शनिवार, 24 अगस्त 2019

भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में धर्म, जाति व वंश का योगदान (अंग्रेजों का शासक के रूप में सन् 1757 से लेकर सन् 1947 तक ) -लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

बंगाल मुगल साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था। परन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रांतों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। जिसमें अलवर्दी खाँ ने बंगाल पर अपना अधिकार कर लिया। उनके कोई पुत्र नहीं था। सिर्फ तीन पुत्रियाँ थी। बड़ी लड़की  नि:सन्तान थी। दूसरी और तीसरी से एक- एक पुत्र थे। जिनमें एक का नाम शौकतगंज, और सिराजुद्दौला था। वे सिराजुद्दौला को अधिक प्यार करते थे। इसलिए अपने जीवन काल में ही उसने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। 10 अप्रैल 1756 को अलवर्दी की मृत्यु हुई और सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना।
बंगाल की प्राचीन परम्परा के अनुसार अगर कोई नया नवाब गद्दी पर बैठता था तो उस दिन दरबार लगता था और उसके अधीन निवास करने वाले राजाओं, अमीरों या विदेशी जातियों के प्रतिनिधियों को दरबार में उपस्थित हो कर उपहार भेट करना पड़ता था। जिस का मतलब यह होता था कि वे नये नवाब को स्वीकार करते हैं। परन्तु सिराजुद्दौला के राज्यभिषेक के अवसर पर अंग्रेजों का कोई प्रतिनिधि दरबार में हाजिर नहीं हुआ। इसके चलते भी दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया।
इस तरह की बातों पर नवाब क्रोधित हो उठा और 4 जुन 1756 को अंग्रेजों पर  आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सैनिक इस आक्रमण से घबड़ा गए और अंग्रेजों की पराजय हुई । इसके बाद नवाब ने शिघ्र ही कलकत्ता के फोर्ट विलिय पर आक्रमण किया, यहाँ अंग्रेज सैनिक भी नवाब के समक्ष टीक नहीं पाये और इसपर भी नवाब का अधिकार हो गया। इस युद्ध में काफी अंग्रेज सैनिक गिरफ्तार किये गये।
उपर्युक्त लड़ाई में नवाब ने 146 अंग्रेज सैनिकों को कैद कर लिया तथा अंग्रेज सैनिकों को  एक छोटी सी अंधेरी कोठरी में बन्द कर दिया,जिसकी लम्बाई 18 फिट और चौड़ाई 14 या 10 फिट थी। यह कोठरी अंग्रेजों के द्वारा बनायी गयी थी और इसमें भारतीय अपराधियों को बन्द किया जाता था। इस कमरे में बंद 123 अंग्रेज सैनिकों की मृत्यु दम घुटने के कारण हो गई और 23 सैनिक बचे जिसमें हाँवेल एक अंग्रेज सैनिक भी था। उसीे ने इस घटना की जानकारी मद्रास में उपस्थित अंग्रेजों को दी।
इसी समय अंग्रेजों ने नवाब को हटाने के लिए एक षडयंत्र रचा। इसमें नवाब के भी कई लोग शामिल थे। जैसे-  प्रधान सेनापति मीरजाफर आदि। अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाने का प्रलोभन दिया और इसके साथ गुप्त संधि की, इस संधि के पश्चात नवाब पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होने अली नगर की संधि का उलंघन किया है और उसी का बहाना बनाकर अंग्रेज ने नवाब पर 22 जुन 1757 को आक्रमण कर दिया। प्लासी युद्ध के मैदान में घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ मीरजाफर तो पहले ही अंग्रेजों से संधि कर चुका था फलत: नवाब की जबरदस्त पराजय हुई। अंग्रेजों की विजय हुई। नवाब की हत्या कर दी गई और मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया।
इस सफलता के साथ अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन की शुरुआत कर दी।

