रविवार, 5 जून 2022

प्रलेखन प्रमुख मेरठ प्रांत धर्म जागरण मंच (परम्परा लेखन जाट, गुर्जर, राजपूत और त्यागी)- अशोक चौधरी मेरठ।

प्रांत प्रलेखन प्रमुख धर्म जागरण मंच मेरठ प्रांत
अशोक चौधरी मेरठ।
 धर्म जागरण मंच के क्षेत्रीय प्रमुख श्री ईश्वर जी द्वारा मुझे धर्म जागरण की परियोजना समिति में प्रांत प्रलेखन प्रमुख का दायित्व प्राप्त हुआ। जनवरी सन् 2019 मे पूना में मेंने प्रांत प्रलेखन प्रमुख के दायित्व के रुप में धर्म जागरण मंच की राष्ट्रीय परियोजना बैठक में भाग लिया तथा मेरठ प्रांत की ओर से व्रत प्रस्तुत किया।
मेरठ प्रांत
जिला मेरठ, बागपत, मुज्जफर नगर,शामली, सहारनपुर, हापुड़, गाजियाबाद,गोतम बुद्ध नगर, बुलंदशहर, बिजनौर,ज्योति बा फुले नगर/अमरोहा,सम्भल, मुरादाबाद, रामपुर।
धर्म जागरण मंच की मेरठ प्रांत की प्रलेखन समिति में चार जातियों (जाट, गुर्जर, राजपूत, त्यागी/ब्राह्मण)की प्रलेखन समिति का प्रलेखन प्रमुख तुझको बनाया गया। गुर्जर जाति की प्रलेखन समिति का नाम "गुर्जर सम्राट मिहिरभोज प्रलेखन समिति) रखा गया। सम्राट मिहिरभोज की गुर्जर जाति में बहुत बडी मान्यता है। चौधरी चरण सिंह सन् 1967 में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे,तब उन्होंने एक कानून पास किया था कि किसी भी जाति के नाम पर बनी संस्था को सरकारी खजाने से राशि नही दी जाएगी।उसी समय जिन कालिजो के नाम जाति पर थे, जैसे जाट कालिज, गुर्जर कालिज, त्यागी कालिज आदि,उनके नाम बदल दिए गए थे।आज के गौतम बुद्ध नगर में स्थित दादरी कस्बे के गुर्जर कालिज का नाम बदल सम्राट मिहिरभोज गुर्जर कालिज उस समय कर दिया गया था।
जब साहब सिंह वर्मा जी दिल्ली के मुख्यमंत्री थे तब दिल्ली के निजामुद्दीन मार्ग का नाम गुर्जर सम्राट मिहिरभोज मार्ग उनके द्वारा किया गया। उसके बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा लक्सर में सम्राट मिहिरभोज की मूर्ति का अनावरण किया गया,जो स्थानीय विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन द्वारा प्रस्तावित थी। गौतमबुद्ध नगर जिले के नोएडा में बने पं दीनदयाल शोध संस्थान में सम्राट मिहिरभोज की मूर्ति का अनावरण भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने किया। दिल्ली में अक्षरधाम मंदिर में सम्राट मिहिरभोज की मूर्ति का अनावरण भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने किया। सम्राट मिहिरभोज की स्मृति में वराह जयंती पर प्रत्येक वर्ष कार्यक्रम गुर्जर समाज के कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित किए जाते हैं।
मैंने भी सम्राट मिहिरभोज पर एक लेख लिखा,जो निम्न हैं-

भारतीय संस्कृति के रक्षक गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

आज के भारत में हम भारत के नागरिक जिस आजादी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं,उसे इस रूप में प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक संघर्ष किया तथा असंख्य बलिदान दिए हैं,ऐसा ही एक संघर्ष आठवीं सदी के प्रारंभ में शुरू हुआ।

सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु(सन् 647) के बाद से सन् 1947 तक के 1300 वर्ष के कालखंड में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (सन् 730 से सन् 980) 250 वर्षों तक भारत के एक बड़े भू-भाग पर स्थापित रहा।जो भारतीयों के लिए एक प्रकाश पुंज की तरह है। गुर्जर प्रतिहार राजाओं के शासन काल में ही भारतीय सनातन संस्कृति अपने चरम पर पहुची।इसी कालखंड में आदि शंकराचार्य का उदभव हुआ।आदि शंकराचार्य ने वैष्णव,शैव और शाक्य परम्पराओं की बडी सुंदर प्रस्तुति आम जनमानस के सामने रखी। हिंदूओं के चार धामों में चार पीठ,सप्त पुरियो,12 ज्योतिर्लिंग तथा देवी के कई शक्ति पीठ इसी कालखंड में स्थापित किए गये।

इस समय सोरसेनी प्राकृत साहित्य में वृद्धि हुई।विक्रमी संवत् की उत्तरी भारत में लोकप्रियता अपने चरम पर पहुची। हिन्दू तीर्थों की पुनर्स्थापना हुई।यह हिन्दू धर्म का स्वर्ण युग भी कहा जा सकता है।
यहां हमारे लेखन का उद्देश्य इस कालखंड में हुए संघर्ष में गुर्जर प्रतिहार तथा उनके सहयोगियों के पराक्रम व बलिदान पर प्रकाश डालते हुए सम्राट मिहिर भोज के द्वारा स्थापित विशाल साम्राज्य के बारे में पाठकों को बताना है-
प्रतिहार शब्द की विवेचना के लिए देखें (परिशिष्ट नंबर-1)
 उज्जैन/कन्नोज के प्रतिहार गुर्जर प्रतिहार कहलाये। अतः देखते हैं कि उज्जैन/कन्नोज के प्रतिहार वंश को किन समकालीन ग्रंथ व अभिलेखों में गुर्जर कहा है -(देखें परिशिष्ट नंबर- 2)
सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885) की ग्वालियर प्रशस्ती में प्रतिहार वंश के राजाओं को राम जी के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया गया है।
सम्राट मिहिर भोज के दरबारी विद्वान राजशेखर जो मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्र पाल (सन् 885-910) के गुरू थे, ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी और रघुवंश तिलक कहा है।
राजशेखर ने ही महेंद्र पाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुकुट मणि कहा है।
उपरोक्त गुर्जर प्रतिहार परिचय के पश्चात् पाठकों को उस समय के घटनाक्रम को जानने के लिए जब अरब हमलावरों ने भारत पर आक्रमण प्रारंभ कर दिए थे। देखें-(परिशिष्ट नंबर-3)
रामभद्र सूर्य का उपासक था तथा गुर्जर प्रतिहार वंश का तिसरा सम्राट था। वत्सराज गुर्जर प्रतिहार वंश के पहले सम्राट थे। सम्राट रामभद्र पर पाल राजा देवपाल ने हमला कर दिया, जिसे रामभद्र ने निष्फल कर दिया।इस हमले की जानकारी बादल स्तम्भ लेख व दौलतपुर दान पत्र से मिलती है।रामभद्र कुछ विलासी प्रवृत्ति का था अतः उसके मंत्रियों ने रामभद्र को हटाकर उसके पुत्र भोज को शासक बना दिया,जिसकी माता का नाम अप्पा देवी था।यही भोज सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885)के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भोज नाम के चार शासक भारतीय इतिहास में हुए हैं, सबसे पहले सम्राट मिहिर भोज जो नो वी शताब्दी में हुए, दूसरे उज्जैन के भोज परमार जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुए,तिसरे सवाई भोज बगड़ावत जो तेरहवीं शताब्दी में हुए और भगवान् देवनारायण के पिता थे, चौथे भोजराज जो राणा सांगा के पुत्र तथा संत मीराबाई के पति थे जिनका समय 16 वी शताब्दी है। यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र नो वी शताब्दी के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज है।
सम्राट मिहिर भोज की दो उपाधियां और थी,एक आदि वराह (ग्वालियर प्रशस्ती) ,दूसरी प्रभास(दौलतपुर अभिलेख जोधपुर)।
सम्राट मिहिर भोज के द्वारा ही त्रिपक्षिय संघर्ष जो पाल, राष्ट्रकूट और प्रतिहारो के बीच चल रहा था, में अंतिम विजय प्रतिहारो की हुई तथा प्रतिहार राजा ( सन् 1036) अपने अंत तक कन्नौज पर काबिज रहे। सम्राट मिहिर भोज ने चांदी के द्रम सिक्के चलाये। ग्वालियर में चतुर्भुज भगवान का मंदिर बनवाया।मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी (900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी| अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी| अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा ले। इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी राजधानी बना सके| सम्राट मिहिरभोज ने सिंधु और मुल्तान में स्थापित हो गए अरबों को कर देने के लिए मजबूर कर दिया। अरबों से कर वसूलने की जानकारी फारसी ग्रंथ हुदूद- उल-आलम से प्राप्त होती है।
सम्राट मिहिर भोज के शासनकाल में सन् 851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं| 
सुलेमान तत्तकालीन समय के पाल राजा देवपाल तथा राष्ट्रकूट राजा शर्व अमोघ वर्ष तथा प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज के राज्य में रहा, उसने लिखा कि भारत में सबसे बडी अश्वसेना सम्राट मिहिर भोज के पास है, हाथियों की सेना राजा देवपाल के पास है तथा पैदल सेना शर्व अमोघ वर्ष के पास है।वह लिखता है कि पाल राजा देवपाल भारत का सबसे शक्तिशाली राजा है, राष्ट्रकूट राजा शर्व अमोघ वर्ष संसार के चार महान राजाओं में से एक है।
लेकिन सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह सम्राट मिहिर भोज के विषय में लिखता है कि मिहिरभोज अरबों का सबसे बड़ा शत्रु है। सम्राट मिहिर भोज का राज्य चोर और डाकुओं से सुरक्षित है। अरब हमलावरों से उस समय पूरा विश्व त्राहि-त्राहि कर रहा था,उनका सबसे बड़ा शत्रु सम्राट मिहिर भोज है। मिस्र के प्रधानमंत्री मलहबी ने भूगोल की एक पुस्तक लिखी,जिसका नाम"अजोजो" है, उसमें वह लिखता है कि कन्नौज भारत का सबसे बड़ा नगर है जिसमें जौहरियों की तीन सौ दुकाने है।
सम्राट मिहिर भोज के द्वारा लिखाई गई ग्वालियर प्रशस्ती में गुर्जर प्रतिहारो को भगवान् राम के भाई लक्ष्मण से जोडा गया है। भारत में श्री राम और श्री कृष्ण सबसे प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त देवता हैं,जब भी किसी व्यक्ति ने बडा कार्य किया है, उसने अपने आप को इन दोनों देवताओं से जरूर जोडा है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जब अपना राज्याभिषेक किया तो उन्होंने भी अपने आप को भगवान् राम से जोडा।यहा पर भी सम्राट मिहिरभोज ने अपने वंश के साथ जुड़े प्रतिहार शब्द को दिव्यता प्रदान करते हुए भगवान् राम के भाई लक्ष्मण के साथ जोड़ा तथा एक तरह से अपने को भारत भूमि और भारतीय संस्कृति का प्रतिहार (प्रहरी)कहा है।इस ग्वालियर प्रशस्ती में ही नागभट प्रथम को लिखा है कि वो नारायण की तरह प्रकट हुए और म्लेच्छो को भारत भूमि से बाहर फैंक दिया।यहा म्लेच्छ का मतलब अरब हमलावरों से है, इस प्रशस्ती में ही प्रतिहारो को आदि वराह कहा है,कि भगवान वराह ने अपनी चार भुजाओं से जिस प्रकार पृथ्वी को बचाया था उसी प्रकार वराह भगवान् की चार भुजाओं (नागभट प्रथम,बप्पा रावल, देवराज भाटी तथा अजयपाल चौहान) ने मलेच्छो को भारत भूमि से बाहर कर दिया। प्रतिहार राजाओं के इस महान कार्य में जो उनके सहयोगी सामंत रहे उनका नाम उजागर करना भी यहा आवश्यक है,जो निम्न हैं-
1- मंडोर (वर्तमान में जोधपुर)के बाऊक प्रतिहार
2- दिल्ली के तंवर
3- शेरगढ़ (राजस्थान में)के नागवंश (नागड़ी/नागर) के देवदत्त।
4-मतस्य(अलवर व आभानेरी/ दौसा) के निकुंभ।
5- महोबा के ननुक चंदेल।
6- चित्तौड़ के गुहिल/गहलोत।
7- सांभर के गुविक द्वितीय चौहान।
8- मांड (जैसलमेर) के भाटी।
9- राजौर गढ (अलवर)के बड़गुर्जर।
10- विजय गढ (बयाना)व तिमन गढ (करौली)के यादव।
11- मोरय।
12- योद्धेय।
13- खालोली,धनोट और हस्तकुंडी (राजस्थान)के राठौड़ (राठी)।
14- ग्वालियर के कच्छपघट (कछवाहे)।
15- आमेर,खोह (जयपुर) और मांच (जमुवा रामगढ़) के मीणा।
16-गोरखपुर(उत्तर प्रदेश) के सोढ देव प्रतिहार (काहता दान पत्र में उल्लेख)
सम्राट मिहिर भोज के समय सांभर के चौहान सबसे शक्तिशाली और विश्वसनीय सामंत थे, चौहान गुवक द्वितीय की बहन कलावती सम्राट मिहिर भोज की रानी थी, पेहवा (हरियाणा) घोड़ों के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था।
मिहिर भोज और उसके वंश की सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता उस अरब साम्राज्यवाद से भारत की रक्षा करना था, जिसने अल्पकाल में ही लगभग एक तिहाई पुरानी दुनिया को निगल, आठवी शताब्दी के आरम्भ में भारत की सीमा पर दस्तक दे दी थी| तीन शताब्दियों तक गुर्जर प्रतिहारो ने अरबो को भारत की सीमा पर रोक कर रखा| दक्कन के राष्ट्रकूट अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए जहाँ अरबो के साथ मिल गए, वही मिहिर भोज ने काबुल-पेशावर के हिन्दू शासक लल्लिया शाही और पंजाब के अलखान गुर्जर के साथ परिसंघ बनाकर अरबो का डट कर मुकाबला किया| आर. सी. मजुमदार के अनुसार मिहिर भोज “मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति था| अपना यह गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”।
 सम्राट मिहिर भोज ने अपने पुत्र महेन्द्र पाल(सन् 914-943) की शिक्षा हेतु अपने समय के विद्वान राजशेखर को शिक्षक नियुक्त किया।इन्ही राजशेखर ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी व रघुवंश तिलक कह कर सीधे भगवान् राम के वंश से जोडा। महेंद्र पाल के पुत्र महिपाल के अंतिम दिनों में चंदेल, चौहान, गहलोत, कच्छपघट तथा बड़गुर्जर( राजौर गढ,मोचडी और राजगढ़) प्रसिद्ध सामंत थे। इस समय गुर्जर प्रतिहार सत्ता कमजोर होने लगी थी,महोबा के चंदेल,सांभर के चौहान, चित्तौड़ के गुहिल तथा ग्वालियर के कच्छपघट एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गए थे। राजौर गढ के राजा मथनदेव बड़गुर्जर का सन् 960 का राजौर गढ में शिलालेख मिला है, राजौर गढ की स्थापना राज देव बड़गुर्जर ने की थी।राज गढ़ के बाघ सिंह बड़गुर्जर "भोमिया" देवता के रूप में राजस्थान में पूजे जाते हैं।
सन् 1018 में जब कन्नौज का राजा राजपाल था तब मोहम्मद गजनवी ने हमला किया। राजपाल गजनवी का सामना नही कर सका तथा कन्नौज से पलायन कर गया,गजनवी ने कन्नौज को लूट लिया।गजनवी के इस हमले का जिक्र गजनवी के दरबारी उत्बी द्वारा लिखित"तारीख-ए-यामिनी"में मिलता है।गजनवी के साथ अलबरूनी नाम का विद्वान भी आया था, जिसने"तहकीक-ए-हिन्द" नाम की एक किताब लिखी।यह किताब ग्यारहवीं सदी का भारत का दर्पण कही जाती है। 
लेकिन इस समय नागभट प्रथम और बप्पा रावल जैसे सुलझे हुए व्यक्ति नही थे, चंदेल राजा विद्याधर और अर्जुन कछवाहे ने महमूद गजनवी के विरूद्ध कोई मोर्चा बनाने के स्थान पर अपने ही राजा राजपाल पर हमला कर उसकी हत्या कर दी।दुबकुंड अभिलेख से राजा राजपाल की अर्जुन कछवाहे के तीर से मृत्यु हो जाने की जानकारी प्राप्त होती है।
इस प्रकार भारत की सुरक्षा का जो द्वार सन् 730 में नागभट प्रथम ने बनाया था वह सन् 1018 में टूट गया।
गुर्जर प्रतिहार राजाओं के शासनकाल में अनेक स्थापत्य कला के कार्य हुए।अनेक मंदिर निर्माण किये गये। भारत में हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत तक मंदिर नागर शैली में बने हैं, शिखर पर खड़ी रेखाएं होने के कारण इस शैली को आर्य रेखिय शिखर शैली भी कहते हैं। दक्षिण भारत में कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली में मंदिर बने हैं,इस शैली की एक विशेषता यह है कि, मंदिर का तोरणद्वार जिसे गोपुरम कहा जाता है,भव्य बनाया जाता है।कृष्णा नदी से लेकर विंध्याचल पर्वत तक बेसर शैली,जो नागर+द्रविड़/चालुक्य होयसल शैली में मंदिर बने हैं। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने अपनी अलग शैली बनाई, जिसे महामारू शैली कहा गया,इस शैली को नागर शैली का विकसित रुप कहा गया।यह नागर शैली ही मानी गई। प्रतिहार राजाओं ने निम्न मंदिर बनवाए-
1- नीलकंठ मंदिर राजौर गढ (अलवर)
2- हर्षद माता मंदिर आभानेर (दौसा)
3- विष्णु मंदिर मंडोर (जोधपुर)
4-वराह मंदिर आहड़ (गुर्जर प्रतिहार राजाओं के कुल देवता)
5- नारायणी माता मंदिर राजगढ़
6-हरिहर मंदिर व महावीर मंदिर ओसियां
7-कामेश्वर महादेव मंदिर,सुमाली माता मंदिर आउवा
8- सिद्धेश्वर महादेव मंदिर जोधपुर
9- आशावरी माता मंदिर राजौर गढ।
गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने जहां तीन सो वर्षों तक भारत की अरबी हमलावरों से रक्षा की,वही दूसरी ओर एक उल्लेखनीय कार्य शानदार जल प्रबंधन और सिंचाई प्रणाली के रूप में किया। उन्होंने पश्चिमी और उत्तरी पश्चिमी उपमहाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में भी एक समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।
गुर्जर प्रतिहार राजाओं के पतन के बाद से भारत की आज़ादी सन् 1947 तक एक समीक्षा देखें (परिशिष्ट नंबर-4)

 समाप्त

परिशिष्ट नंबर-1

आइए सबसे पहले हम प्रतिहार शब्द की विवेचना करते हैं।बंधुओ प्रतिहार शब्द का अर्थ प्रहरी से जुडा हुआ है। भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण जब वनवास में राम जी के साथ गये,तब अपने भाई राम व माता सीता की सुरक्षा हेतु एक प्रहरी के रूप में जो सेवा लक्ष्मण जी ने प्रदान की,उस कारण लक्ष्मण जी को राम जी का प्रतिहार कहा गया। परंतु जिस कालखंड की घटना के बारे में हम लिख रहे हैं उस समय मांडखेत (वर्तमान महाराष्ट्र)के राष्ट्रकूट राजा अपने देश की रक्षा हेतु जो सामंत नियुक्त करते थे ,वो उनको प्रतिहार नामक पद से सुशोभित करते थे, अतः आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में महाराष्ट्र से उज्जैन और वर्तमान राजस्थान के क्षेत्र में जो राष्ट्रकूट राजाओं के सामंत दुर्गों में विराजमान थे वो प्रतिहार कहलाते थे। आठवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट शासक दन्ती दुर्ग ने उज्जैन में पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया था,इस समय नागभट प्रथम उज्जैन के प्रतिहार थे।इस तरह तत्तकालीन समय में 6 जगह के प्रतिहार प्रसिद्ध हुए हैं,1- मंडोर (वर्तमान राजस्थान में जोधपुर),2-मेडता,3-राजौर गढ़/राजगढ़ (अलवर),4-जालौर,5-उज्जैन,6-कन्नौज। इनमें उज्जैन और कन्नौज के प्रतिहार एक ही है।सत्रहवी सदी के लेखक मुहणोत नेन्सी ने प्रतिहारो की 26 शाखाओं का उल्लेख किया।जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि प्रतिहार एक पद का नाम है और भारतीय समाज में उस समय भी जातियां विद्यमान थी, अतः ये सभी प्रतिहार भी किसी ना किसी जाति के अवश्य होगे।
सातवीं शताब्दी में मांडव्यपुर (मंडोर) के प्रतिहार हरिश्चंद्र ने अपना पहला प्रतिहार राज्य स्थापित किया,जो वर्तमान राजस्थान में था।राजा हरिश्चंद्र की दो उपाधियां थी एक रोहिल्लादि तथा दूसरी विप्र राजन्य। यहां विप्र का अर्थ विद्वान से है, परन्तु आधुनिक ब्राह्मण जाति के इतिहासकारों ने अपने जातिय प्रेम के कारण राजा हरिश्चंद्र को ब्राह्मण जाति का बताने का प्रयास किया। परन्तु राजा हरिश्चंद्र ने अपने आपको क्षत्रिय कहा है।यदि वो ब्राह्मण जाति से होते तो अपने आप को भगवान् परशुराम जी से जोडते।
परिशिष्ट नंबर-2
सज्जन ताम्र पत्र, बड़ौदा ताम्र पत्र,माने ताम्र पत्र में प्रतिहार वंश को गुर्जर कहा गया है।
1-नीलकुण्ड,2-राधनपुर,3-देवली,4-करहड के राष्ट्रकूट अभिलेखों में गुर्जर कहा है।
राजौर के अभिलेखों में उज्जैन/कन्नौज के प्रतिहार वंश को गुर्जर कहा है।
ऐहोल व नवसारी के शिलालेखो में इन्है गुर्जरेश्वर कहा है।
चंदेल शिलालेखो में गुर्जर प्रतिहार कहा है।
अरब यात्रियों ने इनको जुर्ज कहा है।
जिनसेन सूरि का हरिवंश पुराण, उद्योतन सूरि(सन् 778) का कुवलय माला तथा कल्हण की राजतरंगिणी(बारहवीं शताब्दी) तथा जयानक की पृथ्वीराज विजय(बारहवीं शताब्दी) में गुर्जर राज और मरू गुर्जर कहा है।
पम्पा द्वारा लिखित विक्रमार्जुन विजय में तत्तकालीन गुर्जर प्रतिहार सम्राट महिपाल (सन् 912-944) को गुर्जर राजा कहा है।
अरब यात्री अलमसूदी अपनी भारत यात्रा के दौरान सम्राट महिपाल के दरबार में रहा, उसने एक ग्रंथ जिसका नाम मजरुल- जुहाब / अंग्रेजी नाम मिडोज आफ गोल्ड है,को लिखा है। जिसमें महिपाल को वोरा और इस वंश को अल गुर्जर कहा है।
परिशिष्ट नंबर-3
जब इस्लाम का झंडा लेकर अरब के खलीफा के आदेशानुसार इस्लामी सेना दुनिया को दारुल हरब से दारुल इस्लाम में बदलने के लिए निकल पड़ी तथा सन् 637 से 647 ईसवी के बीच हुए सैन्य अभियानों में सीरिया, ईरान, ईराक और मिश्र पर मदीना का नियंत्रण स्थापित हो गया। कुछ ही दशकों में अरबी साम्राज्य मिश्र स्थित नील नदी से लेकर भारत की सीमा तक फेल गया।
दूसरी तरफ अरबों द्वारा सन् 666 ईसवी में पश्चिमोत्तर भारत विजय अभियान को काबुल शाही द्वारा प्रतिरोध कर अरबों के काबुल जितने के प्रयास को असफल कर दिया।
इधर मुल्तान के दक्षिण में स्थित निचला सिंधु घाटी क्षेत्र जो सिंध कहलाता हैं, चचनामा के अनुसार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस स्थान पर राजा दाहिर अपनी राजधानी ब्रहमना बाद से सिंध पर शासन करता था। देबल सिंधु उसका मुख्य शहर था। सीलोन (श्री लंका) के राजा ने कुछ कीमती उपहार समुद्र के रास्ते एक जहाज से ईरान के अरबी गवर्नर हज्जाज के लिए भिजवाए थे। जिन्हें रास्ते में देबल में लूट लिया गया, अरब के खलीफा ने इसके लिए राजा दाहिर को जिम्मेदार ठहराया। इस घटना का बहाना लेकर ईरान के गवर्नर हज्जाज के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सन् 712 में सिंध स्थित देबल बंदरगाह पर हमला कर दिया तथा राजा दाहिर को हराकर उसका क्षेत्र अपने कब्जे में ले लिया। सन् 723 में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर इस्लामी सेना ने अपनी सिंधु विजय पूर्ण कर ली।
मुहम्मद बिन कासिम ने ही जोगरफिकल व कल्चरल रूप से सिंध नदी के दूसरी ओर के भूभाग को हिंदुस्तान व यहां रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा।
सिंध विजय के बाद अरबों ने उत्तर भारत की विजय के लिए अभियान आरंभ कर दिए। अरब खलीफा हिशाम (सन् 724 से 743 ईसवी) ने जुनैद को सिंध का गवर्नर नियुक्त किया।
जुनैद के सेनापति मातीन ने सिंध को पार कर तत्तकालीन समय के गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल (जालौर) के चावड़ा शासक मामा चौहान तथा चित्तौड़ के शासक मान मोरय व मांड (वर्तमान जैसलमेर)के देवराज भाटी, सांभर के अजयपाल चौहान पर अति तीव्र हमले किए।इस हमले में भीनमाल (जालौर)के मामा चौहान वीर गति को प्राप्त हो गये,मामा चौहान आज भी वर्तमान राजस्थान में लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। चित्तौड़ के मान मोरय दुर्ग तो बचा ले गये परंतु अत्याधिक कमजोर हो गए।अरब हमलावार जुनैद ने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को भी तोड दिया। स्थति को भांप कर नागदा (वर्तमान उदयपुर में) के शासक कालभोज/ बप्पा रावल ने आगे बढ़ कर चित्तौड़ दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया।अरब हमले की गम्भीरता को देखते हुए उज्जैन के प्रतिहार नागभट प्रथम ने आगे बढ़कर भीनमाल (जालौर) और भड़ौच पर अधिकार कर भीनमाल (जालौर) के दुर्ग को निर्मित कर शक्तिशाली बना लिया।बप्पा रावल और नागभट प्रथम ने संयुक्त रूप से एक गठबंधन बनाया तथा अपने साथ मांड (वर्तमान जैसलमेर) के देवराज भाटी तथा सांभर के अजयपाल चौहान को मिला लिया तथा इस संयुक्त सेना ने जुनैद की सेना को मारवाड़ के क्षेत्र में हुए युद्ध मे हरा दिया तथा अपने क्षेत्र से मारकर सिंधु नदी के पार भगा दिया।अरब हमलावरों की इस हार की जानकारी हमें तत्तकालीन समय के मुसलमानों के फारसी ग्रंथ फुतुहलबदाना से प्राप्त होती है।मेवाडी ग्रंथों में भी हमें इस युद्ध के विषय में जानकारी प्राप्त होती है,मेवाडी ग्रंथ के अनुसार बप्पा रावल ने ईरान खुरासान को विजित कर लिया तथा वहां की राजकुमारी से विवाह किया तथा वर्तमान पाकिस्तान में स्थित रावलपिंडी नगर को बसाया।यहा जब हम ईरान का जिक्र देखते हैं तो हमारा ध्यान वर्तमान समय के ईरान पर जाता है। परंतु सही जानकारी के लिए हमें तत्तकालीन समय के ईरान के क्षेत्र को देखना होगा। ईरान के शासक डेरियस प्रथम जिसे भारतीय दारा कहते थे, के समय आज का पंजाब ईरान के अधिकार में था तथा पंजाब ईरान का 20 वां प्रांत था। अतः बप्पा रावल ने आज का पंजाब, जो तत्तकालीन समय में ईरान के क्षेत्र के रुप में प्रचलित था, तक अपना सैन्य अभियान किया,इसी क्षेत्र के राजा की राजकुमारी से विवाह किया तथा रावलपिंडी नगर बसाया।
भारतीयों का अरब हमलावरों के विरूद्ध गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम,बप्पा रावल, देवराज भाटी, अजयपाल चौहान के इस सैन्य अभियान की तुलना यूरोप(फ्रांस) के सेनापति चार्ल्स सेसेवियर के यूरोप और ईसाई धर्म को अरब हमलावरों से बचाने के लिए किए गए सैन्य अभियान से की गई है। जिस तरह चार्ल्स सेसेवियर ने अरब हमलावरों से यूरोप में ईसाई धर्म को सुरक्षित किया ,उसी प्रकार गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम ने गठबंधन बनाकर भारत की सनातन संस्कृति को अरब के मुस्लिम हमलावरो से बचा लिया। नागभट प्रथम के इस महान कार्य में उनके सबसे बडे सहयोगी बप्पा रावल थे,यह भारत का सोभाग्य ही था कि उस समय नागभट प्रथम और बप्पा रावल जैसे दूरदर्शी और बहादुर व्यक्ति मौजूद थे, जिन्होंने अपने क्षेत्र की सभी भारतीय शक्तियों को एकत्रित कर अरब हमलावरों को भारत में घुसने से रोक दिया। यहां हम थोडा सा बप्पा रावल के विषय में अपने पाठकों को जानकारी देना चाहेंगे-
बप्पा रावल के पूर्वज गुहिल ने सन् 566 में गुहिल वंश की स्थापना की जिनके सहयोगी आगे चलकर गहलौत तथा और आगे चलकर सिसोदिया कहलाये।गुहिल को वर्तमान राजस्थान के भील अपना शासक मानते थे,वो भीलो में ही रहते थे, अतः सामान्य तौर पर देखा जाए तो वह भील समाज के राजा थे,राजा गुहिल की आंठवी पीढी में नागादित्य नामक एक शासक हुए,बप्पा रावल इन्ही नागादित्य के पुत्र थे।नागादित्य के समय में भील समुदाय में आपस में किसी विषय को लेकर संघर्ष हो गया,इस संघर्ष में नागादित्य की मृत्यु हो गई। अतः गहलोत अर्थात राजा गुहिल के समर्थक और विरोधी दो फाड़ हो गये।बप्पा रावल ने बडे होकर गहलोत राज्य की स्थापना की।बप्पा रावल भगवान् एकलिंग (शिव शंकर) के भक्त थे।बप्पा रावल ने वर्तमान उदयपुर के पास भगवान् एकलिंग का भव्य मंदिर बनवाया,बप्पा रावल भगवान् एकलिंग को ही अपने राज्य का स्वामी मानते थे तथा खुद को उनका दीवान कहते थे।बप्पा रावल ने जो अपनी मुद्रा सोने के सिक्के के रुप में चलाई,उस पर शिव लिंग,गाय और सूर्य तथा एक नतमस्तक आदमी का चित्र है,वह नतमस्तक आदमी बप्पा रावल का प्रतिक है,वो गौ भक्त थे। बचपन में अपने शिक्षाकाल में अपने श्रृषि के आश्रम में वह आश्रम की गाय भी चराते थे।बप्पा रावल ने सन् 753 में संन्यास ले लिया तथा अपने पुत्र खुम्माण प्रथम को शासन की बागडोर सोप कर , उसे देश हित के संघर्ष के लिए नागभट प्रथम के साथ कर दिया। नागभट प्रथम ने मेड़ता (वर्तमान जोधपुर)को अपनी राजधानी बनाया। नागभट प्रथम की एक उपाधि नाहड़ तथा दूसरी नागावलोक थी। नागभट प्रथम ने ही प्रतिहार साम्राज्य की नींव रखी। नागभट प्रथम (सन् 730-756) के बाद उनका भतीजा कुकुस्थ शासक बना तथा कुकुस्थ के बाद कुकुस्थ का छोटा भाई देवराज शासक बना। इन दोनों शासकों की कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही। देवराज के बाद देवराज का पुत्र वत्सराज (सन् 783-816)शासक बना। वत्सराज के समय में ही कन्नौज को लेकर गुर्जर प्रतिहार,पाल और राष्ट्रकूट में तिकोना संघर्ष प्रारंभ हुआ। कन्नौज जिसका एक नाम कान्यकुब्ज तथा दूसरा नाम महोदया नगर भी है,इस संघर्ष के कारण ही कन्नौज को सम्राटों की रण भूमि भी कहा जाता है।वत्स राज की एक उपाधि एकलिंग क्षत्रिय पुंगल थी जिसका अर्थ है क्षत्रिय राजाओं में श्रेष्ठ। दूसरी उपाधि अवंति राज थी।वत्स राज को अपने समय में चार मोर्चों पर लडना पड़ा।पाल, राष्ट्रकूट और अरब हमलावरों से तथा चौथा जो किसी भी शासक को लडना पडता है, अपने आंतरिक विरोधियों से।
वत्स राज गुर्जर प्रतिहार राजाओं में पहले सम्राट थे।वत्सराज के बाद नागभट द्वितीय (सन् 816-833) शासक बने। नागभट द्वितीय ने अपने शासन काल में कई महत्वपूर्ण सफलताएं अर्जित की। नागभट द्वितीय ने चित्तौड़ के गहलोत व सौराष्ट्र के बाहकधवल के सहयोग से उणियारा (वर्तमान में टांक राजस्थान में)नामक स्थान पर पाल शासक धर्मपाल को पराजित कर दिया तथा सांभर के चौहान राजा गुवक प्रथम की सहायता से मत्स्य देश (वर्तमान अलवर राजस्थान में) के निकुंभ राजा को भी पराजित कर दिया। नागभट द्वितीय ने प्रसन्न होकर चौहान राजा गुवक प्रथम को "वीर" की उपाधि से विभूषित किया। राजा हर्षवर्धन के बाद नागभट द्वितीय को एक शक्तिशाली सम्राट माना जाता है, जिसके राज्य की सीमा हिमालय से लेकर नर्मदा नदी के तट तक थी। नागभट द्वितीय की एक उपाधि नागावलोक तथा दूसरी उपाधि"परमेश्वर परमभट्टारक महाराजाधिराज"थी।नागभट द्वितीय भगवती के उपासक थे, उन्होंने जुनैद के द्वारा तोड़ दिए गए सोमनाथ के मंदिर का विस्तृत निर्माण कर भव्यता प्रदान की।नागभट द्वितीय ने अपने बेटे रामभद्र को शासन सौंपकर हरिद्वार में हर की पैड़ी पर जलसमाधि ले ली।
परिशिष्ट नंबर- 4
गुर्जर प्रतिहारो के पतन के बाद चौहान राजाओं ने भारत की रक्षा का भार संभाला तथा अजमेर को राजधानी बनाकर गजनवी के हमलों को विफल कर दिया। चौहानों के शासक पृथ्वीराज चौहान जिन्हें भारत का अन्तिम हिन्दू सम्राट भी कहा जाता है। चित्तौड़ के गहलोत और दिल्ली के तंवर जिनके सामंत थे, ने सन् 1192 तक भारत की रक्षा की। इन्हीं पृथ्वीराज चौहान के दरबारी जयानक ने पृथ्वीराज विजय में पृथ्वीराज चौहान को गुर्जर राज और मरू गुर्जर लिखा है। सन् 1192 में दिल्ली पर मोहम्मद गोरी का अधिकार हो गया। 
सन् 1200 तक गुर्जर प्रतिहार वंश के पराक्रम की छांव में संघर्ष हुआ, परन्तु पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद दिल्ली में सल्तनत काल प्रारंभ हो गया और जो गुर्जर नाम का छत्र एक तरह से समाप्त हो गया। सन् 1300 तक भारतीय रजवाड़े अपने नये शत्रुओं का सामना करते रहें। परन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने इन भारतीय रजवाड़ों पर घातक हमले किए। उसमें सब कुछ बिखर कर रह गया। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में इन भारतीय रजवाड़ों के राजाओं को मुस्लिम शासकों द्वारा राजपूत नाम से पुकारा। मेवाड़ के सिसोदिया इनके नेता थे।राणा कुम्भा ने कुछ सफलताएं अर्जित की तथा चित्तौड़ में विजय स्तम्भ बनवाया। सन् 1300 से सन् 1562 यानि अकबर के समय तक इन भारतीय राजाओं से किसी भी मुस्लिम शासक ने सम्बन्ध नही बनाया,इनको अपने शासन की केबिनेट में स्थान नही दिया। अकबर एक पहला शासक था जिसने भारतीय खासतौर पर हिंदूओं को शासन में भागेदारी दी। अकबर के साथ संधि में राजपूत राजा दो हिस्सों में बट गये,एक वो राजा थे जिन्होंने अकबर से वैवाहिक संधि नही की, मेवाड़ के सिसोदिया, बूंदी के चौहान और बड गूजर इनमें प्रमुख थे। दूसरे वो राजा थे जिन्होंने अकबर से मनसबदारी प्राप्त करने के लिए वैवाहिक संधि कर ली।इन दूसरे दर्जे के राजाओं के नेता आमेर के कछवाहे तथा जोधपुर के राठौड़ थे।इन दोनों ने भारतीय जनता तथा भारत के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को सर्वाधिक कष्ट पहुचाये।ये अकबर के फरजंद (पुत्र) बने,ये मिर्जा बने अर्थात भाई। इन्होने ही छत्रपति शिवाजी महाराज को मुगलो के दरबार तक पहुचाया।
मुगलों के समर्थक इन राजाओं ने ही जो वर्षों तक मेवाड़ के सामंत रहें थे, ने राणा प्रताप का साथ ना देकर मुगलों का साथ दिया।एक समय ऐसा भी आया कि जब मेवाड़ के महाराणा प्रताप और जोधपुर के राव चंद्र सेन राठौड़ तो अरावली के जंगलों में भटक रहे थे, बाकि सभी रजवाड़ों के राजा अकबर के साथ संधि कर अपने महलों में आनंद ले रहे थे। 
मेवाड़ के साथ मुगलों की सन्धि सन् 1615 में हुई। मेवाड़ के साथ संधि होते ही मुगल शासकों ने भारतीयों को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया।क्योकि अब कोई रोकने वाला भारत में नहीं था। परंतु सन् 1636 में ही आगरा के आसपास भारत के गेर राजपूत किसानों ने जाटों के नेतृत्व में संघर्ष प्रारंभ कर दिया।
दूसरी ओर दक्षिण में छत्रपति शिवाजी ने मुगलों के विरोध में मोर्चा खोल दिया।
मुगलों के विरूद्ध यह संघर्ष गोकुला जाट, राजाराम जाट व राजा सूरजमल के बलिदान दिसम्बर सन् 1763 तथा उसके पश्चात् राजा जवाहर सिंह की मृत्यु सन् 1768 तथा भरतपुर राज्य के राजा नवल सिंह (1771-76ई’) के समय मुगल साम्राज्य और भरतपुर राज्य के बीच 15 सितम्बर 1773 को हुए दनकौर युद्ध में भरतपुर राजा नवल सिंह के अलीगढ़ (कोल) प्रांत के सूबेदार चंद्र सिंह गुर्जर के दनकौर युद्ध में हुए बलिदान तक चला। गुर्जर प्रतिहार राजाओं की तरह ही जाटों ने 137 वर्षों तक संघर्ष करके मुगलो की राजधानी दिल्ली,आगरा और फतेहपुर सीकरी में से आगरा और फतेहपुर सीकरी को मुगलों से छीन लिया। विदेशी मुगल सत्ता को लाल किले के अंदर तक सिमित कर दिया। दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को स्थापित कर दिया। मराठा पेशवा के समय मुगल बादशाह नाम मात्र के ही शासक थे।
इसके बाद अंग्रेज आ गये, सन् 1857 की प्रसिद्ध क्रांति हुई, लाखों भारतीयों ने बलिदान दिये। 
इस क्रांति में नाना साहब पेशवा,मेरठ के कोतवाल धन सिंह, चौधरी शाहमल सिंह,राव कदम सिंह, ठाकुर नरपत सिंह,रानी लक्ष्मीबाई,बाबू कुंवर सिंह आदि हजारों लाखों लोग शहीद हो गए। सन् 1857 के बाद भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकलकर रानी विक्टोरिया के हाथ में आ गया।अब आंदलनों के माध्यम से भारत की आज़ादी का संघर्ष प्रारंभ हो गया। स्वामी दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी,संघ के संस्थापक डा हेडगेवार तथा डा अम्बेडकर, सुभाषचन्द्र बोस तथा किसान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विजय सिंह पथिक एवं सरदार पटेल जैसे विचार शील व्यक्तियों के संघर्ष के कारण सन् 1947 में देश आजाद हुआ।
ऐसा विद्वानों का मत है कि इस्लाम और ईसाई शासक जहां 25 वर्ष तक रहै, वहां इनके अलावा कोई दूसरा नहीं बचा। यह हमारे पूर्वजों का पराक्रम और बलिदान ही था जो सैकड़ों वर्षों तक इन दोनो की तलवार के नीचे से भारतीय संस्कृति सकुशल बच गई।
सन् 730 के समय के मीणा, भील तथा जाट, गुर्जर , राजपूत और मराठा जातियों में गोत्र के रूप में राठोड़, चौहान,तोमर,बड़गुर्जर जैसे तमाम समूह पहले की तरह ही सत्ता और सम्पत्ति पर सन् 1947 में आजादी के समय भी काबिज थे।जाट, गुर्जर और राजपूत जातियों में से कुछ समूह मुस्लिम बन गए थे।
26 जनवरी सन् 1950 को भारत का संविधान बना।भील और मीणा जाति जो सत्ता से बाहर हो गई थी को अनुसूचित जनजाति के रूप मेें आरक्षण देकर सत्ता में भागीदारी दी गई। आजाद भारत के प्रत्येक नागरिक को एक वोट,एक वैल्यू,एक नागरिक के रूप में समान अधिकार दे दिए गए। भारत पुनः एकरूप हुआ।

संदर्भ ग्रंथ

1- मनोज सिंह (यू ट्यूब)- राजस्थान गुर्जर प्रतिहार राजवंश पार्ट 1, 2
https://youtu.be/k2xzChbGlrM
https://youtu.be/RhrPVNf9YR0
2- रमन भारद्वाज (यू ट्यूब)- मेवाड़ रियासत-1।
https://youtu.be/fODUh0JFKX4
3- डां सुशील भाटी- श्रीमद् आदिवराह मिहिरभोज की राजनैतिक एवं सैन्य उपलब्धियां।

में सन् 1983 से स्वयं सेवक रहा हूं।मुझे प्रारम्भ से ही महापुरुषों की जीवनी लिखना,उनके बलिदान दिवस व जन्म दिवस पर होने वाले कार्यक्रमों में सहभागी होना और स्वयं कार्यक्रम करने की बडी लगन रही है।मेरे इस कार्य को और सुंदर रूप से प्रकट करने की विधा में वृद्धि तब हुई जब मेरा सम्पर्क आरएसएस के एक अति आदरणीय प्रचारक श्री कृपा शंकर जी से हुआ। सन् 1998 और सन् 2002 के समय में श्री कृपा शंकर जी मेरठ में स्थित विश्व संवाद केन्द्र में थे।वही से समाचार पत्रों में तत्कालीन विषयो पर सम्पादकीय पृष्ठ के लिए पत्र लिखना मेनै प्रारम्भ किया।मेरठ के दैनिक जागरण व अमर उजाला समाचार पत्र में मेरे द्वारा लिखित करीब 64 पत्र छपे। 
सन्  1997 की बात है कि मेरे (अशोक चौधरी) निवास 108 /1 नेहरू नगर गढ रोड मेरठ के पास एक सामाजिक कार्यकर्ता जिनका नाम राजबल सिंह था और वह गढ़ रोड पर स्थित लोदी पुर छबका गांव जो अब हापुड़ जिले में है, के मूल निवासी थे, रहते थे। वो मेरे पास आये, उनके साथ जिला पंचायत मेरठ में कार्यरत कर्मचारी जयकुमार सिंह भी थे। उन्होंने एक कार्यक्रम की सूचना मुझे दी और कहा कि देहात मोर्चा नामक संगठन के बैनर तले मेरठ के आईएमए हाँल में 10 मई को एक कार्यक्रम मेरठ से क्रांति का प्रारंभ करने वाले शहीद धनसिंह कोतवाल की स्मृति में हो रहा है, आप आए। में कार्यक्रम में पहुंचा, उस कार्यक्रम में मेरठ कालेज के इतिहास के एक प्रवक्ता आए हुए थे।लेकिन प्रवक्ता जी ने अपना भाषण गांधी जी पर दिया। शायद धन सिंह कोतवाल पर उनका अध्ययन नहीं था।
मैं वापस आकर अपने दैनिक कार्यों मे लग गया। कुछ दिन पश्चात् मेरठ आर्य समाज सूरज कुंड से एक पत्रक जो हर वर्ष निकलता था, आर्य समाज के मंत्री डाँ आर पी सिंह चौधरी फूलबाग निवासी ने मुझे दिया। पत्रक में "10 मई -धन सिंह कोतवाल बलिदान दिवस" छपा था। मैंने चौधरी साहब से लिखे हेडिंग का आधार पूछा। उन्होंने कहा कि यह तो पहले से ही छपता आ रहा है। इससे ज्यादा मुझे मालूम नहीं है।
एक सामाजिक कार्यकर्ता रमेश चंद्र नागर जो मेरी गली में ही रहते थे, मेरे अच्छे मित्र थे। उनके पास उनकी बहन के बेटे डॉ सुशील भाटी जो इतिहास के छात्र थे मुझे मिले। मेने धन सिंह कोतवाल जी के बारे में उनसे चर्चा की। तब उन्होंने बताया की मेरठ गजेटियर में सब घटना लिखी है। भाटी जी ने मेरठ विश्वविद्यालय से गजट की फोटो स्टेट कापी लाकर मुझे दे दी, जिसमें 10 मई 1857 की घटना का उल्लेख तथा धन सिंह कोतवाल का नाम था।
अब मेरे मन में इस विस्मृत शहीद के लिए कुछ प्रचार प्रसार करने की इच्छा जगी। मेरठ के पास गगोल तीर्थ नाम का स्थान है, वहां पर गगोल के रहने वाले एक सेवानिवृत्त इंजीनियर सतपाल सिंह "जन सेवा पंचायत" के नाम से संगठन चलाते थे। 31 अक्टूबर सन् 1997 को में इस संगठन की बैठक में पहुँचा। उनसे विचार विमर्श कर मैंने अपनी इच्छा प्रकट की। योजना बनी कि धन सिंह कोतवाल के गांव पांचली में 
10 मई सन् 1998 को एक कार्यक्रम किया जाय। उसी संगठन में पांचली की प्रधान के पति स्व भूले सिंह चेयरमैन के छोटे बेटे सुरेंद्र सिंह भी आते थे। गुमी गांव के कार्यकर्ता कर्मवीर व विजय पाल भी आते थे। मेरठ से मेरे साथ रमेश चंद्र नागर, देशपाल सिंह व सुभाष गुर्जर, इं सुरेंद्र सिंह पल्लव पुरम मेरठ, काजीपुर के सुरेंद्र सिंह भडाना, बक्सर के प्रताप सिंह, बेगमबाग से पार्षद सुशील गुर्जर थे।
अब विचार यह बना कि धन सिंह कोतवाल जी का चित्र बने। पांचली के बुजुर्गों से विचार विमर्श कर धन सिंह कोतवाल का चित्र मेरठ के घंटाघर के पास लाला के बाजार में स्थित भारद्वाज पेंटर से बनवाया गया तथा 10 मई सन् 1998 को गांव पांचली में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। जिसमें उपरोक्त साथियों के साथ पांचली गांव के निवासियों ने बढ-चढ कर भाग लिया। कार्यक्रम में पूर्व विधायक श्री रामकृष्ण वर्मा जी बतौर मुख्य अतिथि रहे। पांचली मेन रोड पर ही शहीदों के स्मारक के लिए पांच ईंटे रख दी गई। तत्कालीन जिलाधिकारी श्री संजय अग्रवाल ने ग्राम पंचायत पांचली को 25000/-रू शहीद स्मारक के लिए दिए। जिसमें शहीद स्मारक का चबूतरा व थोड़ा सा पिलर बन गया। उसके पश्चात 27 फरवरी सन् 1999 को चैम्बर आँफ कामर्स मेरठ में पूर्व ग्रह राज्य मंत्री श्री राजेश पायलट जी क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में आये। इस कार्यक्रम में मेरठ के  जिला पंचायत अध्यक्ष रहे कुलविंदर सिंह के पिता श्री मुखिया गुर्जर व प्रमुख समाज सेवी नेपाल सिंह कसाना भी सम्मिलित हुए। श्री पायलट जी के करकमलो से एक पोस्टर का विमोचन किया गया, जिसमें सरदार पटेल, विजय सिंह पथिक व धन सिंह कोतवाल के चित्र थे तथा नीचे कार्यक्रम को करने वाले कार्यकर्ताओं के नाम लिखे थे। 
विजय सिंह पथिक जी पर लिखा लेख निम्न हैं-

