दुनिया में मनुष्य जहां भी आबाद है, उसने अपने आप को सुव्यवस्थित रूप से रखने के लिए समाज हित में कुछ नियम विकसित किए। समाज हित में बनाए हुए नियमों के अनुसार समाज सुव्यवस्थित चले, इसके लिए मनुष्य ने धर्म का निर्माण किया।
एक प्राकृतिक धर्म होता है, जैसे आग का धर्म जलाना है। विश्व में कहीं भी आग जलाओ, उसका परिणाम एक ही होगा, वह है जलाना। यहां हम प्राकृतिक धर्म नहीं, मनुष्य द्वारा निर्मित धर्म का विश्लेषण कर रहे हैं।
धर्म के अंदर ही विभिन्न जाति व वंशो का समावेश हुआ है।
दुनिया में धर्म मूलतः दो विचारों पर बटे है। एक विचार रेस (जाति) की उच्चता का है। जिसमें भारत के वैष्णव धर्म व पारसी, यहूदी तथा इस्लाम धर्म आता है। दूसरा विचार समानता का है जिसमें शैव धर्म, बौद्ध, जैन, सिक्ख व ईसाई धर्म आता है। भारत में प्रचलित अवतारवाद की मान्यता के अनुसार श्री नृसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम जी व श्री राम जाति व जन्म की श्रेष्ठता को आधार बनाकर शासन चलाने वाली व्यवस्था के पोषक दिखते हैं वहीं दूसरी ओर मत्स्य अवतार, कूर्म(कछूवा ) अवतार, वराह अवतार तथा ध्यान और समाधि के मार्ग वाले योगीराज कृष्ण, महात्मा बुद्ध समानता को आधार बनाकर शासन चलाने वाली व्यवस्था का मार्ग दिखाने वाले रहे हैं। भारत में दोनों विचार पर आधारित धर्म समान रूप से चले है, जिनके नाम वैशणव धर्म व शैव धर्म है।
जब हम वैष्णव धर्म के प्रतिक विष्णु भगवान् का चित्र देखते हैं तो नारी शक्ति के प्रतिक के रूप में माता लक्ष्मी उनके चरणों में बैठी दिखती है, जो पुरुष की महिला से अधिक श्रेष्ठता को दर्शाता है। नृसिंह अवतार में भगवान् नृसिंह अपने भक्त प्रह्लाद को बचाने के प्रह्लाद के पिता का वध कर देते हैं। जो एक पक्ष को बल प्रदान करते दिखते हैं।
जब देवता व असुर मिलकर समुद्र मंथन करने के उपरांत अमृत प्राप्त कर लेते हैं तो भगवान् विष्णु नारी का वेश बनाकर अमृत देवताओं को दे देते हैं जो इस बात की ओर संकेत करता है कि मेहनत भले ही बराबर हो परंतु मेहनत के फल पर अधिकार जन्म किस जाति में है यह तय करेगा। जबकि भगवान् शिव विष पीकर पूरे संसार को विष के ताप से बचाते हैं।
इसी प्रकार वामन अवतार की कथा में भी राजा बलि का सब कुछ दान में इसलिए लिया गया कि वह देवता जाति से नहीं था। बलि कहीं दान पुण्य करके स्वर्ग की गद्दी न प्राप्त कर ले, इसलिए उसका बलिदान लिया गया ।
यदि भगवान् परशुराम जी की कथा पर नजर डालें तो उन्होंने भी पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय विहिन इसलिए कर दिया कि क्षत्रिय राजा ने उनके पिता की हत्या कर दी थी, किसी एक व्यक्ति के अपराध की सजा, उसके पूरे समुदाय को 21 बार मिलती दिखती है।
भगवान् राम ने माता सीता की अग्नि परीक्षा लेकर, एक धोबी के वार्तालाप को आधार बनाकर वनवास देना यह दर्शाता है कि उनको वनवास महिला होने के कारण हुआ। ॠषि दुर्वासा के भय से अनुशासन टूट जाने पर अपने छोटे भाई लक्ष्मण को त्याग देना तथा लक्ष्मण का आत्मबलिदान कर देना, इस बात की ओर इशारा करता है कि ॠषि व ब्राह्मण वर्ग का इतना दबाव था कि एक राजपरिवार ही प्रभावित हो गया। सामान्य व्यक्ति की तो बात ही क्या?जबकि श्री राम व्यक्तिगत रूप से रेस (जाति) के आधार पर भेदभाव रखने वाले नहीं थे। सीता को वनवास तो दिया, परन्तु राम ने मन से सीता को कभी नहीं त्यागा। उन्होंने दूसरी शादी नहीं की। जब लव-कुश के माध्यम से सीता मिली तब राम ने पुनः सीता को अयोध्या चलने के लिए कहा। परन्तु अपने पर हुए अन्याय से पीडि़त सीता ने आत्मबलिदान कर दिया। वह धरती में समा गई। इसी प्रकार जब लक्ष्मण को यह मालूम हुआ कि राम ने उनका त्याग कर दिया है। तब लक्ष्मण ने भी आत्मबलिदान कर दिया। जब यह सूचना राम पर पहुंची तो उनका मन अथाह दुख के सागर में डूब गया। राम ने अपने दोनों भाई भरत व शत्रुघ्न सहित जल समाधि ले ली तथा भारतीय समाज को यह संदेश दिया कि जीवन सुखमय जीने के लिए मध्यम मार्ग ही उचित है, ज्यादा कठोर नियम चाहे सही भी हो, दुख का कारण बनते हैं।
यही स्थिति इस्लाम धर्म की है वह अपने अनुयायियों में भले ही समानता का भाव रखता हो परन्तु गैर मुस्लिम के लिए उसमें कोई न्याय नहीं है। गैर मुस्लिम को समाप्त करना उनके लिए शबाब (पुण्य) का कार्य है। वह दारूल हरब से दारूल इस्लाम के लिए कयामत तक लड़ने की बात करता है तथा दूसरे धर्मी को काफिर (राक्षस) कहते हैं। इस्लाम में महिलाओं का स्थान दोयम दर्जे का है। यदि कोई उन्हें रोकने की कोशिश करता है तो वह उसे समाप्त करने से भी नहीं चूकते, भले ही वह उनका अपना ही क्यों न हो। हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हसन व हुसेन की हत्या उसका उदाहरण है। हसन व हुसेन के समर्थक ही शिया कहलाते हैं। शिया मुसलमान विश्व में कहीं भी आतंकवाद फैलाने के दोषी नहीं है।
दूसरी ओर जब हम भगवान् शिव के चित्र को देखते हैं तो माता पार्वती उनके बिल्कुल बराबर में विराजमान है, अर्धनारीश्वर उनका ही एक रूप है। जो समानता को दर्शाता है। शंकर भगवान् को भोलेबाबा भी कहा जाता है। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जिसमें शंकर जी ने किसी के साथ जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव किया हो।
मत्स्य अवतार में सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए अवतार लिया गया है। जो सृष्टि पर रहने वाले प्रत्येक जीव के हित के समानता का भाव लिए है।
कूर्म (कछूवा) अवतार में समुद्र मंथन में सहायता करने के लिए देवता व असुर दोनों पक्षों की हित पूर्ति के लिए मंदराचल पर्वत को नीचे जाने से रोकने के लिए अपनी पीठ पर धारण पर्वत को धारण करते हैं, जिसका लाभ दोनों पक्षों को समान होता है।
वराह अवतार में भी पूरी पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान् वराह के रूप में प्रकट होकर समस्त संसार की सम भाव से रक्षा करते हैं।
इसी तरह योगीराज कृष्ण का गीता का उपदेश कर्म पर आधारित है। वो कहते हैं कि कर्म ही प्रमुख हैं जो जैसा करता है वैसा ही पाता है। मनुष्य किस कुल या जाति का है। इसका प्रभाव इतना नहीं है।दोस्ती में सुदामा के साथ जो व्यवहार कृष्ण जी का रहा, वह आज भी स्मरण किया जाता है। अपने भक्त नरसी का मान बचाने के लिए जो नरसी की लड़की का भात कृष्ण जी ने दिया, उसके विषय में गांव देहात में आज भी रागनिया गायी जाती है।
