो उनकी जान व सम्पत्ति सब कुछ छीन गया।
दिल्ली पर कब्जा करने के लिए जो संघर्ष भारतीय क्रांतिकारियों व अंग्रेजों के मध्य में हुआ, उसमें अंग्रेजों की ओर से 3817 सिपाही मारे गए तथा 5000 सिपाही घायल हुए। अनुमानतः 5000 क्रांतिकारी भारतीय सिपाही शहीद हुए, घायलों का कोई लिखित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
18 सितंबर को अंग्रेजों ने जामा मस्जिद पर अधिकार कर लिया तथा 19 सितंबर को लालकिले का घेरा डाल दिया।20 सितंबर की सुबह लालकिले पर हमला कर अंग्रेज सेना अंदर घुस गई।मेजर जनरल विल्सन दिवाने खास मे आ गया था। लालकिले में जो भी मिला गोरी सेना ने उसे मार डाला। अंग्रेज अधिकारियों ने सेना को आदेश दे दिया कि दिल्ली की पूरी सफाई कर दे। सफाई का मतलब जो भी मिले मार डाले। बूढ़े बीमार महिलाए, घायल क्रांतिकारी सिपाही जो भी मिला मार डाला गया। अंग्रेज सैनिकों ने शाही हरम से 300 महिलाओं को सैनिक शिविर में ले जाकर, उनसे बलात्कार किया। अंग्रेज सिपाहियो का ऐसा मानना था कि बादशाह बहादुर शाह जफर के रहते हुए, भारतीय क्रांतिकारियों ने अंग्रेज महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। शांति स्थापित हो जाने के बाद एक अंग्रेज़ अधिकारी चार्ल्स सांडर्स ने इन आरोपों की जांच की, जांच के दौरान सांडर्स ने पाया कि अंग्रेज सैनिकों द्वारा भारतीय क्रांतिकारियों पर बलात्कार का आरोप गलत था।
20 सितंबर को बख्त खां ने फिर बादशाह से साथ चलने के लिए कहा परन्तु वह नहीं माना।अब इलाही बख्श को साथ लेकर होडसन ने बादशाह को गिरफतार कर लिया तथा बेगम जीनत महल की हवेली में बंद कर दिया। बादशाह के दो शहजादे मिर्जा मुगल व खिज्र सुल्तान तथा पोता अबू बक्र अभी पकड़ें नहीं जा सके थे।जब इलाही बख्श ने देखा कि बादशाह को अंग्रेजों ने मारा नहीं तो उसने तीनों शहजादों का पता होडसन को बता दिया।होडसन ने तीनों शहजादों को हुमायूं के मकबरे से गिरफ्तार कर दिल्ली ले जाकर लालकिले के सामने उनको नंगा कर गोली से मार डाला। तीनों के शव थाने के सामने तीन दिन तक पडे रहे। तीन दिन बाद शवों को उठाकर यमुना के तट पर फैंक दिया।
21 सितंबर सन् 1857 को अंग्रेज अधिकारियों ने दिल्ली पर विजय की अधिकारिक घोषणा कर दी। क्रांतिकारी सेना पराजित हो चुकी थी बादशाह गिरफ्तार हो चुका था,अब तो अंग्रेजों को चारों ओर शांति स्थापित करनी थी।
गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने उदारता दिखाते हुए कहा कि जो हथियार डाल देगा, उसके साथ न्याय होगा। परन्तु उनकी यह घोषणा एक राजनीतिक घोषणा हो कर रह गई। अंग्रेजी सेना ने उसका पालन नहीं किया। खुद लार्ड केनिंग ने अपने पत्र में रानी विक्टोरिया को भारतियों पर किए गए अत्याचारों के विषय में लिखा।

संदर्भ ग्रंथ

1-डा दयाराम वर्मा- गुर्जर जाति का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास।
2--डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां(यू-टयूब-164,165,167,168,189 -193,197 -202,204-212,222)
3- डा सुशील भाटी- मेरठ के क्रांतिकारियों का सरताज राव कदम सिंह।
 4- कुंवर प्रताप सिंह नागर सचिव राजा नैन सिंह स्मारक समिति।


गुरुवार, 7 मई 2020

राव जेत सिंह नागर तथा किला-परिक्षत गढ़-लेखक अशोक चौधरी मेरठ।


सन् 1192 मैं दिल्ली मे मोहम्मद गोरी के द्वारा विदेशी सत्ता स्थापित हो गई थी। सन् 1192 से पहले भारतीय राजाओं द्वारा किसानों से लगान के रूप में फसल का छठा हिस्सा यानि 16%भाग लिया जाता था। यदि कोई किसान इस लगान को नहीं दे पाता था तो राजा उस किसान की समस्या सुनता था, उसे दूर करने की कोशिश करता था। यदि भारतीय राजाओं मे आपस में युद्ध हो जाता था तो उनकी सेनाएं शत्रु पक्ष के किसानों की फसल को क्षति नहीं पहुचाती थी।
परंतु विदेशी हमलावरों ने इन बातों का ध्यान नहीं रखा।उनका उद्देश्य भारतीय जनता से अधिक से अधिक धन प्राप्त कर अपनी सत्ता को बनाए रखना था।इन विदेशी शासकों ने अपनी सत्ता के क्षेत्रों से भारतीय किसानों पर उनकी फसल का आधे से अधिक यानि 50-60% लगान लगा दिया। विदेशी शासकों के सिपाही इस लगान को बडी कठोरता से वसूल करते थे।वो किसानों की कोई समस्या नहीं सुनते थे। लगान न दे पाने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा देते थे,उनकी महिलाओं को अपमानित करते थे तथा उनके बच्चों को जिंदा आग में फेंक देते थे।यह क्रम सन् 1192से लेकर सन् 1570 तक। मोहम्मद गोरी से लेकर अकबर के शासन काल तक एक तरफा चलता रहा। भारतीय भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार इन विदेशी शासकों से अपने स्थानिय राजाओं के नेतृत्व में संघर्ष करते रहे।
परंतु अकबर ने कुछ भारतीय राजाओं से संधि कर उन्हें अपना मनसबदार बना लिया तथा अपने शासन मे सैनिक व असैनिक नोकरी पर रख कर भारतीय किसानों से की जा रही लूट में हिस्सेदार बना लिया।मुगल बादशाह के साथ भारतीयों का यह समझौता मुगल+ सुलह कुल की सन्धि जो मुगल और राजपूत (कछवाहा+राठौड़) समझौता कहलाया। भारतियों के साथ समझौते में अकबर ने तीन प्रकार की निति अपनायी।