भारत में किसान आंदोलन के जनक महान क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक (भूप सिंह) - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

सीमा पर खडा सिपाही बिना एक क्षण की देरी करें अपना बलिदान देश की रक्षा के लिए दे देता है।क्योकि उस सिपाही को अपने देश की सरकार व समाज पर यह विश्वास होता है कि उसकी मौत के बाद उसके देशवासी उसके परिवार के हितों का ध्यान रखेंगे। उसके बलिदान की सराहना करेंगे।इसी प्रकार हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उन्हें यह विश्वास था कि आजादी मिलने के बाद देश की आने वाली पीढ़ी उनके त्याग और बलिदान का स्मरण करेंगी। भारत की आज़ादी के आंदोलन में विजय सिंह पथिक एक ऐसे ही आजादी के योद्धा है। भारत में विजय सिंह पथिक, महात्मा गांधी व सरदार पटेल तीनो महापुरुष किसान आंदोलन के द्वारा ही अपने राजनीतिक सफर पर चलें तथा अपने जीवन के अंत तक भारत माता की सेवा करते रहें।देश आजाद होने के बाद महात्मा गांधी जी का चित्र देश के संविधान की जिल्द में लगा है,पूरी दुनिया उन्हें महात्मा, राष्ट्रपिता व बापू के नाम से आदर देती है। सरदार पटेल भारत के लौह पुरुष, भारत रत्न से सम्मानित है, दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के नाम से पटेल जी की प्रतिमा गुजरात में लगी है। परन्तु विजय सिंह पथिक(भूप सिंह गुर्जर) जिन्हें भारत के किसान आंदोलन का जनक तथा अनेक क्रांतिकारी घटनाओं का सूत्रधार माना जाता है। अपने किये गये कार्यों के अनुरूप आजाद भारत में सम्मान व आदर की उस ऊंचाई से दूर दिखाई देते हैं जिसके वो हकदार थे। सन् 1992 में दूरसंचार मंत्री श्री राजेश पायलट जी के द्वारा पथिक जी पर एक रूपए का डाक टिकट जारी किया गया था। यूं तो हमारे यहां एक कहावत है कि मान का तो पान ही काफी है। हमारे इस लेखन का उद्देश्य भी पथिक जी के महान कार्यों को भारत के जनमानस के सम्मुख उचित ढंग से प्रस्तुत करने का एक प्रयास मात्र है -
भारत में किसानों का उत्पीडन विदेशी तुर्की सत्ता की स्थापना के साथ ही प्रारंभ हो गया था। भारतीय राजा अपने किसानों से लगान के रुप में फसल का छठवां हिस्सा यानि 16% लेते थे। यदि किसान किसी कारण वश लगान नही दे पाता था,उस स्थिति में राजा किसान की समस्या को सुनता था, समस्या को दूर करने का प्रयास करता था। परंतु विदेशी शासकों ने जहां लगान को बढाकर फसल का आधा या उससे अधिक यानि 50% कर दिया था, वही लगान को बडी कठोरता से वसूला जाता था। लगान न देने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा दी जाती थी,उनकी महिलाओं को बेइज्जत कर दिया जाता था तथा किसानों के बच्चों को जिंदा आग में फेंक दिया जाता था।
इन विदेशी शासकों से भारत के लोगों ने अनवरत संघर्ष किया। सन् 1192 में मोहम्मद गोरी के दिल्ली पर अधिकार हो जाने पर भारत के लोगों को गुलाम होने का अनुभव प्राप्त हुआ तथा मुगल सत्ता के स्थापित हो जाने तक भारतीय इन हमलावरों से संघर्ष करते रहे। परंतु अकबर ने सन् 1570 के आसपास कुछ भारतीयों को अपने साथ सत्ता में साझीदार कर लिया।जिन भारतीयों ने मुगलों के साथ यह सत्ता समझोता किया उन्हें मुगल+राजपूत समझोता भी कहा गया।अब भारतीय मुगल शासन में बडे बड़े मनसबदार बन गए तथा अकबर के नवरत्नों में से चार नवरत्न भारतीय थे। सन् 1615 में मेवाड़ के राणा अमर सिंह ने भी मुगल शासक जहांगीर से समझौता कर लिया।अब मुगल शासकों की शोषणकारी निति को कोई रोकने वाला नही था। दिल्ली और आगरा मुगल सत्ता के केन्द्र थे। अतः इसी क्षेत्र में सन् 1633 से ही आगरा और मथुरा के आसपास गेर राजपूत किसानों ने जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ कर दिया जो गोकुला जाट, राजाराम जाट तथा राजा सूरजमल के बलिदान के दौर से गुजरता हुआ जाट राजा सूरजमल के बेटे राजा जवाहर सिंह की मृत्यु सन् 1768 तक अनवरत चला।इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि मुगलों की तीन राजधानियों आगरा, फतेहपुर सीकरी तथा दिल्ली में से दो राजधानी आगरा और फतेहपुर सीकरी को भारतियों (जाटों) ने मुगलों से छीन लिया। दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों ने मुगल सत्ता की कमर तोड दी तथा सन् 1707 में मुगल बादशाह औरंगजेब दक्षिण में मर गया।
मुगल सत्ता लाल किले के अंदर तक सिमट कर रह गई। इतने में ही अंग्रेज भारत में शासन पर काबिज़ हो गये।जिन भारतीयों ने अकबर के समय मुगलों से सत्ता समझौता किया था उनके साथ साथ कुछ और भारतीय राजाओं ने जो मुगलों के साथ संघर्ष कर बने थे, ने सन् 1818 तक  अंग्रेजों से समझौता कर लिया। अंग्रेजों के शोषण का केन्द्र भी भारत का किसान ही रहा। भारतीय जनता का अधिक से अधिक शोषण किया जा सके,उसके लिए अंग्रेजों ने भारतीयों राजाओं के राज्य हड़पने प्रारंभ कर दिए।जिस कारण सन् 1857 की क्रांति हुई। जिसमें भारतीय किसानों, सैनिकों तथा पीड़ित रजवाड़ों और जागीर दारो ने मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का प्रयास किया। अंग्रेज तो भारत से ना जा सके, परन्तु इस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से सत्ता निकलकर रानी विक्टोरिया के हाथ में चली गई। अंग्रेजों की समझ में आ गया कि भारतीय रजवाड़े जिन्हें वो समाप्त करना चाहते थे वो तो उनके शासन करने में सहायक थे अतः अब अंग्रेजों ने इन देशी रियासतों को समाप्त करने का विचार त्याग दिया तथा इनके माध्यम से अपने उद्देश्य की पूर्ति करनी शुरू कर दी।शासन चलाने के वित्त प्रबंधन के लिए किसानों से लगान प्राप्त करना एक बडा माध्यम था। ब्रिटिश भारत  दो भागों में बंटा था,एक भाग तो सीधा अंग्रेजों के हाथ में था तथा दूसरा रियासत के राजाओं के हाथ में था जिनका अंग्रेजों के साथ समझौता था।इन रियासतों में भारत का किसान तीन लोगों के द्वारा शोषित होता था, एक अंग्रेज़ दूसरा रियासत का राजा तिसरा रियासत के राजा का जागीर दार।रियासत के राजा के राज में भी दो तरह की भूमि पर खेती करने वाले किसान थे,एक जागीर दार की भूमि होती थी,दूसरी जो सीधी राजा के पास होती थी,इस राजा के पास वाली भूमि को खालसा भूमि कहते थे। यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन है,जो कि वर्तमान राजस्थान की तत्कालीन समय की मेवाड़ (उदयपुर) रियासत में बिजौलियां तथा बेगूं नामक ठिकानों से चलाये गये थे । राजस्थान का यह क्षेत्र तथा यहां के लोग  उन बहादुर लोगों की संतान है। जिन्होंने करीब 500 वर्षों तक भारत की अरब हमलावरों तथा तुर्क आक्रमणकारियों से रक्षा की थी। परन्तु जिस प्रकार लोहा पानी और हवा के सम्पर्क में आने के कारण अपने कठोरता के गुण को खो देता है, जिस प्रकार कोई हंस कौवों के साथ रहने लगे तो वह मोती के स्थान पर मैला खाने के लिए विवश हो जाता है,उसी प्रकार मुगल और अंग्रेज शासकों के साथ रहने के कारण ये भारतीय राजा अपनी जनता का शोषण देखने तथा करने के लिए विवश थे, बिल्कुल उसी तरह जैसे पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य तथा कर्ण ना चाहते हुए भी द्रोपदी का चीर हरण तथा दुर्योधन की ओर से लडने के लिए विवश थे।पांडव रुपी जनता को अपने बल पर ही लडना था अतः संघर्ष संचालन के लिए एक कृष्ण जी की आवश्यकता थी। जो विजय सिंह पथिक के रुप में यहां के किसानों को प्राप्त हुए। इतिहास  अपने आप को पुनः दोहरा रहा था, जिस प्रकार सन् 1633 में जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ हुआ था और गुर्जर किसानों ने इनका सहयोग किया था उसी प्रकार सन् 1880 में मेवाड़ रियासत में चित्तौड़ के राश्मी परगने से जाट किसानों ने राजस्थान के क्षेत्र का पहला आंदोलन शुरू कर दिया था।इस राजस्थान क्षेत्र में हुए आंदोलनों को चलाने के लिए प्रमुख भूमिका में सहयोग करने के लिए श्री विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) परिस्थितीवश उपस्थित थे। आखिर ये विजय सिंह पथिक कौन थे,किस प्रकार राजस्थान में हुए किसान आंदोलनों में सक्रिय हो गए थे,इसे जानने के लिए हमे थोडा पीछे की ओर चलना होगा।
सन् 1857 की क्रांति में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले की माला गढ रियासत के नबाब वलीदाद खां के इन्द्र सिंह गुर्जर नाम के दीवान थे जो बुलंदशहर के गुठावली कला नामक गांव के निवासी थे। सन् 1857 की क्रांति में संघर्ष करते हुए इन्द्र सिंह गुर्जर शहीद हो गए थे।इन्द्र सिंह गुर्जर के हमीर सिंह गुर्जर नाम के पुत्र थे,इन हमीर सिंह गुर्जर के 27 फरवरी सन् 1882 को भूप सिंह गुर्जर नाम के एक पुत्र का जन्म हुआ।
भूप सिंह गुर्जर पर अपने परिवार की क्रान्तिकारी और देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा।10 अप्रैल सन् 1875 को आर्य समाज की स्थापना मुम्बई में हो गई थी। आर्य समाज के द्वारा लोगों में जनजागरण का कार्य किया जाने लगा था। सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गई थी।
युवावस्था में भूप सिंह गुर्जर का सम्पर्क अजमेर गुट के राव गोपाल सिंह खरवा से हो गया था तथा भूप सिंह गुर्जर राव गोपाल सिंह खरवा के सचिव बन गए थे,राव गोपाल सिंह खरवा आर्य समाज से जुड़े हुए थे,राव गोपाल सिंह"खरवा"जागीर के जागीर दार थे।राव गोपाल सिंह खरवा राजपूत जाति के थे। एक बार बंगाल के क्रांतिकारी अरविंद घोष राजस्थान आये थे तभी गोपाल सिंह खरवा का परिचय अरविन्द घोष से हुआ।जब आर्य समाज का भारत धर्म महामंडल राजस्थान से बंगाल गया तब गोपाल सिंह खरवा भी इस मंडल में बंगाल गये थे,वही पर पुनः गोपाल सिंह खरवा की मुलाकात अरविन्द घोष,रास विहारी बोस व सचिन सन्याल से हुई। सन् 1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया। इस अवसर पर भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग के दिल्ली प्रवेश के समय राव गोपाल सिंह खरवा व भूप सिंह गुर्जर ने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ जुलूस पर बम फेंक कर लार्ड हार्डिग को मारने की कोशिश की। रास बिहारी बोस,राव गोपाल सिंह खरवा, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, भूप सिंह गुर्जर व अन्य सभी सम्बन्धित क्रान्तिकारी अंग्रेजो के हाथ नहीं आये और  फरार हो गए।
आर्य समाज के सम्पर्क में एक गोविंद गिरि नाम के व्यक्ति आये।जो बंजारा जाति के थे,यह जाति वर्तमान में अनुसूचित जनजाति में आती है।इन गोविंद गिरि ने भील जाति के लोगों को जागृत करना प्रारंभ कर दिया। गोविंद गिरि का कार्यक्षेत्र उदयपुर रियासत के अंदर ही था जो वर्तमान में बांसवाड़ा जिले में आता है।17 नवम्बर सन् 1913 को मान गढ़ पहाड़ी पर भील सम्मेलन पर शासन के द्वारा अंधाधुंध फायरिंग की गई तथा 1500 भील मार डाले गए। अनुसूचित जनजाति का यह आंदोलन भगत आंदोलन के नाम से जाना जाता है। किसी भी समाचार पत्र में न छपने के कारण इस नरसंहार का देश के लोगों को पता ही नहीं चला। भीलों की आवाज बलपूर्वक दबा दी गई।
सन् 1915 में रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों पर 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। भारतीय इतिहास में इसे गदर आन्दोलन कहते है।
9 जनवरी सन् 1915 को गांधी जी विदेश से भारत आ गये। भारत आने पर गांधी जी ने गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बना लिया तथा कांग्रेस में कार्य करने लगे।
रास बिहारी बोस की योजना यह थी कि एक तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाय जाये दूसरी तरफ देशी राजाओं और उनकी सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को संचालित करने का दायित्व राव गोपाल सिंह खरवा व भूप सिंह गुर्जर को सौंपा गया। उस समय भूप सिंह गुर्जर फिरोजपुर षडयंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनो ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र की।ब्यावर में क्रांति की जिम्मेदारी राव गोपाल सिंह खरवा व दामोदर दास राठी पर थी और अजमेर व नसीराबाद में क्रांति की जिम्मेदारी भूप सिंह गुर्जर पर थी। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सरकार पर क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारयों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। भूप सिंह गुर्जर और गोपाल सिंह ने गोला बारूद्व भूमिगत कर दिया और सैनिकों को बिखेर दिया । परन्तु कुछ  दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज कमिश्नर ने पांच सौ सैनिकों के साथ भूप सिंह गुर्जर और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया गया। उन्हीं दिनों लाहौर षडयंत्र केस में भूप सिंह गुर्जर का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर राव गोपाल सिंह खरवा और भूप सिंह गुर्जर को मिल गई और वो टाडगढ़ के किले से फरार हो गए।
राव गोपाल सिंह खरवा को पुनः पकड़ लिया गया।राव गोपाल सिंह खरवा करीब पांच वर्ष जेल में बंद रहे। परंतु भूप सिंह गुर्जर अंग्रेजों की पकड में नही आये। भूप सिंह गुर्जर ने अपना भेष बदल लिया,अपनी दाढ़ी और मूंछें बढ़ा ली तथा अपना नाम बदलकर विजय सिंह पथिक रख लिया।अब विजय सिंह पथिक चित्तौड़ के एक गांव ओछड़ी में विद्या प्रचारिणी सभा चलाने लगे।इस संस्था के नाम से ही जान पड रहा है कि आम लोगों में शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाना इस संगठन का उद्देश्य होगा। विद्या प्रचारिणी सभा के अधिवेशन में साधु सीताराम दास जो बिजौलियां ठिकाने के पुस्तकालय में नौकरी करते थे, परन्तु किसान हितैषी थे,भी पहुंचे।साधु सीताराम दास जी ने विजय सिंह पथिक जी से प्रभावित होकर बिजौलियां किसानों के आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह पथिक जी से किया। सन् 1916 में विजय सिंह पथिक जी ने बिजौलियां किसान आंदोलन में प्रवेश किया।
हम पाठको को बिजौलियां ठिकाने के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देने की जरूरत समझेंगे। ताकि इस आंदोलन के माध्यम से पथिक जी के महान कार्यों पर उचित प्रकाश पड़ सके-
बिजौलियां ठिकाना मेवाड़ राज्य के 16 प्रथम श्रेणी के ठिकानों में से एक था।जो वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में आता है। वर्तमान भरतपुर के पास जगनेर नामक स्थान के अशोक परमार नामक एक व्यक्ति थे, जिन्होंने सन् 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से युद्ध किया था। अशोक परमार को उनकी  सैनिक सेवा से प्रसन्न होकर राणा सांगा ने उपरमाल नाम की एक जागीर दी थी। बिजोलिया इस उपरमाल नामक जागीर का मुख्यालय था।इस ठिकाने में 79 गांव थे। बिजौलियां ठिकाने की सीमा ग्वालियर,कोटा और बूंदी  रियासतों को छूती थी। बिजौलियां ठिकाने में धाकड़ जाति के किसान बसे हुए थे।इन किसानों के अपने ठिकाने के ठाकुर के साथ बडे मधुर सम्बन्ध थे। बिजौलियां ठिकाने के ठाकुर राव केशव दास के साथ इन धाकड़ जाति के किसानों ने मिलकर अपने क्षेत्र से मराठों को बाहर निकाल दिया था।यह तालमेल राव गोविन्द दास जो बिजौलियां ठिकाने के ठाकुर थे, की मृत्यु सन् 1894 तक बना रहा।राव गोविन्द दास की मृत्यु के बाद राव कृष्णा सिंह बिजौलियां के ठाकुर बने।राव कृष्णा सिंह ने 84 प्रकार के कर अपने ठिकाने के किसानों पर लगा दिए। भू-राजस्व नगदी में लेने का आदेश पारित किया गया।यही से किसान आंदोलन की नींव पड गई। बिजौलियां किसान आंदोलन भारत ही क्या विश्व का सबसे लम्बा चलने वाला आंदोलन माना जाता है।यह आंदोलन  44 वर्ष तक चला।इस आंदोलन को तीन भागों में बांटा जाता है।प्रथम चरण सन् 1897-1915, द्वितीय चरण सन् 1915-1923, तृतीय चरण सन् 1923-1941तक।
प्रथम चरण में यह आंदोलन स्थानिय किसानों के नेतृत्व में चला। बिजौलियां के किसानों ने अपनी स्थानिय समस्याओं के निराकरण के लिए धाकड़ पंचायत के नाम से एक संगठन बना रखा था। बिजौलियां ठिकाने में गिरधर पुर नाम का एक गांव था,इस गांव में गंगाराम धाकड़ नाम के एक किसान के पिता की मृत्यु हो गई थी।इस मृत्यु भोज में आसपास के किसान एकत्रित हुए, जिसमें इन असिमित लगें कर से छूटकारा प्राप्त करने के लिए विचार विमर्श हुआ।इन किसानों का सम्पर्क साधु सीताराम दास जी से हुआ,जो बिजोलिया ठिकाने के पुस्तकालय में नौकरी करते थे। किसानों ने अपनी समस्या साधु सीताराम दास जी के सामने रखी। सीताराम जी ने किसानों को सलाह दी कि आप अपने ठाकुर की शिकायत उदयपुर जाकर मेवाड़ के राणा फतेह सिंह जी से करें। सीताराम दास जी की सलाह के अनुसार दो किसान नानाजी पटेल व ठाकरी पटेल राणा जी से मिल कर शिकायत कर आये।राणा जी ने हामिद नाम का एक जांच अधिकारी बिजौलियां मे भेजा। हामिद ने अपनी रिपोर्ट किसानों के हित में दी तथा ठिकाने के ठाकुर कृष्णा सिंह को दोषी माना।जब राव कृष्णा सिंह को इस घटना का पता चला तो उसने नाराज किसानों को कुछ सहुलियत देकर मना लिया, लेकिन जो दो किसान शिकायत करने राणा जी के पास गये थे,उनको अपने क्षेत्र से निष्कासित कर दिया।यह सन् 1899 की घटना है। कुछ समय शांति से व्यतीत हुआ, परन्तु सन् 1903 में राव कृष्णा सिंह ने  चंवरी के नाम से एक नया कर किसानों पर लगा दिया।इस कर के अनुसार किसान जब अपनी लड़की की शादी करेगा तो 5 रुपए चंवरी कर के रूप में ठाकुर को  देगा।इस कर को लेकर किसानों में रोष व्याप्त हो गया। भारत में यह प्रथा है कि लडकी की शादी में कन्यादान के रूप में धन दिया जाता है यहां धन लेने की बात थी। किसानों ने दो साल तक अपनी लड़कियों की शादी नही की। सन् 1905 में दो सो किसान इकट्ठा होकर राव कृष्णा सिंह के पास पहुंचे और इस चंवरी कर को हटाने का आग्रह किया।जिस पर राव कृष्णा सिंह नही माने।ये सब दो सो किसान राव कृष्णा सिंह का क्षेत्र छोड़कर पास के राज्य ग्वालियर में चले गए।जब किसान ही नहीं रहें तो कर कौन देगा।इस परिस्थिति में राव कृष्णा सिंह ने किसानों को वापस बुला लिया तथा चंवरी कर हटा दिया। कुछ सहुलियत और भी किसानों को दी गई। सन् 1906 में राव कृष्णा सिंह की मृत्यु हो गई।राव कृष्णा सिंह निसंतान थे। अतः नये ठाकुर के रूप में पृथ्वी सिंह बने जो भरतपुर के पास जगनेर नामक स्थान से लाकर बनाये गये थे।जब कोई नया ठाकुर ठिकाने का बनता था तब वह उत्तराधिकारी बनने के नियमानुसार अपने राणा को तलवार बधांई के नाम से कुछ धन भेंट करता था।राव पृथ्वी सिंह ने इस तलवार बंधाई की धन राशि के लिए अपने ठिकाने के किसानों पर एक कर और लगा दिया। किसानों ने इस कर का विरोध किया। परंतु राव पृथ्वी सिंह ने किसान नेता फतह करण चारण व ब्रह्म देव को क्षेत्र से निष्कासित कर दिया।साधु सीताराम दास को भी नौकरी से निकाल दिया। परंतु अब किसान जागरूक हो चुके थे यह सन् 1915तक का संघर्ष था।
इन्ही साधु सीताराम दास जी के आग्रह पर विजय सिंह पथिक जी ने बिजौलियां किसान आंदोलन में सन् 1916 में प्रवेश किया। सन् 1916 में ही लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें कांग्रेस के नरम दल व गरम दल तथा मुस्लिम लीग एक हो कर कांग्रेस में मिल गये थे।
विजय सिंह पथिक जी ने बिजोलिया पहुंच कर इस आंदोलन में प्राण फूंक दिए। विजय सिंह पथिक जी ने उपरमाल पंच बोर्ड के नाम से एक संगठन बनाया तथा इसका सरपंच माना पटेल को बनाया। उपरमाल सेवा समिति के नाम से क्षेत्र के युवाओं को जोडा। जिन्हें गांव गांव जाकर आंदोलन का प्रचार करना तथा" उपरमाल का डंका" के नाम से छपा पर्चा वितरण करना था।इस समय प्रथम विश्व युद्ध के लिए चंदा भी वसूल किया जा रहा था। अतः सावन की अमावस्या अर्थात जुलाई-अगस्त सन् 1917 को बैरीसाल गांव से आंदोलन का बिगुल बजा दिया। सन् 1917 में अप्रेल में बिहार का चम्पारण सत्याग्रह भी नील की खेती की तिनकठिया निति के विरोध में हुआ था, जिसमें महात्मा गांधी जी ने भाग लिया था।क्योकि बिजौलियां में पथिक जी ने सन् 1916 से ही आंदोलन शुरू कर दिया था, अतः पथिक जी को भारत के किसान आंदोलन का जनक कहा जाता है। पथिक जी ने आंदोलन के प्रचार के लिए तत्तकालीन समय के समाचार पत्रों से सम्पर्क किया।उस समय कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी जी के द्वारा"प्रताप"नामक समाचार पत्र निकाला जाता था। पथिक जी ने गणेश शंकर विद्यार्थी जी को चांदी की राखी भेजकर  बिजौलियां आंदोलन के लिए मदद मांगी।इसके साथ तिलक के मराठा, प्रयाग के अभ्युदय, कलकत्ता के भारत मित्र तथा अजमेर से नवीन राजस्थान नामक समाचार पत्रों में बिजौलियां आंदोलन के समाचार प्रकाशित कर आंदोलन को भारत में पहुंचा दिया। दूसरी ओर जमुना लाल बजाज के माध्यम से आंदोलन में कांग्रेस की मदद के लिए भी प्रयास प्रारंभ कर दिया। सन् 1918 में गुजरात के खेड़ा में भी सरदार पटेल ने किसानों का आंदोलन शुरू कर दिया, जिसमें गांधी जी ने भी भाग लिया।इस प्रकार भारत में किसान आंदोलन शुरू हो गये। सन् 1919 में अमृतसर में कांग्रेस के अधिवेशन में पथिक जी बिजौलियां आंदोलन में मदद के लिए पहुंचे। वहां पर पथिक जी ने बाल गंगाधर तिलक को मदद के लिए तैयार कर लिया। कांग्रेस के अधिवेशन में बिजौलियां आंदोलन के विषय में समर्थन के लिए बालगंगाधर तिलक व केलकर ने प्रस्ताव रख दिया। परन्तु महात्मा गांधी जी व मदनमोहन मालवीय जी ने इस प्रस्ताव को रोक दिया। गांधी जी का कहना था कि जो भारत सीधे अंग्रेजों के हाथ में है कांग्रेस उसमें ही भाग लेगी।जो भारत देशी राजाओं के हाथ में है,जहा अंग्रेजों की अप्रत्यक्ष सत्ता है, उसमें कांग्रेस आम जनता के लिए किए जा रहे आंदोलन में भाग नहीं लेगी। लेकिन बिजौलियां के किसानों की समस्या का हल हो,इसके लिए मेवाड़ के राणा को गांधी जी व तिलक जी ने पत्र लिखे तथा मदन मोहन मालवीय जी को राणा से मिलने के लिए भेजा। अब राणा ने बिंदुलाल भट्टाचार्य,अमर सिंह तथा अफजल अली के नेतृत्व में एक जांच आयोग बिजौलियां के किसानों की परेशानी को जानने के लिए बना दिया। कांग्रेस व जांच आयोग से किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। सन् 1919 में ही महाराष्ट्र के वर्धा में राजस्थान सेवा संघ के नाम से विजय सिंह पथिक जी ने एक संगठन बनाया। 13 अप्रैल सन् 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा गोलीकांड कर दिया गया।ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था।
 पथिक जी ने सन् 1920 में राजस्थान सेवा संघ का मुख्यालय अजमेर में बना लिया।इस संगठन में विजय सिंह पथिक,साधु सीताराम दास, माणिक्य लाल वर्मा व जमुना लाल बजाज, रामनारायण चौधरी आदि थे। सन् 1920 के कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में विजय सिंह पथिक अपने साथ बिजौलियां के तीन किसान कालू जी, गोकुल जी व नंदराम जी को लेकर पहुंचे। अधिवेशन में चित्रों के माध्यम से प्रदर्शनी लगाकर बिजौलियां के किसानों की हालत को दर्शाया गया।गांधी जी ने अपने निजी सचिव महादेव देसाई को राणा से वार्ता करने के लिए भेजा।गांधी जी का यह मत था कि सबसे पहले अंग्रेजों को भारत से भगाया जाय। यदि कांग्रेस देशी राजाओं के साथ उलझ गई तो देशी राजा अंग्रेजों के पक्ष में आ जायेगे,जिस कारण आजादी की लडाई में अवरोध पैदा हो जायेगा। लेकिन भारत के देशी राजा और नबाब तो अंग्रेजों की कठपुतली थे।यही सोच कर गाधी जी ने खिलाफत आन्दोलन (मार्च सन् 1919- जनवरी सन् 1921) में मुस्लिमो का समर्थन किया था कि भारत का मुस्लिम अंग्रेजों के विरुद्ध कांग्रेस के साथ आ जाएं। दूसरी ओर विजय सिंह पथिक और डा अम्बेडकर जैसे नेताओं का यह मत था कि किसी व्यक्ति का शोषण घर का व्यक्ति करें या बाहर का। शोषित व्यक्ति को पीड़ा बराबर ही होती है। इसलिए डा अम्बेडकर ने कहा था कि कांग्रेस फ्रिडम आफ इंडिया तो चाहती है परन्तु फ्रिडम आफ पिपुल आफ इंडिया नही चाहती।यानि भारत की आज़ादी तो चाहती है परन्तु भारत के नागरिक की आजादी नही चाहती।
राजपूताना मध्य भारत संघ नामक संगठन जो जमुना लाल बजाज के नेतृत्व में चलता था ने बिजोलिया किसानों की स्थति की जांच के लिए अपने संगठन की ओर से भवानी दयाल नाम के एक कार्यकर्ता को नियुक्त कर दिया।ऐसी स्थिति में मेवाड़ के राणा फतह सिंह ने पुनः दूसरा जांच आयोग बना दिया, जिसमें राज सिंह मेहता,तख्त सिंह मेहता व रमाकांत मालवीय को रखा गया। इन तीनों ने बिजोलिया से 15 किसानों को बातचीत के लिए उदयपुर में बुलाया। लेकिन किसानों को कोई लाभ नहीं दिया। विजय सिंह पथिक का गिरफ्तारी वारंट निकाल दिया। विजय सिंह पथिक मेवाड़ रियासत के बाहर उमा जी का खेडा नामक गांव में चले गए।अब राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी अंग्रेज अधिकारी विलकिम से मिले। पुनः किसानों की समस्या के हल पर विचार विमर्श के सन् 1922 में  एक जांच समिति का गठन कर दिया गया।इस कमेटी में राबर्ट हालेंड(AGG),आगतवी (सचिव),प्रभाष चंद्र चटर्जी (मेवाड़ के दीवान) तथा बिहारी लाल थे।इस जांच समिति ने बिजोलिया के किसान मोतीराम सरपंच व नारायण जी पटेल से बातचीत कर किसानों की मांग सुनी और 35 कर समाप्त कर दिए।जिससे किसान प्रसन्न हो गए, लेकिन बिजौलियां के ठाकुर ने इस समझौते को नही माना।
बिजोलिया में चल रहे इस आंदोलन को देखकर समस्त राजस्थान के किसानों तथा अन्य वर्गों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई। परिणाम स्वरूप कई जगह आंदोलन प्रारंभ हो गये।भोमट भील आंदोलन के नाम से भील और गरासिया जनजाति ने मिलकर आंदोलन प्रारंभ कर दिया।इस आंदोलन का नेतृत्व मोतीलाल तेजावत जो ओसवाल जाति के थे तथा झाडोल ठिकाने में कामदार थे, ने किया तथा एक किसान नेता गोकुल जाट ने सहयोग किया।7 नवम्बर सन् 1922 को मेजर शर्टन ने विजय नगर रियासत के नीमडा गांव में एकत्रित भीलों पर फायरिंग करवा दी, जिसमें 1200 भील शहीद हो गए। बेगूं, बूंदी, शेखावाटी में जो आंदोलन हुए राजस्थान सेवा संघ ने इन आंदोलनों का नेतृत्व किया।
बिजोलिया और बेगूं के आंदोलन का नेतृत्व स्वयं विजय सिंह पथिक जी ने किया। बेगूं के किसान सन् 1921 में विजय सिंह पथिक जी के पास आये, पथिक जी ने बेगूं के किसानों का नेतृत्व करने के लिए राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी को भेजा। बेगूं भी मेवाड़ रियासत का एक ठिकाना था। इसमें भी बिजौलियां की तरह धाकड़ जाति के किसान रहते थे। मेवाड़ रियासत के चार ठिकाने क्रमशः सलूम्बर,आमेट, बेगूं और देवगढ़ राणा लाखा के बडे पुत्र चूड़ा जिन्हें आधुनिक युग का भिष्म कहा जाता है को दे दिए गए थे।उनकी संतानें ही इन ठिकानों के ठाकुर थे। अकबर के साथ चित्तौड़ के युद्ध में जो फत्ता सिसोदिया वीर गति को प्राप्त हुए थे वो आमेट ठिकाने के जागीर दार थे। बेगूं में किसानों पर 54 प्रकार के कर लगे हुए थे। यहां के ठिकाने दार अनूप सिंह थे। रामनारायण चौधरी मेवाड़ के दीवान से बेगूं की समस्या के समाधान के लिए मिलें। सन् 1922 में मंडावरी नामक स्थान पर सभा कर रहे किसानों पर लाठी चार्ज किया गया। परन्तु किसान आंदोलन चलता रहा।मजबूर होकर बेगूं के ठिकाने दार अनूप सिंह ने जून सन् 1922 में अजमेर में जाकर विजय सिंह पथिक जी की मध्यस्थता में किसानों के साथ समझौता कर लिया।
इस समय गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चला रखा था। जिसमें चौरी चौरा कांड हो गया।चौरी चौरा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के पास का एक कस्बा है जहाँ 4 फ़रवरी 1922 को  भारतीयों ने बिट्रिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी थी जिससे उसमें छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जल के मर गए थे। इस घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
जब बेगूं के किसानों के समझौते की सूचना मेवाड़ के राणा फतेह सिंह को पहुंची तो ठाकुर अनूप सिंह को उदयपुर बुलाकर कैद कर लिया।
बिजौलियां में राणा का समझौता ठिकाने दार नही मान रहा था, बेगूं में ठिकाने दार का समझौता राणा नही मान रहा था। कुल मिलाकर मेवाड़ का नेतृत्व किसानों को सहूलियत नही देना चाहता था।अब 13 जून सन् 1923 को मेवाड़ के सेटलमेंट कमिश्नर ट्रेंच को बेगूं के किसानों की समस्या को हल करने के लिए भेजा गया। ट्रेंच ने बेगूं के किसानों से कहा कि बातचीत में बेगूं से बाहर का कोई व्यक्ति भाग नही लेगा।इस पर किसान तैयार नहीं हुए, किसान राजस्थान सेवा संघ को बातचीत से बाहर नही चाहते थे। अतः 13 जुलाई सन् 1923 को किसान गोविंद पुरा नामक गांव में एकत्रित हुए।इस समय किसानों पर ट्रेंच के द्वारा लाठीचार्ज व फायरिंग करवा दी गई। जिसमें 500 किसान गिरफ्तार कर लिए गए तथा रूपा जी धाकड़ व कृपा जी धाकड़ नाम के दो किसान शहीद हो गए।जब यह समाचार पथिक जी को प्राप्त हुआ तो वह अपने आप को रोक नहीं पाये तथा किसानों का मनोबल बढ़ाने के लिए अजमेर से बेगूं आ गये। जहां 10 सितंबर सन् 1923 को पथिक जी को गिरफ्तार कर लिया गया तथा पांच वर्ष के लिए उदयपुर जेल में भेज दिया गया।अब बेगूं किसान आंदोलन की कमान माणिक्य लाल वर्मा ने सम्भाली। मार्च सन् 1925 में लगभग 34 प्रकार के कर मेवाड़ सरकार ने बेगूं के किसानों से हटा कर समझौता कर लिया। बेगूं का आंदोलन समाप्त हो गया।
बिजौलियां की सीमा से लगा बूंदी राज्य का बरड क्षेत्र था,यहा के गुर्जर किसानों ने बेगार व भ्रष्टाचार के विरुद्ध बूंदी सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।इस आंदोलन का नेतृत्व राजस्थान सेवा संघ के एक कार्यकर्ता नयनू शर्मा ने किया।2 अप्रैल सन् 1923 को डाबी नाम के स्थान पर किसानों की सभा पर बूंदी प्रशासन ने गोली चला दी, जिसमें नानक भील व देवीलाल गुर्जर शहीद हो गए।
पथिक जी की गिरफ्तारी के बाद सन् 1923-1941 का समय बिजौलियां आंदोलन का अंतिम चरण है। वहीं राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी इस अवधि में अनेक आंदोलन हुए। अलवर रियासत में राजपूत जाति के किसानों के द्वारा लगान की बढी दरों को लेकर आंदोलन किया गया।जो निमूचाना आंदोलन के नाम से जाना जाता है।इस आंदोलन में 14 मई सन् 1925 को अलवर रियासत की सेना ने कमांडर छाजू सिंह के नेतृत्व में किसानों पर अंधाधुंध फायरिंग की। जिसमें 156 किसान मारे गए,39 गिरफ्तार कर लिए गए। हजारों की संख्या में किसान और पशु घायल हुए।इस नरसंहार को गांधी जी ने दोहरी डायरशाही कह कर अपने यंग इंडिया समाचार पत्र में भर्त्सना की।
 सन् 1926 में अंग्रेज अधिकारी ट्रेंच को बिजौलियां की भूमि का बंदोबस्त करने के लिए भेजा गया। ट्रेंच ने जो सिंचित भूमि थी,उस पर कर घटा दिया तथा असिंचित भूमि पर कर बढ़ा दिया।ऐसा उल्टा काम देख किसान आंदोलित हो उठे। किसानों ने आपस में सलाह की, सन् 1927 में विजय सिंह पथिक भी जेल से छूटकर आ गये थे। किसानों की यह योजना बनी कि असिंचित भूमि के पट्टे ठिकाने दार को वापस कर दिए जाएं।जब जमीन खाली हो जायेगी तो ठिकाने दार अपने आप समझौता करेगा।सभी किसानों ने अपनी जमीन के पट्टे वापस कर दिए। परन्तु साहूकारों व सम्पन्न किसानों ने वो पट्टे ठिकाने दार से खरीद लिए।इस समय विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, माणिक्य लाल वर्मा व जमुना लाल बजाज में भी आपसी मतभेद हो गये थे।जब बात गांधीजी तक पहुंची,तो जमुना लाल बजाज से आंदोलन के नेतृत्व का आग्रह किया गया। परन्तु यह उनके बस का काम नही था, हरिभाऊ उपाध्याय नाम के एक कार्यकर्ता को गांधी जी ने बिजौलियां भेजा। मदन मोहन मालवीय जी ने एक पत्र मेवाड़ प्रशासन को लिखा। मेवाड़ प्रशासन ने माणिक्य लाल वर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया।समय व्यतीत होता रहा।
सन् 1927 में अंग्रेजों ने भरतपुर के जाट राजा किशन सिंह को हटा कर उनकेे अल्पव्यस्क पुत्र को राजा बना दिया। सन् 1930 में अंग्रेजों ने मेवाड़ के राणा फतेह सिंह के स्थान पर उनके पुत्र भोपाल सिंह को राणा बना दिया।
 सन् 1931 में अक्षय तृतीया के दिन बिजौलियां के किसानों ने अपनी उन जमीनों पर जिनके पट्टे ठिकाने दार को वापस कर दिए थे, में अपने हल चलाने प्रारंभ कर दिए।इन किसानों पर ठिकाने दार के सैनिकों ने, मेवाड़ रियासत के सैनिकों ने तथा उन किसानों ने जिन्होंने ये पट्टे खरीद लिए थे, ने मिलकर हमला कर दिया।
सन् 1933 में अंग्रेजों ने अलवर के राजा जय सिंह को हटाकर एक जागीरदार तेज सिंह को अलवर का राजा बना दिया तथा राजा जयसिंह को देश निकाला दे कर पेरिस भेज दिया।
 सन् 1938 में किसानों ने लिखकर मेवाड़ के राणा भोपाल सिंह को दिया कि वो आगे कोई आंदोलन नही करेंगे,उनकी जमीन वापस दे दी जाय। 
सन् 1938 में सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा कि अब कांग्रेस रियासत के राजाओं द्वारा शोषित जनता के लिए राजाओं के क्षेत्रों में भी आंदोलन में सक्रिय सहयोग करेगी।
12 मार्च सन् 1939 में पथिक जी के अनन्य सहयोगी राव गोपाल सिंह खरवा का देहांत हो गया।
अतः सन् 1941 में बिजौलियां के किसानों को अपनी जमीन वापस मिल गई।इस प्रकार इस बिजौलियां आंदोलन का अंत हो गया।विजय सिंह पथिक जी के लम्बे संघर्ष ने राजाओं की शक्ति के नीचे दबी जनता में अभूतपूर्व चेतना व आत्मबल का संचार किया।जिस कारण पूरा राजस्थान आंदोलित हो उठा।विजय सिंह पथिक आंदोलनकारी नेता के साथ एक विचारक व लेखक भी थे। पथिक जी ने भारत की रियासतों के विषय में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम है "व्हाट आर द इंडियन स्टेट्स"।
15 अगस्त सन् 1947 को देश आजाद हो गया। देश में लोकतंत्र स्थापित हो गया।18 अप्रैल सन् 1948 को राजस्थान के तृतीय चरण का एकीकरण होने पर मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह राजस्थान के राजप्रमुख तथा माणिक्य लाल वर्मा राजस्थान के प्रधानमंत्री बने।
26 जनवरी सन् 1950 को देश का संविधान लागू हो गया। सन् 1952 में आजाद भारत का पहला चुनाव सम्पन्न हुआ। पथिक जी के शिष्य माणिक्य लाल वर्मा जी टोंक से १९५२ में लोकसभा के सांसद चुने गए ।विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) जी ने  अंग्रेजी शासन की जुल्मों भरी भयानकता तथा अपने जीवन की अंतिम बेला में आजाद भारतीय जनता की प्रसन्नता को अपनी आंखों से देखा।
पथिक जी जीवनपर्यन्त निःस्वार्थ भाव से देश सेवा  में जुटे रहें। भारत माता का यह महान सपूत 28 मई, 1954 में चिर निद्रा में सो गया। पथिक जी की देशभक्ति निःस्वार्थ थी और  मृत्यु के समय उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था, जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माथुर ने पथिक जी का वर्णन राजस्थान की जागृति के अग्रदूत महान क्रान्तिकारी के रूप में किया।
क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक व उन हजारों सत्याग्रहियों को जो आंदोलनों में शहीद हो गए,को शत-शत नमन।
समाप्त
सन्दर्भ ग्रंथ
1- डा सुशील भाटी - बिजौलिया के गांधी - विजय सिंह पथिक।
2 - रमन भारद्वाज (यू ट्यूब) - बिजौलियां व बेगूं किसान आंदोलन राजस्थान।

हरिदत त्यागी जी मेरठ के पास किला-परि क्षत गढ़ के मूल निवासी थे, पेशे से अध्यपक थे। सेवानिवृत्ति के बाद मेरठ में स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विश्व संवाद केन्द्र में मेरी उनसे प्रथम भेंट हुई। वे कविता लिखने में माहिर थे। मेरे (अशोक चौधरी) अनुरोध पर उन्होंने चार स्वतंत्रता सेनानियों पर कविता लिखी।इन कविताओं का गौरव गाथा के नाम से मार्च 2006 में प्रतापराव गुर्जर स्मृति समिति ने प्रकाशित करवाया। जो निम्न है -

क्रांतिकारी विजय सिंह "पथिक"(भूप सिंह)

