मंगलवार, 9 जुलाई 2019

सनातन संस्कृति एवं भारत रक्षक -शिव भक्त वराह उपासक =लेखक अशोक चौधरी

हमारे सनातन धर्म के अनुसार भगवान् विष्णु के दस अवतारों में से एक वराह अवतार भी है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार उत्तर कुरू वर्ष, जिसकी पहचान आज इतिहासकार तारिम घाटी क्षेत्र से करते हैं, जहां से यूची कुषाणों (कसाना) की आरम्भिक उपस्थिति और इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। इतिहासकार कुरू वर्ष की पहचान जम्बू दीप से करते हैं। प्राचीन भारतीय समस्त जम्बू दीप के साथ एक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता मानते थे। आज भी हवन यज्ञ ये पहले ब्राह्मण पुरोहित यजमान से संकल्प कराते समय "जम्बू दीपे भरत खण्डे भारत वर्षे" का उच्चारण करते हैं। अतः जम्बू दीप भारतीयों की पहचान से जुडा रहा है।
सम्राट अशोक को जम्बूदीप का सम्राट माना गया है, बौद्ध धर्म अपनाने से पहले सम्राट अशोक शिव के उपासक थे। 
सम्राट कनिष्क के साम्राज्य के अन्तर्गत आने वाले मध्य एशिया के तत्कालीन बैक्टिरिया (वाहलिक, बल्ख) क्षेत्र, यारकंद, खोटन एवं कश्गर क्षेत्र, आधुनिक अफगानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के क्षेत्र जम्बू दीप में समाये थे। सम्राट कनिष्क अपने साम्राज्य पर चार राजधानियों से शासन करते थे। पुरूषपुर (आधुनिक पेशावर) उसकी मुख्य राजधानी थी। मथुरा, तक्षशिला और कपिशा (बे ग्राम) उसकी अन्य राजधानी थी।
सम्राट कनिष्क कुषाण ने बौद्ध धर्म जरूर अपना लिया था, परन्तु उनका झुकाव भगवान् शिव की ओर बना रहा। सम्राट कनिष्क के सिक्कों पर पाया जाने वाला शाही निशान जिसको कनिष्क का तमगा भी कहते हैं। इस तमगे के ऊपर चार नुकीले काँटे के आकार की रेखाएं है तथा नीचे एक खुला हुआ गोला है। इसलिए इसे चार शूल वाला चतुर्शूल तमगा भी कहते हैं। इसे राज कार्य में शाही मोहर के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। कनिष्क के पिता विमकडफिस ने सबसे पहले "चतुर्शूल तमगा" अपने सिक्कों पर शाही निशान के रूप में प्रयोग किया था। विमकडफिस शिव का उपासक था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी। माहेश्वर का अर्थ है -शिव का भक्त। शिव के पास त्रिशूल के अतिरिक्त चार शूल वाला एक परम शक्तिशाली अस्त्र है। जिसे पौराणिक साहित्य में पाशुपति अस्त्र कहा गया है। कनिष्क के तमगे में चतुर्शूल पाशुपति अस्त्र का प्रतिनिधित्व करता है। 
सम्राट कनिष्क ने चौथी बौद्ध संगत करायी थी। जिसमें बौद्ध ग्रंथों की रचना संस्कृत भाषा में करायी थी, संस्कृत देव वाणी कही गई है। बौद्ध धर्म ग्रंथों के संस्कृत में लिखे जाने से वह भारत के सनातन धर्म के निकट आ गया। कनिष्क के पश्चात उसके प्रपोत्र राजा वासुदेव का झुकाव शिव की ओर हो गया था। 
प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार उत्तर कुरू वर्ष में वराह की पूजा होती थी। यहां के लोग मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के उपासक थे। वो चाहे कुषाण हो या हूण हो, वराह को अपना देवता मानते थे। वराह पूजा की शुरुआत भारत के मालवा और ग्वालियर इलाके में लगभग उस समय हुई, जब हूणो ने यहाँ प्रवेश किया। भारत में हूण शक्ति को स्थापित करने वाले उनके नेता तोरमाण ने इसी इलाके के एरण -जिला सागर, मध्यप्रदेश में वराह अवतार की विशालकाय मूर्ति स्थापित करायी थी, जोकि भारत में प्राप्त सबसे पहली वराह मूर्ति है। तोरमाण के शासन काल का प्रथम वर्ष का अभिलेख इसी मूर्ति से मिलता है। अभिलेख की शुरुआत वराह अवतार की प्रार्थना से हुई है। पूर्व ग्वालियर रियासत स्थित उदयगिरि की गुफा में वराह अवतार का पहला चित्र मिला है। 
