सन् 1192 मैं दिल्ली मे मोहम्मद गोरी के द्वारा विदेशी सत्ता स्थापित हो गई थी। सन् 1192 से पहले भारतीय राजाओं द्वारा किसानों से लगान के रूप में फसल का छठा हिस्सा यानि 16%भाग लिया जाता था। यदि कोई किसान इस लगान को नहीं दे पाता था तो राजा उस किसान की समस्या सुनता था, उसे दूर करने की कोशिश करता था। यदि भारतीय राजाओं मे आपस में युद्ध हो जाता था तो उनकी सेनाएं शत्रु पक्ष के किसानों की फसल को क्षति नहीं पहुचाती थी।
परंतु विदेशी हमलावरों ने इन बातों का ध्यान नहीं रखा।उनका उद्देश्य भारतीय जनता से अधिक से अधिक धन प्राप्त कर अपनी सत्ता को बनाए रखना था।इन विदेशी शासकों ने अपनी सत्ता के क्षेत्रों से भारतीय किसानों पर उनकी फसल का आधे से अधिक यानि 50-60% लगान लगा दिया। विदेशी शासकों के सिपाही इस लगान को बडी कठोरता से वसूल करते थे।वो किसानों की कोई समस्या नहीं सुनते थे। लगान न दे पाने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा देते थे,उनकी महिलाओं को अपमानित करते थे तथा उनके बच्चों को जिंदा आग में फेंक देते थे।यह क्रम सन् 1192से लेकर सन् 1570 तक। मोहम्मद गोरी से लेकर अकबर के शासन काल तक एक तरफा चलता रहा। भारतीय भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार इन विदेशी शासकों से अपने स्थानिय राजाओं के नेतृत्व में संघर्ष करते रहे।
परंतु अकबर ने कुछ भारतीय राजाओं से संधि कर उन्हें अपना मनसबदार बना लिया तथा अपने शासन मे सैनिक व असैनिक नोकरी पर रख कर भारतीय किसानों से की जा रही लूट में हिस्सेदार बना लिया।मुगल बादशाह के साथ भारतीयों का यह समझौता मुगल+ सुलह कुल की सन्धि जो मुगल और राजपूत (कछवाहा+राठौड़) समझौता कहलाया। भारतियों के साथ समझौते में अकबर ने तीन प्रकार की निति अपनायी।
1- वैवाहिक संधि की निति, जिसमें आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि राजवंश थे।
2- मेत्री संधि, जिनमें रणथम्भौर के चौहान थे।
3- युद्ध की निती, जिसमें मेवाड़ राज्य प्रमुख था।
वास्तव में अकबर ने अपने चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा लिया था,जो यह दिखाता था कि अकबर भारतीयों को बराबर का अधिकार देता है,उसकी सेना में बड़े-बड़े मनसबदार भारतीय थे, उसके नवरत्नों में चार हिन्दू थे। समझौता हो जाने के कारण राजपूत जाति के किसान तो सत्ता के ताप से कुछ हद तक बच गए, परन्तु गेर राजपूत किसान पहले से भी अधिक दबाव में आ गए। यूं तो अकबर को अकबर महान कहा जाता है परंतु अकबर के समय जनता कितने कष्टों मे थी इसका वर्णन उस समय के रामचरितमानस के रचियता तुलसी दास जी ने अपने एक छंद में इस प्रकार किया है-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली।
बनिक को न बनिज,न चाकर को चाकरी।।
जिविका विहीन लोग,सीधमान सोच बस।
कहे एक एकन सो,कहां जाय का करी।।
