रविवार, 31 मार्च 2024

एक जीवन मेरे पिताजी श्री समय सिंह-अशोक चौधरी/कुमार मेरठ।

मेरे पिताजी श्री समय सिंह पुत्र स्व श्री जिले सिंह एक सीधे- साधे ईश्वर मे विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे।उनका जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के खतोली ब्लाक के भटौडा नाम के गांव में 11-05- 1942 में हुआ था।वो एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते थे।हमारी माता स्व श्रीमती श्याम कली देवी जो जिला मेरठ की मवाना तहसील के माछरा ब्लाक के अन्तर्गत गढ़ रोड पर स्थित हसनपुर कलां गांव के स्व श्री रामचन्द्र जी की पुत्री थी।हम अपनी माता-पिता के तीन संतान है,मेरी बडी बहन कृष्णा, में (अशोक चौधरी/कुमार) और मेरा छोटा भाई महेश कुमार।
हमारे मामा जी का परिवार पढा लिखा परिवार था,हमारे मामा जी श्री निर्भय सिंह व श्री सिब्बू सिंह सरकारी अधिकारी थे तथा शहर में निवास करते थे।ऊनकी जीवन शैली से प्रभावित होकर हमारी माता जी के अथक प्रयास तथा नाना व नानी जी के अथक सहयोग से हम भी सन् 1977 में मेरठ की नेहरू नगर कालोनी की गली नंबर एक मे अपना मकान बनाकर रहने लगे थे तथा शहरी नागरिक बन गये थे।
ग्रामीण से शहरी नागरिक बनने का सफर काफी दिलचस्प व संघर्ष भरा था। मेरे नाना जी का परिवार यूं तो एक किसान परिवार था, परंतु वह किसानों में अगडे थे।मेरे नाना जी के मकान का दरवाजा लखोरी ईंटों का बना हुआ था,जिसे देखकर यह प्रभाव पडता था कि यह पुराना सम्पन्न परिवार है।
सन् 1965 में मेरा जन्म हुआ था।मेरे परिवार में महिलाओं की कमी थी,मेरी दोनों बुआ शादी शुदा थी तथा मेरी दादी की मृत्यु मेरी माताजी की शादी के कुछ माह बाद ही हो गई थी,दादी जी की मृत्यु के समय मेरी एक बुआ की शादी भी नहीं हुई थी।इस कारण मेरा जन्म मेरे नानाजी के यहां ही हुआ था।जब मेरी माताजी मुझे लेकर मेरे गांव पहुची,तब 
 मेरे गांव से मेरे जन्म की सूचना की रस्म निभाने के लिए  हमारा नाई मेरे नाना जी के यहां पहुचा,तब मेरे नाना जी ने हमारे नाई की बडी खातिरदारी की तथा चलते समय भेंट स्वरूप 251 रुपये दिए।उस मंदे जमाने में यह एक बडी रकम थी।जब मेरै ताऊ जी ने हमारे नाई से पूछा कि रिश्तेदार कैसे हैं।तब नाई ने कहा कि जितने की आपकी पूरी जमीन है,उतनी किमत का तो आपके रिश्तेदार का दरवाजा है।इस पर मेरे ताऊ जी ने उसकी पिटाई कर दी। हमारे पास 65 बीघा जमीन थी,ताऊ बोले क्या दरवाजा 65 बीघा जमीन के बराबर का है।खैर नाई ने अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग कर दिया था।मेरे ताऊ जी ने गुस्से में कह दिया कि देखेंगे छूछक ट्रक भरकर आयेगा क्या? मेरे नाना जी को यह बात मेरी माता जी के माध्यम से पता चल गई। मेरे नाना जी ने उस समय बेड, सोफा सेट, रेडियो, अनाज की टंकी,बडा सन्दूक आदि सामान ट्रक मे भरकर, ट्रक से ही छूछक भेज दिया।
मेरै नाना जी के यहां सन् 1972-73 के आसपास घर पर शौचालय बना हुआ था,जो उस समय एक किसान के यहां होना, परिवार की अग्रणिय स्थिति की ओर संकेत करता था।मेरी नानी जी जिनका नाम प्रहलादो देवी था,माछरा ब्लाक के भडोली गांव के निवासी श्री बहादर सिंह कसाना की पुत्री थी।जैसा मेरी नानी जी बताती थी कि उनके पिताजी पशुओं (गाय,भैस) की बीमारी दूर करने की देशी दवाई के जानकार थे।उनके द्वारा ही मेरी नानी जी को भी यह तकनीक ज्ञात थी।मेनै स्वयं देखा कि मेरी नानीजी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त पशुओं को कान व पूंछ की नस बींधकर तथा देशी दवाई की दो तीन खुराक मे ही ठीक कर देती थी,इस कारण नानीजी का आसपास के कई गांवों में बड़ा आदर था।नानी जी कोई डिग्री प्राप्त डाक्टर नही थी, परंतु उनकी दवाई डिग्री प्राप्त डाक्टरों पर भारी पडती थी।इस कारण नानीजी उस पुराने समय में एक आर्थिक रुप से सशक्त महिला थी।