इतिहासकार आर गोइ त्ज (R Goitz) एरण स्थित वराह मूर्ति को वराह -मिहिर की मूर्ति बताते हैं। गोइ त्ज कहते हैं क्योंकि हूण सूर्य उपासक थे इसलिए वराह और मिहिर का संयोग सुझाता है। वराह उनके लिए सूर्य के किसी आयाम का प्रतिनिधित्व करता था। उनकी इस बात की पुष्टि ईरानी ग्रंथ "जदा अवेस्ता" के "मिहिर यास्त" से होती है। जिसमें कहा गया है कि मिहिर /सूर्य जब चलता है तो वेरे त्रघन वराह रूप में उसके साथ चलता है। वेरे त्रघन युद्ध में विजय का देवता है। 
वराह अवतार को उपनिषदों में भी चिन्हित किया गया है। परन्तु उत्तर भारत में वराह अवतार की अधिकतर मूर्तियां 500-900 ई0 के मध्य की है। जोकि हूण- गुर्जरों का समय है। हूणो का नेता तोरमाण वराह अवतार का भक्त था और गुर्जर सम्राट मिहिर भोज भी वराह उपासक था, अधिकतर वराह मूर्तियां, विषेशकर वो, जोकि विशुद्ध जानवर जैसी है, गुर्जर -प्रतिहारों के काल की है। सन् 1000 ईस्वी के बाद की वराह मूर्ति तो इक्का-दुक्का ही मिलती है। 
वराह और मिहिर के प्रति श्रद्धा हमें गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान मैं भी दिखाई देती हैं। भोज की एक अन्य उपाधि "वराह" भी थी। उत्तर भारत के बहुत स्थानों से हमें भोज महान के "वराह" के चित्र वाले चांदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं। जिन पर श्रीमद् आदिवराह लिखा है। समकालीन अरबी इतिहासकारों ने सभी गुर्जर प्रतिहार सम्राटों को "बौरा" यानि "वराह" कहा है। गुर्जर प्रतिहारो की तरह ही चालु क्यों का शाही निशान भी वराह था। उनके सिक्कों पर भी वराह अंकित रहता था। इन सिक्कों को वराह के नाम से पुकारा जाता था। सूर्य और वराह पूजा हूणो की तरह उनके वंशज कहे जाने वाले गुर्जरों में भी विशेष रूप से विद्यमान रही है। 
सातवीं शताब्दी में लिखित वाणभटट् कृत हर्ष चरित्र में गुर्जरों का पहली बार उल्लेख हुआ है। इसी काल में चीनी यात्री हेनसांग (629-645)भारत आया था, उसने अपनी पुस्तक सीयूकी में आज के राजस्थान को गुर्जर देश कहा है और भीनमाल को इसकी राजधानी बताया है। भीनमाल से इस काल में निर्मित सूर्य देवता के प्रसिद्ध जग स्वामी मन्दिर के भग्नावेश मिले हैं। यहां एक वराह मन्दिर भी है। गुर्जरों का पहला अभिलेख भडौंच, सूरत से प्राप्त हुआ है। यह भडौंच के शासक दददा् द्वितीय (633 ई 0)का है, इस अभिलेख पर सूर्यशाही निशान के तौर पर मौजूद हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि गुर्जर आरम्भ से ही सूर्य और वराह के उपासक थे। गुर्जर प्रतिहारो की राजधानी कन्नौज में भी वराह की पूजा होती थी और वहां वराह का मन्दिर था। पुष्कर जो कि गुर्जरों का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है। यहां भी वराह मन्दिर व वराह घाट है।
मथुरा भी एतिहासिक तौर पर कुषाणो व गुर्जरों से जुडा रहा है और यहां आज भी गुर्जरों की आबादियां है। मथुरा में भी प्राचीन वराह मन्दिर है। 
आगे चलकर हूणो का शासन आया, वे भी शिव भक्त थे। मिहिर कुल हूण एक कट्टर शैव था, उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मन्दिर बनवाये। मंदसौर अभिलेख के अनुसार यशोधरमन से युद्ध के पूर्व उसने भगवान् स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया। मिहिर कुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव का भक्त कहा है। मिहिर कुल के सिक्कों पर "जयतु वृष" लिखा है। जिसका अर्थ है -जय नंदी। वृष शिव की सवारी है, जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं। 
