रविवार, 31 मार्च 2024

एक जीवन मेरे पिताजी श्री समय सिंह-अशोक चौधरी/कुमार मेरठ।

मेरे पिताजी श्री समय सिंह पुत्र स्व श्री जिले सिंह एक सीधे- साधे ईश्वर मे विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे।उनका जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के खतोली ब्लाक के भटौडा नाम के गांव में 11-05- 1942 में हुआ था।वो एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते थे।हमारी माता स्व श्रीमती श्याम कली देवी जो जिला मेरठ की मवाना तहसील के माछरा ब्लाक के अन्तर्गत गढ़ रोड पर स्थित हसनपुर कलां गांव के स्व श्री रामचन्द्र जी की पुत्री थी।हम अपनी माता-पिता के तीन संतान है,मेरी बडी बहन कृष्णा, में (अशोक चौधरी/कुमार) और मेरा छोटा भाई महेश कुमार।
हमारे मामा जी का परिवार पढा लिखा परिवार था,हमारे मामा जी श्री निर्भय सिंह व श्री सिब्बू सिंह सरकारी अधिकारी थे तथा शहर में निवास करते थे।ऊनकी जीवन शैली से प्रभावित होकर हमारी माता जी के अथक प्रयास तथा नाना व नानी जी के अथक सहयोग से हम भी सन् 1977 में मेरठ की नेहरू नगर कालोनी की गली नंबर एक मे अपना मकान बनाकर रहने लगे थे तथा शहरी नागरिक बन गये थे।
ग्रामीण से शहरी नागरिक बनने का सफर काफी दिलचस्प व संघर्ष भरा था। मेरे नाना जी का परिवार यूं तो एक किसान परिवार था, परंतु वह किसानों में अगडे थे।मेरे नाना जी के मकान का दरवाजा लखोरी ईंटों का बना हुआ था,जिसे देखकर यह प्रभाव पडता था कि यह पुराना सम्पन्न परिवार है।
सन् 1965 में मेरा जन्म हुआ था।मेरे परिवार में महिलाओं की कमी थी,मेरी दोनों बुआ शादी शुदा थी तथा मेरी दादी की मृत्यु मेरी माताजी की शादी के कुछ माह बाद ही हो गई थी,दादी जी की मृत्यु के समय मेरी एक बुआ की शादी भी नहीं हुई थी।इस कारण मेरा जन्म मेरे नानाजी के यहां ही हुआ था।जब मेरी माताजी मुझे लेकर मेरे गांव पहुची,तब 
 मेरे गांव से मेरे जन्म की सूचना की रस्म निभाने के लिए  हमारा नाई मेरे नाना जी के यहां पहुचा,तब मेरे नाना जी ने हमारे नाई की बडी खातिरदारी की तथा चलते समय भेंट स्वरूप 251 रुपये दिए।उस मंदे जमाने में यह एक बडी रकम थी।जब मेरै ताऊ जी ने हमारे नाई से पूछा कि रिश्तेदार कैसे हैं।तब नाई ने कहा कि जितने की आपकी पूरी जमीन है,उतनी किमत का तो आपके रिश्तेदार का दरवाजा है।इस पर मेरे ताऊ जी ने उसकी पिटाई कर दी। हमारे पास 65 बीघा जमीन थी,ताऊ बोले क्या दरवाजा 65 बीघा जमीन के बराबर का है।खैर नाई ने अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग कर दिया था।मेरे ताऊ जी ने गुस्से में कह दिया कि देखेंगे छूछक ट्रक भरकर आयेगा क्या? मेरे नाना जी को यह बात मेरी माता जी के माध्यम से पता चल गई। मेरे नाना जी ने उस समय बेड, सोफा सेट, रेडियो, अनाज की टंकी,बडा सन्दूक आदि सामान ट्रक मे भरकर, ट्रक से ही छूछक भेज दिया।