यही कारण रहा कि मेरे नानाजी एक माध्यम दर्जे के किसान होने के बावजूद भी अपने आसपास के बड़े किसानों से बहतर थे। हमारे मेरठ में स्थापित होने मे हमारी नानी जी का बहुत बड़ा योगदान था। हमारे पिताजी और दादाजी शहर में रहने के पक्षधर नही थे,वो गांव में ही अपनी खेती किसानी बढाना चाहते थे। परंतु हमारी माताजी शहरी जीवन की पक्षधर थी।इस स्थिति में शहर में सम्पत्ति खरीदने में मेरे पिताजी की कोई रुचि नहीं थी। सन् 1972 में मेरी माता जी ने अपने बल पर मेरठ में 200 वर्ग गज का एक प्लाट गढ़ रोड पर स्थित नेहरू नगर कालोनी में खरीद लिया,जिसकी किमत उस समय 12000 रुपये थी।इन 12000 रुपयों में हमारे पिताजी ने कोई सहयोग नहीं दिया था।सब धन मेरी माता जी ने लगाया था।मेरी माता जी का कोई व्यवसाय नही था। अतः किसी ना किसी रुप में यह धन मेरे नाना जी व नानी जी की कृपा से प्राप्त था। सन् 1974 में इस प्लाट की नींव भरी गई। उसमें आधा सहयोग हमारे पिताजी ने दिया था,करीब 5-7 हजार रुपए। सन् 1976 में इस प्लाट पर बिल्डिंग बनी, जिसमें 90000 रुपये खर्च हुए।मेरे पिताजी की ओर से 15000 रुपयों का सहयोग रहा था। सन् 1978 में मकान की फिनिशिंग हुई, इसमें पूरा खर्च मेरे पिताजी ने दिया था,जो करीब 25000 रूपये था।इस प्रकार हम शहरी नागरिक बन मेरठ में रहने लगे थे।
इंसान कितना भी पढ लिख ले, परंतु समाज के नियम उसे प्रभावित अवश्य करते हैं।मेरे मामाजी भी समाज की प्रथा से प्रभावित हो गये थे। क्योंकि वह उनको लाभ पहुंचाने वाली थी। भारतीय समाज में उस समय बेटी को पराया धन समझा जाता था। माता-पिता अपनी बेटी की शादी करना ही अपनी जिम्मेदारी समझते थे। परंतु जमाना बदल रहा था।मेरे नाना जी व नानी जी इस बदलाव से प्रभावित होकर बेटी को पराया धन ना मानकर बराबर का अधिकार दे रहे थे। परन्तु इस बदलाव को मेरे मामाजी स्वीकार नही कर रहे थे। अतः परिवार में तनाव बन गया था। जिसमें मेरे नाना जी व नानी जी तथा माता जी एक ओर थे तथा मेरे दोनों मामा जी एक ओर।आपसी मनमुटाव इतना बढ़ा कि हमारी शादियों में भात की रस्म मे भी परेशानियां बनी। परंतु समय के मरहम ने सब ठीक कर दिया था।हम तीनों भाई बहन तथा हमारे मामा जी के बीच रिश्ते सहज ही थे।
जब सन् 1977 में हम गांव से मेरठ में आ गये।तब मेरे पिताजी को गांव में ही रहकर खेती करानी पडी, क्योंकि मेरे दादाजी शहर में रहने के पक्षधर नही थे। उन्होंने मेरठ में रहने के लिए साफ मना कर दिया था।इस कारण मेरे पिताजी को सात-आठ वर्ष तक गांव में ही दादाजी के पास रुकना पडा।मेरी छोटी बुआ जी श्रीमती शिमला देवी का इस समयावधि में बहुत सहयोग रहा।बुआ जी वर्ष में करीब छः महीने पिताजी और दादाजी के पास गांव में रह जाती थी।कभी कभी कोई आपदा भी रास्ता आसान कर देती है।मेरा गांव मेन रोड से बहुत अंदर था, वहां बाजार से कुछ भी लेने की कोई व्यवस्था नहीं थी।नमक या माचिस जैसी चीजें लेने के लिए भी गांव से सात किलोमीटर दूर मंसूरपुर या तीन किलोमीटर दूर सिखेड़ा आना पडता था।