रविवार, 11 मई 2025

अनीता रानी

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए समाज के बनाए रिश्ते उसके जीवन का आधार होते हैं। यदि मनुष्य के जीवन से रिश्ते छीन लिए जाए और संसार की अकूत संपत्ति भी उसे दे दी जाए। उसके बाद भी वह गरीब ही रहता है।किसी जीव का रिश्ता उसकी माता से सबसे अधिक नजदीक का होता है। उसके बाद ही सब रिश्तों की शुरुआत होती है। जैसे पिता, भाई-भाभी, बहन-बहनोई,मामा,नाना,चाचा,ताऊ,बुआ आदि।
मेरे भी ऐसे ही रिश्ते है।मेरी माता जी मेरठ के गढ़ रोड पर स्थित हसनपुर कला गांव की थी।मेरे नाना जी तीन सगे भाई थे।इनमे सबसे बडे भाई का नाम धारा था, दूसरे का नाम रामचंद्र व तिसरे का नाम रगबीर था।धारा निसंतान थे, रामचंद्र जी व रगबीर के तीन -तीन संतानें थी। दोनों के दो- दो बेटे व एक-एक बेटी थी।इनमे रामचंद्र मेरे नाना थे,मेरे दो मामा हैं। जिनमे एक का नाम निर्भय सिंह वर्मा है तथा दूसरे का नाम सिब्बू सिंह वर्मा है। मेरे नाना जी के दूसरे भाई श्री रगबीर जी के भी तीन संतानें थी,जिनमे एक का नाम मगन सिंह, दूसरे का नाम हुकुम सिंह तथा तिसरी संतान का  नाम हुकुमवती था।
मेरी माता जी का नाम श्याम कली देवी था जो अपने चाचा व पिता की संतानों में आयु में सबसे बडी थी।मेरे दोनों सगे मामा सरकारी अधिकारी थे, 23 सितंबर सन् 1965 में मेरा जन्म हुआ था।मेरे मामा अपनी बहन की संतान अर्थात मुझसे बडा प्रेम करते थे।इसका सबसे बड़ा सबूत यही था कि मेरे बडे मामा श्री निर्भय सिंह वर्मा जी ने मेरा नाम अपने बेटे अशोक के नाम ही रखा था। मेरे नाना नानी अकेले रहते थे,मेरे दोनों मामा सरकारी नौकरी के कारण बाहर रहते थे, इस कारण वो मुझे अपने पास हसनपुर कला गांव में ही रखते थे।लडकी का लडका होने के कारण मेरे नाना जी के सगे भाई के पुत्र जो मेरे मामा ही थे,भी मुझसे बडा प्रेम रखते थे।वो मुझे कभी भी अपने साथ अपने घर,जो मेरे नाना जी के घर से थोडा दूरी पर रहते थे तथा गांव से जा रही गढ़ रोड पर स्थित था,ले जाया करते थे।
मेरे मामा निर्भय सिंह वर्मा जी के तीन संतान,छोटे मामा सिब्बू सिंह वर्मा जी के चार संतान है।मामा जी के चाचा जी के बेटे श्री मगन सिंह व हुकुम सिंह जी के भी तीन तीन संतानें हैं।
हम भी सन् 1977 में मेरठ में ही मकान बना कर गढ़ रोड पर स्थित नेहरू नगर कालोनी में रहने लगे थे।बडे मामा जी भी वही फूलबाग कालोनी में रहते थे।छोटे मामा सिब्बू सिंह वर्मा जी दिल्ली में रहने लगे थे।मगन सिंह मामा जी जूनियर हाईस्कूल में अध्यापक थे तथा उनके भाई हुकुम सिंह जी किसान थे,ये दोनों हसनपुर कला गांव में ही रहते थे।मगन सिंह मामा जी के दो बेटे ब्रजेश कुमार तथा राजेश कुमार है, दोनों सरकारी नौकरी में थे,हम दोनों भाई मेरठ में ही अपना नीजी कार्य कर जीवन यापन कर रहे हैं। हुकुम सिंह जी के पुत्र किसान ही है। निर्भय सिंह वर्मा जी के दोनों पुत्र अशोक सरकारी नौकर थे व अरूण सरकारी नौकर है। छोटे मामा सिब्बू सिंह वर्मा जी के दोनों पुत्र अपना व्यापार करने लगे हैं।सब शादी शुदा हो गये थे।हम सबकी पत्नियां व बहने पढी लिखी है। परन्तु मगन सिंह मामा जी के बडे पुत्र ब्रजेश कुमार की पत्नी अनीता रानी पढी लिखी होने के साथ सबसे अधिक काबिल है,वो सरकारी नौकरी में हैं।बाकि सब गृहणी है। अनीता रानी मेरठ की मवाना तहसील के खेडकी गांव चौधरी रूमाल सिंह के पुत्र श्री पीताम्बर सिंह की पुत्री है।श्री पीताम्बर सिंह पांच भाई और चार बहिन है। पीताम्बर सिंह के तीन संतान थी, पुत्री अनीता रानी का जन्म 26-08-1968 को हुआ था। पीताम्बर सिंह मेरठ में लेबर कोर्ट में पेशकार थे। अनीता रानी एमए बी एड तक की शिक्षा प्राप्त किए हुए हैं। अनीता रानी का विवाह श्री ब्रजेश कुमार से 19-02-1988 को सम्पन्न हुआ। शादी के करीब सात वर्ष बाद 12-06-1995 को अनीता रानी की सरकारी नौकरी लग गई।अनीता रानी और ब्रजेश कुमार मेरठ की दामोदर कालोनी निकट आनंद हास्पिटल में मकान बना कर रहने लगे थे।
