भारत में यह व्यवस्था पंचायत के रूप में पनपी तथा इसकेे नियम कानून के रूप में मनु स्मृति नामक ग्रंथ में है जिसका जिक्र आज भी हो जाता है।जब इस्लाम के मानने वालों का शासन दुनिया में आया तो शरियत के रूप में एक किताब का जिक्र आता है जिसमें समाज के क्रिमिनल और सीविल दोनों तरह के मसलों का हल तथा उसकी न्याय व्यवस्था दी गई है।
लेकिन आधुनिक भारत में जो यूरोपियन के आगमन से माना जाता है,का भारत की न्यायपालिका पर विशेष प्रभाव है।
इसको दो समयांतराल में विभाजित किया जा सकता है।एक सन् 1764 से लेकर आजाद भारत के संविधान लागू होने तक (26 जनवरी सन् 1950) तथा दूसरा सन् 1950 से लेकर आज तक।
आज भारत में कोलेजियम की व्यवस्था के अनुसार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजो की नियुक्ति होती है।इस लेख के माध्यम से हम अपने पाठकों को सन् 1764 से लेकर आज तक की आधुनिक भारत की न्यायिक यात्रा से परिचित कराने का प्रयास करेंगे।
सन् 1764 में अंग्रेजों और मुगलों के बीच हुए बक्सर के युद्ध में अंग्रेजो की विजय के पश्चात मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के मध्य हुए समझौते के अनुसार बंगाल प्रांत (वर्तमान का बिहार बंगाल और उड़ीसा) के वित्त एवं प्रशासनिक कार्य अंग्रेजों के हाथ में आ गए तथा क्रिमिनल के फैसले शरियत के अनुसार ही होते रहें।
सन् 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट नाम का कानून अंग्रेजो द्वारा भारत में लागू किया गया।अब बंगाल की जुडिशरी भी अंग्रेजों के हाथ में आ गई।
सन् 1774 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना कलकत्ता में अंग्रेजों द्वारा की गई, जिसमें 4 जज थे।यह आधुनिक भारत में अंग्रेजों द्वारा न्यायालय व न्यायिक व्यवस्था हेतु उठाया गया पहला कदम था।
सन् 1834 में फर्स्ट ला कमिशन आफ ब्रिटिश इंडिया बनाया गया जिसके अध्यक्ष लार्ड मैकाले बनाये गये।
सन् 1835 में लार्ड मैकाले की सलाह पर अंग्रेजी भाषा को भारत की आफिशियल भाषा बना दिया गया।
सन् 1862 में कलकत्ता बोम्बे और मद्रास में हाई कोर्ट बनाये गये।
इस प्रकार भारत में अंग्रेजों के द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों की स्थापना हो गई। सन् 1935 में भारत में एक संविधान अंग्रेजों द्वारा लागू किया गया, आजाद भारत के अपने संविधान लागू होने तक अर्थात 26 जनवरी सन् 1950 तक सन् 1935 के संविधान से ही भारत का शासन चलता रहा।
आजाद भारत के संविधान के अनुसार भारत के न्यायालयों (सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट) में जजो की नियुक्ति करने के लिए संविधान की धारा 124 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के गठन की प्रक्रिया दी गई है। जिसमें कहा गया है कि भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा जो 7 से अधिक जजों से मिलकर बनेगा अर्थात एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 न्यायाधीश होंगे। यदि न्यायाधीशों की संख्या बढानी हो तो उसका अधिकार भारत की संसद को होगा।आज भारत के सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या 34(1+33) है।
जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जायेगी। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करेंगे। राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के जजों से परामर्श करेंगे, परन्तु राष्ट्रपति उनका परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं है। अतः एक तरह से भारत की कार्यपालिका राष्ट्रपति के माध्यम से भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करेंगी।
