मंगलवार, 30 जनवरी 2024

1857 के महान क्रांतिकारी अमर शहीद चौधरी तोता सिंह कसाना - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

भारतियों ने अपनी भूमि को माता के समान माना है। अतः जब- जब भी भूमि को बचाने के लिए बलिदान देने की जरूरत पडी तो भारतियों ने अतुलनीय बलिदान दिये है।ऐसा ही संघर्ष सन् 1857 की क्रांति में चौधरी तोता सिंह कसाना का है।1857 में अंग्रेजों की भारतिय सैना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाहियों के साथ भारत के वो राजा/जागीरदार जो अंग्रेजों के शोषण का शिकार हो गये थे तथा उन रियासत व जागीरों में निवास करने वाली जनता ने एक साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का एक बडा प्रयास किया था। इस संघर्ष में लाखों की संख्या में भारतियों का बलिदान हुआ था, अंग्रेजों की ओर से भी  उनके अधिकारी, सैनिक व परिवार के स्त्री-बच्चे मारे गए थे।इस कारण भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकल कर सीधा ब्रिटिश क्राउन के हाथ में चला गया था।भारतियों द्वारा दिए गये बलिदान से वो फल तो प्राप्त नही हुआ जो भारतिय चाहते थे, परंतु बहुत कुछ प्राप्त हो गया था। यह अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि भारतियों को वो पूर्ण रूप से गुलाम नहीं  बना सकते, यदि उनको यहां शासक बन कर रहना है तो भारतियों की बात और भावना की कद्र करनी ही पड़ेगी।
भारतियों के अस्तित्व व अस्मिता को बचाने के इस संघर्ष में जिन असंख्य लोगों ने बलिदान दिया। उनमें बहुत बडी संख्या उन लोगों की थी, जो न तो किसी जागीर या रियासत के जागीर दार थे और नाहि क्रांति कारी सेना/बंगाल नेटिव इन्फैंट्री का हिस्सा थे बल्कि एक साधारण किसान परिवार से थे। चौधरी तोता सिंह कसाना उन्ही आम आदमी का एक चेहरा है।वो असंख्य लोग जिनका कोई नाम रिकार्ड में नही आया, सिर्फ अंग्रेजों के द्वारा संख्या लिख दी गई,कि इस जगह इतने लोग मारे गए,चौधरी तोता सिंह कसाना उन सभी अमर क्रांतिकारियों का एक मान बिन्दु है।
चौधरी तोता सिंह कसाना एक जगह जरुर भाग्यशाली रहें हैं कि उनके वंशजों ने अपनी स्मृति में उनकी याद सजोये रखी तथा वे उनका स्मरण समय समय पर करते रहे हैं।
क्रांति के इस किरदार पर मेरे द्वारा किया गया यह लेखन चौधरी तोता सिंह कसाना तथा उन सभी अज्ञात क्रांतिकारियों को एक छोटी सी श्रंद्धाजलि के रूप में पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है।-
चौधरी तोता सिंह कसाना जी की वीरता को जानने से पहले हमें उस समय की समाज रचना को समझना होगा। जिसके प्रभाव के कारण एक सामान्य किसान क्रांतिकारी योद्धा के रूप में प्रकट हो गया।
भारत के उत्तर में तथा दक्षिण में जो समाज की व्यवस्था रही है, उसमें कुछ अंतर रहा है। दक्षिण भारत में जाति प्रथा रही है तथा उत्तर भारत में यजमान प्रथा रही है।
जाति प्रथा के अनुसार किसी भी गांव में जो शासक जाति होती थी यानि जिसके पास जमीन होती थी,उस गांव में बसी सभी जातियां किसान जाति के साथ एक श्रमिक के रूप में जुडी रहती थी।यानि एक तरह से यदि किसी गांव में बसी ब्राह्मण जाति किसान जाति है तो जो अन्य श्रमिक जातियां सम्पूर्ण गांव की ब्राह्मण जाति की श्रमिक मानी जाती थी।
लेकिन उत्तर भारत में ऐसा नहीं था खासतौर से हरियाणा पंजाब पश्चिम उत्तर प्रदेश या जहां जाट गूजर अहीर बाहुल्य में थे, उनके गांव में यजमान प्रथा थी।इस प्रथा में यदि एक गुर्जर जाति का गांव है, उसमें सभी जमीन गुर्जर जाति के व्यक्तियों के पास है,उस गांव में बसी श्रमिक जातियां गुर्जर जाति की श्रमिक जाति न होकर,एक परिवार के कृषक के साथ एक परिवार की ही श्रमिक जाति जुडी होती थी। जैसे एक किसान परिवार के साथ एक नाई परिवार,एक कुम्हार परिवार,एक धोबी परिवार,एक भंगी/बाल्मिकी परिवार, एक चमार परिवार,एक धींवर परिवार तथा पुरोहित के रुप में एक ब्राह्मण परिवार जुडा रहता था।इस व्यवस्था के कारण एक दूसरे के सुख दुख का जुडाव बना हुआ था। कार्य के रुप में शोषण भी श्रमिक जाति का कम था,क्यौकि एक परिवार पर एक परिवार की ही जिम्मेदारी थी,अन्य उससे काम नही लेता था।
लडने की पहली शर्त यही है कि जो लडना चाहते हैं उनमें समानता हो,इस यजमान प्रथा के कारण उत्तर भारत के समाज में काफी हद तक समानता थी,मानव अधिकारों का हनन बहुत ही कम था, मुसीबत आने पर किसान व श्रमिक जातियां एक साथ मिलकर अपने शत्रु से संघर्ष कर जाती थी। इसलिए भारत के इतिहास ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें श्रमिक जाति के लोगों ने अपने किसान जाति के लोगों पर आयी मुसीबतों का कंधे से कंधा मिलाकर विरोध किया है तथा बलिदान दिये है।