सन् 1570 मैं अकबर ने नागोर दरबार का आयोजन किया था।उस समय नागोर के क्षेत्र में भयंकर सूखा पड़ा था,स्थानिय किसानों की सहानुभूति बटोरने के लिए अकबर ने वहा एक ताल का निर्माण करवाया है, जिसे शुक्रताल कहते हैं।इस आयोजन में अकबर ने वर्तमान राजस्थान के ज्यादातर रजवाड़ों से संधि की थी, आमेर के कछवाहे तो सन् 1562 में ही मुगल बादशाह के साथ संधि में आ गए थे।राणा प्रताप व जोधपुर के राठौड़ राव चंद्र सेन ही मुगलों से संघर्ष कर रहे थे।राव चंद्र सेन राठौड़ खुद व उसके सगे भाई उदय सिंह राठौड़ तथा राम सिंह राठौड़ भी इस आयोजन में उपस्थित थे, चंद्र सेन राठौड़ ने अकबर के न्यायिक चेहरे के पिछे छिपे शोषणकारी चेहरे को पहचान लिया था, अतः वह नागोर दरबार के आयोजन को बीच में छोड़कर ही चले गए थे।राव चंद्र सेन राठौड़ के दोनों भाई अकबर के साथ संधि में चले गए थे। अकबर ने उदय सिंह राठौड़ को सेना देकर राव चंद्र सेन राठौड़ तथा वर्तमान के बाड़मेर जिले के पास समवाली के क्षेत्र में बसे गुर्जरों पर हमला करने के लिए भेजा , क्योंकि वो मुगल सत्ता के विरूद्ध संघर्ष कर रहे थे।
शाहजहां के शासनकाल सन् 1632 में गेर राजपूत किसानों का संघर्ष प्रारंभ हो गया,जिसका नेतृत्व जाट किसान जागीर दार कर रहे थे, गुर्जर, अहीर,मीणा आदि इस संघर्ष में जाटों के सहयोग मे थे।यह संघर्ष औरंगजेब के शासनकाल मे गोकुला व राजाराम के बलिदान के कारण अपने चरम पर पहुंच गया था, औरंगजेब ने समस्त हिन्दूओं पर जजिया कर लगा दिया था। हिन्दू किसानों पर तो लगान फसल का आधा ही था परंतु मुसलमान किसानों को राहत देते हुए लगान फसल का एक चौथाई यानि 25%कर दिया था। औरंगजेब ने अकबर के सत्ता में भागीदारी के राजपूतों से हुए समझौते को भी एक तरह से समाप्त कर दिया था, अतः औरंगजेब के शासनकाल में अकबर से पहले वाली स्थिति बन गई थी। समस्त भारतीय शक्ति औरंगजेब के विरुद्ध खडी हो गई थी। औरंगजेब मुगल राज्य से कुफ्र को समाप्त करना चाहता था,वह सुन्नी मुसलमानों के अलावा किसी को भी मुसलमान नहीं मानता था। अतः शिया मुसलमानों, सिक्खों तथा हिन्दूओं को मिटाने के लिए उसने मरते दम तक पूरी शक्ति लगाई। परंतु कुफ्र था कि मिटने का नाम ही नहीं ले रहा था।इस कुफ्र को तो वह न मिटा सका परन्तु सन 1707 मे खुद दुनिया से विदा हो गया तथा जाते-जाते मुगल साम्राज्य के ताबूत में समाप्ति की कील ठोक गया।
1707 में बादशाह औरंगजेब के मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन बहुत तेज़ी के साथ हुआ| 1739 में ईरान के शासक नादिर शाह के आक्रमण के समक्ष मुग़ल शक्ति बिखर कर रह गई| पूरी दुनिया में मुग़ल साम्राज्य का खोखलापन उजागर हो गया| दक्कन में मराठा शक्तिशाली हो गए थे| दिल्ली के निकट जाट, गूजर और रोहिल्ला पठानो की शक्ति पनपने लगी थी| मुग़ल दरबारी और तुर्क सैनिक भी बादशाह को आँख दिखाने लगे| 1739 से 1761 तक मुग़ल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली 9 गर्दियो का शिकार बनी| 9 गर्दियो का तात्पर्य 9 लूटमार के सिलसिलो से हैं, जोकि 9 भिन्न शासको अथवा जाति समूहों के द्वारा संचालित किए गए| नादिर शाह ने दो बार, अहमद शाह अब्दाली ने चार बार, भरतपुर के जाट राजा सूरज मल ने एक बार, मेरठ क्षेत्र के राव जैत सिंह गूजर ने एक बार, रोहतक के बहादुर खान बलूच ने एक बार, रोहिल्ला सरदार नजीब खान ने आठ बार, मराठो ने आठ बार, खुद मुग़ल अधिकारियो और शाही सेना के तुर्क सैनिको ने भी दिल्ली को लूटा|ये 9 गर्दी निम्न हैं -
1. नादिर गर्दी 2. शाह गर्दी 3. जाट गर्दी
4. गूजर गर्दी 5. बलूच गर्दी 6. रोहिल्ला गर्दी 7. मराठा गर्दी 8. मुग़ल गर्दी 9. तुर्क गर्दी