लेकिन ईश्वर की माया भी अजीब है,यह किसी की समझ में नहीं आती। ब्रजेश कुमार व उनकी पत्नी अनीता रानी जो सबसे अधिक समृद्ध भी है और काबिल भी, दोनों सरकारी नौकरी में हैं। जहां किसी भी तरह की परेशानी नही आनी चाहिए थी,वही कुदरत की सबसे अधिक कडी दृष्टि रही।भाई ब्रजेश कुमार के कोई संतान नहीं थी, जबकि सबके संतान थी,मेरे भी दो बेटियां हैं,उस पर 29-08- 2022 में भाई ब्रजेश कुमार की बिमारी के कारण मृत्यु हो गई।मगन मामा जी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी, उनके भाई हुकुम सिंह की भी मृत्यु हो चुकी थी, जबकि मगन व हुकुम मामा जी मेरे मामा श्री निर्भय सिंह वर्मा जी से छोटे थे।मेरी पत्नी ऊषा देवी की मृत्यु भी 14 मार्च सन् 2024 को हो गई थी। रिश्ते में तो में अनीता का ज्येष्ठ लगता हूं , परंतु इस रिश्ते की जिम्मेदारी, में अपने भाई ब्रजेश कुमार की मृत्यु के बाद कभी नहीं निभा सका, जबकि मे मेरठ में ही गढ़ रोड पर ही रहता था, अनीता मेरे घर से कुल दो किलोमीटर दूर आनंद नर्सिंग होम के पास रहती थी।यह मकान भी मैंने कभी नहीं देखा था, में तो ब्रजेश से हसनपुर कला गांव में ही मिला था या रास्ते बीच में। जबकि एक सामाजिक व राजनीतिक व्यक्ति होने के कारण बहुत से जाति समुदाय के लोगों से मिलता रहा हूं।
में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता हूं, इसलिए राजनीतिक दल भाजपा से भी जुड़ा रहा हूं।संघ की ओर से मुझे ऐसा निर्देश हुआ कि मुझे धर्म जागरण मंच की ओर से चल रही पांच परियोजना, गुर्जर,जाट, राजपूत, त्यागी व ब्राह्मण समाज की गुर्जर परियोजना का मेरठ प्रांत का काम सम्भालना है।इस क्षेत्र में संगठन का गठन करना है,इस संगठन मे पुरुषों के अलावा कुछ महिलाओं को भी साथ लेकर संगठन बनाना है।
क्या अजीब संयोग था कि इस संगठन के गठन के कारण महिलाओं को जोड़ने के प्रयास में मेरी मुलाकात,जो मेरे ही मामा जी के पुत्र ब्रजेश कुमार की पत्नी  से हुई। हुआ यूं कि आनंद नर्सिंग होम के सामने मेरा छोटा दामाद दुकान करता था, उसके पास मे ही पूर्व विधायक रामकृष्ण वर्मा के पुत्र पेंट की दुकान करता है।मेने उससे किसी पढी लिखी महिला को बताने के लिए कहा, उसने मुझे अनीता के बारे में बताया। लेकिन कोई कांटेक्ट नंबर नही था।डा निलम सिंह जो सिम्भावली डिग्री कालेज में प्रोफेसर हैं,उन पर भी इस परियोजना में कार्य करने का दायित्व है। में उनके पास गया,डा निलम को लेकर अनीता के घर गया,वो आफिस से वापस नही आयी थी, अनीता के घर के पास वाले घर से उनका कांटेक्ट नंबर मिल गया था।निलम ने नम्बर से अनीता से बात की, परंतु लगातार प्रयास के बाद भी अनीता से सम्पर्क नहीं हो सका था।जब निलम ने हथियार डाल दिए,तब मेंने अपनी मामी जी से सम्पर्क किया।मेने उनसे अनीता के पास चलने का निवेदन किया। मामीजी को साथ लेकर में अनीता के पास चला गया। अनीता ने मेरे निवेदन पर संगठन में काम करने की अनुमति दे दी।
आज भारत के समाज में परिवारो में कितनी दूरियां बन गई है कि जो मुलाकात या जुडाव परिवार के रिश्ते के कारण होना चाहिए था,वह कभी नही हुआ, हुआ तो संगठन के माध्यम से। चलो ये भी अच्छा ही हुआ। अनीता रानी जी ने गुर्जर परियोजना में मेरे साथ सहयोग करने का मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया था।अब हमारा संगठन भी एक था, हमारा परिवार तो पहले ही एक था। दूसरा जो सबसे बड़ा जुडाव दुनिया में होता है,वह यह है कि हम एक ही दुःख से पीड़ित हैं।हम दोनों के जीवन साथी भी हमे छोड़ कर परलोक को चले गए हैं।
5 जनवरी सन् 2025 को मेरे द्वारा लिखी किताब ' 1857 के अमर क्रांतिकारी कोतवाल धन सिंह गुर्जर 'के विमोचन पर अनीता भी उपस्थित रही। 
7 मार्च सन् 2025 को महिला दिवस की पूर्व संध्या पर आईएएम हाल मे मुख्य विकास अधिकारी मेरठ आईएएस नूपुर गोयल के कर कमलों द्वारा अनीता रानी जी को नारी शक्ति सम्मान से धन सिंह कोतवाल शोध संस्थान के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम मे सम्मानित किया गया।एक संघर्षशील जीवन को सराहने का एक छोटा सा अवसर प्राप्त हुआ और मेरे मन को भी तसल्ली हुई कि एक ज्येष्ठ के नाते तो में कुछ ना कर सका, परन्तु संगठन के सहयोगी के नाते ही सही कुछ तो हुआ।
उसके बाद 9 मार्च सन् 2025 को गुर्जर परियोजना की एक बैठक परियोजना के कार्यालय A-64 ग्राउंड फ्लोर हमारे पुरखे न्यास के अंतर्गत बैठक में अनीता रानी ने भी भाग लिया। जीवन यात्रा अभी चल रही है। देखें आगे क्या होता है? जीवन एक युद्ध क्षेत्र हैं ..................