यही संदेश महात्मा बुद्ध ने दिया। वो समानता के पक्षधर हैं। जीवन सुखमय जीने के लिए मध्यम मार्ग की सलाह देते हैं। जैन धर्म, सिक्ख व ईसाई धर्म में बौद्ध धर्म की तरह ही समानता का पुट दिखाई देता है।
जब हम भारत के इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि समाज की शासन की व्यवस्था में वंश व जाति के प्रभाव के साथ धर्म भी दिखाई देता है। जैसे इ क्षवाकू वंश, यदुवंश, कुरू वंश, नंद वंश (ईसा पूर्व 323), मौर्य वंश (ईसा पूर्व 323 से 185),शुंग वंश (ईसा पूर्व 187 से 75), गुप्त वंश(सन् 320 से 550) आदि। हम रामायण व महाभारत काल से आगे आये तो नंद वंश व मौर्य वंश तथा गुप्त वंश जो बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं, अर्थात् शंकर भगवान् के अनुयायी रहे हैं। सम्राट अशोक जो भारत ही नहीं जम्बू दीप का सम्राट माना गया है प्रारम्भ में शिव का अनुयायी था बाद में बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। अशोक ने ही बौद्ध धर्म का भारत के बाहर प्रचार करवाया।
मौर्य वंश के बाद राजा पुष्यमित शुंग(ईसा पूर्व सन् 187 से 125) राजा बने। जिन्होंने साकेत नामक नगर के पास अयोध्या नाम का नगर बसाया तथा अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया। ये भगवान् विष्णु तथा भगवान् राम के अनुयायी थे। इनके शासन काल में मनुस्मृति की रचना की गई। जिसमें भारतीय समाज को चार वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य व शुद्र) में बांटा गया। वर्ण का पर्यायवाची रंग है, भारत में मनुष्य के दो रंग है एक गौरा व दूसरा काला। जो समाज में गौरे रंग के व्यक्ति थे वह प्रथम तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य) में थे। यह व्यवस्था रेस (जाति) आधारित व्यवस्था थी। समाज में पहले तीन वर्ण में जन्म लेने वाले व्यक्ति के लिए यज्ञोपवीत संस्कार की व्यवस्था की गई। इन तीनों वर्ण के व्यक्ति के लिए एक साझा उपाधि द्विज के नाम से दी गई। शुद्र वर्ण का व्यक्ति यज्ञोपवीत संस्कार (जनेउ धारण) नहीं कर सकता था। कहने का तात्पर्य यह है कि शुद्र राजा नहीं बन सकता था। इनके ही समय में जाति व्यवस्था कठोर हो गई। वर्ण का दायरा बडा था, एक वर्ण में एक जैसे कार्य करने वाली हजारों जातियां आती थी। अपनी जाति के बाहर रोटी और बेटी के सम्बन्ध पर इस काल में रोक लग गयी। अपनी जाति के बाहर के व्यक्ति से शादी करना अवैध हो गया। जिस कारण लोग बहुत छोटे छोटे भाग में बट गये। इस समय सभी वर्ण की महिलाओं को भी शुद्र घोषित किया गया। महिलाओं को शुद्र की श्रेणी में रखने का विचार शायद विष्णु जी के चरणों में बैठी महिला शक्ति की प्रतिक लक्ष्मी जी को देखकर आया हो।
पुष्यमित शुंग के काल में बनी इस व्यवस्था को वर्णाश्रम धर्म या ब्राह्मण धर्म भी कहा गया।पुष्यमित शुंग ने बौद्ध मठों व बौद्ध भिक्षुओं पर देशद्रोह का आरोप लगा कर समाप्त करने का पूरा प्रयास किया।
शुंग वंश का शासन 112 वर्ष रहा। शुंग शासन के पश्चात पुनः बौद्ध धर्म के अनुयायियों के हाथों में सत्ता आ गई। जम्बू दीप का सम्राट कनिष्क कुषाण(सन् 78 से 144 ई0) बौद्ध धर्म का अनुयायी था। इसके पुरखे भगवान् शिव के अनुयायी थे। सम्राट कनिष्क कुषाण के समय में ही बौद्ध धर्म चीन जापान व अफगानिस्तान तक फैला। इस समय बौद्ध धर्म को लाईट आंफ एशिया कहा गया। भारत से प्रारम्भ हुए बौद्ध धर्म के अनुयायी विश्व में अन्य धर्मो के अनुयायियों में सबसे अधिक हो गए। यही वह समय था जब भारत विश्वगुरू कहलाया। इस समय एक बदलाव यह आया कि शासन वंश के आधार पर न होकर रेस (जाति) आधारित हो गया। कुषाण नाम का कोई वंश नहीं बल्कि एक कबिला (जाति) था। कनिष्क कुषाण की पहचान एक कबीले के स्वामी के रूप में थी। कनिष्क कुषाण के पिता ने गुशुर अर्थात् गूजर उपाधि का प्रारम्भ किया। इनके शिलालेखों में गूजर राणा भी लिखा मिला है यहां राणा का अर्थ राजा है।
यह शीशे की तरह साफ़ हैं कि गुर्जर शब्द की उत्पत्ति ईरानी शब्द ‘गुशुर’ से हुई हैं, जिसका अर्थ हैं राजपरिवार अथवा राजसी परिवार का सदस्य| जब कुषाण उत्तरी अफगानिस्तान (बैक्ट्रिया) में बसे और उन्होंने ‘गुशुर’ उपाधि को वहाँ की बाख्त्री भाषा में ‘गुजुर’ के रूप में अपनाया, जैसा उनके वंशज आज भी वहाँ अपने को कहते हैं| पंजाब में बसने पर, वहाँ की भाषा के प्रभाव में गुजुर से गुज्जर कहलाये तथा गंगा-जमना के इलाके में गूजर| प्राचीन जैन प्राकृत साहित्य में गुज्जर तथा गूज्जर शब्द का प्रयोग हुआ हैं| उसी काल में संस्कृत भाषा में गुर्ज्जर तथा गूर्ज्जर शब्द का प्रयोग हुआ हैं| कुषाण सूर्य उपासक थे। कुषाणों के साथ दोराता, मीलू, मुंडन, बैसला, कपासिया, दापा, देवड़ा, , कसाना,बरगट, नेकाडी, खटाना, गौरसी,चेची,अधाना, भडाना, हरषाना, सिरान्धना, रजाना फागना, महाना, अमाना, करहाना, अहमाना, चपराना/चापराना, रियाना, अवाना, चांदना जो गोत्र गुर्जरों में है, ये सब कुषाण संघ की उपजातिया थी
थोड़ा आगे चलने पर हूणों (सन् 421 से 600 ई0) का शासन आता है, जिन्होंने गुप्त वंश के शासन को समाप्त कर दिया। हूण भी किसी वंश का नहीं बल्कि एक रेस (जाति) का नाम था। जिसमें चालुक्य (सोलंकी) , चौहान, तंवर, व पंवार, चंदेल आदि उपजातिया मुख्य रूप से हूणों में समायी हुई थीं, जो आज गुर्जरों में तथा अन्य जातियों में भी दिखाई देती है। हूण शिव भक्त थे, वह वराह व सूर्य के उपासक थे।हूण वराह (सूअर) को युद्ध में विजय का देवता मानते थे। भारत में सागर जिले के पास ऐरण में वराह की पहली मूर्ति है, जिस पर वराह स्तुति लिखी है। जो हूणों के काल की है। हूण राजा मिहिरकुल हूण (सन् 502 से 542 ई0) ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए बौद्ध भिक्षु से सम्पर्क कर अपने दरबार में बुलाया। कहते हैं कि किसी कारणवश बौद्ध मठ से किसी दोयम दर्जे के बौद्ध भिक्षु को हूण राजा के दरबार में भेज दिया गया। मिहिरकुल हूण से यह बात बताई गई कि बौद्ध भिक्षुओं के नेतृत्व करने वाले आपको दोयम दर्जे का राजा मान रहे हैं। इसपर मिहिर कुल हूण आग बबूला हो गया। उसने बौद्ध भिक्षुओं व बौद्ध मठों को समाप्त करने का राज आदेश दे दिया तथा बौद्ध मठों के स्थान पर शिवालय बनवा दिये।