1- वैवाहिक संधि की निति, जिसमें आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि राजवंश थे।
2- मेत्री संधि, जिनमें रणथम्भौर के चौहान थे।
3- युद्ध की निती, जिसमें मेवाड़ राज्य प्रमुख था।
वास्तव में अकबर ने अपने चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा लिया था,जो यह दिखाता था कि अकबर भारतीयों को बराबर का अधिकार देता है,उसकी सेना में बड़े-बड़े मनसबदार भारतीय थे, उसके नवरत्नों में चार हिन्दू थे। समझौता हो जाने के कारण  राजपूत जाति के किसान तो सत्ता के ताप से कुछ हद तक बच गए, परन्तु गेर राजपूत किसान पहले से भी अधिक दबाव में आ गए। यूं तो अकबर को अकबर महान कहा जाता है परंतु अकबर के समय जनता कितने कष्टों मे थी इसका वर्णन उस समय के रामचरितमानस के रचियता तुलसी दास जी ने अपने एक छंद में इस प्रकार किया है-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली।
बनिक को न बनिज,न चाकर को चाकरी।।
जिविका विहीन लोग,सीधमान सोच बस।
कहे एक एकन सो,कहां जाय का करी।।
सन् 1570 मैं अकबर ने नागोर दरबार का आयोजन किया था।उस समय नागोर के क्षेत्र में भयंकर सूखा पड़ा था,स्थानिय किसानों की सहानुभूति बटोरने के लिए अकबर ने वहा एक ताल का निर्माण करवाया है, जिसे शुक्रताल कहते हैं।इस आयोजन में अकबर ने वर्तमान राजस्थान के ज्यादातर रजवाड़ों से संधि की थी, आमेर के कछवाहे तो सन् 1562 में ही मुगल बादशाह के साथ संधि में आ गए थे।राणा प्रताप व जोधपुर के राठौड़ राव चंद्र सेन ही मुगलों से संघर्ष कर रहे थे।राव चंद्र सेन राठौड़ खुद व उसके  सगे भाई उदय सिंह राठौड़ तथा राम सिंह राठौड़ भी इस आयोजन में उपस्थित थे, चंद्र सेन राठौड़ ने अकबर के न्यायिक चेहरे के पिछे छिपे शोषणकारी चेहरे को पहचान लिया था, अतः वह नागोर दरबार के आयोजन को बीच में छोड़कर ही चले गए थे।राव चंद्र सेन राठौड़ के दोनों भाई  अकबर के साथ संधि में चले गए थे। अकबर ने उदय सिंह राठौड़ को सेना देकर राव चंद्र सेन राठौड़ तथा  वर्तमान के बाड़मेर जिले के पास समवाली के क्षेत्र में बसे गुर्जरों पर हमला करने के लिए भेजा , क्योंकि वो मुगल सत्ता के विरूद्ध संघर्ष कर रहे थे। 
शाहजहां के शासनकाल सन् 1632 में गेर राजपूत किसानों का संघर्ष प्रारंभ हो गया,जिसका नेतृत्व जाट किसान जागीर दार कर रहे थे, गुर्जर, अहीर,मीणा आदि इस संघर्ष में जाटों के सहयोग मे थे।यह संघर्ष औरंगजेब के शासनकाल मे गोकुला व राजाराम के बलिदान के कारण अपने चरम पर पहुंच गया था, औरंगजेब ने समस्त हिन्दूओं पर जजिया कर लगा दिया था। हिन्दू किसानों पर तो लगान फसल का आधा ही था परंतु मुसलमान किसानों को राहत देते हुए लगान फसल का एक चौथाई यानि 25%कर दिया था। औरंगजेब ने अकबर के सत्ता में भागीदारी के राजपूतों से हुए समझौते को भी एक तरह से समाप्त कर दिया था, अतः औरंगजेब के शासनकाल में अकबर से पहले वाली स्थिति बन गई थी। समस्त भारतीय शक्ति औरंगजेब के विरुद्ध खडी हो गई थी। औरंगजेब मुगल राज्य से कुफ्र को समाप्त करना चाहता था,वह सुन्नी मुसलमानों के अलावा किसी को भी मुसलमान नहीं मानता था। अतः शिया मुसलमानों, सिक्खों तथा हिन्दूओं को मिटाने के लिए उसने मरते दम तक पूरी शक्ति लगाई। परंतु कुफ्र था कि मिटने का नाम ही नहीं ले रहा था।इस कुफ्र को तो वह न मिटा सका परन्तु सन 1707 मे खुद दुनिया से विदा हो गया तथा जाते-जाते मुगल साम्राज्य के ताबूत में समाप्ति की कील ठोक गया।
1707 में बादशाह औरंगजेब के मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन बहुत तेज़ी के साथ हुआ| 1739 में ईरान के शासक नादिर शाह के आक्रमण के समक्ष मुग़ल शक्ति बिखर कर रह गई| पूरी दुनिया में मुग़ल साम्राज्य का खोखलापन उजागर हो गया| दक्कन में मराठा शक्तिशाली हो गए थे| दिल्ली के निकट जाट, गूजर और रोहिल्ला पठानो की शक्ति पनपने लगी थी| मुग़ल दरबारी और तुर्क सैनिक भी बादशाह को आँख दिखाने लगे| 1739 से 1761 तक मुग़ल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली 9 गर्दियो का शिकार बनी| 9 गर्दियो का तात्पर्य 9 लूटमार के सिलसिलो से हैं, जोकि  9 भिन्न शासको अथवा जाति समूहों के द्वारा संचालित किए गए| नादिर शाह ने दो बार, अहमद शाह अब्दाली ने चार बार, भरतपुर के जाट राजा सूरज मल ने एक बार, मेरठ क्षेत्र के राव जैत सिंह गूजर ने एक बार,  रोहतक के बहादुर खान बलूच ने एक बार, रोहिल्ला सरदार नजीब खान ने आठ बार, मराठो ने आठ बार, खुद मुग़ल अधिकारियो और शाही सेना के तुर्क सैनिको ने भी दिल्ली को लूटा|ये 9 गर्दी निम्न हैं -
1. नादिर गर्दी 2. शाह गर्दी 3. जाट गर्दी 
4. गूजर गर्दी 5. बलूच गर्दी 6. रोहिल्ला गर्दी 7. मराठा गर्दी 8. मुग़ल गर्दी 9. तुर्क गर्दी