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बनने वाले बादशाहों ने दोबारा भारतीयों से गठजोड़ की कोशिश की परन्तु मुगल सैनिक शक्ति के कमजोर हो जाने के कारण वह योजना सफल नहीं हुई। मुगल सत्ता के केन्द्र दिल्ली के आसपास ही भारतीय शक्तिशाली होने लगे, मुगल बादशाह की यह मजबूरी हो गई कि वह नई बनने वाली रियासतों को मंजूरी दे। मथुरा के पास जाटों की भरतपुर तथा सन् 1710 मे बल्लभगढ़, सन् 1735 मे गुर्जरों की समथर रियासत अस्तित्व में आ गई थी। सन् 1737 मे जब दिल्ली में मुगल सम्राट अहमदशाह रंगीला था,तब पेशवा बाजीराव प्रथम ने दिल्ली का घेरा डाल कर यह संदेश दे दिया था कि मुगल सम्राट की सैनिक शक्ति समाप्त है,अब उनका शासन उनके सूबेदारो की शक्ति पर निर्भर है। सन् 1739 मैं दिल्ली पर ईरान के बादशाह नादिरशाह ने हमला कर कब्जा कर लिया। नादिरशाह मुगल सम्राटों के द्वारा एकत्रित की गई अकूत संपत्ति जो भारतीय किसानों से लूटकर उन्होंने जमा की थी को छीन कर तो ले ही गया, साथ में मुगल शहजादियों के रूप में सम्मान भी ले गया।अब मुगल सल्तनत सम्राट अकबर से लेकर औरंगजेब तक के मुगल शासकों की छाया मात्र रह गया थी।
यही वह समय था जब राव जेत सिंह नागर ने स्थानिय किसानों को संरक्षण देने के लिए दिल्ली में डांवाडोल मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ किया।राव जेत सिंह नागर का जन्म सन् 1715-16 में दादरी (गोतम बुद्ध नगर) के पास बम्बावड गांव में हुआ था, इनके पिता का नाम बल्ले सिंह था। दादरी के पास नागर गोत्र के गुर्जरों के 27-27गांव की दो यूनिटे है।27 गांव दादरी तथा गाजियाबाद के मध्य जिनमें दुजाना,कचैडा,बम्बावड आदि है तथा 27 गांव दनकौर के पास कनारसी, जुनेदपुर, दादूपुर आदि है।जेत सिंह नागर के पिता बल्ले सिंह तत्तकालीन मुगल सत्ता के अत्याचार के कारण अपने गांव बम्बावड को छोड़कर अपने मित्र सैदपुर (बुलंदशहर) गांव के जाट जमींदार के पास रहने लगे थे।जेत सिंह नागर की परवरिश यहीं पर हुई।जवान होने पर जेत सिंह नागर ने मगनीराम जाट व दादरी के दरगाही सिंह भाटी के साथ मिलकर सेना बना ली तथा अपने साथी गुलाब सिंह नागर को अपनी सेना का सेनापति बना दिया।जेत सिंह नागर ने गंगा के किनारे बुलंदशहर से लेकर हस्तिनापुर तक घाट के दोनों ओर से कर लेना शुरू कर दिया तथा मुगल अधिकारियों को भगा दिया।उस समय के मुगल अधिकारियों ने जेत सिंह नागर के सिपाहियो को डाकूओं का गिरोह बता कर बादशाह से सैनिक कार्यवाही करने के लिए आग्रह किया।मुगल बादशाह ने प्रताप सिंह नामक सूबेदार के नेतृत्व में एक सैनिक दस्ता भेजा। गढ़-मुक्तेश्वर के पास दोनों पक्षों में युद्ध हुआ, जिसमें मुगल सूबेदार परास्त हो गया तथा मारा गया।जब यह समाचार बादशाह पर पहुंचा तो दिल्ली के कोतवाल कुवंर अली के नेतृत्व में एक और सैनिक दस्ता जेत सिंह नागर पर कार्यवाही के लिए बादशाह ने भेजा।मेरठ से किला-परिक्षत गढ रोड पर स्थित खजूरी गांव के पास दोनों पक्षों में युद्ध हुआ, जिसमें मुगल सेना पुनः परास्त हो गई तथा कोतवाल कुवंर अली मारा गया।जैसा कि पहले ही ऊपर लिखा जा चुका है कि इस समय मुगल बादशाह के पास नाम मात्र की शक्ति बची थी, अतः बादशाह ने मजबूर हो कर जेत सिंह नागर से संधि कर ली। बादशाह ने मेरठ जिले के समस्त पूर्वी परगने का स्वामी जेत सिंह नागर को बना दिया।