युद्ध नही जिसके जीवन में वो भी बडे अभागे होगे।
या तो प्रण को तोडा होगा,या फिर रण से भागे होंगे।।
अपना अपना युद्ध सभी को जीवन में लडना पडता है।
अपने हाथों शिलालेख पर खुद को ही गढ़ना पड़ता है।।
सच की खातिर हरिश्चंद्र को सकुटुम्ब बिक जाना पडता।
काशी के बाजार में अपना मोल लगाना पडता।।
दासी बनकर के भरती है, पटरानी पानी पनघट में।
और खडा सम्राट वचन के कारण ,काशी के मरघट में।।
ये अनवरत लडा जाता है,होता युद्ध विराम नही है।
कौन भला स्वीकार करेगा, जीवन एक संग्राम नही है।।

अनीता जी सादर प्रणाम 
आपका ज्येष्ठ/मित्र/शुभाकांक्षी /सहयोगी 
अशोक चौधरी मेरठ।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

1857 की क्रांति के अमर क्रांतिकारी कोतवाल धन सिंह गुर्जर - लेखक अशोक चौधरी मेरठ

धन सिंह कोतवाल का जन्म 27 नवम्बर सन् 1814 दिन रविवार (सम्वत् 1871 कार्तिक पूर्णिमा) को प्रात:करीब छ:बजे माता मनभरी के गर्भ से हुआ था।इनके पिता का नाम सालिगराम था,जो गांव के मुखिया थे।धन सिंह मेरठ की सदर कोतवाली में पुलिस मे कोतवाल थे। पुलिस में कोतवाल तथा सेना में सूबेदार का पद भारतियों के लिए उच्च पद था।इस पद से ऊपर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त रहते थे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में ब्रिटेन ने पूरे भारत पर अधिकार कर लिया था ।अंग्रेजो का शासन इतना फैल गया कि उनके शासन में सूर्य अस्त ही नहीं रहता था, वे विश्व की सबसे बड़ी शक्ति बन गए। अंग्रेजों ने भारतीयों से बड़ा व्यापार छीन कर अपने हाथ में ले लिया तथा भारतीय व्यापारियों को जमींदारे बेच दिए। साहूकारे के लाइसेंस दे दिये। लगान व ब्याज बडी कठोरता से वसूला जाने लगा। उस वसूली के लिए जिस पुलिस का उपयोग अँग्रेज कर रहे थे, वे किसानों के ही बेटे थे। जिस सेना के बल पर अंग्रेजों ने भारत जीता था वे सिपाही भी भारतीय किसान के ही बेटे थे,अतः जब अंग्रेजों की दमनकारी नीति से किसानों को दर्द हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया सेना व पुलिस मे बंदूक थामे, उसके बेटो में होनी स्वभाविक थी। रही - सही कसर डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति ने पूरी कर दी। दारूल इस्लाम के स्थान पर दारूल हरब बन गया था। इसलिए वहाबी भी सक्रिय थे, परंतु हथियार तो सेना व पुलिस के पास थे, जब तक भारतीय सेना अंग्रेजों के विरुद्ध न खडी हो, कोई प्रयास कामयाब नहीं था। वो दिन आया 10 मई 1857 को, जब मेरठ की भारतीय सेना, मेरठ की पुलिस व मेरठ के किसान एक साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से भिड़ गए। 
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30 बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सीकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए।  मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे। सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी, मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था। अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
बरेली में बंगाल नेटिव इंफेंट्री के सिपाहियों ने क्रांति का बिगुल बजा दिया तथा बख्त खां जो सेना में सूबेदार था तथा नजीबुद्दौला के परिवार से था,को अपना नेता चुन लिया। सेनापति बख्त खान बरेली से सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। सेना दिल्ली ना पहुंचे, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने गढ़ मुक्तेश्वर में बने नावों के पुल को तोड दिया। परंतु राव कदम सिंह ने 27 जून को नावों की व्यवस्था कर बख्त खान की सेना को गंगा पार करा दी।
यदि 27 जून को यह सेना गंगा पार कर दिल्ली नही पहुंचती तो दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार जुलाई के प्रथम सप्ताह में ही हो जाता। लेकिन सेना के एक जुलाई को दिल्ली पहुंच जाने के बाद दिल्ली ने 20 सितंबर सन् 1857 तक अंग्रेजों से संघर्ष किया।
 तब मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे। इस फोर्स को लेकर सबसे पहले क्रांतिकारियों के गढ़ धनसिंह कोतवाल के गांव पांचली, नगला, घाट गांव पर कार्रवाई करने की योजना बनी।
सबसे बडी बात यह रही कि इस हमलें में तोप का प्रयोग किया गया। कहने का अर्थ यह है कि अब अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को और अपने को दो अलग-अलग शासकों के मध्य युद्ध में कोतवाल धन सिंह को क्रांतिकारी पक्ष का मान लिया। वर्ना सामान्य घटनाक्रम में कितना भी बडा अपराधी हो, सरकार तोप जैसे बड़े हथियार का इस्तेमाल नहीं करती।