सुप्रीम कोर्ट के अन्य जज भी भारत के राष्ट्रपति ही नियुक्त करेंगे। अन्य जजों की नियुक्ति के लिए भारत के राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनिवार्य परामर्श करेंगे, राष्ट्रपति चाहें तो अन्य न्यायधीशों से भी परामर्श कर सकते हैं। परंतु वह परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं होगे। अतः भारत का संविधान सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति का अधिकार भारत की संसद को देता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह परम्परा डाली की भारत का मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठता के क्रम से बनते थे, जवाहर लाल नेहरू के सम्पूर्ण कार्यकाल में सिर्फ एक बार ऐसी परिस्थिति बनी, जिसमें वरिष्ठ जज के स्थान पर उनसे नीचे के नम्बर के जज भारत के मुख्य न्यायाधीश बनें। सन् 1964 में जफर इमाम नाम के एक जज का मुख्य न्यायाधीश बनने का नम्बर था, परन्तु वह बहुत लम्बे समय से बीमार थे,उनके स्वास्थ्य के कारण उनके स्थान पर दूसरे जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया।
भारत में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की प्रक्रिया प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में विवादो में घिर गई। इंदिरा गांधी जी ने सन् 1973 में भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता क्रम को तोड दिया, जिसमें नियुक्त का आधार राजनीतिक बताया गया। हुआ यह कि 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी को 352 सीट मिली । इंदिरा गांधी ने संविधान में 6 संशोधन (24से29) किये। जिस कारण पूरे देश में ऐसा संदेश जाने लगा कि इंदिरा गांधी पूरे संविधान को ही बदलना चाहती है। ऐसे अवसर पर 24 अप्रैल सन् 1973 में केशवानंद भारती केस का फैसला आया,इस केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच कर रही थी। फैसला 7-6 के बहुमत से आया। फैसले में कहा गया कि भारत की संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है, परंतु संसद संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नही कर सकती।मूल ढांचे में क्या आता है या मूल ढांचे का जिक्र भारत के संविधान में नही है।जब माननीय सुप्रीम कोर्ट से यह पूछा गया कि मूल ढांचा क्या है?इसमे क्या आता है? तब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब भी कोई ऐसा अवसर आयेगा, सुप्रीम कोर्ट मूल ढांचे को बताता रहेगा।
इस फैसले से कार्यपालिका की संविधान संशोधन की शक्ति पर एक विराम तो लगा ही।इस फैसले के आने के अगले ही दिन 25 अप्रैल सन् 1973 को भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की गई।जिनका नाम ए.एन.रे था।इस नियुक्ति से बनाये गये मुख्य न्यायाधीश, वरिष्ठता के क्रम में चौथे नम्बर पर थे,जब इस फैसले की समीक्षा भारत के बुद्धिजीवी वर्ग ने की तो पाया कि वरिष्ठता के क्रम में ऊपर के तीन जज केशवानंद भारती के फैसले में उन 7 जजों मे शामिल थे, जिन्होंने मूल ढांचे के फेवर में फैसला दिया था, मुख्य न्यायाधीश बनने वाले जज उन 6 जजों मे थे जो मूल ढांचे को नही चाहतें थे। श्रीमती इंदिरा गांधी की पूरे भारत के बौद्धिक जगत में इस फैसले की निंदा की गई तथा इस नियुक्ति को भारत की न्यायपालिका में एक राजनैतिक हस्तक्षेप के रुप में देखा गया।