गुर्जर प्रतिहार सम्राटों के द्वारा जातिय आधार पर जो जागीर दी गई थी,उनकी रचना इस तरह की बन गई थी कि प्रत्येक जाति की बसावट एक छावनी के रुप में हो गई थी।12,24,60,84,360 गांव की संख्या की जागीर के गांव थे जो एक ही जाति तथा एक ही गोत्र के लोगों के पास थे।ऐसी मान्यता है कि दिल्ली के पास  पृथ्वीराज चौहान के ताऊ सम्राट बिसल देव चौहान के द्वारा 360 गांव की जागीर भाटी गुर्जरों को दी गई थी।इन 360 गांव में भाटी गुर्जर सिर्फ 80 गांव में थै बाकि गांव इन भाटी गुर्जरों ने अपने रिश्तेदारों को दे दिए थे, जिनमें 12-12 गांव कसाना और बेसला गुर्जरों को लोनी के आसपास दिए गए,लोनी मे बना किला एक सैनिक छावनी के रुप में था,लोनी के पास बसा जावली गांव इन चौबीस गांव का हैडक्वार्टर था।इसी प्रकार बुलंदशहर में राजगढ़ में बना किला सैनिक छावनी के रुप में था, दुजाना व दादरी के पास बसा कटेहडा गांव क्षैत्र का हेडक्वार्टर था।उस समय समाज का प्रत्येक वर्ग एक सेनिक की तरह हथियार बंद और प्रशिक्षित रहता था,राजा की सेना हार जाने के बाद भी आम आदमी इतना संगठित व सशक्त था कि वह छोटी-मोटी सेना का मुकाबला करने मे सक्षम था, दुश्मन का दबाव बनने पर उसे पलायन कर कहा चले जाना है वह भली-भांति जानता था, मुसीबत टलने पर फिर अपनी जगह लौट आता था।ऐसी व्यवस्था लोगों ने बना रखी थी। सन् 1398 में तैमूर लंग के हमले के समय तुगलक की सेना के हार जाने के बाद भी इस क्षेत्र के लोगों ने तैमूर की सेना का जमकर मुकाबला किया था तथा तैमूर के बेटे को मारकर लोनी के किलेदार करतार सिंह ने उसका शव किले दीवार पर टांग दिया था।
सन् 1773 में राज गढ किलै के किलेदार चंद्र भान सिंह गुर्जर/चंदू गुर्जर ने भरतपुर के राजा नवल सिंह के सेनापति के रूप में मुगल सेना से लडते हुए बलिदान दिया था। कहने का तात्पर्य यह कि सन् 1857 के समय भी इस क्षेत्र बसे किसान जाति समूह हथियार बंद थे तथा आवश्यकता पड़ने पर सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की स्थिति में थे।इसी संरचना के कारण चौधरी तोता सिंह कसाना एक क्रांतिकारी सिपाही के रूप में सन् 1857 की क्रांति में अपने स्थानीय सेनापतियो क्रमशः रोशन सिंह भाटी, उमराव सिंह भाटी व राव कदम सिंह व चौधरी शाहमल सिंह के साथ सम्मिलित हो गये। ंं
श्री तोता सिंह कसाना जी का जन्म प्रातः 5 बजे सन् 1802,दिन बृहस्पतिवार को चौधरी रणजीत सिंह कसाना व माता श्रीमती महकारो देवी के यहां लोनी तहसील के गांव महमूद पुर जो वर्तमान में जिला गाजियाबाद मे आता है, में हुआ था।
सन् 1857 की क्रांति के समय तोता सिंह कसाना की आयु 52 वर्ष थी।एक अच्छै मिलनसार परिवार में पैदा होने के कारण अपने आसपास कै गांवों में उनका बडा सम्मान था।
10 मई सन् 1857 को जब मेरठ से क्रांति की शुरुआत हुई तथा दिल्ली के मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया गया।तब क्षेत्र की व्यवस्था बनाने के लिए बहादुर शाह जफर ने 26 मई को यमुना के पास के क्षेत्र बडोत-बागपत का सूबेदार बडोत के पास स्थित बिजरोल गांव के चौधरी शाहमल सिंह को बना दिया था। यमुना नदी पर नावों का पुल बना हुआ था। अंग्रेजों की मदद के लिए अम्बाला छावनी से सैनिक मदद इसी पुल से आई तथा हिंडन के तट पर भारतीयों और अंग्रेजों के मध्य 30- 31 मई सन् 1857  को घमासान युद्ध हुआ।इस युद्ध में बुलंदशहर और अलीगढ़ के  सूबेदार माला गढ़ के वलीदाद खां के साथ गुठावली के इंद्र सिंह राठी व कटहडा दादरी के राव रोशन सिंह भाटी अपने सहयोगियों के साथ अंग्रेजों से लड़ें।
दादरी के राव रोशन सिंह भाटी के युद्ध में सहभागी हो जाने कै कारण इस क्षेत्र के आसपास बसे गुर्जर जाति के किसान भी अपने नेता कै साथ सम्मिलित हो गये। जिनमें एक तोता सिंह कसाना भी थे।राव रोशन सिंह व उनके छोटे भाई भगवान सिंह इस युद्ध में उन हजारों भारतियों के साथ शहीद हो गए,ऐसा अनुमान है। क्योकि इस तारिख के बाद राव रोशन सिंह व भगवान सिंह की गतिविधी का कही कोई जिक्र नहीं आता। परंतु राव रोशन सिंह के भतीजे राव उमराव सिंह भाटी ने 31 मई को सिकंदराबाद के अंग्रेज परस्त व्यक्तियों पर, करीब 20000 साथियों के साथ हमला कर दिया था।इस हमले में सैकड़ों अंग्रेज  परस्त मारे गए थे।
श्री तोता सिंह कसाना भी हिंडन नदी के किनारे हुए इस युद्ध में बलिदान हो गये।
उनके बलिदान के बाद जब शांति स्थापित हुई,तभी से श्री तोता सिंह कसाना जी के वंशज,उनको स्मरण करते आ रहे हैं।आज के समय में जब उनके वंशज गांव महमूद पुर से निकल कर बाहर शहर में निवास करने लगे हैं। लेकिन श्री तोता सिंह कसाना जी का स्मरण वो करते रहे हैं।
श्री तोता सिंह कसाना के एक वंशज श्री नेपाल सिंह कसाना जी मेरे (अशोक चौधरी) भी सम्पर्क में हैं।भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय की ओर से सन् 1857 से लेकर सन् 1947 तक के सभी बलिदानियों को स्मरण करने के लिए उनके गांवों में कार्यक्रम करने की योजना बनी।उसी योजना के अंतर्गत मेरठ प्रांत के अंदर कार्यक्रम करने के लिए क्रांति तीर्थ समिति के नाम से एक टोली का गठन हुआ। जिसमें मेरठ के गढ़ रोड पर स्थित गांव माछरा के अश्वनी त्यागी जी इस समिति के संयोजक बने। में इस समिति के संरक्षक मंडल में था। आईआईएमटी कालेज मेरठ के मैनेजर श्री मयंक अग्रवाल जी बुलंदशहर व गोतम बुद्ध नगर के संयोजक बने।इस टोली के द्वारा मेरठ प्रांत में विभिन्न क्रांतिकारियों के गांवो में कार्यक्रम कर, बलिदानियों के वंशजों को सम्मानित किया गया।
नोएडा में श्री तोता सिंह कसाना के वंशज श्री नेपाल सिंह कसाना जी निवास करते हैं। अतः श्री तोता सिंह कसाना जी की स्मृति में एक कार्यक्रम 26 अगस्त सन् 2023 को नोएडा में किया गया, जिसमें पूर्व मंत्री श्री नबाब सिंह नागर जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहें तथा मुझे मुख्य वक्ता के रूप में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। समिति की ओर से श्री नेपाल सिंह कसाना तथा अन्य वंशजों को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।