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बनने वाले बादशाहों ने दोबारा भारतीयों से गठजोड़ की कोशिश की परन्तु मुगल सैनिक शक्ति के कमजोर हो जाने के कारण वह योजना सफल नहीं हुई। मुगल सत्ता के केन्द्र दिल्ली के आसपास ही भारतीय शक्तिशाली होने लगे, मुगल बादशाह की यह मजबूरी हो गई कि वह नई बनने वाली रियासतों को मंजूरी दे। मथुरा के पास जाटों की भरतपुर तथा सन् 1710 मे बल्लभगढ़, सन् 1735 मे गुर्जरों की समथर रियासत अस्तित्व में आ गई थी। सन् 1737 मे जब दिल्ली में मुगल सम्राट अहमदशाह रंगीला था,तब पेशवा बाजीराव प्रथम ने दिल्ली का घेरा डाल कर यह संदेश दे दिया था कि मुगल सम्राट की सैनिक शक्ति समाप्त है,अब उनका शासन उनके सूबेदारो की शक्ति पर निर्भर है। सन् 1739 मैं दिल्ली पर ईरान के बादशाह नादिरशाह ने हमला कर कब्जा कर लिया। नादिरशाह मुगल सम्राटों के द्वारा एकत्रित की गई अकूत संपत्ति जो भारतीय किसानों से लूटकर उन्होंने जमा की थी को छीन कर तो ले ही गया, साथ में मुगल शहजादियों के रूप में सम्मान भी ले गया।अब मुगल सल्तनत सम्राट अकबर से लेकर औरंगजेब तक के मुगल शासकों की छाया मात्र रह गया थी।
यही वह समय था जब राव जेत सिंह नागर ने स्थानिय किसानों को संरक्षण देने के लिए दिल्ली में डांवाडोल मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ किया।राव जेत सिंह नागर का जन्म सन् 1715-16 में दादरी (गोतम बुद्ध नगर) के पास बम्बावड गांव में हुआ था, इनके पिता का नाम बल्ले सिंह था। दादरी के पास नागर गोत्र के गुर्जरों के 27-27गांव की दो यूनिटे है।27 गांव दादरी तथा गाजियाबाद के मध्य जिनमें दुजाना,कचैडा,बम्बावड आदि है तथा 27 गांव दनकौर के पास कनारसी, जुनेदपुर, दादूपुर आदि है। क्षेत्र के लोगों मे प्रचलित किवंदती के अनुसार गौतम बुध नगर में बसे नागडी गुर्जर यमुना पार पश्चिम में फरीदाबाद क्षेत्र में स्थित नीमका - तिगांव स्थान से आये थे। फरीदाबाद क्षेत्र में भी नागडी गुर्जरों की एक चौबीसी है।जिसका मुख्यालय नीमका - तीगांव रहा है। इतिहासकार आर एस शर्मा के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों ने अपनी विजयी सेना के सरदारों को चौबीसी,साठा,चौरासी,तीन सौ साठ राजस्व ईकाईयों में विजित क्षेत्रों को आवंटित किया था। सत्ता से प्राप्त इन इकाइयों में सरदारों ने अपने गोती भाईयों को जो कि उनके सैनिक थे,बसा दिया था।नागंडी गुर्जर और चौहान गुर्जर पृथ्वीराज चौहान के ताऊ और चौहानों के प्रथम सम्राट बिसल देव चौहान के समय यहां बसे हैं।नांगडी सम्भवतः गुहिल वंश की प्रथम राजधानी नागदा स्थान के रहने वाले है। पूर्व मध्य काल में नागदा को नागहडा नाम से जाना गया है।नागहडा की स्थापना सन् 646 ई में शासन करने वाले सिलादित्य के पिता नागादित्य ने की थी।नागहडा सन् 948 तक मेवाड़ के गुहिलों की राजधानी रही है। उसके बाद आहड़ को राजधानी बनाया गया है। सन् 1116 में पुनः नागहडा को गुहिलों ने अपनी राजधानी बनाया था।जो कि तेरहवीं सदी के आरंभ में इल्तुतमिश के आक्रमण तक बनी रही। सम्भवतः नागहडा से निकास होने के कारण इन्हें नागहडी/नागड़ी कहा गया। जैसे आहड़ से निकले हुए गुहिल अहडिया कहलाए। गुहिल गुर्जर प्रतिहारों के सामंत थे, जिन्होंने गुर्जर प्रतिहारों के लिए उत्तर में क्षेत्रों को विजित किया था। मेवाड़ क्षेत्र के गुहिल गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज के सामंत रहें हैं।गुहिल राजवंश के शासक बालादित्य के चाटसू अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसके पूर्वज हर्षराज ने उत्तर की विजय के बाद अपने स्वामी भोज को घोड़े भेंट किए। राष्ट्रीकूटो के अभिलेखों से यह साबित होता है कि नवी शताब्दी में चित्तौड़ पर गुर्जरों का आधिपत्य था। राष्ट्रकूट राजा अमोघ वर्ष के सन् 866 ई के नीलगुन्ड अभिलेख के अनुसार उसके पिता गोविन्द ने चित्रकूट/चित्तौड़ के गुर्जरों को पराजित किया था।
जेत सिंह नागर के पिता बल्ले सिंह तत्तकालीन मुगल सत्ता के अत्याचार के कारण अपने गांव बम्बावड को छोड़कर अपने मित्र सैदपुर (बुलंदशहर) गांव के जाट जमींदार के पास रहने लगे थे।बल्ले सिंह का जाट जमींदार के पास जाकर रहना इस बात का सबसे बडा साक्ष्य था कि जाट किसान नेताओं के मुगल सत्ता के साथ टकराने के लिए बने गठजोड़ में गुर्जर शक्ति कितने प्रभावशाली और निकट स्थिति में थी।
जेत सिंह नागर की परवरिश यहीं पर हुई।जवान होने पर जेत सिंह नागर ने मगनीराम जाट व दादरी के दरगाही सिंह भाटी के साथ मिलकर सेना बना ली तथा अपने साथी गुलाब सिंह नागर को अपनी सेना का सेनापति बना दिया।जेत सिंह नागर ने गंगा के किनारे बुलंदशहर से लेकर हस्तिनापुर तक घाट के दोनों ओर से कर लेना शुरू कर दिया तथा मुगल अधिकारियों को भगा दिया।उस समय के मुगल अधिकारियों ने जेत सिंह नागर के सिपाहियो को डाकूओं का गिरोह बता कर बादशाह से सैनिक कार्यवाही करने के लिए आग्रह किया।एक दिन दक्कन के मुगल सूबेदार प्रताप सिंह के एक प्रिय साथी को जैत सिंह ने मार डाला। प्रताप सिंह मुगल बादशाह अहमद शाह (1748-1754) की मां का चहेता था। अतः मुगल बादशाह ने प्रताप सिंह के नेतृत्व में एक सैनिक दस्ता भेजा। गढ़-मुक्तेश्वर के पास दोनों पक्षों में युद्ध हुआ, जिसमें मुगल सूबेदार परास्त हो गया तथा मारा गया।जब यह समाचार बादशाह पर पहुंचा तो दिल्ली के कोतवाल करम अली अली के नेतृत्व में एक और सैनिक दस्ता जेत सिंह नागर पर कार्यवाही के लिए बादशाह ने भेजा।मेरठ से किला-परिक्षत गढ रोड पर स्थित खजूरी गांव के पास दोनों पक्षों में युद्ध हुआ, जिसमें मुगल सेना पुनः परास्त हो गई तथा कोतवाल करम अली अली मारा गया।