बौद्ध भिक्षुओं के समाप्त होने से बौद्ध धर्म के कर्मकांड कराने वाले धर्म गुरुओ का स्थान रिक्त हो गया। जिसे ब्राह्मणों ने भरने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया। बौद्ध धर्म पुनः शैव धर्म में परिवर्तित हो गया। इस घटना से ब्राह्मण हूणों के निकट आ गये। मिहिर कुल हूण ने हजारों गांव ब्राह्मणों को दान में दिये।अब भारत में एक ही विचारधारा (शैव +बौद्ध) का शासन हो गया था। वैशणव धर्म (ब्राह्मण अथवा वर्णाश्रम) शिव के अनुयायी हूणों के समर्थन में आ गए थे। हूणो ने गुप्तो को भी हरा दिया। देश में बौद्ध धर्म कमजोर हो गया। कन्नौज के राजा हर्षवर्धन (सन् 606 से 647 ई0) जो कि बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, ने बौद्ध धर्म को पुनः शक्ति प्रदान की। हर्षवर्धन के समय में ही चीनी यात्री हेनसांग (सन् 629 से 647 ई0) भारत आया। वह बौद्ध धर्म का धर्म गुरु भी था।उसने कई वर्षों तक भारत भ्रमण किया। हेनसांग ने सन् 641 ई0 में सी-यू-की नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में हेनसांग ने भारत की तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन किया है। वह आज के राजस्थान को गुर्जर देश लिखता है। वह लिखता है कि गुर्जर देश जिसका राजा अपने आप को गुर्जर कहता है। वहां के रहने वाले लोग भी अपने आपको गुर्जर कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सन् 78 ई0 में जो गुर्जर शब्द उपाधि के लिए प्रयोग हुआ था वह सन् 641 में गुर्जर जाति में तब्दील हो गया था।गुर्जर जाति के होने का यह पहला लिखित प्रमाण है। हेनसांग हर्षवर्धन के दरबार में गया। वहां उसका बड़ा आदर व सत्कार किया गया। हर्षवर्धन ने हेनसांग के सम्मान में एक धर्म संसद का आयोजन किया। जिसमें शास्त्रार्थ के लिए बौद्ध धर्म के साथ जैन धर्म व ब्राह्मणों को भी आमंत्रित किया गया। शास्त्रार्थ प्रारम्भ होने से पूर्व हेनसांग ने यह घोषणा कर दी कि यदि वह शास्त्रार्थ में हार गया तो अपनी जीभ कटवा देगा। हर्षवर्धन अपने बौद्ध गुरू की इस घोषणा से परेशान हो गया। उसने यह आदेश पारित कर दिया कि बौद्ध गुरू हेनसांग से कौई शास्त्रार्थ नहीं करेगा, यदि किसी ने किया तो वह उसका सर काट देगा। हर्षवर्धन की इस घोषणा का ब्राह्मणों ने विरोध किया। यह विरोध इतना बढा की हर्षवर्धन ने ब्राह्मणों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। जिस कारण हिंसा भडक गयी, इस हिंसा में करीब 500 ब्राह्मणों की हत्या हो गयी। हजारों की संख्या में ब्राह्मण गिरफ्तार कर लिए गए। इस घटना से ब्राह्मण, कुषाण व हूणों के वारिस गुर्जरों के और नजदीक आ गये।हर्षवर्धन के दरबारी कवि बाण भट्ट ने हर्ष चरित्र ग्रंथ में हर्ष के पिता प्रभाकर वर्धन का गुर्जरों के साथ संघर्ष का जिक्र किया है।यह गुर्जर जाति का उसी समय का दूसरा प्रमाण है। कुषाण, हूण व गुर्जर क्योंकि यज्ञोपवीत संस्कार नहीं कराते थे, इसलिए ब्राह्मणों ने इनको ब्रात्य क्षत्रिय कहा है। यह कुदरत का ही करिश्मा था कि जब इस्लाम की फौजों ने भारत की ओर को रूख किया तब तक भारत में चल रही दो विचार धारा पर आधारित शक्तियां परिस्थिति वश एक हो चुकी थी। अरब देश के लोग जो स्थान के आधार पर सिंधु नदी के पार के लोगों को हिंदू भी कहते थे। सन् 730 में अरब सेनाओं ने हिंदुओं व हिंदुस्तान पर हमला कर दिया। अरब से प्रारम्भ इस्लाम की शक्ति ने अरब, ईरान, ईराक व अफगानिस्तान तक परचम लहरा दिया और अरब के खलीफा के गवर्नर जुनैद ने सिन्धु नदी को पार कर तत्कालीन गुर्जर देश (वर्तमान राजस्थान व गुजरात) पर हमला कर गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल को तहस-नहस कर दिया तथा भारत की सांस्कृतिक एकता के प्रतिक सोमनाथ के मन्दिर को तोड दिया। प्रतिक्रिया में गुर्जर प्रतिहार नागभट्ट प्रथम ने जुनैद को मार डाला तथा उज्जैन को अपनी राजधानी बनायी। इस संघर्ष में शिवजी के समानता के पक्षधर गुर्जरों के साथ विष्णु समर्थक ब्राह्मण जी जान से रहे। क्योंकि उन्हें यह दिखाई दे रहा था कि यदि इस युद्ध में शिव भक्त हार गये तो अस्तित्व उनका भी नहीं बचेगा। सम्राट नागभट्ट द्वितीय ने सन् 815 में सोमनाथ के मन्दिर का पुन:निर्माण कराया तथा अजमेर में पुष्कर तीर्थ का निर्माण कराया और अपनी राजधानी कन्नौज में स्थापित कर गुर्जर प्रतिहार शासन को स्थापित कर दिया जो सम्राट मिहिर भोज के शासन काल में अपने चरम पर था। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने 250 वर्षो तक अरब की सेनाओं को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया तथा अरब के हमलों को विफल कर दिया। गुर्जर प्रतिहार शासकों ने अरब की सेनाओं को तो परास्त किया ही, उसके साथ राष्ट्रकूट व पाल राजाओं की सैनिक शक्ति का भी मुकाबला कर अपनी सैनिक सर्वोच्चता का प्रदर्शन किया। ब्राह्मणों ने गुर्जर प्रतिहारो को रघुकुल तिलक कहा तथा राम के छोटे भाई लक्ष्मण का वंशज कहा। पुष्कर में गायत्री के मंदिर का निर्माण कराया, गायत्री को गुर्जर कन्या बताया तथा ब्रह्म की पत्नी कहा। गायत्री मंत्र को सबसे उत्तम मंत्र बताया जो सूर्य का मंत्र है। गुर्जरों को भगवान् कृष्ण से जोडते हुए राजा नंद व राधा को गुर्जर बताया। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने आदि-वराह की उपाधि धारण की। यहां आदि का अर्थ सूर्य तथा वराह (सूअर) युद्ध के देवता हैं। इसलिए अरबों ने गुर्जर सम्राटों को बौरा कह कर भी सम्बोधित किया तथा वराह एक अवतार के रूप में भारतीय धर्म में दिखाई दिया। नौवीं शताब्दी में गुर्जर जाति ने भगवान् देवनारायण को भगवान् मानकर उनके मंदिर स्थापित किए। ये भगवान् देवनारायण कोई और नहीं गुर्जर सम्राट नागभट्ट प्रथम है। जिनके विषय में यह शिलालेख मिला है कि वह भारतीय समाज की रक्षा के लिए नारायण की तरह प्रकट हुए तथा उन्होंने मलेच्छों का विनाश कर दिया।
लेकिन सन् 1000 के पश्चात मध्य एशिया में नयी सैनिक तकनीक व हथियारों का निर्माण हुआ। जिसका सफल प्रदर्शन महमूद गजनवी ने किया। उसकी सैनिक शक्ति को रोकने के लिए भारतीयों ने महान त्याग व पराक्रम किया, परन्तु सफलता नहीं मिली महमूद गजनवी हिन्दू कुश के राजा जयपाल, उसके बाद आनंद पाल व गुर्जर प्रतिहार राजा राजपाल को हराकर चला गया।गुर्जर प्रतिहार शासन समाप्त हो गया।
वर्तमान राजस्थान के पूर्वी भाग में जहां ढूढ नदी बहती थी उस क्षेत्र को ढूढाड़ के नाम से जाना जाता है। यही पर सन् 1170 ई में दुल्हाराय ने कछवाह वंश की स्थापना की।कछवाह मध्य प्रदेश के नरवर से राजस्थान में पहुंचे। सन् 1170 में मीणो से एक युद्ध में दुल्हाराय मारा गया। तब इसका पुत्र कोकिलदेव राजा बना।