दूसरा केस ए डी एम जबलपुर के नाम से सन् 1976 में आया,यह एक रिट है, जो संविधान की धारा 32 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में तथा धारा 226 के अंतर्गत हाईकोर्ट में डाली जाती है। यदि किसी व्यक्ति को गैर कानूनी तरीके से बंदी बना लिया जाय तो वह व्यक्ति या उसको आधार बनाकर कोई भी अन्य व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। क्योंकि भारत के संविधान में स्वतंत्रता का अधिकार मौलिक अधिकार मे आता है।25 जून सन् 1975 को भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी गई थी। बहुत से नागरिक जेल में बंद कर दिए गए थे।उनके लिए ही यह रिट डाली गई थी।इस केस में 5 जजों की बैंच बैठी। जिसमें 4-1 से यह फैसला हुआ कि सुप्रीम कोर्ट इन गिरफ्तारियों को रोकने या बिना किसी चार्ज के बंदी बनाये गये लोगों को छोड़ने का कोई आदेश नहीं देगा। सन् 1977 में पुनः मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति होनी थी।इस समय एच आर खन्ना वरिष्ठता के क्रम में सबसे ऊपर थे। परन्तु खन्ना जी के स्थान पर बैग नाम के कनिष्ठ जज को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया। क्योंकि खन्ना जी वो एक जज थे जिनका यह कहना था कि आपातकाल के समय बिना चार्ज के गिरफ्तार किए गए नागरिकों को छोड़ने का आदेश सुप्रीम कोर्ट को देना चाहिए।इस नियुक्ति की भी निंदा हुई। क्योंकि खन्ना जी को राजनीति के तहत पद से वंचित कर दिया गया था।
उपरोक्त सन् 1973 और सन् 1977 की मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के कारण सन् 1973 में वरिष्ठ तीन जज तथा 1977 में वरिष्ठ एक जज को स्तीफा देकर अपने पद और वरिष्ठता की गरिमा की रक्षा करनी पडी थी।
अतः सन् 1981 में एस पी गुप्ता बनाम भारत सरकार के नाम से एक केस सुप्रीम कोर्ट मे आया।इस केस में पूछा गया कि संविधान की धारा 124 में जो परामर्श शब्द है क्या उसका अर्थ सहमति के रुप में लिया जा सकता है। क्योंकि यदि परामर्श का अर्थ सहमति माने तो राष्ट्रपति न्यायाधीश के परामर्श को मानने के लिए बाध्य है।इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परामर्श का अर्थ सहमति नही है। अतः राष्ट्रपति न्यायाधीश के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।इसको फस्ट जजी केस के नाम से भी जाना जाता है।
इसके बाद सन् 1993 में जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत सरकार के नाम से फिर सुप्रीम कोर्ट में एक केस डाला गया जिसमें फिर यही पूछा गया कि क्या परामर्श का अर्थ सहमति है।अब इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने सन् 1981 के फैसले से यू टर्न ले लिया और कहा कि परामर्श का अर्थ सम्मति है। अतः राष्ट्रपति न्यायाधीश से जो परामर्श लेंगे, उसे मानने के लिए बाध्य है।यही से कोलेजियम प्रणाली की शुरुआत हो गई।इस फैसले में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति तो राष्ट्रपति ही करेंगे, परन्तु मंत्री परिषद की सलाह पर नही बल्कि मुख्य न्यायाधीश तथा दो वरिष्ठतम न्यायाधीश के परामर्श पर करेंगे तथा जब इस प्रकार का परामर्श दिया जायेगा तो फैसला प्राईमेशी प्रिंसिपल के आधार पर होगा।यानि मुख्य न्यायाधीश की राय ही न्यायपालिका की राय मानी जायेगी। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर की जायेगी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से जो आजादी के बाद से वरिष्ठता एक प्रथा थी,अब वह एक कानून बन गया।इस प्रकार सन् 1993 से कार्यपालिका जजों की नियुक्ति से अलग हो गई तथा जजों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के हाथ में आ गई।
आगे चलकर सन् 1998 में प्रेसिडेंट रेफरेंस एक्ट-143 के तहत जिसमें भारत का राष्ट्रपति न्यायालय से परामर्श मांग सकता है।