एच आर नेविल्ल ने मेरठ डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में पृष्ठ संख्या 96 पर जेत सिंह गूजर के उत्थान और दिल्ली के मुगलों के विरुद्ध उसकी सफलताओ का इस प्रकार बखान किया हैं “The chief Gujars in this (Meerut) district are those of Parichhatgarh, who sprang into prominence during the troublous times at the end of the 18th century. The founder of the family was one Rao Jit Singh who was a notorious leader of banditti. He held command of all the ghats leading into Rohilkhand and reduced the art of levying blackmail to a science. Although his depredations were well known to the court of Dehli, no notice was taken of his conduct until he happened to kill a follower of one Partab Singh, a subahdar of the Deccan, who was a favourite of the mother of Ahmad Shah. Partab Singh marched with a force to chastise the Gujars, but was defeated and slain. Karam Ali, the Kotwal of Dehli, next tried his hands against Jit Singh but suffered the same fate, as did several others."
जैसा कि पहले ही ऊपर लिखा जा चुका है कि इस समय मुगल बादशाह के पास नाम मात्र की शक्ति बची थी, अतः बादशाह ने मजबूर हो कर जेत सिंह नागर से संधि कर ली। बादशाह ने मेरठ जिले के समस्त पूर्वी परगने का स्वामी जेत सिंह नागर को बना दिया।जेत सिंह नागर के साथी मगनीराम जाट को तीन परगने स्याना,फरीदा और पूठ दे दिए गए, मगनीराम जाट ने कुचेसर को अपना निवास बनाया तथा दरगाई सिंह भाटी को दादरी क्षेत्र के 133 गांवों की जागीर दे दी गई।इस प्रकार सन् 1747-48 में राव जेत सिंह नागर समस्त पूर्वी परगने के जागीर दार बन गए। गृह युद्ध के दौरान मीर बख्शी ईमाद उल मुल्क ने सेना की भर्ती की| ईमाद उल मुल्क के आमन्त्रण पर जब नजीब दिल्ली कूच कर रहा था रास्ते में मीरापुर के निकट स्थित कतेव्रह (Katewrah) के नवाब फतेहुल्लाह खान ने नजीब खान से परीक्षतगढ़ के राव जीत सिंह गूजर की दोस्ती करा दी थी| अतः जीत सिंह भी 2 जून 1754 को नजीब खान के साथ 2000 गूजर सैनिको की सेना लेकर दिल्ली आ गया| नजीब खान ने जैत सिंह गूजर को मीर बख्शी ईमाद उल मुल्क से मिलवाया| इन सैनिको को दिल्ली में सफ़दर जंग और उसके समर्थको के विरुद्ध तैनात किया| इस कार्यवाही में सफदरजंग के समर्थको के घरो को भी नहीं बख्शा गया और उन्हें जमकर लूटा गया| अगस्त-सितम्बर के माह में सैनिको को तनख्वाह नहीं मिली तब गूजर और रोहिल्ला सैनिको ने दिल्ली को लूट लिया|
नबाब सफदरजंग ने राजेन्द्र गिरी गुसाईं को सहारनपुर सरकार (ऊपरी दोआबा)का मनसबदार बनाया। गुसाईं ने ऊपरी दोआबा के सभी जमींदारों,जिसमे बारहा के सैयद,पठान और गुर्जर सम्मिलित थे,से सख्ती से लगान वसूला।ऊपरी दोआब का नियंत्रण लेने के लिए गुसाईं ने 15000 सैनिकों के साथ मवाना पर हमला कर दिया। गुसाईं से निपटने के लिए इमादुल्मुल्क ने जेत सिंह गुर्जर को जिम्मेदारी दी। मुजफ्फरनगर के निकट हुए युद्ध में जेत सिंह गुर्जर ने राजेन्द्र गिरी को युद्ध में परास्त कर मार डाला। हरिराम गुप्ता ने अपनी पुस्तक मराठाज एंड पानीपत में पृष्ठ संख्या 310 पर इस निर्णायक युद्ध का वर्णन किया है -
 “Meanwhile Safdar Jang appointed Rajinder Giri Gosain the governor of Saharanpur and sent him to ravage and capture the township of Mawana. As its landlord Ahmad Said Khan was also siding with Najib. Rajinder Girt invested Mawana with 15000 or 16000 soldiers, inflicted a defeat on Saadat Ali Khan and Mohsin Ali Khan and plundered all their baggage. To meet this menace Imad commissioned Jit Singh to proceed against Rajinder Giri. Parvarish Ali Khan and Tahawwar Ali Khan landlords of Barah went out to help Jit Singh. At that time Rajinder Giri was campaigning against Dilawar Ali Khan rais of Jalalabad. An encounter took place between Jit Singh and Rajinder Giri near Muzaffarnagar in which the latter was defeated and killed”
मुगल बादशाह ने खुश होकर जेत सिंह गुर्जर को राजा का खिताब प्रदान कर दिया।
एच आर नेविल्ल द्वारा लिखित मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में घटना का पृष्ठ संख्या 96 पर वर्णन किया गया है।जो इस प्रकार है -
 “Accordingly, the Emperor summoned Jit Singh and other Gujar leaders to Dehli, and gave them authority over the country that they held on condition that they should prevent others from thieving. Thus, Dargahi Singh obtained Dadri and the neighbouring lands; Mangni Ram, the Jat leader of Kuchesar, received Siyana, Puth and Farida; and Jit Singh obtained possession of the eastern parganas of this district.”