समाप्त।





रविवार, 21 जनवरी 2024

22 जनवरी भगवान राम जी की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा पर विशेष - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

सम्पूर्ण भारत वर्ष में गजब का हर्षोल्लास भगवान राम के मंदिर अयोध्या में बनने को लेकर छाया हुआ है।भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 22 जनवरी को भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर सहभागिता की हैं।यह प्रसन्नता कितने लम्बे संघर्ष के बाद प्राप्त हो रही है।इस ओर बरबस ही ध्यान चला जाता है।
दुनिया में शायद ही कोई दूसरा देश हो,जिस देश के बहुसंख्यक समुदाय को अपने ईष्ट देव को स्थापित करने कै लिए इतना लम्बा संघर्ष करना पड़ा हो।
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण करने के लिए हिंदूओं द्वारा जो संघर्ष किया गया,उसको दो भागो मे बांटा जा सकता है।पहला भाग सन् 1947 तक  तथा दूसरा भाग भारत के आजाद होने के बाद सन् 1947 से 22 जनवरी सन् 2024 तक।
          ऐसी भारतीय सनातन समाज में मान्यता है कि भगवान राम के सरयू नदी में जल समाधि लेने के बाद, उनके बडे पुत्र महाराज लव ने भगवान राम का मंदिर अयोध्या में बनवाया था,उस समय दुनिया में सनातन धर्म के अलावा कोई दूसरा पंथ नही था,लोग छोटे छोटे कबीलों में रहते थे, उनके अपने अपने देवता थे, व्यक्तिगत पूजा पद्धति अलग थी, इसलिए उस युग में व्यक्ति की समाज में जिम्मेदारी को ही धर्म कहा गया।पिता के प्रति पुत्र का कर्तव्य,राजा का जनता के प्रति कर्तव्य,एक योद्धा का अपने पक्ष के लिए कर्तव्य ही धर्म कहलाता था।
कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन एक योद्धा के कर्तव्य से पीछे हटने लगा था,तब भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर अर्जुन को अपने क्षत्रिय धर्म/कर्तव्य का बोध कराया था, जो आज तक मानव का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
उस समय का समाज संघर्षों से भरा समाज था, इसलिए हमारे आदर्श भगवान भी एक योद्धा के रूप में हैं।
आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जब वेद लिखे गए,तब यह धारणा हमारे श्रृषि मुनियों ने दी कि ईश्वर एक ही हैं,वह निराकार है,जो अनेक देवी देवताओं के रुप में साकार हमने बना रखा है,यह ईश्वर तक पहुंचने का माध्यम है।
तभी महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर तथा पश्चिम में ईसा मसीह,आगे चलकर हजरत मोहम्मद साहब के द्वारा जो विचार दिए गए, मनुष्य ने उनको अंगीकार कर जीवन जीने का प्रयास किया।
अब से दो हजार वर्ष पूर्व महाराजा विक्रमादित्य ने अयोध्या में लव के बनाये हुए भगवान राम के मंदिर का जीर्णोद्धार कर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया। ऐसी मान्यता भारतीय जनमानस में रही है।
पश्चिम मैं इस्लाम व ईसाई धर्म को राज्य धर्म घोषित कर उनके अनुयायियों ने अपने अपने धर्म का विस्तार किया तथा भारत में सम्राट अशोक तथा आगे चलकर सम्राट कनिष्क ने बुद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित कर अपने धर्म का विस्तार किया।एक समय बौद्ध धर्म संसार का विशाल धर्म बन गया था। परंतु ईसाई और इस्लाम की आक्रामकता के सामने वह धाराशाई हो गया।
भारत में जब सन् 712 में मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण राजा दाहिर पर हुआ,तब ही से भारत में जबरदस्ती धर्म थोपने के विरोध में सनातन धर्म के मानने वालों ने इसका प्रत्युत्तर दिया। इसलिए सन् 735 से लेकर सन् 1000 तक भारत के गुर्जर- प्रतिहार वंश के नेतृत्व में भारतियों ने इस्लाम की आक्रामकता को कुंद कर दिया। गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज के समय सुलेमान नामक एक अरबी यात्री भारत आया था, उसने सम्राट मिहिर भोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु लिखा है।
सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885) की ग्वालियर प्रशस्ती में प्रतिहार वंश के राजाओं को राम जी के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया गया है। गुर्जर प्रतिहार वंश के राजा भगवान विष्णु के अवतार वराह के उपासक थे। इसलिए इनके सिक्कों पर भगवान वराह का चित्र अंकित है।
सम्राट मिहिर भोज के दरबारी विद्वान राजशेखर जो मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्र पाल (सन् 885-910) के गुरू थे, ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी और रघुवंश तिलक कहा है।
राजशेखर ने ही महेंद्र पाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुकुट मणि कहा है।
 धार्मिक आधार पर आदि शंकराचार्य जी का जन्म भी आठवीं शताब्दी में इसी कालखंड में हुआ।आदि शंकराचार्य जी ने भारत में चार मठ बनाये, उन्होंने साधुओं मे सैन्यपथ का मार्ग प्रशस्त किया तथा साधुओं के अनेक अखाडे बनाये।इन अखाड़ों में एक अखाडा नागा साधुओं का था,नागा शब्द का अर्थ ही गुजरात में लडाका है।इन नागा साधुओं ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए अतुलनीय बलिदान दिये।