दूसरी ओर सन् 1801 में महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के राजा बन गए।सन् 1802 में रणजीत सिंह ने सियालकोट पर अधिकार कर लिया।
सन् 1803 में द्वितीय मराठा और अंग्रेज़ों के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेज जीत गए। दिल्ली के आसपास का इलाका अंग्रेजों के अधीन हो गया। 
सन् 1806 में महाराजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से संधि कर ली कि वह सतलज नदी के पार दखल नहीं देंगे। अँग्रेज उनके क्षेत्र में दखल न दे। महाराजा रणजीत सिंह सासी जाति के थे। क्योंकि सासी जाति आबादी में बहुत कम थी, इसलिएउनके प्रशासन में जट जाति की अधिकता के कारण उन्हें सासी जट भी कहते हैं। महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति हरि सिंह नलवा ने सन् 1807 में कसूर, सन् 1818 में मुल्तान को जीत लिया।
इधर मेवाड़ के राणा भीम सिंह ने अपनी बेटी कृष्णा की सगाई मारवाड के राजकुमार भीम सिंह से कर दी थी। परन्तु सगाई के कुछ महीनों बाद ही राजकुमार भीम सिंह की मृत्यु हो गई। अब राणा भीम सिंह ने राजकुमारी कृष्णा की सगाई जयपुर के राजकुमार जगत सिंह के साथ करने की व्यवस्था की। इस पर जोधपुर वाले नाराज हो गए। उनका कहना था कि राजकुमारी कृष्णा की शादी जोधपुर ही होनी चाहिए। इस बात को लेकर जयपुर व जोधपुर में युद्ध के हालात बन गए। इस संघर्ष में शिंदे, होल्कर व टोंक के पठान अमीर खान पिंडारी भी शामिल हो गए। अमीर खान पिंडारी ने उदयपुर के राणा भीम सिंह को धमकी दी कि वह राजकुमारी कृष्णा को विष देकर मार डाले। नहीं तो वह उदयपुर को बर्बाद कर देगा। 16 जुलाई सन् 1810 को राजकुमारी कृष्णा को जहर खिला कर मार डाला गया। राजकुमारी कृष्णा के आत्मबलिदान के बाद उसकी माता महाराणी चावडी ने भी अपनी पुत्री के वियोग में कुछ दिनों बाद ही प्राण त्याग दिए। इतिहास फिर अपने आप को दोहरा रहा था। जिस प्रकार सन् 1562 में आमेर के राजा भारमल ने अकबर से संधि की थी, उस समय भारमल का बेटा अजमेर के जागीरदार की कैद में था, उसी प्रकार उदयपुर के राणा भीम सिंह अपनी बेटी कृष्णा के बलिदान से लडखडा गये थे। एक राजा अपनी पुत्री के जीवन की रक्षा नहीं कर पाया था, अपनी प्रजा की रक्षा क्या करता। समय की गम्भीरता को देखते हुए उदयपुर के राणा भीम सिंह ने सन् 1817 में अंग्रेजों से संधि कर ली। यह किसी भारतीय राजा की अंग्रेजों से पहली संधि थी। सन् 1818 में अंग्रेजों ने पेशवा को परास्त करने के लिए तत्कालीन छत्रपति प्रताप सिंह को विश्वास में लेकर पेशवा पद को समाप्त करवा दिया। अब संघर्ष के समय गायकवाड़, होल्कर सहित अन्य मराठा पेशवा से अलग हट गए, इन परिस्थितियों में अंग्रेजों ने पेशवा को परास्त कर सम्पूर्ण क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया। राजस्थान की तथा देश की अन्य रियासतों ने ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि कर अधिनता स्वीकार कर ली। मुगल सत्ता का भार उतरा भी न था कि अंग्रेजी सत्ता का अतिक्रमण हो गया। लेकिन भारतीयों ने अंग्रेजी सत्ता का तुरंत विरोध प्रारंभ कर दिया। सन् 1822 में वर्तमान हरिद्वार जिले में स्थित कुंजा-बहादुरपुर के गूजर किसानों ने अपने नेता विजय सिंह - कल्याण सिंह के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष किया। इस संघर्ष में विजय सिंह - कल्याण सिंह सहित सैकड़ों किसानों की शहादत हो गई। सन् 1834 में हरि सिंह नलवा ने पेशावर व सन् 1836 में खैबर हिल्स में जमरूद को जीत लिया। नलवे ने अफगान सेना को खैबर दर्रे के उस पार खदेड़ दिया। जहां से भारत पर सैकड़ों वर्ष से हमले होते आ रहे थे। सन् 1839 में शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद खालसा सेना में अव्यवस्था फैल गई और सन् 1845 में अंग्रेजों और सिक्खों के बीच युद्ध हुआ। आपसी मनमुटाव के कारण सिक्ख सेना के सेनापति लाल सिंह अपनी सेना लेकर लाहौर चले गए। जम्मू के राजा गुलाब सिंह का झुकाव भी अंग्रेजों की ओर हो गया। अंग्रेज राजनैतिक पेतरेबाजी से युद्ध जीत गये। अंग्रेजों ने सिक्खों पर डेढ़ करोड़ रुपये का युद्ध जुर्माना लगाया। 50 लाख रूपये तो सिक्खों ने दे दिए। कश्मीर व लेह-लद्दाख का क्षेत्र 75 लाख रुपये में जम्मू के राजा गुलाब सिंह को दे दिया गया। अब सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था। 
ऊधर महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले जी ने अपनी धर्म पत्नी सावित्री बाई के साथ मिलकर सन् 1848 में लड़कियों को पढ़ाने के लिए बालिका विद्यालय की स्थापना की। यह भारत में लड़कियों के लिए पहला विद्यालय था। सन् 1852 में अछूत बालिकाओं के लिए विद्यालय की स्थापना की।  सन् 1852 में ही महिला मंडल का गठन किया और भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुवा सावित्री बाई बनी। सन् 1855 में मजदूरों को शिक्षित करने के उद्देश्य से रात्रि पाठशाला खोली। दूसरी ओर अंग्रेजों ने भी भारतीयों में अपना सामाजिक आधार बनाने के लिए ईसाई मिशनरियों के माध्यम से प्रयास प्रारम्भ कर दिये। मिशनरियों के सम्पर्क में आकर कुछ भारतीय ईसाई बन गए। अब फिर हिंदू की परिभाषा बदली। अब कहां गया कि गैर मुस्लिम व गैर ईसाई हिंदू है। अंग्रेजों ने भारतीयों को अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने के प्रयास प्रारम्भ कर दिये। 
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में कलकत्ता मदरसा औरबनारस संस्कृत कालेज उच्च शिक्षाकेंद्र के रूप में स्थापित हुए। सन् 1845 ई. में बंगाल काउंसिल ऑफ एजूकेशन ने पहली बार कलकत्ते में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए प्रस्ताव पास किया जिसे आगे चलकर सन् 1854 ई. के वुड के घोषणापत्र ने स्वीकार किया। इसके अनुसारकलकत्ता विश्वविद्यालय की योजना लंदन विश्वविद्यालय के आदर्श पर बनाई गई थी और उसमें कुलपति, उपकुलपति, सीनेट, अध्ययन-अध्यापन, परीक्षा, आदि की व्यवस्था की गई। सन् 1856 ई. तक कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए योजनाएँ तैयार हो गईं और 24 जनवरी 1857 ई. को तत्संबंधी बिलों को भारत के गवर्नरजनरल की स्वीकृति प्राप्त हो गई। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने पहले कार्य आरंभ किया और बाद में उसी वर्ष बंबई तथा मद्रास विश्वविद्यालय ने। 
लेकिन अंग्रेज भारतीयों के जुझारू व्यक्तित्व से अनजान थे जिसका प्रकटीकरण सन् 1857 की 10 मई को मेरठ में हुआ। मेरठ की छावनी में अंग्रेज सैनिक भारतीय सैनिकों से अधिक थे। हथियार भी अंग्रेज सैनिकों के पास अधिक थे, लेकिन मेरठ के सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर के माध्यम से पूरी गुर्जर जाति ने मेरठ में सेना का सहयोग कर हमला कर दिया। 27 जून 1857 को किला परि क्षत गढ़ के क्रांतिकारी राव कदम सिंह ने बरेली के क्रांतिकारी नेता बखत खां की सेना को गंगा पार करा कर दिल्ली जाने का मार्ग साफ कर दिया। मेरठ में दो जेल 10 मई की रात को तोड दी गई। नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस (आधुनिक उत्तर प्रदेश) में 27 जेल तोड दी गई। पूरे भारत में 41 जेल तोड दी गई, भारत में सन् 1857 में एक लाख पचास हजार भारतीय सैनिक थे। 45 हजार अँग्रेज सिपाही थे, 70 हजार भारतीय सैनिकों ने क्रांति में भागीदारी की, लेकिन इन 70 हजार सैनिकों के साथ जब भारतीय जनता ने भागीदारी की तो इस क्रांति पर काबू पाने के लिए एक लाख बारह हजार सैनिक यूरोप से बुलाये गए, तीन लाख चालीस हजार सैनिक भारत से ही भर्ती किए गए।भारत को आजाद कराने के लिए बहादुर शाह जफर द्वितीय, मिर्जा मुगल, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई,रानी अवंतिबाई लोधी, नाना साहब पेशवा, ब्रिजिश कदर,तात्या टोपे, बेगम हजरत महल, अवध, बाबू कुंवर सिंह, बल्लभगढ़ के नाहर सिंह, राव तुलाराव, शाहमल सिंह, दादरी के उमराव सिंह भाटी जी-जान से लडे, वही कुछ रजवाड़े खुलकर अंग्रेजों के साथ खडे हो गए। जिनमें जयपुर, बीकानेर, मारवाड़ (जोधपुर), रामपुर, कपूरथला, नाभा, भोपाल, सिरोही, मेवाड़ (उदयपुर), पटियाला, सिरमौर, अलवर, भरतपुर, बूंदी, जावरा, बीजावर, अजयगढ, रीवा, केन्दूझांड, हैदराबाद, कश्मीर मुख्य रूप से थे। एक नवंबर सन् 1858 तक चले इस युद्ध में लाखों भारतीय शहीद हुए। भारतीय अंग्रेजों को भारत से तो बाहर ना कर पाए, परन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से सत्ता निकल कर रानी विक्टोरिया के हाथ में चली गई।भारतीयों की इस हार से भारतीय समाज का वह चेहरा सामने आया, जिसमें अपने स्वार्थ के सामने देश धर्म के मुद्दे गोण थे।
सन् 1873 मे ज्योतिबा फुले ने सत्य शोधक समाजनामक संस्था की स्थापना की। विधवा विवाह की परम्परा शुरू की गई। 