राव जेत सिंह नागर ने अपने क्षेत्र का राज कार्य चलाने के लिए परिक्षत गढ़ को केंद्रीय राजधानी के रुप में चुना तथा यहां पर एक किले का निर्माण करवाया।जेत सिंह नागर ने लगभग 15 कच्ची सडके बनवाई,रास्तो के किनारे वृक्ष लगवाये, औषधालय बनवाये, बड़े गांवों में हाट तथा मेले लगवाने का प्रबंध किया।राव ने गांव गोहरा आलमगीर पुर, गढ़-मुक्तेश्वर, बहसूमा तथा ऐंची में गढ़ियों का निर्माण करवाया।
सन् 1754 में जेत सिंह गुर्जर ने ज्वालापुर के मुस्लिम राजपूतों के विरूद्ध अभियान किया, जिन्होंने पवित्र स्थल हरिद्वार के ब्राह्मणों को आतंकित कर रखा था। हरिद्वार क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए जेत सिंह व उसके उत्तराधिकारियों ने कनखल में एक गढ़ी का निर्माण किया। जहां आगे चलकर जेत सिंह गुर्जर के उत्तराधिकारी राजा नैन सिंह ने अपने भाई अजब सिंह को तैनात किया था।जेत सिंह ने किठौर में,जो कि सरावा का एक टप्पा था,को अलग कर दिया। किठौर में भी एक गढी का निर्माण किया गया। किठौर कस्बे का यह किला किठौर टप्पे का मुख्यालय था।
सन् 1761 में पानीपत के युद्ध के समय ऊपरी दोआब क्षेत्र में मराठा सरदार गोविन्द पंत बुंदेला सक्रिय था।वह इस क्षेत्र के प्रमुख शक्तिशाली व्यक्ति जेत सिंह से संधि नही कर पाया।दूसरी ओर मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ जाट राजा सूरजमल से संधि नही कर पाया।इसका परिणाम यह हुआ की पानीपत के तिसरे युद्ध में मराठों को इस क्षेत्र से दो शक्तिशाली जातियों,जाट व गुर्जर की ओर से सैनिक तथा रसद की सहायता नही पहुंच पाई।जो मराठों की हार का मुख्य कारण बनें।
जेत सिंह नागर ने अपने क्षेत्र में रहने वाली जनता को उसके सम्पत्ति तथा सम्मान दोनों प्रकार की सुरक्षा प्रदान की।राव जेत सिंह नागर के कोई संतान नहीं थी। परंतु उनके प्रिय मित्र और सेनापति गुलाब सिंह नागर जो बहसूमा में रहते थे,के सात पुत्र थे। जिनके नाम थे- नैन सिंह,अजब सिंह, खुशहाल सिंह,चेन सिंह,भूप सिंह, जहांगीर सिंह व बीरबल सिंह। अतः राव जेत सिंह नागर ने अपने सेनापति गुलाब सिंह नागर के पुत्र नेन सिंह नागर को युवराज घोषित कर दिया।राव जेत सिंह नागर सन् 1790 में स्वर्ग सिधार गए।
किला-परिक्षत गढ की यह रियासत मुगल शासन के अंतर्गत ही आती थी। अतः राव जेत सिंह नागर के शासक बनने के समय सन् 1747-48 से लेकर उनकी मृत्यु सन् 1790 तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति कैसे हिचकोले ले रही थी,उस पर एक नजर डाल लेते हैं-
नादिरशाह के हमले के बाद बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला की सत्ता बंगाल,अवध और हैदराबाद के सूबेदारो के बल पर टिकी रह गई थी। सन् 1748 में लाहौर  का मुगल सूबेदार जकिया खां बहादुर मर गया, उसके दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम यहियां खां था तथा छोटे पुत्र का नाम मिया शहनाज़ खां था। दोनों में लाहौर की सूबेदारी को लेकर संघर्ष छिड़ गया।यहियां खां हैदराबाद के निजाम चिनगुलिज खां का दामाद था। अतः शहनाज़ खां अपना पक्ष कमजोर मान कर मदद के लिए अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली के पास पहुंचा। अहमदशाह अब्दाली की निगाह भी पंजाब के क्षेत्र पर लगी थी, अच्छा अवसर देख वह शहनाज़ खां की ओर से सेना लेकर युद्ध के लिए चल पड़ा।इन परिस्थितियों में चिनगुलिज खां अपने दामाद की ओर से आगे बढ़ा,मुगल बादशाह ने अपने मुख्य वजीर अवध के नवाब सफदरजंग तथा अपने शहजादे अहमद शाह को सेना लेकर चिनगुलिज खां की मदद को भेजा।इस युद्ध में मुगल सेना जीत गई, अहमदशाह अब्दाली मैदान छोड़कर भाग गया। परंतु चिनगुलिज खां शहीद हो गया।मुगल सम्राट ने चिनगुलिज खां के पुत्र को लाहौर का सूबेदार बना दिया।मुगल बादशाह चिनगुलिज खां को बहुत प्यार करता था,वह उसकी मृत्यु के गम में 26 अप्रैल सन् 1748 में मर गया। मोहम्मद शाह रंगीला की मृत्यु के बाद अहमद शाह बहादुर 13 वां मुगल बादशाह बना।अहमद शाह ने अपना मीर बख्शी जावेद खान नाम के एक हिजड़े को बना दिया,इस फैसले से पहले मीर बख्शी सफदरजंग क्रोधित हो गए, उन्होंने अगस्त सन् 1752 में जावेद खान को मार डाला।अब बादशाह ने रुहेला सरदार नजीबुद्दौला,इमादुलमुल्क फिरोज खान तृतीय के सहयोग से सफदरजंग को हटा कर वापस अवध भेज दिया तथा चिनकुलिज खां के पोत्र इमादुलमुल्क को मीरबख्शी बना दिया। कुछ समय बाद बादशाह की इमादुलमुल्क से अनबन हो गई, बादशाह ने इमादुलमुल्क को हटाकर पुनः सफदरजंग को प्रधानमंत्री बना दिया।