ऐसी परिस्थिति में पिताजी और बाबाजी के खाना बनाने की व्यवस्था कैसे बनें।यह एक गंभीर प्रश्न था। कुटुम्ब के लोग सहयोगी थे परंतु लगातार सहयोग बने रहना सम्भव नहीं था।मेरी छोटी बुआ जी कुछ क्रोधी स्वभाव की थी।उनकी जहां शादी हुई (वर्तमान में उत्तराखंड में रूड़की के पास देवपुर गांव) वहां उनकी सासूजी भी क्रोधी स्वभाव की थी।मेरी बुआ जी के दो संतान एक बेटा व एक बेटी पैदा हो गई थी। लेकिन तभी मेरे फूफाजी का देहांत हो गया था। परिस्थिति ऐसी बनी कि मेरी बुआ जी और उनकी सासूजी के मध्य जो टकराव हो जाता था तो कोई शांत करने वाला नही था। बुआ जी के ससुर फूफाजी की मृत्यु के कुछ माह बाद ही स्वर्ग वासी हो गये थे।इन परिस्थितियों में मेरी बुआ जी वर्ष भर करीब आठ महिने पिताजी के पास गांव अपने बच्चों सहित आ जाती थी,वो छ महीने रहती फिर दो महिने को अपनी ससुराल चली जाती थी। वहां मुश्किल से दो महिने रह पाती थी फिर पिताजी के पास आ जाती थी। क्योंकि गांव में मेरी माताजी भी नही थी, इसलिए वहां उनका किसी से कोई टकराव नही होता था।इस प्रकार मेरे दादा जी की मृत्यु तक यही क्रम बना रहा।मेरी बुआ जी के बच्चे भी बडे हो गये थे,उनकी सासूजी की भी मृत्यु हो गई थी।समय की शक्ति ने सब सामान्य कर दिया था तथा दोनों परिवारों की समस्या का समाधान भी कर दिया था।
 जीवन चलता रहा।मेरी माता जी वृद्ध हो चली थी।उनका पैर फिसल गया तथा कूल्हा टूट गया।वो बैड पर आ गई। पिताजी ने इस समय माता जी को भरपूर सहारा दिया।वे माता जी के साथ एक परछाईं की तरह रहें।माता जी के नीजि देनिक कार्य में पिताजी ने भरपूर सहायता की।
5 दिसम्बर  2021(रविवार का दिन  मार्गशीर्ष मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि ) प्रात: 9 बजे माता जी इस नश्वर संसार को छोड़कर चली गई।
मेरे पिताजी,माता जी की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए असहज से रहें। परंतु हमने पिताजी को अकेला नही छोडा। में और मेरा छोटा भाई महेश, कोई ना कोई उनके पास ही सोता था। लेकिन 12-02-24 की दिन शाम को दूध पीते समय पिताजी के गले में फंदा लग गया।उनको हास्पिटल में भर्ती करना पडा।वो वेंटिलेटर पर आ गए  तथा  20 फरवरी 2024 को (माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि ) को अस्पताल में मृत्यु हो गई।वो इस नश्वर संसार को छोड़कर चले गए।
एक सीधे साधे सरल जीवन का अंत हो गया।

गुरुवार, 14 मार्च 2024

एक जीवन मेरी धर्म पत्नी ऊषा रानी - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

व्यक्ति अकेला जन्म लेता है और जब संसार से विदा होता है तब अकेला ही चला जाता है। संसार में आने और जाने के बीच के समय को ही जीवन कहा गया है।इसी बीच व्यक्ति संसार में रहने वाले अन्य जीवों और वस्तुओं से भी सम्बन्ध बनाता है।जो निर्जिव व संजीव दोनों तरह से होते हैं। अपने देश, अपना गांव इसमें प्रमुख हैं। संसार में सजीव/जींदा लोगों मे बना सम्बन्ध जिनमें भाई-बहन,माता पिता,यार दोस्त तथा पति-पत्नि का है।