मेरै नाना जी के यहां सन् 1972-73 के आसपास घर पर शौचालय बना हुआ था,जो उस समय एक किसान के यहां होना, परिवार की अग्रणिय स्थिति की ओर संकेत करता था।मेरी नानी जी जिनका नाम प्रहलादो देवी था,माछरा ब्लाक के भडोली गांव के निवासी श्री बहादर सिंह कसाना की पुत्री थी।जैसा मेरी नानी जी बताती थी कि उनके पिताजी पशुओं (गाय,भैस) की बीमारी दूर करने की देशी दवाई के जानकार थे।उनके द्वारा ही मेरी नानी जी को भी यह तकनीक ज्ञात थी।मेनै स्वयं देखा कि मेरी नानीजी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त पशुओं को कान व पूंछ की नस बींधकर तथा देशी दवाई की दो तीन खुराक मे ही ठीक कर देती थी,इस कारण नानीजी का आसपास के कई गांवों में बड़ा आदर था।नानी जी कोई डिग्री प्राप्त डाक्टर नही थी, परंतु उनकी दवाई डिग्री प्राप्त डाक्टरों पर भारी पडती थी।इस कारण नानीजी उस पुराने समय में एक आर्थिक रुप से सशक्त महिला थी।
यही कारण रहा कि मेरे नानाजी एक माध्यम दर्जे के किसान होने के बावजूद भी अपने आसपास के बड़े किसानों से बहतर थे। हमारे मेरठ में स्थापित होने मे हमारी नानी जी का बहुत बड़ा योगदान था। हमारे पिताजी और दादाजी शहर में रहने के पक्षधर नही थे,वो गांव में ही अपनी खेती किसानी बढाना चाहते थे। परंतु हमारी माताजी शहरी जीवन की पक्षधर थी।इस स्थिति में शहर में सम्पत्ति खरीदने में मेरे पिताजी की कोई रुचि नहीं थी। सन् 1972 में मेरी माता जी ने अपने बल पर मेरठ में 200 वर्ग गज का एक प्लाट गढ़ रोड पर स्थित नेहरू नगर कालोनी में खरीद लिया,जिसकी किमत उस समय 12000 रुपये थी।इन 12000 रुपयों में हमारे पिताजी ने कोई सहयोग नहीं दिया था।सब धन मेरी माता जी ने लगाया था।मेरी माता जी का कोई व्यवसाय नही था। अतः किसी ना किसी रुप में यह धन मेरे नाना जी व नानी जी की कृपा से प्राप्त था। सन् 1974 में इस प्लाट की नींव भरी गई। उसमें आधा सहयोग हमारे पिताजी ने दिया था,करीब 5-7 हजार रुपए। सन् 1976 में इस प्लाट पर बिल्डिंग बनी, जिसमें 90000 रुपये खर्च हुए।मेरे पिताजी की ओर से 15000 रुपयों का सहयोग रहा था। सन् 1978 में मकान की फिनिशिंग हुई, इसमें पूरा खर्च मेरे पिताजी ने दिया था,जो करीब 25000 रूपये था।इस प्रकार हम शहरी नागरिक बन मेरठ में रहने लगे थे।
इंसान कितना भी पढ लिख ले, परंतु समाज के नियम उसे प्रभावित अवश्य करते हैं।मेरे मामाजी भी समाज की प्रथा से प्रभावित हो गये थे। क्योंकि वह उनको लाभ पहुंचाने वाली थी। भारतीय समाज में उस समय बेटी को पराया धन समझा जाता था। माता-पिता अपनी बेटी की शादी करना ही अपनी जिम्मेदारी समझते थे। परंतु जमाना बदल रहा था।मेरे नाना जी व नानी जी इस बदलाव से प्रभावित होकर बेटी को पराया धन ना मानकर बराबर का अधिकार दे रहे थे। परन्तु इस बदलाव को मेरे मामाजी स्वीकार नही कर रहे थे। अतः परिवार में तनाव बन गया था। जिसमें मेरे नाना जी व नानी जी तथा माता जी एक ओर थे तथा मेरे दोनों मामा जी एक ओर।आपसी मनमुटाव इतना बढ़ा कि हमारी शादियों में भात की रस्म मे भी परेशानियां बनी। परंतु समय के मरहम ने सब ठीक कर दिया था।हम तीनों भाई बहन तथा हमारे मामा जी के बीच रिश्ते सहज ही थे।