इधर कन्नौज पर जयचंद का अधिकार हो गया था।
राजा जयचंद गहरवार वंश के थे। काशी के दिवोदास के कुल में राजा यशोविग्रह एक प्रसिध्द राजा हुआ। इसने काशी से गाहर जाकर एक राज्य स्थापित किया। यह गाहर अब गढ़वा नाम से प्रसिद्ध है। जो जिला पलामु बिहार में है। गाहर में रहने से यह वंश गाहवाले फिर गाहड़वाल अब गहरवार कहलाने लगे। इसी वंश में प्रसिध्द राजा महिचन्द था।इसके दौ पौत्र मदनपाल और चंद्रदेब से दो शाखाए चली। मदनपाल गहरवार के वंशज ने कन्नौज जाकर गहरवार राज्य को स्थापित किया। मदनपाल के वंश में गोविचन्द प्रसिध्द राजा हुआ गोविचन्द के वंश में राजा रट्टपाल या रत्तनाम हुआ जिसने रट्ट नाम से एक नई शाखा चलायी, रट्ट के वंशज रट्टवर फिर राष्टवर और बाद में राठौर कहे जाने लगे।
सन्1176 में मोहम्मद गोरी ने गुजरात पर हमला कर दिया, गुजरात के राजा भीमदेव ने गौरी को बुरी तरह पराजित कर दिया। सन् 1191 में पृथ्वीराज चौहान ने पुनः मोहम्मद गोरी को तराईन के मैदान में हरा दिया। परन्तु सन् 1192 में मोहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान को हरा कर दिल्ली में अपना शासन स्थापित करने में कामयाब हो गया। अब विदेशी शासन दिल्ली के साथ अजमेर तक हो गया।
सन् 1194 में मोहम्मद गोरी ने कन्नौज के राजा जयचंद पर हमला कर उसे मार डाला।
सन् 1207 में कछवाह कोकिलदेव ने मीणो से आमेर(जयपुर) छीन लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया।
सन् 1250 में जयचन्द के पौत्र राव सीहा ने वर्तमान राजस्थान में पाली के निकट अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। यह वह समय था जब इस्लाम के अनुयायी भारत में उत्तर पश्चिम से घुसकर अपना शासन स्थापित करने के पूरे प्रयास कर रहे थे।
दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 28 जनवरी सन् 1303 को चित्तौड़ पर हमला कर अधिकार तो कर लिया। परन्तु इस युद्ध में रावल रतन सिंह गहलोत तथा उनके सेनानायक गोरा-बादल ने जिस बहादुरी का प्रदर्शन किया, उसके किस्से आज तक भी गांव देहात में रागनियों के माध्यम से राजस्थान ही नहीं पूरे उत्तरी भारत में सुनाये जाते हैं। इस युद्ध में लगभग 30000 भारतीय शहीद हुए। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद सन् 1321 में सिसौदिया (गहलोत) वंश के हम्मीर देव ने हमला कर चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आजाद करवा लिया। वर्तमान राजस्थान में उस समय दो वंश ही सबसे अधिक मजबूत थे, एक चौहान व दूसरा गहलोत। मोहम्मद गोरी के हमले से जहां चौहान कमजोर हो गए थे, अलाउद्दीन खिलजी के हमले से गहलोत भी कमजोर हो गए। परन्तु युद्ध में हार भले ही हुई, इन्होंने हिम्मत नहीं हारी। सिसौदिया ने भारतीयों को अपने नेतृत्व में संगठित करने का प्रयास किया तथा उस समय के अनुसार राठौड़ो से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। मेवाड़ के राणा लाखा का विवाह मारवाड की राठौड़ राजकुमारी हंसाबाई से हुआ। आमेर के कछवाह भी इनके सामंत बन गए।
सन् 1398 में समरकंद के शासक तैमूर ने भारत पर हमला कर दिया। दिल्ली पर इस समय तुगलक वंश का शासन था, भारतीय इतिहासकारों ने तैमूर के हमले को ईश्वर का प्रकोप (खुदा का कहर) कहा है। 17 दिसंबर सन् 1398 को तैमूर ने तुगलक को युद्ध में पराजित कर दिया, पराजित होने पर तुगलक गुजरात तथा उसका प्रधानमंत्री मल्लू इकबाल बुलंदशहर को भाग गया। शाही सेना के परास्त होने के बाद तैमूर के अत्याचार से पीडि़त जनता ने अपनी रक्षा के लिए स्वयं हथियार उठा लिए। वर्तमान हरियाणा में तैमूर के साथ पहला संघर्ष अहीरो ने किया, जिसमें हजारों की संख्या में अहीर शहीद हो गए। जिला रोहतक के बादली गांव के गुलिया खाप के जाट योद्धा हरवीर सिंह गुलिया तथा हरिद्वार के निकट गांव पथरी के गुर्जर जाति के जोगराज सिंह पंवार ने दिल्ली मेरठ व हरिद्वार में तैमूर की सेना पर लगातार हमले किए। इस क्षेत्र के रहने वाले जाट व गूजर किसानों ने प्रशिक्षण प्राप्त तैमूर की सेना का डटकर मुकाबला किया तथा अपने नायक जोगराज सिंह गूजर व हरवीर सिंह गुलिया सहित हजारों की संख्या में बलिदान दिया।
सत्ता संघर्ष की इस भगदड़ में भारत के इतिहास में एक नया मोड़ सन् 1433 में आया, तब सिसौदिया वंश के राणा कुम्भा मेवाड़ के शासक बने। राणा कुम्भा का भारत के राजाओं में उच्च स्थान है। गुर्जर प्रतिहारो के पतन के बाद के राजा अपनी स्वतंत्रता की जहां-तहां रक्षा कर सके थे। परन्तु राणा कुम्भा ने भारतीय राजाओं को एक शक्तिशाली नेतृत्व प्रदान किया। राणा कुम्भा ने 32 दुर्ग बनवाये। जिसमें कुम्भल गढ़ का विशाल दुर्ग भी है। जिसकी दीवार चीन की दीवार के बाद विश्व में दूसरे नंबर की है। राजा बनने के सात वर्षों के अंदर ही राणा कुम्भा ने सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, बूंदी, खाटू आदि के सुदृढ़ किलो को जीत लिया। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को हराकर चित्तौड़ में कीर्ति स्तम्भ बनाया। दिल्ली के सुल्तान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुल्तान अहमद शाह को भी परास्त किया। उन्हें चित्तौड़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता भी कहा जाता है वर्तमान में चित्तौड़ दुर्ग के अधिकांश भाग का निर्माण भी कराया। इस प्रकार आधुनिक राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा तथा दिल्ली के कुछ भाग जीतकर राणा कुम्भा ने मेवाड़ को महा राज्य बना दिया। अनेक इतिहासकारों का मत है कि राणा कुम्भा ने ही राजपूत जाति को स्थापित किया। परन्तु इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं है। ऐसा कोई तत्कालीन समय का ग्रंथ व शिलालेख नहीं है जिसमें राणा कुम्भा ने अपने सामंतों व सैनिक अधिकारियों या राजपरिवार के लोगों को राजपूत कहा हो।