इस समय भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन थे। सन् 1998 में भारत के प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल तथा अटल बिहारी वाजपेई रहे थे। राष्ट्रपति जी ने न्यायपालिका से पूछा कि परामर्श का अर्थ सहमति की व्याख्या ने व्यवहारिक असंतुलन पैदा कर दिया है। यदि परामर्श का अर्थ सब जगह सहमति हो गया तो कोई किसी से परामर्श ही नहीं करेगा।क्या हमारा संविधान इसकी इजाजत देता है कि एक ही व्यक्ति जजों की नियुक्ति करें जो खुद भी एक जज ही है।इस पर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि परामर्श का अर्थ सहमति ही है और कोलेजियम व्यवस्था सही है। परन्तु अब सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था का विस्तार कर दिया।कहा गया कि अब
1- जजों की नियुक्ति की कमेटी 5 सदस्य की होगी। जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 4 वरिष्ठतम न्यायाधीश होंगे।
2- यदि आगे बनने वाला मुख्य न्यायाधीश इन चार जजो में नही है तो वह भी इसका एक सदस्य होगा।सम्यक प्रक्रिया का पालन करते हुए यह कमेटी किसी नाम की सिफारिश करेगी तो राष्ट्रपति जी उसका पालन करने के लिए बाध्य होंगे।
सम्यक प्रक्रिया
1- मुख्य न्यायाधीश की सहमति के बिना कोई भी नाम सुप्रीम कोर्ट में जज बनने के लिए प्रस्तावित नही किया जायेगा।
2- कोलेजियम सर्व सम्मति से निर्णय लेगा। यदि सहमति नही बनी तो बहुमत के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।जो मुख्य न्यायाधीश+2 होंगे। मुख्य न्यायाधीश की सहमति अनिवार्य होगी।
3- जब किसी व्यक्ति का नाम सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में पेश किया जाएगा तो उसके केंद्र में मैरिट होगी। वरिष्ठता का पर्याप्त ध्यान रखा जायेगा। परंतु मैरिट बनाम वरिष्ठता में से यदि किसी एक का चयन करना हो तो मैरिट को वरियता दी जाएगी।
4- यदि हाई कोर्ट के जज को सुप्रीम कोर्ट में ले जाया जा रहा हो तथा उसी प्रदेश का जज पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में हो तो उसकी सलाह भी ली जायेगी।
इसे थर्ड जजी केस कहा गया।इस केस में सुप्रीम कोर्ट में जजो की नियुक्ति और पारदर्शी हो गई।
कोलेजियम व्यवस्था की आलोचना भी खूब हुई। इसके विषय में कहा गया-
1- यह संविधान की बेतुकी व्याख्या है। क्योंकि परामर्श का अर्थ सहमति लेना नही हो सकता। यदि यह मान लिया जाए तो कोई किसी से परामर्श ही नहीं लेगा। परन्तु धारा 132 के अंतर्गत भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान का सर्वोच्च व्याख्याकार है।इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता।
2- कोलेजियम की व्यवस्था पूरे विश्व में नही है।एपोइंटमेंट पावर हमेशा प्रशासनिक शक्ति है।जिसका प्रयोग कार्यपालिका के द्वारा होना चाहिए। ब्रिटेन और अमेरिका में भी ऐसा नहीं है।कही भी जजों की नियुक्ति जज नही करतें। ब्रिटेन में जजों की नियुक्ति एक संस्था जिसका नाम जुडिशरी एपाइंटमेंट कमीशन है कि सिफारिश पर ब्रिटेन का सम्राट करता है।इस संस्था मे 15 सदस्य होते हैं।केवल 3 सदस्य न्यायपालिका के होते हैं।
अमेरिका में राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करता है। फिर वह नाम सिनेट (राज्यसभा) में जाते हैं।सिनेट में एक नियुक्ति समिति होती है।जिसे एपोइंटमेंट कमीशन कहा जाता है।वह नामो पर विचार कर सीनेट को भेज देती है।अब सीनेट 2/3 के बहुमत से पास कर देता है।
यह भी कहा जाता है कि कोलेजियम भाई भतीजावाद तथा भ्रष्टाचार को बढ़ाव
देता है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में 52% जज आपस में रिश्तेदार है।
यह प्रक्रिया संविधान की धारा 50 के भी विरूद्ध है। जिसमें कहा गया है कि प्रशासनिक व न्याय की नियुक्ति अलग अलग होनी चाहिए।