कल्हण ने बारहवीं शताब्दी में "राजतरंगनी" नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा है। कल्हण के अनुसार मिहिर कुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मन्दिर बनवाया था। उसने गंधार इलाके में 700 अग्रहार (ग्राम) ब्राह्मणों को दान में दिये थे। कल्हण मिहिर कुल को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता है। मिहिर कुल ही नहीं वरन् सभी हूण शिव भक्त थे। हनोल, जौनसार, बावर तथा उत्तराखंड में स्थित महासू देवता (महादेव) का मन्दिर, हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना है। कहा जाता है कि इसे हूण भट्ट ने बनवाया था। यहां भट्ट का अर्थ योद्धा है। राजस्थान के बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव, भीमतल व झर महादेव हूणो के बनवाये प्रसिद्ध शिव मन्दिर है। बिजोलिया चित्तौड़गढ़ के समीप स्थित मेनाल कभी हूण राजा अन्गती की राजधानी थी, जहां हूणो ने तिलस्वर महादेव का मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। कर्नल टांड के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर पंवार /परमार वंश के हूण राज ने बनवाया था। 
जब अरब के गवर्नर जुनैद ने सन् 735 में सिंधु नदी पार कर गुर्जर देश (वर्तमान राजस्थान) की राजधानी भीनमाल पर हमला कर तहस-नहस कर दिया तथा भगवान् शिव के सोमनाथ मन्दिर को क्षति पहुंचायी, तब गुर्जर प्रतिहार राजा नागभटट् प्रथम ने जुनैद को मार डाला तथा नागभटट् द्वितीय ने सन् 815 में सोमनाथ के मन्दिर को बनवाया। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने सोमनाथ के मन्दिर को ही नहीं बनवाया बल्कि 250 वर्षों तक (735 -1000 ईस्वी) तक अरब हमलावरों को भारत में घुसने नहीं दिया। वो विदेशी हमलावरों के सामने दीवार बन कर खडे हो गए। विष्णु भगवान् के दस अवतारों में राम और कृष्ण का अलग ही महत्व है, भारतीय समाज इन्हें अवतार नहीं बल्कि भगवान् के रूप में देखता है, मर्यादा पुरुषोत्तम राम जहां लोगों के घट-घट में समाये है वही योगराज कृष्ण का गीता का उपदेश सदियों से भारतीयों का मार्गदर्शन करता रहा है, जब भी किसी ने कोई बड़ा कार्य किया है तब ही भारत के विद्वानों ने उसे राम से जोड़ा है। अतः गुर्जर प्रतिहार राजाओं के द्वारा जो भारत को सेवा प्रदान की गई, उसी कारण से प्राचीन कवि राजशेखर ने गुर्जर प्रतिहारो को " रघुकुल -तिलक " व "रघु ग्रामिणी" कहा तथा राम के भाई लक्ष्मण से जोड कर देखा गया है। लक्ष्मण को राम का प्रतिहारी कहा गया है, उसी रूप में गुर्जर प्रतिहार राजाओं को भी देश के प्रतिहारी के रूप में देखा गया।

In Sanskrit texts, the ethnonym has sometimes been interpreted as "destroyer of the enemy": gur meaning "enemy" and ujjarmeaning "destroyer").
मथुरा में कृष्ण जी से जोड़ने के लिए राजा नन्द को गुर्जर बताया गया, बरसाना गांव आज भी गुर्जरों का है, राधा को गुर्जरी बताया गया। पुष्कर के तीर्थ पर ब्रह्म जी का भारत में अकेला मन्दिर है, पदम पुराण में कथा है कि गायत्री जो कि गुर्जर कन्या थी, हवन में ब्रह्म जी की पत्नी के रूप में बैठी तथा गायत्री के नाम पर गायत्री मंत्र है जो कि सूर्य का ही मन्त्र है। आगे चलकर जब शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ तो भारत के विद्वानों ने शिवाजी को भी चित्तौड़ के राणा कुम्भा से मिलाते हुए भगवान् राम से जोड़ा। 
गुर्जर प्रतिहारो के शासन के पतन के पश्चात जब उत्तर पश्चिम से हमले प्रारम्भ हुए, तो सन् 1000 से लेकर सन् 1400 तक भारतीय राजाओं ने संघर्ष तो किया, परन्तु विदेशी हमलावरों के सामने एकत्र होकर प्रतिकार न कर सके। सर्वप्रथम चित्तौड़ के राणा कुम्भा ने सफल प्रयास किया तथा राजपूत संघ का निर्माण कर राजपूत जाति को अस्तित्व प्रदान किया तथा राजपूत साम्राज्य की सुदृढ़ नींव रखी। राणा कुम्भकरण ने कुम्भलगढ के विशाल दुर्ग का निर्माण कराया, जिसकी दीवार विश्व में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। चित्तौड़ में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया तथा सन् 1449 में वराह अवतार का भव्य मंदिर बनवाया। मूल रूप से इस मन्दिर में वराह की मूर्ति स्थापित थी, लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा मूर्ति खण्डित कर दिए जाने पर वहां कुम्भा स्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर दी गई। वराह को युद्ध में विजय का देवता माना गया है। उपरोक्त सभी वराह के अनुयायी देवो के देव भगवान् शिव के उपासक रहे हैं।