लेखक कवि हरिदत्त त्यागी

भारत की मिट्टी का कण-कण, बलिदानों की गाथा कहता।
जैसे गंगा का पावन जल, आदिकाल से बहता रहता।।
फिर चाहे सतयुग या त्रेता, द्वापर या कलियुग की गाथा।
असुर-दनुज या सत्ता बल से, नंगे पैर राम टकराता।।
जनहित जीवन अर्पित करते, अवतारों की बनी श्रंखला।
बाल-युवा और वृद्ध नारियां, अबला हो जाती है सबला।।
हिंसक क्रूर यवन मुगलों से, आगे ब्रिटानिया सुत आये।
जिनका स्वागत किया देश ने, वो ही आंख दिखाते पाये।।
निश्छल मन के भारतवासी, उनकी नीति समझ न पाये।
बैर-भाव पाले अपनों से, गैरों को पर कंठ लगाये।।
विस्तृत सागर सा अपना उर, छोटी झीलों में बांटा तो।
आपस में ही लगे उलझने, हिस्सों में आया घाटा तो।।
बंदर समझ किया बंटवारा, अंग्रेजी कंजी बिल्ली ने।
वैसे-जैसे ताज बटोरे, सदियों तक गंजी दिल्ली ने।।
किन्तु सहन की सीमा से भी, पार गयी शत्रु- सत्ता।
अंधड़ और तूफान बना फिर, कोना-कोना पत्ता- पत्ता।।
ऐसा ही एक चक्रवात, बंगाल प्रान्त से खड़ा हुआ।
रास बिहारी, सचिन साथ में, भूप सिंह भी अडा हुआ।।
भूप सिंह थे कौन, यहां पर ठीक रहेगा बतलाना।
विजय सिंह "पथिक" नाम से प्रसिद्ध, जिला बुलंदशहर जाना-माना।।
गांव गुठावली कलां का यह गुर्जर, नाम से ही था जाता-जाना।
आगे बढ़ पीछे नहीं हटा, बेशक पड गया मिट जाना।।
मालागढ की स्टेट में, दादा इन्द्र सिंह दीवान हुए।
सन् सत्तावन के संग्राम में, वह भी थे बलिदान हुए।।
पिताजी भी क्रांति जुर्म में, अंग्रेजों ने पकड़ लिये।
जो भी साथी और नाति थे, सब जंजीरों में जकड़ लिए।।
उन वीरों का वंशज यह भूप सिंह, छद्म नाम पथिक कहना।
विजय सिंह धर नाम लिया, और पथिक रहा उसका गहना।।
23 दिसंबर 1912 दिल्ली, फैंका एक बम गवर्नर पर।
शंखनाद कर दिया क्रांति का, नारा गूँजा अम्बर पर।।
टोली का निर्णय था, देश में एक साथ विद्रोह का।
21 फरवरी, 1915 दिन, निश्चित किया समूहों का।।
विजय सिंह का भाग्य, भाग्य में क्षेत्र मिला राजस्थानी।
वीर-भूमि जौहर-भूमि, क्षत्रापण की रेगिस्तानी।।
गोपाल सिंह एक और साथी, उनका था अपनी टोली का।
दो हजार युवकों का दल, संग्रह था गोले-गोली का।।
मुखबिरों-भेदियों के बल पर, सम्पूर्ण क्रांति का भेद खुला।
अपनों की ही गद्दारी से, भारत फिर से गया छला।।
अजमेर कमिश्नर ने पकड़ा, गोपाल-पथिक को लश्कर संग।
टांड दुर्ग में कैद किया, आगे देखो वीरों के रंग।।
पता चला लाहौर केस में, भी उनको जाना होगा।
छू-मंतर हो गए कहीं, रह गया वहाँ उनका चोगा।।
रास बिहारी निकल गए, पहुंच गये जापान तभी।
किन्तु पथिक जी जमे रहे, थामे रहे कमान अभी।।
राजस्थानी वेश बनाकर, राजपूत कहलाने लगे।
विद्या की प्रचार सभा से, अपना मिशन चलाने लगे।।
लोकप्रिय हो गये शीघ्र ही, आन्दोलन कर दिया खड़ा।
सीताराम संत ने उनको, कृषक हित में दिया अडा।।
पीड़ित-शोषित किसानों के हित, बडा संगठन गठित किया।
बेतौल-वसूली के खिलाफ, एक जन-आंदोलन चला दिया।।
वहां बिजौलियां नामचीन, सामंती एक ठिकाना था।
बेगार, टैक्स, अधिभार के विरुद्ध, अलख जगाना था।।
गांव-गांव शाखाएं खोली, लगातार प्रचार किया।
समाचार-पत्रों के बल पर, महाराणा पर वार किया।।
वर्धा से राजस्थान केशरी, एक समाचार-पत्र निकला।
सम्पादक थे पथिक स्वयं, समाचार यह खूब चला।।
लगा प्रदर्शनी नागपुर में, दशा दिखाई कृषक की।
हुए प्रभावित गांधी जी भी, पर बाँहें थामी शोषक की।।
लोकमान्य ने किया समर्थन, पर गांधी ने रोका।
सामन्तों का तभी विरोध, किया पथिक ने और टोका।।
साम्राज्यवादी विदेश के, पायें है सामन्त यहां।
उनके बल पर टिके हुए, ब्रिटिश राज्य का अन्त कहां।।
यह छोटी-सी बात मगर, गांधी जी ने नहीं मानी।
जैसे फर्ज खिलाफत समझा, वैसे समझने की नहीं ठानी।।
नाम खिलाफत था जिसका, वह मांग मजहब की थी उनकी।
कांग्रेस के साथ नहीं थी, लीग मांग अपनी जिनकी।।
फिर भी पथिक रहे बढते, और आन्दोलन उनका फैला।
राजस्थान सेवा संघ से जुड, उमड़ पड़ा किसान रैला।।
चौरासी लागत कर में से, पैंतीस मांफ हुए उनके।
जुल्मी कारिंदे दफा किये, बेढंगे जुल्म रहे जिनके।।
विजय मिली बेजोड़ सार्थक, नाम विजय सिंह कर डाला।
असहयोग समाप्ति के निर्णय ने, किन्तु विघ्न फिर से डाला।।
पुनः मृत नेतृत्व उभारा, फिर उठा मृत आन्दोलन को।
पर करके गिरफ्तार पथिक, पिडित कर डाला मन को।।
पांच वर्ष की काट कैद, विजय सिंह पथिक बाहर आये। किन्तु चौधरी साथी को, फिर साथ नहीं वे कर पाये।।
पुनः अवज्ञा आन्दोलन में, कूद पड़े होकर निर्भय।
पूरा जीवन लगा दिया, जय-जय किसान, जय पथिक विजय।।
28 मई 1954 को, आ गई वीर को चिर निद्रा।
जागो भारत के नवयुवकों, सीखो छोड़ो अपनी तन्द्रा।।
मरना तो सबको पड़ता है, पर कुछ मर कर भी जी जाते।
आने वाली पीढ़ी के जन, ऐसे लोगों के यश गाते।। समाप्त

10मई सन् 1999 को चैम्बर आँफ कामर्स में मेरे (अशोक चौधरी) साथ गांव जुररानपुर के सुनील भडाना आदि के द्वारा तथा चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के सुभाष चन्द्र बोस सभागार में देहात मोर्चा के द्वारा क्रांति दिवस पर शहीद धन सिंह कोतवाल की याद में कार्यक्रम किये गये। इन दोनों कार्यक्रमों में पूर्व उप मुख्यमंत्री श्री रामचन्द्र विकल तथा तत्कालीन यूपी के राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार चौधरी जयपाल सिंह ने सहभागिता की। 10 मई की पूर्व संध्या 9 मई को भी एक कार्यक्रम शहीद स्मारक पर किया गया।

धन सिंह कोतवाल का चित्र पूरे देश में पहुंचे, इसके लिए अखिल भारतीय गुर्जर महा सभा, जिसका आफिस दिल्ली में है, के तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री रामशरण भाटी व सुधीर बैसला के सहयोग से शहीद धन सिंह कोतवाल के चित्र के साथ अन्य भारतीय महापुरुषों के चित्र से सुशोभित कलेंडर बनवा कर 12 प्रदेशों में 100-100 की संख्या में लगातार चार वर्षों तक पहुंचाया गया।
अब धन सिंह कोतवाल जी का चित्र पूरे भारत में था।
डा सुशील भाटी ने वर्ष 2000 में “1857 की क्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल” नामक शोध पत्र लिखा जिसमे कोतवाल धन सिंह को पहली बार ‘1857 की क्रांति का जनक’ कहा गया और उसे क्रांति की शुरुआत करने का श्रेय दिया गया| 
सन् 2001 में दैनिक मेरठ समाचार पत्र में शहीद विजय सिंह-कल्याण सिंह तथा सन् 2002 में मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर के जीवन पर मेरे (अशोक चौधरी) द्वारा लेख छपे।
तत्कालीन मंत्री चौधरी जयपाल सिंह की सिफारिश से प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्री रमेश पोखरियाल जी के द्वारा धन सिंह कोतवाल की आदमकद प्रतिमा बनकर मेरठ पहुँची, जिसे दो अक्टूबर सन् 2002 में मवाना स्टेंड मेरठ के पास स्थापित कर अनावरण कर दिया गया। अनावरण कार्यक्रम में यूपी के तत्कालीन केबिनेट मंत्री बाबू हुकुम सिंह जी मुख्य अतिथि तथा पूर्व मंत्री चौधरी जयपाल सिंह जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। इस प्रतिमा स्थापना के लिए स्थान दिलवाने में मेरठ नगर निगम के तत्कालीन डिप्टी मेयर श्री सुशील गुर्जर व ग्राम काजीपुर के तत्कालीन पार्षद राजकुमार का सहयोग रहा। डॉ सुशील भाटी द्वारा धन सिंह कोतवाल पर लिखित शोध पत्र का विमोचन किया गया। धन सिंह कोतवाल की मवाना स्टेंड पर मूर्ति लगवाने में समाज सेवी श्री नेपाल सिंह  जी का विशेष सहयोग रहा।
डा सुशील भाटी द्वारा धन सिंह कोतवाल जी पर लिखा लेख-

1857 की जनक्रान्ति के जनक धन सिंह कोतवाल (Dhan Singh Kotwal)
डा. सुशील भाटी

इतिहास की पुस्तकें कहती हैं कि 1857 की क्रान्ति का प्रारम्भ '10 मई 1857' की संध्या को मेरठ में हुआ। हम तार्किक आधार पर कह सकते हैं कि जब 1857 की क्रान्ति का आरम्भ '10 मई 1857' को 'मेरठ' से माना जाता है, तो क्रान्ति की शुरूआत करने का श्रेय भी उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में घटित क्रान्तिकारी घटना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो।
ऐसी सक्रिय क्रान्तिकारी भूमिका अमर शहीद धन सिंह कोतवाल ने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में निभाई थी। 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोही सैनिकों और पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया।1 सैनिकों के विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ की शहरी जनता और आस-पास के गांव विशेषकर पांचली, घाट, नंगला, गगोल इत्यादि के हजारों ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए। इसी कोतवाली में धन सिंह कोतवाल (प्रभारी) के पद पर कार्यरत थे।2 मेरठ की पुलिस बागी हो चुकी थी। धन सिंह कोतवाल क्रान्तिकारी भीड़ (सैनिक, मेरठ के शहरी, पुलिस और किसान) में एक प्राकृतिक नेता के रूप में उभरे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व, उनका स्थानीय होना, (वह मेरठ के निकट स्थित गांव पांचली के रहने वाले थे), पुलिस में उच्च पद पर होना और स्थानीय क्रान्तिकारियों का उनको विश्वास प्राप्त होना कुछ ऐसे कारक थे जिन्होंने धन सिंह को 10 मई 1857 के दिन मेरठ की क्रान्तिकारी जनता के नेता के रूप में उभरने में मदद की। उन्होंने क्रान्तिकारी भीड़ का नेतृत्व किया और रात दो बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया। जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी।3 जेल से छुड़ाए कैदी भी क्रान्ति में शामिल हो गए। उससे पहले पुलिस फोर्स के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। रात में ही विद्रोही सैनिक दिल्ली कूच कर गए और विद्रोह मेरठ के देहात में फैल गया।
मंगल पाण्डे 8 अप्रैल, 1857 को बैरकपुर, बंगाल में शहीद हो गए थे। मंगल पाण्डे ने चर्बी वाले कारतूसों के विरोध में अपने एक अफसर को 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी, बंगाल में गोली से उड़ा दिया था। जिसके पश्चात उन्हें गिरफ्तार कर बैरकपुर (बंगाल) में 8 अप्रैल को फासी दे दी गई थी। 10 मई, 1857 को मेरठ में हुए जनक्रान्ति के विस्फोट से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।
क्रान्ति के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने 10 मई, 1857 को मेरठ मे हुई क्रान्तिकारी घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई।4 मेजर विलियम्स ने उस दिन की घटनाओं का भिन्न-भिन्न गवाहियों के आधार पर गहन विवेचन किया तथा इस सम्बन्ध में एक स्मरण-पत्र तैयार किया, जिसके अनुसार उन्होंने मेरठ में जनता की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्फोट के लिए धन सिंह कोतवाल को मुख्य रूप से दोषी ठहराया, उसका मानना था कि यदि धन सिंह कोतवाल ने अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक प्रकार से किया होता तो संभवतः मेरठ में जनता को भड़कने से रोका जा सकता था।5 धन सिंह कोतवाल को पुलिस नियंत्रण के छिन्न-भिन्न हो जाने के लिए दोषी पाया गया। क्रान्तिकारी घटनाओं से दमित लोगों ने अपनी गवाहियों में सीधे आरोप लगाते हुए कहा कि धन सिंह कोतवाल क्योंकि स्वयं गूजर है इसलिए उसने क्रान्तिकारियों, जिनमें गूजर बहुसंख्या में थे, को नहीं रोका। उन्होंने धन सिंह पर क्रान्तिकारियों को खुला संरक्षण देने का आरोप भी लगाया।6 एक गवाही के अनुसार क्रान्तिकरियों ने कहा कि धन सिंह कोतवाल ने उन्हें स्वयं आस-पास के गांव से बुलाया है।7
यदि मेजर विलियम्स द्वारा ली गई गवाहियों का स्वयं विवेचन किया जाये तो पता चलता है कि 10 मई, 1857 को मेरठ में क्रांति का विस्फोट काई स्वतः विस्फोट नहीं वरन् एक पूर्व योजना के तहत एक निश्चित कार्यवाही थी, जो परिस्थितिवश समय पूर्व ही घटित हो गई। नवम्बर 1858 में मेरठ के कमिश्नर एफ0 विलियम द्वारा इसी सिलसिले से एक रिपोर्ट नोर्थ - वैस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) सरकार के सचिव को भेजी गई। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ की सैनिक छावनी में ”चर्बी वाले कारतूस और हड्डियों के चूर्ण वाले आटे की बात“ बड़ी सावधानी पूर्वक फैलाई गई थी। रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधु की संदिग्ध भूमिका की ओर भी इशारा किया गया था।8 विद्रोही सैनिक, मेरठ शहर की पुलिस, तथा जनता और आस-पास के गांव के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। मेरठ के आर्य समाजी, इतिहासज्ञ एवं स्वतन्त्रता सेनानी आचार्य दीपांकर के अनुसार यह साधु स्वयं दयानन्द जी थे और वही मेरठ में 10 मई, 1857 की घटनाओं के सूत्रधार थे। मेजर विलियम्स को दो गयी गवाही के अनुसार कोतवाल स्वयं इस साधु से उसके सूरजकुण्ड स्थित ठिकाने पर मिले थे।9 हो सकता है ऊपरी तौर पर यह कोतवाल की सरकारी भेंट हो, परन्तु दोनों के आपस में सम्पर्क होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में कोतवाल सहित पूरी पुलिस फोर्स इस योजना में साधु (सम्भवतः स्वामी दयानन्द) के साथ देशव्यापी क्रान्तिकारी योजना में शामिल हो चुकी थी। 10 मई को जैसा कि इस रिपोर्ट में बताया गया कि सभी सैनिकों ने एक साथ मेरठ में सभी स्थानों पर विद्रोह कर दिया। ठीक उसी समय सदर बाजार की भीड़, जो पहले से ही हथियारों से लैस होकर इस घटना के लिए तैयार थी, ने भी अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियां शुरू कर दीं। धन सिंह कोतवाल ने योजना के अनुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वहीं रहने का आदेश दिया।10 आदेश का पालन करते हुए अंगे्रजों के वफादार पिट्ठू पुलिसकर्मी क्रान्ति के दौरान कोतवाली में ही बैठे रहे। इस प्रकार अंग्रेजों के वफादारों की तरफ से क्रान्तिकारियों को रोकने का प्रयास नहीं हो सका, दूसरी तरफ उसने क्रान्तिकारी योजना से सहमत सिपाहियों को क्रान्ति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया।11 धन सिंह कोतवाल अपने गांव पांचली और आस-पास के क्रान्तिकारी गूजर बाहुल्य गांव घाट, नंगला, गगोल आदि की जनता के सम्पर्क में थे, धन सिंह कोतवाल का संदेश मिलते ही हजारों की संख्या में गूजर क्रान्तिकारी रात में मेरठ पहुंच गये। मेरठ के आस-पास के गांवों में प्रचलित किवंदन्ती के अनुसार इस क्रान्तिकारी भीड़ ने धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा लिया12 और जेल को आग लगा दी। मेरठ शहर और कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बन्धित था उसे यह क्रान्तिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी।
उपरोक्त वर्णन और विवेचना के आधार पर हम निःसन्देह कह सकते हैं कि धन सिंह कोतवाल ने 10 मई, 1857 के दिन मेरठ में मुख्य भूमिका का निर्वाह करते हुए क्रान्तिकारियों को नेतृत्व प्रदान किया था।
 1857 की क्रान्ति की औपनिवेशिक व्याख्या, (ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों की व्याख्या), के अनुसार 1857 का गदर मात्र एक सैनिक विद्रोह था जिसका कारण मात्र सैनिक असंतोष था। इन इतिहासकारों का मानना है कि सैनिक विद्रोहियों को कहीं भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था। ऐसा कहकर वह यह जताना चाहते हैं कि ब्रिटिश शासन निर्दोष था और आम जनता उससे सन्तुष्ट थी। अंग्रेज इतिहासकारों, जिनमें जौन लोरेंस और सीले प्रमुख हैं ने भी 1857 के गदर को मात्र एक सैनिक विद्रोह माना है, इनका निष्कर्ष है कि 1857 के विद्रोह को कही भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था, इसलिए इसे स्वतन्त्रता संग्राम नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रवादी इतिहासकार वी0 डी0 सावरकर और सब-आल्टरन इतिहासकार रंजीत गुहा ने 1857 की क्रान्ति की साम्राज्यवादी व्याख्या का खंडन करते हुए उन क्रान्तिकारी घटनाओं का वर्णन किया है, जिनमें कि जनता ने क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था, इन घटनाओं का वर्णन मेरठ में जनता की सहभागिता से ही शुरू हो जाता है। समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश के बन्जारो, रांघड़ों और गूजर किसानों ने 1857 की क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ताल्लुकदारों ने अग्रणी भूमिका निभाई। बुनकरों और कारीगरों ने अनेक स्थानों पर क्रान्ति में भाग लिया। 1857 की क्रान्ति के व्यापक आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कारण थे और विद्रोही जनता के हर वर्ग से आये थे, ऐसा अब आधुनिक इतिहासकार सिद्ध कर चुके हैं। अतः 1857 का गदर मात्र एक सैनिक विद्रोह नहीं वरन् जनसहभागिता से पूर्ण एक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम था। परन्तु 1857 में जनसहभागिता की शुरूआत कहाँ और किसके नेतृत्व में हुई ? इस जनसहभागिता की शुरूआत के स्थान और इसमें सहभागिता प्रदर्शित वाले लोगों को ही 1857 की क्रान्ति का जनक कहा जा सकता है। क्योंकि 1857 की क्रान्ति में जनता की सहभागिता की शुरूआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में मेरठ की जनता ने की थी। अतः ये ही 1857 की क्रान्ति के जनक कहे जा सकते हैं।
10, मई 1857 को मेरठ में जो महत्वपूर्ण भूमिका धन सिंह और उनके अपने ग्राम पांचली के भाई बन्धुओं ने निभाई उसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान छुपी हुई है। ब्रिटिश साम्राज्य की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की कृषि नीति का मुख्य उद्देश्य सिर्फ अधिक से अधिक लगान वसूलना था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने महलवाड़ी व्यवस्था लागू की थी, जिसके तहत समस्त ग्राम से इकट्ठा लगान तय किया जाता था और मुखिया अथवा लम्बरदार लगान वसूलकर सरकार को देता था। लगान की दरें बहुत ऊंची थी, और उसे बड़ी कठोरता से वसूला जाता था। कर न दे पाने पर किसानों को तरह-तरह से बेइज्जत करना, कोड़े मारना और उन्हें जमीनों से बेदखल करना एक आम बात थी, किसानों की हालत बद से बदतर हो गई थी। धन सिंह कोतवाल भी एक किसान परिवार से सम्बन्धित थे। किसानों के इन हालातों से वे बहुत दुखी थे। धन सिंह के पिता पांचली ग्राम के मुखिया थे, अतः अंग्रेज पांचली के उन ग्रामीणों को जो किसी कारणवश लगान नहीं दे पाते थे, उन्हें धन सिंह के अहाते में कठोर सजा दिया करते थे, बचपन से ही इन घटनाओं को देखकर धन सिंह के मन में आक्रोष जन्म लेने लगा।13 ग्रामीणों के दिलो दिमाग में ब्रिटिष विरोध लावे की तरह धधक रहा था।
 1857 की क्रान्ति में धन सिंह और उनके ग्राम पांचली की भूमिका का विवेचन करते हुए हम यह नहीं भूल सकते कि धन सिंह गूजर जाति में जन्में थे, उनका गांव गूजर बहुल था। 1707 ई0 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात गूजरों ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपनी राजनैतिक ताकत काफी बढ़ा ली थी।14 लढ़ौरा, मुण्डलाना, टिमली, परीक्षितगढ़, दादरी, समथर-लौहा गढ़, कुंजा बहादुरपुर इत्यादि रियासतें कायम कर वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक गूजर राज्य बनाने के सपने देखने लगे थे।15 1803 में अंग्रेजों द्वारा दोआबा पर अधिकार करने के वाद गूजरों की शक्ति क्षीण हो गई थी, गूजर मन ही मन अपनी राजनैतिक शक्ति को पुनः पाने के लिये आतुर थे, इस दषा में प्रयास करते हुए गूजरों ने सर्वप्रथम 1824 में कुंजा बहादुरपुर के ताल्लुकदार विजय सिंह और कल्याण सिंह उर्फ कलवा गूजर के नेतृत्व में सहारनपुर में जोरदार विद्रोह किये।16 पश्चिमी उत्तर प्रदेष के गूजरों ने इस विद्रोह में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया परन्तु यह प्रयास सफल नहीं हो सका। 1857 के सैनिक विद्रोह ने उन्हें एक और अवसर प्रदान कर दिया। समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेष में देहरादून से लेकिन दिल्ली तक, मुरादाबाद, बिजनौर, आगरा, झांसी तक। पंजाब, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक के गूजर इस स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। हजारों की संख्या में गूजर शहीद हुए और लाखों गूजरों को ब्रिटेन के दूसरे उपनिवेषों में कृषि मजदूर के रूप में निर्वासित कर दिया। इस प्रकार धन सिंह और पांचली, घाट, नंगला और गगोल ग्रामों के गूजरों का संघर्ष गूजरों के देशव्यापी ब्रिटिष विरोध का हिस्सा था। यह तो बस एक शुरूआत थी।
1857 की क्रान्ति के कुछ समय पूर्व की एक घटना ने भी धन सिंह और ग्रामवासियों को अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित किया। पांचली और उसके निकट के ग्रामों में प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार घटना इस प्रकार है, ”अप्रैल का महीना था। किसान अपनी फसलों को उठाने में लगे हुए थे। एक दिन करीब 10 11 बजे के आस-पास बजे दो अंग्रेज तथा एक मेम पांचली खुर्द के आमों के बाग में थोड़ा आराम करने के लिए रूके। इसी बाग के समीप पांचली गांव के तीन किसान जिनके नाम मंगत सिंह, नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह (अथवा भज्जड़ सिंह) थे, कृषि कार्यो में लगे थे। अंग्रेजों ने इन किसानों से पानी पिलाने का आग्रह किया। अज्ञात कारणों से इन किसानों और अंग्रेजों में संघर्ष हो गया। इन किसानों ने अंग्रेजों का वीरतापूर्वक सामना कर एक अंग्रेज और मेम को पकड़ दिया। एक अंग्रेज भागने में सफल रहा। पकड़े गए अंग्रेज सिपाही को इन्होंने हाथ-पैर बांधकर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से बलपूर्वक दायं हंकवाई। दो घंटे बाद भागा हुआ सिपाही एक अंग्रेज अधिकारी और 25-30 सिपाहियों के साथ वापस लौटा। तब तक किसान अंग्रेज सैनिकों से छीने हुए हथियारों, जिनमें एक सोने की मूठ वाली तलवार भी थी, को लेकर भाग चुके थे। अंग्रेजों की दण्ड नीति बहुत कठोर थी, इस घटना की जांच करने और दोषियों को गिरफ्तार कर अंग्रेजों को सौंपने की जिम्मेदारी धन सिंह के पिता, जो कि गांव के मुखिया थे, को सौंपी गई। ऐलान किया गया कि यदि मुखिया ने तीनों बागियों को पकड़कर अंग्रेजों को नहीं सौपा तो सजा गांव वालों और मुखिया को भुगतनी पड़ेगी। बहुत से ग्रामवासी भयवश गाँव से पलायन कर गए। अन्ततः नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह ने तो समर्पण कर दिया किन्तु मंगत सिंह फरार ही रहे। दोनों किसानों को 30-30 कोड़े और जमीन से बेदखली की सजा दी गई। फरार मंगत सिंह के परिवार के तीन सदस्यों के गांव के समीप ही फांसी पर लटका दिया गया। धन सिंह के पिता को मंगत सिंह को न ढूंढ पाने के कारण छः माह के कठोर कारावास की सजा दी गई। इस घटना ने धन सिंह सहित पांचली के बच्चे-बच्चे को विद्रोही बना दिया।17 जैसे ही 10 मई को मेरठ में सैनिक बगावत हुई धन सिंह और ने क्रान्ति में सहभागिता की शुरूआत कर इतिहास रच दिया।
क्रान्ति मे अग्रणी भूमिका निभाने की सजा पांचली व अन्य ग्रामों के किसानों को मिली। मेरठ गजेटियर केवर्णन के अनुसार 4 जुलाई, 1857 को प्रातः चार बजे पांचली पर एक अंग्रेज रिसाले ने तोपों से हमला किया। रिसाले में 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। पूरे ग्राम को तोप से उड़ा दिया गया। सैकड़ों किसान मारे गए, जो बच गए उनमें से 46 लोग कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को बाद में फांसी की सजा दे दी गई।18 आचार्य दीपांकर द्वारा रचित पुस्तक स्वाधीनता आन्दोलन और मेरठ के अनुसार पांचली के 80 लोगों को फांसी की सजा दी गई थी। पूरे गांव को लगभग नष्ट ही कर दिया गया। ग्राम गगोल के भी 9 लोगों को दशहरे के दिन फाँसी की सजा दी गई और पूरे ग्राम को नष्ट कर दिया। आज भी इस ग्राम में दश्हरा नहीं मनाया जाता।

संदर्भ एवं टिप्पणी

1. मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1963 पृष्ठ संख्या 52
2. वही
3. पांचली, घाट, गगोल आदि ग्रामों में प्रचलित किवदन्ती, बिन्दु क्रमांक 191, नैरेटिव ऑफ इवेन्टस अटैन्डिग द आऊट ब्रैक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड दे रेस्टोरेशन ऑफ औथरिटी इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ 1857-58, नवम्बर 406, दिनांक 15 नवम्बर 1858, फ्राम एफ0 विलयम्बस म्.59 सैकेट्री टू गवर्नमेंट नार्थ-वैस्टर्न प्राविन्स, इलाहाबाद, राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली।
आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, 1993 पृष्ठ संख्या 143
4. वही, नैरेटिव इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ।
5. मैमोरेन्डम ऑन द म्यूंटनी एण्ड आऊटब्रेक ऐट मेरठ इन मई 1857, बाई मेजर विलयम्स, कमिश्नर ऑफ द मिलेट्री पुलिस, नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सिस, इलाहाबाद, 15 नवम्बर 1858; जे0ए0बी0 पामर, म्यूटनी आऊटब्रेक एट मेरठ, पृष्ठ संख्या 90-91।
6. डेपाजिशन नम्बर 54, 56, 59 एवं 60, आफ डेपाजिशन टेकन एट मेरठ बाई जी0 डबल्यू0 विलयम्बस, वही म्यूटनी नैरेटिव इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ।
7. वही, डेपाजिशन नम्बर 66
8. वही, बिन्दु क्रमांक 152, म्यूटनी नैरेटिव इन मेरठ डिस्ट्रिक्ट।
9. वहीं, डेपाजिशन नम्बर 8
10. वही, सौन्ता सिंह की गवाही।
11. वही, डेपाजिशन संख्या 22, 23, 24, 25 एवं 26।
12. वही, बिन्दु क्रमांक 191, नैरेटिव इन मेरठ डिस्ट्रिक्ट; पांचली, नंगला, घाट, गगोल आदि ग्रामों में प्रचलित किंवदन्ती।
13. वही किंवदन्ती।
14. नेविल, सहारनपुर ए गजेटेयर, 1857 की घटना से सम्बंधित पृष्ठ।
15. मेरठ के मजिस्ट्रेट डनलप द्वारा मेजर जनरल हैविट कमिश्नर मेरठ को 28 जून 1857 को लिखा पत्र, एस0ए0ए0 रिजवी, फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश्, खण्ड टए लखनऊ, 1960 पृष्ठ संख्या 107-110।
16. नेविल, वही; एच0जी0 वाटसन, देहरादून गजेटेयर के सम्बन्धित पृष्ठ।
17. वही, किंवदन्ती यह किवदन्ती पांचली ग्राम के खजान सिंह, उम्र 90 वर्ष के साक्षात्कार पर आधारित है।
18. बिन्दु क्रमांक 265, 266, 267, वही, नैरटिव इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ।
                                                   
संदर्भ ग्रन्थ

1. आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, जनमत प्रकाषन, मेरठ 1993
2. मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेनट प्रैस, इलाहाबाद, 1963
3. मयराष्ट्र मानस, मेरठ।
4. रमेश चन्द्र मजूमदार, द सिपोय म्यूटनी एण्ड रिवोल्ट ऑफ 1857
5. एस0 बी0 चैधरी, सिविल रिबैलयन इन इण्डियन म्यूटनीज 1857-59
6. एस0 एन0-सेन, 1857
7. पी0सी0 जोशी रिबैलयन 1857।
8. एरिक स्ट्रोक्स, द पीजेण्ट एण्ड द राज।
9. जे0ए0बी0 पामर, द म्यूटनी आउटब्रेक एट मेरठ
                                                             
मेरे (अशोक चौधरी) द्वारा "1857 का स्वतंत्रता संग्राम और कोतवाल धन सिंह" नामक लघु पुस्तिका जनवरी 2008 में प्रकाशित की गई।
अशोक चौधरी द्वारा धन सिंह कोतवाल जी पर लिखा लेख-

10 मई 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और धन सिंह कोतवाल - लेखक अशोक चौधरी मेरठ

भारत का इतिहास संघर्षों से भरा है, एक वह समय था कि पितामह भीष्म का सामना करने वाला दुनिया में नहीं था। उसके बाद समय ऐसा आया कि भारत मुगल शाही, कुतुब शाही, निजाम शाही व आदिल शाही के चंगुल में फंस गया, ऐसा लगने लगा कि यह सनातन संस्कृति समाप्त हो जायेगी, परंतु छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में भारतीयों ने ऐसी बहादुरी का प्रदर्शन प्रारम्भ किया कि एक समय मुगल बादशाह नाम मात्र का ही रह गया, लेकिन तभी ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में ब्रिटेन ने पूरे भारत पर अधिकार कर लिया, अंग्रेजो का शासन इतना फैल गया कि उनके शासन में सूर्य अस्त ही नहीं रहता था, वे विश्व की सबसे बड़ी शक्ति बन गए, अंग्रेजों ने भारतीयों से बड़ा व्यापार छीन कर अपने हाथ में ले लिया तथा भारतीय व्यापारियों को जमींदारे बेच दिए, साहूकारे के लाइसेंस दे दिये। लगान व ब्याज बडी कठोरता से वसूला जाने लगा, उस वसूली के लिए जिस पुलिस का उपयोग अँग्रेज कर रहे थे, वे किसानों के ही बेटे थे, जिस सेना के बल पर अंग्रेजों ने भारत जीता था वे सिपाही भी भारतीय किसान के ही बेटे थे,अतः जब अंग्रेजों की दमनकारी नीति से किसानों को दर्द हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया सेना व पुलिस मे बंदूक थामे, उसके बेटो में होनी स्वभाविक थी। रही सही कसर डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति ने पूरी कर दी, दारूल इस्लाम के स्थान पर दारूल हरब बन गया था, इसलिए वहाबी भी सक्रिय थे, परंतु हथियार तो सेना व पुलिस के पास थे, जब तक भारतीय सेना अंग्रेजों के विरुद्ध न खडी हो, कोई प्रयास कामयाब नहीं था। वो दिन आया 10 मई 1857 को, जब मेरठ की भारतीय सेना, मेरठ की पुलिस व मेरठ के किसान एक साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से भिड़ गए। आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक सिपाही से लेकर सामान्य आदमी विश्व की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ गया। सामान्य किसान अपने सर से कफन बांध कर अपने देश की सेना व पुलिस के साथ मेरठ में खडा हो गया।
उस समय मेरठ में दो कोतवाली थी, एक शहर कोतवाली दूसरी सदर कोतवाली। सदर कोतवाली छावनी की वजह से थी जो केंट क्षेत्र की कानून व्यवस्था देखती थी। दिल्ली से मेरठ व सहारनपुर, देहरादून तक गंगा यमुना के बीच का क्षेत्र जाट, गूजर, राजपूत बाहुल्य था आज भी है, ये जातियां हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्मों में मजबूत स्थिति में थी, पूर्वी परगना नाम से गूजर रियासत थी जिसे राजा जैत सिंह नागर ने सन् 1749 में मुगलों से लडकर प्राप्त किया था, वारिस ना होने के कारण इस रियासत को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था, अंतिम राजा नत्था सिंह के चाचा के पौत्र राव कदम सिंह जो रियासत की राजधानी किला परिक्षत गढ के निकट गांव पूठी में निवास करते थे, अंग्रेजों से रियासत वापस लेने की ताक में थे, राव कदम सिंह केे चचेरे तीन भाई क्रमशः दलेल सिंह, पिरथी सिंह व देवी सिंह थे, इनका सम्पर्क बिजनौर के नजीबाबाद के नवाब महमूद खान से था, महमूद खान का सम्बन्ध बरेली के बख्त खान से था और बख्त खान दिल्ली के बहादुर शाह जफर के सम्पर्क में था, राव कदम सिंह केे चचेरे भाई दलेल सिंह की पांचली में शादी हुई थी। इस प्रकार कदम सिंह की रिश्तेदारी बागपत रोड पर स्थित गांव पाचली के मुखिया सालगराम से थी, सालगराम मुखिया के सात बेटे थे, जिनके नाम क्रमशः चैनसुख, नैनसुख, हरिसिंह, धनसिंह, मोहर सिंह, मैरूप सिंह व मेघराज सिंह थे, इनमें धनसिंह सालगराम मुखिया के चौथे पुत्र थे, धन सिंह का जन्म 27 नवम्बर सन् 1814 दिन रविवार (सम्वत् 1871 कार्तिक पूर्णिमा) को प्रात:करीब छ:बजे माता मनभरी के गर्भ से हुआ था। धन सिंह मेरठ की सदर कोतवाली में पुलिस में थे।उस समय अंग्रेज छोटी नौकरियों में भर्ती स्थानीय राजाओं और जागीरदारों की सिफारिश पर करते थे। इसलिए प्रबल सम्भावना है कि धन सिंह कोतवाल जी की पुलिस में नौकरी किला परिक्षत गढ़ रियासत के केयर टेकर राव कदम सिंह की सिफारिश पर लगी हो।

 राव कदम सिंह गांव पांचली व बेगमाबाद (वर्तमान में मोदीनगर) के पास स्थित गांव सीकरी में अपनी गढ़ी बनाना चाहते थे, अतः जब क्रांति की तैयारी चल रही थी, गांव गांव रोटी और कमल का फूल लेकर प्रचार किया जा रहा था, तथा क्रांति की तिथि 31 मई निश्चित की गई थी, क्योंकि धनसिंह पुलिस में थे, वो जानते थे कि सब कार्य क्रांतिकारियों की योजना से होने मुश्किल है, अंग्रेजों का खुफिया तंत्र हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा रहेगा, अतः धनसिंह ने अपने गांव के आसपास सीकरी तक अपने सजातीय बंधुओं को यह समझा दिया था कि वह हर समय तैयार रहे, ताकि आवश्यकता पडने पर कम से कम समय में जहां जरूरत हो पहुंच सके।
10 मई 1857 को मेरठ में जो महत्वपूर्ण भूमिका धनसिंह और उनके अपने गांव पांचली के भाई बन्धुओं ने निभाई उसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान छुपी हुई है। धन सिंह कोतवाल एक किसान परिवार से थे। धन सिंह के पिता पांचली गांव के मुखिया थे, अतः अंग्रेज पांचली के उन ग्रामीणों को जो किसी कारणवश लगान नहीं दे पाते थे, उन्हें धनसिंह के अहाते में कठोर सजा दिया करते थे।
1857 की क्रांति के कुछ समय पूर्व अप्रेल के महीने में घटी एक घटना ने भी धनसिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने को मजबूर कर दिया। गांवो में प्रचलित किवदंती के अनुसार "किसान अपनी फसल उठाने में लगे थे। एक दिन करीब 10-11 बजे के आसपास दो अँग्रेज तथा एक अंग्रेज मेम पांचली खुर्द के आमों के बाग में थोड़ा आराम करने के लिए रूके। इसी बाग के निकट पांचली गांव के तीन किसान जिनके नाम मंगत सिंह, नरपत सिंह और झज्जड सिंह थे, कृषि कार्यो में लगे थे। अंग्रेजों ने इन किसानों से पानी पिलाने का आग्रह किया। किसी बात को लेकर इन किसानों व अंग्रेजों में संघर्ष हो गया। इन किसानों ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया, एक अंग्रेज व मेम को पकड़ लिया। एक अंग्रेज भागने में सफल हो गया। पकड़े गए अंग्रेज सिपाही को किसानों ने हाथ-पैर बांध कर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से बलपूर्वक दांय हकवाई। दो घंटे बाद भागा हुआ सिपाही एक अंग्रेज अधिकारी और 25-30 सिपाहियों के साथ वापस आ धमका। तब तक किसान अंग्रेज सैनिकों से छिने हुए हथियारों, जिनमें सोने के मूठ वाली एक तलवार भी थी, को लेकर भाग चुके थे। अंग्रेजों ने इस घटना की जांच करने और दोषियों को गिरफ्तार कर शासन को सौंपने की जिम्मेदारी धनसिंह के पिता को सौंपी। घोषणा कर दी गई कि यदि मुखिया ने तीनों बागियों को पकड़कर शासन को नहीं सौंपा तो सजा गांव वालों और मुखिया को मिलेगी। बहुत से गांववासी भयवश गांव से पलायन कर गए। आखिर में नरपत सिंह और झज्जड सिंह ने तो समर्पण कर दिया किन्तु मंगतसिंह को नहीं पकड़ा जा सका। दोनों किसानों को 30-30 कोडे और जमीन से बेदखली की सजा दी गई। फरार मंगतसिंह के परिवार के तीन सदस्यों को गांव के समीप ही फांसी पर लटका दिया गया। धन सिंह के पिता को मंगतसिंह को न ढूंढ पाने के जुर्म में छ:माह के कठोर कारावास की सजा दी गई। अतः जब 10 मई को क्रांति हुई तो धनसिंह कोतवाल के पिता भी मेरठ की उसी जेल में बंद थे जो उन्होंने रात को तोड दी।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था। मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो पैदल रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। उन्हें भारतीय सिपाहियों से मेरठ में कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा था।
मेरठ में क्रांति का कार्यक्रम बड़ी बुद्धिमानी से बनाया गया था। कार्यक्रम इस प्रकार था कि सबसे पहले अचानक आक्रमण किया जाय, बंदी सैनिकों को जेल से मुक्त कराते ही अंग्रेजों का वध प्रारंभ कर दिया जाये। जब अंग्रेज सहसा होने वाले विस्फोट से घबरा उठें तो मेरठ की जनता पुलिस के नेतृत्व में शहर में सभी अंग्रेजों से सम्बंधित ठिकानों पर हमला कर दें। जिससे अंग्रेजों को यह पता ही न चले कि संघर्ष का केंद्र स्थल कहा है।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सीकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। धनसिंह कोतवाल ने योजना के अनुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वही रहने का आदेश दिया। आदेश का पालन करते हुए अंग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी क्रांतिकारी घटनाओं के दौरान कोतवाली में ही बैठे रहे। दूसरी तरफ धनसिंह कोतवाल ने क्रांतिकारी योजनाओं से सहमत सिपाहियों को क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी, मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
11 मई को सेना ने दिल्ली पहुंच कर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और अंग्रेजों को दिल्ली के बाहर खदेड़ दिया।
ग्यारह मई को जब मेरठ में घटित घटनाओं की सूचना आसपास क्षेत्र में पहुँचते ही बडौत के पास के गांव बिजरोल के जाट जमींदार चौधरी शाहमल सिंह, सरधना के पास अकलपुरा के राजपूत ठाकुर नरपत सिंह, बरनावा के पास गढी गांव के राजपूत मुसलमान (रांघड) कलंदर खान ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर क्षेत्र से लगान वसूलना शुरू कर दिया। किला परिक्षत गढ के राव कदम सिंह ने अपने आप को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया।
परंतु 10 मई की क्रांति की घटनाओं के बाद से अंग्रेजों की गतिविधियों व भारतीयों की गतिविधियों में एक बड़ा अंतर रहा, जहां अंग्रेजों की गतिविधि अत्यधिक तेज थी वहीं भारतीयों की गतिविधियां मन्द गति से चल रही थी। उसका सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक संचार प्रणाली का होना था। सन् 1853 में ही भारत में इलेक्ट्रॉनिक टेलिग्राफ का प्रवेश हो गया था। सन् 1857 तक अंग्रेजों ने भारत के सभी महत्वपूर्ण नगरों को टेलिग्राफ के द्वारा जोड़ दिया था।
मेरठ से बाहर जाने वाले आगरा -दिल्ली मार्ग को क्रांतिकारियों ने पूरी तरह से रोक दिया था, जिस कारण से मेरठ का सम्पर्क अन्य केंद्रों से कट गया था। अंग्रेजों ने अपने शासन की व्यवस्था बनाने के प्रयास शुरू कर दिए। आगरा उस समय उत्तर -पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। अंग्रेज आगरा से सम्पर्क टूट जाने से बहुत परेशान थे। नूरनगर, लिसाडी व गगोल के क्रांतिकारियों ने बुलंदशहर -आगरा मार्ग को रोक सूचना तंत्र भंग कर दिया था।
तीन जून को अंग्रेजों ने फोर्स लेकर मेरठ शहर के कोतवाल बिशन सिंह यादव को अंग्रेज सेना को गाईड करने का आदेश दिया। परंतु बिशन सिंह यादव ने पहले ही हमले की सूचना गगोल के क्रांतिकारियों को दे दी तथा जानबूझकर अंग्रेजी फोर्स के पास देर से पहुंचे। जब यह फोर्स गगोल पहुंची, तब तक सभी ग्रामीण भाग चुके थे, अंग्रेजों ने गांव में आग लगा दी। बिशन सिंह भी सजा से बचने के लिए फरार हो गये।
वहाबी सेनापति बख्त खान बरेली से सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। सेना दिल्ली ना पहुंचे, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने गढ़ मुक्तेश्वर में बने पीपे के पुल को तोड दिया। परंतु राव कदम सिंह ने 27 जून को नावों की व्यवस्था कर बख्त खान की सेना को गंगा पार करा दी। तब मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे। इस फोर्स को लेकर सबसे पहले क्रांतिकारियों के गढ़ धनसिंह कोतवाल के गांव पांचली, नगला, घाट गांव पर कार्रवाई करने की योजना बनी।
धनसिंह कोतवाल पुलिस में थे, वह क्रांतिकारी गतिविधियों में राव कदम सिंह के सहयोगी थे, अतः उनके पास भी अपना सूचना तंत्र था, धनसिंह को इस हमले की भनक लग गई। वह तीन जुलाई की शाम को ही वह अपने गांव पहुंच गए। धनसिंह ने पांचली, नंगला व घाट के लोगों को हमले के बारे में बताया और तुरंत गांव से पलायन की सलाह दी। तीनों गांव के लोगों ने अपने परिवार की महिलाएं, बच्चों, वृद्धों को अपनी बैलगाड़ियो में बैठाकर रिश्तेदारों के यहाँ को रुखसत कर दिया। धनसिंह जब अपनी हबेली से बाहर निकले तो उन्होंने गांव की चौपाल पर अपने भाई बंधुओं को हथियारबंद बैठे देखा, ये वही लोग थे जो धनसिंह के बुलावे पर दस मई को मेरठ पहुंचे थे। धनसिंह ने उनसे वहां रूकने व एकत्र होने का कारण पूछा। जिस पर उन्होंने जबाब दिया कि हम अपने जिंदा रहते अपने गांव से नहीं जायेंगे, जो गांव से जाने थे वो जा चुके हैं। आप भी चले जाओ। धन सिंह परिस्थिती को समझ गए कि उनके भाई बंधु साका के मूड में आ गए हैं। जो लोग उनके बुलावे पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ने मेरठ पहुंच गए थे, उन्हें आज मौत के मुंह में छोड़कर कैसे जाएं। धनसिंह ने अपना निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने गाँव के क्रांतिकारियों को हमले का मुकाबला करने के लिए जितना हो सकता था मोर्चाबंद कर लिया।
चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने गांव पर हमला कर दिया। अँग्रेज अफसर ने जब गाँव में मुकाबले की तैयारी देखी तो वह हतप्रभ रह गया। वह इस लड़ाई को लम्बी नहीं खींचना चाहता था, क्योंकि लोगों के मन से अंग्रेजी शासन का भय निकल गया था, कहीं से भी रेवेन्यू नहीं मिल रहा था और उसका सबसे बड़ा कारण था धनसिंह कोतवाल व उसका गांव पांचली। अतः पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 40 कैद कर लिए गए और इनमें से 36 को मिल्ट्री कमीशन के माध्यम से फांसी दे दी गई। मृतकों की किसी ने शिनाख्त नहीं की। इस हमले के बाद धनसिंह कोतवाल की कहीं कोई गतिविधि नहीं मिली, सम्भवतः धनसिंह कोतवाल भी इसी गोलीबारी में अपने भाई बंधुओं के साथ शहीद हो गए। उनकी शहादत को शत् -शत् नमन।

10 मई 1857 को मेरठ में हुई क्रांतिकारी घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई।