परन्तु सन् 1998 में एक तरह से कोलोजियम व्यवस्था भारत में लागू हो गई। सन् 2014 में मोदी जी की पूर्ण बहुमत की सरकार आयी।मोदी जी की सरकार ने कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त करने के लिए 99 वे संशोधन के माध्यम से प्रयास किया ताकि जजों की नियुक्ति कार्यपालिका के माध्यम से हो सकें।
संविधान में धारा 124A,124B,124C के द्वारा NGAC आयोग नाम की एक व्यवस्था दी गई।इस व्यवस्था के अनुसार एक 6 सदस्यों की संस्था होगी। जिसमें एक अध्यक्ष तथा 5 सदस्य होंगे। अध्यक्ष भारत का मुख्य न्यायाधीश होगा।दो सदस्य सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज होंगे।एक सदस्य भारत का कानून मंत्री होगा।2 ख्याति प्राप्त सदस्य होंगे।
दो ख्याति प्राप्त सदस्यों की नियुक्ति मनोनयन के द्वारा होगी।इनकी नियुक्ति एक तीन सदस्य समिति करेगी।इस नियुक्ति समिति में एक भारत के मुख्य न्यायाधीश,एक देश के प्रधानमंत्री तथा एक विपक्ष का नेता अथवा सबसे बडे विपक्षी दल का नेता होगा। ये तीनों लोग दो ख्याति प्राप्त सदस्यों को नामित करेंगे,इन दो सदस्यों में से एक सदस्य एससी-एसटी ओबीसी महिला अथवा अल्पसंख्यक समुदाय से होगा।जब यह समिति जजों के नाम प्रस्तावित करेंगी, यदि दो या अधिक सदस्य असहमत है तो नाम प्रस्तावित नही होगा।यानि 6 में से 5 व्यक्ति सहमत होने चाहिए। प्रस्तावित नाम राष्ट्रपति जी के लिए मानने के लिए बाध्य कारी होगा।
इस क़ानून को संसद के विशेष बहुमत के साथ पास किया गया तथा आधे से अधिक राज्यों से पास करवाकर राष्ट्रपति महोदय को भेज दिया गया।
लेकिन कानून लागू होने से पूर्व ही इस कानून की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई।
इसे ही फोर्थ जजी केस कहा गया है। सुप्रीम कोर्ट आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत सरकार-2015
सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया। जिसमें तर्क दिए गए कि
1- भारत का संविधान न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। परन्तु यह कानून स्वतंत्रता को कम कर रहा है।
2- दो ख्याति प्राप्त व्यक्ति व कानून मंत्री की कोई शैक्षिक योग्यता तय नही है। फिर वो कैसे सलाह देंगे की कौन न्यायाधीश किस मैरिट का है। कौन जज बने।
इस प्रकार 99 वा संविधान संशोधन रद्द हो गया। वर्तमान समय में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में कोलेजियम व्यवस्था है।जो पांच सदस्यीय है।
हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति धारा 217 के अन्तर्गत भारत का राष्ट्रपति करेगा।
भारत का राष्ट्रपति तीन लोगों से सलाह करेगा।एक भारत का न्यायाधीश,दूसरा प्रदेश का राज्यपाल,तिसरा हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश
लेकिन सन् 1993 व 1998 से नियुक्त कोलोजियम से होने लगी है। इसलिए अब भारत का मुख्य न्यायाधीश व दो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज आपस में परामर्श कर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए नाम राष्ट्रपति जी को प्रस्तावित करेंगे। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की राय हाई कोर्ट के जज की नियुक्ति के लिए महत्वपूर्ण होगी।
संविधान की धारा 222 के अंतर्गत हाईकोर्ट के जज का स्थानांतरण भी कोलेजियम के माध्यम से होगा।चीफ जस्टिस आफ इंडिया+4 तथा दोनों हाई कोर्ट (जिस कोर्ट से जिस कोर्ट में) के चीफ जस्टिस के परामर्श से करेगा।
संदर्भ ग्रंथ-
भारतीय न्यायपालिका और कोलेजियम प्रणाली - डा मुकेश कुमार
https://youtu.be/WiyC2vyV2yo
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