परन्तु राणा कुम्भा ने वराह मंदिर का निर्माण कराया। इस वराह मंदिर में वराह की मूर्ति को मुस्लिम हमलावरों ने तोड दिया था, अब वराह के स्थान पर कुम्भा श्याम की प्रतिमा है। वराह मन्दिर बनवाना ही यह संदेश देता है कि वह गुर्जर प्रतिहारो के ही प्रतिनिधि हैं। जो विदेशी अरबों से लडे थे तथा आदिवराह की उपाधि से विभूषित थे। राणा कुम्भा के बड़े बेटे उदय सिंह प्रथम ने सन् 1468 में उनकी हत्या कर दी। सन् 1526 में बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इस समय राणा सांगा(सन् 1509 से 30 जनवरी 1528) मेवाड़ के शासक थे। दिल्ली पर कब्जे को लेकर राणा सांगा व बाबर में युद्ध होना ही था, पहला आमना-सामना बयाना में हुआ, इस युद्ध में राणा सांगा ने बाबर को परास्त कर दिया। बाबर ने संधि के लिए राणा सांगा के पास पत्र भेजा, उसने राणा सांगा की सभी शर्त स्वीकार करने के लिए लिखा। परन्तु ग्वालियर के तोमर राजा जो राणा सांगा के रिश्तेदार भी थे तथा मेवाड़ में ही रहते थे, ने संधि नहीं होने दी, सन् 1527 में खानवा का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में पराक्रम के स्थान पर बाबर की राजनैतिक चतुराई की जीत हुई। रायसीना रियासत का राजा राय सिलहदी चौहान युद्ध प्रारम्भ होते ही अपनी 35000 की सेना लेकर बाबर की ओर चला गया। जिससे युद्ध का रूख ही बदल गया। राणा सांगा की दिल्ली पर शासन करने की स्थिति समाप्त हो गई, राणा सांगा युद्ध हार गये।परन्तु इस युद्ध में बाबर मेवाड़ की एक इंच भूमि भी नहीं ले सका। भारत में मुगल सत्ता की नींव पड गई। सन् 1528 में राणा सांगा की मृत्यु हो गई।
राणा सांगा ने चित्तौड़ में भगवान् देवनारायण का मंदिर बनवाया था। जिसे सांगा का देवरा कहते हैं । राणा सांगा युद्ध में जाने से पूर्व भगवान् देवनारायण की पूजा करते थे। जो यह संदेश देता है की वह गुर्जरों के अति निकट थे।
राणा सांगा के साथ बाबर के युद्ध में आमेर के पृथ्वीराज कछवाह भी लडे थे। पृथ्वीराज कछवाह की शादी राठौड़ राजा की राजकुमारी से हुई थी। राणा सांगा की मृत्यु से भारतीय राजाओं की मुगल व पठानो के विरुद्ध गोलबंदी की जड़ उखड़ गई थी।
अब सत्ता संघर्ष मुगलों व पठानो के बीच आ गया, जो दोनों ही इस्लाम के अनुयायी थे।
यह वह समय था जब भारत में शेरशाह सूरी (सन् 1540 से 1545) व हुमायूं (सन् 1530 से सन् 1540) का सत्ता संघर्ष चल रहा था, भारतीय दोनों ओर से सत्ता में सहायक की भूमिका निभा रहे थे। शेरशाह सूरी ने हुमायूं को भारत से बाहर निकाल दिया था, शेरशाह सूरी के सहयोग में एक भारतीय हेमू जो धूसर जाति का व्यापार करने वाला व्यक्ति था, ने विषेश भूमिका निभाई थी। शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात हेमू भारत का बादशाह बन गया था, उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर ली थी। लेकिन वह मुश्किल से 15 दिन ही शासक रहा। अकबर के संरक्षक बैरम खां ने पानीपत(5 नवंबर सन् 1556) के युद्ध में हराकर हेमू को मार डाला । अब दिल्ली पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। अकबर(11 फरवरी सन् 1556 से 27 अक्टूबर सन् 1605) भारत पर शासन करना चाहता था।सन् 1000 से लेकर सन् 1556 तक के सत्ता संघर्ष से यह साबित हो गया था कि इस्लाम के अनुयायी भारत पर कब्जा तो कर सकते हैं परन्तु भारतीयों के सहयोग के बिना शासन चला नहीं सकते। अकबर समझ गया था कि भारतीयों पर शासन करने के लिए भारत के ही लोग चाहिए जो भारत वासियों में मुगल शासन के उपकरण बन सके। अपना सामाजिक आधार बनाने के लिए भारतीयों को मुसलमान भी बनाया गया। मुस्लिम शासन का प्रारम्भ होने से पहले जो लोग सभी भारतीयों को हिंदू कहते थे लेकिन जब कुछ लोगों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया तब इन मुसलमानों ने भारत के नये बने मुसलमानों को कहा कि गैर मुस्लिम हिंदू है। लेकिन इन नये बने मुसलमानों से भी कोई ज्यादा लाभ न हो सका।
अकबर जब गद्दी पर बैठा तब आज के राजस्थान में राज्य थे -मेवाड़, आमेर, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, अजमेर, बूंदी, बांसवाड़ा, डूंगरपुर व करौली ।जिनमें मेवाड़, डूंगरपुर व बांसवाड़ा सिसोदिया (गहलोत) थे। गद्दी पर बैठते ही अकबर को मुस्लिम गवर्नरों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। इसलिए अकबर ने निर्णय लिया कि वह शासन को स्थायित्व देने के लिए भारतीयों से संधि करेगा। भारतीयों से सम्बंध बनाने का अवसर अकबर को शीघ्र प्राप्त हो गया। आमेर के कछवाह जो बहुत छोटेसे राज्य के स्वामी थे। अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे थे। आमेर के राजा भारमल के बेटे को मेवात (अलवर+भरतपुर) के मुगल जागीरदार मिर्जा सरफुद्दीन ने बंदी बना लिया था। उन परिस्थितियों में राजा भारमल की मुलाकात नारनौल के मुगल जागीरदार मजनू खान ने अकबर से करवा दी।इस मुलाकात के पश्चात राजा भारमल ने अपनी पुत्री का विवाह जनवरी सन् 1562 में अकबर से कर दिया तथा मुगल सत्ता से वैवाहिक संधि कर ली। मुगल सत्ता से सम्बंध होते ही आमेर के कछवाह आम से खास बन गए। इसी साल अकबर ने मेडता को भी राठौर जयमल से छीन लिया। इसी साल में जोधपुर के राठौड़ राजा ने अपनी रानी के कहने पर अपने तीसरे नम्बर के बेटे राव चंद्रसेन राठौड़ को जोधपुर का राजा बना दिया, जिस कारण राव चंद्रसेन राठौड़ के दोनों बड़े भाई राम सिंह व उदय सिंह विरोधी हो गए। सन् 1565 में राम सिंह राठौड़ अकबर के पास मदद के लिए पहुंच गया, अकबर तो इसी ताक में था, उसने मुगल सेना राम सिंह राठौड़ के साथ भेज कर जोधपुर पर अधिकार कर लिया। राव चंद्रसेन जोधपुर छोड़ कर चले गए। परन्तु अकबर ने जोधपुर राम सिंह राठौड़ को नहीं दिया, उसे मुगल सल्तनत का हिस्सा बना लिया।
सन् 1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। अतः मेवाड़ के शासक राणा उदय सिंह से युद्ध आवश्यक था। अकबर ने चित्तौड़ का घेरा डाल दिया। राणा उदयसिंह ने दुर्ग की रक्षा का दायित्व मेडता के राजा जयमल राठौड़ व गल्ला राठौड़ तथा पत्ता सिसोदिया को सोप दिया। जयमल मेडता का राजा था, अकबर द्वारा मेडता छीन लिए जाने के बाद से जयमल मेवाड़ के महाराणा की सेवा में रह रहा था । राणा उदयसिंह व राणा प्रताप को किले से सुरक्षित बाहर निकाल दिया गया। अकबर ने चित्तौड़ को जीत लिया, परन्तु इस युद्ध में जयमल राठौड़ व गल्ला राठौड़ तथा पत्ता सिसोदिया ने 25 फरवरी सन् 1568 को जो वीरता का प्रदर्शन कर शहादत दी, उससे अकबर भी प्रभावित हुए बिना न रह सका।अकबर ने जयमल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया की प्रतिमा आगरा में लगवायी। जिससे भारतीयों में यह संदेश दिया गया कि अकबर बहादुरी का सम्मान करता है। बहादुर चाहे दुश्मन ही क्यों न हो?