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परिशिष्ट
मेजर विलियम्स ने 10 मई की घटनाओं का भिन्न-भिन्न गवाहियों (डेपोजिशंस) के आधार पर गहन विवेचन किया तथा इस सम्बन्ध में एक स्मरण पत्र तैयार किया। जिसके अनुसार उन्होंने मेरठ में जनता की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्फोट के लिए धनसिंह कोतवाल को मुख्य रूप से दोषी ठहराया, उसका मानना था कि यदि धनसिंह कोतवाल ने अपने कर्तव्य का निर्वाह ब्रिटिश हित के लिए किया होता तो सम्भवतः मेरठ में जनता को भडकने से रोका जा सकता था। धनसिंह कोतवाल को पुलिस नियंत्रण के छिन्न-भिन्न हो जाने के लिए दोषी ठहराया गया। क्रांतिकारी घटनाओं से दमित लोगों ने अपनी गवाहियों में सीधे आरोप लगाते हुए कहा कि धनसिंह कोतवाल क्योंकि स्वयं गूजर था इसलिए उसने विद्रोहियों, जिनमें गूजर बहुसंख्यक थे, को नहीं रोका। उन्होंने धनसिंह पर विद्रोहियों को खुला संरक्षण देने का आरोप भी लगाया। डेपोजिशंन (गवाही) संख्या 66 के अनुसार क्रांतिकारियों ने कहा कि धनसिंह कोतवाल ने स्वयं उन्हें आस-पास के गांव से बुलाया है।
नवम्बर 1858 में मेरठ के कमिश्नर एफ विलियम द्वारा इसी सिलसिले में एक रिपोर्ट नॉर्थ -वेस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) सरकार के सचिव को भेजी गई। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ की सैनिक छावनी में "चर्बी वाले कारतूस और हड्डियों के चूर्ण वाले आटे की बात" बड़ी सावधानी पूर्वक फैलाई गई थी। रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधु (हिन्दू फकीर) की संदिग्ध भूमिका की ओर भी इशारा किया गया था। भारतीय सैनिक, मेरठ शहर की पुलिस और जनता तथा आसपास के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। मेजर विलियम्स को दी गई गवाही संख्या 8 के अनुसार सदर कोतवाल स्वयं इस साधु से उसके सूरज कुण्ड स्थित ठिकाने पर मिले थे। हो सकता है कि ऊपरी तौर पर यह कोतवाल की सरकारी भेंट हो, परन्तु दोनों के आपस में सम्पर्क होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में कोतवाल सहित पूरी पुलिस इस योजना में साधु (सम्भवतः स्वामी दयानंद) के साथ शामिल हो चुकी थी।

संदर्भ ग्रन्थ

1- 1857 की जनक्रांति के जनक धनसिंह कोतवाल,गगोल का बलिदान, हिंडन का युद्ध, क्रांतिकारियों के सरताज राव कदम सिंह -डॉ सुशील भाटी।
2- 1857 के क्रांतिनायक शहीद धनसिंह कोतवाल का सामान्य जीवन परिचय -तस्वीर सिंह चपराणा।
3- UTTAR PRADESH DISTRICT GAJETTEERS MEERUT -shrimati Esha Basanti JoshI
4- क्षेत्र में प्रचलित किवदंतियां।
5- दैनिक जागरण मेरठ 8 मई 2007 -वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई, धन सिंह गुर्जर: क्रांति के कर्मठ सिपाही।


चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के तत्कालीन वीसी श्री रमेश चंद्रा द्वारा विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्कालीन महामंत्री श्री जयवीर सिंह राणा के प्रस्ताव पर धन सिंह कोतवाल सामुदायिक केंद्र के नाम से एक भवन का नामकरण किया गया। सन् 2015 में श्री सुनील भडाना के द्वारा अपने गांव जुररानपुर में शहीद धन सिंह कोतवाल हाईस्कूल विद्यालय का निर्माण कराया गया। पांचली  गांव के तत्कालीन प्रधान श्री भोपाल सिंह तथा होमगार्ड के इंस्पेक्टर श्री वेदपाल चपराणा के प्रयास से तत्कालीन केबिनेट मंत्री, होमगार्डस एवं प्रान्तीय रक्षा दल उत्तर प्रदेश सरकार श्री वेदराम भाटी के द्वारा मार्च 2010 में शहीद धन सिंह कोतवाल मण्डलीय प्रशिक्षण केन्द्र होमगार्ड का शिलान्यास कर दिया गया। जिसका लोकार्पण मई 2016 में हुआ। पांचली में अधूरे शहीद स्मारक को तत्कालीन विधायक श्री विनोद हरित की विधायक निधि के सहयोग से पूर्ण कर दिया गया। सुभारती विश्वविद्यालय के एक गेट का नाम शहीद धन सिंह कोतवाल के नाम पर रख दिया गया है।
धन सिंह कोतवाल मेरठ की सदर कोतवाली के कोतवाल थे। हम सब साथियों की इच्छा थी कि उनकी प्रतिमा सदर थाने में होनी चाहिए। सन् 2012 में सतवीर सिंह गुर्जर जो वर्तमान में हापुड़ जिला के बिरसंगपुर गांव के निवासी हैं तथा गांव के प्रधान भी रहे हैं के साथ जाकर सदर थाने के एसएचओ को धन सिंह कोतवाल का एक बड़ा चित्र भेंट किया।सतवीर गुर्जर के साथ धन सिंह कोतवाल जी के मेरठ में प्रचार में सेवानिवृत्त उत्तर प्रदेश पुलिस उपाधीक्षक श्री ओमप्रकाश वर्मा जो मेरठ में गढ रोड पर त क्षशीला कालोनी में रहते थे, का भी सहयोग रहा। उसके पश्चात प्रत्येक 10 मई को तत्कालीन विधायक श्री रविन्द्र भडाना और मे (अशोक चौधरी) इस चित्र पर माल्यार्पण करने के लिए प्रत्येक वर्ष जाते रहे हैं।
इस वर्ष 10 मई 2018 को पूर्व विधायक रविन्द्र भडाना जी और मे (अशोक चौधरी)सदर थाने में चित्र पर माल्यार्पण करने के बाद मवाना स्टेंड पर लगी धन सिंह कोतवाल की प्रतिमा पर पहुंचे। इत्तेफाक से उसी समय मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक श्री राजेश कुमार पाण्डेय भी पहुंच गए। वहां पर कर्मवीर गुमी व जगदीश पूठा ने अपने साथियों के साथ मंच, माईक व जलपान की व्यवस्था कर रखी थी। पाण्डेय जी के मन में शहीदों के प्रति जितना सम्मान मैने देखा, वह बिरले लोगों में ही मिलता है। सन् 1947 से आज तक लगातार अधिकारी मेरठ में आते जाते रहे हैं। परन्तु उन सब ने 10 मई क्रांति दिवस पर प्रतिमाओं पर माल्यार्पण का फर्ज निभाया और अपने काम से काम रखते रहे। लेकिन पाण्डेय जी ने वही पर अपने सम्बोधन में कहा कि जिस शहीद ने अपने लहू से सैनिक विद्रोह को क्रांति में बदल दिया, उसकी प्रतिमा सदर थाने में लगेगी। जिसमें वह कोतवाल रहे हैं। अपनी कथनी को करनी में बदलते हुए, तीन जुलाई सन् 2018 को प्रतिमा का अनावरण पाण्डेय जी के अथक प्रयास के कारण उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक श्री ओपी सिंह के के कर कमलों से सदर थाने में कर दिया गया।
12 जुलाई सन् 2018 को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में कोतवाल धन सिंह की प्रतिमा का अनावरण विश्वविद्यालय के वीसी प्रोफेसर नरेंद्र कुमार तनेजा के प्रयास से उतर प्रदेश के राज्यपाल श्री रामनाईक व उप मुख्यमंत्री डॉ दिनेश शर्मा के कर कमलों द्वारा कर दिया गया है।
शहीद धनसिंह कोतवाल पब्लिक स्कूल, नर्सरी से कक्षा आठ तक,संचालक श्री इन्द्रकुमार, नंगला जमालपुर जिला मेरठ (उ0 प्र0)। 3 जुलाई सन् 2019, अंदावली ब्लाक दौराला जिला मेरठ, से अंदावली ब्लाक दौराला जिला मेरठ, सेवानिवृत्त कैप्टन श्री ॠषिपाल सिंह के प्रयास से, गांव प्रधान शिवकुमार जी के प्रस्ताव पर, कर्मवीर सिंह गुमी व जगदीश पूठा जी की आर्थिक सहायता से सन् 1857 की क्रांति के नायक धनसिंह कोतवाल की प्रतिमा व 1971 के शहीद प्रितम सिंह के नाम का शिलापट लगवाया गया।
23फरवरी सन् 2020को मेरठ जिले के किला-परिक्षतगढ के निकट पूठी गांव में कोतवाल धन सिंह जी की प्रतिमा का अनावरण राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार उत्तर प्रदेश श्री अशोक कटारिया जी के द्वारा किया गया।

23 मार्च सन् 2021 को मेरठ के मवाना में नवजीवन किसान इंटर कालेज (गुर्जर कालेज) में धन सिंह कोतवाल जी की एक मूर्ति की स्थापना की गई।इस अवसर पर समाजवादी पार्टी के नेता अतुल प्रधान के द्वारा एक विशाल रैली की गई तथा समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने इस रैली में शामिल होकर कोतवाल धन सिंह गुर्जर की मूर्ति का अनावरण किया।

13 नवंबर सन् 2021 को धन सिंह कोतवाल जी के पेतृक गांव पांचली खुर्द मे स्थित गुरुकुल सर्वोदय इंटर कॉलेज का नाम बदल कर "क्रांतिनायक धन सिंह कोतवाल इंटर कालेज" कर दिया गया है।
10 मई सन् 2022 को उत्तर प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री आदित्य नाथ/योगी जी क्रांति दिवस के अवसर पर मेरठ पधारे तथा सन् 1857 के क्रांतिकारियों को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए,मवाना स्टेंड मेरठ के पास कोतवाल धन सिंह गुर्जर की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर शहीदों के प्रति अपना आदर प्रकट किया। 
मेरठ में स्थित पुलिस ट्रेनिंग सेंटर जो तेजगढी से हापुड़ रोड की ओर जाते समय एल ब्लाक से काजीपुर गांव जाने वाली सड़क पर है,का नाम कोतवाल धन सिंह गुर्जर पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र कर दिया गया है।
धन सिंह कोतवाल के वंशज वीर महेंद्र सिंह, श्रीमती सुशीला सिंह व श्री धर्मेन्द्र सिंह राणा का माला पहनाकर सम्मान किया।
माननीय योगी जी उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री है जिन्होंने 10 मई को मेरठ पहुंच कर सन् 1857 के क्रांतिकारियों के प्रति अपना आदर प्रकट किया है।
29 अक्टूबर सन् 2002 को मेरठ के आईएमए हांल में आयोजित कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन पशु धन मंत्री डॉ लक्ष्मीकांत वाजपेयी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। मंत्री जी के करकमलो द्वारा डां सुशील भाटी द्वारा लिखित लघु पुस्तिका "स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत शहीद विजय सिंह -कल्याण सिंह" का विमोचन हुआ।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत- राजा विजय सिंह एवं कलवा गूजर
 डा. सुशील भाटी 

1757 ई0 में प्लासी के युद्व के फलस्वरूप भारत में अग्रेंजी राज्य की स्थापना के साथ ही भारत में उसका विरोध प्रारम्भ हो गया, और 1857 की क्रान्ति तक भारत में अनेक संघर्ष हुए, जैसे सन् 1818 में खानदेश के भीलों और राजस्थान के मेरो ने संघर्ष किया। सन् 1824 में वर्मा युद्व में अंग्रेजो की असफलता और उसके साथ ही बैरकपुर छावनी में 42-नैटिव इन्फैन्ट्री द्वारा किये गये विद्रोह में उत्साहित होकर भारतीयों ने एकसाथ सहारनपुर-हरिद्वार क्षेत्र, रोहतक और गुजरात में कोली बाहुल्य क्षेत्र में जनविद्रेाह कर स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयास किये। तीनो स्थानों पर भारतीयों ने जमकर अंग्रेजी राज्य से टक्कर ली और अपने परम्परागत सामती वर्ग के नेतृत्व में अंग्रेजी राज्य को उखाड-फेकने का प्रयास किया। जिस प्रकार सन् 1857 में क्रान्ति सैनिक विद्रोह से शुरू हुई थी और बाद में जन विद्रोह में परिवर्तित हो गयी थी। इसी प्रकार का एक घटना क्रम सन् 1824 में घटित हुआ। कुछ इतिहासकारों ने इन घटनाओं के साम्य के आधार पर सन 1824 की क्रान्ति को सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रगामी और पुर्वाभ्यास भी कहा है। सन् 1824 में सहारपुर-हरिद्वार क्षेत्र मे स्वतन्त्रता-संग्राम की ज्वाला उपरोक्त अन्य स्थानों की तुलना में अधिक तीव्र थी। 

आधुनिक हरिद्वार जनपद में रूडकी शहर के पूर्व में लंढौरा नाम का एक कस्बा है यह कस्बा सन् 1947 तक पंवार वंश के राजाओं की राजधानी रहा है। अपने चरमोत्कर्ष में लंढौरा रियासत में 804 गाँव थे और यहां के शासको का प्रभाव समूचे पश्चिम उत्तर प्रदेश में था। हरियाणा के करनाल क्षेत्र और गढ़वाल में भी इस वंश के शासकों का व्यापक प्रभाव था। सन् 1803 में अंग्रेजो ने ग्वालियर के सिन्धियाओं को परास्त कर समस्त उत्तर प्रदेश को उनसे युद्व हजीने के रूप में प्राप्त कर लिया। अब इस क्षेत्र में विधमान पंवार वंश की लंढौरा, नागर वंश की बहसूमा (मेरठ), भाटी वंश की दादरी (गौतम बुद्व नगर), जाटो की कुचेसर (गढ क्षेत्र) इत्यादि सभी ताकतवर रियासते अंग्रेजो की आँखों में कांटे की तरह चुभले लगी। सन् 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह की मृत्यू हो गयी। उनके उत्तराधिकारी के प्रश्न पर राज परिवार में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गये। स्थिति का लाभ उठाते हुये अंग्रेजी सरकार ने रिायसत कोभिन्न दावेदारों में बांट दिया और रियासत के बडे हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया। लंढौरा रियासत का ही ताल्लुका था, कुंजा-बहादरपुर, जोकि सहारनपुर-रूडकी मार्ग पर भगवानपुर के निकट स्थित है, इस ताल्लुके मे 44 गाँव थे सन् 1819 में विजय सिंह यहां के ताल्लुकेदार बने। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी थे। विजय सिंह के मन में अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीतियों के विरूद्व भयंकर आक्रोश था। वह लंढौरा रियासत के विभाजन को कभी भी मन से स्वीकार न कर सके थे। 

दूसरी ओर इस क्षेत्र में शासन के वित्तीय कुप्रबन्ध और कई वर्षों के अनवरत सूखे ने स्थिति को किसानों के लिए अति विषम बना दिया, बढते राजस्व और अंग्रेजों के अत्याचार ने उन्हें विद्रोह करने के लिए मजबूर कर दिया। क्षेत्र के किसान अंग्रेजों की शोषणकारी कठोर राजस्व नीति से त्रस्त थे और संघर्ष करने के लिए तैयार थे। किसानों के बीच में बहुत से क्रान्तिकारी संगठन जन्म ले चुके थे। जो ब्रिटिश शासन के विरूद्व कार्यरत थे। ये संगठन सैन्य पद्वति पर आधारित फौजी दस्तों के समान थे, इनके सदसय भालों और तलवारों से सुसज्जित रहते थे, तथा आवश्यकता पडने पर किसी भी छोटी-मोटी सेना का मुकाबला कर सकते थे। अत्याचारी विदेशी शासन अपने विरूद्व उठ खडे होने वाले इन सैनिक ढंग के क्रान्तिकारी संगठनों को डकैतो का गिरोह कहते थे। लेकिन अंग्रेजी राज्य से त्रस्त जनता का भरपूर समर्थन इन संगठनों केा प्राप्त होता रहा। इन संगठनों में एक क्रान्तिकारी संगठन का प्रमुख नेता कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर था। यह संगठन देहरादून क्षेत्र में सक्रिय था, और यहां उसने अंग्रेजी राज्य की चूले हिला रखी थी दूसरे संगठन के प्रमुख कुवर गुर्जर और भूरे गुर्जर थें। यह संगठन सहारनपुर क्षेत्र में सक्रिय था और अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बना हुआ था। सहारनपुर-हरिद्वार-देहरादून क्षेत्र इस प्रकार से बारूद का ढेर बन चुका था। जहां कभी भी ब्रिटिश विरोधी विस्फोट हो सकता था। 

कुंजा-बहादरपुर के ताल्लुकेदार विजय सिंह स्थिति पर नजर रखे हुए थें। विजय सिंह के अपनी तरफ से पहल कर पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी अंग्रेज विरोधी जमीदारों, ताल्लुकेदारों, मुखियाओं, क्रान्तिकारी संगठनों से सम्पर्क स्थापित किया और एक सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजों को खदेड देने की योजना उनके समक्ष रखी। विजय सिंह के आवहान पर ब्रिटिश किसानों की एक आम सभा भगवानपुर जिला-सहारनपुर में बुलायी गयी। सभा में सहारनपुर हरिद्वार, देहरादून-मुरादाबाद, मेरठ और यमुना पार हरियाणा के किसानों ने भाग लिया। सभा में उपस्थित सभी किसानों ने हर्षोउल्लास से विजय सिंह की क्रान्तिकारी योजना को स्वीकारकर लिया। सभा ने विजय सिंह को भावी मुक्ति संग्राम का नेतृत्व सभालने का आग्रह किया, जिसे उन्हौने सहर्ष स्वीकार कर लिया। समाज के मुखियाओं ने विजय सिंह को भावी स्वतन्तत्रा संग्राम में पूरी सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया। कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर ने भी विजय सिंह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। अब विजय सिंह अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने के लिए किसी अच्छे अवसर की ताक में थे। सन् 1824 में बर्मा के युद्व में अंग्रेजो की हार के समाचार ने स्वतन्त्रता प्रेमी विजय सिंह के मन में उत्साह पैदा कर दिया। तभी बैरकपुर में भारतीय सेना ने अंग्रेजी सरकार के विरूद्व विद्रोह कर दिया। समय को अपने अनुकूल समझ विजयसिंह की योजनानुसार क्षेत्री किसानों ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। 

स्वतन्त्रता संग्राम के आरम्भिक दौर में कल्याण सिंह अपने सैन्य दस्ते के साथ शिवालिक की पहाडियों में सक्रिय रहा और देहरादून क्षेत्र में उसने अच्छा प्रभाव स्थापित कर लिया। नवादा गाँव के शेखजमां और सैयाजमां अंग्रेजो के खास मुखबिर थे, और क्रान्तिकारियों की गतिविधियों की गुप्त सूचना अंग्रेजो को देते रहते थे। कल्याणसिंह ने नवादा गाँव पर आक्रमण कर इन गददारों को उचित दण्ड प्रदान किया, और उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। नवादा ग्राम की इसघटना से सहायक मजिस्ट्रेट शोर के लिये चेतावनी का कार्य किया और उसे अंग्रेजी राज्य के विरूद्व एक पूर्ण सशस्त्र क्रान्ति के लक्षण दिखाई पडने लगें। 30 मई 1824 को कल्याण सिंह ने रायपुर ग्राम पर आक्रमण कर दिया और रायपुर में अंग्रेज परस्त गददारों को गिरफ्तार कर देहरादून ले गया तथा देहरादून के जिला मुख्यालय के निकट उन्हें कडी सजा दी। कल्याण सिंह के इस चुनौती पूर्ण व्यवहार से सहायक मजिस्ट्रेट शोर बुरी तरह बौखला गया स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये उसने सिरमोर बटालियन बुला ली। कल्याण सिंह के फौजी दस्ते की ताकत सिरमौर बटालियन से काफी कम थी अतः कल्याण सिंह ने देहरादून क्षेत्र छोड दिया, और उसके स्थान पर सहारनपुर, ज्वालापुर और करतापुर को अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। 7 सितम्बर सन 1824 को करतापुर पुलिस चैकी को नष्ट कर हथियार जब्त कर लियो। पांच दिन पश्चात उसने भगवानपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। सहारनपुर के ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट ग्रिन्डल ने घटना की जांच के आदेश कर दिये। जांच में क्रान्तिकारी गतिविधियों के कुंजा के किले से संचालित होने का तथ्य प्रकाश में आया। अब ग्रिन्डल ने विजय सिंह के नाम सम्मन जारी कर दिया, जिस पर विजयसिंह ने ध्यान नहीं दिया और निर्णायक युद्व की तैयारी आरम्भ कर दी।

 एक अक्टूबर सन् 1824 को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित 200 पुलिस रक्षकों की कडी सुरक्षा में सरकारी खजाना ज्वालापुर से सहारनपुर जा रहा था। कल्याण सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने काला हाथा नामक स्थान पर इस पुलिस दल पर हमला कर दिया। युद्व में अंग्रेजी पुलिस बुरी तरह परास्त हुई और खजाना छोड कर भाग गयी। अब विजय सिंह और कल्याण सिंह ने एक स्वदेशी राज्य की घोषणा कर दी और अपने नये राज्य को स्थिर करने के लिए अनेक फरमान जारी किये। रायपुर सहित बहुत से गाँवो ने राजस्व देना स्वीकार कर लिया चारो ओर आजादी की हवा चलने लगी और अंग्रेजी राज्य इस क्षेत्र से सिमटता प्रतीत होने लगा। कल्याण सिंह ने स्वतन्त्रता संग्राम को नवीन शक्ति प्रदान करने के उददेश्य से सहारनपुर जेल में बन्द स्वतन्त्रता सेनानियों को जेल तोडकर मुक्त करने की योजना बनायी। उसने सहारनपुर शहर पर भी हमला कर उसे अंग्रेजी राज से आजाद कराने का फैसला किया।

 क्रान्तिकारियों की इस कार्य योजना से अंग्रेजी प्रशासन चिन्तित हो उठा, और बाहर से भारी सेना बुला ली गयी। कैप्टन यंग को ब्रिटिश सेना की कमान सौपी गयी। अंग्रेजी सेना शीघ्र ही कुंजा के निकट सिकन्दरपुर पहुँच गयी। राजा विजय सिंह ने किले के भीतर और कल्याण सिंह ने किले के बाहर मोर्चा सम्भाला। किले में भारतीयों के पास दो तोपे थी। कैप्टन यंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना जिसमें मुख्यतः गोरखे थे, कुंजा के काफी निकट आ चुकी थी। 03 अक्टूबर को ब्रिटिश सेना ने अचानक हमला कर स्वतन्तत्रा सेनानियों को चैका दिया। भारतीयों ने स्थिति पर नियन्त्रण पाते हुए जमीन पर लेटकर मोर्चा सम्भाल लिये और जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी। भयंकर युद्व छिड गया, दुर्भाग्यवंश इस संघर्ष में लडने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों का सबसे बहादुर योदा कल्याण सिंह अंग्रेजों के इस पहले ही हमले मे शहीद हो गया पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुंजा में लडे जा रहे स्वतन्त्रता संग्राम का समाचार जंगल की आग के समान तीव्र गति से फैल गया, मेरठ की बहसूमा और दादरी रियासत के राजा भी अपनी सेनाओं के साथ गुप्त रूप से कुंजा के लिए कूच कर गये। बागपत और मुंजफ्फरनगर के आस-पास बसे चैहान गोत्र के कल्सियान किसान भी भारी मात्रा में इस स्वतन्त्रता संग्राम में राजा विजययसिंह की मदद के लिये निकल पडे। अंग्रेजो को जब इस हलचल का पता लगा तो उनके पैरों के नीचे की जमीन निकल गयी। उन्हौनें बडी चालाकी से कार्य किया और कल्याण सिंह के मारे जाने का समाचार पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैला दिया। साथ ही कुंजा के किले के पतन और स्वतन्त्रता सैनानियों की हार की झूठी अफवाह भी उडा दी। अंग्रेजों की चाल सफल रही। अफवाहों से प्रभावित होकर अन्य क्षेत्रों से आने वाले स्वतन्त्रता सेनानी हतोत्साहित हो गये, और निराश होकर अपने क्षेत्रों को लौट गये। अंग्रेजों ने एक रैम को सुधार कर तोप का काम लिया। और बमबारी प्रारम्भ कर दी। अंग्रेजो ने तोप से किले को उडाने का प्रयास किया। किले की दीवार कच्ची मिटटी की बनी थी जिस पर तोप के गोले विशेष प्रभाव न डाल सकें। परन्तु अन्त में तोप से किले के दरवाजे को तोड दिया गया। अब अंग्रेजों की गोरखा सेना किले में घुसने में सफल हो गयी। दोनो ओर से भीषण युद्व हुआ। सहायक मजिस्ट्रेट मि0 शोर युद्व में बुरी तरह से घायल हो गया। परन्तु विजय श्री अन्ततः अंग्रेजों को प्राप्त हुई। राजा विजय सिंह बहादुरी से लडते हुए शहीद हो गये।

 भारतीयों की हार की वजह मुख्यतः आधुनिक हथियारों की कमी थी, वे अधिकांशतः तलवार, भाले बन्दूकों जैसे हथियारों से लडे। जबकि ब्रिटिश सेना के पास उस समय की आधुनिक रायफल (303 बोर) और कारबाइने थी। इस पर भी भारतीय बडी बहादुरी से लडे, और उन्हौनें आखिरी सांस तक अंग्रेजो का मुकाबला किया। ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। लेकिन वास्तविकता में शहीदों की संख्या काफी अधिक थी। भारतीय क्रान्तिकारियों की शहादत से भी अंग्रेजी सेना का दिल नहीं भरा। ओर युद्व के बाद उन्हौने कंुजा के किले की दिवारों को भी गिरा दिया। ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुँची, वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, कल्याण सिंह काा सिंर ओर विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गयें। ये तोपे देहरादून के परेडस्थल पर रख दी गयी। भारतीयों को आंतकित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याणसिंह का सिर एक लोहे के पिजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। कल्याण सिंह के युद्व की प्रारम्भिक अवस्था में ही शहादत के कारण क्रान्ति अपने शैशव काल में ही समाप्त हो गयी। कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्व के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस विद्रोह को तीव्र गति से न दबवाया गया होता, तो दो दिन के समय में ही इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता। और यह विद्रोह समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश में फैल जाता। 
समाप्त
शहीद विजय सिंह-कल्याण सिंह के जीवन चरित्र पर स्व कवि हरिदत्त त्यागी के द्वारा रचित कविता

गौरव गाथा -कवि हरिद त्त त्यागी


शहीद विजय सिंह -कल्याण सिंह

वर्तमान हरिद्वार जिले में है, लंढौरा नामक कस्बा।
कभी रियासत की राजधानी, का रखता था यह रूतबा।।
इसी रियासत का प्रखण्ड एक, गांव चवालिस थे उसमें।
नाम बहादुरपुर- कुन्जा है, रूडकी-छूटमलपुर मार्ग पे।।
ताल्लुकेदार बने विजय सिंह, 1819 में इसके।
कुशल प्रशासक दयावान, वंशज थे इसी रियासत के।।
अंग्रेजी शासन का शोषण, तब फैल गया था गांव-गांव।
बेबस से देशी राजा थे, था नहीं दिखता कहीं दांव।।
राजा थे मात्र नाम के ही, असली मालिक ब्रिटेन बना।
अधिकार सभी के सीमित थे, और दमन- चक्र हो गया घना।।
सुविधा विकास में रूचि नहीं, और घोर वसूली होती थी।
इस देश अभागे की जनता, खूनी आंसू से रोती थी।।
यह क्रूर दमन का विषम- चक्र, फैला था पूरे भारत में।
अन्दर- अन्दर ही सुलग रहा था, प्रतिशोध भाव एक भारत में।।
अनवरत मार सूखे की भी, तब झेल रहे थे वर्षों से।
कोई तो दाता मिल जाये, सब सोच रहे थे वर्षों से।।
घुट-घुट कर साँसे रह जाति, किसानों की अपने सीने में।
कुछ यही सोच रह जाते थे, क्या रहा फायदा जीने में।।
बालक भूखे-नंगे सूखे, मांओं की छाति सूखी थी।
वृक्ष और फसलें सूखी, धरती की गोद भी सूखी थी।।
दुर्दशा देख कर अपनो की, युवकों का पौरुष जाग उठा।
उठ गया ज्वार क्षत्रापन का, कोना-कोना हुंकार उठा।।
कोने-कोने में खड़े हुए, सत्ता से बागी हो टोले।
इनमें था एक कलुवा गुर्जर, कल्याण सिंह जिसको बोले।।
कल्याण सिंह उर्फ कलुवा था, फुर्तीला-रोबिला गबरू।
वीर बहादुर चतुर शूर, अनुपम सा जोशीला गबरू।।
विजय सिंह ने अवसर पा, जोडा इन सभी टोलियों को।
सबने नेतृत्व स्वीकार किया, जँच गया सभी टोलियों को।।
इसी बहाने खड़ी हुई, एक सेना मिली विजय सिंह को।
लोगों का मौन समर्थन भी, लेकिन था दिली विजय सिंह को।।
सो किला विजय सिंह का कुंजा, क्रांति- केन्द्र फिर कहलाया।
बर्मा में हार रहे हैं ब्रिटिश, जब सुना सोच मन हर्षाया।।
अंग्रेजों से टकराने का, मानो अच्छा अवसर पाया।
यह क्षेत्र हमारा अपना है, फिर क्यों विदेश की हो छाया।।
अब विजय सिंह के कहने पर, कलुवा ने हल्ला बोल दिया।
अंग्रेजी पिट्ठू दांग लिए, तलवारों पर बल तौल लिया।।
अंग्रेजी शासन क्रुद्ध हुआ, एकदम से हरकत में आया।
कलुवा को घेर पकडने को, स्पेशल दल उनका आया।। भगवानपुर के पास कहीं, मुठभेड़ हुई फिर जोरदार।
भागी टुकड़ी अंग्रेजों की, कुंद हो गई "शोर" धार।।
ये मि.शोर था मजिस्ट्रेट, जो चकरा गया वहां आकर।
पाला पड गया शूरमा से, क्या ले पाता वह टकरा कर।। सिरमौर कम्पनी सेना की, शोर ने फिर तैनात करी।
छापे दर छापे कलुवा के, उनकी भी नींद हराम करी।।
सात सितंबर चौबीस को, करतार पुर चौकी कब्जा ली। शस्त्र छीन लाये कलुवा, दुश्मन भागा होकर खाली।।
हफ्ते से पहले हमला कर, भगवानपुर को जीत लिया।
ज्वालापुर से था चला खजाना, कलुवा ने वह भी जब्त किया।।
चहुँ ओर भागे फिरते थे, अंग्रेजी चमचे घबरा कर।
कलुवा की ऐसी धाक जमी, शत्रु भागा फिर थर्रा कर।।
अब पता पड़ा अंग्रेजों को, सब विजय सिंह की है माया।
दे देंगे ताज हम राजा का, निश्चिंत रहो यह समझाया।।
लेकिन दे दो हमको कलुवा, यह शर्त हमारी है पहली।
हम शान्त करें बगावत को, बेदम कर दें कलुवा टोली।।
उत्तर दिया विजय सिंह ने, किस लालच मैदान छोड़ दू में।
क्यूँ झूठा राज खिताबी ले, अपनों से मुंह मोड़ लू में।।
राजा तो हम ही हैं यहाँ के,तुम हो दुष्ट अत्याचारी।
राजा विजय सिंह नाम मेरा, कल्याण सिंह है छत्रधारी।।
कर दिया स्वतंत्र घोषित मिलकर, दोनों ने अपने को।
मुक्त करें सहारनपुर भी, पूरा कर दें आजादी के सपने को।।
ये तेवर देख विजय सिंह के, पैरों से धरती खिसक गई।
गीदड़ भभकी से ना बात बने, साँस गले में अटक गई।।
जब आर-पार के तीर चलें, तो कैप्टन यंग चला सेना लेकर।
अब जंग आखिरी होनी थी, तैयारी दोनों की जमकर।।
सेना ने आकर घेर लिया, कुंजा के गढ़ को बाहर से।
अन्दर जम गये विजय सिंह, कल्याण सिंह फिर बाहर से।।
कल्याण सिंह बाहर युद्ध में, हो गए शहीद प्रथम पग पर।
पर विजय सिंह अन्दर से ही, खूब लडे फिर भी जमकर।।
लेकिन अंग्रेजों ने भारी तोपों से, गढ़ को तोड दिया।
विजय सिंह ने भी युद्ध में, अपने वीरों को छोड़ दिया।।
विजय सिंह लडते-लडते, हो गये शहीद किले में ही।
152 योद्धा भी शहीद, हो गये किले के अन्दर ही।।
3 अक्टूबर का दिन था, 1824 ईस्वी में।
है दर्ज सुनहरे पन्ने में, ब्रिटिश राज हिस्ट्री में।।
अंग्रेजी सेना लौटी थी, दोनों के धड-सिर लेकर।
पर एक मार्ग दिखा गए, दोनों अपने सर को देकर।।
1857 की ज्वाला भडकी थी, इसी चिंगारी से।
सदियों तक तेज निकलता है, रणचंडी तेग दुधारी से।। समाप्त

 सन् 2003 में मेरठ के डिप्टी मेयर श्री सुशील गुर्जर के प्रयास से मेरठ से किला- परिक्षत गढ़ जाने वाली सडक जो जेल चुंगी चोपले से प्रारम्भ होती है,का नाम 1857 के अमर शहीद क्रांतिकारी राव कदम सिंह मार्ग करवा दिया गया।इस सडक का विधिवत उद्घाटन तत्कालीन समय के केबिनेट मंत्री श्री हुकुम सिंह ने 10 मई सन् 2003 को किया।करीब दो वर्ष बाद सड़क के चौड़ीकरण के समय यह शिलापट टूट गया।प्रताप राव गुर्जर स्मृति समिति के अध्यक्ष अशोक चौधरी के प्रयास से तथा मेरठ हापुड़ लोकसभा के सांसद राजेंद्र अग्रवाल जी के प्रस्ताव पर राव कदम सिंह मार्ग का यह पत्थर 26 सितंबर सन् 2021 को पुनः स्थापित किया गया।

27 जून सन् 2022 को राव कदम सिंह की स्मृति में एक कार्यक्रम हापुड़ जिले के गांव लोदीपुर छपका मे गुर्जर सम्राट मिहिरभोज प्रलेखन समिति के बैनर पर किया गया, जिसमें राजबल सिंह कार्यक्रम संयोजक रहें।
राव कदम सिंह पर लिखा लेख निम्न है-

सन् 1857 के अमर क्रांतिकारी एवं किला-परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह- लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम का प्रारंभ मेरठ से हुआ।इस स्वतंत्रता-संग्राम में मेरठ के किला-परिक्षत गढ़ कस्बे के निकटवर्ती गांव पूठी के निवासी राव कदम सिंह ने विदेशी अत्याचारी ब्रिटिश सत्ता से भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जो संघर्ष किया,वह भुलाने योग्य नहीं है।
आखिर राव कदम सिंह किस पृष्ठभूमि से थे,वो कोन सी सामाजिक पूंजी थी जिसने राव कदम सिंह को अपने क्षेत्र के क्रांतिकारियों का नेता बना दिया,इस पर नजर डालें तो हमें सन् 1857 से 67 वर्ष पूर्व में सन् 1790 में जाना होगा जब किला-परिक्षत गढ़ के राव जेत सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात उनके दत्तक पुत्र नैन सिंह नागर राज गद्दी पर बैठे। 
राव जेत सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात नैन सिंह नागर पूर्वी परगने के राजा बने। उनकेे दो पुत्र थे। एक पुत्र का नाम नत्था सिंह तथा दूसरे पुत्र का नाम गुमानी सिंह था।राजा नैन सिंह नागर ने अपने क्षेत्र के प्रत्येक वर्ग को खुशहाल बनाने के लिए भरसक कार्य किया।कई सड़कों का निर्माण करवाया, चिकित्सालय खुलवाये,, चरागाहों के लिए भूमि दी। उन्होंने बहसूमा के अंदर अपने सहित, अपने छः भाइयों के लिए सात महल बनवाये।अनेक मंदिर बनवाये जैसे परिक्षत गढ़ का कात्यानी मंदिर,शिव मंदिर, हस्तिनापुर में जैन मन्दिर के लिए भूमि दान तथा बहसूमा व गढ़-मुक्तेश्वर में भी कई मंदिर व धर्मशालाएं बनवायी। उन्होंने अपने क्षेत्र में सैयद मुसलमानों के अत्याचारों से आम गरीब आदमी को मुक्त कराया तथा अत्याचार करने वाले सैयद जागीरदारों को मौत के घाट उतार दिया। राजा नैन सिंह नागर ने अपने राज्य की सुरक्षा एवं राजस्व प्राप्ति के लिए अपने छः भाइयों को गढ़ियों में तेनात किया। गोहरा आलमगीर की गढ़ी में चेन सिंह सिंह को, बहसूमा में भूप सिंह को,परिक्षत गढ़ के निकट पूठी में गढ़ी बनवाकर जहांगीर सिंह को, मवाना के निकट ढिकोली में बीरबल सिंह को,कनखल में अजब सिंह को, सीकरी में खुशहाल सिंह को नियुक्त कर दिया।
राजा नेन सिंह नागर ने 13 वर्ष मराठों तथा 15 वर्ष अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत अपने क्षेत्र की जागीर का नेतृत्व किया।
सन् 1803 में जब अंग्रेज दिल्ली पर काबिज हो गये,उस समय अंग्रेजों के अनुसार ऊपरी दोआब क्षेत्र में सहारनपुर से लेकर बुलंदशहर तक पांच राजनीतिक परिवार थे, जिनमें एक लंढोरा के राजा रामदयाल सिंह, जिन पर 804 गांव थे, दूसरे किला परिक्षत गढ/बहसूमा के राजा नैन सिंह नागर जिनके पास 350 गांव तथा तिसरे दादरी के राव अजीत सिंह भाटी जिनके पास 138 गांव थे,चौथे कुचेसर के मगनीराम जाट और पांचवें कुवंर छतारी बुलंदशहर के,जो बडगूजर मुस्लिम राजपूत थे।इन पांच परिवारों मे से लंढोरा, किला परिक्षत गढ़ और दादरी के परिवार गुर्जर जाति से थे।
राजा नैन सिंह नागर के राज्य क्षेत्र से लगी लंढोरा नाम की गुर्जरों के पंवार गोत्र की रियासत थी, जिसके राजा रामदयाल थे, सन् 1813 में राजा रामदयाल की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने राजा की मृत्यु के बाद ही इस रियासत को छिन्न-भिन्न कर दिया तथा राजपरिवार के सदस्यों में से कई ताल्लुकेदार बना कर रियासत को बांट दिया। इस घटना से क्षेत्र मे तनाव बन गया, जिसका असर किला-परिक्षत गढ़ की रियासत पर भी पडा।
अपने पूर्वज राव जेत सिंह नागर की तरह ही अपने क्षेत्र की सेवा करते हुए सन् 1818 में राजा नेन सिंह नागर स्वर्गवासी हो गये।राजा नेन सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात उनका बेटा नत्था सिंह परिक्षत गढ़ की राजगद्दी पर बेठा।राजा नेन सिंह नागर के दूसरे पुत्र गुमानी सिंह सन्यासी बन गए थे।
यह तो सर्वविदित है कि किला-परिक्षत गढ़ की रियासत दिल्ली के बादशाह के अन्तर्गत आती थी, अतः राजा नेन सिंह नागर के राजा बनने (सन् 1790)से उनकी मृत्यु ( सन् 1818)तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति में क्या हो रहा था,उसकी जानकारी के लिए देखें-( परिशिष्ट नंबर-1 )

इस लेख में हमारे लेखन का उद्देश्य मेरठ के किला-परिक्षत गढ़ के राव कदम सिंह नागर की सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में भूमिका पर प्रकाश डालना है। इसलिए हम पुनः किला-परिक्षत गढ़ रियासत में घट रही घटनाओं की ओर केंद्रित होते हैं-
 राजा नेन सिंह नागर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र नत्था सिंह राजा बने।इस समय दिल्ली में अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया था। अंग्रेज भारतीय राजाओं, रजवाड़ों व जागीरदारों को समाप्त करते जा रहे थी।
अंग्रेजों ने सन् 1819 में परिक्षत गढ़ की निकटवर्ती रियासत लंढोरा के अंतर्गत आने वाले कुंजा-बहादुर पुर ताल्लुके का ताल्लुकेदार विजय सिंह को बना दिया। स्थानिय किसानों ने अंग्रेजों की शोषणकारी निति से क्षुब्द होकर हथियार उठा लिए विजय सिंह ने किसानों का नेतृत्व किया। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी थे।। 03 अक्टूबर सन् 1824 को किसानों व ब्रिटिश सेना में घमासान युद्ध हुआ।इस युद्ध में विजय सिंह अपने सेनापति कल्याण सिंह सहित शहीद हो गए।ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी इस युद्ध में शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। किसानों के इस संघर्ष से किला-परिक्षत गढ़ के किसानों में भी तनाव व्याप्त हो गया।
अंग्रेजी सरकार ने इस क्षेत्र में लोगों को निशस्त्र करने का अभियान चलाया।किला-परिक्षत गढ़ के किले की बुर्ज पर तीन तोपें लगी हुई थी। राजा नत्था सिंह ने उन तोपों को किले की बुर्ज से उतार कर गुप्त स्थान पर छिपा दिया।
 परिक्षत गढ़ की रियासत को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। नत्था सिंह को केवल 3.5 गांव की जमींदारी का अधिकार दिया तथा 183 गांवों में केवल 5% ननकारा दिया।इस परिस्थिति में नत्था सिंह ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध दीवानी दावा कोर्ट में दायर कर दिया। राजा नत्था सिंह का दावा आंशिक रूप से स्वीकार हो गया।अब नत्था सिंह को 274 गांव मिले, जिनकी मालगुजारी 50000 रूपए वार्षिक थी। इस प्रकार राजा नत्था सिंह नागर के समय परिक्षत गढ़ रियासत एक छोटे-से हिस्से में सिमट कर रह गई। राजा नत्था सिंह के संतान के रूप में एक पुत्री थी।जिसका नाम लाडकौर था।जिसकी शादी लंढोरा रियासत के राजा खुशहाल सिंह के साथ हो गई थी।समय चक्र चलता रहा अगस्त सन् 1833 को राजा नत्था सिंह की मृत्यु हो गई।
 इससे आगे रियासत के बारे में जानने से पहले अंग्रेजों की शासन व्यवस्था जानने के लिए देखें -
(परिशिष्ट नंबर-2 )
सन् 1833 में राजा नत्था सिंह की मृत्यु होने के बाद जागीर को पुनः समाप्त कर दिया गया। नत्था सिंह की रानी को 9000 रूपए प्रति वर्ष पेंशन तथा 5% एलाउंस अंग्रेजों ने दिया। सन् 1836 में सर एच एम इलियट ने जिले का बंदोबस्त किया। राजा नत्था सिंह के अन्य राजपरिवार के सदस्यों में 20 गांव वितरित कर दिए गए।जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं कि राजा नैन सिंह के छः भाई थे।उन सबको चार-चार गांव दे दिए गए। ऐसा लगता है कि छः भाईयों में से एक निसंतान स्वर्गवासी हो गये थे, इसलिए 20 गांवों में से पांच भाइयों में चार-चार गांव दिये गये। राजा नैन सिंह के भाई जहांगीर सिंह जो पूठी गांव की गढ़ी में रहते थे,राव कदम सिंह इन्हीं जहांगीर सिंह के पोत्र तथा कुंवर देवी सिंह के पुत्र थे,राव कदम सिंह की माता का नाम प्राणकौर था। राव कदम सिंह का जन्म 25-10-1831को हुआ था।इस समय राव कदम सिंह 26 वर्ष के नौजवान बलिष्ठ नवयुवक थे तथा किला परिक्षत गढ रियासत के रानी लाडकौर की ओर से केयरटेकर थे। 
अब हम लालकिले में घट रहे उस घटनाक्रम पर नजर डालते हैं जिसकी वजह से मेरठ में सन् 1857 की स्वतंत्रता-संग्राम का प्रारम्भ हुआ तथा राव कदम सिंह ने इस संग्राम में अपनी आहूति दे दी थी । देखें-
(परिशिष्ट नंबर-3)
10 मई 1857 को मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के निर्देश पर सभी सड़के रोक दी और अंग्रेजों के यातायात और संचार को ठप कर दिया। मार्ग से निकलने वाले सभी अंग्रेजो पर हमले किए गए। मवाना-हस्तिनापुर के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के भाई दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के नेतृत्व में बिजनौर के विद्रोहियों के साथ साझा मोर्चा गठित किया और बिजनौर के मण्डावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्र में धावे मारकर वहाँ अंग्रेजी राज को हिला दिया। राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया गया। राव कदम सिंह और दलेल सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने परीक्षतगढ़ की पुलिस पर हमला बोल दिया और उसे मेरठ तक खदेड दिया।राजा नैन सिंह नागर के भाई भूप सिंह नागर के दो पुत्र थे जिनका नाम तुला सिंह और लक्ष्मण सिंह था, कुंवर तुला सिंह के पुत्र कुंवर दलेल सिंह नागर थे,दलेल सिंह नागर का विवाह पांचली गांव के जयपाल सिंह की पुत्री जैन कौर के साथ हुआ था।जो धन सिंह कोतवाल के परिवार के थे।
उस समय अंग्रेज आईसीएस अधिकारी से नीचे क्लर्क लेवल पर स्थानीय राजाओं और जागीरदारों की सिफारिश पर भारतीयों को नौकरी पर रखते थे। अतः इस बात की प्रबल संभावना है कि धन सिंह कोतवाल को पुलिस में अंग्रेजों ने राव कदम सिंह की सिफारिश पर ही नौकरी पर रखा हो। सन् 1925 में नवाब मुहम्मद अहमद सैयद खान छतारी जो यूपी लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिए जमींदारों के द्वारा नॉमिनेट कर दिये गये थे। 1925 में होम मेंबर यानी मिनिस्टर टाइप की पोजीशन पर पहुंचे। बहुत ज्यादा पावर तो नहीं थी फिर भी रिकमेंड करने भर की पावर थी। इन्होंने एक बदलाव किया। उस वक्त भी नौकरियां सिफारिश पर लगती थीं। इनका कहना था कि सिफारिश के बजाए क्लर्कों के लिए परीक्षा करा ली जाए। तब सन् 1925 के बाद से सामान्य नौकरी पर सिफारिश के स्थान पर परीक्षा प्रारम्भ हुई।
  राव कदम सिंह अपने पूर्वज जैत सिंह नागर के समय का राज्य स्थापित करना चाहते थे।पांचली और सीकरी में अपनी गढी स्थापित करना चाहते थे। 
अंग्रेजो से सम्भावित युद्व की तैयारी में परीक्षतगढ़ के किले की बुर्ज पर उन तीन तोपों को चढ़ा दिया जो राव कदम सिंह के पूर्वज राजा नत्था सिंह द्वारा छिपा कर रख दी गई थी। 30-31मई को हिंडन के तट पर क्रांतिकारी सेना व अंग्रेजी सेना में युद्ध हुआ जिसमें क्रांतिकारी सेना जीत न सकी परन्तु हारी भी नहीं।31 मई को बरेली में भी क्रांति हो गई,बरेली से भी अंग्रेजों को भगा दिया गया। बिजनौर के नजीबाबाद का नबाब महमूद खां रूहेला सरदार नजीबुद्दौला का वंशज था,इस परिवार से राव कदम सिंह के परिवार के राव जैत सिंह के समय से ही सम्बन्ध थे। महमूद खां के परिवार का बख्त खां अंग्रेजों की सेना में सूबेदार था तथा बरेली में क्रांतिकारी सेना का सेनानायक था।बरेली में शासन की व्यवस्था बनाने के बाद बख्त खां अपनी सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया।इस समय गढ़-मुक्तेश्वर में गंगा नदी पर पीपे का पुल बना हुआ था। अंग्रेज नही चाहते थे कि यह सेना दिल्ली पहुंचे। अतः अंग्रेजों ने इस पीपे के पुल को तोड दिया। लेकिन राव कदम सिंह ने अपने सामर्थ्य का प्रयोग करते हुए नावों की व्यवस्था कर दी तथा इस सेना को 27 जून सन् 1857 को गंगा नदी को पार करा दिया। अंग्रेज देखते रह गए। यदि यह सेना गंगा पार कर दिल्ली ना पहुचती तो दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार जुलाई के पहले सप्ताह में ही हो जाता।एक जुलाई को बख्त खां अपनी सेना सहित दिल्ली पहुंच गए।अब दिल्ली पर क्रांतिकारियों का अधिकार सितंबर के अंत तक रहा।
अब राजनीति के पत्ते खुल चुके थे।यह साफ हो गया था कि अंग्रेजों व क्रांतिकारी सेना में युद्ध होने के बाद यदि परिणाम क्रांतिकारी सेना के पक्ष में रहा तो राव कदम सिंह किला-परिक्षत गढ़ के राजा रहेंगे,यदि परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गया तो वो होगा जो अंग्रेज चाहेंगे।एक जुलाई को बख्त खां सेना लेकर दिल्ली पहुंच गया। 
10 मई से लेकर बख्त खां के दिल्ली में पहुचने के बीच दिल्ली में चल रहे घटनाक्रम की जानकारी के लिए देखें-
(परिशिष्ट नंबर-4 )
 अंग्रेजों ने दिल्ली में लड रही क्रांतिकारी सेना की सहायता को रोकने के लिए चारों ओर से घेराबंदी शुरू कर दी।27 जून को जब राव कदम सिंह ने बख्त खां की सेना को गंगा पार करायी थी, उसके अगले ही दिन मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे।चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने धन सिंह कोतवाल के गांव पर हमला कर दिया। पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 46 कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को फांसी दे दी गई। 
9 जुलाई को खाकी रिसाला ने दिल्ली रोड पर स्थित सीकरी गांव पर हमला कर दिया।मेरठ के तत्कालीन कमिश्नर एफ0 विलियमस् की शासन को भेजी रिपोर्ट के अनुसार गुर्जर बाहुल्य गाँव सीकरी खुर्द का संघर्ष पूरे पाँच घंटे चला और इसमें 170 क्रान्तिकारी शहीद हुए।
17 जुलाई को खाकी रिसाला ने बागपत के पास बासोद गांव पर हमला किया। डनलप के अनुसार बासौद में लगभग 150 लोग मारे गये। 18 जुलाई को खाकी रिसाला ने चौधरी शाहमल सिंह पर हमला किया गया।इस लडाई में करीब 200 भारतीय शहीद हुए। जिनमें बाबा शाहमल भी थे।22 जुलाई को खाकी रिसाला सरधना के पास अकलपुरा पहुँच गया।क्रान्तिकारी नरपत सिंह के घर के आस-पास मोर्चा जमाए हुये थे। परन्तु आधुनिक हथियारों के सामने वे टिक न सकें। गांव मे जो भी आदमी मिला अंग्रेजो ने उसे गोली से उडा दिया। नरपत सिंह सहित सैकडो क्रान्तिकारी शहीद हो गए।
अंग्रेजों ने दिल्ली की क्रांतिकारी सेना को गंगा-यमुना के मध्य मेरठ से दिल्ली के बीच से मिलने वाली सहायता की हर सम्भावना को ध्वस्त करने का प्रयास किया।
इन घटनाओं के बाद राव कदम सिंह ने परीक्षतगढ़ छोड दिया और बहसूमा में मोर्चा लगाया, जहाँ गंगा खादर से उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ लडाई जारी रखी।
18 सितम्बर को राव कदम सिंह के समर्थक क्रान्तिकारियों ने मवाना पर हमला बोल दिया और तहसील को घेर लिया। खाकी रिसाले के वहाँ पहुचने के कारण क्रान्तिकारियों को पीछे हटना पडा। 20 सितम्बर को अंग्रेजो ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। हालातों को देखते हुये राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। थाना भवन के काजी इनायत अली और दिल्ली से तीन मुगल शहजादे भी भाग कर बिजनौर पहुँच गए।
 14 जुलाई के बाद से दिल्ली में क्रांतिकारी सेना की पराजय तक के घटनाक्रम को जानने के लिए देखें-
(परिशिष्ट नंबर-5)
दिल्ली में क्रांतिकारियो की हार के पश्चात अब पुनः पाठको को मेरठ की ओर ले चलते हैं। जहां राव कदम सिंह संघर्ष कर रहे थे। इन परिस्थितियों में राव कदम सिंह तथा उनके सहयोगियों ने निर्णय लिया कि अंतिम सांस तक संघर्ष किया जायेगा। अंजाम चाहें जो हो। अंग्रेजों की सेना ने परिक्षत गढ़ के किले तथा पूठी की गढ़ को जमींदोज कर दिया।
राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। 
राव कदम सिंह आदि के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजनौर से नदी पार कर कई अभियान किये। उन्होने रंजीतपुर मे हमला बोलकर अंग्रेजो के घोडे छीन लिये। 5 जनवरी 1858 को नदी पार कर मीरापुर मुज़फ्फरनगर मे पुलिस थाने को आग लगा दी। इसके बाद हरिद्वार क्षेत्र में मायापुर गंगा नहर चौकी पर हमला बोल दिया। कनखल में अंग्रेजो के बंगले जला दिये। इन अभियानों से उत्साहित होकर नवाब महमूद खान ने कदम सिंह एवं दलेल सिंह आदि के साथ मेरठ पर आक्रमण करने की योजना बनाई परन्तु उससे पहले ही 28 अप्रैल 1858 को बिजनौर में क्रान्तिकारियों की अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में हार हो गई।अंग्रेजो ने नवाब को रामपुर के पास से गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद बरेली मे मे भी क्रान्तिकारी हार गए। कदम सिंह एवं दलेल सिंह का उसके बाद क्या हुआ कुछ पता नही चलता।
लोक मृत्यु भी मृत्यु ही मानी गई है। अतः 28 अप्रैल सन् 1858 को हम किला-परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह तथा उनके सहयोगियों का बलिदान दिवस मान सकते हैं।
राव कदम सिंह व उनके साथियों को शत् शत् नमन।
समाप्त