जेत सिंह नागर के साथी मगनीराम जाट को तीन परगने स्याना,फरीदा और पूठ दे दिए गए, मगनीराम जाट ने कुचेसर को अपना निवास बनाया तथा दरगाई सिंह भाटी को दादरी क्षेत्र के 133 गांवों की जागीर दे दी गई।इस प्रकार सन् 1747-48 में राव जेत सिंह नागर समस्त पूर्वी परगने के जागीर दार बन गए। गृह युद्ध के दौरान मीर बख्शी ईमाद उल मुल्क ने सेना की भर्ती की| ईमाद उल मुल्क के आमन्त्रण पर जब नजीब दिल्ली कूच कर रहा था रास्ते में मीरापुर के निकट स्थित कतेव्रह (Katewrah) के नवाब फतेहुल्लाह खान ने नजीब खान से परीक्षतगढ़ के राव जीत सिंह गूजर की दोस्ती करा दी थी| अतः जीत सिंह भी 2 जून 1754 को नजीब खान के साथ 2000 गूजर सैनिको की सेना लेकर दिल्ली आ गया| नजीब खान ने जैत सिंह गूजर को मीर बख्शी ईमाद उल मुल्क से मिलवाया| इन सैनिको को दिल्ली में सफ़दर जंग और उसके समर्थको के विरुद्ध तैनात किया| इस कार्यवाही में सफदरजंग के समर्थको के घरो को भी नहीं बख्शा गया और उन्हें जमकर लूटा गया| अगस्त-सितम्बर के माह में सैनिको को तनख्वाह नहीं मिली तब गूजर और रोहिल्ला सैनिको ने दिल्ली को लूट लिया|
राव जेत सिंह नागर ने अपने क्षेत्र का राज कार्य चलाने के लिए परिक्षत गढ़ को केंद्रीय राजधानी के रुप में चुना तथा यहां पर एक किले का निर्माण करवाया।जेत सिंह नागर ने लगभग 15 कच्ची सडके बनवाई,रास्तो के किनारे वृक्ष लगवाये, औषधालय बनवाये, बड़े गांवों में हाट तथा मेले लगवाने का प्रबंध किया।राव ने गांव गोहरा आलमगीर पुर, गढ़-मुक्तेश्वर, बहसूमा तथा ऐंची में गढ़ियों का निर्माण करवाया।जेत सिंह नागर ने अपने क्षेत्र में रहने वाली जनता को उसके सम्पत्ति तथा सम्मान दोनों प्रकार की सुरक्षा प्रदान की।राव जेत सिंह नागर के कोई संतान नहीं थी। परंतु उनके प्रिय मित्र और सेनापति गुलाब सिंह नागर जो बहसूमा में रहते थे,के सात पुत्र थे। जिनके नाम थे- नैन सिंह,अजब सिंह, खुशहाल सिंह,चेन सिंह,भूप सिंह, जहांगीर सिंह व बीरबल सिंह। अतः राव जेत सिंह नागर ने अपने सेनापति गुलाब सिंह नागर के पुत्र नेन सिंह नागर को युवराज घोषित कर दिया।राव जेत सिंह नागर सन् 1790 में स्वर्ग सिधार गए।
किला-परिक्षत गढ की यह रियासत मुगल शासन के अंतर्गत ही आती थी। अतः राव जेत सिंह नागर के शासक बनने के समय सन् 1747-48 से लेकर उनकी मृत्यु सन् 1790 तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति कैसे हिचकोले ले रही थी,उस पर एक नजर डाल लेते हैं-
नादिरशाह के हमले के बाद बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला की सत्ता बंगाल,अवध और हैदराबाद के सूबेदारो के बल पर टिकी रह गई थी। सन् 1748 में लाहौर का मुगल सूबेदार जकिया खां बहादुर मर गया, उसके दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम यहियां खां था तथा छोटे पुत्र का नाम मिया शहनाज़ खां था। दोनों में लाहौर की सूबेदारी को लेकर संघर्ष छिड़ गया।यहियां खां हैदराबाद के निजाम चिनगुलिज खां का दामाद था। अतः शहनाज़ खां अपना पक्ष कमजोर मान कर मदद के लिए अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली के पास पहुंचा। अहमदशाह अब्दाली की निगाह भी पंजाब के क्षेत्र पर लगी थी, अच्छा अवसर देख वह शहनाज़ खां की ओर से सेना लेकर युद्ध के लिए चल पड़ा।