सन् 1569 में अकबर ने बूंदी -रणथम्भौर के राव सुरजन से संधि कर ली। परन्तु यह संधि सम्मान जनक थी। रणथम्भौर के चौहानो ने अकबर के सामने कुछ शर्तें रखी जो निम्न थी -
1. बूंदी का सरदार उस रीति-रिवाज से मुक्त रखा जावेगा जिसे वो अपमानजनक मानते हैं ।
2. जजिया कर से मुक्ति ।
3. बूंदी सरदारों को कभी भी अटक पार जाने के लिये बाध्य नही किया जावेगा ।
4. बूंदी सरदार इस बात से मुक्त रखें जाएंगे कि वे अपनी स्त्रियों या सम्बन्धिनियों को मीना बाजार में स्टाल लगाने भेंजे । यह स्टाल राजमहल में नौरोजा के अवसर पर लगायी जाती थी ।
5. वे दीवाने आम तक पूर्ण रुप से अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर जा सकेंगे ।
6. उनके पवित्र मंदिरों का आदर किया जायेगा ।
7. वे कभी भी मुगलों के अधीन दूसरे हिन्दू नेता की कमान में नही रखे जावेंगे ।
8. उनके घोङो पर शाही दाग नही लगाया जाएगा ।
9. वे अपने नक्कारे को राजधानी की गलियों में लाल दरवाजे तक बजा सकेंगे और बादशाह के सामने उपस्थित होने पर सिजदा करने से मुक्त रहेंगे ।
10. जैसे दिल्ली बादशाह के लिये वैसे ही बूंदी हाङा चौहानों के लिये होगी।
अकबर ने उपरोक्त सभी शर्त स्वीकार कर संधि कर ली।
15 नवंबर सन् 1570 को बीकानेर के राठौड़ राजा राव कल्याण सिंह ने अपनी भतीजी का विवाह अकबर से करके वैवाहिक संधि कर ली। जैसलमेर से भी वैवाहिक संधि हो गई। 1570 में ही जोधपुर के राठौड़ राजा मालदेव ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर से करके वैवाहिक संधि कर ली। अब अकबर ने 1570 में नागौर में "नागौर दरबार "आयोजित किया जिसमें जैसलमेर नरेश रावल हरराय, बीकानेर नरेश राव कल्याण मल आदि ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इस दरबार में राव चंद्रसेन राठौड़ व उनके दोनों बड़े भाई भी आए, अकबर की अपने हित की नीति देखकर राव चंद्रसेन दरबार छोड़ कर चले गए। इस दरबार के बाद अकबर ने बीकानेर के राठौड़ राजा के बड़े बेटे राय सिंह को जोधपुर राज की जिम्मेदारी दे दी। राव चंद्रसेन के बड़े भाई राम सिंह को मंसब दार बनाकर लडने के लिए दूर भेज दिया तथा दूसरे भाई उदय सिंह को चंद्रसेन राठौड़ पर व उसके समर्थन करने वालो पर हमला करने का आदेश दे दिया। उदय सिंह राठौड़ ने वर्तमान के बाड़मेर जिले के पास सम वाली के क्षेत्र में गुर्जरों पर हमला कर दिया जो मुगल सत्ता के विरूद्ध संघर्ष कर रहे थे। राव चंद्रसेन राठौड़ पूरी उम्र अकबर से संघर्ष करते रहे, प्रकार 1570 सन् तक मेवाड़ व मेवाड़ के परिवार के राज्य डूंगरपुर व बांसवाड़ा को छोड़कर लगभग सभी आठ राज्य अकबर के अधीन हो गए।सन् 1573 में नगरकोट (कांगड़ा) के कटोच राजा जयचंद ने भी अकबर से वैवाहिक संधि कर ली। अकबर ने इस्लामिक कट्टरता का परित्याग कर दिया। अब मुगल सत्ता इस्लामिक सत्ता नहीं रही, वह मुगल रेस (जाति) की सत्ता थी, जिसमें भारतीयों को सहयोगी बनाया जा रहा था। अकबर ने जजिया कर हटा दिया, जजिया मुस्लिम शासन में रहने वाले गैर मुस्लिमों से लिया जाने वाला कर था। अकबर कट्टर मुस्लिम नहीं था, यदि वह कट्टर मुस्लिम होता तो अपना अलग धर्म दीन-ए-ईलाही क्यों चलाता।
अकबर ने अपनी सेना में अधिक से अधिक भारतीयों को समायोजित करने के लिए सन् 1575 में मनसबदारी प्रथा को प्रारम्भ किया।
सन् 1576 में हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध हुआ, इस युद्ध के पश्चात भारतीय राजा अकबर की तरफ को और अधिक झुक गये।मार्च सन् 1577 में डूंगरपुर के गहलोत रावल पृथ्वीराज ने अकबर से वैवाहिक संधि कर ली। सन् 1581 में मोरता के राठौर राजा केशवदास ने भी अकबर से वैवाहिक संधि कर ली। दूसरी ओर राव चंद्रसेन राठौड़ सन् 1581 में ही अकबर से संघर्ष करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गए। राव चंद्रसेन राठौड़ को मारवाड़ का राणा प्रताप कहा जाता है। राणा प्रताप की तरह ही राव चंद्रसेन राठौड़ ने अकबर के सामने सर नहीं झुकाया।
अकबर ने 33 रेंक के मनसब बनाये। एक मनसब की तीन केटेगरी बनायी। एक मनसबदार की पहचान के लिए दो मापदंड रखे गए। जात व सवार। यदि कोई 500 का मनसबदार है तो वह 500 रेंक में प्रथम श्रेणी का है या द्वितीय व तृतीय का, इसका मापदंड उसके पास कितने सवार है इससे लगता था। 500 जात के मनसबदार पर यदि 250 सवार है तो वह द्वितीय श्रेणी का मनसबदार होता था, यदि 500 सवार है तो प्रथम श्रेणी का, यदि 200 से कम सवार है तो तृतीय श्रेणी का मनसबदार माना जाता था। इस तरह 33 रेंक के तीन तीन श्रेणी वाले 99 प्रकार के मनसबदार थे। इन्हें शाही खजाने से वेतन मिलता था। यह पद पैतृक नहीं था। 33 मनसबो को तीन भागों में बांटा गया था। अकबर के समय में सबसे छोटा मनसब 10 का और सबसे बड़ा मनसबदार 10000 का था। मनसब प्राप्त करने वाले तीन भागों में विभक्त थे।
(1)10 से 500 वाला मनसब प्राप्त करने वाले।
(2)500 से 2500 वाला मनसब प्राप्त करने वाले। ये उमरा के नाम से जाने जाते थे।
(3)2500 से ऊपर का मनसब प्राप्त करने वाले व्यक्ति "अमीर-ए- उम्दा "या "अमीर-ए-आजम "कहलाते थे।
5000 से ऊपर का मनसब राज परिवार के व्यक्ति य शहजादे को मिलता था।
कोई एक दो भारतीय ही 5000 या उससे ऊपर के मनसब को प्राप्त कर सके।
अब अकबर ने कछवाह राजा भारमल को अमीर-उल-उमरा की उपाधि दी। भारमल के बेटे भगवान दास को 5000 की मनसबदारी दी। भगवान दास की मृत्यु के बाद मान सिंह को 7000 की मनसबदारी दी। अकबर ने मान सिंह को फरजंद (पुत्र के समान) का खिताब भी दिया। इस प्रकार अकबर ने आमेर के कछवाहो को अपने शासन में भारतीयों का सिरमौर बना दिया।भारतीय राजाओं को राजतिलक मुगल बादशाह अकबर स्वयं लगाते थे। अकबर के समय में मनसबदारो की संख्या 1803 हो गई थी।