परिशिष्ट नंबर-1

मराठा सरदार महादजी सिंधिया जिनका केन्द्र ग्वालियर था,का सन् 1794 में स्वर्गवास हो गया।अब दोलत राव सिंधिया ने महादजी सिंधिया का स्थान ले लिया।समय व्यतीत होता रहा।नो वर्ष पश्चात 11 सितम्बर सन् 1803 को इस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने दिल्ली पर हमला कर दिया।दोलत राव सिंधिया की सेना ने अंग्रेज सेना से डटकर युद्ध किया। परंतु मराठा सेना परास्त हो गई। अंग्रेजों का दिल्ली पर अधिकार हो गया।अब 16 सितंबर सन् 1803 को इस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी जनरल वेग ने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से भेंट की तथा बादशाह को विश्वास दिलाया कि उसे घबराने की जरूरत नहीं है,वह पहले की तरह ही बादशाह रहेगा।8 अक्टूबर सन् 1803 को लार्ड वैलेजली ने बादशाह को पत्र लिखकर कहा कि बादशाह के लिए शांति व सम्मान का कम्पनी शासन पूरा ध्यान रखेगा। अंग्रेज चाहते तो बादशाह को हटा सकते थे परंतु वे बादशाह की आड़ लेकर भारतीयों का शोषण करना चाहते थे।अपनी योजना के अनुसार अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम द्वितीय की पेंशन जो मराठे 17 हजार रुपए प्रति माह देते थे,इस पेंशन को बढ़ाकर अंग्रेजों ने 60 हजार रुपए प्रति माह कर दिया। अब गंगा-यमुना के दोआबा का क्षेत्र अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।19 नवम्बर सन् 1806 को बादशाह शाह आलम द्वितीय की मृत्यु हो गई। अब अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम द्वितीय के पुत्र को दिल्ली का बादशाह बना दिया।जिसका नाम अकबर द्वितीय था,यह भारत का 18 वा मुगल बादशाह था।समय व्यतीत होने लगा। सन् 1818 में दो घटनाएं और घटित हुई।एक मुगल बादशाह के अन्तर्गत आने वाली अवध रियासत पूर्ण रूप से इस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की अधिनस्थ रियासत हो गई। दूसरे मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने पूना से हटा कर तथा पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में भेज दिया।
भारत में अंग्रेजी न्यायालय स्थापित होने लगे थे। सिविल के मुकदमों के फैसले अंग्रेजी कानून के अनुसार तथा क्रिमिनल मुकदमे शरियत के अनुसार चलते रहें। भारतीयों को फांसी देने के लिए अंग्रेज बादशाह से आज्ञा लेते थे। परन्तु यह आज्ञा एक दिखावा थी, बादशाह तो अंग्रेजों का वेतन भोगी था,प्रत्येक आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करना बादशाह की मजबूरी थी। अंग्रेजी शासन के दो चेहरे थे,एक उदारवादी चेहरा था,इस चेहरे में उनके न्यायालय, चर्च, चिकित्सालय, सड़कें,पुल तथा रेल- मार्ग दिखाई देते थे।जो बडा न्यायप्रिय था।
 परंतु इस न्यायप्रिय चेहरे के पीछे जो असली चेहरा था, उसके अन्तर्गत अंग्रेज अपने न्यायालयों का उपयोग भारतीयों को फांसी पर चढ़ाने के लिए, रेल, सड़कों व पुलों का उपयोग सैन्य सामग्री को ले जाने तथा भारत में बने कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुचाने के लिए करते थे। विद्यालयों, चर्चों व चिकित्सालयों का उपयोग भारतीयों को ईसाई धर्म में ले जाने के लिए करने लगे थे।

परिशिष्ट नंबर-2

अंग्रेज भारतीयों को निम्न दर्जे का मानते थे,आम आदमी के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था। अंग्रेज अधिकारी भ्रष्टाचार में डूबे हुए थे। भारतीयों पर शासन करने के लिए अंग्रेजी ने इंडियन सिविल सर्विस का निर्माण किया, इसमें 2000 अंग्रेज़ अधिकारी थे ,10000 अंग्रेज अधिकारी सेना में और 60 हजार अंग्रेज सिपाही भारत में तेनात थे। कोई भारतीय उच्च पद पर नहीं जा सकता था, भारतीय कर्मचारियों को अपमानित किया जाता था। भारतीय जज की अदालत में किसी भी अंग्रेज के विरुद्ध कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता था।रेल गाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में कोई भारतीय नहीं बैठ सकता था। अंग्रेजों द्वारा संचालित होटलों और क्लबों में तख्तियो पर लिखा होता था कि कुत्तों और भारतीयों का आना वर्जित है।
भारतीय सिपाही भी असंतुष्ट थे। सेना में एक भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रूपय प्रति माह था, जबकि उसी पद पर तैनात अंग्रेज सूबेदार का वेतन 195 रूपये प्रति माह था। भारतीय सैनिकों को पदोन्नति नहीं दी जाती थी। सन् 1806 से लेकर सन् 1855 तक भारतीय सैनिकों ने कई बार विद्रोह किये। लेकिन अंग्रेजों ने उनको बडी क्रुरता से कुचल दिया था। अंग्रेजों ने भारतीय कृषि को तहस नहस कर दिया था।वह किसानों से अपनी मनचाही फसल उगवाते थे, जिस कारण भारतीय किसानों का फसल चक्र बिगड़ गया था।
देशी राजाओं की स्थति यह थी कि एक ओर तो वह अंग्रेजों के पंजो में छटपटा रहे थे, दूसरी ओर उन्हें लगता था कि अंग्रेजों से अलग हटते ही उनका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। बहुत से राजे रजवाड़ों को अंग्रेजों ने युद्ध में नहीं जीता था बल्कि राजाओं के मर जाने के बाद सीधे ही हडप लिया था।
औरंगजेब के बाद जो भारत बिखर गया था,वह पुनः अंग्रेजों के नेतृत्व में एक साथ आ गया था। परन्तु यह एकीकरण मुगल शासन की तरह ही पीड़ादायक था।
अंग्रेज अपने उदारवादी चेहरे का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार करते थे कि उनका शोषणकारी चेहरा आम भारतीय को तो क्या दिखता? जिसका शोषण होता था उसे ही तब पता लगता था जब वह कुछ करने की स्थति में नहीं रहता था।यह अंग्रेजों की राजनीतिक कुशलता थी या उनकी धोखाधड़ी। ये तो हर कोई अपने नजरिए से तय करेगा।

परिशिष्ट नंबर-3

सन् 1835 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह का टाइटिल बदल दिया।अब वह बादशाह को भारत के बादशाह के स्थान पर king of Delhi(किंग आंफ देहली) कहने लगे।इसी वर्ष सिक्कों की लिखाई भी बदल दी।अब तक सिक्कों पर फारसी भाषा में लिखा जाता था। दूसरी ओर बादशाह का नाम अंकित रहता था।अब सिक्कों पर लिखी भाषा अंग्रेजी कर दी गई। बादशाह का नाम हटा दिया गया।यह एक तरह से मुगल शासन की समाप्ति की घोषणा ही थी। परन्तु इस पर विरोध तो तब होता,जब बादशाह वास्तव में बादशाह होता। सन् 1837 में गंगा-यमुना के दोआबा में भयंकर अकाल पड़ा।इस अकाल में करीब 8 लाख लोगों की मौत हो गई। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी।इस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कुछ भी नहीं किया।जब जनता ने विरोध किया तों शक्ति के बल पर जनता का दमन कर दिया गया। सन् 1837 में ही मुगल बादशाह अकबर द्वितीय की मृत्यु हो गई।अब अंग्रेजों ने अपने हित को ध्यान में रखते हुए मरहूम बादशाह अकबर द्वितीय के बड़े पुत्र के स्थान पर छोटे पुत्र मिर्जा अबू जफर उर्फ बहादुर शाह जफर को बादशाह बना दिया।यह भारत का 19 वां मुगल बादशाह था। समय चक्र चलता रहा। कम्पनी से मिलने वाली पेंशन से बादशाह का गुजारा चल रहा था। परन्तु ऐसा हमेशा नहीं चलना था। सन् 1842 में लार्ड एलन ब्रो भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया। उसने बादशाह को कम्पनी सरकार की ओर से मिलने वाले उपहार बंद करा दिए। सन् 1848 में लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया। उसने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को लालकिला छोड़ कर महरोली में जाकर रहने के लिए कहा। परंतु यह बात बादशाह ने नहीं मानी।वह लालकिले से बाहर नहीं गया।इस पर अंग्रेजों ने सन 1856 में बादशाह के एक आवारा शहजादे मिर्जा कोयस से संधि कर ली। अंग्रेजों ने मिर्जा कोयस से यह तय कर लिया कि वह लालकिले को छोड़कर महरोली चला जायेगा। कम्पनी सरकार उसे 15 हजार रुपए महीने की पेंशन देगी।वह बादशाह का टाइटिल न लगाकर शहजादा के टाइटल का प्रयोग करेगा।
सन् 1856 में ही अंग्रेजों ने अवध की रियासत को हडप लिया।अवध का नवाब इस समय वाजिद अली शाह था।यह एक सम्पन्न रियासत थी तथा कम्पनी सरकार पर ही रियासत का चार करोड़ रुपया कर्ज था। अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को निर्वासित कर कलकत्ता भेज दिया। नवाब की बेगम हजरत महल को रियासत का शासक बना दिया।इस घटना की सूचना जब देश में फैलीं तो सभी रियासतों के राजा सकपका गये।
सन् 1852 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने पेशवा के दत्तक पुत्र पेशवा नाना साहब द्वीतिय की पेंशन बंद कर दी।इस समय नाना साहब द्वीतिय ने जिन राजाओं की पेंशन अंग्रेजों ने बंद कर दी थी अथवा जिन राजाओं, जागीर दारो की जागीरें जब्त कर ली थी, सबको अंग्रेजों के विरुद्ध एकत्रित होकर संघर्ष करने के लिए पत्र लिखे।नाना साहब ने नवाब वाजिद अली शाह का वजीर अली नकी खां जो कलकत्ते में था तथा बेगम हजरत महल को भी अपने साथ योजना में शामिल कर लिया । सन् 1857 के प्रारंभ में दमदम शास्त्रागार में पानी पीने को लेकर एक दलित कर्मचारी से एक ब्राह्मण सिपाही की बोलचाल हो गई।इस मूंह-भाषा में दलित कर्मचारी ने गाय व सूअर की चर्बी कारतूस पर लगीं होने की बात का खुलासा कर दिया।जिसका नाम मतादिन बाल्मिकि बताया जाता है। इससे सेना में आक्रोश फैल गया। कहने का तात्पर्य यह है कि चारों तरफ अंग्रेजों के विरुद्ध माहोल गर्म हो रहा था।इन परिस्थितियों में नाना साहब व वजीर अली नकी खां ने मुस्लिम फकीर व हिन्दू साधुओं के भेष में अपने दूत समस्त उत्तर भारत में भारतीय सैनिकों तथा पीड़ित जागीरदारों से सम्पर्क करने के लिए भेजे। सन् 1857 के प्रारंभ में ही नाना साहब पेशवा अपने छोटे भाई बाला साहब व अपने सेनापति अजीबुल्ला खां के साथ तीर्थयात्रा करने के बहाने भारत भ्रमण पर निकल लिए।नाना साहब ने भारत के सभी रजवाड़ों के राजाओं से, सैनिक छावनी में सैनिकों से सम्पर्क किया।नाना साहब ने दिल्ली में पहुंच कर लालकिले में बादशाह बहादुर शाह जफर व उसकी बेगम जीनत महल से भी भेंट की। शायद तभी 31मई की तिथि क्रांति के लिए तय हुई तथा भारतीय सेना भी इस मुहिम में जुड गईं। क्रांति के प्रचार के लिए फकीरों व संन्यासियों के भेष में नाना साहब के कार्यकर्ताओं ने बंगाल के बैरकपुर से लेकर पखनूतिस्थान के पेशावर तक तथा लखनऊ से लेकर महाराष्ट्र के सतारा तक सघन प्रचार किया।इस प्रयास से दिल्ली, बिठूर, लखनऊ, कलकत्ता व सतारा क्रांति के प्रमुख केन्द्र बन गए।एक अंग्रेज़ अधिकारी विलसन ने अपने अधिकारी को सूचित किया कि 31 मई की तारीख भारतीयों ने विद्रोह के लिए निश्चित कर ली है।उस समय भारत की राजधानी कलकत्ता थी, परंतु मुगल बादशाह दिल्ली के लालकिले में बैठा था तो दिल्ली का महत्व भी कम नहीं था।
नाना साहब ने अपनी शक्ति और बुद्धि बल से क्रांति की देवी व उसके पुत्रों (भारतीय सैनिक व अंग्रेजों के विरोधी जागीरदार तथा राजा)को झकझौर कर जगा दिया था।जब क्रांति की देवी ने आंखें खोल कर लालकिले की ओर देखा तो लालकिले के अंदर बैठा बादशाह अत्यंत कमजोर, निर्धन, बूढ़ा और उत्साहहीन था। उसमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वह खड़ा होकर क्रांति की देवी के स्वागत के लिए लालकिले का दरवाजा खोल दे।इस अवस्था में क्रांति की देवी के पुत्रों ने स्वयं आगे बढ़कर लालकिले के दरवाजे को लात मारकर खोल दिया तथा लालकिले के अंदर बैठे बादशाह को अपने आगोश में भरकर ना चाहते हुए भी क्रांति की देवी के स्वागत के लिए लालकिले के दरवाजे पर खडा कर दिया।
जब अंग्रेजों पर 31 मई को बगावत होने की सूचना पहुची तो वे भी चोकन्ने हो गये। अंग्रेज जहां जहां से खतरा समझते थे, वहां निगाह गड़ाए हुए थे। बंगाल आर्मी की छावनियों में एक छावनी मेरठ में भी थी। अंग्रेजों पर पहुंची सूचनाओं के आधार पर उन्हें मेरठ से कोई खतरा नहीं था।मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, मेरठ में 2200 अंग्रेज़ सिपाही थे।एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। लेकिन यह ईश्वर की कृपा ही थी कि 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के प्रारंभ करने का श्रेय मेरठ को प्राप्त हुआ।
इस समय केंटोनमेंट का क्षेत्र मेरठ की सदर कोतवाली के अंतर्गत आता था तथा इस कोतवाली का कोतवाल धन सिंह गुर्जर था जो मेरठ से बागपत रोड पर स्थित पांचली खुर्द गांव का निवासी था।जैसा ऊपर बताया जा चुका है कि साधु संन्यासी तथा फकीरों के भेष में नाना साहब के गुप्तचरों द्वारा क्रांति में भाग लेने वाले लोगों से सम्पर्क किया गया था।इस निमित्त धन सिंह कोतवाल का सूरजकुंड पर अयोध्या से आये एक साधु से सम्पर्क हुआ था। सम्भवतः राव कदम सिंह से भी किसी ना किसी का मेल-मिलाप अवश्य हुआ होगा।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सीकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी। मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
रात भर 70 किलोमीटर चलने के बाद 11 मई को दिन निकलने से पहले मेरठ के ये क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली के यमुना तट पर पहुच गये।इन सैनिकों में बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के 3,11,20 नम्बर बटालियन के घुड़सवार सैनिक थे।इन तीनों दस्तों का नेतृत्व तीन नम्बर बटालियन के सैनिक कर रहे थे। दिल्ली में घुसने के लिए नावों को जोड़ कर एक पुल बना हुआ था।इस पुल से ही ये सैनिक शहर में प्रवेश कर गये।इन सैनिकों ने लाल किले के बाहर पहुंच कर किले के चोबदार के हाथों बादशाह के पास सूचना भिजवाई कि मेरठ से आये सिपाही मिलना चाहते हैं। बादशाह ने मिलने के लिए मना कर दिया और कहा कि वे शहर से बाहर बादशाह के आदेश का इंतजार करें।इस समय तक अंग्रेजों को मेरठ से आने वाली इस सेना की सूचना मिल चुकी थी। अंग्रेजों ने दिल्ली नगर के परकोटे के दरवाजे बंद करने का प्रयास किया। लेकिन तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। क्रांतिकारी सिपाही दक्षिणी दिल्ली में राजघाट दरवाजे की तरफ से दिल्ली में घुस गये थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने घुसते ही चुंगी के एक दफ्तर में आग लगा दी।अब वे उत्तरी दिल्ली में स्थित सीविल लाइन की तरफ बढ़ चले, जहां दिल्ली के उच्च अधिकारी व उनके परिवार रहते थे।इस समय दिल्ली से तीन किलोमीटर दूर बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की दो बेरकें थी,इन बेरकों में इंफेंट्री की 38,54,74 वी बटालियन के जवान थे। उन्होंने मेरठ से आये सिपाहियो को बारूद और तोपे उपलब्ध करा दी।असलाह मिल जाने के बाद क्रांतिकारी सैनिकों ने उत्तरी दिल्ली के अंग्रजों द्वारा बनाए गए सभी महत्वपूर्ण कार्यालयों को बर्बाद करने के बाद अंग्रेज़ अधिकारियों व पादरियों के बंगलों को आग के हवाले कर दिया तथा जो भी अंग्रेज मिला उसे मार डाला। कुछ अंग्रेज इस मारकाट से बच कर मुख्य गार्ड में जा कर छिप गए। क्रांतिकारी सैनिकों ने उन्हें वहीं जा घेरा। लेकिन तब तक बेरको से अंग्रेज़ सिपाही पहुंच गए, वहां छिपे अंग्रेज बचा लिए गए।अब क्रांतिकारी सैनिकों ने ब्रिटिश शस्त्रागार पर धावा बोल दिया।इस मेगज़ीन को बचाने के लिए अंग्रेजी सिपाहियो ने भरसक प्रयत्न किया, लेकिन मेगज़ीन में उपस्थित भारतीय सिपाही व कर्मचारी क्रांतिकारी सैनिकों की ओर हो गये। पांच घंटे संघर्ष हुआ। अंग्रेजों ने मेगजीन छीनती देख, अपने हाथों से इसमें आग लगा दी।यहा उपस्थित सभी अंग्रेज अधिकारी मारे गए, सिर्फ तीन बच कर निकल गये।इन तीनों अधिकारियों को बाद में विक्टोरिया क्रास दिया गया।इसके बाद क्रांतिकारी सैनिक कश्मीरी बाजार में पहुंच गए।इन सैनिकों को देखकर अंग्रेजों मे भगदड़ मच गई। कुछ अंग्रेज अधिकारी व उनके परिवार फखरूर मस्जिद में जाकर छिप गए। जिन्हें वहीं जाकर मार डाला गया।इसके बाद अंग्रेज़ अधिकारी कालिंग साहब की हबेली व सेंटजिन्स चर्च को फूंक डाला गया।इस समय तक क्रांतिकारी सैनिकों के सर पर खून सवार हो गया था।स्थानिय लोग उनके सहयोग के लिए निकल पड़े। दिल्ली की गलियों में ढूंढ-ढूंढ कर अंग्रेजों को मार डाला गया। चर्च में मिले 23 अंग्रेजों को मार दिया गया। अंग्रेजों के मारने के बाद अंग्रेजों के समर्थक रहे भारतीयों को स्थानिय लोगों ने बताना शुरू कर दिया।अब क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेज समर्थक रहे भारतीयों को मार डाला। अंग्रेज परस्त जैन व मारवाड़ी साहूकारों को उनके घर सहित नेस्तनाबूद कर दिया गया।यह मारकाट 11 मई के पूरे दिन व रातभर चली।जिन अंग्रेजो की जान बच गई वो उत्तर-पश्चिम दिल्ली में स्थित एक पहाड़ी टेकरी में बने फ्लेग स्टाफ टावर पर एकत्रित हो गए, जिसे रिज कहां जाता हैं।जो आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट है,यही से टेलीग्राफ के माध्यम से दूर अंग्रेज अधिकारियों को दिल्ली में घटित घटना 
  की सूचना भेज दी गई।इसी रात अंग्रेज करनाल के लिए चल दिए।
12 मई को दोपहर बाद बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपने चोबदार को दरिया गंज में भेजकर यह मनादी करवाई कि मार-काट बंद कर दो।जो अंग्रेज या उनके परिवार कहीं छिपे हुए हैं उन्हें लालकिले में ले आओ तथा मृत पडे अंग्रेजों के शवों का दाह-संस्कार किया जाय। बादशाह ने थानेदार मुहद्दीन खां को यह कार्य सोंपा।एक चर्च में छिपे 19 अंग्रेज मिले, जिन्हें लालकिले मे पहुंचा दिया गया।सभी अंग्रेजो के शवों का दाह-संस्कार बादशाह ने करवा दिया।12 तारिख की रात को क्रांतिकारी सैनिक पुनः लालकिले में स्थित बादशाह के महल पर पहुंच गए। उन्होंने बादशाह के चोबदार के माध्यम से बादशाह से मिलने की सूचना पहुचवाई। बादशाह ने मिलने से मना कर दिया।ये सिपाही चाहते तो बलपूर्वक जा सकते थे, परंतु वो समय की नजाकत को समझ रहे थे। यदि बादशाह का बरदहस्त नही मिला तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा।वो अकेले पड़ जायेंगे। इसलिए वो बाहर ही डटे रहे तथा बादशाह से बार-बार मिलने का आग्रह करते रहे। आधीरात को क्रांतिकारी सैनिकों की बादशाह से मुलाकात हुई। बादशाह ने उनको फटकार लगाते हुए कहा कि शहर के लोगों को मारकर क्या मिलेगा? उन्होंने बहुत गलत किया है।अंत में बादशाह ने नेतृत्व स्वीकार कर लिया। बादशाह ने कहा कि अब वो किसी निरपराध को ना मारे, अनुशासन में रहे।12 मई की रात को 12 बजे बादशाह को 21 तोपों की सलामी देदी गई।पूरी दिल्ली तोपों की गर्जना से दहल गयी। बादशाह ने अपने बड़े शहजादे मिर्जा मुगल को अपनी इस सेना का सेनापति बना दिया।अब क्रांतिकारी सिपाही नेतृत्व विहिन नही थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह से निवेदन किया कि दिल्ली की जनता को भी पता चलना चाहिए कि आप बादशाह हैं और हम आपके सैनिक। इसलिए 13 मई को बादशाह को हाथी पर बैठाकर दिल्ली की सड़कों पर जुलूस निकाला गया, जिसमें बादशाह के नाम के नारे लग रहे थे।यह समय का कैसा चक्र था कि जिस बादशाह के पास एक सिपाही को वेतन देने के लिए धन नहीं था वह एशिया की सबसे उन्नत सेना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाहियो का स्वामी बन गया था।

परिशिष्ट नंबर-4

13 मई को बादशाह बहादुर शाह जफर का शाही जुलूस जब दिल्ली की सड़कों पर निकला तो दिल्ली की जनता ने क्रांतिकारी सैनिकों का फूल बरसाकर तथा जगह-जगह मिठाई खिलाकर स्वागत किया।जो अंग्रेज दिल्ली में बच गये थे वो सब बादशाह के संरक्षण में लालकिले में थे,उनकी संख्या 52 थी। बादशाह ने मृत अंग्रेजों का दाह-संस्कार भी करवा दिया था। अतः क्रांतिकारी सैनिकों के नेतृत्व कर्ताओं को ऐसा आभास हुआ कि बादशाह दोहरी राजनीति कर रहा है, यदि किसी कारणवश क्रांतिकारी सेना हार गयी और अंग्रेज पुनः दिल्ली पर काबिज हो गये तो बादशाह अंग्रेजों के साथ अपने द्वारा किए गए सकारात्मक व्यवहार के बदले क्षमादान प्राप्त कर सकता है। अतः इस सम्भावना को समाप्त करने के लिए क्रांतिकारी सिपाही 16 मई को बादशाह के पास पहुंच गए और उन्होंने बादशाह से उन 52 अंग्रेजों के वध की आज्ञा मांगी जो बादशाह के संरक्षण में थे। बादशाह ने अनुमति नहीं दी लेकिन क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह की बिना अनुमति के ही इन 52 अंग्रेजों को लालकिले के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे लाकर मार डाला।जब यह समाचार दिल्ली की जनता को मिला तो अधिकांश प्रसन्न हुए। परंतु बादशाह बडा दुखी हुआ। अंग्रेजों के चापलूस अब भी बादशाह के आसपास मौजूद थे, उन्होंने इस घटना की सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी। बादशाह व उसके शहजादे को युद्ध का कोई अनुभव नहीं था। इसलिए अंग्रेजों का सामना करने की तैयारी क्या हो? वो नहीं जानते थे। उन्हें सेना के लिए रसद,घायलो के लिए चिकित्सा तथा दिल्ली के चारों ओर जहां से बादशाह को मदद मिलने वाली थी उन लोगों की सुरक्षा का प्रबंध तथा अंग्रेजों को जो मदद कर सकते थे उनका दमन तथा अंग्रेजों की रणनीति का पता चलता रहे इसके लिए गुप्तचरों की व्यवस्था करनी थी, परंतु उन्होंने कुछ नहीं किया।जो कुछ भी था क्रांतिकारी सैनिकों तथा जनता के भरोसे था। क्रांतिकारी सैनिकों के भोजन का भार दिल्ली की जनता उठा रही थी। दिल्ली के चारों ओर बसें गुर्जर क्रांतिकारी सैनिकों के साथ उसी तरह का सहयोग कर रहे थे जैसा मेरठ में दस मई को किया था।वो दिल्ली के रास्तों पर नाके स्थापित कर तैनात हो गये तथा व्यवस्था बनाने में सेना का सहयोग देने लगे।
दूसरी ओर अंग्रेजों की तैयारी तेजी से चल रही थी। अंग्रेजों की सबसे बड़ी सेना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री थी। जिसमें 139000 सिपाही थे, जिनमें से 132000 हजार सिपाहियों ने क्रांति का झंडा उठा लिया था।अब इन्हें काबू में करने के लिए अंग्रेजों के पास बडी सेना अफगानिस्तान के बार्डर पर तैनात थी,जब तक वो सेना दिल्ली पहुंचे तब तक क्रांतिकारी सैनिकों को घेरे रखने के लिए दिल्ली के आसपास मेरठ,अम्बाला, करनाल में स्थित अंग्रेजी सेनाओं के उपयोग की योजना तैयार की गई तथा 17 मई सन् 1857 को अम्बाला व मेरठ की गोरी पलटनों को दिल्ली की ओर भेजा।अम्बाला की सेना जब करनाल पहुंची तभी सेना में हैजा फ़ैल गया। सेना का जनरल जांन एनसन हैजे से मर गया। कुछ दिनों बाद हैजे का प्रकोप कम होने पर जनरल हेनरी बर्नाड के नेतृत्व में सेना ने कूच किया।मेरठ और अम्बाला की ये गोरी पलटन 7 जून 1857 को अलीपुर नामक स्थान पर मिल गयी।एक गोरखा पलटन भी इनके साथ आ जुडी।
इसी बीच विलियम होडसन जो एक अंग्रेज़ अधिकारी था और अमृतसर का डिप्टी कमिश्नर रहा था, कमांडर इन चीफ जान एनसन के सहयोग के लिए नियुक्त था ने पंजाब से एक घुड़सवार दस्ता बनाया जिसमें सब सिक्ख घुड़सवार थे।इस दस्ते का नाम होडसन होर्डस रखा गया।इस दस्ते को शत्रु पक्ष से युद्ध नही करना था।इस का काम अंग्रेजों की सेना के आगे रहकर जासूसी करना था ताकि सेना को सटीक जानकारी प्राप्त होती रहें।इतना ही नहीं होडसन ने मोलवी रजब अली को अपनी गुप्तचर विभाग का प्रमुख बनाया।यह रजब अली पहले भी अंग्रेजों के लिए जासूसी करता था। इसके आदमी पूरे दोआबा तथा दिल्ली के लालकिले के अंदर तक थे।इस रजब अली के कारण ही लालकिले की हर खबर होडसन तक पहुंच रही थी।रजब अली का कमाल यह था कि बादशाह बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल, प्रधानमंत्री हकीम अहसन उल्ला खां व बादशाह के शहजादे मिर्जा फखरु का ससुर मिर्जा इलाही बख्श भी होडसन के मुखबिर बन गए थे।ये वो लोग थे जो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते थे। वे ऐसा सोचते थे कि यदि क्रांतिकारी सेना अंग्रेजों से हार गई तो होडसन से लाभ प्राप्त कर लेंगे, यदि बादशाह जीत गया तो वो उसके नजदीक थे ही। बेचारे बादशाह और उसके सेनापति शहजादे को कुछ मालूम नही था।
8 जून सन् 1857 को अंग्रेजों की सेना यमुना तट से दस किलोमीटर दूर बडली की सराय नामक स्थान पर पहुंची। क्रांतिकारी सेना भी यही पर डेरा डाले हुए थी। गोरी सेना ने इस सेना पर हमला कर दिया तथा क्रांतिकारी सेना को दिल्ली की ओर धकेल दिया। अंग्रेजी सेना ने रिज पर कब्जा कर लिया जो एक बडी सफलता थी।10 जून से गोरी सेना ने छोटी तोपों से दिल्ली पर गोलीबारी शुरू कर दी। होडसन ने रिज पर ही अपना कार्यालय बना लिया।13 जून को हिंदू राव हाउस तथा बैंक आफ देहली का भवन गोलाबारी में तबाह हो गया। दिल्ली में हलचल पैदा हो गई।19 जून को क्रांतिकारी सेना ने रिज पर जमी गोरी सेना पर जोरदार हमला किया परन्तु रिज पर कब्जा न हो सका।23 जून 1857 को फिर एक बडा हमला क्रांतिकारी सेना ने रिज पर जमें अंग्रेजों पर किया।यह हमला भी विफल हो गया।
अंग्रेजों की सेना में फिर से हैजा फ़ैल गया।5 जुलाई को जनरल बर्नाड हैजे से मर गया। इन परिस्थितियों में आरकिडेल विल्सन मेजर जनरल बना।
14 जुलाई सन् 1857 को क्रांतिकारी सैनिकों की गोलीबारी में ब्रिगेडियर लेविली चैम्बर लेन बुरी तरह घायल हो गया।
दूसरी ओर बादशाह बहादुर शाह जफर की सेना में नेतृत्व की कमजोरी के कारण आक्रोश फैल रहा था। क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह बहादुर शाह जफर से साफ कह दिया कि मिर्जा मुगल व बादशाह के पोते अबू बक्र का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है।इन परिस्थितियों में बादशाह ने बख्त खां को क्रांतिकारी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर दिया।

परिशिष्ट नंबर-5

दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर लगीं तोपों से क्रांतिकारी सेना तथा रिज पर लगी तोपों से अंग्रेजी सेना की ओर से लगातार गोलीबारी हो रही थी। भारत की अलग-अलग छावनियों से बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की बटालियन दिल्ली पहुंच कर क्रांतिकारी सेना में मिलती जा रही थी।इसी क्रम में 14 अगस्त सन् 1857 को अफगानिस्तान बार्डर पर तैनात एक बहादुर अंग्रेज अधिकारी जान निकलसन करीब चार हजार गोरे सैनिकों के साथ रिज पर पहुंच गया। क्रांतिकारी सैनिकों ने रिज पर फिर जोरदार हमला किया। परन्तु अंग्रेजों की सेना ऊंचाई पर होने के कारण क्रांतिकारी सेना को कोई सफलता नहीं मिली।25 अगस्त को निकलसन ने नजबगढ़ गढ़ में मोर्चा लगाये क्रांतिकारी सेना पर जोरदार हमला किया।इस हमले में क्रांतिकारी सेना को नजबगढ़ से पीछे हटना पड़ा।निकलसन ने हाथ आये क्रांतिकारी सैनिकों को मार डाला।सर जॉन लोरेंस नाम के एक अधिकारी ने निकलसन को पत्र लिखकर कहा कि बागी सैनिकों का पहले कोर्ट मार्शल होना चाहिए,ऊनकी लिस्ट बननी चाहिए तब सजा देनी चाहिए।इस पत्र के पीछे निकलसन ने एक लाइन लिखकर पत्र वापस भेज दिया, जिसमें लिखा था कि प्रत्येक बागी की एक ही सजा है और वो है मोत।इस समय रिज पर तैनात तीनों अंग्रेज अधिकारी निकलसन,होडसन व मेटकाफ एक मत हो गये थे। आर्क डेल विल्सन के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना लड़ रही थी। क्योंकि अंग्रेजों के पास बडी तोपें नही थी इसलिए दिल्ली के अंदर घुसने का मार्ग नहीं बन पा रहा था। सितंबर सन् 1857 को पंजाब से बडी तोपें गोरी सेना के पास पहुंच गयी।6 सितंबर व 8 सितंबर को गोरी सेना ने बडी तोपों से क्रांतिकारी सेना पर जोरदार हमला किया तथा दिल्ली में घुसने का प्रयास किया। परंतु क्रांतिकारी सेना ने यह प्रयास विफल कर दिया तथा गोरी सेना को पीछे धकेल दिया।अब अंग्रेजों ने 50 तोपों से भारी गोलीबारी की जिसमें 300 के करीब क्रांतिकारी सिपाही शहीद हो गए।14 सितंबर को निकलसन के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना पर जबरदस्त हमला किया गया, क्रांतिकारी सैनिकों ने काबुल गेट के बाहर किशनगंज में भारी युद्ध किया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी ओर से सर हथेली पर रखकर लड़े।सर जान चर्च पर अधिकार को लेकर भयानक युद्ध हुआ जिसमें 1170 अंग्रेज सैनिक मारे गए। अंग्रेज अधिकारी निकोलसन घायल हो गया। इस संघर्ष में इतने अंग्रेज अधिकारी मारे गए कि अंग्रेज सैनिकों को यह भ्रम होने लगा कि उनका अधिकारी कौन है।
16 सितंबर को अंग्रेजों का पुनः उस मेगज़ीन पर अधिकार हो गया, जिसे 11 मई को क्रांतिकारी सैनिकों ने कब्जाया था।16 सितंबर की को ही सेनापति बख्त खां बादशाह से मिला।बख्त खां ने कहा कि अब दिल्ली हमारे अधिकार से निकलने वाली है अतः हमें एक स्थान पर लड़ने के बजाय खुलें मैदान में बाहर लडना चाहिए। हमें शत्रु के सामने आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए।बख्त खां ने बादशाह को अपने साथ चलने के लिए कहा। परन्तु बादशाह डरा हुआ,हताश और निराश था, जिस वीरता की इस समय आवश्यकता थी वह तो उसमें दूर-दूर तक नहीं थी। बहुत से जेहादी लालकिले के नीचे इकट्ठा होने लगे, दिल्ली के आम नागरिक भी लाठी बंदूक लेकर लालकिले के सामने पहुंच गए।जिनकी संख्या करीब 70000 के करीब थी।इस भारी भीड़ को देखकर बादशाह भी अपनी पालकी में बैठकर बाहर निकल आया।शहर में हल्ला मच गया कि बादशाह बहादुर शाह जफर युद्ध के लिए मैदान में आ गया है। सामने गोरी सेना की ओर से फायरिंग चल रही थी। तभी अंग्रेज अधिकारी होडसन के जासूस हकीम एहसान अल्ला खां ने बादशाह को डरा दिया कि वो बाहर क्यो आ गये। जबर्दस्त हमला हो रहा है जान चली जायेंगी। बहादुर शाह जफर अपने जीवन में पहली बार लडने निकला था, करीब तीन घंटे में बिना लड़े ही वापस किले में चला गया।शहर में फिर हल्ला मच गया कि बादशाह भाग गया। दिल्ली में भगदड़ मच गई। अंग्रेज अधिकारी यह देखकर हैरान रह गए,वो समझ गये कि दिल्ली ने हार मान ली है।16 सितंबर की रात को 11 बजे बादशाह ने अपनी पुत्री कुलसुम जमानी को बुलाकर कुछ गहने व धन दिया तथा कहा कि वह अपने शोहर मिर्जा जियाउद्दीन के साथ चली जाय। यहां उसकी जान को खतरा है। कुलसुम जमानी रात को ही दिल्ली से मेरठ की ओर को निकल चली। परन्तु रास्ते में गुर्जर क्रांतिकारी सड़कों पर लगे हुए थे। बादशाह के भागने की खबर से ये सब कुपित थे।जब बादशाह की लड़की को भागते देखा तो इन्होंने कुलसुम जमानी से सारा धन छिन लिया।

17 सितंबर को सूरज निकलने से पहले ही बहादुर शाह जफर लालकिले से अपने भरोसे के नोकरो के साथ निकल लिया।वह साथ में कुछ सामान भी लिए हुए था।वह कश्ती में बैठकर यमुना नदी के पुराने किले के घाट की ओर उतरा तथा शहाजहानाबाद से तीन मील दूर दक्षिण में ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर पहुंचा। उसने वह सामान वहीं रख दिया।इस सामान में पैगम्बर साहब की दाढ़ी के तीन पवित्र बाल भी थे जो तेमूरी खानदान की विरासत के रूप में उसे मिले थे। इसके बाद बादशाह अपने महरोली के महल की ओर चल दिया जहां बख्त खां से उसकी मुलाकात होनी थी। बादशाह समझ रहा था कि उसे किसी ने नही देखा है परन्तु होडसन के जासूस उसके पीछे ही थे। बादशाह के रिश्तेदार इलाही बख्श बादशाह के पास पहुंच गया, उसने बादशाह को बताया कि वह दिल्ली के बाहर न जाय, दिल्ली के सब रास्तों पर गुर्जरों ने कब्जा कर रखा है।वे उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा अब तक अंग्रेजों के साथ किया है। लेकिन बादशाह ने उसकी बात नहीं सुनी तथा चलता रहा। इलाही बख्श ने बादशाह को बताया कि बेगम जीनत महल का होडसन के साथ समझौता हो गया है।उसकी जान को कोई खतरा नहीं है। बेगम निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में उसका इंतजार कर रही है। अब बादशाह रुक गया।वह बेगम जीनत महल को साथ लेकर हूमायू के मकबरे में चला गया। अब बादशाह एक तरह से होडसन का बंदी बन चुका था।जिसकी उसे भनक तक नहीं थी।
जब दिल्ली में यह सूचना फैल गई कि बादशाह लाल किला छोड़कर भाग गया है तो दिल्ली की आम जनता साहस खो बैठी।आम जनसाधारण का पलायन शुरू हो हो गया। इतने में यह अफवाह फैली कि दिल्ली के बाहर जाने वाले रास्तों पर गूजर और मेवाती मोर्चा लगाये बैठे हैं।तो यह जनता वापस अंग्रेज़ों की ओर लौट चली।जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि अंग्रेजों के उदारवादी चेहरे का प्रचार इतना अधिक था कि दिल्ली की जनता अपने भारतीय गूजर और मेवाती क्रांतिकारियों के स्थान पर अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेजों को अधिक उपयुक्त मान रही थी। परन्तु जब उनका सामना अंग्रेजों से हुआ तो उनकी जान व सम्पत्ति सब कुछ छीन गया।
दिल्ली पर कब्जा करने के लिए जो संघर्ष भारतीय क्रांतिकारियों व अंग्रेजों के मध्य में हुआ, उसमें अंग्रेजों की ओर से 3817 सिपाही मारे गए तथा 5000 सिपाही घायल हुए। अनुमानतः 5000 क्रांतिकारी भारतीय सिपाही शहीद हुए, घायलों का कोई लिखित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
18 सितंबर को अंग्रेजों ने जामा मस्जिद पर अधिकार कर लिया तथा 19 सितंबर को लालकिले का घेरा डाल दिया।20 सितंबर की सुबह लालकिले पर हमला कर अंग्रेज सेना अंदर घुस गई।मेजर जनरल विल्सन दिवाने खास मे आ गया था। लालकिले में जो भी मिला गोरी सेना ने उसे मार डाला। अंग्रेज अधिकारियों ने सेना को आदेश दे दिया कि दिल्ली की पूरी सफाई कर दे। सफाई का मतलब जो भी मिले मार डाले। बूढ़े बीमार महिलाए, घायल क्रांतिकारी सिपाही जो भी मिला मार डाला गया। अंग्रेज सैनिकों ने शाही हरम से 300 महिलाओं को सैनिक शिविर में ले जाकर, उनसे बलात्कार किया। अंग्रेज सिपाहियो का ऐसा मानना था कि बादशाह बहादुर शाह जफर के रहते हुए, भारतीय क्रांतिकारियों ने अंग्रेज महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। शांति स्थापित हो जाने के बाद एक अंग्रेज़ अधिकारी चार्ल्स सांडर्स ने इन आरोपों की जांच की, जांच के दौरान सांडर्स ने पाया कि अंग्रेज सैनिकों द्वारा भारतीय क्रांतिकारियों पर बलात्कार का आरोप गलत था।
20 सितंबर को बख्त खां ने फिर बादशाह से साथ चलने के लिए कहा परन्तु वह नहीं माना।अब इलाही बख्श को साथ लेकर होडसन ने बादशाह को गिरफतार कर लिया तथा बेगम जीनत महल की हवेली में बंद कर दिया। बादशाह के दो शहजादे मिर्जा मुगल व खिज्र सुल्तान तथा पोता अबू बक्र अभी पकड़ें नहीं जा सके थे।जब इलाही बख्श ने देखा कि बादशाह को अंग्रेजों ने मारा नहीं तो उसने तीनों शहजादों का पता होडसन को बता दिया।होडसन ने तीनों शहजादों को हुमायूं के मकबरे से गिरफ्तार कर दिल्ली ले जाकर लालकिले के सामने उनको नंगा कर गोली से मार डाला। तीनों के शव थाने के सामने तीन दिन तक पडे रहे। तीन दिन बाद शवों को उठाकर यमुना के तट पर फैंक दिया।
21 सितंबर सन् 1857 को अंग्रेज अधिकारियों ने दिल्ली पर विजय की अधिकारिक घोषणा कर दी। क्रांतिकारी सेना पराजित हो चुकी थी बादशाह गिरफ्तार हो चुका था,अब तो अंग्रेजों को चारों ओर शांति स्थापित करनी थी।
गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने उदारता दिखाते हुए कहा कि जो हथियार डाल देगा, उसके साथ न्याय होगा। परन्तु उनकी यह घोषणा एक राजनीतिक घोषणा हो कर रह गई। अंग्रेजी सेना ने उसका पालन नहीं किया। खुद लार्ड केनिंग ने अपने पत्र में रानी विक्टोरिया को भारतियों पर किए गए अत्याचारों के विषय में लिखा।