मेरा भी विवाह-संस्कार के माध्यम से पत्नी के रुप में मेरठ- हरिद्वार रोड पर स्थित दादरी गांव के निवासी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त अध्यापक श्री झब्बर सिंह की पुत्री ऊषा रानी ( जन्म 05-11-1970, मृत्यु 14-03-2024) सेे 5 जुलाई सन् 1987 को सम्बन्ध बना।ऊषा देवी के तीन छोटे भाई जोगेंद्र सिंह, राजेंद्र सिंह व प्रमेंद्र सिह थे।मास्टर झबर सिंह तीन भाई थे,जिनमे मास्टर झबर सिंह व उनके बडे भाई जयपाल सिंह एक साथ रहते थे।हमारी सासू मा दो सगी बहनें इन दोनो सगे भाईयों की धर्मपत्नी थी, जयपाल सिंह निसंतान थे समय व्यतीत होता रहा, मुझको दो पुत्री पायल व कोमल के रुप में प्राप्त हुई।मेरी पत्नी ऊषा का सबसे छोटा भाई प्रमेंद्र जो मेरी शादी के समय बच्चा ही था, धीरे-धीरे बडा होने लगा,वह पढ़ाई के लिए कुछ महीनों के लिए मेरे पास ही रहा, इसलिए अति निकट भी हो गया,ऊषा के तीनो भाईयो की शादी भी हो गई, जिसमें प्रमेंद्र की शादी मेरठ जिला के मेरठ ब्लाक के नरहडा गांव के निवासी मास्टर विजय सिंह की पोत्री उपासना देवी के साथ हो गई।मास्टर विजय सिंह राजनितिक दृष्टि से भाजपा के निकट थे,मे भी भाजपा के निकट रहा, इसलिए मेरी मास्टर विजय सिंह से पहले से ही मुलाकात थी।सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था।आपस में प्रेम भाव था,मास्टर विजय सिंह का एक मकान मेरठ में बेगमबाग मे भी था।
मेरी पत्नी ऊषा मृदु भाषी और प्रसन्न दिखने वाली महिला थी।मेरी माता जी सख्त स्वभाव की थी।मेरी माता जी ने घरेलू बात से नाराज़ होकर मुझे अलग कर दिया तथा मुझे दो कमरे दे दिए।कुछ दिन बाद ऊषा अपने मायके चली गई।मेरे पिताजी व मेरा छोटा भाई महेश तथा माता जी एक साथ रह रहे थे।मेरी माताजी किसी घरेलू बात पर मेरे पिताजी से लड पडी तथा पिताजी व महेश का खाना बनाना बंद कर दिया।मे बाहर से आया तो मैंने देखा कि महेश खाना बना रहा था।मे ऊषा को उसके घर से ले आया। पिताजी और महेश का खाना ऊषा बनाने लगी।मेरी बडी बेटी पायल घर पर ही पैदा हुई थी।उसके जन्म लेते समय एक स्थिति ऐसी बनी कि अस्पताल ले जाने की जरूरत आन पडी थी। परंतु डीलिवरी घर पर ही हो गई।मेरी बडी बहन कृष्णा मेरी बडी बेटी के पैदा होने पर ऊषा के साथ रही।
जब दूसरी बेटी के जन्म का समय आया तो मैंने माता जी से कह दिया कि अब घर पर नही, अस्पताल में डिलिवरी होगी।मेरी माता जी इस बात से नाराज़ हो गई।जब मे ऊषा को लेकर सुशीला जसवंत राय अस्पताल ले जाने लगा तो माता जी ने मेरे साथ जाने के लिए मना कर दिया।मे अपनी दूर के रिश्ते की मौसी जो गढ़ रोड पर स्थित किठोर के पास सादुल्लापुर गांव की निवासी थी तथा जिनका नाम धनकौर था ,को ले गया।जब मेरी छोटी बेटी कोमल पैदा हो गई तब ऊषा की माता जी को लेकर आया। अस्पताल में ऊषा की माता जी साथ रही। 
समय गुजरता रहा मेरी बडी पुत्री पायल की सन् 2011 में शादी हो गई। मेरी पत्नी के छोटे भाई प्रमेंद्र की पत्नी उपासना गर्भवती हो गई, डाक्टर ने उसको बेड-रेस्ट बता दिया,उसके गर्भ मे दो बच्चे थे। इस स्थिति में प्रमेंद्र मेरे पास आया और कहने लगा कि मेरी पत्नी को बेड-रेस्ट बताया है,इसकी कैसे व्यवस्था हो,मेने कहा कि तीन ही जगह है,एक अपने घर दादरी जाइयै, दूसरे आपकी पत्नी का मायका है जिनका निवास मेरठ में है,उनसे पास रहिये,तिसरा विकल्प आपकी बहन है,यदि वह चाहे तो यहां भी व्यवस्था बन सकती है। प्रमेंद्र ने अपनी बहन से परामर्श किया और अपना घर तथा ससुराल को छोड़कर तीसरा विकल्प अपनी बहन का घर चुना। प्रमेंद्र पढ़-लखा होशियार व्यक्ति था,उसकी पत्नी भी पढी लिखी थी। बुद्धिमान व्यक्ति वही माने जाते हैं जो अपने संकट में अपने नजदीकी लोगों को बचा ले तथा दूसरे को उसमे शामिल कर लें। प्रमेंद्र ने भी यही किया, उसने अपने पिता तथा ससुराल पक्ष को बचा लिया तथा अपनी समस्या का समाधान का भार अपनी बडी बहन पर डाल दिया।