धनसिंह कोतवाल पुलिस में थे, वह क्रांतिकारी गतिविधियों में राव कदम सिंह के सहयोगी थे। अतः उनके पास भी अपना सूचना तंत्र था। धनसिंह को इस हमले की भनक लग गई। वह तीन जुलाई की शाम को ही वह अपने गांव पहुंच गए। धनसिंह ने पांचली, नंगला व घाट के लोगों को हमले के बारे में बताया और तुरंत गांव से पलायन की सलाह दी। तीनों गांव के लोगों ने अपने परिवार की महिलाएं, बच्चों, वृद्धों को अपनी बैलगाड़ियो में बैठाकर रिश्तेदारों के यहाँ को रुखसत कर दिया। धनसिंह जब अपनी हबेली से बाहर निकले तो उन्होंने गांव की चौपाल पर अपने भाई बंधुओं को हथियारबंद बैठे देखा। ये वही लोग थे जो धनसिंह के बुलावे पर दस मई को मेरठ पहुंचे थे। धनसिंह ने उनसे वहां रूकने व एकत्र होने का कारण पूछा। जिस पर उन्होंने जबाब दिया कि हम अपने जिंदा रहते अपने गांव से नहीं जायेंगे, जो गांव से जाने थे वो जा चुके हैं। आप भी चले जाओ। धन सिंह परिस्थिती को समझ गए कि उनके भाई बंधु साका के मूड में आ गए हैं। जो लोग उनके बुलावे पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ने मेरठ पहुंच गए थे, उन्हें आज मौत के मुंह में छोड़कर कैसे जाएं? धनसिंह ने अपना निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने गाँव के क्रांतिकारियों को हमले का मुकाबला करने के लिए जितना हो सकता था मोर्चाबंद कर लिया।
चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने गांव पर हमला कर दिया। अँग्रेज अफसर ने जब गाँव में मुकाबले की तैयारी देखी तो वह हतप्रभ रह गया। वह इस लड़ाई को लम्बी नहीं खींचना चाहता था, क्योंकि लोगों के मन से अंग्रेजी शासन का भय निकल गया था। कहीं से भी रेवेन्यू नहीं मिल रहा था और उसका सबसे बड़ा कारण था धनसिंह कोतवाल व उसका गांव पांचली। अतः पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया। धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 40 कैद कर लिए गए और इनमें से 36 को मिल्ट्री कमीशन के माध्यम से फांसी दे दी गई। मृतकों की किसी ने शिनाख्त नहीं की। इस हमले के बाद धनसिंह कोतवाल की कहीं कोई गतिविधि नहीं मिली। सम्भवतः धनसिंह कोतवाल भी इसी गोलीबारी में अपने भाई बंधुओं के साथ शहीद हो गए। उनकी शहादत को शत् -शत् नमन।

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

भारत की विस्मृत वीरांगना रामप्यारी चौहान ( गुर्जर)- डा नीलम सिंह विभागाध्यक्ष अंग्रेजी विभाग किसान पी जी कालेज सिंभावली हापुड़।

"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
अर्थात जननी व जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। इसलिए भारत माता हमारे लिए स्वर्ग से भी बढ़कर है। क्योंकि भारत माता की कोख से अनेक वीरों और वीरांगनाओं ने जन्म लिया है। जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा व धर्म की स्थापना के लिए सर्वस्व समर्पित कर दिया। भारत माता की पवित्र धरा पर अनगिनत वीरांगनाओं जैसे रानी लक्ष्मीबाई,रानी दुर्गावती, मेवाड़ की महाबलिदानी माता पन्ना आदि ने मातृभूमि और अपने पक्ष के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।ऐसी ही एक महान वीरांगना हुई है रामप्यारी चौहान (गुर्जर)।जब भी तैमूर लंग के भारत पर आक्रामण का क्रुर इतिहास याद किया जाएगा तो रामप्यारी गुर्जर के साहस, शौर्य और पराक्रम को स्वत: ही याद किया जाएगा।
रामप्यारी गुर्जर का जन्म तत्कालीन समय के गुर्जर गढ जो वर्तमान में सहारनपुर के नाम से जाना जाता है, में हुआ था।वह चौहान गोत्र की गुर्जर जाती मे जन्मी थी।इनको बचपन से ही वीरता की कहानियां सुनने का बहुत शौक था। रामप्यारी बचपन से ही निर्भय और हठी स्वभाव की थी। देश मे गुलामी का दौर होते हुए भी बचपन में खेतों में अकेले चले जाना उनके स्वभाव में था। अपनी मां से पहलवान बनने के लिए वह जिज्ञासा पूर्वक पूछा करती थी और प्रातः सायं खेतों में जाकर एकांत स्थान पर व्यायाम किया करती थी। कुछ तो स्वयं बचपन से ही स्वच्छ, सुडौल और आकर्षक शरीर की लड़की,उस पर व्यायाम ने वही काम किया जो सोने पर अग्नि में तपकर कुन्दन बनने का होता है अर्थात आप कुन्दन बन गई थी।