इस समय जब भारत में नागा साधु हथियार उठाये हुए थे,उसी समय ग्यारहवीं शताब्दी में इस्लाम के खलीफा के सामने एक मुल्ला ने भारत में इस्लाम को फैलाने के लिए सूफि मत को बनाने का प्रस्ताव रखा। क्योंकि शक्ति के बल पर इस्लाम का रास्ता भारत में असफल हो गया था।मुल्ला के इस प्रस्ताव पर खलीफा आग बबूला हो गया तथा उस मुल्ला को फांसी पर चढा दिया, परन्तु कुछ समय बाद खलीफा को सूफि मत की बात को स्वीकारोक्ति देनी पडी। भारत में साधुओ का बडा सम्मान था,अत ये सूफि भारतीय साधुओं की तरह ही मठ में रहते थे, इनके मठो को मुस्लिम खानगाह कहते थे। भारतीय साधुओं की तरह के कपड़े तथा भजनो की तरह का गाना भी ये सूफि गाते थे।जब महमूद गजनवी ने भारत पर हमले प्रारंभ किए,तब सूफि उसकी सेना के साथ चलते थे। अतः गजनवी ने जब लाहौर पर अधिकार कर लिया तब लाहोर मे सूफि का पहला खानगाह/मठ बना।जब मोहम्मद गौरी ने भारत पर हमला किया तब मोहिद्दीन चिश्ती नाम का एक सूफि उसके साथ था, सन् 1192 में तराईन के द्वीतिय युद्ध में मोहम्मद गौरी की विजय के पश्चात मोहिनूद्दीन चिश्ती ने अजमेर में अपना खानगाह/मठ बनाया।इस मोहम्मद गौरी के छोटे भाई मकदूम शाह जुरान गोरी ने ही सबसे पहले अयोध्या पर हमला किया,वह राम मंदिर को तो क्षति नही पहुचा पाया, परन्तु आदिनाथ भगवान के जैन मंदिर को तोड़ने में सफल हो गया।यह अयोध्या पर किसी मुस्लिम का पहला हमला था। परन्तु गहडवाल नरेश जयचंद के सेनापति बारुथ ने मोहम्मद गोरी के छोटे भाई को घेरकर युद्ध में सेना सहित मार डाला। सन् 1194 में राजा जयचंद मोहम्मद गोरी के साथ युद्ध में लड़ते हुए बलिदान हो गये।
सन् 1226 में सुल्तान इल्तुतमिश ने मलिक नसरुद्दीन को अयोध्या पर हमला करने के लिए भेजा।बारुथ ने मुस्लिम सेना का रास्ता रोक लिया।इस युद्ध में वीर बारुथ का बलिदान हो गया। भगवान राम का मंदिर सुरक्षित रहा।बारुथ के इस संघर्ष का जिक्र नागोर से मिले महासामंत वराह देव के नाम के शिलालेख में है।
इन हमलों का जिक्र उसी समय के मुस्लिम ग्रंथ तबाकत-ए- नासिरी में है।
यह वह समय था जब मुस्लिम भारत की राजसत्ता का अधिग्रहण कर रहे थे तथा भारतीय अपनी सामर्थ्य अनुसार उसका प्रतिकार कर रहे थे।आगे चलकर बाबर ने भारत में मुगल वंश की स्थापना की।
बाबरनामा जो बाबर की जीवनी है तथा हुमायूं की बेटी गुलबदन द्वारा रचित हुमायूं नामा
 में अयोध्या में हुएं किसी युद्ध या निर्माण का संकेत नही है। अकबर के दरबारी अबुल फजल के द्वारा लिखित आईने अकबरी नामक पुस्तक में अयोध्या के रामकोट जन्म स्थान पर मेले का वर्णन है। परंतु किसी मस्जिद का जिक्र नहीं है।
यूरोपियन यात्री फिंच,जो मुगल बादशाह जहांगीर के काल में अयोध्या आया था,के द्वारा अयोध्या में जन्म स्थान व स्थानीय पंडो द्वारा श्रधालुओं का विवरण लिखा है।
तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना अयोध्या में राम मंदिर में बैठकर की थी, उन्होंने भी वहा किसी मस्जिद का जिक्र नहीं किया।
सन् 1660 में मनूकी नामक एक इतावली व्यक्ति भारत आया था।वह औरंगजेब की सेना में सैनिक अधिकारी बन गया। उसने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम "हिस्टोरिया आफ मुगल/मुगल का इतिहास" था।इस पुस्तक में औरंगजेब के आदेश पर उज्जैन, मथुरा,काशी, हरिद्वार व अयोध्या के प्रमुखतम मंदिरों का ध्वंस लिखा है।साथ मे यह भी लिखा है कि अयोध्या में विध्वंस मंदिर वाले स्थान पर हिंदू फिर से अधिकार कर पूजा पाठ करने लगे हैं।
 सन् 1722 में मुगल बादशाह अहमद शाह रंगीला ने अयोध्या के बैरागियों को पूजा स्थल बनाने के लिए एक जगह अधिकृत की,जिस जगह पर हिंदू संतों ने हनुमान गढी के नाम से एक चबूतरा बना लिया तथा बाबरी मस्जिद के अहाते के भीतर भी कुछ पूजा करने के लिए निर्माण कर लिया।ये साधू यदि कोई मुस्लिम इस मस्जिद मे जाता तो उसको पीटकर भगा देते थे। सन् 1754 में मराठा मुगल सत्ता के केयर टेकर बन गए थे। 
सन् 1770 में आस्ट्रियन पादरी द्वारा लिखित पुस्तक में 3 गुम्बद वाले स्थान की परिक्रमा करते हुए हिंदुओं का वर्णन है।पादरी ने मध्य गुम्बद के नीचे हिंदुओं के श्रद्धा केंद्र के रूप में एक वेदी का उल्लेख किया है।इस पादरी की पुस्तक में प्रथम बार मस्जिद की संरचना का संकेत प्राप्त हुआ है।
सन् 1803 में मराठो को हराकर अंग्रेज मुगल सत्ता के केयर टेकर बन गए।
सन् 1828 के ब्रिटिश गजट में भी रामकोट में मंदिर का उल्लेख है।
 सन् 1855 में अमेठी के एक मुल्ला अमीर अली ने कहा कि हनुमान गढी मस्जिद को तोडकर बनाई गई है।इस आरोप की जब जांच हुई,तब यह आरोप झूठा पाया गया, सन् 1722 का मुगल बादशाह का जमीन देने का शाही फरमान दिखा दिया गया। परंतु मुस्लिम पक्ष अपनी हठधरमी पर अडा रहा,जिसके फलस्वरूप हिंदू मुस्लिम दंगा हो गया।इस दंगे में 11 हिंदू और 75 मुस्लिम मारे गए।मुल्ला अमीर अली ने जेहाद घोषित कर हिंदुओं पर हमला करने की घोषणा कर दी। अंग्रेज अधिकारी ने अवध के नबाब को कहा कि या तो वह मुस्लिमों को रोके वर्ना अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहें। मुस्लिम, नबाब वाजिद अली शाह से तो नही रुके। परंतु अंग्रेजों की सेना ने उनको रोक दिया,इस संघर्ष में करीब 400 मुस्लिम मारे गए। अंग्रेजों ने नबाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर कलकत्ता में नज़र बंद कर दिया।नबाब के अल्पव्यस्क पुत्र को गद्दी पर बैठा दिया तथा उसकी माता बेगम हजरत महल को रियासत का संरक्षक बना दिया।