ये सब जानकारी अकबर के एक नवरत्न अबुल भजल द्वारा लिखित आईने-अकबरी में लिखी हुई है। यह पुस्तक भारत का प्रथम गजेटियर मानी जाती है। यह फारसी भाषा में है। सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स के काल में ग्लैडविन ने इसका अंग्रेजी में आंशिक अनुवाद किया, इसके बाद ब्लाकमैन (सन् 1873) और जैरेट (सन् 1891-1894)ने इसका सम्पूर्ण अनुवाद किया। इस पुस्तक में ही अकबर के शासन में प्राप्त इन भारतीय मनसबदारो को राजपूत कहा गया है। अबुल फजल लिखता है कि बादशाह अकबर के शासन में शाही सेना में सबसे ज़्यादा राठौर राजपूत है उसके बाद कछवाह राजपूत है। बादशाह द्वारा दिए गए 33 मनसबो में से 27 मनसब राजपूतों को मिले हुए हैं, इन 27 मनसबो में से 13 मनसब अकेले कछवाह राजपूतों के पास है। जो शाही खजाने से वेतन पाते हैं।
इस पुस्तक में राजपूत नाम एक समूह अर्थात् जाति के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जिसमें ऐसा लगता है कि जिस प्रकार भारत के बाहर वाले अरब देश के लोगों ने भारतीयों को हिंदू व हिंदुस्तान नाम दिया, अंग्रेजों ने इंडिया नाम दिया, गांधी जी ने अछूतों को हरिजन नाम दिया और हमने उसे स्वीकार कर लिया। उसी प्रकार मुगलों ने भारत में शासन करने के लिए अपने सहयोगियों को एक नाम राजपूत दिया तथा मुगलों की राजधानी आगरा से मिले होने के कारण यह क्षेत्र जो हूयेनसांग के समय या सन् 730 में अरब हमलावर जुनैद के समय गुर्जर देश कहलाता था, आगे चलकर अंग्रेजी शासन काल के समय से राजपूताना कहलाने लगा। इस प्रकार से भारत में कछवाहो के नेतृत्व में राजपूत नाम से शासक वर्ग का निर्माण मुगलों ने किया।
15 जून सन् 1576 को हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप की अपार हानि हुई। राणा प्रताप के बहनोई शालिवाहन तोमर जो ग्वालियर के राजपरिवार से थे इस युद्ध में अपने पिता, भाई व पुत्रों सहित शहीद हो गए। राणा प्रताप के 500 रिश्तेदार इस युद्ध में शहीद हुए। परन्तु राणा प्रताप ने अपने जीवन में अकबर से संधि नहीं की। इसी लिए भारतीय विद्वान राणा प्रताप को भारत का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहते हैं जो सत्य है। अकबर की मृत्यु के बाद जहांगीर गद्दी पर बैठा।16 फरवरी सन् 1584 को जहांगीर का विवाह आमेर के राजा भगवानदास की बेटी से हुआ सन् 1587 को जहांगीर का विवाह जोधपुर के मोटा राजा की बेटी से हुआ, 28 मई 1608 को जहांगीर का विवाह आमेर के राजा जगत सिंह की बेटी से हुआ।
पहली फरवरी सन् 1609 को जहांगीर ने ओर्छा के राजा रामचंद्र बुंदेला से वैवाहिक संधि की। जहांगीर के समय ही महाराणा प्रताप के पुत्र राणा अमर सिंह ने जहांगीर से एक सम्मान जनक संधि की।बांसवाड़ा के गहलोत व सिरोही के देवड़ा राजाओं ने भी सम्मानजनक संधि की। वैवाहिक संधि नहीं की। इस संधि में यह तय हुआ कि राणा अमर सिंह को अपनी राजकुमारी की शादी मुगलों के साथ करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा तथा महाराणा स्वयं कभी भी बादशाह की सेवा में अथवा उसके दरबार में उपस्थित नहीं होगा। इस संधि के हो जाने से जहांगीर ने मेवाड़ का वह सारा क्षेत्र महाराणा को लौटा दिया जो अकबर के समय से लेकर उस समय की 48 साल की अवधि में मुगलों के अधीन चला गया था। इस संधि के फलस्वरूप मेवाडी प्रजा पहाडों से निकलकर मैदानों में आ गई। जिससे मेवाड़ के गांव, कस्बों में फिर से बसापत व चहल-पहल होने लगी।जहांगीर के समय में मुगलों से संधि किये हुए राजाओं का राजतिलक मुगलों का प्रधानमंत्री करने लगा था। जहांगीर के बाद शाहजहां गद्दी पर बैठा। शाहजहां ने जसवंत सिंह राठौर को 7000 का मनसबदार बनाया तथा आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह को 5000 का मनसबदार बनाया। शाहजहां के बाद औरंगजेब सम्राट बना। औरंगजेब ने गद्दी पर बैठते ही शासन को इस्लाम के कानून से चलाने की कोशिश की। औरंगजेब ने आगरा में अकबर द्वारा स्थापित जयमल व पत्ता की प्रतिमा को तुड़वा दिया। गैर मुस्लिम पर जजिया कर लगा दिया। औरंगजेब की इन हरकतों से अपमानित होकर राज्य में शासन व जनता के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गये।28 अगस्त सन् 1667 को आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु हो गई। जय सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब बेलगाम हो गया। मुगल राजधानी आगरा के निकट ही मथुरा में गोकुल जाट के नेतृत्व में जाट जाति के किसानों ने सन् 1669 में स्थानीय प्रान्तीय अधिकारी अब्दुल्ल नबी को मार डाला। गोकुल जाट के नेतृत्व में साधारण किसानों ने सादाबाद परगने में सम्राट के समर्थकों को नेस्तनाबूद कर दिया।तिलपत नामक स्थान पर शाही सेना के साथ संघर्ष में गोकुल को गिरफ्तार कर लिया गया तथा बाद में शहीद कर दिया गया।
दक्षिण में शिवजी के नेतृत्व में स्थानीय जनता ने संघर्ष का बिगुल बजा दिया। शिवाजी ने स्थानीय किसान जातियों को संगठित कर मराठा नाम दिया।
मराठा -मर जाये पर हटे ना, मरहटा
मराठा नाम मुगल शाही व आदिल शाही से लड़ने के लिए छत्रपति शिवाजी ने अपने क्षेत्र में रहने वाली उन जातियों को दिया था जिन्होंने शिवाजी के साथ मिलकर संघर्ष किया। इनमें सबसे प्रमुख वे जातियां थी जिनके सरदारों का शिवाजी के साथ रिश्तेदारी के रूप में सीधा सम्बन्ध था। भोसले -जो शिवाजी स्वयं थे। शिवाजी की आठ पत्नियां थी शिवाजी की पत्नियाँ जिन जातियं सरदारों के परिवार से थी वे निम्न है --1- निम्बालकर -साईबाई। 2- मोहिते -सोयराबाई।3- पालकर -पुतलीबाई।4- इन्गले -गुणवंतीबाई। 5- सिर्के -सगुनाबाई।6- जाधव (यादव) -काशीबाई।7- वैचारे - लक्ष्मीबाई। 8- गायकवाड़ -सकूराबाई।