आप सदैव पुरूष जैसे वस्त्र पहनती थी और अपने गांव व पड़ोसी गांवों में पहलवानों के कौशल देखने अपने पिता व भाई के साथ जाती थी। रामप्यारी की इन बातों की चर्चा सारे गांव व क्षेत्र में फैलने लगी। सन् 1398 में जब समरकंद के शासक तैमूर लंग ने दिल्ली पर आक्रामण किया,उस समय दिल्ली पर तुगलक वंश का शासन था। तैमूर के आक्रमण होने पर तुगलक दिल्ली छोड़कर भाग गया, तैमूर दिल्ली से मेरठ होते हुए जब गंगा के किनारे हरिद्वार की ओर बढा तब क्रूरता और निष्ठुरता के लिए कुख्यात तैमूर लंग का उस समय सामना करने में रामप्यारी चौहान की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। तैमूर लंग के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के कारण ही रामप्यारी चौहान के नाम के साथ वीरांगना शब्द लग गया। रामप्यारी गुर्जर के रण कौशल को देखकर तैमूर भी दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो गया था। उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी ऐसी वीरता व शौर्य से भरी महीला नही देखी थी। जिसने 40000 महिलाओं की सेना बनाकर,उसका नेतृत्व करते हुए तैमूर को युद्ध के लिए ललकार दिया था। इतिहास में लुप्त ऐसी महानायिका रामप्यारी गुर्जर की कहानी,जिसे कभी प्रचारित ही नहीं किया गया,ऐभी वीरांगना का परिचय भारत के बच्चे बच्चे से होना चाहिए था, लेकिन ऐसा ना हो सका। रामप्यारी गुर्जर एक ऐसी वीरांगना थी, जिसने मात्र 20 वर्ष की आयु में अपनी 40000 महीला सेनानियों की सहायता से तैमूर की सेना को गाजर मूली की तरह काट कर रख दिया था।
तैमूर विस्तार वादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था,इसका मुख्य उद्देश्य भारत में कुफ्र/गैर मुस्लिम धर्म अर्थात सनातन को समाप्त करना था।यह उस समय की बात है जब दिल्ली में तुगलक वंश का शासन था।पूरे भारत में इस्लाम की ध्वजा फहराने का बहाना लेकर भारत पर हमला करने वाले तैमूर लंग के सामने दिल्ली के शासक की एक न चली। तैमूर ने मुस्लिम इलाकों को छोड़कर हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों में भयंकर नरसंहार और लूटपाट की।यह इतना भयावह था कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तक "द आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया-फ्राम द अर्ली एस्टेट टाइम्स टू द एंड आफ 1911" नामक पुस्तक में उन्होंने ने लिखा है कि तैमूर लंग का मुख्य उद्देश्य भारत में सनातनियों का सर्वविनाश कर इस्लाम की ध्वजा फहराना था। दिल्ली पर आक्रमण होते ही तुगलकी सेना ने तैमूर के सामने घुटने टेक दिए, जिससे उसके हौसले और अधिक बुलंद हो गये।वह अपनी विशालकाय सेना लेकर मेरठ की ओर चल दिया,जिसकी सूचना आसपास के सम्पूर्ण क्षेत्र में फैल गई थी।इस आक्रमण का सामना करने के लिए क्षेत्र में सर्वखाप पंचायत के नाम से बने संगठन ने पहल की तथा क्षेत्र के स्थानीय किसानों की एक सेना हरिद्वार के निकट पथरी गांव के जोगराजसिंह गुर्जर के नेतृत्व में तैयार की गई,उस सेना की सहायता के लिए ही महिलाओं की भी एक सेना रामप्यारी गुर्जर के नेतृत्व में तैयार हुई। मेरठ से गंगा के किनारे होते हुए तैमूर की सेना ने हरिद्वार की ओर प्रस्थान किया,इसी रास्ते पर तैमूर की सेना का मुकाबला महाबली जोगराजसिंह गुर्जर व रामप्यारी गुर्जर की सेना के साथ हुआ।इस संघर्ष में महाबली जोगराजसिंह गुर्जर, हरबीर सिंह गुलिया तथा रामप्यारी गुर्जर युद्ध में बारी बारी से बलिदान हो गये। तैमूर की सेना की भी भारी क्षती हुई।वह हरिद्वार तीर्थ को नही लूट सका और न ही भारत में टीक सका।
देश की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही की ऐसी वीरांगनाओं और वीरों की अमर गाथाओं को आजाद भारत में भी याद नही किया जा सका। रामप्यारी गुर्जर द्वारा लडा गया यह युद्ध कोई आम युद्ध नही था अपितु अपने सम्मान और संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्म युद्ध था। जिसमें सभी तुच्छ मानसिकता का त्याग करते हुए हमारे वीर योद्धाओं तथा वीरांगनाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में जबाब दिया। परंतु इसे हमारी विडम्बना ही कहिए कि इस युद्ध के किसी नायक का गुणगान तो दूर की बात है, हमारे देशवासियों को इस एतिहासिक युद्ध के बारे में लेश मात्र भी जानकारी नही होगी। रामप्यारी गुर्जर जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर लंग को नाकों चने चबाने पर विवश किया वह अपने आप में सभी भारतीय महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि ईश्वर प्रदत्त अधिकारों की सुरक्षा हेतु किए गए संघर्ष के लिए समूचे विश्व की महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।यह संघर्ष अधर्म पर धर्म की विजय की प्रेरणा का स्रोत है। मानोशी सिन्हा की पुस्तक "सैफरन स्वार्डस" में भी रामप्यारी गुर्जर के साहस और पराक्रम को बड़े ही सुन्दर शब्दों में सहेजा गया है।