इस पर इमादुलमुल्क बादशाह को सबक सिखाने के लिए मराठों की सहायता लेने के लिए दक्षिण में चला गया।मई सन् 1754मे इमादुलमुल्क मराठा सेना लेकर बादशाह पर चढ़ आया। बादशाह और सफदरजंग की सेना का मराठा सेना के साथ सिकंदराबाद में युद्ध हुआ। जिसमें बादशाह की सेना हार गई। बादशाह भागकर लालकिले में जा घुसा। परंतु मराठा सेना ने लालकिले में जाकर बादशाह को बंदी बना लिया।इमादुलमुल्क ने बादशाह व उसकी मा कुदसिया बेगम को पकडकर जेल में डाल दिया तथा चालिस वर्ष से जेल में बंद एक शहजादे को बाहर निकाल कर तख्त पर बैठा दिया।यह 14 वां मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय था, बादशाह तथा मराठों के बीच संधि हो गई।संधि के अनुसार मराठों को वर्तमान राजपूताना राज्य, पंजाब व गंगा-जमुना के दोआबा से भू-राजस्व वसूली का अधिकार मिल गया।इस संधि पर मुगलों की ओर से मुगल बादशाह व मीरबख्शी इमादुलमुल्क तथा मराठों की ओर से सदाशिव राव भाऊ, रघुनाथ राव व मल्लाहर राव होलकर ने हस्ताक्षर किए।अब मुगल बादशाह व उसके क्षेत्र की रक्षा का दायित्व मराठों पर आ गया। परन्तु कुछ समय बाद ही बादशाह व इमादुलमुल्क में गहरे मतभेद हो गये। बादशाह ने इमादुलमुल्क को कत्ल करने का आदेश दे दिया।इस कारण इमादुलमुल्क मराठों के पास भाग गया। सन् 1755 में लाहौर का सूबेदार जो चिनकुलिज खां का पुत्र था,मर गया।उसकी बेगम ने सिक्खों से परेशान होकर अहमदशाह अब्दाली से सहायता मांगी। सन् 1756 में अहमदशाह अब्दाली अपनी सेना लेकर सिक्खों का दमन करते हुए दिल्ली की ओर चल पड़ा।इस समय दिल्ली के बादशाह के पास कोई सेना नहीं थी।जब अहमदशाह अब्दाली दिल्ली के नजदीक पहुंचा तभी 17 जनवरी सन् 1757 को यमुना पार करके रुहेला सरदार नजीबुद्दौला अब्दाली से मिल गया। अहमदशाह अब्दाली से मुकाबला करने के स्थान पर दिल्ली के बादशाह ने सन्धि के लिए शत्रु का स्वागत किया।इस संधि के अंतर्गत मुगल बादशाह ने अब्दाली को एक करोड़ रूपए नजराना दिया।अब्दाली के बेटे को लाहौर का सूबेदार मुगल बादशाह ने स्वीकार कर लिया। बादशाह की शहजादी का विवाह अब्दाली के बेटे से कर दिया गया तथा अब्दाली की शादी मरहूम बादशाह अहमदशाह रंगीला की शहजादी से कर दी गयी। रुहेला सरदार नजीबुद्दौला को अब्दाली का प्रतिनिधि तथा मुगल बादशाह का प्रधानमंत्री बना दिया गया।अब अब्दाली वापस अफगानिस्तान चला गया। तभी मराठा सेना को लेकर इमादुलमुल्क दिल्ली पहुंच गया। मराठा सरदार रघुनाथ राव व मल्हार राव होलकर ने लालकिले को घेर कर नजीबुद्दौला पर हमला कर दिया। मराठों ने 6 सितंबर सन् 1757 को नजीबुद्दौला को लालकिले से बाहर निकाल दिया।इस संघर्ष के समय मुगल बादशाह लालकिले को छोड़कर राजा सूरजमल के पास भाग गया था।अब इमादुलमुल्क पुनः मीरबख्शी बन गया। अप्रेल सन् 1758 को मराठों ने अब्दाली के पुत्र को लाहौर से भगा दिया।राजा सूरजमल ने अपने प्रयास से मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय को पुनः लालकिले में प्रवेश करा दिया।अब मीरबख्शी इमादुलमुल्क‌‌‌ ने बादशाह से कहा कि अब्दाली जा चुका है अतः उसका झंडा लालकिले से उतार दे।इस पर बादशाह ने कहा कि अब्दाली उसका रिश्तेदार है झंडा नहीं उतरेगा। बादशाह ने अपने स्तर से इमादुलमुल्क की हत्या करने के प्रयास आरम्भ कर दिए।जब इमादुलमुल्क को इस बात का पता चला तो इमादुलमुल्क ने 29 नवम्बर सन् 1759 को बादशाह की हत्या करवा दी। बादशाह की हत्या के बाद इमादुलमुल्क भाग कर राजा सूरजमल के पास चला गया।इसी समय बादशाह का बडा शहजादा अली गौहर उर्फ शाह आलम द्वितीय भी लालकिले से भाग कर पटना चला गया।जब इस घटनाक्रम कि सूचना अहमदशाह अब्दाली को लगी तो वह भारत पर पुनः हमला करने के लिए चल दिया।इमादुलमुल्क मराठा सेना को लाने के लिए दक्षिण चला गया।जब मराठा सेना सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में दिल्ली पहुंची तो सदाशिव राव भाऊ ने पेशवा के पुत्र विश्वास राव को भारत का सम्राट बनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे इमादुलमुल्क सहित सभी मुस्लिम अमीरों ने ठुकरा दिया।