इन परिस्थितियों में चिनगुलिज खां अपने दामाद की ओर से आगे बढ़ा,मुगल बादशाह ने अपने मुख्य वजीर अवध के नवाब सफदरजंग तथा अपने शहजादे अहमद शाह को सेना लेकर चिनगुलिज खां की मदद को भेजा।इस युद्ध में मुगल सेना जीत गई, अहमदशाह अब्दाली मैदान छोड़कर भाग गया। परंतु चिनगुलिज खां शहीद हो गया।मुगल सम्राट ने चिनगुलिज खां के पुत्र को लाहौर का सूबेदार बना दिया।मुगल बादशाह चिनगुलिज खां को बहुत प्यार करता था,वह उसकी मृत्यु के गम में 26 अप्रैल सन् 1748 में मर गया। मोहम्मद शाह रंगीला की मृत्यु के बाद अहमद शाह बहादुर 13 वां मुगल बादशाह बना।अहमद शाह ने अपना मीर बख्शी जावेद खान नाम के एक हिजड़े को बना दिया,इस फैसले से पहले मीर बख्शी सफदरजंग क्रोधित हो गए, उन्होंने अगस्त सन् 1752 में जावेद खान को मार डाला।अब बादशाह ने रुहेला सरदार नजीबुद्दौला,इमादुलमुल्क फिरोज खान तृतीय के सहयोग से सफदरजंग को हटा कर वापस अवध भेज दिया तथा चिनकुलिज खां के पोत्र इमादुलमुल्क को मीरबख्शी बना दिया। कुछ समय बाद बादशाह की इमादुलमुल्क से अनबन हो गई, बादशाह ने इमादुलमुल्क को हटाकर पुनः सफदरजंग को प्रधानमंत्री बना दिया।इस पर इमादुलमुल्क बादशाह को सबक सिखाने के लिए मराठों की सहायता लेने के लिए दक्षिण में चला गया।मई सन् 1754मे इमादुलमुल्क मराठा सेना लेकर बादशाह पर चढ़ आया। बादशाह और सफदरजंग की सेना का मराठा सेना के साथ सिकंदराबाद में युद्ध हुआ। जिसमें बादशाह की सेना हार गई। बादशाह भागकर लालकिले में जा घुसा। परंतु मराठा सेना ने लालकिले में जाकर बादशाह को बंदी बना लिया।इमादुलमुल्क ने बादशाह व उसकी मा कुदसिया बेगम को पकडकर जेल में डाल दिया तथा चालिस वर्ष से जेल में बंद एक शहजादे को बाहर निकाल कर तख्त पर बैठा दिया।यह 14 वां मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय था, बादशाह तथा मराठों के बीच संधि हो गई।संधि के अनुसार मराठों को वर्तमान राजपूताना राज्य, पंजाब व गंगा-जमुना के दोआबा से भू-राजस्व वसूली का अधिकार मिल गया।इस संधि पर मुगलों की ओर से मुगल बादशाह व मीरबख्शी इमादुलमुल्क तथा मराठों की ओर से सदाशिव राव भाऊ, रघुनाथ राव व मल्लाहर राव होलकर ने हस्ताक्षर किए।अब मुगल बादशाह व उसके क्षेत्र की रक्षा का दायित्व मराठों पर आ गया। परन्तु कुछ समय बाद ही बादशाह व इमादुलमुल्क में गहरे मतभेद हो गये। बादशाह ने इमादुलमुल्क को कत्ल करने का आदेश दे दिया।इस कारण इमादुलमुल्क मराठों के पास भाग गया। सन् 1755 में लाहौर का सूबेदार जो चिनकुलिज खां का पुत्र था,मर गया।उसकी बेगम ने सिक्खों से परेशान होकर अहमदशाह अब्दाली से सहायता मांगी। सन् 1756 में अहमदशाह अब्दाली अपनी सेना लेकर सिक्खों का दमन करते हुए दिल्ली की ओर चल पड़ा।इस समय दिल्ली के बादशाह के पास कोई सेना नहीं थी।जब अहमदशाह अब्दाली दिल्ली के नजदीक पहुंचा तभी 17 जनवरी सन् 1757 को यमुना पार करके रुहेला सरदार नजीबुद्दौला अब्दाली से मिल गया। अहमदशाह अब्दाली से मुकाबला करने के स्थान पर दिल्ली के बादशाह ने सन्धि के लिए शत्रु का स्वागत किया।इस संधि के अंतर्गत मुगल बादशाह ने अब्दाली को एक करोड़ रूपए नजराना दिया।