समाप्त 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

श्रीमती रीमा सिंह, एक साधारण महिला का असाधारण जीवन - अशोक चौधरी (समाज सेवी, विचारक एवं लेखक)

मैं मेरठ के गढ़ रोड पर स्थित नेहरू नगर कालोनी में निवास करता था।एक सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता होने के कारण मेरठ ही नहीं बल्कि बहुत दूर तक सामाजिक राजनीतिक व व्यापारी तथा सरकारी व गैर सरकारी लोगों तथा भिन्न भिन्न संगठनों से मेरा सम्पर्क हो गया था।इसी अभियान में मेरी जान पहचान गांव घाट के निवासी इं सुरेन्द्र सिंह से हो गई थी। में जहा रहता था वह क्षेत्र कुछ सघन आबादी का हो गया था,सडके भी कम चोड़ी थी। अतः मेरी यह इच्छा हुई कि किसी खुली कालोनी में रहने की व्यवस्था की जाय। घूमते फिरते इं सुरेन्द्र सिंह जी की सलाह पर मेंने दिल्ली हरिद्वार बाईं पास पर स्थित सुशांत सिटी सेक्टर 3 मे स्थित आईरिस गार्डन में बने डी टावर के सेकिंड फ्लोर पर चार नम्बर का दो कमरो का फ्लैट ले लिया तथा मार्च 2022 में में अपनी पत्नी के साथ यहां आकर रहने लगा।यही पर मेरी मुलाकात हमारी नेहरू नगर कालोनी में ही रहने वाले श्री राजन शर्मा से हुई। में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयं सेवक था, नेहरू नगर में रहते हुए सूरज कुंड में लगने वाली भरत शाखा में जाता था।राजन भी एक स्वयं सेवक थे, अतः मुलाकात होते ही राजन ने मुझसे सुशांत सिटी सेक्टर 5 में लगने वाली दयानंद शाखा में आने के लिए प्रेरित किया।जब मैं शाखा में पहुचा तो वहा मेरी मुलाकात श्री ब्रहमसिंह लखवाया तथा श्री सत्यबंधु गुप्ता से हुई। ब्रह्म सिंह लखवाया तथा सत्यबंधु जी मेरे पुराने परिचित थे।वही सेक्टर 5 में सतेंद्र भडाना जी,जो हमारे रिश्तेदार थे,भी रहते थे। सतेंद्र भडाना जी भी शाखा में आने लगे थे,इस कारण उनसे भी एक जीवंत सम्पर्क बन गया था।
एक अच्छा माहोल बन गया।मे दयानंद शाखा का नियमित स्वयं सेवक बन गया।तभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धर्म जागरण मंच ईकाई के अंतर्गत चलने वाली मेरठ प्रांत की गुर्जर समाज साझी विरासत समिति के संयोजक का दायित्व प्राप्त हुआ। संगठन में पुरुषों के साथ कुछ गुर्जर महिलाओं को भी जोड़ने का निर्देश मिला। ध्यान इतना रखा जाना था कि जो भी संगठन से जुड़े वह समझदार हो।जब मेने आसपास नजर दोडाई तथा पूछताछ की तो बात सामने आई कि सेक्टर 5 में श्रीमती रीमा सिंह नाम की एक महिला रहती है।जो बातचीत करने मे होशियार व समझदार है,वो संगठन के लिए उपयोगी हो सकती है। फिर पता चला कि उनके पति की मृत्यु हो चुकी है जो एयर फोर्स में थे।उनकी एक बेटी है जो पढ लिखकर सर्विस करती है। सतेंद्र भडाना जी का निवास और रीमा सिंह का निवास आसपास था।मेने सतेंद्र भडाना जी से आग्रह किया कि वो रीमा सिंह जी से बात करें।मेरे आग्रह पर सतेंद्र भडाना जी ने कोई खास रूचि नहीं दिखाई,शायद मे संगठन की गम्भीरता समझाने में विफल रहा। फिर मेंने स्वयं प्रयास किया।रीमा सिंह जी के मकान में विपिन नाम का एक स्वय सेवक किराए पर रहता था।मे विपिन के पास पहुंच गया। मैंने विपिन से आग्रह किया कि वो रीमा सिंह जी से संगठन में शामिल होने का निवेदन हमारी ओर से करें। विपिन ने मुझसे कहा कि आप ही आग्रह कर लिजिए, में आपकी मुलाकात रीमा सिंह जी से कराये देता हूं।मेने विपिन के साथ जाकर रीमा सिंह जी से मुलाकात की। बात करने पर पता चला कि वो मेरी पत्नी की मृत्यु होने पर सतेंद्र भडाना जी के परिवार की महिलाओं के साथ हमारे घर गई थी।वो तो मुझे पहचानती थी, परंतु में उनको नही देख पाया था।रीमा सिंह जी ने मेरा निवेदन स्वीकार कर लिया।मेने रीमा सिंह जी को संघ की दृष्टि से बने सरधना जिला की सह संयोजिका नामित कर दिया।उस समय रीमा सिंह जी अपनी बेटी की शादी की तैयारी कर रही थी,जो 2 फरवरी सन् 2025 की थी।वो अकेली महिला अपने कर्तव्य पथ पर मजबूती से बढ़ रही थी। उनके चेहरे पर चिंता व दबाव नही था बल्कि एक विजय भरी मुस्कान थी।मेरी जान पहचान बहुत नई थी, फिर भी मेरा मन चाह रहा था कि उनकी कुछ मदद करु।