यह कैसी विडम्बना थी कि मुस्लिम अमीर मुगल बादशाहों को कीड़े मकोड़ों की तरह मार रहे थे परंतु किसी गेर मुस्लिम को सम्राट स्वीकार नहीं कर रहे थे। यदि ये अमीर विश्वास राव को सम्राट स्वीकार कर लेते तो भारत की राजनीति बदल सकती थी।जब मुस्लिम अमीर नहीं माने तब सदाशिव राव भाऊ ने कहा कि या तो सम्राट विश्वास राव बनेगा या मराठों की मर्जी का बनेगा।ऐसी परिस्थिति में 10 सितंबर सन् 1759 को एक मुगल शहजादे को बादशाह बना दिया गया जिसका नाम शाहजहां तृतीय था। लेकिन 10 सितंबर सन् 1760 को मराठों ने शाहजहां तृतीय को तख्त से हटाकर मरहूम बादशाह आलमगीर द्वितीय के बड़े बेटे अली गौहर को सम्राट बना दिया जो शाह आलम द्वितीय के नाम से जाना गया।इस घटनाक्रम के बाद 14 जनवरी सन् 1761 को अहमदशाह अब्दाली व मराठों के बीच पानीपत का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। जिसमें मराठा सेना पराजित हो गई। रुहेला सरदार नजीबुद्दौला पुनः मीरबख्शी बन गया। अहमदशाह अब्दाली के अफगानिस्तान लौटने के बाद रूहेला सरदार नजीबुद्दौला और जाट राजा सूरजमल के बीच घमासान युद्ध हुआ,इस युद्ध में राजा सूरजमल ने अहमदशाह अब्दाली द्वारा जीत कर जो क्षेत्र नजीबुद्दौला को दिये थे,वो सब छीन लिए,बस दिल्ली बची थी।इस संघर्ष में 23 दिसम्बर सन् 1763 में राजा सूरजमल का बलिदान हो गया। लेकिन अगले ही कुछ दिनों बाद राजा सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह ने दिल्ली के लालकिले में बैठे रुहेला सरदार नजीबुद्दौला पर हमला कर दिया।इस मारामारी मे बादशाह शाह आलम द्वितीय दिल्ली से निकल कर अवध के नवाब के पास इलाहाबाद चला गया। परंतु यहां अंग्रेज शक्ति से संघर्ष हो गया।23 अक्टुबर सन् 1764को अवध के नवाब व अंग्रेजों के मध्य युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज जीत गये। सन् 1765 में अवध के नवाब में मराठा सरदार मल्हार राव होलकर की सहायता से पुनः अंग्रेजों से युद्ध किया। परंतु इस युद्ध में भी अंग्रेजों की सेना जीत गई।अब बादशाह शाह आलम द्वितीय तथा अंग्रेजों के मध्य संधि हो गई। जिसमें यह तय हुआ कि अंग्रेज बादशाह शाह आलम द्वितीय को 26 लाख रुपए प्रति वर्ष पेंशन देंगे।अवध के क्षेत्र से कर अंग्रेज वसूल करेंगे।अब बादशाह के पास लालकिला बचा था परंतु नजीबुद्दौला उसे लालकिले में घुसने नहीं दे रहा था। सन् 1770 में रुहेला सरदार नजीबुद्दौला की मृत्यु हो गई।इन परिस्थितियों में मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने बादशाह शाह आलम द्वितीय को अंग्रेजों के जबड़ों से निकाल कर लालकिले में बैठा दिया। सिंधिया ने बादशाह से संधि कर उसकी पेंशन 13 लाख रुपए वार्षिक कर दी। बादशाह इसमें खुश था,इस पेंशन से उसका खर्च चल जाता था, दूसरे उसे संतोष था कि वह लालकिले में रहता है। लेकिन बादशाह ने जो संधि में सिंधिया को क्षेत्र दिये थे उन पर अंग्रेज काबिज थे अतः सिंधिया ने बादशाह की पेंशन घटाकर 17 हजार रूपए महीना कर दी।इस समय बादशाह ने बंगाल के मीर कासिम की मदद से एक छोटी सी सेना बना ली।
सन् 1772 में मराठों ने नजीबुद्दौला के पुत्र जाबित खां की जागीर पर हमला कर वजीराबाद में स्थित पत्थर गढ़ का किला छीन लिया।इस कारण जाबित खां रुहेला मुगल बादशाह का शत्रु बन गया।यह वह समय था जब पंजाब में सिक्ख शक्तिशाली बन गए थे। अतः करोडा मिसल के जत्थेदार सरदार बघेल सिंह ने सेना लेकर दिल्ली का रूख किया। सन् 1775 में सहारनपुर पर हमला कर जीत लिया तथा सन् 1776 में मुजफ्फरनगर में एक मुस्लिम सेना को परास्त कर दिया। सन् 1778 में बघेल सिंह ने दिल्ली का घेरा डाल दिया। लेकिन रसद न मिलने के कारण बघेल सिंह को दिल्ली का घेरा उठाकर वापस पंजाब जाना पड़ा। परन्तु सन् 1783 में सिक्खों ने फिर दिल्ली पर हमला कर लालकिले पर भगवा निशान फहरा दिया। सिक्खों ने जस्सा सिंह अहलूवालिया को दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया। परन्तु जस्सा सिंह रामगढिय़ा के विरोध करने पर जस्सा सिंह अहलूवालिया ने तख्त का त्याग कर दिया। सरदार बघेल सिंह लालकिले के अंदर नहीं गये वो दिल्ली में गुरूद्वारे बनवाने में व्यस्त थे।अब सिक्खों ने मुगल बादशाह से तीन लाख रुपए नजराना लेकर संधि कर ली तथा पंजाब वापस चले आए।