अब्दाली के बेटे को लाहौर का सूबेदार मुगल बादशाह ने स्वीकार कर लिया। बादशाह की शहजादी का विवाह अब्दाली के बेटे से कर दिया गया तथा अब्दाली की शादी मरहूम बादशाह अहमदशाह रंगीला की शहजादी से कर दी गयी। रुहेला सरदार नजीबुद्दौला को अब्दाली का प्रतिनिधि तथा मुगल बादशाह का प्रधानमंत्री बना दिया गया।अब अब्दाली वापस अफगानिस्तान चला गया। तभी मराठा सेना को लेकर इमादुलमुल्क दिल्ली पहुंच गया। मराठा सरदार रघुनाथ राव व मल्हार राव होलकर ने लालकिले को घेर कर नजीबुद्दौला पर हमला कर दिया। मराठों ने 6 सितंबर सन् 1757 को नजीबुद्दौला को लालकिले से बाहर निकाल दिया।इस संघर्ष के समय मुगल बादशाह लालकिले को छोड़कर राजा सूरजमल के पास भाग गया था।अब इमादुलमुल्क पुनः मीरबख्शी बन गया। अप्रेल सन् 1758 को मराठों ने अब्दाली के पुत्र को लाहौर से भगा दिया।राजा सूरजमल ने अपने प्रयास से मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय को पुनः लालकिले में प्रवेश करा दिया।अब मीरबख्शी इमादुलमुल्क ने बादशाह से कहा कि अब्दाली जा चुका है अतः उसका झंडा लालकिले से उतार दे।इस पर बादशाह ने कहा कि अब्दाली उसका रिश्तेदार है झंडा नहीं उतरेगा। बादशाह ने अपने स्तर से इमादुलमुल्क की हत्या करने के प्रयास आरम्भ कर दिए।जब इमादुलमुल्क को इस बात का पता चला तो इमादुलमुल्क ने 29 नवम्बर सन् 1759 को बादशाह की हत्या करवा दी। बादशाह की हत्या के बाद इमादुलमुल्क भाग कर राजा सूरजमल के पास चला गया।इसी समय बादशाह का बडा शहजादा अली गौहर उर्फ शाह आलम द्वितीय भी लालकिले से भाग कर पटना चला गया।जब इस घटनाक्रम कि सूचना अहमदशाह अब्दाली को लगी तो वह भारत पर पुनः हमला करने के लिए चल दिया।इमादुलमुल्क मराठा सेना को लाने के लिए दक्षिण चला गया।जब मराठा सेना सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में दिल्ली पहुंची तो सदाशिव राव भाऊ ने पेशवा के पुत्र विश्वास राव को भारत का सम्राट बनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे इमादुलमुल्क सहित सभी मुस्लिम अमीरों ने ठुकरा दिया।यह कैसी विडम्बना थी कि मुस्लिम अमीर मुगल बादशाहों को कीड़े मकोड़ों की तरह मार रहे थे परंतु किसी गेर मुस्लिम को सम्राट स्वीकार नहीं कर रहे थे। यदि ये अमीर विश्वास राव को सम्राट स्वीकार कर लेते तो भारत की राजनीति बदल सकती थी।जब मुस्लिम अमीर नहीं माने तब सदाशिव राव भाऊ ने कहा कि या तो सम्राट विश्वास राव बनेगा या मराठों की मर्जी का बनेगा।ऐसी परिस्थिति में 10 सितंबर सन् 1759 को एक मुगल शहजादे को बादशाह बना दिया गया जिसका नाम शाहजहां तृतीय था। लेकिन 10 सितंबर सन् 1760 को मराठों ने शाहजहां तृतीय को तख्त से हटाकर मरहूम बादशाह आलमगीर द्वितीय के बड़े बेटे अली गौहर को सम्राट बना दिया जो शाह आलम द्वितीय के नाम से जाना गया।इस घटनाक्रम के बाद 14 जनवरी सन् 1761 को अहमदशाह अब्दाली व मराठों के बीच पानीपत का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। जिसमें मराठा सेना पराजित हो गई। रुहेला सरदार नजीबुद्दौला पुनः मीरबख्शी बन गया। अहमदशाह अब्दाली के अफगानिस्तान लौटने के बाद रूहेला सरदार नजीबुद्दौला और जाट राजा सूरजमल के बीच घमासान युद्ध हुआ,इस युद्ध में राजा सूरजमल ने अहमदशाह अब्दाली द्वारा जीत कर जो क्षेत्र नजीबुद्दौला को दिये थे,वो सब छीन लिए,बस दिल्ली बची थी।