कुछ समय बाद सन् 1857 की क्रांति हो गई।
सन् 1858 के गजट में पहली बार बाबरी मस्जिद का उल्लेख किया गया है।
सन् 1859 में अंग्रेजों ने विवादित स्थल को हिंदू और मुस्लिम के लिए दो भागों मे विभक्त कर दिया।इसी बीच निहंग सिक्ख, पंजाब के निहंगो ने अपने ब्रह्मा (राम)का स्थान बताकर बलपूर्वक इस स्थान को अपने कब्जे में ले लिया।उस समय के दरोगा शीतल दूबे द्वारा लिखित एफआईआर में यह घटना दर्ज है।
 समय सन् 1902 में प्रिंस आफ वेल्स के रुप में एडवर्ड के भारत आने के कारण धनसग्रह का कार्यक्रम तत्कालीन शासनतंत्र द्वारा चलाया गया। परंतु किसी कारणवश प्रिंस का दौरा निरस्त हो गया।तब अयोध्या के तत्कालीन कलेक्टर जिनका नाम भी एडवर्ड था,ने उसी धन से एक तीर्थ अन्वेषणी सभा का गठन कर स्कन्द-पुराण आदि के आधार पर अयोध्या में जगह-जगह कुल 158 पत्थर लगाये। जिसमें एक नम्बर का पत्थर (खम्भा) जन्म स्थली पर लगाया।
इन्हीं पर शोध कर लेखक हान्स बेकर ने पुस्तक लिखी, जिसमें इन 158 खम्भो का मानचित्र भी था।
इसी तरह छिटपुट संघर्ष चलता रहा। परंतु सन् 1934 में पुनः हिन्दू मुस्लिम दंगा अयोध्या में हुआ। हिंदूओं ने बाबरी मस्जिद के तीनों गुम्बद क्षतिग्रस्त कर दिए। अंग्रेजों ने हिंदूओं से हर्जाना वसूल कर एक मुस्लिम ठेकेदार तसव्वुर खान के द्वारा पुनः गुम्बद बनवा दिये गये।
औरंगजेब के समय हिन्दू मान्यताओं पर अत्यधिक चोट हुई थी,आदि शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित चार मठों में से जगन्नाथ पुरी के मठ को छोड़कर बाकि तीन मठों का कार्य अवरुद्ध हो गया था।लगभग 300 वर्ष बाद सन् 1941 में एक महान संत श्री करपात्री जी महाराज जो काशी में रहते थे, ने पुनः अवरुद्ध चल रहें तीनों मठों को संचालित कर शंकराचार्य नियुक्त कर दिए थे।
बलरामपुर के राजा पटेश्वरी प्रसाद करपात्री महाराज के शिष्य थे।
धीरे-धीरे सन् 1947 आ गया।15 अगस्त सन् 1947 को देश आजाद हो गया।भारत में अंतरिम सरकार बनी हुई थी।भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान बन चुका था।भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे तथा गृहमंत्री सरदार पटेल थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत थे तथा गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे।
आजादी के बाद एक घटना घटी, सोशलिस्ट नेता आचार्य नरेन्द्र मोहन सहित 11 विधायकों ने उत्तर प्रदेश विधानसभा से स्तिफा दे दिया था। जून-जुलाई सन् 1948 में इन सीटों पर चुनाव होना था। अयोध्या उस समय फैजाबाद विधानसभा के अन्तर्गत आती थी। नरेंद्र मोहन फैजाबाद से उपचुनाव में खड़े थे। कांग्रेस ने एक रामभक्त संत बाबा राघवदास को नरेंद्र मोहन के सामने खडा कर दिया तथा वह संत चुनाव में जीतकर विधायक बन गए।
इस प्रकार अयोध्या में रामभक्त विधायक संत बाबा राघवदास,महंत दिग्विजय नाथ (गोरखपुर पीठ, हिन्दू महासभा), निर्मोही अखाड़ा के बाबा अभिराम दास, रामचंद्र दास (दिगम्बर अखाडा, अयोध्या के हिंदू महासभा के शहर अध्यक्ष),गीता प्रेस के संस्थापक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (हिन्दू महासभा)एक साथ आ गये।
ऐसा बताया जाता है कि करपात्री जी महाराज ने अपने शिष्य बलरामपुर के राजा साहब के यहा एक यज्ञ किया था, जिसमें सरकारी अधिकारी श्री केकेके नायर भी सम्मिलित हुए थे।महाराज जी ने इस यज्ञ में सम्मिलित सभी लोगों से भगवान राम को अपने गर्भ ग्रह में स्थापित करने का वचन लिया था।
22-23 दिसम्बर सन् 1949 की रात को सरयू नदी के तट पर साधु अभिराम दास जी के साथ महंत दिग्विजय नाथ सहित पांच व्यक्तियों ने स्नान कर भगवान श्री राम की मूर्ति रात में जन्म स्थान पर रख दी।उस समय रामचबूतरा पर यज्ञ चल रहा था, रामचरितमानस का पाठ चल रहा था। पुलिस के 12 सिपाही ड्यूटी पर थे,एक सिपाही जिसका नाम शेर सिंह था जाग कर विवादित स्थल की निगरानी कर रहा था। शेर सिंह सिपाही,अभि राम दास जी से बहुत प्रभावित था,रात के बारह बजे तक शेर सिंह की ड्यूटी थी,रात 12 बजे के बाद एक मुस्लिम सिपाही की ड्यूटी थी।जब सिपाही शेर सिंह ने साधु अभिराम दास को अन्य रामभक्त के साथ आते देखा तो उसने नही रोका। अभिराम दास जी दीवार कूद कर जाने लगे। सिपाही शेर सिंह ने विवादित स्थल के गेट का ताला खोल दिया।अब साधु अभिराम दास जी मूर्ति लेकर अंदर चले गए तथा मूर्ति स्थापित कर दी गई। 
मस्जिद की रखवाली  मोहम्मद इस्माइल नाम का एक व्यक्ति करता था।साधु अभिराम दास जी ने इसको पीट कर भगा दिया।
सिपाही शेर सिंह अपनी ड्यूटी समाप्त होने के बाद उस ड्यूटी देने वाले मुस्लिम सिपाही अब्दुल बरकत को जगाता था, परंतु उस दिन सिपाही शेर सिंह 12 बजे के स्थान पर एक बजे तक ड्यूटी पर रहा।एक बजे सिपाही शेर सिंह ने मुस्लिम सिपाही को जाकर उठाया।जब वह सिपाही ड्यूटी पर पहुंचा तो उस समय राम लला की चांदी की मूर्ति चमक रही थी। सिपाही ने शोर मचाया।रामलला प्रकट हो चुकै थे। सिपाही ने मूर्ति स्थापित करते किसी को नही देखा था।सब जगह शौर मच गया।लोग परिसर में एकत्रित होनै लगे। कलेक्टर के के के नायर व सिटी मजिस्ट्रेट गुरूदत्त सिंह ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को तब तक सूचना नही दी,जब तक परिसर में 15000 के करीब लोग इकट्ठे नही हुए।