भारतीय समाज के  बिखराव को समाप्त करने के लिए सन् 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वामी दयानंद जी ने ही सर्वप्रथम स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया। आर्य समाज ने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन का शंखनाद किया, जैसे -जातिवादी जडमूलक समाज को तोडना, महिलाओं के लिए समान अधिकार, बाल-विवाह का उन्मूलन, विधवा विवाह का समर्थन, निम्न जातियों को सामाजिक अधिकार दिलवाना आदि। स्वामी दयानंद जी ने कहा कि जनता का विकास और प्रगति सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा सर्वोत्तम साधन है।स्वामी दयानंद ने ब्राह्मणों द्वारा फैलाये, प्रत्येक पाखंड पर जोरदार प्रहार किया। वह सत्य व समानता की स्थापना के लिए अपनी पूरी ताकत से लडे। इस संघर्ष को करते हुए स्वामी जी की मृत्यु ३० अक्टूबर १८८३ को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हो गई। 
सन् 1885 के प्रारंभ तक आर्यसमाज की अमृतसर शाखा ने दो महिला विद्यालयों की स्थापना की घोषणा की थी। 
सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। कांग्रेस को भारतीयता के हित के लिए संघर्ष करने में आर्यसमाज की बहुत बड़ी भूमिका रही है। 
सन् 1888 में मुंबई की एक विशाल सभा में ज्योतिबा फुले को महात्मा की उपाधि दी गई। 28 नवंबर सन् 1890 को महात्मा फुले की मृत्यु हो गई। 
सन् 1891 में अंग्रेजी शासन ने एक सेंसस कराया।सन् 1891 की भारतीय जनगणना में खास बात यह थी की इसमें व्यवसाय के आधार पर जनसख्या की गिनती की गई थी | 1891 की भारतीय जनगणना के उच्च आयुक्त ए. एच. बैंस ने भारतीय जनसख्या को कृषक, पशुपालक, पेशेवर, व्यापारी, कारीगर, घुमंतू आदि 21 वर्गों में विभाजित किया हैं| इसमें प्रथम कृषक वर्ग (Agricultural Class) को पुनः तीन भाग में विभाजित किया गया हैं- 1. सैनिक एवं प्रभू जाति  (Military and Dominant) 2. अन्य कृषक (Other Cultivators) 3. खेत मजदूर (Field Labourers).
ए. एच. बैंस लिखते हैं कि जनसख्या का 30% भाग कृषक वर्ग के अंतर्गत आता हैं, जिसके प्रथम सैनिक भाग में वो जातियां और कबीले आते हैं जिन्होंने इतिहास के विभिन्न कालो में अपने प्रान्तों में शासन किया हैं|1891 की भारतीय जनगणना में  सैनिक एवं प्रभू जातियां जनसख्या का लगभग 10 % थी|
1891 की भारतीय जनगणना की जनरल रिपोर्ट के अनुसार भारत में चौदह सैनिक जातियां और कबीले हैं| 1. राजपूत  (Rajput)
2. जाट (Jat) )
3. गूजर (Gujar)
4. मराठा (Maratha)  
5. बब्बन (Babban) 
6. नायर (Nair)
7. कल्ला (Kalla) 
8. मारवा (Marwa)
9. वेल्लमा (Vellama) 
10.  खंडैत (khandait)
11.  अवान (Awan)
12.  काठी (Kathi)
13.  मेव (Meo) 
14. कोडगु (Kodagu)
इस सेंसस के माध्यम से अंग्रेज अपनी सेना में भर्ती के लिए सैनिक कहा से ले, भारतीय समाज में उसका आधार तलाश रहे थे। क्योंकि विश्व विजय के लिए उन्हें लाखों सैनिकों की आवश्यकता थी। 
अपने राजनीतिक वर्चस्व के साथ वैचारिक वर्चस्व भी संसार में स्थापित हो, उसके लिए अंग्रेजों ने सन् 1893 में शिकागो में विश्व के सभी धर्म गुरुओं को बुलाकर एक धर्म संसद का आयोजन किया। जिसमें हिंदू धर्म का पक्ष रखने के लिए भारत से भी हिंदू धर्म गुरु जाने थे। धर्म संसद में भाग लेने के लिए प्रतिभाशाली वक्ता भेजने पर जब विचार हुआ तो फिर से जाति की श्रेष्ठता समानता के सिद्धांत पर हावी हो गई। स्वामी विवेकानंद जी उस समय के सबसे श्रेष्ठ विद्वान व वक्ता थे। उनका अंग्रेज़ी व संस्कृत भाषा पर बड़ा अध्ययन था। परन्तु ब्राह्मणों ने कहा कि स्वामी विवेकानंद कायस्थ जाति से है, कायस्थ जाति शुद्र वर्ण में आती है,शुद्र बताने के पीछे फिर वही यज्ञोपवीत संस्कार का ना होना कारण था। इस कारण विवेकानंद जी के नाम की स्वीकृति नहीं की । ब्राह्मणों ने दूसरे लोग शिकागो धर्म संसद में भेज दिए। स्वामी विवेकानंद जी अपने शिष्यों के द्वारा एकत्र किए गए साधनों के माध्यम से शिकागो पहुंच गए। अपने निजी प्रयास से उन्होंने धर्म संसद में भाग लिया तथा भारतीय धर्म का समानता की मान्यता वाला पक्ष रखा। उनकी बातों को इतना महत्व मिला कि वह धर्म संसद के प्रथम श्रेणी में माने गये। दूसरी ओर जो भारतीय धर्म के मालिक बनकर गये थे, उनका कोई नाम तक भी नहीं जानता। कहने का तात्पर्य यह है कि रेस (जाति) की सर्वोच्चता की विचारधारा न तो भारत में ही पसंद थी, ना दुनिया ने ही पसंद की। स्वामी जी वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका  स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित  विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से  सनातन धर्म (शैव धर्म) का प्रतिनिधित्व किया था।भारत का आध्यात्मिकता (ध्यान व समाधि) से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने  रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है।विवेकानंद जी की मृत्यु 4 जुलाई सन् 1902 को हो गई।
भारतीय समाज में साहू महाराज को भारत में सच्चे प्रजातंत्रवादी और समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है । वे कोल्हापुर के इतिहास में एक अमूल्य मणि के रूप में आज भी प्रसिद्ध हैं। छत्रपति साहू महाराज ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने राजा होते हुए भी दलित और शोषित वर्ग के कष्ट को समझा और सदा उनसे निकटता बनाए रखी। उन्होंने दलित वर्ग के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू की थी। ग़रीब छात्रों के छात्रावास स्थापित किये और बाहरी छात्रों को शरण प्रदान करने के आदेश दिए। साहू महाराज के शासन के दौरान 'बाल विवाह' पर ईमानदारी से प्रतिबंधित लगाया गया। उन्होंने अंतरजातिय विवाह और विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में समर्थन की आवाज़ उठाई थी। इन गतिविधियों के लिए महाराज साहू को कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। साहू महाराज ज्योतिबा फुले से प्रभावित थे और लंबे समय तक 'सत्य शोधक समाज', फुले द्वारा गठित संस्था के संरक्षण भी रहे।
छत्रपति साहू महाराज 1894 ई. में कोल्हापुर रियासत के राजा बने। वे छत्रपति शिवाजी के वंश से थे।अपने को उच्च जाति का समझने वाले लोगों ने उनके द्वारा किए गए जनहित के कार्यों का  विरोध किया। वे छत्रपति साहू महाराज को अपना शत्रु समझने लगे।
सन् 1896 में अकाल पड़ा एवं सन् 1897 में पुणे में फैले प्लेग के समय सावित्री बाई फूले ने पीड़ितों के बीच में जाकर राहत कार्य किए। प्लेग से पीडि़त एक छोटे बच्चे को अस्पताल ले जाते समय प्लेग ने इन्हें भी घेर लिया और 10 मार्च सन् 1897 को सावित्री बाई फूले का निधन हो गया।
छत्रपति साहू महाराज ने दलित विरोध का डट कर सामना किया। 1902 में उन्होंने अपने राज्य में आरक्षण लागू कर दिया जो एक क्रांतिकारी क़दम था, उन्होंने सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जाति के लोगों को आरक्षण देने का फ़ैसला किया.
यह एक ऐसा फ़ैसला था जिसने आगे चलकर आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था करने की राह दिखाई. उन्होंने अपने शासन क्षेत्र में सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी तरह के छूआछूत पर क़ानूनन रोक लगा दी थी।
उस दौर में ज़्यादातर लोग गंभीरता से मानते थे कि किसी दलित के छू जाने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, दलितों को मंदिरों और कई सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोका जाता था।
कांग्रेस के माध्यम से भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार सेब्रिटिश भारत के शासन में भारतीयों के प्रतिनिधित्व /आरक्षण की मांग करनी प्रारम्भ की। समय व्यतीत होता रहा, सन् 1912 को ब्रिटिश सरकार ने राजधानी कलकत्ता से बदल कर दिल्ली को बनाया। सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया, इस युद्ध में कांग्रेस ने व भारतीय रियासत के राजाओं ने  अंग्रेजी शासन का भरपूर सहयोग किया, ताकि अंग्रेज भारतीयों के प्रति सहानुभूति पूर्वक विचार कर सके। ब्रिटिश सरकार ने अब भारतीयों द्वारा की जा रही प्रतिनिधित्व /आरक्षण की मांग पर विचार कर सन् 1918 में  साउथबरो कमीशन को भारत भेजा, इस कमीशन के माध्यम से भारतीय नेताओं से बातचीत कर प्रतिनिधित्व/आरक्षण किस प्रकार से दिया जाय, इसकी रिपोर्ट ब्रिटिश सरकार को देनी थी,  उस समय बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के नेता थे, जब साउथ बोरा कमेटी ने भारत के नेताओं से बात कर मेमोरेंडम मांगा तो डा अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति के लिए तथा भास्कर राव जाधव ने पिछडी जाति के लिए विधि मंडल में प्रतिनिधित्व /आरक्षण के लिए ज्ञापन दिया।सन् 1919 में  साउथबरो कमिशन की सिफारिश पर ब्रिटिश सरकार ने विधि मंडल में अछूतों के प्रतिनिधित्व के लिए डा अम्बेडकर व गुजरात के डा पी जी सोलंकी को नामित किया। जो कानून भारत में पहले से चले आ रहे थे उनके स्थान पर आईपीसी (इंडियन पैनल कोर्ट ) लागू कर दिया तथा प्रतिनिधित्व /आरक्षण की समीक्षा हर दस साल में करने का प्रावधान रखा। यह भारत के हजारों साल के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना थी कि किसी अछूत को भी कानून बनाने के लिए विधि मंडल में प्रतिनिधित्व /आरक्षण दिया गया था।