इस संघर्ष में 23 दिसम्बर सन् 1763 में राजा सूरजमल का बलिदान हो गया। लेकिन अगले ही कुछ दिनों बाद राजा सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह ने दिल्ली के लालकिले में बैठे रुहेला सरदार नजीबुद्दौला पर हमला कर दिया।इस मारामारी मे बादशाह शाह आलम द्वितीय दिल्ली से निकल कर अवध के नवाब के पास इलाहाबाद चला गया। परंतु यहां अंग्रेज शक्ति से संघर्ष हो गया।23 अक्टुबर सन् 1764को अवध के नवाब व अंग्रेजों के मध्य युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज जीत गये। सन् 1765 में अवध के नवाब में मराठा सरदार मल्हार राव होलकर की सहायता से पुनः अंग्रेजों से युद्ध किया। परंतु इस युद्ध में भी अंग्रेजों की सेना जीत गई।अब बादशाह शाह आलम द्वितीय तथा अंग्रेजों के मध्य संधि हो गई। जिसमें यह तय हुआ कि अंग्रेज बादशाह शाह आलम द्वितीय को 26 लाख रुपए प्रति वर्ष पेंशन देंगे।अवध के क्षेत्र से कर अंग्रेज वसूल करेंगे।अब बादशाह के पास लालकिला बचा था परंतु नजीबुद्दौला उसे लालकिले में घुसने नहीं दे रहा था। सन् 1770 में रुहेला सरदार नजीबुद्दौला की मृत्यु हो गई।इन परिस्थितियों में मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने बादशाह शाह आलम द्वितीय को अंग्रेजों के जबड़ों से निकाल कर लालकिले में बैठा दिया। सिंधिया ने बादशाह से संधि कर उसकी पेंशन 13 लाख रुपए वार्षिक कर दी। बादशाह इसमें खुश था,इस पेंशन से उसका खर्च चल जाता था, दूसरे उसे संतोष था कि वह लालकिले में रहता है। लेकिन बादशाह ने जो संधि में सिंधिया को क्षेत्र दिये थे उन पर अंग्रेज काबिज थे अतः सिंधिया ने बादशाह की पेंशन घटाकर 17 हजार रूपए महीना कर दी।इस समय बादशाह ने बंगाल के मीर कासिम की मदद से एक छोटी सी सेना बना ली।
सन् 1772 में मराठों ने नजीबुद्दौला के पुत्र जाबित खां की जागीर पर हमला कर वजीराबाद में स्थित पत्थर गढ़ का किला छीन लिया।इस कारण जाबित खां रुहेला मुगल बादशाह का शत्रु बन गया।यह वह समय था जब पंजाब में सिक्ख शक्तिशाली बन गए थे। अतः करोडा मिसल के जत्थेदार सरदार बघेल सिंह ने सेना लेकर दिल्ली का रूख किया। सन् 1775 में सहारनपुर पर हमला कर जीत लिया तथा सन् 1776 में मुजफ्फरनगर में एक मुस्लिम सेना को परास्त कर दिया। सन् 1778 में बघेल सिंह ने दिल्ली का घेरा डाल दिया। लेकिन रसद न मिलने के कारण बघेल सिंह को दिल्ली का घेरा उठाकर वापस पंजाब जाना पड़ा। परन्तु सन् 1783 में सिक्खों ने फिर दिल्ली पर हमला कर लालकिले पर भगवा निशान फहरा दिया। सिक्खों ने जस्सा सिंह अहलूवालिया को दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया। परन्तु जस्सा सिंह रामगढिय़ा के विरोध करने पर जस्सा सिंह अहलूवालिया ने तख्त का त्याग कर दिया। सरदार बघेल सिंह लालकिले के अंदर नहीं गये वो दिल्ली में गुरूद्वारे बनवाने में व्यस्त थे।अब सिक्खों ने मुगल बादशाह से तीन लाख रुपए नजराना लेकर संधि कर ली तथा पंजाब वापस चले आए।