संदर्भ ग्रंथ

1-डा दयाराम वर्मा- गुर्जर जाति का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास।
2--डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां(यू-टयूब-164,165,167,168,189 -193,197 -202,204-212,222)
3- डा सुशील भाटी- मेरठ के क्रांतिकारियों का सरताज राव कदम सिंह।
 4- कुंवर प्रताप सिंह नागर सचिव राजा नैन सिंह स्मारक समिति।

परम्पराए
1- क्या आपके परिवार में अपने किसी पूर्वज के चित्र लगाने की परम्परा है?
2- मजार को मानते हैं क्या?
3- किस सिलसिले से है।
4- आपके बेटे/बेटी का निकाह किस गोत्र/जाति में हुआ है।
5- क्या आपके पूर्वजों का कोई दस्तावेज है?
6- आपकी वंशावली है क्या?
7- आपके पूर्वजों ने इस्लाम धर्म कब अपनाया?
8- क्या आपके परिवार में से आपके गोत्र के कोई हिन्दू है,तो कौन?
9- निकाह में किस तरह की परम्परा अपनाते हैं।
10- क्या आपके परिवार में महिलाएं सिंदूर लगाती है?
11- क्या आपके परिवार में साड़ी बांधी जाती है?
12- क्या आपकी महिलाएं बुर्का
 पहनती हैं?
13- क्या आपका भोजन शाकाहारी हैं?
14- शादी में बेटे/बहू को क्या देने का रिवाज है?
15- क्या शादी में फेरो की रस्म होती है?
16- क्या शादी में वरमाला की रस्म होती है?
17- शादी के बाद घर आने पर कौन-कौन सी रस्म होती है।
18- क्या आपके खानदान के हिंदू मान (दामाद)का मान सम्मान करते हैं?उसे उपहार भेंट देते हैं।
19- क्या निकाह में हल्दी का प्रयोग होता है?
20- क्या निकाह में भात लिया जाता है?
21- यदि भात लिया जाता है तो गीत की चार पंक्तियां।
22- क्या निकाह के बाद दामाद को पहली बार बुलाने के लिए पांव फेरी होती है।
23- क्या नाम में जाति का टाईटल लगता है? जैसे अमीर,जाट, गुर्जर आदि।
24- बच्चे के जन्म पर कौन-कौन सी रस्म होती है।
25- क्या पूर्वजों की स्मृति में कोई कार्यक्रम होता है?
26- क्या आपको अपने पूर्वजों के मूल नाम की जानकारी है?
27- क्या आपका परिवार अपने पूर्वजों के रिवाज को मानता है तथा निभाता है।
28- शादी में किस-किस गोत्र को बचाकर सम्बन्ध करते हैं।
29- क्या मुस्लिम बनने के बाद भी आपका परिवार अपनी जाति परम्परा को मानता है?
30- अपने पूर्वजों का कौन सा त्यौहार आपका परिवार मानता है। अथवा उस त्यौहार पर बनने वाला विशेष खान-पान आपके घर पर बनता है क्या?
31- क्या आप मानते हैं कि धर्म बदलता है खून का रिश्ता नहीं?
32- क्या निम्न लिखित बातें आपके परिवार में मानी जाती है?
दिशाशूल,ग्रह, ग्राम देवता,शुभ अशुभ का विचार, जादू-टोना आदि।
33- क्या सुहाग की निशानी बिंदी, मांग, मंगलसूत्र,बिछूआ,कलावा में से कोई प्रयोग होता है।
34- क्या मकान बनाते समय वास्तू का ध्यान रखते हैं?
35- क्या मकान के दरवाजे पर कोई सुपारी बांधी जाती है?
36- क्या नए मकान में देहली पूजन होता है?
37- क्या शादी में लहंगा चूनरी पहनने की परम्परा है?
38- क्या शादी में गोने की रस्म होती है?
39- क्या कंगना खेला जाता है?
40- क्या विदाई दी जाती है?
41- क्या किसी कार्य में मूहर्त देखी जाती है?
42- क्या बच्चे की छठी मनाई जाती है?
43- क्या बच्चे का मुंडन होता है?
44- क्या बच्चे का पहला आहार मामा या बुआ के हाथ से खिलाया जाता है?
45- क्या त्यौहार पर दीपक जलता है?
46- क्या होली दीवाली पर कोई रस्म करते हैं?
47- मुंडेरी पर कौआ का विचार माना जाता है।
48- क्या खेत बोते समय कोई शगुन करते हैं?
49- शुभ अशुभ का विचार जैसे-
(क) सुबह गाय का दिखना
(ख) नीलकंठ का दीखना
(ग) तारों का दिखाई देना
आदि किसी को कुछ माना जाता है।
50- क्या अशुभ का विचार जैसे-
(क) बिल्ली का रोना
(ख) कुत्ते का रोना
आदि को कुछ माना जाता है।
51- क्या विधवा महिलाओं में सफेद कपडा पहनने की परम्परा है?
परम्परा लेखन
जाट गुर्जर राजपूत और त्यागी मेरठ प्रांत में बडी संख्या में निवास करते हैं। चारों जाति में हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख धर्म के अनुयाई है।
सनातन धर्म/हिन्दू धर्म से परिष्कृत होकर बौद्ध जैन और बाद में सिक्ख धर्म में लोग गये है। भारतीय संविधान में भी गेर मुस्लिम,गेर ईसाई,गेर पारसी,गेर यहूदी धर्म वालो को हिंदू धर्म का हिस्सा माना गया है।अत हिंदू धर्म में जो लोग है उनकी परम्परा लगभग एक जैसी ही है। भारत एक बहुत बड़ा भूभाग है। जिसमें विंध्याचल पर्वत के उत्तर में पंजाब तक शैव मत के अनुयाई ज्यादा प्रभाव शाली रहें हैं। विंध्याचल के दक्षिण में वैष्णव मत के अनुयाई प्रभाव शाली रहें हैं। दोनों ओर के भारतियों को चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र मे विभाजित किया गया है। परंतु भारत के दक्षिण भाग में जो वैष्णव मत के अनुयाई है उनकी वर्ण व्यवस्था में कठोरता है, कार्य तो दोनों ओर एक ही है परन्तु अधिकारो में भिन्नता है। जैसे मनुस्मृति के अनुसार चार अधिकार दिए गए हैं, जैसे पढना,पढाना,शस्त्र रखना, सम्पत्ति रखना।
 वैष्णव मत मे ब्राह्मण को चारो अधिकार प्राप्त है, क्षत्रिय को तीन अधिकार प्राप्त है,पढाना क्षत्रिय का अधिकार नही है। वैश्य को दो अधिकार प्राप्त है,पढाना और शस्त्र रखना वैश्य के अधिकार में नही है।शुद्र को कोई अधिकार नहीं है,उसका कार्य बाकी सभी की सेवा करना हैं।
लेकिन उत्तर भारत के शैव मत मे चारों वर्णों के लोगों को चारो अधिकार प्राप्त है। कोई भी अपनी सामर्थ्य अनुसार हासिल कर सकता है।
हिंदू धर्म में 16 संस्कार बताए गए हैं। जैसे
(1) गर्भाधान (2) पुंसवन (3) सीमन्तेत्नयन (4) जातकर्म (5) नामकरण (6) निष्क्रमण (7) अन्नाप्राशन (8) मुंडन (9) करणवेधन (10) विद्यरेम (11) उन्नयन (12) वेदारंभ (13) केशांत (14) सम्वर्तन (15) विवाह (16) अन्त्येष्टी

उपरोक्त 16 संस्कार मे दक्षिण भारत में वैष्णव मत मे उन्नयन/यज्ञोपवीत संस्कार सबसे प्रमुख संस्कार माना जाता है।यह संस्कार ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य का ही होता है,शुद्र का यज्ञोपवीत संस्कार नही होता। परन्तु उत्तर भारत जहा शैव मत का प्रभाव अधिक है में विवाह संस्कार सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।यहा यज्ञोपवीत संस्कार नही होता।अत वैष्णव धर्म/ब्राह्मण धर्म/वर्णाश्रम धर्म के अनुयाई शैव मत के अनुयाइयों को व्रात्य कह कर पुकारते हैं।
मेरठ प्रांत क्योंकि उत्तर भारत में स्थित है, इसलिए यहा शैव मत के अनुयाई है,जाट गुर्जर राजपूत और त्यागी चारों मे ही यज्ञोपवीत संस्कार नही होता।यहा -
जातकर्म संस्कार- इसमें बालक को शहद और घी चटाया जाता है।इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
नामकरण संस्कार- इसमें ब्राह्मण से पूछकर बच्चे का नाम रख दिया जाता है।
मुंडन संस्कार- इसमें बच्चे के प्रथम बार बाल कटवाये जाते हैं।लोग अपनी सामर्थ्य अनुसार अपने गांव की भूमिया,नदी के तट पर जैसे हरिद्वार और गढ़मुक्तेश्वर तथा गुड़गांव में आदि सिद्ध पीठ पर जाकर मुंडन करवाते हैं तथा सामर्थ्य/श्रद्धा अनुसार बाल काटने वाले नाई को धन देते हैं।
विवाह संस्कार- यह उत्तर भारत के रहने वाले हिन्दुओं का एक प्रमुख और महत्वपूर्ण संस्कार है जो धूमधाम से मनाया जाता है।
अंत्येष्टि संस्कार- यह भी एक महत्वपूर्ण संस्कार है,जिसको उत्तर भारत में तेरहवीं कहकर पुकारा जाता है। इसमें व्यक्ति मृतक की आत्मिक शांति के लिए ब्राह्मण से हवन करवा कर,अपनी सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करवाके दक्षिणा देता है, कोई ब्राह्मण के स्थान पर गाय व गरीबों को भी भोजन करा देता है। कोई अपने रिश्तेदारों व जान-पहचान वालों को भी भोजन करा देता है।
उत्तर भारत में जाट व गुर्जर जाति में विधवा विवाह हो जाता है,अब देश के संविधान में सबको विधवा विवाह का अधिकार प्राप्त है। परन्तु धर्म के अनुसार राजपूत और त्यागी मे विधवा विवाह नही होते थे।
जाट व गुर्जर समाज में महिलाओं में करवा चौथ के व्रत का प्रचलन नही था, लेकिन अब होने लगा है।
गांव देहात में श्रंगार का प्रचलन बहुत कम रहा है, विवाहिता पैर में बिछुआ जरुर पहनती थी, परंतु अब बदलाव है। श्रंगार कर लेती है।
गुर्जर समाज में महिलाओं में कमीज सलवार और सर पर ओढना पहना जाता था।
जाट समाज में सूट सलवार या कमीज तथा साडी का पहनावा रहता था।अब इन लोगों मे भी साडी और ब्लाउज का पहनावा शुरू हो गया है।
महिला और पुरुष में भेदभाव जाट और गुर्जर समाज में नही है
शादी में पहले पुत्र या पुत्री की शादी के लिए माता-पिता,दादी और नानी का गोत्र बचाया जाता था,अब माता-पिता का गोत्र बचाया जाता है।अब लोग कुछ और आगे बढ़ गये है सिर्फ पिता का गोत्र ही बचा रहें हैं परन्तु वो बहुत कम है।
शादी के लिए गोत्र से भी अधिक क्षेत्र का अधिक महत्व है। यदि एक ही गांव में गोत्र बच भी रहें हो तो शादी नही होती।
समाज में सभी हिन्दू को निसंतान होने पर बच्चा गोद लेने का अधिकार है।गोद लिए बच्चे को वो सभी अधिकार व कर्तव्य प्राप्त है जो सगे बच्चे के होते हैं।
समाज में भाई और बहन का रिश्ता बडा मजबूत है।ऐसा समझिए कि यदि बहन राजा है तो भाई उसका सेनापति है। रक्षाबंधन के पर्व का विशेष महत्व है। बिना भाई की बहन को बेचारी के रूप में देखा जाता है।
लेकिन कानून का राज स्थापित हो जाने से प्रत्येक नागरिक की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार की हो गई है, इसलिए इस रिश्ते मे भी थोडी शीतलता दिखाई देने लगी है।
शादी मे भात एक महत्वपूर्ण रस्म है,जिसे निभाने की जिम्मेदारी मामा की होती है।
लडकी के बेटा पैदा होने पर लड़की पक्ष की ओर से छूछक देने का रिवाज है।
मेरे द्वारा समाज का मनोबल बढ़ाने के लिए समाज के महापुरुषों के जीवन चरित्र पर किया गया लेखन-

क्या जरूरी है घर वापसी -लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
गुर्जर महापुरुष
1- सन् 1857 के अमर क्रांतिकारी एवं किला-परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह- लेखक अशोक चौधरी मेरठ
2- 1857 में सीकरी का बलिदान - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
3- अंतिम हिन्दू सम्राट गुर्जर राज-मरू गुर्जर राज पृथ्वीराज चौहान/ राय पिथोरा - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
4-भारत में किसान आंदोलन के जनक महान क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक (भूप सिंह) - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
5- भारतीय संस्कृति के रक्षक गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
6- राव जेत सिंह नागर तथा किला-परिक्षत गढ़-लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
7- कैराना का (जिला शामली यूपी) बीता कल और आज -लेखक अशोक चौधरी मेरठ
8- ईश्वर का प्रकोप और सेनापति जोगराज सिंह -लेखक अशोक चौधरी
9- महादानी पन्ना -लेखक अशोक चौधरी
10- स्वराज की राह में शहीद मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर -अशोक चौधरी मेरठ
11- 10 मई 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और धन सिंह कोतवाल - लेखक अशोक चौधरी मेरठ

जाट महापुरुष
1- कुर्बानी की राह में एक और शहादत राजा सूरजमल-लेखक अशोक चौधरी मेरठ
2- कुर्बानी की राह का पथिक वीर राजाराम-लेखक अशोक चौधरी मेरठ
3- अमर बलिदानी गोकुला -लेखक अशोक चौधरी मेरठ

राजपूत महापुरुष
1- आऊआ का सन् 1857 की क्रांति में योगदान - लेखक अशोक चौधरी मेरठ
2- राणा प्रताप के अग्रगामी मारवाड़ का योद्धा राव चंद्र सेन राठौड़-लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
भारत में मुस्लिम बनाने के लिए अपनाएं गये तरीके-
1- मुस्लिम हमलावरों के सम्मुख जो अन्य धर्म की सेना हार जाती थी तथा जो सैनिक युद्ध बंदी बना लिये जाते थे। उनके सामने बहुत सीमित विकल्प बचे होते थे सम्मान से जीने के। सबसे उत्तम विकल्प यही होता था कि वो इस्लाम धर्म अपना ले। ऐसा करने पर उनको कोई सजा नही दी जाती थी। इस्लाम स्वीकार ना करने पर उनको गुलाम बना कर बेच दिया जाता था या मार दिया जाता था।
2- मुस्लिम शासकों ने भारत, अफगानिस्तान, ईरान,ईराक वाले क्षेत्र में शासन चलाने के लिए जिस शरीयत को अपनाया है,उसका नाम हनफी है।इस शरीयत के अनुसार गैर मुस्लिम को अपनी सम्पत्ति व सम्मान की रक्षा के लिए बादशाह को जजिया नामक कर देना होता था। जजिया औरतो,साधु सन्यासी व अपाहिज तथा भिखारी और जो गैर मुस्लिम बादशाह को सैनिक सहायता देते थे,से नही लिया जाता था। अतः जजिया कर से बचने के लिए भी मुस्लिम धर्म अपनाया गया है।
3- ग्यासुद्दीन तुगलक ने अपने शासनकाल में किसानों से लगान लेने के लिए जो नियम बनाया, उसके अंतर्गत गैर मुस्लिम किसान से फसल का आधा यानि 50% तथा मुस्लिम किसान ने 15% लगान दर लागू की।इस लगान से बचने के लिए भी हिन्दू गैर मुस्लिम जागीरदार मुस्लिम बने हैं।
4- गरीब व्यक्तियों को पैसे का लालच देकर भी मुस्लिम बनाया गया है। औरंगजेब के समय यह तरीका अपनाया गया था कि पुरुष को 3 रुपए और महिला को 2 रूपए देकर मुस्लिम बनाया गया।
5- गैर मुस्लिम से अपराध हो जाने पर,उस अपराध की सजा से बचने के लिए भी मुस्लिम धर्म अपनाया गया है।गैर मुस्लिम यदि किसी अपराध मे दोषी सिद्ध हो जाये तो उसकी सजा तभी माफ हो सकती थी तब वह मुस्लिम बन जाये।वीर हकीकत राय का बलिदान, गुरु तेग बहादुर का बलिदान, बंदा बैरागी का बलिदान,गुरू पुत्रों का बलिदान, छत्रपति शिवाजी के पुत्र सम्भा जी का बलिदान टल सकता था यदि वो मुस्लिम बन जाते।
6- दक्षिण भारत में शुद्रो को सम्पत्ति रखने का, जागीरदार बनने का अधिकार हिंदू धर्म में नही था, मुस्लिम बन जाने पर उनको वो सभी अधिकार प्राप्त हो जाते थे जो एक क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य को थे,अत अधिकार प्राप्ति के लिए भी हिन्दू से मुसलमान बने हैं। जैसे पेशवा बाजीराव प्रथम ने अपने पुत्र राव कृष्णा को मुस्लिम इसलिए बनवा दिया, क्योंकि ब्राह्मणों ने राव कृष्णा का यज्ञोपवीत संस्कार करने से मना कर दिया था कि उसकी माता मस्तानी एक मुस्लिम थी।राव कृष्णा को मुस्लिम बनने के बाद बांदा जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश में है,का जागीरदार बनाया गया।
7- सूफियों से प्रभावित होकर भी लोग मुसलमान बने हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में वर्तमान शामली जिले में 84 गांव चौहान गुर्जरों के है। इनमें 42 गांव मुस्लिम चौहान गुर्जरों के है।ये मुस्लिम गुर्जर एक सूफी के माध्यम से मुस्लिम बने हैं-
 सूफी शाह अब्दुल रज्जाक द्वारा केराना के चौहान गुर्जर मुस्लिम बनाये गये-

कैराना का (जिला शामली यूपी) बीता कल और आज -लेखक अशोक चौधरी मेरठ
कैराना भारत का प्राचीन नगर है। इसका सम्बंध महाभारत काल से है। ऐसी मान्यता है कि इसका पुराना व प्रसिद्ध नाम करनपुरी था जो बाद में बदल कर किराना तथा कुछ समय पश्चात कैराना हो गया। महाभारत के प्रसिद्ध पात्र महाबली कर्ण इस स्थान के राजा रहे हैं। इसके आसपास वे पांच गांव है जिन्हें कृष्ण जी ने पांडवों के लिए कौरवों से मांगा था, जिनके नाम क्रमशः -
श्रीपत (सिही) या इन्द्रप्रस्थ : कहीं-कहीं श्रीपत और कहीं-कहीं इन्द्रप्रस्थ का उल्लेख मिलता है। मौजूदा समय में दक्षिण दिल्ली के इस इलाके का वर्णन महाभारत में इन्द्रप्रस्थ के रूप में है। पांडवों और कौरवों के बीच जब संबंध खराब हुए थे, तो धृतराष्ट्र ने यमुना के किनारे खांडवप्रस्थ क्षेत्र को पांडवों को देकर अलग कर दिया था। यह क्षेत्र उजाड़ और दुर्गम था लेकिन पांडवों ने मयासुर के सहयोग से इसे आबाद कर दिया था। इसी खांडव क्षेत्र को आबाद कर पांडवों ने मयासुर से यहां एक किला और उसमें महल बनवाया था। इस क्षेत्र का नाम उन्होंने इन्द्रप्रस्थ रखा था।
बागपत : इसे महाभारत काल में व्याघ्रप्रस्थ कहा जाता था। व्याघ्रप्रस्थ यानी बाघों के रहने की जगह। यहां सैकड़ों साल पहले से बाघ पाए जाते रहे हैं। यही जगह मुगलकाल से बागपत के नाम से जाना जाने लगा।
सोनीपत : सोनीपत को पहले स्वर्णप्रस्थ कहा जाता था। बाद में यह 'सोनप्रस्थ' होकर सोनीपत हो गया। स्वर्णपथ का मतलब 'सोने का शहर'।
पानीपत : पानीपत को पांडुप्रस्थ कहा जाता था।
तिलपत : तिलपत को पहले तिलप्रस्थ कहा जाता था। यह हरियाणा के फरीदाबाद जिले का एक कस्बा है।
कैराना के पास से बहती यमुना नदी के किनारे कर्ण भगवान् सूर्य की पूजा करने जाया करता था तथा दान दिया करता था, पूजा के बाद जो भी मांगने वाले ने मांगा कर्ण ने उसे मना नहीं किया। यही पर भगवान् इन्द्र ने महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व, युद्ध में अर्जुन की विजय को आसान बनाने के लिए कर्ण से कवच व कुंडल दान में मांगे थे। जो कर्ण ने दे दिए थे, इसके बदले में इन्द्र ने कर्ण को दानवीर की उपाधि दी थी।
यह स्थान महाभारत के युद्ध के मैदान कुरूक्षेत्र के निकट है, इसलिए महाभारत युद्ध के कुछ मुख्य नायक कैराना के आसपास ही युद्ध के समय शिविर में रहे हैं। उदाहरणार्थ भगवान् कृष्ण का युद्ध शिविर "श्याम" के नाम से था जो स्थान अब शामली के नाम से है, कैराना के कर्ण, नुकुड में नकुल तथा थानाभवन में महाबली भीम का युद्ध शिविर रहा है। दुर्योधन से मित्रता के पश्चात कर्ण को अंग देश का राजा बनाया गया, उस राज्य में आज के हरियाणा के करनाल, कुरुक्षेत्र तथा उत्तर प्रदेश के कैराना व कांधला थे, जिन्हें राजा कर्ण ने विकसित किया था।
आधुनिक तथ्यों पर आधारित इतिहास के अनुसार अजमेर के सम्राट बिसल देव चौहान तथा अंतिम हिन्दू सम्राट  पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल के समय में दिल्ली के आसपास आज के राजस्थान (तत्कालीन समय के गुर्जर देश) के रहने वाले गूजरों को जागीरें देकर बसाया गया, दिल्ली के निकट दादरी के आसपास भाटी गूजरों को 360 गांव की जागीर दी गई, जिनमें करीब 80 गांव में भाटी गूजर निवास करते हैं, बाकी में 27 गांव नागडी (नागर), 24 गांव लोनी के आसपास बैसला (बंसल) व कसाना गूजरो के हैं जो भाटी गूजरो द्वारा दिए गए हैं, इसलिए इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आम बोलचाल में भटनेर कह कर पुकारा जाता है,  84 गांव चौहान गुर्जरों को कैराना के आसपास दिये थे।जिनके सरदार दो सगे भाई थे। इनमें से एक का नाम झुंझुन बद्री प्रसाद उत्तमदत राणा था वह जहां बसा उस स्थान का नाम आज झींझाना (शामली जिले में झींझाना ब्लाक) है, दूसरा जो इनका चचेरा भाई था जिसका नाम कर्णपाल उत्तमदत राणा था, उसने कैराना नगर को पुनः आबाद कर स्थापित किया।
लगभग सौ वर्ष पश्चात् जब दिल्ली पर अलाउद्दीन खिलजी (शासनकाल सन् 1296 -1316)का शासन था, एक बार खिलजी की सेना यमुना के किनारे कैराना के पास से होकर जा रही थी, सेनापति ने कैराना के राजा से सेना के लिए रसद की मांग की, जिसे राजा पूरी नहीं कर सका। उस सेनापति ने कैराना के राजा की शिकायत अलाउद्दीन खिलजी से की। बादशाह क्रोधित हो गया, बादशाह ने काजी अमीनुददीन के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना कैराना के राजा पर हमले के लिए भेज दी। इस हमले का कैराना के चौहानो ने बड़ी बहादुरी से सामना किया, कैराना का राजा युद्ध के मैदान में लडता हुआ शहीद हो गया। काजी अमीनुददीन ने कैराना राज्य का दिल्ली के राज्य में विलय कर दिया। अब कैराना इस्लामिक राज्य में विलीन हो गया।
कुछ समय अंतराल के बाद कैराना राजपरिवार के सम्पर्क में एक सूफी आया, जिसका नाम सूफी शाह अब्दुल रज्जाक था जो झींझाना में रहता था, क्योंकि झींझाना राजपरिवार व कैराना राजपरिवार कभी एक ही बाप की संतान थे, अतः सूफी से सम्पर्क कराने में झींझाना वालों की भूमिका भी रही होगी। इस सूफी ने कैराना के राजपरिवार के लोगों को मुस्लिम बनने की सलाह दी, ऐसा विश्वास दिलाया कि मुसलमान बनने पर ही उनका आदर व उनकी सम्पत्ति सुरक्षित रह सकती है। इन्हीं सूफी की सलाह मान कर राजपरिवार के दो भाईयों में से एक भाई ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया, सूफी ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले राजकुमार का नाम "हसन "रखा। उस राजकुमार के साथ 84 में से 42 गांव भी इस्लाम धर्म में चले गए। इस तरह से कैराना में मुस्लिम गूजर जाति अस्तित्व में आ गई।
इस विदेशी तुर्की शासनकाल में जो हिन्दू अपना धर्म त्याग कर मुसलमान बन गए, विजेता मुसलमानों ने उन्हें कोई खास तरजीह नहीं दी, भारतीय मुसलमानों को सत्ता में बडे पदों से सदा दूर रखा, उन्हें शक था यदि भारतीय मुसलमानों को शक्ति दे दी गई तो ये अपने हिन्दू भाईयों के साथ मिलकर उनके सामने चुनौती पेश कर सकते हैं। सम्पूर्ण तथाकथित गुलाम युग में इमादुल -मुल्क -रावत को छोड़कर किसी भी भारतीय मुसलमान को उच्च पद पर नियुक्त नहीं किया गया और इमाद भी इसलिए उच्च पद पर पहुंच सका कि उसने अपने माता-पिता का नाम छिपा रखा था और विदेशी मुसलमानों की संतान होने का भ्रम बना दिया था, जब यह खबर तत्कालीन बादशाह बलबन तक पहुंची तो बलबन ने उसके वंश का पता लगाने के लिए जांच करवाई और जब बादशाह को यह मालूम हो गया कि उसके माता-पिता भारतीय थे तो उसके प्रति सुल्तान का व्यवहार रूखा हो गया। एक बार बलबन ने अपने दरबारियों को बहुत बुरा-भला कहा, क्योंकि उन्होंने अमरोहा जिले हेतु लिपिक के पद पर एक भारतीय मुसलमान को चुन लिया था।
कैराना के मुस्लिम बने हिन्दू भी विदेशी मुस्लिम शासन की इसी भावना के शिकार रहे, दिल्ली के दरबार में उन्हें कोई पद प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु स्थानीय स्तर पर वो इस्लामिक शासन में हिन्दुओं के किये जा रहे अनावश्यक शोषण से बचे रहे, अपने मुसलमान बने भाईयों की आड़ में हिन्दू राजकुमार के समर्थक हिन्दू चौहान गूजर भी बेवजह की बहुत सी मुसीबतों से बचे रहे।
समय चक्र चलता रहा, तुर्को के बाद, मुगल व अंग्रेजी शासन आया, 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया, देश में लोकतंत्र से मतदान द्वारा शासन चलाने की पद्धति प्रारंभ हो गई।
कैराना के चौहान गूजरों ने भारत की शासन पद्धति के माध्यम से प्रदेश व देश की सरकार में अपनी भागीदारी व सेवा अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार प्रदान की। चौधरी नारायण सिंह जी उत्तर प्रदेश में उपमुख्यमंत्री पद पर रहे, नारायण सिंह जी के सुपुत्र संजय चौहान विधायक व सांसद रहे। बाबू हुकुम सिंह जी उत्तर प्रदेश के प्रभाव शाली नेताओं में रहे, वे विधायक, सांसद रहे तथा प्रदेश सरकार में विभिन्न मंत्रालयों के मंत्री रहे, चौधरी अजब सिंह जी विधायक रहे, उनके भतीजे चौधरी विरेंद्र सिंह जी कांधला से कई बार विधायक रहे, प्रदेश सरकार में मंत्री रहे, चौधरी यशवीर सिंह जी खादी बोर्ड के चेयरमैन रहे।
मुस्लिम गूजरों में हसन परिवार से स्वर्गीय अख्तर हसन सन् 1984 में सांसद रहे, अख्तर हसन जी के बाद उनके पुत्र मुनव्वर हसन सांसद, विधायक व विधान परिषद् सदस्य व राज्य सभा सदस्य रहे। मुनव्वर हसन का नाम ग्रनिज बुक में इसलिए दर्ज है कि वो सबसे कम उम्र में सभी सदन के सदस्य रहे। उनके बेटे नाहीद हसन इस समय कैराना से विधायक है, उनकी पत्नी श्रीमती तबस्सुम भी कैराना लोकसभा से सांसद रह चुकी हैं।
संदर्भ ग्रंथ
1- भारत का इतिहास -डॉ आशीर्वादीलाल श्री वास्तव। 2- सत्ता के विरुद्ध दिल्ली एवं आसपास के गूजरों का प्रतिरोध -राणा अली हसन चौहान अनुवाद ओमप्रकाश गांधी (आवाज -ए- गुर्जर, जनवरी 2006,जम्मू)।
3- Chapter -4, History of Kairana page no -85,86, 87 :JNU Ganga sirij।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान से के जुड़ाव को आधार बनाकर हमने शामली के हिंदू और मुस्लिम चौहान गुर्जरों को पुनः एक दूसरे के नजदीक लाने की कोशिश की। मैंने पृथ्वीराज चौहान पर एक लेख लिखा जो निम्न हैं-

अंतिम हिन्दू सम्राट गुर्जर राज-मरू गुर्जर राज पृथ्वीराज चौहान/ राय पिथोरा - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
 भारत के इतिहास में अपने पूर्वजों के महान कार्यों को समझने के लिए विद्वानों ने इसे कई कालखंडों में विभाजित किया है।इन कालखंडों में एक काल हिन्दू काल भी है,जो सिंधु के राजा दाहिर से प्रारंभ होकर पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु तक या  इस्लामिक हमलावर मुहम्मद बिन कासिम (सन् 712) से लेकर मोहम्मद गोरी ( सन् 1192) के हमले तक है।इस 480 वर्ष के समयांतराल में राजा दाहिर का संघर्ष,उसके बाद गुर्जर प्रतिहार राजाओं का संघर्ष तथा चौहान राजाओं का संघर्ष अविस्मरणीय है।इस संघर्ष काल को ही मोहम्मद बिन कासिम द्वारा हिन्दूओं से संघर्ष तथा ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी के साथ आये विद्वान अलबरूनी द्वारा लिखित पुस्तक तहकीक-ए-हिन्द के आधार पर हिंदू काल की संज्ञा दी जा सकती है। इस समयांतराल के संघर्षों में एक संघर्ष सम्राट पृथ्वीराज चौहान का भी है।भारत के इतिहास में इस संघर्ष का महत्व इसलिए भी अधिक है कि पृथ्वीराज चौहान के मोहम्मद गोरी से हार जाने के बाद भारत में विदेशी मुस्लिम शासन की स्थापना हो गई थी।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु ( सन् 1192) से लेकर भारत के आजाद (सन् 1947) होने तक का 755 वर्ष का समय हिन्दूओं द्वारा अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किए गए संघर्ष का काल है।
 भारत की राजनीति में  पटना, कन्नौज और अजमेर के बाद दिल्ली एक राजधानी के रुप में पृथ्वीराज चौहान के मोहम्मद गोरी से हार जाने के बाद ही स्थापित हुई।
भारत के चौहान राजाओं में पांच चौहान सम्राट हुए हैं, सबसे पहले बीसलदेव, दूसरे अमर गंगेय ,तिसरे पृथ्वीराज द्वितीय,चौथे सोमेश्वर चौहान और पांचवें पृथ्वीराज चौहान तृतीय जिनको राय पिथोरा भी कहा गया है।
 चौहान राजाओं में तीन पृथ्वीराज चौहान हुए हैं, पृथ्वीराज चौहान प्रथम(सन्1090-1110), पृथ्वीराज चौहान द्वितीय (सन 1165-1169), पृथ्वीराज चौहान तृतीय(सन्1178-1192)। 
यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र  पृथ्वीराज तृतीय है। जिन्हें इतिहास में अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान उर्फ राय पिथोरा तथा पृथ्वीराज चौहान के दरबारी जयानक के द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय में गुर्जर राज व मरू गुर्जर राज कहा गया है।
पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में चौहानों का राज्य विंध्याचल से हिमालय तक फैला था। दिल्ली, हांसी,थानेश्वर व नगरकोट चौहान राज्य का हिस्सा थे। पृथ्वीराज चौहान के समय दिल्ली अजमेर का एक ठिकाना थी तथा दिल्ली के तोमर और मेवाड़ के गहलोत,  चौहान सम्राट पृथ्वीराज के सामंत थे। गुर्जर प्रतिहार राजाओं के सामंत से सम्राट तक की यात्रा चौहान राजाओं ने किस प्रकार तय की,इसे जानने के लिए देखें-( परिशिष्ट)
 