ऊषा देवी ने अपनी छोटी भाभी की बडी सेवा की,वह गर्भावस्था में 6 महिने हमारे पास नेहरु नगर मेरठ में रही,मेरी छोटी बेटी कोमल भी उसकी सेवा में लगी रही।भाई बहन का प्रेम सफल रहा,उपासना देवी ने दो जुडवा बेटो को जन्म दिया। प्रमेंद्र अपने जुडवा बेटो को लेकर फिर 6 महिने अपनी बहन के पास रहा,मेरी पत्नी ऊषा तथा पुत्री कोमल उन बच्चों की देखभाल में लगे रहे। उपासना देवी की नौकरी लग गई,वह मेरठ के आर जी डिग्री कालेज में अध्यापिका नियुक्त हो गई।मेरे ससुर श्री झबर सिंह भी सेवानिवृत्त हो गये।मेरा गांव जिला मुज्जफर नगर के खतोली ब्लाक मे भटौडा है।वही हमारी पुस्तेनी जमीन है।क्योकि मेरे ससुर अध्यापक रहे थे, प्रमेंद्र भी बीएड किये हुए था, इसलिए यह योजना बनी की गांव में एक स्कूल बनाया जाय, जमीन मेरे पास थी,इस कार्य में, में और मेरा छोटा भाई महेश तथा मेरे ससुर तीन हिस्सेदार बन गए।हम तीनों ने मिलकर 744000  रुपए खर्च कर गांव में स्कूल की बिल्डिंग बनाई,इस धन मे अपने हिस्से के अनुसार मेरे ससुर श्री झबर सिंह ने 249000  रूपए लगाये जो 33.5% के करीब था, स्कूल का नाम शहीद विजय सिंह-कल्याण सिंह पब्लिक स्कूल रखा गया,पांचवी कक्षा तक की मान्यता यूपी बोर्ड से ले ली गई। लेकिन वह स्कूल चल नही पाया,श्री झबर सिंह की आयु इसमें आडे आ गई, इसलिए यह विचार हुआ कि स्कूल को किसी ओर से संचालित करवाया जाय।उस विकल्प मे भी कोई खास आमदनी नही हुई। इसलिए यह तय हुआ कि स्कूल को बेच दिया जाय तथा अपनी पूंजी निकाल ली जाय। प्रयास प्रारंभ हुए, स्कूल का खरीदार नही मिल रहा था। बिल्डिंग बनी हुई थी, इसलिए यह योजना बनी की बिल्डिंग को अलग बेच दिया जाय,मेरे द्वारा प्रयास किये जा रहे थे, बिल्डिंग के मलवे के कोई 200000  रुपए से अधिक देने को तैयार नही था।ऐसी परिस्थिति में श्री झबर सिंह के हिस्से के 249000  रुपए घट कर 67000 रुपये हो रहे थे। इसलिए मन में तनाव बनने लगा था।मेरा परिवार यह कह रहा था कि जमीन हमारी है इसलिए बिल्डिंग मे ही हिस्सा हैं, जमीन के दाम बढ रहे थे परंतु बिल्डिंग के दाम घट रहे थे।क्योकि श्री झबर सिंह बिल्डिंग मे ही साझेदार थे, जमीन की कीमत उन्होंने नही दी थी, इसलिए घाटा उनकी तरफ जा रहा था,हमारा घाटा तो जमीन की बढी दर से पूरा हो रहा था।घर में तनाव बन रहा था और इस परिस्थिति का शिकार मेरी पत्नी हो रही थी,जिसकी कोई गलती नही थी।वह शूगर की पेसेंट सन् 2012 से बन गई थी।मेने बडे गम्भीर प्रयास से अपने परिवार को समझाया कि बिल्डिंग और जमीन को एक साथ ही रहने दिया जाए।दोनो को बेचकर जो पूंजी मिले, उसमें से ही हिस्सेदारी तय की जाय।दोनो को खरीदने का कोई ग्राहक नही मिल रहा था। इसलिए मेरे ससुर श्री झबर सिंह मुझसे पूछते रहते थे कि क्या हुआ? सम्बन्धों में एक अजीब सी चुभन बन रही थी।तभी मेरी मुलाकात श्री रजनीश कुमार जो मेरे गांव के पास स्थित फीमपुर गांव के निवासी से हुई,वह मंसूरपुर गांव में स्कूल चलाते थे।मेने उनसे अपना स्कूल खरीदने का प्रस्ताव रखा।पहली बार मे उन्होंने मना कर दिया।लगभग 6 महीने बाद उनसे दोबारा मुलाकात हुई,मेने दोबारा प्रस्ताव रखा,रजनीश जी ने कहा कि उनके पास एक साथ देने के लिए धन नही है,मेने उनसे अपनी सुविधानुसार धन देने का विकल्प रख दिया।जिस पर वह रजामंद हो गये। स्कूल दस लाख रुपए में तय हो गया।अब श्री झबर सिंह के हिस्से में 67000 के स्थान पर 235000 हजार रुपए आ रहे थे। रजनीश जी ने 50000 रुपए बयाना दे दिया। लेकिन तभी कोरोना की महामारी आ गयी,दो वर्ष तक पूरा देश इस महामारी से प्रभावित रहा। इसलिए स्कूल का पेमेंट रुक गया। लेकिन स्थिति सामान्य होने पर सब काम चलने लगे।  स्कूल का पेमेंट आने लगा।मेने 100000 रुपए श्री झबर सिंह को दे दिये।