जब सन् 1977 में हम गांव से मेरठ में आ गये।तब मेरे पिताजी को गांव में ही रहकर खेती करानी पडी, क्योंकि मेरे दादाजी शहर में रहने के पक्षधर नही थे। उन्होंने मेरठ में रहने के लिए साफ मना कर दिया था।इस कारण मेरे पिताजी को सात-आठ वर्ष तक गांव में ही दादाजी के पास रुकना पडा।मेरी छोटी बुआ जी श्रीमती शिमला देवी का इस समयावधि में बहुत सहयोग रहा।बुआ जी वर्ष में करीब छः महीने पिताजी और दादाजी के पास गांव में रह जाती थी।कभी कभी कोई आपदा भी रास्ता आसान कर देती है।मेरा गांव मेन रोड से बहुत अंदर था, वहां बाजार से कुछ भी लेने की कोई व्यवस्था नहीं थी।नमक या माचिस जैसी चीजें लेने के लिए भी गांव से सात किलोमीटर दूर मंसूरपुर या तीन किलोमीटर दूर सिखेड़ा आना पडता था।ऐसी परिस्थिति में पिताजी और बाबाजी के खाना बनाने की व्यवस्था कैसे बनें।यह एक गंभीर प्रश्न था। कुटुम्ब के लोग सहयोगी थे परंतु लगातार सहयोग बने रहना सम्भव नहीं था।मेरी छोटी बुआ जी कुछ क्रोधी स्वभाव की थी।उनकी जहां शादी हुई (वर्तमान में उत्तराखंड में रूड़की के पास देवपुर गांव) वहां उनकी सासूजी भी क्रोधी स्वभाव की थी।मेरी बुआ जी के दो संतान एक बेटा व एक बेटी पैदा हो गई थी। लेकिन तभी मेरे फूफाजी का देहांत हो गया था। परिस्थिति ऐसी बनी कि मेरी बुआ जी और उनकी सासूजी के मध्य जो टकराव हो जाता था तो कोई शांत करने वाला नही था। बुआ जी के ससुर फूफाजी की मृत्यु के कुछ माह बाद ही स्वर्ग वासी हो गये थे।इन परिस्थितियों में मेरी बुआ जी वर्ष भर करीब आठ महिने पिताजी के पास गांव अपने बच्चों सहित आ जाती थी,वो छ महीने रहती फिर दो महिने को अपनी ससुराल चली जाती थी। वहां मुश्किल से दो महिने रह पाती थी फिर पिताजी के पास आ जाती थी। क्योंकि गांव में मेरी माताजी भी नही थी, इसलिए वहां उनका किसी से कोई टकराव नही होता था।इस प्रकार मेरे दादा जी की मृत्यु तक यही क्रम बना रहा।मेरी बुआ जी के बच्चे भी बडे हो गये थे,उनकी सासूजी की भी मृत्यु हो गई थी।समय की शक्ति ने सब सामान्य कर दिया था तथा दोनों परिवारों की समस्या का समाधान भी कर दिया था।
 जीवन चलता रहा।मेरी माता जी वृद्ध हो चली थी।उनका पैर फिसल गया तथा कूल्हा टूट गया।वो बैड पर आ गई। पिताजी ने इस समय माता जी को भरपूर सहारा दिया।वे माता जी के साथ एक परछाईं की तरह रहें।माता जी के नीजि देनिक कार्य में पिताजी ने भरपूर सहायता की।
5 दिसम्बर  2021(रविवार का दिन  मार्गशीर्ष मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि ) प्रात: 9 बजे माता जी इस नश्वर संसार को छोड़कर चली गई।
मेरे पिताजी,माता जी की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए असहज से रहें। परंतु हमने पिताजी को अकेला नही छोडा। में और मेरा छोटा भाई महेश, कोई ना कोई उनके पास ही सोता था। लेकिन 12-02-24 की दिन शाम को दूध पीते समय पिताजी के गले में फंदा लग गया।उनको हास्पिटल में भर्ती करना पडा।वो वेंटिलेटर पर आ गए  तथा  20 फरवरी 2024 को (माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि ) को अस्पताल में मृत्यु हो गई।वो इस नश्वर संसार को छोड़कर चले गए।
एक सीधे साधे सरल जीवन का अंत हो गया।

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