सिक्खों के लालकिले पर अधिकार करवाने में रूहेला सरदार नजीबुद्दौला के बेटे जाबिता खां का सहयोग मिला था।जाबिता खां खुद को बादशाह का मीरबख्शी कहता था। बादशाह शाह आलम द्वितीय के पास खुद की एक छोटी सी सेना थी, अतः बादशाह ने सेना भेजकर जाबिता खां को उसके परिवार सहित पकडवा कर लालकिले में मंगवा लिया। बादशाह ने जाबिता खां के परिवार को खूब यातनाएं दी तथा जाबिता खां के बेटे गुलाम कादिर के योन अंग कटवा कर उसे नपुंसक बना दिया।जाबिता खां की मृत्यु के पश्चात उसके बेटे गुलाम कादिर ने सन् 1787 में एक सेना लेकर दिल्ली पर हमला कर दिया। बादशाह ने अपने को बचाने के लिए मराठा सरदार महादजी सिंधिया को पत्र लिखा, परंतु महादजी सिंधिया इस समय मध्य भारत में युद्ध में फंसा हुआ था। अतः बादशाह ने अपने बचाव के लिए मेरठ के पास सरधना की बेगम समरू को सहायता के लिए लिखा।बेगम समरू सेना लेकर
दिल्ली पहुंची।बेगम समरू ने गुलाम कादिर को परास्त कर दिल्ली से भगा दिया। परंतु गुलाम कादिर ने जुलाई सन् 1788 में पुनः बादशाह को दिल्ली में जा घेरा तथा एक मुखबिर की मदद से बादशाह को परिवार सहित बंदी बना लिया। गुलाम कादिर ने बादशाह की हरम की बेगमों व शहजादियों को बुरी तरह से अपमानित किया। कुछ शहजादियां अपनी आबरू बचाने के लिए यमुना नदी में कूद कर डूब मरी। गुलाम कादिर ने 30 जुलाई सन् 1788 को बादशाह शाह आलम द्वितीय को तख्त से हटा दिया तथा उसकी दोनों आंखें फोड़ दी। गुलाम कादिर ने मरहूम बादशाह अहमद शाह के बेटे बीदर बख्त उर्फ ज़हान शाह को लालकिले के कारागार से निकालकर तख्त पर बैठा दिया। गुलाम कादिर ने 22 के करीब शहजादे व शहजादियों को मार डाला।
जब महादजी सिंधिया को इस घटना की सूचना मिली तो वह पश्चाताप मे कराह उठा।क्योकि बादशाह शाह आलम द्वितीय ने समय रहते ही उसे सहायता के लिए लिखा था।अब महादजी सिंधिया एक विशाल सेना लेकर दिल्ली पर आ धमका। सिंधिया ने दिल्ली में रूहेला सैनिकों का कत्लेआम कर दिया तथा गुलाम कादिर को भी मार डाला।2 अक्टूबर सन् 1788 को नेत्रहीन शाह आलम द्वितीय को पुनः बादशाह बना दिया गया।
जब उपरोक्त घटनाक्रम पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि-
 राव जेत सिंह नागर के किला-परिक्षत गढ के जागीर दार बनने (सन् 1747-48) से लेकर मृत्यु (सन् 1790)तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति में जो भयानक खूनी दोर चला था,उस दोरान राव जेत सिंह नागर ने अपने पूर्वी परगने की जनता के सम्मान, सम्पत्ति व जीवन को बचाये रखा।जेत सिंह नागर ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे अपनी नीजी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जन हित दांव पर लग जाय। सन्1757 में अहमदशाह अब्दाली के द्वारा शक्तिशाली राजा सूरजमल के क्षेत्र बल्लभ गढ़, मथुरा-वृंदावन की जनता ने भयंकर कत्लेआम को भोगा था, परंतु राव जेत सिंह नागर ने अपनी जनता को हर मुसीबत से बचाये रखा यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक कुशलता थी।आज परिक्षत गढ़ में राव जेत सिंह नागर के द्वारा बनवाया गया किला नहीं है,उस किले को सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया था। परन्तु आज भी लोग परिक्षत गढ़ को किला कह कर ही पुकारते हैं। यही राव जेत सिंह नागर को स्थानिय लोगों की श्रद्धांजलि है।
समाप्त
संदर्भ ग्रंथ
1-डा दयाराम वर्मा- गुर्जर जाति का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास।
2--डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां (135,136,144,147,155,156,157158,160)
3. R S Sharma, Indian Feudalism, AD 300-1200, Delhi, 1965, P 88-89
4. H. R. Nevil, Meerut: A Gazetteer, Allahabad, 1904, p 96
5. Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961, p 310
6. Jadunath Sarkar, Fall of the Mughal Empire, Vol. 1, Calcutta, 1932, p 485-86
7. वही 
8. Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961, p 310
9. H. R. Nevil, Meerut: A Gazetteer, Allahabad, 1904, p 96
10. Hari Ram Gupta, Marathas and Panipat, Panjab University, 1961, p 331
11. वही, पृष्ठ 310 
12. वही पृष्ठ 316-317
13. Edwin T Atkinson, Statistical Descriptive and Historical account of the North-Western Provinces of India, Vol II, Part 1, Allahabad, 1875, P 198
14. वही, पृष्ठ 200 
15. H. R. Nevil, Meerut: A Gazetteer, Allahabad, 1904, p 256
16-  डा सुशील भाटी - परीक्षतगढ़ रियासत का संस्थापक जीत सिंह गूजर