राणा कुम्भा के पौत्र व रायमल के पुत्र राणा सांगा ने अपने पराक्रम से विधर्मियों के काले बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया। राणा सांगा ने अपने भगवान् देवनारायण के मंदिर की स्थापना करवायी, यह मंदिर महाराणा कुम्भा के महलों के उत्तरी भाग में मुख्य सड़क पर आज भी स्थित है। भगवान् देवनारायण गुर्जरों के देवता हैं। सांगा युद्ध में जाने से पूर्व अपनी सेना के साथ भगवान् देवनारायण की पूजा करते थे। सांगा ने मालवे के महमूद खिलजी को परास्त कर चित्तौड़ दुर्ग के कारागृह में डाल दिया। जब मुगल हमलावर बाबर ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद बयाना की ओर कदम बढ़ाया तो राणा सांगा ने उसका रास्ता रोक दिया तथा फतेहपुर सीकरी में राणा सांगा ने बाबर की सेना को हरा दिया, बाबर की भेदनीति की सफलता के कारण राणा सांगा खानवा का युद्ध हार गये। परन्तु बाबर युद्ध जितने के बाद भी मेवाड़ की एक इंच भूमि नहीं ले पाया। राणा सांगा अपनी सेना के साथ रात में अलाव जलाकर बगड़ावत गाते और दिन में युद्ध में दुश्मनों के छक्के छुडा देते थे।
सन् 1528 में बाबर की सेना ने रामजन्मभूमि पर मस्जिद बना दी। भारत में मुगल सत्ता स्थापित हो गई तथा अकबर के साथ राणा सांगा के पौत्र राणा प्रताप ने अंतिम साँस तक संघर्ष किया। राणा प्रताप के संघर्ष ने भारतीयों में नये जोश का संचार कर दिया, राणा प्रताप भारतीयों के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उभरे। राणा प्रताप की दिखाई राह पर चलकर शिवाजी ने मुगल सत्ता से जमकर लौहा लिया तथा सन् 1191 के तराईन के युद्ध में गोरी पर पृथ्वीराज चौहान की विजय के 480 वर्ष बाद सन् 1672 में सलहेर के युद्ध में शिवाजी के सेनापति प्रताप राव गुर्जर ने मुगल सेना को परास्त कर दिया। एक समय ऐसा आया कि सम्पूर्ण भारत पर मराठा राज्य स्थापित हो गया। अंग्रेजों ने भारत का राज्य मराठों से ही छीना था, सन् 1857 में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध क्रांति का बिगुल 10 मई को बज गया, जिसमें लगभग तीन लाख भारतीय शहीद हुए, इस क्रांति का प्रारम्भ मेरठ से हुआ, जिसमें मेरठ के कोतवाल धनसिंह गुर्जर के साथ स्थानीय गुर्जर जाति ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ आगे बढ़कर भाग लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया, ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के हाथ में शासन चला गया। भारत में लोकतंत्र प्रणाली प्रारम्भ हो गई। देश सन् 1947 में आजाद हो गया, लेवा गुर्जर पाटीदार समाज में एक किसान के घर जन्में सरदार पटेल भारत के गृहमंत्री बने, उन्होंने भगवान् शिव के सोमनाथ मन्दिर का भव्य निर्माण करवा दिया तथा 562 रियासतों का विलय कर एक शक्तिशाली भारत का निर्माण किया। 6 दिसम्बर सन् 1992 को बाबरी मस्जिद के ढांचे को हटा दिया गया, भव्य राम मन्दिर बनना अभी शेष है। सोमनाथ मन्दिर का निर्माण करने वाले सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा का अनावरण 31 अक्टूबर सन् 2018 को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने किया। 
संदर्भ ग्रंथ 
1- डॉ सुशील भाटी -(क)वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण। 
(ख)जम्बू दीप का सम्राट कनिष्क कोशानो। 
(ग)सम्राट कनिष्क का शाही निशान। 
(घ)शिव भक्त सम्राट मिहिर कुल हूण। 
2- विद्याधर महाजन -प्राचीन भारत का इतिहास।

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