भारत के गृहमंत्रालय ने प्रदेश को आदेशित किया कि मूर्ति हटा दी जाय। प्रदेश के गृहमंत्रालय ने कलेक्टर नायर को आदेश दिया कि मूर्ति हटा दी जाय। परंतु नायर साहब व गुरुदत्त सिंह ने रिपोर्ट भेज दी कि मूर्ति हटाना सम्भव नही है,खून खराबा हो सकता है। सरकार चाहै तो उनको बर्खास्त कर दे।
16 जनवरी सन् 1950 को गोपाल जी विषारद ने पूजा करने की अनुमति के लिए अदालत में केस डाल दिया।न्यायालय के आदेश पर जहां मूर्ति रखी थी, उसके चारो ओर लोहे का जाल लगाकर ताला लगा दिया गया,चार पुजारी रोज राम लला की पूजा करते रहने की अनुमति भी न्यायलय ने दे दी। मुकदमे चलने शुरू हो गये।
22 जनवरी सन् 1950 को राम जन्म भूमि सेवा समिति के नाम से एक संस्था का रजिस्ट्रेशन कराया गया। जिसमें यह लिखा था कि हम इस स्थल को राम जन्म भूमि मानते हैं।
सन् 1952 में जनसंघ बना।जनसंघ पार्टी से फैजाबाद के कलेक्टर रहें श्री नायर व उनकी पत्नी तथा सिटी मजिस्ट्रेट रहें गुरूदत्त सिंह सांसद व विधायक बने।
सन् 1964 में विश्व हिन्दू परिषद का गठन किया गया।
राम जन्म भूमि सेवा समिति के तत्वावधान में ही सन् 1949 से प्रत्येक वर्ष सन् 1983 तक 23 दिसंबर को भगवान राम का प्रकट उत्सव मनाया जाता रहा। 
सन् 1980 में सत्ता में आने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी जी का झुकाव हिंदू पक्ष की ओर हो गया था।इसी दौर में वीर सावरकर पर एक डाक टिकट जारी किया गया। श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने खुलकर कहा कि बहुसंख्यक समुदाय की कीमत पर अल्पसंख्यकों को नही बढाया जा सकता।
कश्मीर के राजा हरि सिंह के पुत्र कर्ण सिंह जी के द्वारा विराट हिन्दू समागम के नाम से कार्यक्रम कराया गया।
20 अप्रैल सन् 1983 को राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह अयोध्या पधारे। उन्होंने अयोध्या देखने की इच्छा व्यक्त की। हनुमान टीला में चल रहे कार्यक्रम में भाग लिया तथा सरकारी अधिकारियों से गर्भ ग्रह में रखी भगवान राम की मूर्ति के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। विवादित जगह होने के कारण सरकारी अधिकारी राष्ट्रपति जी को मूर्ति के दर्शन कराने तो नही ले गये। परंतु कनक भवन में हो रहें कार्यक्रम में राष्ट्रपति जी को ले गये।यह रामनवमी का दिन था।
मई सन् 1983 में मुरादाबाद से एक कांग्रेस के विधायक श्री दाऊदयाल खन्ना जी ने मुज्जफर नगर में हिंदू सम्मेलन का आयोजन किया।इन्ही दाऊदयाल खन्ना जी ने सबसे पहले अयोध्या, मथुरा काशी को मुक्त कराने का प्रस्ताव श्रीमती इंदिरा गांधी जी को दिया। 
भारत माता मंदिर हरिद्वार के महंत सत्यमित्रानंद गिरी जी भी अयोध्या आये। वो भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी के निकट थे। उनके माध्यम से विहिप का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री जी से मिला। प्रधानमंत्री जी ने कहा कि लोकतंत्र में बिना आंदोलन के कोई मांग पूरी नहीं होती।इस प्रतिनिधिमंडल को नवम्बर को पुनः बुलाया गया।
 सन् 1983 के प्रकट उत्सव कार्यक्रम में मोहम्मद अब्दुल हनीफ नामक एक मुस्लिम नेता पहुंचे।पहली बार गुम्बद पर लाल पताका फहराई गई।प्रकट उत्सव के कार्यक्रम से पूर्व अयोध्या में एक झांकी निकाली गई।इस समय केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। श्रीमती इंदिरा गांधी जी प्रधानमंत्री थी तथा श्रीपति मिश्र मुख्यमंत्री थे।
24 सितंबर सन् 1984 से विहिप के द्वारा राम रथ यात्रा निकाली गई। 2 दिसंबर को हिंदू सम्मेलन होना था, परंतु 31 अक्टूबर सन् 1984 को इंदिरा गांधी जी की हत्या हो गई।
आगे चलकर 18 दिसंबर सन् 1985 को विहिप के द्वारा राम जन्म भूमि न्यास का गठन किया गया।
 प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय ताला खुलने का आदेश कोर्ट ने 1 फरवरी सन् 1986 को दिया।इसी समयांतराल में दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण किया गया। फ़रवरी सन् 1989 में तिसरी धर्म संसद का आयोजन विहिप द्वारा किया गया,इस आयोजन में संत देवराह बाबा भी पधारें।देवराह बाबा राजीव गांधी जी के अति निकट थे।इस सम्मेलन में यह तय हुआ कि 9 नवम्बर सन् 1989 को अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया जायेगा। मन्दिर नागर शैली में बनेगा तथा अनुमानित लागत 25 करोड़ रुपए होगी।5 नवम्बर सन् 1989 तक शिला पूजन कर,शिलाए अयोध्या में पहुंच जायेगी।
 जून सन् 1989 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हिमाचल प्रदेश के पालम पुर स्थान पर हुई।इस बैठक में राम मंदिर निर्माण को भाजपा के घोषणा-पत्र में शामिल किया गया।
मन्दिर का शिलान्यास चुनाव के दोरान हो, ऐसा सोचकर राजीव गांधी जी ने चुनाव तय समय से पहले नवम्बर के अंत में कराने का निर्णय लिया।3 नवम्बर सन् 1989 को राजीव गांधी जी ने रामराज्य स्थापित करने का नारा देकर अपने चुनावी प्रचार को प्रारंभ किया। विहिप व प्रदेश सरकार के मध्य यह समझोता हुआ कि शिलान्यास विवादित स्थल से बाहर होगा।इस कारण शिलान्यास गर्भ ग्रह को छोड़कर, उससे 192 फुट दूर सिंह द्वार पर होना निश्चित किया गया।