इसी बीच श्री झबर सिंह के बडे भाई श्री जयपाल सिंह को ब्रेन हेमरेज हो गया,वो सुशीला जसवंत राय हांस्पिटल में भर्ती हो गए तथा वेंटिलेटर पर आ गये।इलाज महंगा हो गया।मेरठ के मेडिकल कॉलेज में वेंटिलेटर की व्यवस्था थी,जो निशुल्क थी, परंतु यदि कोई बीमार व्यक्ति मेडिकल कॉलेज में सीधा भर्ती होकर वेंटिलेटर पर आ जाय तो व्यवस्था बनने में कोई परेशानी नहीं थी, परंतु यदि किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में भर्ती होकर कोई बीमार व्यक्ति वेंटिलेटर पर आ जाय तो उसके बाद मेडिकल सरकारी अस्पताल में भर्ती होने का विकल्प सामान्य तौर पर नही था। अतः एक बडी समस्या सामने खडी थी।धन की आवश्यकता थी,मेने अपने सम्बन्धों का प्रयोग किया, अपने विधायक डा लक्ष्मीकांत वाजपेई जी की मदद से श्री जयपाल सिंह को मेडिकल में वेंटिलेटर की व्यवस्था करा दी। सुशिला जसवंराय हास्पिटल में जो खर्च 30000 रुपया प्रतिदिन था वह घटकर शून्य हो गया।करीब दस दिन श्री जयपाल सिंह वेंटिलेटर पर रहें,उनकी मृत्यु हो गई।करीब तीन लाख रुपए की बचत हो गई।
तभी मेरी पत्नी ऊषा देवी बीमार हो गयी।
31-01-2018 की रात्रि को बेगमबाग मेरठ में रह रहे  प्रमेंद्र के माध्यम से डा अनिल मेहता को दिखाया गया तो पता चला कि निमोनिया हो गया है,ऊषा की जान खतरे में है।मेरे पड़ोस में रहने वाले सतीश वर्मा की पुत्री दिल्ली एम्स अस्पताल में कार्यरत थी, उसके माध्यम से 02-02-2018 को ऊषा को दिल्ली ले गए।जब सुबह में ऊषा को गाड़ी से दिल्ली लेकर चला।तब मेरी माताजी नीचे खडी रो रही थी। उनके मन में यह डर समा गया था कि ऊषा जिंदा वापस आये या ना आये।मेरी माताजी सख्त स्वभाव की महिला थी। परंतु अपनो से प्यार कोन नही करता?
मेरे साथ मेरे छोटे भाई की पत्नी बीना व मेरी बडी बेटी पायल के ससुर रिठानी निवासी डा ज्ञानचंद बैसला थे। लेकिन जिनकी बहू की सेवा ऊषा ने एक वर्ष तक की थी,उस पक्ष से कोई नही था।ऊषा दिल्ली से ठीक होकर आ गई।
मार्च 2020 में ऊषा फिर बीमार हो गयी। उसके पैर सूजने लगे।16-03-2020 को ऊषा को डा प्रवीण पुंडीर को दिखाया।तब वह ठीक हुई।लेकिन निमोनिया ने ऊषा का जीवन कठिन बना दिया।
मैं अपनी पत्नी ऊषा के साथ वर्ष में दो बार होली और दीवाली को अपने गांव देवता का पूजन करने जाता था। सन् 2021 में जब दीवाली पर पूजन करने के बाद वापस मेरठ आ रहा था तब हम गंगनहर की पटरी से आ रहे थे।गंगनहर की पटरी से दादरी होते हुए दिल्ली रुडकी वाली सड़क पर पहुंच जाते हैं। जैसे ही हम दादरी पहुंचे,ऊषा ने दादरी मे बने मंदिर में प्रसाद चढाने तथा पूजा करने की इच्छा व्यक्त की। मैंने गाडी रोक ली।जब पूजन समाप्त हुआ,तब मेंने ऊषा से कहा कि आप चाहों तो अपने माता-पिता या भाई भाभी से भी मिल सकती हों। गांव में ही खड़े हैं।इस पर ऊषा ने मिलने से मना कर दिया। उसने कहा कि जब मेरे परिवार वालों ने ही मेरे पास आना बंद कर दिया,तो में भी नही जा रही। माता-पिता के जीवित रहते यदि एक बेटी अपने घर जाने की हिम्मत भी ना जुटा पाये। आखिर यह समाज की कैसी बनावट है? कैसे सम्बन्ध है?