मेने फोन करके निवेदन भी किया। लेकिन उन्होंने मदद लेने से इंकार कर दिया। शायद रीमा सिंह के स्वाभिमान ने ऐसा निर्णय लेने के लिए विवश किया हो। परन्तु एक फरवरी सन् 2025 को जब रीमा सिंह जी की बेटी का लगन जाना था,तब 31 जनवरी को उनका मेरे पास फोन आया कि मुझे भी लगन देने के लिए साथ जाना है। मैंने जो सहयोग का आग्रह उनसे किया था,शायद इतना सहयोग करना ही मेरे हिस्से में आया था। में लगन सगाई दिलवाने के लिए चला गया तथा दो फरवरी को शादी में भी शामिल हुआ। सतेंद्र भडाना जी से रीमा सिंह जी के विषय में ओर जानकारी प्राप्त हुई। भड़ाना जी ने बताया कि रीमा सिंह जी मुजफ्फरनगर जिले के ढासरी गांव की बेटी है जो जानसठ कस्बे के पास है। ढासरी गांव में श्री खचेडू सिंह नाम के किसान थे,जिनके दिले सिंह नाम के एक पुत्र है जो मुजफ्फरनगर के खतोली ब्लाक के बुआडा नाम के गांव में श्रीमती गैंदी देवी के साथ विवाह संस्कार में बंधें थे।इन दिले सिंह जी के ही रीमा नाम की एक पुत्री ने 10-03-1975 को जन्म लिया,रीमा के कृष्ण पाल नाम के एक भाई भी है जो अध्यापक का कार्य करते हैं।रीमा जी की शादी 04-02-1995 को जिला मेरठ के दौराला ब्लाक  मे शाहपुर जदीद गांव के जितेंद्र सिंह से सम्पन्न हुई। जितेन्द्र सिंह एयरफोर्स में कार्यरत थें।  शादी के समय रीमा जी इंटर तक शिक्षित थी, शादी के बाद जितेन्द्र सिंह के सहयोग से रीमा जी ने जीवाजी यूनिवर्सिटी ग्वालियर से ग्रेजुएशन किया।समय बीत रहा था,रीमा सिंह जी अब एक पुत्री पूर्णिमा तथा एक पुत्र आशीष की माता भी बन गई थी। अचानक ही समय ने करवट बदली तथा जितेन्द्र सिंह व रीमा सिंह का इकलौता पुत्र आशीष 12 वर्ष की अवस्था में 23-08-2010 को इस नश्वर संसार को छोड़कर चला गया।कुदरत की मार यही पर ही नही रूकी,19-10-2016 को रीमा सिंह जी के पति जितेन्द्र सिंह भी स्वर्गवासी हो गये।अब  रीमा सिंह जी व उनकी पुत्री पूर्णिमा परिवार में थे। पूर्णिमा की पढ़ाई लिखाई व भविष्य के लिए सम्पत्ति की व्यवस्था अकेली रीमा सिंह जी के ही भरोसे थी।रीमा सिंह ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभायी।
 एक महिला के लिए पति और पुत्र का असमय चले जाना, दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है।उस परिस्थिति में भी जिस प्रकार रीमा सिंह अपना कर्तव्य निभा रही थी,वह सामान्य कार्य नही था।भडाना जी से जानकारी मिली कि रीमा सिंह जी के ससुर ने अपने बेटे अर्थात रीमा सिंह जी के पति की मृत्यु के बाद उनके हिस्से की जमीन अपनी पुत्रवधू तथा पोती को न देकर अपने दूसरे पुत्र को दे दी। जो एक अन्याय ही था। कल्पना किजिए यदि रीमा सिंह जी को अपने पति की पेंशन न मिलती तो जीवन कितना कष्ट भरा हो सकता था। शायद सुशांत सिटी मे बना मकान रीमा सिंह जी के पति ने रीमा सिंह जी के नाम ही करा दिया होगा या उनके पति के नाम होगा। वर्ना वह भी उनको ना मिलता।यह कैसे खून के रिश्ते है जो अपनों को ही समाप्त करने पर तुले हैं। बेटी की शादी के बाद मुझे ऐसी जरूरत महसूस हुई कि मैं श्रीमती रीमा सिंह जी की साहसी जीवन यात्रा के विषय में लिखू।इस क्रम में मैंने रीमा सिंह जी को एक पत्र लिखकर वाट्स एप के माध्यम से भेजा जो निम्न है -
श्रीमती रीमा सिंह जी 
सादर प्रणाम 
आपने अपनी बिटिया की शादी का निमंत्रण मुझे देकर शादी में सहभागी बनाने की कृपा की, इसके लिए मेरी ओर से आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
जिस समय बेटी की शादी का निमंत्रण प्राप्त हुआ।उसी समय में घर में बैठकर प्रयाग/इलाहाबाद मे चल रहें कुम्भ में सनातन धर्म की ओर से जो प्रस्ताव सनातन धर्म में सुधार के लिए धर्माचार्य ने किये है,उनको पढ़ रहा था।उन सुधारों में एक सुधार यह भी था कि शादी दिन में होनी चाहिए। हमारे समाज में शादी दिन में होती है, मैंने भी उनमे भागीदारी की है। परंतु शहर के अंदर अच्छे बारात घर में नही की जाती। परन्तु जब आपकी बेटी की शादी का निमंत्रण पढ़ा तो शादी दिन में थी।मन में बडी प्रसन्नता हुई,कि आप संगठन के रूप में गुर्जर समाज के जिस संगठन से जुड़ी हुई है वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिस्सा है तथा प्रयाग में जो सुधार धर्म संसद में पारित किए गए हैं, उनके पीछे संघ की बडी भूमिका है। कहने का अर्थ यह है कि जाने -अनजाने में जो दिन में शादी करने का निर्णय आपने लिया है। उससे आपके द्वारा धर्म संसद में पारित प्रस्ताव को बल मिला है।इस कार्य के लिए में आपका संगठन का मेरठ प्रांत का मुखिया होने के नाते बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूं।