13 अक्टूबर सन् 1989 को विहिप व कांग्रेस को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने शिलान्यास का विरोध कर दिया।
जैसे ही यह समाचार फैला,बाबरी एक्शन कमेटी के सदस्य आजम खान ने एक रिट याचिका कोर्ट में डाल दी कि जो जगह शिलान्यास के लिए निश्चित हुई है,उस स्थान पर मुस्लिमो का कब्रिस्तान है। जबकि वह स्थान अयोध्या नगर पालिका में प्लाट नम्बर 576 , धर्म दास के नाम से दर्ज था,जिसे विहिप ने धर्म दास जी से क्रय कर लिया था।
कहने का तात्पर्य यह है कि जगह को जानबूझकर विवादित बना दिया गया। प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी जी ने विहिप से स्थान बदलने का आग्रह किया। परंतु विहिप ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया।अब देवराह बाबा जी को बीच में आना पडा।
5 नवम्बर तक विहिप द्वारा 3 लाख 16 हजार गांवों में शिलापूजन कर शिलाए अयोध्या पहुचा दी गई।
6 नवम्बर सन् 1989 को राजीव गांधी जी वृंदावन में देवराह बाबा से मिलने गये।देवराह बाबा ने राजीव गांधी जी से शिलान्यास तय स्थान पर ही कराने का वचन प्राप्त कर लिया। राजीव गांधी जी की ओर से मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी जी को शिलान्यास तय स्थान पर कराने का निर्देश प्राप्त हुआ। मुख्यमंत्री जी ने जिलाधिकारी फैजाबाद को निर्देश दिया कि शिलान्यास कराने की व्यवस्था किजिए। जिलाधिकारी जी ने शिलान्यास स्थल का नक्शा बनाकर जज साहब के सामने पेश कर दिया,जिसमे शिलान्यास विवादित स्थल से बाहर चिंहित दर्शा रखा था। शिलान्यास के समय सरकार की ओर से गृहमंत्री बूटा सिंह तथा विहिप की ओर से श्रीचंद दिक्षित व बद्री प्रसाद जी सपत्नि उपस्थित रहें। शिलान्यास के समय 8 लाख लोग उपस्थित थे।
शिलान्यास होने के बाद मुस्लिम पक्ष ने यह कहकर विरोध करना प्रारंभ कर दिया कि प्रदेश सरकार के अधिकारियों ने न्यायाधीश के समक्ष विवादित स्थल से बाहर का नक्शा दिखा कर, शिलान्यास विवादित स्थल पर करा दिया है।
इस पर कांग्रेस पार्टी व सरकार बेकफुट पर आ गई। भाजपा व संघ परिवार खुलकर हिन्दू पक्ष में आ गया।
चुनाव में कांग्रेस हार गई। केंद्र में वीपी सिंह जी प्रधानमंत्री बने। मुलायम सिंह यादव जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने बाबरी एक्शन कमेटी में सक्रिय रहें आजम खां,,शफीकुररहमान  तथा जफर इलानी को सरकार का हिस्सा बना लिया। वीपी सिंह ने विवादित जमीन के लिए अध्यादेश बनाया, परंतु मुलायम सिंह ने उसको लागू नही होने दिया।
27-28 जनवरी सन् 1990 को विहिप ने कार सेवा की घोषणा कर दी। वीपी सिंह ने विहिप से समय की मोहलत मांगी। विहिप ने 4 माह का समय दे दिया। वीपी सिंह ने इस विवाद के हल के लिए मधु दंडवते, जार्ज फर्नांडिस तथा मुख्तार अनीस को कमेटी बनाकर जिम्मेदारी दी।इस कमेटी में मुलायम सिंह यादव का नाम ना होने के कारण वो वीपी सिंह से नाराज़ हो गये।इस समय मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री थे।
विहिप के नेताओं का कहना था कि यह आस्था का विषय है, इसमें कोर्ट को लाना उचित नहीं है,बाबरी एक्शन कमेटी के नेता कह रहे थे कि हम वो मानेंगे,जो कोर्ट निर्णय देगा।
वीपी सिंह ने मुस्लिम पक्ष से बात की ,जिसमे मुस्लिम पक्ष को सहनवा गांव में मस्जिद के लिए जगह देने का वादा कर मना लिया गया।
वीपी सिंह सरकार ने राजीव गांधी जी के समय हुए शिलान्यास को मानने से मना कर दिया।उनका कहना था कि यह विवादित स्थल पर हुआ है।वी पी सिंह ने गर्भ ग्रह से दूर निर्माण करने के लिए विहिप को प्रस्ताव दिया। पहले तो विहिप ने इसका विरोध किया, परंतु बाद में जहा शिलान्यास हुआ था, वहां कार सेवा के लिए विहिप सहमत हो गई।
अब विहिप ने 9 अप्रैल से 13 दिन की यात्रा करने की घोषणा कर दी।
विहिप ने हरिद्वार में मिटिंग कर 30 अक्टूबर से कार सेवा की घोषणा कर दी।
शंकराचार्य श्री स्वरुपानंद जी ने भी यह कहकर इस शिलान्यास का विरोध किया कि शिलान्यास गर्भ ग्रह पर क्यों नहीं किया गया? वह चार ईट लेकर गर्भ ग्रह पर शिलान्यास करने के लिए चल पड़े।30 अप्रैल सन् 1990 को शंकराचार्य जी को मुलायम सिंह यादव जी की सरकार ने आजमगढ़ में गिरफ्तार कर चुनार के किले में नजरबंद कर दिया।जहा शंकराचार्य जी 9 दिन तक रहें।
राम जन्म भूमि के पुजारी लाल दास को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
आडवाणी जी ने 12 सितंबर 1990 को यात्रा की घोषणा की ।  रथ यात्रा 25 सितंबर 1990 को शुरू हुई ।
18 अक्टूबर को एक मिटिंग हुई। वीपी सिंह एक अध्यादेश लाने के लिए राजी हो गए। गर्भ ग्रह को छोड़कर बाकी पूरी जमीन विहिप ने मंदिर के लिए मांगी। अध्यादेश का प्रारुप तैयार हो गया।
वीपी सिंह फिर पलट गये,वो शिलान्यास के स्थान से भी दूर कार सेवा करने के लिए कहने लगे।
इस पर विहिप ने कार सेवा को शिलान्यास स्थल से ही करने की घोषणा कर दी।
बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 23 अक्टूबर सन् 1990 को आडवाणी जी को गिरफ्तार कर लिया।
मुलायम सिंह यादव ने 14 कोसी परिक्रमा पर प्रतिबंध लगा दिया।