जब ठंड का मौसम आता और जाता था,वह कुछ दिन परेशान रहती थी।वह सामान्य आदमी की तरह सीधा लेट नही पाती थी।एक तरफ करवट लेकर तथा सर की ओर से कुछ ऊंचा होने पर ही लेट पाती थी।जीवन चलता रहा।कुछ समय बाद 10-08-2022 को ऊषा को पेरेलाईसिस/फालिस का एक हल्का आघात हुआ।जब उसकी तबियत खराब हुई,तब उसकी जान खतरे में देख ऊषा के रिश्ते की बहन संगीता ने बताया की,ऊषा ने उससे 90000 रुपये ऊधार लिए है, अपने भाई योगेंद्र के लिए।मेरे छोटे भाई महेश ने बताया कि भाभी ने 140000 रूपये उधार लिए है, अपनी सहेली अमरेश के लिए।फिर एक दिन प्रमेंद्र का फोन आया कि ऊषा ने उसकी पत्नी उपासना से 35000 रुपये लिए है,जब मेने ऊषा से पूछा तब उसने बताया कि पेसे की जरूरत उसकी सहेली को थी,उनको दिलवा दिये है। मेंने जब इन लोगों से पूछा तब पता चला कि इनमें से किसी ने पैसा नहीं लिया था।बडी अजीब बात थी, आखिर इतना पैसा कहा गया। उषा पेरेलाइसिस थी, फिर भी मैने उससे सत्यता जाननी चाही कि इतना पैसा कहा गया।तब उसने बताया कि मेरी छोटी बेटी कोमल की शादी में शोपिंग करते समय, उससे 70000 रुपये बाजार में खो गये। उसने मुझे नही बताया।किसी से ब्याज पर लेकर उसकी पूर्ति कर ली,जब ब्याज बढ गया,तो दूसरे से ब्याज पर लेकर चुकता कर दिये।इसी उलट फेर में सन् 2016 से सन् 2022 तक 70000 से बढ कर इतने हो गये।मेने ऊषा को समझाया कि वह चिंता छोड दे,मेने सबके पैसे चुका दिए। लेकिन इस घटनाक्रम के बाद से ऊषा का भाई योगेंद्र नाराज हो गया,जबकि नाराज मुझे होना चाहिए था,धन की हानि मेरी हुई थी।
मैंने ऊषा से कहा कि मुझे आजीवन इस बात का दुःख रहेगा कि उसने अपनी परेशानी मुझे नही बताई, वर्ना समस्या का समाधान बहुत पहले ही हो जाता।शायद यह मेरी ही कोई कमी है।इस पर ऊषा भावुक हो गईं,वह मेरे गले लग गई तथा उसने एक ही शब्द बोला सारी/खेद।
योगेन्द्र की नाराज़गी से मुझे समझ में आया कि आखिर भारतीय महिलाएं अपने साथ होने वाले किसी भी गलत व्यवहार पर विरोध क्यों नही कर पाती? क्योंकि उनको अपने भाई पिता या पति की ओर से सहयोग के स्थान पर प्रताड़ना ही मिलती हैं। परंतु मे इस विचार का नही था।जब इन रूपयों का भेद खुला तो ऊषा घबरा गई थी।वह मेरी तरफ देख रही थी कि मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी?मेने उसे कुछ नहीं कहा और समझा दिया कि वह इस विषय को भूल जाये।आराम से रहें। मेंने ऊषा के नीजी सम्मान/सेल्फ रेस्पेक्ट को हल्का सा भी आघात नही लगने दिया।ना अपनी ओर से,ना अपने परिवार की ओर से।
ऊषा के पिता जी भी सिर्फ फोन पर पूछ रहे थे कि तबियत कैसी है, कोई देखने नही आया।जब मेने ऊषा के पिता जी से सख्त लहजे में कहा कि आकर अपनी बेटी को देख नही सकते,तब वह आये।
डाक्टर ने ऊषा को ताजी हवा में घूमने की सुबह के समय सलाह दी। पेरालिसिस होने की वजह से वह अकेले घूमने जाने मे सक्षम नही थी।मे चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के प्रांगण में ऊषा को शाम को घूमाने ले जाने लगा।जिस दिन मुझे काम लग जाता,उस दिन घूमना छूट जाता था।वह अपने आप घूमने लगे,इसकी व्यवस्था के लिए मेने मेरठ बाईपास पर स्थित सुशांत सिटी सेक्टर तीन के अंदर इरीश गार्डन में डी-02-04 नम्बर का एक फ्लैट खरीद लिया। मार्च 2023 से हम इस फ्लेट में रहने लगे।मेरे पिताजी भी साथ में थे।अब ऊषा और मेरे पिताजी आराम से अपने आप फ्लेट के प्रांगण में घूम लेते थे।बाहर का कोई वाहन नही आता था,गेट पर चौकीदार रहता था। अच्छी व्यवस्था थी।शूगर, निमोनिया तथा पेरालिसिस की दवाई ऊषा खाती थी, उसके पास जीवन कम ही बचा था।यह में जानता था। परंतु मेने कभी ऊषा का साहस नही गिरने दिया।मेने उसे भरोसा दिलाया कि वह ठीक है।खूब जीयेगी।