अपनी मृत्यु से दो साल पहले 1920 में शाहू जी महाराज ने नागपुर में 'अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद' की बैठक में न सिर्फ़ हिस्सा लिया उन्होंने एक दलित से चाय बनवाकर पी, ऐसा उन्होंने कई मौक़ों पर किया.
जिस समाज में छूआछूत को धर्म और परंपरा माना जाता था उस समाज में छत्रपति शिवाजी के वशंज का ऐसा करना नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था, उस पर बहुत चर्चा होती थी, यही शाहू जी महाराज भी चाहते थे कि चर्चा के बाद ही जागरुकता आएगी।
1920 में ही उन्होंने दलित छात्रों के लिए एक हॉस्टल के निर्माण का शिलान्यास किया.
गंगाराम नाम के एक दलित कर्मचारी शाहूजी  महाराज के कर्मचारियों के लिए बने क्वार्टर में रहते थे. एक बार राजमहल के भीतर बने तालाब के पास एक मराठा सैनिक संताराम और ऊंची जाति के कुछ लोगों ने गंगाराम कांबले को बुरी तरह पीटा, उनका कहना था कि दलित गंगाराम ने तालाब का पानी छूकर उसे अपवित्र कर दिया था.
उस वक़्त शाहूजी महाराज कोल्हापुर में नहीं थे, जब वे लौटकर आए तो गंगाराम ने रोते-रोते अपनी पूरी बात उन्हें बताई. इस पर शाहूजी बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने संताराम को घोड़े के चाबुक से पीटा और नौकरी से निकाल दिया। इसके बाद उन्होंने गंगाराम से कहा कि मुझे दुख है कि मेरे राजमहल के भीतर ऐसी घटना हुई. उन्होंने गंगाराम कांबले से कहा कि तुम्हें अपना काम शुरू करना चाहिए. इसके बाद शाहूजी महाराज ने उन्हें पैसे दिए जिससे चाय की दुकान की शुरूआत हुई. ये कोई मामूली बात नहीं थी.गंगाराम कांबले ने अपनी दुकान का नाम 'सत्यसुधारक' रखा, उनके दुकान की सफ़ाई और चाय का स्वाद बेहतरीन था लेकिन उच्च जाति के लोगों ने उनका बहिष्कार किया, वे बहुत नाराज़ थे कि एक दलित चाय पिला रहा है।
जब ये बात शाहूजी महाराज को पता चली तो उन्होंने चाय पीकर इस धारणा को चुनौती देने का फ़ैसला किया। शाहूजी अच्छी तरह समझते थे कि समाज आदेशों से नहीं बल्कि संदेशों और ठोस पहल से बदलता है.
शाहूजी महाराज न सिर्फ़ खुद चाय पीते, उच्च जाति के अपने कर्मचारियों को भी वहीं चाय पिलवाते, अब किसकी मजाल की राजा को ना कहे। 10 मई सन् 1922 को साहू महाराज की मृत्यु हो गई।
इस समय तक महात्मा गांधी, डा अम्बेडकर व बाल गंगाधर तिलक तथा आरएसएस के संस्थापक डा हेडगेवार जैसे नेताओं का पदार्पण भारतीय राजनीति में हो गया था। 
 बाल गंगाधर तिलक, एक भारतीय राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और एक स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता हुए; ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी उन्हें "भारतीय अशान्ति के पिता" कहते थे। उन्हें "लोकमान्य" का आदरणीय शीर्षक भी प्राप्त हुआ, जिसका अर्थ हैं लोगों द्वारा स्वीकृत (उनके नायक के रूप में)।इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है।
तिलक ब्रिटिश राज के दौरान स्वराज के सबसे पहले और मजबूत अधिवक्ताओं में से एक थे, तथा भारतीय अन्तःकरण में एक प्रबल आमूल परिवर्तनवादी थे। उनका मराठी भाषा में दिया गया नारा "स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच" (स्वराज यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा) बहुत प्रसिद्ध है।तिलक ने इंग्लिश मेमराठा दर्पण व मराठी में केसरी नाम से दो दैनिक समाचार पत्र शुरू किये जो जनता में बहुत लोकप्रिय हुए। तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन भावना की बहुत आलोचना की। इन्होंने माँग की कि ब्रिटिश सरकार तुरन्त भारतीयों कोपूर्ण स्वराज दे। केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया।

तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन जल्द ही वे कांग्रेस के नरमपंथी रवैये के विरुद्ध बोलने लगे। 1907 में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गयी। गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे। इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाने लगा। 1908 में तिलक ने क्रान्तिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसकी वजह से उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) स्थित मांडले की जेल भेज दिया गया।
तिलक ने यूँ तो अनेक पुस्तकें लिखीं किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या को लेकर मांडले जेल में लिखी गयी गीता-रहस्य सर्वोत्कृष्ट है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
इतनी विद्वत्ता होते हुए भी जब भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर आम्बेडकर को साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, आम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका और  प्रतिनिधित्व /आरक्षण देने की वकालत की।
साउथबरो कमेटी लंदन से भारत आयी थी। इस कमेटी ने भारत के लोगों के प्रतिनिधित्व के लिए भारत का विधि मंडल बनाने के लिए भारतीयों नेताओं को अपने विचार देने के  लिए कहा, तब अम्बेडकर ने दलितों के प्रतिनिधित्व की मांग की तो बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि तेली, तमोली, कुनबट्टे (कुर्मी) विधी मंडल में जाकर क्या हल चलायेंगे। उनका यह विचार उनके द्वारा ही चलाये जा रहे समाचार पत्र केसरी में छपा।गरीब व दलितों के बारे में ऐसी हल्की बात वह किस प्रकार कह गये। यह बात उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती थी। 1 अगस्त सन् 1920 को तिलक जी की मृत्यु हो गई।
अब भारत की राजनीति में महात्मा गांधी का पदार्पण हो गया था। महात्मा गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले १९१५ में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने ६ जुलाई १९४४ को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुएआज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।
सबसे पहले गान्धी जी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना शुरू किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई।उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था।
भारत के किसान क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) जो उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के निवासी थे, ने राजस्थान जाकर किसान आंदोलन चलाया।  पथिक जी 1916 में बिजौलिया पहुच गए और उन्हौनें आन्दोलन की कमान अपने हाथों में सम्भाल ली। माणिक्य लाल वर्मा ने पथिक जी से प्रभावित होकर बिजौलिया ठिकाने की सेवा से त्यागपत्र दे दिया और आन्दोलन में कूद पडें। 1916 में विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया किसान पंचायत नाम से एक किसान संगठन का गठन किया। प्रत्येक गाॅव में किसान पंचायत की शाखाएॅ खोली गई। किसानों की मुख्य मांगे भूमि कर, अधिभारों एवं बेगार से सम्बन्धित थी। किसानों से 84 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसके अतिरिक्त युद्व कोष कर भी एक अहम मुददा था, एक अन्य मुददा साहूकारों से सम्बन्धित था जो कि जमीदारों के सहयोग और संरक्षण से किसानों को निरन्तर लूट रहे थे। पंचायत ने भूमि कर न देने का निर्णय लिया गया। किसान वास्तव में 1917 की रूसी क्रान्ति की सफलता से उत्साहित थे, पथिक जी ने उनके बीच रूस में श्रमिकों और किसानों का शासन स्थापित होने के समाचार को खूब प्रचारित किया था। विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित पत्र प्रताप के माध्यम से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। विद्वानों का मानना है कि यह भारत का प्रथम किसान आंदोलन था।
सन् 1917 में गुजरात के लेवा गुर्जर पाटीदार समाज में जन्मे सरदार पटेल ने खेड़ा में किसानों के हित के लिए आन्दोलन किया। सरदार पटेल ने महात्मा गांधी जी के साथ मिलकर देश के आजाद होने तक संघर्ष किया। लेवा गुर्जर गुजरात में कणबी जाति समूह में आते हैं। इसलिए कुर्मी भी इन्हें अपनी जाति का मानते हैं।
1920 के दशक में आंबेडकर दोबारा विदेश में पढ़ाई पूरी कर भारत लौटे और सामाजिक क्षेत्र में कार्य करना आरम्भ किया। उस वक्त महात्मा गांधी ने कांग्रेस पार्टी की अगुवाई में आजादी का आंदोलन शुरु कर दिया था।
१९२२ ई. में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी के आने के पश्चात ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था - तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। ऐसी स्थिति में कई हिंदू नेता केरल की स्थिती जानने एवं वहां के लूटे पिटे हिंदुओं की सहायता के लिए मालाबार-केरल गये, इनमें नागपुर के प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ॰ हेडगेवार, आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी आदि थे, उसके थोड़े समय बाद नागपुर तथा अन्य कई शहरों में भी हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए l ऐसी घटनाओं से विचलित होकर नागपुर में डॉ॰ मुंजे ने कुछ प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की बैठक बुलाई, जिनमें डॉ॰ हेडगेवार एवं डॉ॰ परांजपे भी थे, इस बैठक में उन्होंने एक हिंदू संगठन बनाने का निर्णय लिया, उद्देश्य था “हिंदुओं की रक्षा करना एवं हिन्दुस्थान को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनाना”l इस संगठन को खड़े करने की जिम्मेवारी धर्मवीर डॉ॰ मुंजे ने डॉ॰ केशव बलीराम हेडगेवार को दी l
डॉ॰साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये नये-नये तौर-तरीके विकसित किये। हालांकिप्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को अपने पिता-तुल्य गुरु डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, उनके शिष्य डॉ॰ हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक संगठन की नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ दिया गया l
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इस संगठन का आधार बना - वीर सावरकर का राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ (हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी- आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका l पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृता ll
इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”l इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था l मुसलमान व ईसाई इस परिभाषा में नहीं आते थे।यही बात मुस्लिम व ईसाई तो प्रारम्भ से ही कह रहे थे कि गैर मुस्लिम व गैर ईसाई हिंदू है। अतः उनको इस संगठन में ना लेने का निर्णय लिया गया और केवल हिंदुओं को ही लिया जाना तय हुआ, मुख्य मन्त्र था "अस्पृश्‍यता निवारण एवं हिंदुओं का सैनिकी करण ”lहिंदू एकता के लिए संघ में शाखा की पद्धति का निर्माण डा हेडगेवार जी ने किया। उन्होंने कहा कि शहर में 3%व ग्रामीण क्षेत्र में 1%स्वयं सेवक जब एक साथ बैठकर देश व समाज के लिए विचार करने लगेगा, तब भारत की सब समस्याओं का समाधान हो जाएगा। सन् 1925 में ही अम्बेडकर जी ने मनुस्मृति की प्रतियां जलाकर हिंदू समाज से अपना विरोध प्रकट किया। सन् 1927 में साइमन कमिशन भारत आया। साउथ बरो कमीशन (सन् 1918) के दस साल बाद साईमन कमीशन समीक्षा के लिए भारत पहुचा। गाँधी जी ने उसका बहिष्कार कर दिया।साईमन कमीशन के विरोध में भारत में हिंसा भडक गयी, लाला लाजपत राय इस हिंसा में मारे गए। साईमन कमीशन भारत में सर्वे न कर सका। लंदन वापस जाकर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सोप दी, जिस पर यह निर्णय लिया गया कि यदि भारत में बातचीत का माहौल नहीं है तो भारतीय नेताओं को लंदन बुला लिया जाय। परन्तु अम्बेडकर ने कमिशन का सहयोग किया। 14 अगस्त, 1931 को आंबेडकर और गांधी की पहली मुलाकात बंबई के मणि भवन में हुई थी। उस वक्त तक गांधी को यह मालूम नहीं था कि आंबेडकर स्वयं एक कथित ‘अस्पृश्य’ हैं। वह उन्हें अपनी ही तरह का एक समाज-सुधारक ‘सवर्ण’ या ब्राह्मण नेता समझते थे। क्योंकि अम्बेडकर उपनाम ब्राह्मणों का था, भीम राव को यह उपनाम उनके ब्राह्मण अध्यापक का अपना उपनाम दिया हुआ था। शायद इसी उपनाम की वजह से गांधी जी को अम्बेडकर की जाति के विषय में भ्रम बना हुआ था । गांधी जी को यही बताया गया था कि आंबेडकर ने विदेश में पढ़ाई कर ऊंची डिग्रियां हासिल की हैं और वे पीएचडी हैं। दलितों की स्थिति में सुधार को लेकर उतावले हैं और हमेशा गांधी व कांग्रेस की आलोचना करते रहते हैं। ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया।
अंग्रेज़ सरकार द्वारा भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए 1930-32 के बीच सम्मेलनों की एक श्रृंखला के तहत तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये गए थे। ये सम्मलेन मई 1930 मेंसाइमन आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट के आधार पर संचालित किये गए थे।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन (नवंबर 1930 - जनवरी 1931)

पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन को आधिकारिक तौर पर जॉर्ज पंचम ने 12 नवम्बर 1930 को प्रारम्भ किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री,  मैकडॉनल्ड ने की। तीन ब्रिटिश राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व सोलह प्रतिनिधियों द्वारा किया गया। अंग्रेजों द्वारा शासित भारत से ५७ राजनीतिक नेताओं और रियासतों से १६ प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और व्यापारिक नेताओं ने सम्मलेन में भाग नहीं लिया। उनमें से कई नेतासविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण जेल में थे।

मुस्लिम लीग: मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मोहम्मद शफी, आगा खान, मोहम्मद अली जिन्ना, मोहम्मद ज़फ़रुल्ला खान, ए के फजलुल हक।
.हिंदू महासभा: बी एस मुंजे और एम. आर. जयकर उदारवादी: तेज बहादुर सप्रू, सी. वाय. चिंतामणि और श्रीनिवास शास्त्री
सिख: सरदार उज्जल सिंह
केथोलिक (इसाई): ए. टी. पन्नीरसेल्वम
दलित वर्ग : बी.आर.अम्बेडकर
रियासतें: अक़बर हैदरी (हैदराबाद के दीवान), मैसूर के दीवान सर मिर्ज़ा इस्माइल, ग्वालियर के कैलाश नारायण हक्सर, पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह, बड़ोदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय, जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह, भोपाल के नवाब हमीदुल्ला खान, नवानगर के के. एस. रणजीतसिंहजी, अलवर के महाराजा जय सिंह प्रभाकर और इंदौर, रीवा, धौलपुर, कोरिया, सांगली और सरीला के शासक।

एक अखिल भारतीय महासंघ बनाने का विचार चर्चा का मुख्य बिंदु बना रहा। सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी समूहों ने इस अवधारणा का समर्थन किया। कार्यकारिणी सभा से व्यवस्थापिका सभा तक की जिम्मेदारियों पर चर्चा की गई और बी.आर. अम्बेडकर ने अछूत लोगों के लिए अलग से राजनीतिक प्रतिनिधि की मांग की। यह वास्तव मे दलितो के लिए उपहार था।

दूसरा गोलमेज सम्मेलन (सितंबर - दिसंबर 1931)

दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती तेज-तर्रार वकील और विचारक बी आर अंबेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा।