रीमा जी आप एक बहादुर महिला है। अनेक कष्ट मन में छुपाकर आप हमेशा मुस्कुराते हुए ही मिली है। संसार में मनुष्य के लिए दो कष्ट सबसे बडे बतायें गये है।इन दो मे सबसे बड़ा कष्ट माता-पिता के सामने संतान की मृत्यु हो जाने का है। इसमें भी माता का कष्ट, पिता के कष्ट से अधिक होता है। क्योंकि माता अपनी संतान को नो महिनें गर्भ में रखती है? पति -पत्नी के बाद यदि कोई सबसे अधिक जुडाव का सम्बन्ध किसी का होता है तो वो माता का है।दूसरा बड़ा कष्ट यदि संसार में है ।तो वह जीवन साथी के बिछुड जाने का होता है। इसमें भी महिला को सबसे अधिक कष्ट होता है। क्योंकि मर्द तो पूरा दिन बाहर घूम कर अपना ध्यान बाट लेता है। लेकिन भारतीय समाज में महिला के लिए ऐसा सम्भव नहीं है। मैं खुद इस दूसरे दुःख से रुबरु हो चुका हूं।
जब मुझे सतेंद्र भडाना जी ने आपके विषय में बताया,तब में अपने जिस दुःख से परेशान था।उसको कम करने की प्रेरणा आप से मिली।बरबस ही एक कवि की दो लाईने याद आ गई। जिसमें लिखा है -
दुनिया मे कितना गम है, उसमें मेरा गम कितना कम है।
परंतु आप इन दोनों दुःख की भुक्तभोगी है।इस के बावजूद भी जिस निडरता से आप जीवन जी रही है। उसके लिए आपको बारम्बार साधुवाद है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वो आपका मनोबल ऐसे ही बरकरार रखें। हमें अपने और अपनों के जीवन में आने वाली परेशानियों को दूर करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। सकारात्मक रहना चाहिए।
हम संसार का हिस्सा है या संसार में हमारा हिस्सा है ।इन दोनों विचार मे जीवन की धारा चलती है।जब हम इस विचार से जीवन जीते हैं कि हम संसार का हिस्सा है तब हम कभी भी अपने को अकेला महसूस नही करते। स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, सुभाष चन्द्र बोस,भगत सिंह जैसे लोग इसी विचार पर चलकर ऐसा कार्य कर गये कि मृत्यु हो जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि वो हमारे बीच में ही है।
लेकिन जो संसार में अपना हिस्सा मानकर जीते हैं वो ताउम्र अपने सुख के लिए सम्भावना ही तलाशते रहते हैं तथा अपने रक्त सम्बन्धी के बिछड़ने पर अवसाद/डिप्रेशन में चले जाते हैं।
 अच्छा बनना है या श्रेष्ठ/टाप बनना है ।इनमे श्रेष्ठ बनने के चक्कर में व्यक्ति न जाने क्या -क्या साजिश रचने लगता है? दुनिया में निंदा का पात्र बन जाता है। लेकिन यदि आदमी अपने जीवन में अच्छा/उत्तम बनने के लिए जीवन जीता है तो न जाने कितनी बार श्रेष्ठ बन जाता है तथा अपने से जुड़े लोगों को सुख पहुंचाने का कारण बनता है।
रीमा जी आप आयु में मुझसे छोटी है,उस नाते आपके प्रति मेरे हृदय में असीम आदर व सम्मान है।
तुलसी इस संसार में सबसे मिलिए भाय।
क्या मालूम किस भेष में नारायण मिल जाए?
यहां नारायण का अर्थ भगवान से है, अर्थात दुख दूर करने वाला ।
इन्हीं शब्दों के साथ आपके श्री चरणों में प्रणाम करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं और पुनः आपको अपने जीवन की बडी जिम्मेदारी (बेटी की शादी) को पूर्ण करने की बारम्बार शुभकामनाएं देता हूं।आने वाले समय में आप अपने कीमती समय में से कुछ समय आप उस संगठन के लिए भी देंगी, जिस संगठन में आपको हमारे द्वारा नामित किया गया है।ऐसा निवेदन आपसे करता हूं।
आपका सहयोगी/ शुभचिंतक/मित्र 
अशोक चौधरी 
 मेरठ प्रांत संयोजक।
सभी एहले दुनिया ये कहते हैं हमसे,आता नही कोई मुल्क ए अदम से।
अर्थात जब जीव दुनिया छोड देता है तो वापस नही आता।  वह अपने चाहने वालों की स्मृति में जरूर रहता है। इसलिए सनातन धर्म में वर्ष में 15 दिन श्राद्ध मनाने का चलन है, अपने प्रिय जन को स्मरण करने के लिए।
दूसरी ओर यह भी विद्वान कहते हैं कि मृतक की आत्मा हमारे आसपास ही घूमती है, अतः जब उससे प्यार करने वाला प्रसन्न रहता है तो वह आत्मा भी प्रसन्न होती हैं।जब दुखी होता है तो वह भी दुःखी होती है। जिस प्रकार यदि हमें अपने प्रियजन के बारे में पता चले कि वो कष्ट में है तो मन अपने आप ही दुःख मे डूब जाता है।
अतः हमें अपनों को स्मरण तो रखना चाहिए परन्तु दुख का प्रकटीकरण नही करना चाहिए।
अगर मर गया रूह आया करेगी,तुझे देखकर गीत गाया करेगी।
मुझे याद कर तुम ना आंसू बहाना,बस इतनी गुजारिश है सदा मुस्कुराना।
07-03-2025 को महिला दिवस की पूर्व संध्या पर मेरठ के आईएमए भवन में धन सिंह कोतवाल शोध संस्थान के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम में रीमा सिंह को मेरठ की मुख्य विकास अधिकारी श्रीमती नूपुर गोयल आईएएस के द्वारा नारी शक्ति सम्मान से सम्मानित किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के धर्म जागरण मंच के द्वारा संचालित गुर्जर परियोजना के अंतर्गत रीमा सिंह जी मेरठ प्रांत की सह संयोजिका के पद पर शोभायमान होकर समाज को शक्तिशाली बनाने में अपना सकारात्मक योगदान दे रही है। जीवन यात्रा अभी चल रही है .............