   बीसलदेव चौहानों के प्रथम सम्राट थे।बीसलदेव ने ही धार की तरह अजमेर में संस्कृत विद्यालय तथा सरस्वती का मंदिर बनवाया, जिसे अब ढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं तथा बीसलसर झील का निर्माण करवाया।बीसलदेव ने  गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की तरह परमभट्टारक,महाराजाधिराज, परमेश्वर, श्रीमद् उपाधि धारण की। सन् 1158 के नाहड़ लेख के अनुसार अपने नाम के पीछे देवराज की उपाधि भी बीसलदेव ने प्राप्त की।बीसलदेव का एक शिलालेख अजमेर संग्राहलय में रखा है जिसमे चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है।
सम्राट बीसलदेव के साहित्य प्रेम व विद्वता तथा विद्वानों का आदर करने के कारण उन्हें कवि बांधव की उपाधि दी गई थी। 
ऐसा माना जाता है कि बीसलदेव के समय ही सहारनपुर में शाकुम्भरी माता का मंदिर बना, बीसलदेव चौहान तथा पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल के मध्य (सन् 1150-1192) ही दिल्ली के आसपास दादरी दनकौर के क्षेत्र में 360 गांव भाटी गुर्जर तथा कैराना के आसपास 84 गांव चौहान गुर्जरों को चौहान सम्राट द्वारा जागीर देकर बसाया गया है।
सम्राट बिसलदेव की मृत्यु के बाद उसका अल्पव्यस्क पुत्र अमरगंगेय शासक बना, परन्तु अमरगंगेय को जगदेव के पुत्र पृथ्वीराज चौहान द्वितीय ने हटा दिया और खुद सम्राट बन गया। सन् 1169 में पृथ्वीराज चौहान द्वितीय की मृत्यु हो गई।वह निसंतान था।
 सन् 1170 में बिजौलियां शिलालेख में चौहानों को विप्र श्रीवत्स गोतभूते लिखा है,यहा विप्र का अर्थ विद्वान,वत्स का अर्थ पुत्र तथा गोत का अर्थ कुल या वंश है जिसका अर्थ है विद्वान कुल के पुत्र।ऐसा बीसलदेव चौहान के विद्वान होने के कारण लिखा गया है, परन्तु इतिहास कार दशरथ शर्मा ने इसको पढ़कर चौहानों को ब्राह्मण ही लिख दिया।
उस स्थिति में अजमेर के सामंतों ने सोमेश्वर चौहान को सम्राट बनाने के लिए अपना समर्थन दिया। सोमेश्वर चौहान अरणोराज का छोटा पुत्र था। सोमेश्वर चौहान अपने नाना सिद्धराज चालुक्य के पास गुजरात में रह रहे थे। सोमेश्वर चौहान की शादी चेदी देश (वर्तमान में जबलपुर के पास) के कलचूरी राजा की राजकुमारी कर्पूरी देवी के साथ हो गई थी, अपने नाना के यहां ही सोमेश्वर चौहान के दो पुत्र पृथ्वीराज चौहान व हरिराज चौहान तथा एक पुत्री पृथा पैदा हो गई थी। अजमेर में शासन करने के लिए सोमेश्वर चौहान अपने नाना के यहां से नागर वंशी ब्राह्मण स्कंद,बामन तथा सौर नामक योग्य व्यक्तियों को ले आये थे। सन् 1178 में सोमेश्वर चौहान की मृत्यु हो गई थी।18 अगस्त सन् 1178 का आवल्दा नामक स्थान से  सोमेश्वर चौहान का एक अंतिम शिलालेख प्राप्त हुआ है तथा 14 मार्च सन् 1179 का बडल्लया नामक स्थान से पृथ्वीराज चौहान तृतीय का प्रथम शिलालेख प्राप्त हुआ है, इसलिए विद्वानों का ऐसा मानना है कि पृथ्वीराज चौहान उर्फ राय पिथोरा का राजतिलक अगस्त 1178 व मार्च 1179 के समयांतराल में कभी हुआ है। सम्राट बनने के समय पृथ्वीराज चौहान की आयु 12-13 वर्ष थी। अल्पव्यस्क होने के कारण पृथ्वीराज चौहान की माता कर्पूरी देवी ने राजकाज को अच्छी तरह से सम्भाल लिया। कर्पूरी देवी ने राजकाज को सम्भालने के लिए कदम्वास दाहिमा नामक एक योग्य व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त किया तथा अपने सहयोग के लिए चेदि देश से अपने चाचा भुवनमल्ल को भी अजमेर बुला लिया।
पृथ्वीराज चौहान व हरिराज चौहान की शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था सरस्वती कंठावरण पाठशाला अजमेर में की गई। पृथ्वीराज विजय के अनुसार पृथ्वीराज चौहान 64 कला व 14 विद्याओं में पारंगत थे। धर्मशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, संगीत कला, इंद्र जाल, कविता, वाणिज्य विनिमय तथा 6भाषाए  संस्कृत अपभ्रंश, प्राकृत,पेशाची महाघवी एवं सूरसेनी के साथ  अनेक देशी भाषाएं,पक्षी भाषाएं, गणित विद्या के साथ तलवार,भाला, धनुष सहित 36 प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने व धारण करने में दक्ष थे।
पृथ्वीराज चौहान ने दो वर्ष पश्चात ही अपनी माता से शासन की बागडोर अपने हाथ मे ले ली।शासन को अपने अनुरूप चलाने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने अपने मंत्रिमंडल में आमूलचूल परिवर्तन किया। प्रधानमंत्री कदम्वास के स्थान पर पं पद्मनाभ को प्रधानमंत्री नियुक्त किया, सेनापति भुवनमल्ल के स्थान पर गुजरात से आये नागर ब्राह्मण स्कंद को सेनापति बना दिया गया। सेनापति स्कंद के सहयोग के लिए उदयराज,कातिया, गोपाल सिंह चौहान सेना नायक बनाये गये। जयानक, विद्यापति गोंड,वासिश्वर,विश्वरूप,रामभट्ट और प्रताप सिंह को मंत्री बनाया गया। मंत्री जयानक ने ही पृथ्वीराज विजय की रचना की।
पृथ्वीराज चौहान को अपदस्थ करने के लिए सम्राट बिसलदेव के पुत्र तथा पृथ्वीराज चौहान के चाचा अमरगंगेय ने विद्रोह कर गुड़गांव पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज चौहान ने अमरगंगेय को परास्त कर मार डाला। अमरगंगेय के छोटे भाई नागार्जुन ने भी विद्रोह का झंडा खडा कर दिया। पृथ्वीराज चौहान के राज्य के उत्तरी भाग में मथुरा, भरतपुर,अलवर के आसपास भडानक (भडाना जो गुर्जर जाति का एक गोत्र है) बडी संख्या में रहते थे जो एक शक्तिशाली तथा लडाका समुदाय के रूप में प्रसिद्ध थे।ये भडानक भी नागार्जुन के सहयोगी बन गए।इस विद्रोह को दबाने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने बडी तैयारी के साथ योजना बनाई। पृथ्वीराज चौहान अपनी सेना लेकर जब नागार्जुन से युद्ध के लिए आगे बढ़ा तो नागार्जुन युद्ध से पहले ही भाग गया। नागार्जुन के सेनापति ने पृथ्वीराज चौहान का सामना किया परन्तु वह भी परास्त हो गया। नागार्जुन की माता, स्त्री और बच्चे तथा कुछ सैनिकपकड़ लिए गए। पृथ्वीराज विजय के अनुसार अजमेर लाकर सभी विद्रोहियों को मार डाला गया तथा विद्रोहियों के सर अजमेर के प्रमुख स्थानों पर टांग दिए गए, जिससे कोई आगे विद्रोह करने से पहले उसके परिणाम से परिचित रहें।
सन् 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने एक बडी सेना लेकर भडानको  (भडाना)पर हमला किया ।भड़ानक’ मुख्य रूप से  मथुराअलवरभरतपुरधौलपुरकरौली क्षेत्र में निवास करते थे और यह क्षेत्र इनके राजनीतिक आधिपत्य के कारण भड़ाना देश’ अथवा भड़ानक देश’ कहलाता था। सम्भवतः भड़ानकों की बस्तियाँ दिल्ली के दक्षिण में फरीदाबाद जिले तक थींजहाँ आज भी ये बड़ी संख्या में निवास करते हैं। फरीदाबाद जिले में भड़ानों के बारह गांव आबाद हैं। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार जब शाकुम्भरी के राजा पृथ्वीराज चौहान ने भड़ाना देश पर आक्रमण किया, उस समय पर इस राज्य की पूर्वी सीमा पर चम्बल नदी एवं कछुवाहों का ग्वालियर राज्य था पूर्वोत्तर दिशा में इसकी सीमाएँ यमुना नदी एवं गहड़वालों के कन्नौज राज्य तक थी। इसकी अन्य सीमाएँ शाकुम्भरी के चौहान राज्य से मिलती थी। भड़ाना या भड़ानक देश एक पर्याप्त विस्तृत राज्य था। स्कन्द पुराण के विवरण के अनुसार भड़ाना देश में 1,25,000 ग्राम थे। समकालीन चौहान राज्य में भी इतने ग्राम न थे। पृथ्वीराज चौहान ने भडानको की हाथी सेना को परास्त कर उत्तर की ओर धकेल दिया। समकालीन लेखक जिनपथि सूरी ने अपने ग्रंथ में इस हमले का वर्णन किया है।
 पृथ्वीराज चौहान ने अगला हमला मोहबा के चंदेल राजा परमाल देव पर किया। चौहान राज्य की पूर्वी सीमा मोहबा से मिलती थी। चौहान गुर्जर प्रतिहार राजवंश के सबसे अधिक निकट तथा विश्वस्त सहयोगी थे। परंतु चंदेल राजा विद्याधर ने गुर्जर प्रतिहार सम्राट राजपाल को मार डाला था,इस कारण चौहान और चंदेलो के सम्बन्ध में  एक खटास बनी हुई थी। चंदेल राजा ने कन्नौज के राजा जयचंद से सन्धि कर रखी थी।
 मध्य भारत के जेजाभक्ति(सन् 1531 के बाद बुंदेलखंड) क्षेत्र में मोहबा, कालिंजर का प्रसिद्ध दुर्ग तथा राजा पृथ्वीराज चौहान का ननिहाल चेदि देश,जहा कलचूरी राजवंश का शासन था, चंदेलों और कलचूरी राजवंश के राज्य को मिलाकर जो क्षेत्र बनता था,वो सन 1531के बाद बुंदेलखंड कहलाया।   सन् 1182 के मदनपुर शिलालेख के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने जेजाभुक्ति को नष्ट कर दिया तथा चंदेल राज्य पर आक्रमण कर दिया।इस हमले का सामना करने के लिए चंदेल राजा ने अपने प्रसिद्ध योद्धा आल्हा-ऊदल को,जो इस समय कन्नौज में थे को बुलावा भेजा। आल्हा-ऊदल अपनी मात्रभूमि की रक्षा के लिए मोहबा आ गये। मात्रभूमि और राष्ट्र का आशय उस समय,उस स्थान या राज्य से होता था, जिसमें वह निवास करता था, आल्हा-ऊदल चंदेल राजा परमाल के सेनापति जस्सराज के पुत्र थे तथा अहीर जाति की  उप-जाति बनाफर में पैदा हुए थे। आल्हा-ऊदल ने मोहबा को बचाने के लिए भयानक युद्ध किया।जब युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना भारी पडने लगी तो ऊदल ने अपनी पगड़ी में शालिग्राम और मूंह में तुलसी रखकर अपनी सेना के साथ घोड़ों से नीचे उतर कर घमासान युद्ध किया,इस युद्ध में ऊदल पृथ्वीराज चौहान के योद्धा काका कन्ह चौहान के हाथो वीरगति को प्राप्त हो गया,राजा पृथ्वीराज चौहान भी बुरी तरह घायल होकर जमीन पर गिर गया।ऊदल की मृत्यु होते ही चंदेल राजा ने अपनी हार स्वीकार कर ली, चंदेल राजा के हारने के बाद धासान नदी के पश्चिमी भाग सागर,ललकपुर,ओरछा, झांसी,सिरसवा, गढ़ मोहबा का बहुत सा भू-भाग पृथ्वीराज चौहान के हाथो में आ गया। पृथ्वीराज चौहान ने अपने सामंत पंजावन राय को इस क्षेत्र का प्रांतपति बना दिया।इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान भले ही विजयी हो गये, परंतु आल्हा-ऊदल की वीरता आज तक भी भारतीय जनमानस के मन पर छाई हुई है,वो अमर हो गए।आम जनमानस में इस युद्ध में आल्हा-ऊदल ही विजेता माने जाते हैं।
अब पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाएं कन्नौज राज्य की सीमा से मिल गई थी।
मोहबा पर विजय के पश्चात सम्राट पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाएं उत्तर में जम्मू के राजा, दक्षिण में चालुक्य शासक, उत्तर पूर्व में कन्नौज के गढ़वाल शासक तथा पश्चिम में मुस्लिम शासकों से मिल गयी।इस कारण ये सब पृथ्वीराज चौहान के शत्रु बन गए थे। परन्तु सबसे अधिक खतरा इनमें से चौहान साम्राज्य को होना था,तो वह वह पश्चिम की ओर से था।
पश्चिम में गजनी में इस समय गोर वंश का शासन था, मोहम्मद गोरी भी गजनवी की तरह भारत पर हमला कर,अरब के खलिफाओ से प्रशंसा प्राप्त करना चाहता था। मोहम्मद गोरी महमूद गजनवी के द्वारा बनाए गए अमीरों से राज्य को छीनकर अपने कब्जे में करते हुए आगे बढ़ रहा था। मोहम्मद गोरी ने गजनवी द्वारा स्थापित पंजाब के अमीरों को पराजित कर सन् 1179 में पेशावर,  पंजाब के स्यालकोट, सन् 1182 में मोहम्मद गोरी ने सिंध क्षेत्र के देवल को अपने अधिकार में कर लिया। सन् 1185 में लाहौर  को भी अपने अधिकार में ले लिया। लाहौर पर अधिकार हो जाने के बाद पंजाब के सरहिंद से मोहम्मद गोरी के राज्य की सीमा लग गई। सरहिंद का दुर्ग पृथ्वीराज चौहान के राज्य में था।
सन् 1182 में मोहम्मद गोरी और जम्मू के राजा चक्रदेव के मध्य एक संधि हुई,खोखरो के दमन के लिए। सन् 1185 में मोहम्मद गोरी ने सतलज के किनारे बसे छोटे छोटे हिन्दू राजाओं को अपने अधीन करने के लिए प्रयास किए,ये राजा अपने गुट के नेता राजा चंद्र राज के नेतृत्व में पहले गुजरात के सोलंकियों के पास सहायता के लिए पहुंचे। लेकिन यहा से कोई सहायता ना मिलने के कारण अजमेर में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पास पहुंचे।सतलज के इन राजाओं ने कभी सम्राट बिसलदेव चौहान की सेना के साथ मिलकर गजनी के शासकों से युद्ध किया था,उसी का वास्ता देकर सम्राट पृथ्वीराज चौहान से मदद की गुहार लगाई। सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने इन सबकी मदद के लिए अपनी सेना को सेनापति चामुण्ड राय तथा भुवनक मल्ल के नेतृत्व में मोहम्मद गोरी से युद्ध के लिए भेजा तथा स्वयं भी साथ चल दिए। सिंधु और सतलज के मध्य किसी स्थान पर भयानक युद्ध हुआ, जिसमें मोहम्मद गोरी पराजित हुआ तथा बंदी बना कर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामने पेश किया गया। सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने गजनी से हर वर्ष निश्चित कर लेने के संधि प्रस्ताव पर गोरी को छोड दिया।
गजनी से कर लेने के लिए अपने मंत्री प्रताप सिंह को नियुक्त किया।यह प्रताप सिंह धन का लोभी था,गजनी से मिले कर मे से कुछ धन चुरा लेता था, अजमेर की महत्वपूर्ण सूचनाएं भी गोरी को देने लगा था।एक बार पृथ्वीराज चौहान ने प्रताप सिंह के स्थान पर अपने दूसरे सामंत शूर सिंह पंवार को कर लेने के लिए गजनी भेज दिया।जब गोरी को यह मालूम हुआ कि प्रताप सिंह के स्थान पर कोई ओर कर लेने के लिए आया है,तब मुहम्मद गोरी ने शूर सिंह को अपमानित करने की कोशिश की, परन्तु शूर सिंह ने गोरी के भरे दरबार में गोरी के एक सेनानायक सहित 74 दरबारियों को मार डाला तथा वो खुद भी वीरगति को प्राप्त हो गये।गोरी ने दोगुना कर देकर तथा क्षमा का एक पत्र लिखकर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पास भेज दिया।
अब पुनः प्रताप सिंह ही गजनी से कर लेने के लिए जाने लगा।
सन् 1189 में मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के अधीन भटिंडा पर हमला कर दिया।इस हमले पर पृथ्वीराज चौहान ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की।
सन् 1191 में मोहम्मद गोरी ने सरहिंद के किले पर हमला कर अपने अधिकार में ले लिया ,अब पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी के विरूद्ध सैनिक अभियान किया। पृथ्वीराज चौहान ने अपने सामंत दिल्ली के राजा गोविन्द राय तोमर/ खांडेराव तोमर को मोहम्मद गोरी पर हमले का आदेश दिया। गोविंद राय तोमर ने थानेश्वर और करनाल के मध्य तराईन के मैदान में गोरी की सेना पर जोरदार हमला किया।इस युद्ध में गोविंद राय तोमर का मोहम्मद गोरी से आमना-सामना हो गया। मोहम्मद गोरी के हमले से गोविन्द राय तोमर के दो दांत टूट गए, परन्तु गोविंद राय तोमर ने मोहम्मद गोरी पर ऐसा जोरदार हमला किया कि वह बुरी तरह घायल हो गया, मोहम्मद गोरी की सेना में भगदड़ मच गई।इस भगदड़ में मोहम्मद गोरी के सेनानायक किसी प्रकार घायल मोहम्मद गोरी को बचा ले गये। पृथ्वीराज चौहान ने आगे बढ़कर सरहिंद के किले पर हमला कर अपने अधिकार में ले लिया तथा मोहम्मद गोरी की ओर से नियुक्त सरहिंद के किलेदार काजी जियाउद्दीन को बंदी बना लिया। पृथ्वीराज चौहान काजी जियाउद्दीन को पकड़ कर अजमेर ले आया।पृथ्वीराज चौहान से काजी जियाउद्दीन ने निवेदन किया कि यदि सम्राट उसके प्राण बख्श दे तथा मुक्त कर दे तो वह सम्राट को विपुल धन देगा। सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने  धन लेकर काजी जियाउद्दीन को छोड दिया।काजी जियाउद्दीन गजनी चला गया।हम ऊपर लिख चुके हैं कि सूफी भी मुस्लिम बादशाह के साथ रहते थे,इस दौरान भी मोहम्मद गोरी के साथ मोहिनुद्दीन चिश्ती नाम के एक सूफी साथ थे। सूफी मोइनुद्दीन चिश्ती वापस नही गया।वह फकीरों का भेष बनाकर अजमेर में ही रहने लगा।मिनाज- उल- सिराज, अबुल फजल तथा मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनि ने अपनी पुस्तकों में मोइनुद्दीन चिश्ती के अजमेर आने के विषय में लिखा है।
ऊधर मोहम्मद गोरी ने स्वस्थ होकर नये सिरे से गजनी में सेना एकत्रित करनी प्रारंभ कर दी। पूरे एक वर्ष तक तैयारी करने के बाद मोहम्मद गोरी एक लाख बीस हजार की सेना लेकर पृथ्वीराज चौहान पर हमला करने के लिए गजनी से चल दिया। सन् 1192 के युद्ध से पहले पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी की सेना के बीच अनेक छोटी बडी झड़पें हुईं।इन झड़पों के बारे में पृथ्वीराज रासो में 21 बार,हम्मीर काव्य में 7 बार, पृथ्वीराज प्रबंध में 8 बार,सुरजन चरित्र में 21 बार, प्रबंध चिंतामणि में 23 बार पृथ्वीराज चौहान की मोहम्मद गोरी पर विजय बताई गई है। प्रबंध कोष में 20 बार पृथ्वीराज चौहान के द्वारा मोहम्मद गोरी को परास्त कर पकड़ कर छोड़ना लिखा है।इन ग्रंथों के प्रचार के कारण पृथ्वीराज चौहान की छवि एक बिल्कुल अनुभव हीन राजनितिक राजा की बन गई है। पृथ्वीराज चौहान एक सम्राट था,वह अपने दुश्मनों से निपटना जानता था, कौन सा दुश्मन उसके लिए कितना हानिकारक है वह भली-भांति समझता था। पृथ्वीराज चौहान ने अपने चाचा अमरगंगेय व नागार्जुन के परिवार को भी गिरफ्तार कर जिंदा नही छोडा था तो मोहम्मद गोरी को कैसे छोड देता। वास्तविकता यही है कि  छोटी बडी कुछ झड़पों में पृथ्वीराज चौहान का पलडा भारी रहा। मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के पास अपना दूत अजमेर भेजा और कहा कि या तो पृथ्वीराज चौहान इस्लाम स्वीकार कर ले,या गम्भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाये। पृथ्वीराज चौहान ने जबाव दिया कि या तो गजनी वापस लौट जाओ, वर्ना भेट युद्ध के मैदान में होगी।
गोरी ने पृथ्वीराज चौहान का उत्तर सुनकर छल करने का निर्णय लिया। गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को लिख भेजा कि वह अपने बड़े भाई जो कि सुल्तान है, से पूछ कर निर्णय लेगा। गोरी ने कहा वह भी युद्ध नही चाहता। यदि मेरे बडे भाई जो कि गजनी का सुल्तान है, की सहमति मिलने पर वापस चला जायेगा। परन्तु पृथ्वीराज चौहान पंजाब, मुल्तान व सरहिंद पर गजनी का अधिकार मान ले।
पृथ्वीराज चौहान तुरन्त अजमेर से एक सेना लेकर तराईन की ओर चल दिया। पृथ्वीराज चौहान की सेना का मुख्य भाग, सेनापति स्कंद के साथ था,वह साथ नही चल सका तथा पिछे रह गया।दूसरा सेनापति उदयराज भी समय से अजमेर से रवाना ना हो सका। पृथ्वीराज चौहान का मंत्री सोमेश्वर जो पृथ्वीराज चौहान के द्वारा पहले दंडित किया जा चुका था, चुपके से अजमेर से निकल कर मोहम्मद गोरी से जा मिला। जम्मू का हिंदू राजा भी अपनी सेना लेकर गोरी से जा मिला।
तराईन के द्वीतिय युद्ध के समय पृथ्वीराज चौहान की आयु कुल 26 वर्ष थी। पृथ्वीराज चौहान का प्रमुख सेनापति स्कंद, मंत्री प्रताप सिंह एवं सोमेश्वर तीनों ही पृथ्वीराज चौहान के वफादार नहीं थे। सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती भी पल-पल की सूचना मोहम्मद गोरी को दे रहा था। पृथ्वीराज चौहान की अन्य सेनाएं पृथ्वीराज चौहान से कितनी दूर थी इसकी सम्पूर्ण जानकारी  मोहम्मद गोरी को थी। पृथ्वीराज चौहान के साथ दिल्ली का राजा गोविन्द राय तोमर अपनी सेना के साथ था। पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सेना का खेमा सरस्वती नदी के एक किनारे पर  लगा दिया, मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को धोखा देने के लिए अपनी सेना की छोटी सी टुकडी का एक खेमा सरस्वती नदी के दूसरे किनारे पर लगा दिया तथा सेना के मुख्य भाग को पीछे छिपाकर रखा। पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को सूचना भेजी कि या तो वह युद्ध करें वर्ना भाग जाये। मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज से निवेदन किया कि उसने अपना दूत अपने बड़े भाई के पास भेजा है,वह तो सिर्फ सेनापति है सुल्तान तो उसका बडा भाई ही है, इसलिए कुछ समय दें। पृथ्वीराज चौहान गोरी के द्वारा प्रयोग किए गए  झांसे में आ गया । मोहम्मद गोरी ने अपनी सेना के पांच भाग किये। पांच जगह दस-दस हजार घुड़सवार रखें।चार टुकड़ियों को पृथ्वीराज चौहान की निंद्रा में पडी सेना पर चारों ओर से हमला करने के लिए एक मार्च,दिन रविवार सन् 1192 की प्रातः काल में भेज दिया। युद्ध की यह तिथि दिल्ली के तोमर ग्रंथ के लेखक हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक में लिखी है। मोहम्मद गोरी के साथ रहें हसन निजामी ने हिजरी 581, रमजान महीने के प्रारम्भ होने से पहले युद्ध का समाप्त होना लिखा है,जो 10 सितम्बर सन् 1192 है। अजमेर, नागौर आदि स्थानों पर अप्रैल और मई 1192 के शिलालेख लगें हैं, जिनमें तराईन के युद्ध में बलिदान हुए योद्धाओं की पत्नियों के सती होने का उल्लेख है। अतः हरिहर निवास द्विवेदी की तिथि 1 मार्च सन् 1192 बिल्कुल ठीक है।
 दुष्ट मोहम्मद गोरी ने अचानक हमला कर  पृथ्वीराज चौहान की सेना का कत्लेआम शुरू कर दिया। हजारों सैनिक मार डालें गये।यह युद्ध नही था एक भयंकर दुर्घटना थी।इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना के ना तो रण गजो पर होदे चढ़े ,ना घोड़ों पर जीन कसी,ना सैनिक कवच धारण कर घोड़ों पर सवार हो सकें।ना कुमकुम का तिलक लगा सकें,ना अपने चारणो और भाटो द्वारा अपने पूर्वजों की बहादुरी का बखान सुन कर शत्रु से दो-दो हाथ कर सके।अचानक हुए इस हमले से पृथ्वीराज चौहान की सेना में भगदड़ मच गई। तराईन के प्रथम युद्ध के विजेता गोविंद राय तोमर ने साहस दिखाते हुए अपनी गज सेना को तैयार कर मोहम्मद गोरी की सेना का सामना किया। गोविंद राय तोमर ने अपनी सेना के दाहिने ओर की कमान पदमशाह रावल को तथा बायी ओर की कमान भोला उर्फ भुवनेक मल्ल के नेतृत्व में लेकर युद्ध प्रारम्भ कर दिया।इस संकट की घड़ी में गोविंद राय तोमर ने अदम्य साहस का प्रदर्शन किया, उसने अपने सम्राट पृथ्वीराज चौहान को एक हाथी पर बैठाकर भयंकर युद्ध किया। युद्ध का परिणाम अपने विरूद्ध जाता देख एक दिशा में आक्रमण कर सम्राट को युद्ध के मैदान से निकालने का रास्ता बना दिया। अब पृथ्वीराज चौहान हाथी से नीचे उतर कर घोड़े पर सवार हो गया। पृथ्वीराज चौहान की सेना को एक ओर से निकलते देख गोरी ने अपने पांचवें दस्ते को उस पर हमले का आदेश दिया।दूसरी ओर इस घमासान युद्ध में गोविंद राय तोमर वीर गति को प्राप्त हो गया।  गोरी के सैनिकों ने पृथ्वीराज चौहान को चारों ओर से घेर लिया।इस पर पृथ्वीराज चौहान अपने को घिरा देख शत्रु पर प्राणघातक आक्रमण करने के लिए सैनिकों सहित घोड़े से नीचे उतर कर  युद्ध करने लगा। परन्तु तुर्की सैनिक अधिक होने के कारण निकलने का रास्ता ना मिल सका।एक तुर्की सैनिक ने युद्ध कर रहे पृथ्वीराज चौहान के गले में लोहे की सिंहनी डाल दी और पृथ्वीराज चौहान को गिरफ़्तार कर लिया।इस प्रकार तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पराजय हो गई।17 मार्च सन् 1192 को दिल्ली पर मोहम्मद गोरी का अधिकार हो गया।
मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को अजमेर में अपने अधीन बना कर शासन चलाना प्रारंभ किया।
 मोहम्मद गोरी ने कई प्रकार के सिक्के चलवाये, जिनमें एक ओर पृथ्वीराज चौहान तथा दूसरी ओर मोहम्मद गोरी का नाम अंकित था।
भारतीय ग्रंथ पृथ्वीराज प्रबंध तथा मोहम्मद गोरी के समकालीन मुस्लिम लेखक हसन निजामी के द्वारा रचित ग्रंथ ताज - उल - मासिर के अनुसार
अजमेर में ही गोरी ने अपने विरूद्ध षड्यंत्र रचने का आरोप लगा कर पृथ्वीराज चौहान की हत्या कर दी।
हसन निजामी ने पृथ्वीराज चौहान को  इस्लाम का शत्रु उसी प्रकार कहा है। जिस तरह सम्राट मिहिर भोज के शासनकाल में सन् 851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया। उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर प्रतिहारो को  अरबों का सबसे बड़ा शत्रु कहा है। 
मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के अल्पव्यस्क पुत्र  को विपुल कर लेकर अजमेर का शासक नियुक्त कर दिया।
इस प्रकार भारत के एक युग का दुखद अंत हो गया।
मोइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में अपना एक खानगाह (मठ) बनाया। मोहम्मद गोरी ने मोइनुद्दीन चिश्ती को सुल्तान-ए-हिंद की उपाधि प्रदान की।
समाप्त

नोट- पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज चौहान की माता कमला देवी को दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर की पुत्री  बताया गया है जो गलत है, पृथ्वीराज चौहान और जयचंद को मौसेरे भाई तथा दुश्मनी का कारण दिल्ली के राज का पृथ्वीराज चौहान को मिलना बताया गया है, जबकि दिल्ली के तोमर तो पहले से ही अजमेर के चौहान राजाओं के सामंत थे। फिर जयचंद को दिल्ली कैसे मिल सकती थी। मोहम्मद गोरी को धीर सिंह पुंडीर द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाना लिखा है जो सत्य नही है। तराईन के दूसरे युद्ध की तिथि संवत 1158 अर्थात सन् 1101 लिखी है,वह भी गलत है,इस प्रकार पृथ्वीराज रासो ग्रंथ एतिहासिकता से दूर हो गया है। क्योंकि पृथ्वीराज विजय का लेखक जयानक तराईन के युद्ध में अपने स्वामी की हार होते ही अजमेर को छोड़कर कश्मीर चला गया था।इस कारण पृथ्वीराज चौहान पर कोई लिखित ग्रंथ नही था। परन्तु सन् 1876 में जयानक द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ मिल गया।
संस्कृत भाषा में विरचित जीवनीपरक ऐतिहासिक महाकाव्यों की श्रृंखला में काश्मीर निवासी महाकवि श्री जयानक द्वारा प्रणीत पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम् शीर्षक ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भूर्जपत्र पर लिखित इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि की पहली खोज डॉ. जी. बूह्लर द्वारा सन् 1876 में की गई थी, जब वे संस्कृत की प्राचीन पाण्डुलिपियों का पता लगाने के लिए काश्मीर गये थे। उन्होंने तत्सम्बद्ध सम्पूर्ण सामग्री ‘डेक्कन कॉलेज, पुना’ को सुपुर्द कर दी, जिनका विवरण उस कॉलेज की सन् 1875-76 की 150वीं संख्या पर उल्लिखित है। डॉ. बूह्लर ने अपनी शोधयात्रा का विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय इस बात पर हार्दिक दुःख प्रकट किया है कि संस्कृत के अमर ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की वर्तमान दुर्दशा निस्संदेह हमारे लिए दुर्भाग्य की सूचक है।
डॉ. बूह्लर की समग्र रिपोर्ट का गम्भीर अध्ययन करने के पश्चात् स्वर्गीय पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने और पूर्वतः म.म.पं. गौरीशंकर ओझा ने तदनंतर ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्य’ का सुसम्पादित संस्करण वि. संवत् 1995 अर्थात सन् 1938 में वैदिक यंत्रालय, अजमेर से प्रकाशित कराया।
परिशिष्ट 
अरब हमलावरों से भारत को बचाने के लिए गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम के नेतृत्व में बप्पा रावल, देवराज भाटी व अजयराज चौहान (प्रथम) ने भारी संघर्ष किया।  गुर्जर प्रतिहार
 नागभट द्वितीय (सन् 816-833)  ने अपने शासन काल में कई महत्वपूर्ण सफलताएं अर्जित की। नागभट द्वितीय ने चित्तौड़ के गहलोत व सौराष्ट्र के बाहकधवल के सहयोग से उणियारा (वर्तमान में टांक राजस्थान में)नामक स्थान पर पाल शासक धर्मपाल को पराजित कर दिया तथा सांभर के चौहान राजा गुवक प्रथम की सहायता से मत्स्य देश (वर्तमान अलवर राजस्थान में) के निकुंभ राजा को भी पराजित कर दिया। नागभट द्वितीय ने प्रसन्न होकर चौहान राजा गुवक प्रथम को "वीर" की उपाधि से विभूषित किया। गुर्जर प्रतिहार अपनी राजधानी कन्नौज मे स्थापित हो गए थे, इसलिए पुरानी राजधानी जालौर के क्षेत्र में चौहान उनके सबसे विश्वसनीय और प्रमुख प्रतिनिधि थे, इसलिए चौहान राजा गुवक प्रथम को दी गई "वीर" उपाधि को सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले गुर्जर आज भी धारण किए हुए हैं तथा गुर्जर बाहुल्य गांव में जगह जगह गांव में अंदर जाने  के रास्ते पर आज भी "वीर गुर्जर" द्वार लिखा मिल जायेगा। चौहान राजा गुर्जर प्रतिहार राजाओं के लिए कितने महत्वपूर्ण थे,इस बात का पता इस एक रिश्तें से ही चल जाता है कि चौहान गुवक द्वितीय की बहन कलावती गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की रानी थी। 
सम्राट मिहिर भोज के पोत्र सम्राट महिपाल  (सन् 914-943) के अंतिम दिनों में गुर्जर प्रतिहार राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी थी,इस कारण महोबा के चंदेल,सांभर के चौहान, चित्तौड़ के गुहिल तथा ग्वालियर के कच्छपघट(कछवाहे) एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गए थे। सम्राट महिपाल के समय सांभर के चौहान वाक्पतिराज प्रथम (सन् 917-944)शासक थे।इसके बाद सिम्ह राज (सन्944-971),विग्रह राज द्वीतिय (सन् 971-998)शासक बनें।
चौहान राजा दुर्लभ राज द्वीतिय (सन् 998-1012) ने मुस्लिम सेनापति शाहबुद्दीन को परास्त किया और गोविंद राज तृतीय (सन् 1012-1026),वाक्पतिराज द्वितीय (सन् 1026-1040) चौहान शासक रहें।
यह ग्यारहवीं शताब्दी का वह समय था जब बगदाद के खलीफा भारत को दारूल हरब से दारूल इस्लाम बनाने के प्रयास में नाकाम हो चुके थे। अतः भारत को दारूल इस्लाम बनाने के लिए किये जाने वाले संघर्ष की कमान सैनिक कार्यवाही के लिए अफगानिस्तान के तुर्क शासको पर तथा शांति मार्ग से इस्लाम को फैलाने की जिम्मेदारी सूफी सम्प्रदाय पर आ गई थी। ग्यारहवीं शताब्दी में इमाम गज्जाली ने सूफी मत को इस्लाम के एक हिस्से के रूप में मान्यता दे दी थी। ये सूफी अरब व बगदाद के मुस्लिम व्यापारियों के साथ भारत में आ गए तथा भारत के आम जनमानस में घुल-मिल कर रहने लगे थे।
अरबी शासकों ने अपने तुर्क गुलामों को इस्लाम में दिक्षित कर अपने अंगरक्षक बनाने प्रारंभ कर दिए थे।जो तुर्क गुलाम अधिक काबिल होते थे वो सेनानायक भी बनने लगे थे तथा उच्च पदों पर जाने लगे थे।ये गुलाम तुर्क सरदार अपने महलों व अपने अंगरक्षक के रूप में तुर्की गुलाम ही नियुक्त करते थे।
गजनी में एक दुर्ग था जिसका निर्माण कभी भाटी राजाओं ने करवाया था।यह दुर्ग अल्तगीन तुर्क के अधीन था,इस अल्तगीन का वंश ही गजनी वंश कहलाया।अल्तगीन एक तुर्की गुलाम था,अल्तगीन के बाद सुबुक्तगीन शासक बना, सन् 997 में सुबुक्तगीन की मृत्यु के बाद सुबुक्तगीन का छोटा बेटा गजनी का शासक बना, परन्तु सुबुक्तगीन के बड़े बेटे महमूद ने अपने छोटे भाई की हत्या कर के गजनी की सत्ता पर कब्जा कर लिया।यही महमूद, महमूद गजनवी के नाम से जाना गया। महमूद गजनवी ने खलीफा से यह आग्रह किया कि यदि खलिफा उसे सुल्तान घोषित कर दे तो वह जब तक जीवित रहेगा तब तक भारत पर हमला करता रहेगा तथा कुफ्र का सफाया कर देगा,खलीफा को लूट की सम्पत्ति में भी हिस्सा देगा।खलीफा की समझ में महमूद गजनवी की बात आ गई और महमूद गजनवी एक गुलाम से सुल्तान बन गया।खलीफा अलकाहिदे बिल्लाह ने महमूद गजनवी को यामिनीद्दोला अर्थात साम्राज्य का दाहिना हाथ और अमीनउलमिल्लत अर्थात मुसलमानों का संरक्षक नामक उपाधियां प्रदान की।यामिनीद्दोला उपाधि के कारण ही महमूद गजनवी का वंश यामिनी वंश कहलाया।अपनी बात को सत्य सिद्ध करते हुए महमूद गजनवी ने भारत पर सन् 1000 से लेकर सन् 1027 तक लगातार 17 हमले किए।
महमूद गजनवी के द्वारा किए गए इन 17 हमलों में तीन हमले बडे महत्वपूर्ण है।
वो सन 1008 में हिंदू शाही के राजा जयपाल, सन् 1018 में कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार राजा राजपाल तथा सन्1025 में सोमनाथ पर प्रमुख रूप से किये गये हमले है। जिनके कारण भारत की राजनीतिक व सामाजिक प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। सन् 1030 में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गई। महमूद गजनवी के उत्तराधिकारियों में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया। अतः उपयुक्त अवसर का लाभ उठाते हुए
वीर्य राम चौहान (सन् 1040) ने गजनी की सेना को परास्त कर दिया। चौहान राजा विग्रह राज तृतीय (सन् 1070-1090) ने दिल्ली के तोमरो के सहयोग से हांसी,थानेश्वर व नगर कोट को गजनवी के उत्तराधिकारियों के शासन से मुक्त करा लिया। विंध्याचल से हिमालय तक विदेशी मुस्लिम शासकों को भगा दिया गया। पृथ्वीराज प्रथम ने गजनी के सेनापति तुगस्दीन को युद्ध में हरा दिया।
चौहान राजा अजयराज द्वीतिय (सन् 1110-1135) ने अजमेर को अपनी राजधानी बनाया।अब चौहान राजधानी सांभर के स्थान पर अजमेर हो गई। अजयराज चौहान के शासनकाल में नागौर पर गजनी के शासकों का कब्जा हो गया था। परन्तु अजयराज चौहान के उत्तराधिकारी अरणोराज(सन् 1135-1150) उर्फ आना जी ने नागौर दुर्ग को पुनः अपने अधिकार में ले लिया तथा गजनी के शासकों को यहां से मार कर भगा दिया।अरणोराज के समय मुस्लिम सेना पुश्कर तक पहुंच गई थी,अरणोराज ने तारागढ़ क़िले से कुछ दूरी पर इस तुर्की सेना को युद्ध में समाप्त कर दिया तथा पुश्कर की पहाड़ियों से निकलने वाली चंद्रा नदी के पानी को लाकर युद्ध स्थल पर एक झील का निर्माण करवाया, जिसे आनासागर झील कहते हैं।अरणोराज ने परमभट्टारक,महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।अरणोराज की उसके बड़े पुत्र जगदेव ने हत्या कर दी तथा अजमेर की गद्दी पर अधिकार कर लिया। परंतु अरणोराज के छोटे भाई विग्रह राज चतुर्थ उर्फ बीसल देव(सन् 1150-1164) ने पिता के हत्यारे जगदेव को गद्दी से हटा दिया।अब बीसलदेव अजमेर के शासक बन गए।बीसलदेव बड़े ही शक्तिशाली चौहान शासक हुए।इन बीसलदेव के समय में गजनी की मुस्लिम सेना वर्तमान राजस्थान में शेखावाटी में स्थित भवेरा गांव तक आ पहुंची थी। लेकिन बीसलदेव ने अपनी सेना तथा सहयोगियों की मदद से इन मुस्लिम सेनाओं को अटक नदी के पार खदेड दिया तथा हिमालय से लेकर विंध्याचल तक का क्षेत्र विदेशी मुस्लिम हमलावरों से खाली करा लिया।बीसलदेव का दिल्ली में एक शिलालेख 9 अप्रैल सन् 1163 का प्राप्त हुआ है,जिसको शिवालिक स्तम्भ लेख भी कहते हैं।इस शिलालेख में बीसलदेव के द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन है।बीसलदेव ने दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर को भी अपने अधीन कर लिया।बीसलदेव साहित्य प्रेमी, साहित्यकारों का आश्रय दाता था,बीसलदेव को कवि बांधव की उपाधि प्राप्त थी,वह हरि वेली नाटक के रचनाकार थे। इस समय चौहान राज्य की सीमा शिवालिक पहाड़ी सहारनपुर उत्तर प्रदेश से लेकर अटक नदी तक थी। 
संदर्भ ग्रंथ-
1- भड़ना देश एवं वंश- डां सुशील भाटी।
2- दिल्ली की दर्द भरी दास्तां (36,37,38,39)- यूट्यूब,डा मोहनलाल गुप्ता।
https://youtu.be/-roFAyzJNhQ
3- अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (7,10,11,12,18,23)- डा मोहनलाल गुप्ता यूट्यूब।
https://youtu.be/ryLT9J7tgJU
4-https://youtu.be/g6Bl9vifK1o
5-https://youtu.be/0kxsDcHZWAk
इस लेख को आधार बनाकर 17 मार्च सन् 2021 को एक छोटा सा कार्यक्रम मेरठ में रूड़की रोड पर कृष्णा नगर कालोनी में श्री देशपाल सिंह चौहान के स्कूल में किया गया।
1 मार्च सन् 2022 को दूसरा कार्यक्रम भी इसी स्थान पर किया गया। कार्यक्रम में क्षेत्र के गणमान्य नागरिक उपस्थित हुए।

भारत की भूली बिसरी वीरांगना रामप्यारी गुर्जरी - लेखिका
डॉ. नीलम कुमारी, विभागाध्यक्षा अंग्रेजी विभाग, किसान पी. जी. कॉलेज सिंभावली हापुड़ 

"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
 अर्थात जननी व जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है और भारत माँ हमारे लिए स्वर्ग से बढ़कर है क्योंकि भारत माता की कोख से अनेक वीरों और वीरांगनाओ ने जन्म लिया है जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा व धर्म की स्थापना के लिए सर्वस्व समर्पित कर दिया। भारत माता की पवित्र धरा पर अनगिनत  वीरांगनाओ जैसे रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, मीना गुर्जरी आदि ने मातृभूमि की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राणों को  न्यौछावर कर दिया। ऐसी ही एक महान वीरांगना हुई है दादी रानी रामप्यारी गुर्जरी।जब भी तैमूर लंग के भारत पर आक्रमण का क्रूर इतिहास याद किया जाएगा तो रामप्यारी गुर्जरी के साहस, शौर्य और पराक्रम को स्वत: ही याद किया जायेगा। 
   रामप्यारी गुर्जरी  का जन्म गुर्जरगढ़ में हुआ था जो कि अब सहारनपुर के नाम से जाना जाता है। वह चौहान गोत्र की गुर्जर थी। इन पर महाबली जोगराज सिंह गुर्जर का खासा प्रभाव था। इनको बचपन से ही वीरता की कहानियां व किस्से सुनने का बहुत शौक था। रामप्यारी गुर्जरी बचपन से ही निर्भय और हठी स्वभाव की थीं। देश में गुलाम काल का दौर होते हुए भी बचपन में खेतों पर अकेली चले जाने में उन्हें कभी डर नही लगता था।अपनी मां से प्रायःपहलवान बनने के लिये जिज्ञासा पूर्वक पूछा करती थी और प्रातः, सांय खेतों पर जाकर एकान्त स्थान पर व्यायाम किया करती थी। कुछ तो स्वयं बचपन से ही स्वच्छ, सुडौल और आकर्षक शरीर की लड़की, उस पर व्यायाम ने आप पर वही कार्य किया जो सोने पर अग्नि में तपकर कुन्दन बनने का होता है अर्थात आप कुन्दन बन गईं थी। आप सदैव लड़कों जैसे वस्त्र पहनती थीं और अपने गाँव व पड़ोसी गांवो में पहलवानों के कौशल देखने अपने पिता व भाई के साथ जाती थीं। रामप्यारी की इन बातों की चर्चा सारे गांव व क्षेत्र में फैलने लगी। सन 1398 में जब समरकंद (मध्य एशिया में उज्बेकिस्तान का एक महत्वपूर्ण शहर है) के शासक तैमूर लंग ने हरिद्वार के रास्ते प्राचीन दिल्ली पर आक्रमण किया, तब फिरोज शाह तुगलक दिल्ली का शासक था, जिसके कारण ही तैमूर को भारत पर आक्रमण करने और यहां पैठ जमाने का अवसर मिला था, परन्तु क्रूरता ओर निष्ठुरता के लिये कुख्यात तैमूर लंग का उस समय सामना किया भारत की दादी नानी रामप्यारी गुर्जरी ने। तैमूर लंग के विरुद्ध लड़ाई लड़ने कारण ही दादी रानी रामप्यारी के साथ वीरांगना शब्द भी लगाया जाता है। रानी रामप्यारी के रण कौशल को देखकर तैमूर भी दांतो तले अंगुलियाँ दबाने को मजबूर हो गया था। उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी ऐसी वीरता व शौर्य से भरी महिला नही देखी थी जिसने 40 हजार महिलाओं की सेना बनाकर उसका नेतृत्व करते हुए तैमूर को युद्ध में घायल कर दिया था। इसके कुछ समय बाद ही तैमूर की मृत्यु भी हो गई थी।इतिहास में लुप्त ऐसी महानायिका रामप्यारी गुर्जरी की कहानी जिसे कभी बताया ही नही गया, ऐसी वीरांगना का परिचय भारत के बच्चे बच्चे को होना चाहिये था, लेकिन दुर्भाग्य से वो अभी तक हो न सका। रामप्यारी गुर्जरी एक ऐसी वीरांगना थी जिसने मात्र 20 वर्ष की आयु में अपने 40 हजार महिला सेनानियों की सहायता से तैमूर की सेना को गाजर-मूली की भांति काट कर रख दिया था।
तैमूर विस्तार वादी प्रवृति का था तथा इसका मुख्य उद्देश्य भारत में सनातन धर्म को खत्म करना था। यह उस समय की बातें हैं जब दिल्ली में तुगलकों का शासन था।तैमूर लंग ने दिल्ली पर धावा बोल दिया, ताकि दिल्ली पर कब्जे के साथ साथ पूरे हिंदुस्तान पर आक्रमण किया जा सके। तैमूर जीत का जश्न लोगों की हत्या करके मनाता था। पूरे भारत में इस्लाम की ध्वजा फहराने का लक्ष्य लिये भारत आने वाले तैमूर लंग के सामने शासक की एक न चली अंततः उसकी हत्या कर दी गई, हत्या के पश्चात तैमूर ने मुस्लिम इलाकों को छोड़कर हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों में भयंकर नरसंहार किया। यह इतना भयावह था कि शब्दों में व्यक्त नही किया जा सकता। इतिहासकार "विन्सेंट ए स्मिथ" की प्रसिद्ध पुस्तक " द ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया -फ्रॉम द अर्लिएस्ट टाइम्स टू द एन्ड ऑफ 1911" नामक पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि तैमूर लंग का मुख्य उद्देश्य भारत में सनातनियों का सर्व विनाश कर इस्लामिक ध्वजा फहराना था। दिल्ली आक्रमण के पश्चात तुगलकी सेना ने तैमूर के सामने घुटने टेक दिये जिससे उसके हौसले और अधिक बुलंद हो गये। वह अपनी विशालकाय सेना लेकर मेरठ की तरफ बढ़ गया जिसकी सूचना गुप्तचरों द्वारा बाहुबली जोगराज सिंह को दे दी गई। 12 हजार सैनिकों की सेना पूरी तरफ सजग थी।बस इंतजार था तो सिर्फ जोगराज सिंह जी के आदेश का सिंह के समान गरजते हुए जोगराज सिंह बोले "भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने उपदेश देते हुए जो बातें अर्जुन से कही उनका स्मरण करो। सतयुग में ऋषि मुनि, साधना द्वारा मोक्ष प्राप्ति करते थे ठीक उसी प्रकार हम मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति देकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। रणभूमि में शहीद होने के बाद आने वाली पीढियां हमारा वंदन करेंगी।आप सभी वीरों ने मिलकर मुझे मुखिया चुना है मैं आपके सामने प्रण करता हूँ कि अंतिम सांस तक में रणभूमि से पीछे नही हटूंगा,जब तक मेरे रक्त की अंतिम बून्द रहेगी, मैं भारत माता की रक्षा करता रहूंगा।" ये वार्ता सुनकर सम्पूर्ण सेना में एक ऊर्जा का प्रवाह हुआ और वीरांगना रामप्यारी गुर्जरी ने अपनी तलवार चूमते हुए साथी सैनिकों के सामने युद्ध की घोषणा कर दी, पूर्व में बनाई गई रणनीति के अनुसार छापामार युद्ध प्रणाली का सहारा लिया गया। इस युद्ध का सबसे बड़ा फायदा यह था कि इसमें सैनिकों के हताहत होने की बहुत कम सम्भावनाये रहती थीं। रामप्यारी गुर्जरी ने अपनी सैनिक टुकड़ी को तीन भागों में बांटा। एक टुकड़ी को सैनिकों के लिये भोजन प्रबंध का कार्य दिया गया, दूसरी टुकड़ी को घायल सैनिकों की सहायता का काम सौंपा गया। जबकि तीसरी टुकड़ी को युद्ध लड़ने की सलाह दी गई। जब -जब तैमूर की सेना थकने लगे तब तब उनके ऊपर आक्रमण की योजना बनायी गया ताकि तैमूर और उसकी सेना का मनोबल गिर जाए। जैसे ही तैमूर मेरठ में घुसने वाला था लगभग 20 हजार सैनिकों ने अचानक धावा बोल दिया इस दिन तैमूर के लगभग 9 हजार सैनिक मारे गये। क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ ये सब समझ पाते उससे पहले सूर्योदय तक तैमूर की सेना का साहस जवाब दे गया और वे हार गए तथा बहुतायत में सैनिक घायल हो गए।
    देश की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही है कि ऐसी वीरांगनाओं व वीरों की अमर गाथाओं को हमसे छुपाया गया। रामप्यारी गुर्जरी जैसी लाखों वीरांगनायें और देशभक्त महिलाओं को देश के इतिहास से मिटा  दिया गया। 1405 में इसी युद्ध में पड़े घाव की वजह से तैमूर की मृत्यु हो गई।
    रामप्यारी द्वारा लड़ा गया यह युद्ध कोई आम युद्ध नहीं था अपितु अपने सम्मान और संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्म युद्ध था, जिसमें जाति धर्म सब को पीछे छोड़ते हुए हमारे वीर योद्धाओ व विरांगनाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में जवाब दिया। पर इसे हमारी विडंबना ही कहेंगे इस युद्ध के किसी भी नायक का गुणगान तो दूर की बात है हमारे देशवासियों को इस ऐतिहासिक युद्ध के बारे में लेश मात्र भी ज्ञान नहीं होगा रामप्यारी गुर्जरी जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर लंग को नाकों चने चबाने पर विवश किया वह अपने आप में असंख्य भारतीय महिलाओं हेतु किसी प्रेरणा स्रोत से कम नहीं होगा। यह कथा है अधर्म पर धर्म की विजय की, यह कथा है देवी दुर्गा के अनेक विजयो की, यह कथा है तैमूर लंग की सेना की हमारे वीर वीरांगना के हाथों अप्रत्याशित पराजय की। मानोषी सिन्हा की पुस्तक "सैफरन स्वॉर्ड्स" में भी दादी रानी राम प्यारी गुजरी कै साहस और पराक्रम को बड़े ही सुंदर शब्दों में सहेजा गया है।
     रामप्यारी गुजरी के शौर्य और पराक्रम को दीपक नारंग जी की कविता की कुछ पंक्तियों के माध्यम से अधिक अच्छी तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है:
जिसकी बहादुरी, पराक्रम सब लोगों की जुबानी थी
उत्तर प्रदेश की बेटी, रामप्यारी गुर्जर भी मर्दानी थी
तैमूर ने लूटी दिल्ली, लाखों का नृशंस संहार किया
रियासत के विस्तार में मानवता को शर्मसार किया
गुर्जर क्या त्यागी क्या वाल्मीकि क्या राजपूत क्या
आखिर सब एकजुट हुए केसरिया लहराने को
हरवीर सिंह व रामप्यारी का नेतृत्व चुना सभी ने
भारत भू की अत्यचारी तैमूर से मुक्त कराने को
रामप्यारी के नेतृत्व में वीरांगनायें 40 हजार थी
युद्ध कला में प्रशिक्षित थी, मर मिटने को तैयार थी
युद्ध व्यूह रचना ऐसी रची, तैमूर सेना में हाहाकार मची
खड़ग म्यान से खींच रही, रणभूमि रक्त से सींच रही 
ललकार रही, लहरा रही हवा में खड्ग और भाला
रण चण्डिका बन उतरी थी,भभक उठी थी ज्वाला
भेद कर किला शत्रु का, गिद्ध की भांति थी झपट रही
यमद्वार तक कोलाहल था, शत्रु की सांसे खटक रही।
खून से सनी, रामप्यारी की तलवार दिखाई देती थी
चीखती चिल्लाती, हर शत्रु की पुकार सुनाई देती थी
हरवीर सिंह की वीरगति ने जीवित फिर अभियान किया
तैमूर की पराजय ने हर वीर वीरांगना को सम्मान दिया
उस अदम्य वीर मर्दानी की सबको गाथा गानी चाहिये
उस रामप्यारी की कहानी पूरे विश्व को बतानी चाहिये।"
   आज भी भारतीय नारियों को रामप्यारी गुर्जरी की तरह धीर, वीर और रणधीर बनने की जरूरत है ताकि देश के बाहर और भीतर के दुश्मनों का मुकाबला कर सके। नमन है ऐसी वीर बहादुर वीरांगना को।
समाप्त
8- अपनों को बचाने के लिए भी हुआ धर्म परिवर्तन
 प्रताप राव गुर्जर के तीन पुत्र थे।प्रताप राव गुर्जर के एक पुत्र का नाम सिद्धों जी गुर्जर था। सन् 1693 में छत्रपति राजाराम के आदेश पर सिद्धों जी गुर्जर ने शिवाजी महाराज द्वारा निर्मित नो सेना की कमान संभाली थी।

 सन् 1700 में राजाराम की मृत्यु हो गई तथा जानकीबाई राजाराम के शव के साथ सती हो गई। अपनी आदत के अनुसार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज के पोत्र साहू महाराज को ( 9 मई सन् 1703) मुसलमान बनने का आदेश दिया।

जब साहू जी ने मुसलमान बनने में असमर्थता जताई,तब औरंगजेब ने साहू के स्थान पर किसी दूसरे प्रभावशाली मराठा परिवार के मुसलमान बनने की शर्त पर साहू जी को मुसलमान न बनाने की बात कही। इस संकट की घड़ी में प्रताप राव गुर्जर के दो बेटे खंडेराव गुर्जर व जगजीवन गुर्जर आगे आए।16मई सन् 1703को मोहर्रम के दिन साहू जी को बचाने के लिए प्रताप राव गुर्जर के दोनों बेटे मुसलमान बन गए।अब खंडेराव गुर्जर का नाम अब्दुल रहीम व जगजीवन गुर्जर का नाम अब्दुल रहमान हो गया।12जनवरी सन् 1708 को साहू जी छत्रपति बने। छत्रपति शाहूजी ने सतारा के पास सालगांव की जागीर अब्दुल रहीम व अब्दुल रहमान को दी। आज भी इन दोनों भाई के वंशज सतारा के पास परली गांव में निवास करते हैं।
सन् 2002 से मेरठ में मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर के बलिदान की स्मृति में प्रत्येक वर्ष प्रताप राव गुर्जर स्मृति समिति के तत्वावधान में कार्यक्रम किए जाते रहे हैं।इस अवसर पर "प्रताप" वार्षकी पत्रिका का प्रकाशन होता है।
प्रताप राव गुर्जर के विषय में एक लेख निम्न हैं-

स्वराज की राह में शहीद मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर -अशोक चौधरी मेरठ