एक दिन ऊषा कहने लगी कि यदि उसे कुछ हो गया तो मे कैसे करूंगा? क्योंकि मैं घर के काम में रूचि नही लेता था।कपडे धोना आदि से में हमेशा दूर रहा। लेकिन मेने चाय बनाना सीख लिया था।मे सुबह उठकर पिताजी,ऊषा व खुद को चाय पिलाकर घूमने जाता था।इतना कमजोर होने पर भी ऊषा को मेरी चिंता थी,अपनी नही।मैने मन ही मन सोचा शायद भारत में नारी को देवी इसलिए ही कहा गया है।जिसे अपनी सेहत के बारे में सोचना चाहिए था,वह इस हालत में दूसरे के बारे में सोच रही थी।जीवन मृत्यु तो ईश्वर के हाथ है,वह कब किसे अपने पास बुला ले,वह उसकी मर्जी। परंतु सामान्य तौर पर तो ऊषा ही कमजोर थी।मेरे पिताजी भी इस बात से चिंतित रहते थे कि कही ऊषा को उनसे पहले ही कुछ ना हो जाए।
में भी ईश्वर से यही चाहता था कि वह मुझसे पहले दुनिया से चली जाय।
जब ऊषा ने मुझसे यह सवाल किया कि मे उसके बाद कैसे रहूंगा।मेने कहा वो मेरी फिक्र ना करें। क्योंकि जिस सेवा व सहारे की उसको जरूरत थी,वह मेरे अलावा कोई दूसरा परिवार का सदस्य ऊषा को नही दे सकता था।
 समय गुजरने लगा।20 फरवरी सन् 2024 को मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई।29 फरवरी सन् 2024 को उनकी तेरहवीं थी।मेरे पिताजी की इच्छा पूरी हो गई।जब उनकी मृत्यु हुई ऊषा ठीक थी।
8 मार्च की रात्रि को ऊषा की तबियत खराब हो गई। में मेरी बेटी कोमल तथा मेरे एक मेडिकल लाइन के साथी श्री सुभाष घर पर ही थे,ऊषा ने अपनी बडी बेटी पायल को याद किया।पायल का ससुराल मेरे निवास से मुश्किल से चार किलोमीटर दूर था,मेने फोन कर उसे बुला लिया।अब हम सबने उसको आनंद नर्सिंग होम में भर्ती कर दिया ,मेने ऊषा के पिता जी को सूचित कर दिया,14 मार्च 2024 , फाल्गुन मास, शुक्ल पक्ष, पंचमी तिथि दिन गुरुवार  को ऊषा इस नश्वर संसार को छोड़कर परलोक वासी हो गयी।
मेरी भी इच्छा भगवान ने पूरी कर दी।वह मुझसे पहले इस संसार से चली गई।
वह वेंटिलेटर पर थी,जब बेहोश थी,उस समय ऊषा के पिता जी अस्पताल पहुंचे।दादरी से मेरठ 25 किलोमीटर दूर है।ऊषा के पिता जी को यह दूरी तय करने में पांच दिन लगे।
रक्त के सम्बन्ध इतने ढीले भी हो जाते हैं। मुझे पहली बार इसका अनुभव हुआ।
मेरा पूरा परिवार शुरू से ही साथ था,यदि कोई साथ नही रहा तो ऊषा का परिवार।
ऊषा ने अपने गृहस्थ जीवन मे सबकी सेवा की।मेरे माता-पिता की,मेरे जीजा श्री मनवीर सिंह का एक्सीडेंट हो गया था,उनका पैर टूट गया था,वह एक वर्ष बेड पर हमारे घर रहें।मेरी बहन उनकी सेवा में लगी रही।उनको देखने आने वालो की चाय पानी की सेवा ऊषा ने की।मेरे भाई की पत्नी बीना के तीन आप्रेशन हुए,एक बेटा होते समय,एक बेटी होते समय तथा एक एप्रेंडिस का।वह जब बेड पर थी उसकी सेवा भी जितना हो सकती थी ऊषा ने ही की।जब ऊषा को जरुरत पडी तो मेरी बहन,भाई की पत्नी बीना,मेरा भाई सब साथ खडे रहे।यदि कही शून्यता थी तो ऊषा के भाई,भाभी और पिता की ओर से।
ऊषा के परिवार वाले सबसे अधिक लाभ उठाकर रिटर्न जीरो दे गये।
यदि ऊषा की सेवा को पूंजी में बदल दिया जाय तौ जो एक वर्ष सेवा उसने अपनी भाभी की की,उसका बाजार मूल्य करीब 300000 रुपये बैठता है। मेरे साथी की पत्नी की स्थिति उपासना जैसी ही थी,उसका ध्यान रखने के लिए दो नौकरानी लगानी पडी थी,एक दिन में तथा एक रात में।दोनो दस दस हजार रुपए महीने लेती थी।
ऊषा के ताऊ जयपाल सिंह जी 10 दिन मेडिकल रहे।इसका नर्सिंग होम में करीब 300000  रूपये पेमेंट देना पडता।इतना लाभ उठाकर जिंदा रहते देखने नही आये।
ऊषा के माता-पिता व भाईयों ने जो समाज में प्रचलन होता है,उसके अनुसार मेरी दोनों लड़कियों की शादी में भात खूब अच्छी तरह दिये थे। परंतु फिर जाने क्या हुआ?मेरी समझ में भी नही आया।
विद्वान लोगों ने कहा है कि आपा ही बुरा है, दूसरे को क्या कहना?शायद हम में ही कमी थी।