अशोक सिंघल व विनय कटियार विहिप की ओर से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे।कार सेवकों की गिरफ्तारी होने लगी।
30 अक्टूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या में प्रकट हो गए।  सीआरपीएफ व पीएसी सरकार की ओर से लगी हुई थी।
29 अक्टूबर को अशोक सिंघल जी अयोध्या पहुंच गए। अयोध्या में अशोक सिंघल और विनय कटियार   के नेतृत्व में कार सेवा प्रारंभ करने का प्रयास किया गया। जिसमें सीआरपीएफ ने सरकार के आदेश पर  गोली चलाकर  11 कारसेवकों को मार डाला। 30 कार सेवकों सहित अशोक सिंघल जी भी घायल हो गए।
एक नवम्बर को 24 वी बटालियन पीएसी के जवानों ने कार सेवा प्रारंभ कर दी।ऐसा होने पर पीएसी को हटा दिया गया।
दो नवम्बर को कार्तिक पूर्णिमा का दिन था। फिर कार सेवा का प्रयास किया गया।इस दिन भी सीआरपीएफ ने गोली चला दी।40 बलिदानी कार सेवकों की सूची विहिप द्वारा बताई गई।एक समाचार पत्र ने मृतक संख्या 45 तथा एक ने 400 बताई।
अगले चुनाव में राज्य में भाजपा की सरकार बनी। कल्याण सिंह जी मुख्यमंत्री बने। केंद्र में कांग्रेस की नरसिंहा राव की सरकार थी। पुनः कार सेवा प्रारंभ हुई। रामभक्तो ने 6 दिसंबर सन् 1992 को विवादित ढांचे को समाप्त कर दिया। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह जी ने स्तीफा दे दिया।भाजपा की तीन प्रदेश में चल रही सरकार को प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने बर्खास्त कर दिया। उत्तर प्रदेश सहित चार सरकार भाजपा की राम काज के लिए बलिदान हो गई।
श्री लालकृष्ण आडवाणी जी,श्री कल्याण सिंह जी,श्री अशोक सिंघल जी,श्री विनय कटियार जी,श्री मुरली मनोहर जोशी जी का विवादित ढांचे को समाप्त करने में बहुत बडा योगदान रहा।
मुकदमा हाई कोर्ट में चला।सन् 2009 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ द्वारा 3 न्यायाधीशों की पीठ (श्री सुधीर अग्रवाल,श्री धर्मवीर शर्मा व रफत आलम) ने सुनवाई प्रारंभ की थी। परन्तु इसी समय न्यायाधीश रफत आलम जी का राजस्थान में स्थानांतरण हो गया। उनके स्थान पर न्यायाधीश सिग्बत उल्ला खां आ गये।
 इसके बाद 24 सितंबर सन् 2010 को लखनऊ पीठ की बेंच ने फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन को तीन हिस्सों सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलाला के बीच बांटा. ये फैसला इन पक्षों का मंजूर नहीं था, फिर सुप्रीम कोर्ट का रुख किया गया।
  शंकराचार्य श्री स्वरुपानंद जी के प्रतिनिधि के रूप में वर्तमान शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद जी तथा शंकराचार्य रामभद्राचार्य जी की गवाही हुई। प्रधानमंत्री वीपी सिंह व चंद्र शेखर जी के समय अयोध्या के ओएसडी रहे अधिकारी कुणाल कुमार की अयोध्या के ऊपर लिखी थिसिस बडी काम आई। शंकराचार्य जी के वकील पी एन मिश्रा जी ने जोरदार बहस की। सुप्रीम कोर्ट में 90 दिन बहस हुई। जिसमें 50 दिन मुस्लिम पक्ष को सुना गया। मुस्लिम पक्ष बाबरी मस्जिद होने का कोई सबूत पेश नही कर पाया।24 दिन शंकराचार्य जी के वकील पी एन मिश्रा ने तथा 16 दिन विहिप के वकील ने हिंदू पक्ष की ओर से बहस की।
परिणाम स्वरूप राम जन्म भूमि का मुकदमा हिंदू पक्ष जीत गया।
साल 2019 में फैसला देने वाली पांच जजों की संविधान पीठ में जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस. ए बोबड़े, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर शामिल थे।
विद्वान न्यायधीश ने यह तर्क दिया कि हिंदू पक्ष सही था, परंतु जबरन मूर्ति रखने तथा मस्जिद का ढांचा गिराने के कारण मुस्लिम समाज की भावना आहत हुई हैं। इसलिए पांच एकड़ जमीन मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए दे दी गई।
राम मंदिर बनने का मार्ग साफ हो गया।
जस्टिस रंजन गोगोई ने 19 मार्च 2020 को राज्यसभा सांसद के रूप में शपथ ली।
5 अगस्त सन् 2020 को रामलला के भव्य मंदिर का शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के द्वारा किया गया।
देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने ही 22 जनवरी सन् 2024 को मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर समस्त देशवासियों की इच्छा की पूर्ति कर दी है।
अयोध्या में राम मंदिर दुनिया के सबसे बड़े चार मंदिरों में से एक है।
पहले नंबर पर आता है अंकोर वाट का मंदिर। ये मंदिर कंबोडिया में है और दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है. यह मंदिर 500 एकड़ में फैला हुआ है।
दूसरे नंबर पर है श्री रंगनाथस्वामी मंदिर (Sri Ranganathaswamy Temple)। तमिलनाडु में स्थित यह मंदिर भगवान विष्णू को समर्पित है। यह मंदिर 156 एकड़ में फैला है। इस मंदिर को आप भारत का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर भी कह सकते हैं।
तीसरे नंबर पर है दिल्ली में स्थित अक्षरधाम मंदिर (Akshardham Temple)। यह मंदिर 100 एकड़ में फैला है। 
चौथे नंबर पर है अयोध्या का राम मंदिर।  यह मंदिर 70 एकड़ में फैला है. इस हिसाब से यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हिंदू मंदिर हैं।
इस लम्बे संघर्ष में संघर्षरत रहें व बलिदान हुए,सभी राम भक्तों को शत् शत् नमन।
समाप्त।