सम्मेलन के दौरान, गांधीजी मुस्लिम प्रतिनिधित्व और सुरक्षा उपायों पर मुसलमानों के साथ कोई समझौता नहीं कर पाए। सम्मेलन के अंत में रामसे मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के संबंध में एक सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की और उसमें यह प्रावधान रखा गया कि राजनीतिक दलों के बीच किसी भी प्रकार के मुक्त समझौते को इस निर्णय के स्थान पर लागू किया जा सकता है।

गांधी ने अछूतों को हिन्दू समुदाय से अलग एक अल्पसंख्यक समुदाय का दर्ज़ा देने के मुद्दे का विशेष रूप से विरोध किया। उनका अछूतों के नेता बी.आर. अम्बेडकर के साथ इस मुद्दे पर विवाद हुआ। अंततः दोनों नेताओं ने इस समस्या का हल 1932 की पूना संधि द्वारा निकाला।

तीसरा गोलमेज सम्मेलन (नवंबर - दिसंबर १९३२)

तीसरा और अंतिम सत्र १७ नवम्बर १९३२ को प्रारम्भ हुआ। मात्र ४६ प्रतिनिधियों ने इस सम्मलेन में भाग लिया क्योंकि अधिकतर मुख्य भारतीय राजनीतिक प्रमुख इस सम्मलेन में मौजूद नहीं थे। ब्रिटेन की लेबर पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस सत्र में भाग लेने से इनकार कर दिया।

इस सम्मेलन में एक कॉलेज छात्र चौधरी रहमत अली ने विभाजित भारत के मुस्लिम भाग का नाम "पाकिस्तान" (जिसका अर्थ है "पवित्र भूमि") रखा। उसने पंजाब का 'पी' पंजाब, अफगान से 'ए', कश्मीर से 'कि', सिंध से "स" औरबलूचिस्तान से "तान" लेकर यह शब्द बनाया। जिन्ना ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया।

सितंबर, १९३१ से मार्च, १९३३ तक, सैमुअल होअरे के पर्यवेक्षण में, प्रस्तावित सुधारों को लेकर प्रपत्र बनाया गया; जिसके आधार पर भारत सरकार का १९३५ का अधिनियम बना।  बीकानेर महाराजा गंगा सिंह ने तीनो सम्मेलनो मे भाग लिया।
महात्मा गांधी ने भारत आकर दलितों को मिले डबल वोट के अधिकार के विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया। आम्बेडकर एवंमहात्मा गांधी के मध्य पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में 24 सितम्बर, 1932 को हुआ था। अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय (कॉम्युनल एवार्ड) में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की।

समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को त्याग दिया गया लेकिन दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 148 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% कर दीं गयीं।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श के फल स्वरूप कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई। जिसके तहत बाबासाहेब द्वारा उठाई गयी राजनीतिक प्रतिनिधित्व की माँग को मानते हुए दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार मिला। एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तथा दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था। दूसरे शब्दों में उम्मीदवार भी दलित वर्ग का तथा मतदाता भी केवल दलित वर्ग के ही।

दलित प्रतिनिधि को चुनने में गैर दलित वर्ग अर्थात सामान्य वर्ग का कोई दखल ना रहा। परन्तु दूसरो ओर दलित वर्ग अपनी दूसरी वोट के माध्यम से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने से अपनी भूमिका निभा सकता था। गाँधी इस समय पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही पहले तो उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने का प्रयास किया, परंतु जब उन्होंने देखा के यह निर्णय बदला नहीं जा रहा, तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी।

डॉ॰ आम्बेडकर ने बयान जारी किया कि "यदि गांधी भारत की स्वतंत्रता के लिए मरण व्रत रखते, तो वह न्यायोचित था। परंतु यह एक पीड़ादायक आश्चर्य है कि गांधी ने केवल अछूत लोगो को ही अपने विरोध के लिए चुना है, जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी (पृथक निर्वाचन के) अधिकार के बारे में गाँधी ने कोई आपत्ति नहीं की।उन्होंने कहा कि गाँधी के प्राण बचाने के लिए वे अछूतों के हितों की बलि नहीं दे सकते। गांधी के प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा। पूरा हिंदू समाज डॉ॰ आम्बेडकर का दुश्मन हुए जा रहा था। एक ओर डॉ॰ आम्बेडकर से समझौते की वार्ताएं हो रहीं थी, तो दूसरी ओर डॉ॰ आम्बेडकर को धमकियां दी जा रही थीं। कस्तूरबा गांधी व उनके पुत्र देवदास गांधी बाबासाहब आम्बेडकर के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे गांधी के प्राण बचा ले।
24 सितम्बर 1932 को साय पांच बजे यरवदा जेल पूना में गाँधी और डॉ॰ आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ। इस समझौते में डॉ॰ आम्बेडकर को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन (जैसा कि आजकल है) पद्धति को स्वीकार करना पडा, परन्तु साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 71 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया। इस समझौते पर हस्ताक्षर करके बाबासाहब ने गांधी को जीवनदान दिया। आम्बेडकर इस समझौते से असमाधानी थे, उन्होंने गांधी के इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। 1942 में आम्बेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया, उन्होंने ‘स्टेट आॅफ मायनॉरिटी’ इस अपने ग्रंथ में भी पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की हैं। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी द्वारा भी इससे पहले कई बार धिक्कार सभाएँ हुई।

मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के नाम से एक पृथक राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना लक्ष्य घोषित कर दिया। अब राजनीतिक भूदृश्य का्फ़ी जटिल हो गया था : अब यह संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहीं रह गया था। अब यह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासन, तीन धुरियों के बीच का संघर्ष था।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन में आंबेडकर की दलीलों के बारे में जानकर गांधी को विश्वास हो चला था कि यह पश्चिमी शिक्षा और चिंतन में पूरी तरह ढल चुका कोई आधुनिकतावादी युवक है, जो भारतीय समाज को भी यूरोपीय नजरिए से देख रहा है। जब दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी व अम्बेडकर का आमना-सामना हुआ, तब गांधी जी ने कहा कि भारत के अछूतों के नेता तो वे है, अम्बेडकर कौन है। तब यह बात साफ हुई। गोलमेज सम्मेलन में अम्बेडकर ने अंग्रेजों के सामने यह तर्क रखा की यदि वो भारत में भारतीयों की एक जिम्मेदार सरकार चाहते हैं तो वह सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व की सरकार होनी चाहिए। जब भारत के मतदाता कौन हो, इस विषय पर विचार हुआ तो तो कुछ भारतीय नेताओं की यह सलाह थी कि भारत का मतदाता आठवीं कक्षा पास, आयकर अदा करने वाला,जमींदार व राजा हो। परन्तु अम्बेडकर ने कहा कि इस मापदंड से भारत की बहुत बड़ी आबादी मतदान से वंचित रह जायेगी। अछूत तो शत-प्रतिशत वंचित रह जायेगे। भारत के किसान जो 90%अनपढ़ है, महिलाएं सब मतदान से बाहर रह जायेगे। अम्बेडकर जी ने भारतीयों के लिए वयस्क भारतीय को मतदाता बनाने का विचार रखा। दलितों के लिए अलग निर्वाचन सीटों का आरक्षण तथा डबल वोटिंग की मांग रखी। जिसमें दलित प्रतिनिधि को दलित मतदाता ही चुनेगा तथा सामान्य प्रतिनिधि के चुनाव में भी मत देगा। अंग्रेजों ने उनकी सब मांगे मान ली। जब गांधी जी को यह मालूम हुआ तो उन्होंने इस फैसले के विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने साफ कह दिया कि हमारी तरफ से बात फाइनल हो गई है, यदि अम्बेडकर चाहे तो समझौता कर सकते हैं। जब गांधी जी की हालत बिगड़ने लगी तो अम्बेडकर ने महात्मा गांधी की बात रखते हुए डबल वोटिंग की मांग छोड़ दी। दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढवा ली, शिक्षा व सरकारी नौकरियों में भी आरक्षण तय हो गया।इस समझौते को ही  पूना पैक्ट कहा गया है। अब अम्बेडकर ने कहा कि इस प्रक्रिया से चुने गए दलित प्रतिनिधि दलितों के प्रतिनिधि नहीं होगे बल्कि दलित वर्ग में जन्म लिए होने के कारण दलितों में दूसरी जातियां जो इन्हें मत देकर जितायेगी, उनके उपकरण होगे। अम्बेडकर जी ने इस समझौते को दलितों के ऊपर महात्मा गांधी की नाइंसाफी बताया।
गांधी जी, हेडगेवार जी,  व आर्यसमाज जाति, वर्णाश्रम और धर्मांतरण जैसे प्रश्नों पर सुधारवादी थे ,  वे भारतीय परंपरा में ही इसकी काट ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे थे। इसका कारण था कि वे समझते थे यदि भारतीय परंपरा में ही इसकी काट ढूढ़ ली जाएगी, तो घोर दकियानूसी मानसिकता वाले हिन्दू भी ऐसे परिवर्तनों को सहज ही स्वीकार कर लेंगे। इससे भारतीय समाज आपसी कलह, संघर्ष और टूटन से बच जाएगा।
दूसरी ओर अम्बेडकर जी का यह मानना था कि भारत के समाज में दलितों को लेकर जो भेदभाव है वह भारतीय समाज सुधारक या नेताओं से दूर नहीं होगा। वे अंग्रेजी सरकार को इसके लिए ज्यादा उपयुक्त मानते थे। इसलिए अम्बेडकर जी ने अपने जीवन में दस के करीब संगठनों का निर्माण किया, परन्तु दो संगठनों को छोड़कर बाकी सभी संगठनों के नाम अंग्रेजी भाषा में रखे जबकि अपने समाज के जिन लोगों के लिए वे संगठन बना रहे थ, वे तब तो क्या आज भी अंग्रेजी भाषा को समझने में असमर्थ हैं। गोलमेज सम्मेलन से पहले जब गांधी जी ने अम्बेडकर जी से भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में सहयोग करने के लिए कहा तो अम्बेडकर जी ने उत्तर दिया कि मे पहले अछूतों को अन्य हिंदूओ की गुलामी से आजादी दिलवाने के लिए लडूंगा। गोलमेज सम्मेलन में मिली सफलता पर प्रसन्न हो कर अम्बेडकर जी ने कहा कि आज अछूत आजाद हो गया है। लेकिन फिर ऐसी कौन सी बात दिखी जो अम्बेडकर जी ने
13 अक्टूबर 1935 को नासिक  के निकट येवला में एक सम्मेलन में बोलते हुए, धर्म परिवर्तन करने की घोषणा की,
"हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ,लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज नहीं मरूँगा!"
उनकी  धर्म बदलने की घोषणा के बाद मुस्लिम व ईसाई धर्म गुरुओं ने अम्बेडकर जी से सम्पर्क करना प्रारंभ कर दिया।परन्तु अम्बेडकर जी जिस हिंदू धर्म को छोडने के लिए कह रहे थे, वह असमानता वाला ब्राह्मण (वर्णाश्रम) धर्म था, समानता वाला बौद्ध, सिक्ख व जैन धर्म नहीं था। अम्बेडकर जी ने बौद्ध व सिक्ख धर्म के विषय में अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया था। मुस्लिम व ईसाई धर्म गुरुओं को इस बात का पता जब चला, तब अम्बेडकर जी ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
सन् 1935 में ही अंग्रेजों ने भारत की सरकार को चलाने के लिए कानून बनाये। इन्हीं कानूनों के आधार पर देश के आजाद होने तक शासन चला।
सन् 1937 के भारत के चुनाव में कांग्रेस को अपार सफलता मिली, 11में से 8 राज्य में कांग्रेस को बहुमत मिला।
द्वितीय विश्व युद्ध 1 सितम्बर सन् 1939 को प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध में   36,000 से अधिक भारतीय सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी, 34,354 से अधिक घायल हुए  और लगभग 67,340 सैनिक युद्ध में बंदी बना लिए गए।उनकी वीरता को 4,000 पदकों से सम्मानित किया गया और भारतीय सेना के 38 सदस्यों को विक्टोरिया क्रॉस या जॉर्ज क्रॉस प्रदान किया गया।2 सितम्बर सन् 1945 को द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया। 
सन् 1946 मार्च अप्रैल में संविधान सभा के लिए चुनाव हुए। इन चुनाव से प्रांतीय विधानसभा के लिए आज के अनुसार विधायक चुनने थे। इन चुने हुए उम्मीदवारों के माध्यम से संविधान बनाने के लिए प्रतिनिधि चुनने थे। इस चुनाव में कांग्रेस के सामने डा अम्बेडकर जी की शिड्यूल कास्ट फेडरेशन नाम की पार्टी ने भी चुनाव लडा। अम्बेडकर जी की पार्टी से सिर्फ दो उम्मीदवार चुन कर गये। एक मद्रास से, दूसरा बंगाल से। डा अम्बेडकर जी स्वयं चुनाव हार गए। अब डां अम्बेडकर विधान मंडल में कैसे पहुंचे यह समस्या बनी। जोगेंद्र नाथ मंडल जो बंगाल से डा अम्बेडकर जी की पार्टी से चुने गए थे तथा बंगाल की मुस्लिम लीग पार्टी की सरकार में मंत्री थे। ने मुस्लिम लीग की सहायता से डा अम्बेडकर को बंगाल के खुन्ना व जैसोर नामक स्थान से चुनाव लडा कर जीत दिलवाई
अब भारत के स्वाधीन होने का समय आ गया था।
समाप्त।

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