सिक्खों के लालकिले पर अधिकार करवाने में रूहेला सरदार नजीबुद्दौला के बेटे जाबिता खां का सहयोग मिला था।जाबिता खां खुद को बादशाह का मीरबख्शी कहता था। बादशाह शाह आलम द्वितीय के पास खुद की एक छोटी सी सेना थी, अतः बादशाह ने सेना भेजकर जाबिता खां को उसके परिवार सहित पकडवा कर लालकिले में मंगवा लिया। बादशाह ने जाबिता खां के परिवार को खूब यातनाएं दी तथा जाबिता खां के बेटे गुलाम कादिर के योन अंग कटवा कर उसे नपुंसक बना दिया।जाबिता खां की मृत्यु के पश्चात उसके बेटे गुलाम कादिर ने सन् 1787 में एक सेना लेकर दिल्ली पर हमला कर दिया। बादशाह ने अपने को बचाने के लिए मराठा सरदार महादजी सिंधिया को पत्र लिखा, परंतु महादजी सिंधिया इस समय मध्य भारत में युद्ध में फंसा हुआ था। अतः बादशाह ने अपने बचाव के लिए मेरठ के पास सरधना की बेगम समरू को सहायता के लिए लिखा।बेगम समरू सेना लेकर
दिल्ली पहुंची।बेगम समरू ने गुलाम कादिर को परास्त कर दिल्ली से भगा दिया। परंतु गुलाम कादिर ने जुलाई सन् 1788 में पुनः बादशाह को दिल्ली में जा घेरा तथा एक मुखबिर की मदद से बादशाह को परिवार सहित बंदी बना लिया। गुलाम कादिर ने बादशाह की हरम की बेगमों व शहजादियों को बुरी तरह से अपमानित किया। कुछ शहजादियां अपनी आबरू बचाने के लिए यमुना नदी में कूद कर डूब मरी। गुलाम कादिर ने 30 जुलाई सन् 1788 को बादशाह शाह आलम द्वितीय को तख्त से हटा दिया तथा उसकी दोनों आंखें फोड़ दी। गुलाम कादिर ने मरहूम बादशाह अहमद शाह के बेटे बीदर बख्त उर्फ ज़हान शाह को लालकिले के कारागार से निकालकर तख्त पर बैठा दिया। गुलाम कादिर ने 22 के करीब शहजादे व शहजादियों को मार डाला।
जब महादजी सिंधिया को इस घटना की सूचना मिली तो वह पश्चाताप मे कराह उठा।क्योकि बादशाह शाह आलम द्वितीय ने समय रहते ही उसे सहायता के लिए लिखा था।अब महादजी सिंधिया एक विशाल सेना लेकर दिल्ली पर आ धमका। सिंधिया ने दिल्ली में रूहेला सैनिकों का कत्लेआम कर दिया तथा गुलाम कादिर को भी मार डाला।2 अक्टूबर सन् 1788 को नेत्रहीन शाह आलम द्वितीय को पुनः बादशाह बना दिया गया।
जब उपरोक्त घटनाक्रम पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि-
राव जेत सिंह नागर के किला-परिक्षत गढ के जागीर दार बनने (सन् 1747-48) से लेकर मृत्यु (सन् 1790)तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति में जो भयानक खूनी दोर चला था,उस दोरान राव जेत सिंह नागर ने अपने पूर्वी परगने की जनता के सम्मान, सम्पत्ति व जीवन को बचाये रखा।जेत सिंह नागर ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे अपनी नीजी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जन हित दांव पर लग जाय। सन्1757 में अहमदशाह अब्दाली के द्वारा शक्तिशाली राजा सूरजमल के क्षेत्र बल्लभ गढ़, मथुरा-वृंदावन की जनता ने भयंकर कत्लेआम को भोगा था, परंतु राव जेत सिंह नागर ने अपनी जनता को हर मुसीबत से बचाये रखा यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक कुशलता थी।आज परिक्षत गढ़ में राव जेत सिंह नागर के द्वारा बनवाया गया किला नहीं है,उस किले को सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया था। परन्तु आज भी लोग परिक्षत गढ़ को किला कह कर ही पुकारते हैं। यही राव जेत सिंह नागर को स्थानिय लोगों की श्रद्धांजलि है।
समाप्त
संदर्भ ग्रंथ
1-डा दयाराम वर्मा- गुर्जर जाति का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास।
2--डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां (135,136,144,147,155,156,157158,160)
3- डा सुशील भाटी - दिल्ली की 9 गर्दी
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