भारत शूरवीरों की भूमि है, देश हित व व्यक्तिगत सम्मान के लिए जो कुर्बानी भारत के वीर योद्धाओं ने दी है, उनका विश्व में कोई सानी नहीं है। ऐसे ही एक योद्धा थे शिवाजी की अश्व सेना के सेनापति प्रताप राव गुर्जर।
प्रताप राव गुर्जर का शिवाजी व भारत के इतिहास में योगदान का इस बात से ही पता चल जाता है कि जहां शिवाजी के राज्याभिषेक  1674 से ठीक आठ वर्ष पहले तक प्रताप राव गुर्जर ही शिवाजी के प्रधान सेनापति रहे हैं। वहीं पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी के बीच सन् 1191 के तराइन युद्ध में भारतीय सेना की विजय के 480 वर्ष बाद फरवरी सन् 1672 में मुगल-मराठा के बीच सलहेर युद्ध में भारतीय सेना की विजय का वह नायक रहा है। सलहेर के युद्ध में मराठों की ओर से सेनापति प्रताप राव गुर्जर व पेशवा मोरोपंत सेनानायक थे। दूसरी ओर विश्व की सबसे शक्तिशाली मुगल सेना थी जिसमें राजपूत, रोहिल्ले और पठान सहायता में थे। मुगल सेनानायको में दिलेर खान (दक्षिण का सूबेदार), बहादुर खान (गुजरात का मनसबदार), सेनानायक इखलास खान व बहलोल खान प्रमुख थे। इस युद्ध की विजय के बाद सन्त रामदास ने शिवाजी को एक प्रसिद्ध पत्र लिखा। जिसमें गुरु रामदास ने अपने सम्बोधन में शिवाजी को गजपति, ह्रयपति (घुड़सवार सेना), गढ़पति और जलपति कहा है। इस युद्ध की विजय के बाद शिवाजी के छत्रपति बनने का रास्ता साफ हो गया था।
प्रताप राव गुर्जर एक सफल योजनाकार सेनापति था वह सिंहगढ, सलहेर व उमरानी के युद्धों का नायक था। अपने पक्ष की योजनाओं को सफल बनाने के लिए जान पर खेल जाना, उसके लिए मामूली बात थी। वह शिवाजी को सेनापति के रूप में कुदरत की ओर से मिला उपहार था। वह एक भावुक व्यक्ति था, उसकी भावुकता उसकी शक्ति भी थी और कमजोरी भी।
प्रताप राव गुर्जर का वास्तविक नाम कडतौजी गुर्जर था। वह वर्तमान महाराष्ट्र के जिला सातारा की तहसील खटाव में गांव भोसरे के निवासी थे। प्रताप राव गुर्जर की उपाधि शिवाजी ने औरंगजेब के प्रसिद्ध सेनानायक मिर्जा राजा जयसिंह के साथ युद्ध के समय दिखाई वीरता से प्रसन्न होकर दी थी।

प्रताप राव गूजर ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़ छावनी का सूबेदार बन गया।

इस बीच औरंगजेब ने जुलाई1659 में शाइस्तां खां को मुगल साम्राज्य के दक्कन प्रान्त का सूबेदार नियुक्त किया, तब तक मराठों का मुगलों से कोई टकराव नहीं था, वे बीजापुर सल्तनत के विरूद्ध अपना सफल अभियान चला रहे थे। औरंगजेब शिवाजी के उत्कर्ष को उदयीमान मराठा राज्य के रूप में देख रहा था। उसने शाइस्ता खाँ को आदेश दिया कि वह मराठों से उन क्षेत्रों को छीन ले जो उन्होंने बीजापुर से जीते हैं। आज्ञा पाकर शाईस्ता खां ने भारी लाव-लश्कर लेकर पूना को जीत लिया और वहां शिवाजी के लिए निर्मित प्रसिद्ध लाल महल में अपना शिविर डाल दिया। उसने चक्कन का घेरा डाल कर उसे भी जीत लिया, 1661 में कल्याण और भिवाड़ी को भी उसने जीत लिया।

प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। प्रताप राव गूजर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दक्कन में मुगलों की राजधानी औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय लिया।

मराठे, शिवाजी के नेतृत्व, में एक छद्म बारात का आयोजन कर उसके शिविर में घुस गये और शाइस्ता खां पर हमला कर दिया। शाइस्ता खां किसी प्रकार अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु इस संघर्ष में शिवाजी की तलवार के वार से उसके हाथ की तीन ऊँगली कट गयी। इस घटना के परिणाम स्वरूप एक मुगल सेना अगली सुबह सिंहगढ़ पहुंच गयी। मराठों ने मुगल सेना को सिंहगढ़ के किले के नजदीक आने का अवसर प्रदान किया। जैसे ही मुगल सेना तोपों की हद में आ गयी, मराठों ने जोरदार बमबारी शुरू कर दी। उसी समय प्रताप राव अपनी घुड़सवार सेना लेकर सिंहगढ़ पहुंच गया और मुगल सेना पर भूखे सिंह के समान टूट पड़ा, पल भर में ही मराठा घुड़सवारों ने सैकड़ों मुगल सैनिक काट डाले, मुगल घुड़सवारों में भगदड़ मच गयी,प्रताप राव गूजर ने अपनी सेना लेकर उनका पीछा किया। इस प्रकार मुगल घुड़सवार सेना मराठों की घुड़सवार सेना के आगे-आगे हो ली। यह पहली बार हुआ था कि मुगलों की घुड़सवार सेना का मराठा घुड़सवार सेना ने पीछा किया हो। सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रताप राव गूजर ने जिस बहादुरी और रणकौशल का परिचय दिया,शिवाजी उससे बहुत प्रसन्न हुए। अपनी इस शानदार सफलता से उत्साहित प्रताव राव ने मुगलों की बहुत सी छोटी सैन्य टुकड़ियों को काट डाला और मुगलों को अपनी सीमा चौकियों को मजबूत करने के लिए बाध्य कर दिया।

 शाइस्ता खां इस हार और अपमान से बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसकी सेना का मनोबल गिर गया। उनके दिल में मराठों का भय घर कर गया, शाइस्ता खां की इस मुहिम की विफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी और उनका दक्कन का सूबा खतरे में पड़ गया। दक्कन में तनाव इस कदर बढ़ गया कि लगने लगा कि अब औरंगजेब स्वयं दक्कन कूच करेगा परन्तु कश्मीर और पश्चिमी प्रान्त में विद्रोह हो जाने के कारण वह ऐसा न कर सका। फिर भी उसने शाइस्ता खां को दक्कन से हटा कर उसकी जगह शहजादा मुअज्जम को दक्कन का सूबेदार बना दिया।

मराठों ने पूरी तरह मुगल विरोधी नीति अपना ली और1664 ई० में मुगल राज्य के एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत, प्रसिद्ध बन्दरगाह और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र,सूरत पर हमला कर दिया । इस तीव्रगति के आक्रमण में शिवाजी के साथ प्रताप राव गूजर और मोरो पन्त पिंगले और चार हजार मवाली सैनिक थे। सूरत पर हमले से मराठों को एक करोड़ रूपये (दीनार) प्राप्त हुए जिसके प्रयोग से मराठा राज्य को प्रशासनिक और सैनिक सुदृढ़ता प्राप्त हुई। सूरत की लूट औरंगजेब सहन नहीं कर सका। इधर मराठों ने मक्का जाते हुए हज यात्रियों के एक जहाज पर हमला कर दिया। इस घटना ने आग में घी का काम किया और औरंगजेब गुस्से से आग-बबूला हो उठा। उसने तुरन्त मिर्जा राजा जय सिंह और दिलेर खां के नेतृत्व में विशाल सेना मराठों का दमन करने के लिए भेज दी। दक्कन पहुंचते ही दिलेर खां ने पुरन्दर का घेरा डाल दिया, जय सिंह ने सिंहगढ़ को घेर लिया और अपनी कुछ टुकड़ियों को राजगढ़ और लोहागढ़ के विरूद्ध भेज दिया। जय सिंह जानता था कि मराठों को जीतना आसान नहीं है, अत: वह पूर्ण तैयारी के साथ आया था। उसके साथ 80000 चुने हुए योद्धा थे। स्थित की गम्भीरता को देखते हुए शिवाजी ने पहली बार रायगढ़ में एक युद्ध परिषद् की बैठक बुलायी। संकट की इस घड़ी में नेताजी पालकर जो कि उस समय प्रधान सेनापति थे तथा शिवाजी की पत्नी पुतलीबाई पालकर के परिवार से थे राजद्रोही हो गये। शिवाजी ने उन्हें स्वराज्य की सीमा की चौकसी का आदेश दे रखा था लेकिन जय सिंह की सेना के आने पर वह मराठों की मुख्य सेना को लेकर बहुत दूर निकल गये। शिवाजी ने उन्हें फौरन सेना को लेकर वापिस आने का आदेश्  दिया। परन्तु नेता जी पालकर वापिस नहीं आये। नेता जी वास्तव में जय सिंह से मिल गये थे जिसने उन्हें मुगल दरबार में उच्च मनसब प्रदान कराने का वायदा किया था। सेनापति के इस आचरण से मुगल आक्रमण का संकट और अधिक गहरा गया।

संकट के इन क्षणों में प्रताप राव गूजर ने शिवाजी का भरपूर साथ दिया था। उसने एक हद तक मुगल सेना की रसद पानी रोकने में सफलता प्राप्त की और उसने बहुत सी मुगल टुकड़ियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वह लगातार मुगल सेना की हलचल की खबर शिवाजी को देता रहा। संकट की इस घड़ी में प्रताप राव के संघर्ष से प्रसन्न होकर ही शिवाजी ने उसे सरे नौबत का पद और प्रताप राव की उपाधि प्रदान किया।

 शिवाजी युद्ध की स्थिति का जायजा लेकर, इस नतीजे पर पहुंचे कि जय सिंह को आमने-सामने की लड़ाई में हराना सम्भव नहीं है। अत: उन्होंने प्रताप राव गूजर को जय सिंह का वध करने का कार्य सौंपा। एक योजना के अन्तर्गत प्रताप राव जय सिंह के साथ मिल गये और एक रात मौका पाकर उन्होंने जय सिंह को उसके शिविर में मारने का एक जोरदार प्रयास किया परन्तु अंगरक्षकों के चौकन्ना होने के कारण जय सिंह बच गया। प्रताप राव गूजर शत्रुओं के हाथ नहीं पड़ा और वह शत्रु शिविर से जान बचाकर निकलने में सफल रहा। प्रताप राव का यह दुस्साहिक प्रयास भी स्वराज्य के काम न आ सका। जय सिंह से संधि की बातचीत शुरू कर दी गयी। जिसके परिणामस्वरूप 1665 में पुरन्दर की संधि हुई। सन्धि के अन्तर्गत शिवाजी को अपने 35 में से 23महत्वपूर्ण दुर्ग मुगलों को सौंपने पड़े। बीजापुर के कुछ क्षेत्रों पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। शिवाजी के पुत्र संभाजी को मुगल सेना में पांच हजारी मनसब प्रदान किया गया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों का साथ देने का वचन दिया।

परन्तु बीजापुर के विरूद्ध मुगल-मराठा संयुक्त अभियान सफल न हो सका। इस अभियान के असफल होने से मुगल दरबार में जय सिंह की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। अत: उसने औरंगजेब को अपना महत्व दर्शाने के लिए शिवाजी को दक्षिण का सूबेदार बनवाने का वादा करके बादशाह से  मिलाने के लिए आगरा भेजा। मुगल दरबार में उचित सम्मान न मिलने से शिवाजी रूष्ट हो गये और तत्काल मुगल दरबार छोड़ कर चले गये। औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर उन्हें गिरफ्तार करा लिया। एक वर्ष तक शिवाजी आगरा में कैद रहे फिर एक दिन मुगल सैनिकों को चकमा देकर वह कैद से निकल गये और सितम्बर 1666 में रायगढ़ पहुंच गये। जब तक शिवाजी कैद में रहे स्वराज्य की रक्षा का भार पेशवा और प्रधान सेनापति प्रताप राव गूजर के जिम्मे रहा। शिवाजी की अनुपस्थिति में दोनों ने पूरी राजभक्ति और निष्ठा से स्वराज्य की रक्षा की।

आगरा से वापस आने के बाद शिवाजी तीन वर्ष तक चुप रहे। उन्होंने मुगलों से संधि कर ली। जिसके द्वारा पुरन्दर की संधि को पुन: मान्यता दे दी गयी और संभा जी को पांच हजारी मनसब प्रदान कर दिया गया। संभाजी अपने अपने पांच हजार घुड़सवारों के साथ दक्कन की मुगल राजधानी औरंगाबाद में रहने लगे। परन्तु कम उम्र होने के कारण इस सैन्य टुकड़ी का भार प्रताप राव गूजर को सौंप कर वापस चले आये। मुगल-मराठा शान्ति अधिक समय तक कायम न रह सकी। औरंगजेब को शक था कि शहजादा मुअज्जम शिवाजी से मिला हुआ है। उसने शहजादे को औरंगाबाद में मौजूदा प्रताप राव गूजर को गिरफ्तार कर उसकी सेना को नष्ट करने का हुक्म दिया। परन्तु सम्राट के हुक्म के पहुचने से पहले ही प्रताप राव गूजर अपने पांच हजार घुड़सवारों को लेकर औरंगाबाद से सुरक्षित निकल आया।

अब मराठों ने  मुगल प्रदेशों पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने पुरन्दर की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये अनेक किले फिर से जीत लिये। 1670 में सिंहगढ़ और पुरन्दर सहित अनेक महत्वपूर्ण किले वापस ले लिये गये। 13 अक्टूबर 1670 को मराठों ने सूरत पर फिर से हमला बोल दिया । तीन दिन के इस अभियान में मराठों के हाथ 66 लाख रूपये (दीनार) लगे। वापसी में शिवाजी जब वानी-दिदोरी के समीप पहुंचे तो उनका सामना दाऊद खान के नेतृत्व वाली मुगल सेना से हुआ। ऐसे में खजाने को बचाना एक मुश्किल काम था। शिवाजी ने अपनी सेना को चार भागों में बांट दिया। उन्होंने प्रताप राव के नेतृत्व वाली टुकड़ी को खजाने को सुरक्षित कोकण ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी और स्वयं दाऊद खान से मुकाबले के लिए तैयार हो गये। मराठों ने इस युद्ध में मुगलों को बुरी तरह पराजित कर दिया। दूसरी और प्रताप राव खजाने को सुरक्षित निकाल ले गया।

सूरत से लौटकर प्रताव राव गूजर ने खानदेश और बरार पर हमला कर दिया। प्रताप राव ने मुगल क्षेत्र के कुंरिजा नामक नगर सहित बहुत से नगरों, कस्बों और ग्रामों को बर्बाद कर दिया। प्रताप राव गूजर के इस युद्ध अभियान का स्मरणीय तथ्य यह है कि वह रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों के मुखियाओं से, शिवाजी को सालाना ‘चौथ’ नामक कर देने का लिखित वायदा लेने में सफल रहा। चौथ नामक कर मराठे शत्रु क्षेत्र की जनता को अपने हमले से होने वाली हानि से बचाने के बदले में लेते थे। इस प्रकार हम वह तारीख निश्चित कर सकते हैं जब पहली बार मराठों ने मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूली की। यह घटना राजनैतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थी। इससे महाराष्ट्र में मराठों की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक थी कि महाराष्ट्र मराठों का है मुगलों का नहीं।

 अंतत: मुगल सम्राट ने गुजरात के सूबेदार बहादुर खान और दिलेर खान को दक्षिण का भार सौंपा। इन दोनों ने सलहेरी के किले का घेरा डाल दिया। और कुछ टुकड़ियों को वहीं छोड़कर दोनों ने पूना और सूपा पर धावा बोल दिया। सलहेरी का दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। अत: शिवाजी इसे हर हाल में बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। शिवाजी सेना लेकर सलहेरी के निकट शिवनेरी के दुर्ग में पहुंच गये। इस बात की सूचना मिलते ही दिलेर खां पूना से सलहेरी की ओर दौड़ पड़ा और उसने शिवाजी द्वारा भेजे गये दो हजार मराठा घुड़सवारों को एक युद्ध में परास्त कर काट डाला। मराठों की स्थिति बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी। शिवाजी ने मोरोपन्त पिंगले और प्रताप राव गूजर को बीस-बीस हजार घुड़सवारों के साथ सलहेरी पहुंचने का हुक्म दिया। मराठों की इन गतिविधियों को देखते हुए बहादुर खां ने इखलास खां के नेतृत्व में अपनी सेना के मुख्य भाग को प्रताप राव गूजर के विरूद्ध भेज दिया। युद्ध शुरू होने के कुछ समय पश्चात् ही प्रताप राव ने अपनी सेना को वापिसी का हुक्म दे दिया। मराठे तेजी के साथ पहाड़ी दर्रो और रास्तों से गायब होने लगे। उत्साही मुगल उनके पीछे भागे। पीछा करते हुए मुगल सेना बिखर गयी अब प्रताप राव ने तेजी से घूमकर मराठों को संगठित किया और दुगने वेग से हमला बोल दिया। मुगल सेना प्रताप राव के इस जंगी दांव से भौचक्की रह गयी। मुगल भ्रमित और भयभीत हो गये और उनमें भगदड़ मच गयी। इखलास खां ने मुगल सेना को फिर से संगठित करने की कोशिश की,  कुछ नई मुगल टुकड़ी भी आ गयी, घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया तभी मोरो पन्त भी अपनी सेना लेकर पहुंच गये। मराठों ने मुगलों को बुरी तरह घेर कर मार लगाई। मराठों ने मुगल सेना बुरी तरह रौंद डाली। कहते हैं कि मुगलों के सबसे बहादुर पांच हजार सैनिक मारे गये, जिनमं बाइस प्रमुख सेनापति थे। बहुत से प्रमुख मुगल यौद्धा घायल हुए और कुछ पकड़ लिये गये।

 सलहेरी के युद्ध में मराठों की सफलता अपने आप में एक पूर्ण विजय थी और इसका सर्वोच्च नायक था प्रताप राव गूजर। सलहेरी के युद्ध में मराठों को 125 हाथी, 700ऊट, 6 हजार घोड़े, असंख्य पशु और बहुत सारा धन सोना, चांदी, आभूषण और युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। सलहेरी की विजय मराठों की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। आमने-सामने की लड़ाई में मराठों की मुगलों के विरूद्ध यह पहली महत्वपूर्ण जीत थी। इसी जीत ने मराठा शौर्य की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा दिया। इस युद्ध के पश्चात् दक्षिण में मराठों का खौफ बैठ गया। युद्ध का सबसे पहला असर यह हुआ कि मुगलों ने सलहेरी का घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गये।

1672 के अन्त में मराठों और बीजापुर में पुन: सम्बन्ध विच्छेद हो गये। अपने दक्षिणी क्षेत्रों की रक्षा की दृष्टि से मराठों ने पन्हाला को बीजापुर से छीन लिया। सुल्तान ने पन्हाला वापिस पाने के लिये बहलोल खान उर्फ अब्दुल करीम के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। बहलोल खान ने पन्हाला का घेरा डाल दिया। शिवाजी ने प्रताप राव गूजर को पन्हाला को मुक्त कराने के लिये भेजा। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला को मुक्त कराने के लिये एक अद्भुत युक्ति से काम लिया। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला कूच करने के स्थान पर आदिलशाही राजधानी बीजापुर पर जोरदार हमला बोल दिया और उसके आसपास के क्षेत्रों को बुरी तरह उजाड़ दिया। उस समय बीजापुर की रक्षा के लिए वहां कोई सेना नहीं थी अत: बहलोल खान पन्हाला का घेरा उठाकर बीजापुर की रक्षा के लिए भागा। लेकिन प्रताप राव ने उसे बीच रास्ते में उमरानी के समीप जा घेरा। बहलोल खान की सेना की रसद रोक कर प्रताप राव ने उसे अपने जाल में फंसा लिया और उसकी बहुत सी अग्रिम सैन्य टुकड़ियों का पूरी तरह सफाया कर दिया।यह अप्रेल सन् 1673 की घटना है। उस समय गर्मी अपने चरम पर थी, उस समय पानी सबसे महत्वपूर्ण था। एक दिन दो दिन नहीं बल्कि पूरा एक महीने की घेराबंदी होने पर बहलोल खान और उसकी सेना की स्थिति यह हो गई कि उसके सैनिक व घोड़े प्यास से मरने लगे। वक्त का तकाजा यह था कि या तो बहलोल खान युद्ध करके मरे या प्यासा मरे। ऐसी हालत में बहलोल खान ने घुटनों के बल बैठ कर प्रताप राव गुर्जर से प्रार्थना की कि वह उसे और उसके सिपाहियों को सिर्फ पीने के लिए पानी दे दे। बदले में जो कुछ भी उनके पास है ले ले। उनकी जान बख्श दे। प्रताप राव गुर्जर धर्म संकट में फंस गया था। उसका हिन्दू हृदय प्यासे और अधमरे दुश्मन पर हमला करने की इजाजत नहीं दे रहा था। वह तो बहलोल खान को समाप्त करने के लिए आया था, हिन्दू धर्म में प्यास से मरते को पानी पिलाना सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। परंतु यहां प्यास से मरने वाला कोई सामान्य आदमी नहीं, उसके राजा का सबसे बड़ा शत्रु था। कुल मिलाकर स्थिति यह हुई कि प्रताप राव गुर्जर निहत्थे व प्यासे बहलोल खान की सेना पर हमला न कर सका। उसने उसे भाग जाने का रास्ता दे दिया। प्रताप राव ने पन्हाला को मुक्त कराकर शिवाजी को अपनी सफलता का पत्र लिखा। शिवाजी जानते थे कि बहलोल खान जैसे की जबान की कोई ही कीमत नहीं है। एक राज्य को खड़ा करने में कितने सिपाहियों का लहू लगता है, उसकी कीमत वह जानते थे। अतः शिवाजी ने प्रताप राव गुर्जर को एक कड़ा पत्र लिखा। जिसमें कहा कि वह बहलोल खान जैसे दुश्मन को कैसे छोड़ सकता है। जब तक बहलोल खान को समाप्त न कर दे रायगढ़ में आकर अपना चेहरा न दिखाए। प्रताप राव गुर्जर ने जब पत्र पढा तो उसे क्या करना है उसने तय कर लिया।आज प्रताप राव के सामने वह स्थिति थी जो कभी लक्ष्मण के सामने दुर्वासा ॠषि को रोकने के कारण उत्पन्न हो गई थी, जब वह राम के आदेश की अवहेलना कर उनके वार्तालाप में दाखिल हो गए थे, राम ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया था और लक्ष्मण ने उस त्याग दुखी होकर आत्म बलिदान कर दिया था। इतिहास अपने आप को दोहरा रहा था।
वह शिवाजी की सेना का सिपाही था। अपने राजा की इच्छा के सामने वह अपनी जान की कोई कीमत नहीं मानता था। प्रताप राव गुर्जर जैसे ही अपनी सेना लेकर दूसरी ओर को चला। बहलोल खान अपनी सेना लेकर पन्हाला की ओर चल दिया। प्रताप राव को जैसे ही सूचना मिली। वह तुरन्त वापस लौटा। अब प्रताप राव को प्रत्यक्ष दिखा कि शिवाजी गलत नहीं थे। अब बात उसके व्यक्तिगत सम्मान की थी। प्रताप राव ने अपनी मुख्य सेना को पीछे कर 1200 सिपाहियों के साथ थोड़ा आगे मोर्चा बना लिया। बहलोल खान अपनी 15000 की सेना के साथ था। प्रताप राव गुर्जर चाहता था कि बहलोल खान कम सेना को देख उस पर आक्रमण कर दे। ताकि आमना-सामना हो सके। परन्तु बहलोल खान प्रताप राव के जंगी दाव व बहादुरी से वाकिफ था। वह अपनी मोर्चाबंदी में चुप बैठा रहा। प्रताप राव अपने व्यक्तिगत सम्मान के लिए अपने 1200 सैनिकों को हमले का आदेश दे कर उन्हें आत्महत्या के लिए नहीं झोंक सकता था। इसी ऊहापोह में 24 फरवरी सन् 1674 की सुबह प्रताप राव गुर्जर अपने छ: बहादुर साथियों बीसाजी बल्लाल, दीपाजी राउत राव, बिट्टठल पिल्लाजी अत्रेय, कृष्णाजी भास्कर, सिद्धी हलाल और बिठोजी शिंदे के साथ सेना के निरिक्षण पर थे तभी एक घुड़सवार आता दिखाई दिया। उसने प्रताप राव गुर्जर को बताया कि बहलोल खान आधा मील की दूरी पर है। बहलोल खान का नाम सुनते ही प्रताप राव का खून खौल गया,वह दहाड़ पडा, उसका हाथ अपनी तलवार पर चला गया और प्रताप राव ने अपने घोड़े को बहलोल खान की दिशा में दोडा दिया। अपने सेनापति का अनुसरण करते हुए वे छ: भी पीछे चल दिए। बहलोल खान की सेना ने जब सात घुड़सवारों को हमले की मुद्रा में आते देखा तो तुरन्त सूचना बहलोल खान को दी। बहलोल खान ने देखा की घुड़सवारों को नेतृत्व मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर कर रहा है। बहलोल खान ने तुरंत अपनी सेना को हमले का आदेश दे दिया। एक ओर सात दूसरी ओर 15000। एक स्थान पर दोनों पक्ष टकराये। वो सात बड़ी बहादुरी से लडते हुए रणभूमि में खो गए। वास्तव में यह युद्ध नहीं था यह तो एक योद्धा की अपने व्यक्तिगत सम्मान के लिए दी गई कुर्बानी थी।इतिहासकार इसे नेसरी का युद्ध कहते हैं। शिवाजी को जब यह समाचार मिला तो वे दहाड़ मारकर रो पड़े। शिवाजी ने प्रताप राव गुर्जर के बलिदान के लिए खुद को दोषी माना। शिवाजी महाराज ने प्रताप राव गुर्जर की  पुत्री जानकी बाई का विवाह अपने छोटे बेटे राजाराम से सात मार्च सन् 1680 को कर दिया तथा जानकी बाई को महारानी घोषित कर दिया। तीन अप्रैल सन् 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई। शिवाजी का बडा बेटा सम्भा जी जो उस समय पन्हाला के किले में नजरबंद था को शिवाजी के तत्कालीन सेनापति हम्मीर राव मोहिते ने किले से आजाद कराकर राजा बना दिया। परन्तु सन् 1681 में औरंगजेब बड़ी सेना लेकर दक्षिण पहुंच गया। 11 मार्च सन् 1689को  सम्भाजी की मृत्यु हो गई।सम्भा जी के सात वर्ष के बेटे साहू तथा सम्भाजी की पत्नी यशुुुुबाई एवं शिवाजी की पत्नी सकूराबाई गायकवाड़ को औरंगजेब ने 3 नवम्बर सन् 1689 को बंदी बना लिया अब राजाराम छत्रपति बने तथा जानकीबाई महारानी बनी।

प्रताप राव गुर्जर के तीन पुत्र थे।प्रताप राव गुर्जर के एक पुत्र का नाम सिद्धों जी गुर्जर था। सन् 1693 में छत्रपति राजाराम के आदेश पर सिद्धों जी गुर्जर ने शिवाजी महाराज द्वारा निर्मित नो सेना की कमान संभाली थी।

 सन् 1700 में राजाराम की मृत्यु हो गई तथा जानकीबाई राजाराम के शव के साथ सती हो गई। अपनी आदत के अनुसार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज के पोत्र साहू महाराज को ( 9 मई सन् 1703)  मुसलमान बनने का आदेश दिया।

जब साहू जी ने मुसलमान बनने में असमर्थता जताई,तब औरंगजेब ने साहू के स्थान पर किसी दूसरे प्रभावशाली मराठा परिवार के मुसलमान बनने की शर्त पर साहू जी को मुसलमान न बनाने की बात कही। इस संकट की घड़ी में प्रताप राव गुर्जर के दो  बेटे खंडेराव गुर्जर व जगजीवन गुर्जर आगे आए।16मई सन् 1703को मोहर्रम के दिन साहू जी को बचाने के लिए प्रताप राव गुर्जर के दोनों बेटे मुसलमान बन गए।अब खंडेराव गुर्जर का नाम अब्दुल रहीम व जगजीवन गुर्जर का नाम अब्दुल रहमान हो गया।12जनवरी सन् 1708को साहू जी छत्रपति बने। छत्रपति शाहूजी ने सतारा के पास सालगांव की जागीर अब्दुल रहीम व अब्दुल रहमान को दी। आज भी इन दोनों भाई के वंशज सतारा के पास परली गांव में निवास करते हैं।

प्रताप राव गूजर और उसके छह साथियों के बलिदान की यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक है। प्रतापराव और उसके साथियों के इस दुस्साहिक बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमग राज ने ‘वीदात मराठे वीर दुआदले सात’ नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध पा’र्व गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है। प्रताप राव गूजर के बलिदान स्थल नैसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है।  

दक्षिण भारत ही नहीं उत्तरी भारत में भी प्रताप राव गुर्जर की मान्यता है। उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में सन् 2002 से "प्रताप राव गुर्जर स्मृति समिति" के तत्वावधान में प्रताप राव गुर्जर के बलिदान दिवस की स्मृति में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है। बारह वर्ष से लगातार "प्रताप" वार्षिकी पत्रिका का प्रकाशन भी समिति की ओर से किया जाता है।
संदर्भ ग्रंथ
1- Nil Kant, s - A History of The Great Maratha Empire, Dehradun 1992
2- Duff Grant -History of Maratha
3- Srivastav, Ashrivadilal -Bharat ka Itihas
4- Dr Sushil Bhati -हिन्दवी स्वराज की स्थापना की नींव मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर।


सेनापति प्रताप राव गुर्जर

लेखक - स्व कवि हरिद त्त त्यागी

सर्वप्रथम प्रभु को प्रणाम, इस जग के स्वामी को।
स्वयं विधाता पालक दाता, क्षमाशील अंतर्यामी को।।
पुनः नमन है परम श्रेष्ठ, परम पवित्र भगवा ध्वज को।
त्याग, तपस्या और शौर्य के, प्रेरक परिचय चिर ध्वज को।।
जिसको देख याद आ जाते, ॠषि-मुनि, वीर सन्यासी।
यज्ञ वेदिका विजय वाहिनी, मथुरा- वृन्दावन- काशी।।
पुनः नमन है भारत भू को, वसुधा रत्न प्रसवनी को।
प्रभु के अवतारों की गोदी, महापुरुषों की जननी को।।
आदर से अब याद करें, उन बहनों को माताओं को।
रक्षाबंधन, पतिव्रत, और जौहर की ज्वालाओ को।।
यदि होता उजला प्रभात तो, रात अंधेरी भी होती।
होता है यदि जन्म जीव का, उसकी मृत्यु भी होती।।
उसी सरीखे निशा काल, दुर्घट भारत में भी आयें।
झंझावात और तूफानों के, काले बादल भी छायें।।
सुख-समृद्धि और सत्ता मद में, निंदा- द्वेष पाल बैठे।
भूल गए सहयोग भावना, भ्रम में शस्त्र डाल बैठे।।
हम भारतीय हैं भारत में, पहचान हेतु है कुल विचार।
ये स्वर्णकार, ये कुम्भकार, ये शिल्पकार, ये चर्मकार।।
यदि वीर एक थे राणा प्रताप, तो एक वीर प्रतापराव गुर्जर।
था एक वीर राजस्थानी, तो एक महाराष्ट्र से था गुर्जर।।
था शूर शिवा का सेनापति, वह वीर प्रताप राव गुर्जर।
जैसे राणा संग था झाला, वैसे संग शिवा के था गुर्जर।।
जैसे राणा का कवच बना, संकट में शूरवीर झाला।
ऐसा ही सिंह शिवाजी का, वह सेनापति था मतवाला।।
मस्त-मलंग सा मुगलों का दल, जब-जब चढ़ कर आता था।
चहुँ दिशाओं से सिंह-शावक दल, उसको लक्ष्य बनाता था।।
कभी तोप से गोले बरसे, कभी खडंग लहराती थी।
प्रतापराव की घुड़सेना, बड़े चमत्कार दिखलाती थी।।
उचित समय पहचान वीर, वह विद्युत गति से आता था।
लक्ष्य भेद कर अल्प समय में, वहीं कही छिप जाता था।।
बुझने नहीं दिया मरते दम तक, शत्रु विरोधी ज्वाला को।
सात माह तक थामे रखा, उसने दुर्ग पन्हाला को।।
सिंह गढ़, सलहेरी, उमरानी, उसका रणकौशल कहते।
अब्स, हवेली, गुलबर्गा, और बालाघाट डरे रहते।।
उदगीर और परांडा रौंदा, साथ में औरंगाबाद पिटे।
सेनापति मुगलों का मारा, दक्षिण में हजारों मुगल कटे।।
काट उंगलियां शाइस्ता खा की, सिंह गढ़ वीर शिवा आये।
क्रोधित हो मुगलों के दल-बल, वीर शिवा पर चढ़ धाये।।
तभी राजगढ़ से प्रताप राव गुर्जर, ले अपनी घुड़सवार सेना।
वहीं पहुंच टूट पड़े मुगलों पर, भूखे सिंहों का क्या कहना।।
आगे-आगे मुगली गीदड़, पीछे-पीछे सिंह प्रतापी थे।
सचमुच उस मुगल दल को, प्रताप राव ही काफी थे।।
ऐसा पहली बार हुआ था, भागे थे मुगली घोड़े।
पीछा किया दूर तलक, थे संख्या में चाहे थोड़े।।
प्रताप राव के रण-कौशल से, दुश्मन हारा अपमान हुआ।
पाला किसी शूर से है, दुश्मन को भी यह भान हुआ।।
दुनिया में उस समय बड़ी थी, मुगलों की सबसे सेना।
बारूदी तोपों से सज्जित, साधन युक्त सारी सेना।।
औरंगजेब ने प्रताप राव को, बंदी करने का हुक्म दिया।
सावधान था वीर बहुत, सो पहले ही खिसक लिया।।
छापामारी दस्ता था वह, शायद दुनिया में पहला।
सो मारता रहता था, वह नहले पर कसके दहला।।
गढ़ आला पर सिंह गेला, अब ताना का बलिदान हुआ।
अधिक भार बढ़ गया प्रताप पर, वीर शिवा को भान हुआ।।
किन्तु भरोसा था अटूट, सो अधिक वेग से वार किए।
थे चिन्ह दासता के जो भी, दोनों ने मिलकर मिटा दिए।।
अब शिवाजी बढ़ गये प्रहारों को, तो साथ प्रताप-पिंगले थे।
दस हज़ार थे घुड़सवार, इतने ही पैदल निकले थे।।
अक्टूबर 1670 था, फिर से सूरत पर वार किया।
दाऊद इखलास बकी खा संग, मुगली सेना ने कूच किया।।
मुगलों के छकके छुड़ा दिये, फिर वाणी और ढिडोरी में।
प्रताप-शिवाजी ताल-मेल, बंध गया गजब की डोरी में।।
जनवरी 72 में आकर, सलहेर दुर्ग को जीत लिया।
अपमान-हार की आंधी ने, औरंगजेब को क्रुद्ध किया।।
सूबेदार बहादुर खान और धूर्त सेनापति दिलेर।
ले विशाल एक सेना, आ धमके फिर से सलहेर।।
पहली टुकड़ी के दो हजार, बलिदान हो गए इस रण में।
बदली नीति हट गए वीर, सेना को ले पीछे क्षण में।।
मुगलों की सेना को आगे, बढ़ जाने दिया मराठों ने।
मौका देखा और दांव दिया, फिर गुर्जर वीर मराठों ने।।
तीव्र वेग से झपट पड़ा, आगे बढ़ प्रताप राव गुर्जर।
मोरोपंत भी आ धमके, मार लगाई फिर जमकर।।
पांच हजार काट दिए मुगल, और हाथ लगा काफी सौदा।
संकट में यदि हौसला हो, तो कोई नहीं रहती बाधा।।
सलहेर युद्ध तो फतेह हुआ, अब अगली जंग पन्हाला था।
मुगलों से दो-दो हाथ हुए, पठानों से जोर अाजमाना था।।
बीजापुर से पन्हाला छीन लिया, पलभर में वीर मराठों ने।
बहलोल खान ले फौज चला, युद्ध करने वीर मराठों से।।
वीर शिवा ने बात कही, अब किला वापसी नहीं देना।
रण को जाओ प्रताप राव, ले पन्द्रह हजार की घुड़सेना।।
उमरानी में हो गया सामना, जमकर युद्ध हुआ भारी।
एक तरफ प्रताप राव गुर्जर, दूजा बहलोल खान अत्याचारी।।
रणभूमि में बहलोल घेर लिया, प्रताप राव की सेना ने।
हुआ परास्त तो मृत्यु का भय, सता रहा था सेना से।।
अन्त समय को देख प्राणों की, भीख मांगने आया वो।
मन में तो था कपट लिए, पर बिल्ली सा मिमियाया वो।।
हाथ जोड़ फरियाद करी, प्रताप बख्श दे प्राण मेरा।
जाने दे वापस घर मुझको, किला पन्हाला हुआ तेरा।।
रणनीति या दया भाव, शत्रु को जीवन दान दिया।
पर वीर शिवा ने इस घटना पर, नाराजी का भान दिया।।
प्रताप राव तो दूर गए, पीछे शत्रु ने संधि तोडी।
कसमें वादे भूल गया, और चढ़ आया लेकर घोड़ी।।
यह सुन काल-गराल प्रताप, पलट बाज सरीखा झपट पड़ा।
कर दिए वार पर वार, एकदम दुश्मन को लिपट पड़ा।।
आगे-आगे बहलोल खान, पीछे-पीछे प्रताप राव गुर्जर।
अब अपने प्राण बचाने को, मारा-मारा फिरता जमकर।।
एक दिन खबरी ने खबर दी, प्रताप राव को यह आकर।
नैसारी दर्रा घट प्रभा नदी, दुश्मन बैठा है छिपकर।।
तंग राह भ्रांति हजार, इसलिए बेफिक्र बैठा है।
अपनी मांद में गीदड़, जाने किसके भरोसे ऐंठा है।।
सुन गुर्जर वीर ललकार उठा, हम खत्म कहानी कर देंगे।
चाहे जिसके भरोसे ऐंठा हो, सब पानी-पानी कर देंगे।।
आवेश में छ:वीर लेकर, चल पड़ा प्रताप राव गुर्जर।
दुश्मन पर जाकर टूट पड़ा, नहीं समय गंवाया फिर पलभर।।
फरवरी 1674, तिथि आत्मघात के निर्णय की।
युद्ध में बलिदान हुआ गुर्जर, अमर कथा यह निर्भय की।।
आखिरी दम सीख दे गया, वह भारत के युवकों को।
कोई काम कठिन नहीं है, दृढ़ निश्चयी नवयुवकों को।।
प्रताप राव बलिदान हुआ, जो वीर शिवा को खबर पडीं।
सुनकर वीर दहाड़ पड़ा, हा! ये भी आनी थी बुरी घडी।।
वीर शिवा यू कह उठें, प्रताप! मे तेरा कर्ज दार हुआ।
सुरपुर में जय-जयकार हुई, अपनों में हा-हाकार हुआ।।
समाप्त।

देश के आजाद होने से पहले से ही ब्रिटिश भारत में सन् 1871 से जो सेंसस प्रारंभ हुआ, उसमें जाति आधारित जनसंख्या की गणना की गई।इस गणना के अनुसार हिंदू, सिक्ख,जैन, बौद्ध व मुस्लिम गुर्जर की गणना एक ही जाति गुर्जर के रूप में की गई। हिंदू, जैन, बौद्ध सिक्ख गुर्जर आपस में शादी ब्याह एक जाति के रूप में करते रहें हैं, लेकिन मुस्लिम गुर्जर मे गैर मुस्लिम की शादी ब्याह नही होती। सन् 1891 के सेंसस मे अंग्रेजों ने मार्शल रेस की थ्योरी दी। जिसमें मिल्ट्री एंड डोमिनेंट कास्ट के समूह में जो 14 जाति अंग्रेजों ने ली उसमें गुर्जर भी शामिल थे। सन् 1857 की क्रांति के बाद जब भारत का शासन सीधा ब्रिटिश क्वीन के हाथ में चला गया और भारत में सरकार के सम्मुख अपनी बात रखने के लिए जहा सन् 1885 में कांग्रेस का गठन किया गया,वही जातिय संगठनों का भी गठन किया गया।इस आधार पर अखिल भारतीय गुर्जर महासभा का गठन सन् 1908 में हुआ। सन् 2005-6 में मे (अशोक चौधरी) इस गुर्जर महासभा का उत्तर प्रदेश में प्रदेश महासचिव के पद पर रहा। गुर्जर महासभा ने अपने स्तर पर मुस्लिम गुर्जर को अपने साथ लेकर चलने का प्रयास किया। कश्मीर के  मुस्लिम गुर्जर मोहम्मद हाकला इस गुर्जर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।इन प्रयासों का लाभ यह हुआ कि मुस्लिम गुर्जर और हिन्दू गुर्जर एक दूसरे के सुख-दुख के साथी हो गये।जब राजस्थान मे आरक्षण को लेकर गुर्जर आंदोलन हुआ और पुलिस की गोली से 73 गुर्जर की शहादत हो गई।तब पूरे देश में बसे गुर्जर समाज ने राजस्थान के गुर्जरों के समर्थन में प्रदर्शन किए।इन प्रदर्शनों में कश्मीर के मुस्लिम गुर्जर ने जम्मू-कश्मीर में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन किया, जिसमें 2 मुस्लिम गुर्जर पुलिस की गोली से मारे गए। पाकिस्तान में रह रहे मुस्लिम गुर्जर समाज के नेताओं ने भारतीय दूतावास को ज्ञापन सौंपा तथा राजस्थान के गुर्जरों के आंदोलन का समर्थन किया।
जब कठुआ/कश्मीर में मुस्लिम गुर्जर बच्ची के साथ रेप और उसकी हत्या की घटना घटी,तब दिल्ली एनसीआर में बसे हिंदू गुर्जरों ने अपराधियों को सजा दिलवाने के लिए धरने प्रदर्शन किए।
सन् 2009 के सांसद चुनाव में राजस्थान में दोसा लोकसभा क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो गया था। अनुसूचित जनजाति मीणा का दोसा के गुर्जरों से किसी विषय को लेकर मनमुटाव हो गया था,दोसा का गुर्जर मीणा जाति के व्यक्ति को वोट देना नही चहता था, जबकि प्रत्येक राजनीतिक दल ने मीणा जाति का ही प्रत्याशी दिया था।इस परिस्थिति में कश्मीर के मुस्लिम गुर्जर  कमर रब्बानी को दोसा से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़वाय गया। क्योंकि कश्मीर और हिमाचल प्रदेश का गुर्जर अनुसूचित जनजाति में आता है।
चुनाव परिणाम : लोकसभा चुनाव 2009
डॉ. किरोड़ीलाल मीणा (निर्दलीय) : 4,33,666
कमर रब्‍बानी (निर्दलीय) : 2,95,907
उपरोक्त उदाहरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि हिंदू और मुस्लिम गुर्जर शादी ब्याह को छोड़कर बाकी सभी मुसीबत और खुशी मे एक दूसरे का हम-कदम रहा है। 
6 मार्च सन् 2022 को समन्वय भवन मेरठ में गुर्जर परियोजना की एक बैठक हुई,बैठक में क्षेत्रीय प्रमुख श्री ईश्वर जी, प्रांत प्रमुख श्री ओमपाल जी,व विभाग प्रमुख श्री ब्रजपाल जी तथा क्षेत्रीय संघ चालक श्री सूर्य प्रकाश टांक जी शामिल है।
22 मार्च सन् 2022 को गुर्जर परियोजना के बैनर तले सम्राट कनिष्क की स्मृति में मेरठ प्रांत में मेरठ,शामली व सहारनपुर में कार्यक्रम आयोजित किए गए।मेरठ के कार्यक्रम में क्षेत्रीय प्रमुख श्री ईश्वर जी,डा कृष्ण गोपाल जी, क्षेत्रीय संघ चालक श्री सूर्य प्रकाश टांक उपस्थित रहे।इस कार्यक्रम मे मेरा भाषण प्रमुख रूप से रहा। कार्यक्रम के संयोजक देवेंद्र गूजर,सह संयोजक रविन्द्र गुर्जर तथा मुस्लिम गुर्जर सखावत ग्राम सारंग पुर व सिक्ख गुर्जर मेम्बर सिंह मंच पर उपस्थित रहे।
5 जून सन् 2022 को मेरठ के समन्वय भवन में गुर्जर परियोजना की प्रांत की एक बैठक आयोजित हुई, बैठक  में अखिल भारतीय सह प्रमुख धर्म जागरण मंच श्री राजेन्द्र जी का मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ। गुर्जर समाज के विषय में मुझे (अशोक चौधरी) गुर्जर इतिहास पर व डा निलम सिंह जी को अपने विचार रखने का अवसर प्राप्त हुआ।
11-12 जून सन् 2022 को परम्परा लेखन कार्यशाला का आयोजन दिल्ली राजघाट के सामने गांधी दर्शन हाॅल में हुआ,इस कार्यशाला में डा कृष्ण गोपाल जी वा रामलाल जी व इंद्रेश जी का मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ।इस कार्यशाला में ही डा हरेंद्र सिंह को पुरूष व डा निलम सिंह को मेरठ हापुड़ गाजियाबाद की गुर्जर परियोजना टोली का प्रमुख नामित किया गया।
25-26 जून सन् 2022 की धर्म जागरण मेरठ प्रांत परियोजना की एक कार्यशाला मेरठ समन्वय भवन मे आयोजित की गई।इस कार्यशाला में क्षेत्रीय प्रमुख श्री ईश्वर जी, प्रांत प्रमुख श्री ओमपाल सिंह जी, विभाग प्रमुख श्री ब्रजपाल सिंह जी उपस्थित रहे।
27 जून सन् 2022 को मेरठ प्रांत के जिला हापुड़ में गांव लोदीपुर छपका में गुर्जर सम्राट मिहिरभोज प्रलेखन समिति के तत्वावधान में सन् 1857 के क्रांतिकारी एवं किला परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह की स्मृति में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिला मेरठ परम्परा लेखन समिति के सदस्य श्री राजबल सिंह इस कार्यक्रम के संयोजक रहें। कार्यक्रम में करीब 100 व्यक्ति उपस्थित रहे। जिला हापुड़ की पंचायत अध्यक्ष श्रीमती रेखा हूण मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रही। कार्यक्रम में धर्म जागरण मंच के मेरठ प्रांत के प्रलेखन प्रमुख श्री अशोक चौधरी, प्रांत प्रमुख श्री ओमपाल सिंह चौहान, विभाग प्रमुख श्री ब्रजपाल सिंह तंवर,मेरठ जिला प्रलेखन प्रमुख टोली के संयोजक डा हरेंद्र सिंह, महिला टोली की संयोजक डा निलम सिंह, इतिहास कार डा सुशील भाटी, समाज सेवी श्री ओमपाल हूण आदि प्रमुख लोग उपस्थित रहे। कार्यक्रम में सारंग पुर गांव के मुस्लिम गुर्जर बाबू खां के साथ 5-6 मुस्लिम गुर्जर भी उपस्थित रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता राव कदम सिंह के वंशज श्री चमन सिंह निवासी गांव गोहरा ने की।श्री देवेन्द्र सिंह गांव पीर नगर,डा सुशील भाटी, अशोक चौधरी, ओमपाल सिंह, ब्रजपाल सिंह,डा निलम सिंह, श्रीमती रेखा हूण,श्री ओमपाल हूण गांव अटृटा,श्री सुभाष प्रधान गांव हिम्मत पुर,बाबू खां गुर्जर मंच पर उपस्थित रहे।









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