शिवाजी के सेनापति नेताजी पालकर(कायस्थ) उनकी पत्नी पुतलीबाई के परिवार से थे, शिवाजी के सेनापति हंसाजी मोहिते उर्फ हम्मीर राव मोहिते शिवाजी की पत्नी सोयराबाई मोहिते के भाई थे तथा शिवाजी के पुत्र राजाराम की दूसरी पत्नी ताराबाई के पिता थे। शिवाजी के सेनापति प्रताप राव गुर्जर अपने जीवित रहने तक शिवाजी के रिश्तेदार नहीं थे। परन्तु प्रताप राव गुर्जर की शहादत के बाद शिवाजी ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले अपने बेटे राजाराम का विवाह प्रताप राव गुर्जर की पुत्री जानकीबाई से करा कर जानकीबाई को महारानी घोषित कर दिया था। अतः गुर्जर योद्धा प्रताप राव गुर्जर भी शिवाजी के सीधे रिश्तेदार थे। आगे चलकर सतारा के पास कन्हैर खेड़ा के पाटिल जो कि शिंदे जाति से थे की बेटी का विवाह सम्भाजी के बेटे व शिवाजी के पोते साहू के साथ हुआ था अतः उपरोक्त सभी जातियां उच्च कोटि के मराठा कहलाये। मराठा संघ में आगे चलकर 96 जातियां सम्मलित हो गई तथा भारत में मराठा नाम की जाति बन गई। महाराष्ट्र में भोसले,शिंदे व गुर्जर किसान जो कणबी -कुणबी -कुर्मी जाति समूह में आते हैं, इस कारण से उत्तर भारत के कुर्मी व गुर्जर भी शिवाजी को अपनी जाति का मानते हैं। शिवाजी के नेतृत्व में मराठों ने मुगल व आदिल शाही सत्ता के विरुद्ध सफल संघर्ष किया तथा भारतीयों की मान प्रतिष्ठा को चार चांद लगा दिए। शिवाजी के सेनापति प्रताप राव गुर्जर के नेतृत्व में मराठा सेना ने फरवरी 1672 को सलहेर के युद्ध में मुगल सेना को परास्त कर दिया। भारतीय नेतृत्व को यह जीत पृथ्वीराज चौहान की तराईन (सन् 1191) के युद्ध में मुहम्मद गौरी पर विजय के 480 वर्ष बाद प्राप्त हुई थी। सन् 1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ। इस राज्याभिषेक में एक प्रश्न फिर जाति का खडा हो गया। यह प्रश्न जाति की विविधता का नहीं बल्कि जाति के अलगाववाद का था।महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने शिवाजी का राज्याभिषेक करने के लिए यह कह कर मना कर दिया कि वह शुद्र है इसलिए राज्याभिषेक नहीं हो सकता। आखिर शिवाजी जैसे पराक्रमी को किस आधार पर नकारा जा रहा था और वो भी ऐसे समय में जब भारतीय समाज सैकड़ों वर्ष से विधर्मियों के शासन में कराह रहा था। शायद इसका आधार यही था कि शिवाजी यज्ञोपवीत संस्कार कराये हुए नहीं थे, वे तो भगवान् शिव की परिपाटी के थे। परन्तु मनुस्मृति या ब्राह्मण धर्म के अनुसार जिसका यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो वह शुद्र में आता था इसलिए महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने राज्याभिषेक से मना कर दिया।गुर्जर प्रतिहारो के समय जो ब्राह्मण शिव के उपासकों के निकट आ कर उनके द्वारा दिए गए दान दक्षिणा व कृपा पर जीवन यापन कर रहे थे, वे कब में मालिक बन गए पता ही नहीं चला। शिवाजी को उनके साथ कठोरता से पेश आना चाहिए था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। शिवाजी के मोन से ब्राह्मणों का भारत के शैव व वैष्णव दोनों पंथो पर अधिकार का दावा पक्का हो गया। क्या शिवाजी किसी राज्याभिषेक के मोहताज थे? अब शिवाजी ने अपने एक प्रतिनिधि को हिंदुओं की धार्मिक नगरी वाराणसी भेजा, वाराणसी में शिवाजी का प्रतिनिधि कागभट् नामक प्रसिद्ध ब्राह्मण से मिला तथा शिवाजी के राज्याभिषेक में बाधा को दूर करने का आग्रह किया। कागभट् ने कागभटी् नामक ग्रन्थ लिखा, जिसमें शिवाजी के वंश को मेवाड़ के सिसोदिया वंश से जोडते हुए भगवान् राम के वंश से जोडकर क्षत्रिय वर्ण से जोड कर राज्याभिषेक किया। यहां निर्णय कृष्ण जी के गीता के कर्म के आधार पर नहीं हुआ, जन्म के आधार पर हुआ, दूसरी बात यह कि जब शिवाजी को मेवाड़ के सिसौदिया से जोडा, उस समय मेवाड़ के सिसोदिया जहांगीर के समय से मुगल सत्ता के अधीन थे।
सन् 1675,दिसंबर में औरंगजेब ने गुरू तेगबहादुर को यातना देकर शहीद कर दिया। 28 दिसंबर सन् 1678 को जसवंत सिंह राठौर की मृत्यु हो गई। मिर्जा राजा जयसिंह व जसवंत सिंह राठौर दो ऐसे व्यक्तित्व थे जिनसे औरंगजेब दबाव खाता था। इसलिए इनकी मृत्यु पर वह दुखी नहीं हुआ। जसवंत सिंह राठौर की मृत्यु का समाचार जब औरंगजेब को प्राप्त हुआ तो उसने कहा कि कुफ्र का दरवाजा टूट गया। अब औरंगजेब के सामने कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व ऐसा नहीं रहा जो कुछ कह सके। अब 12 अप्रैल सन् 1679 को औरंगजेब ने राज्य की ओर से आदेश पारित कर इस्लाम को राज्य धर्म घोषित कर दिया। औरंगजेब ने संसार भर में प्रसिद्ध बनारस के विश्वनाथ मंदिर, मथुरा के केशव धाम तथा पाटन के सोमनाथ जैसे मंदिरों को गिरा दिया। यहां तक कि मुगलों के रिश्तेदार रहे जयपुर आदि में स्थित मंदिरों को भी तोड डाला।
शिवाजी के राज्याभिषेक होने के कारण मुगल शाही व आदिल शाही, कुतुब शाही के अलावा भारतीयों की एक शक्ति मराठा के रूप में प्रकट हो चुकी थी। इन सब के दमन के लिए औरंगजेब ने स्वयं दक्षिण की ओर सन् 1680 में कूच किया। औरंगजेब के उत्तरी भारत से जाते ही भारतीयों ने शासन के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। सन् 1686 में सिंसनी के राजाराम तथा सोधर के रामचेरा ने संघर्ष की कमान सम्भाल ली तथा सन् 1687 में ख्याति प्राप्त मुगल सेनानायक युगीर खान को मार डाला। मुगल सामंत मीर इब्राहिम की सम्पत्ति राजाराम ने छीन ली, राजाराम ने सिकंदरा में अकबर के मकबरे को तहस-नहस कर डाला। जुलाई सन् 1688 में राजाराम व मुगल सेना में हुई जंग में राजाराम अपने 1500 साथियों के साथ शहीद हो गया। मुगल सेना के 900 सैनिक मारे गए। इस प्रकार विश्व की शक्तिशाली प्रशिक्षण प्राप्त सेना से सामान्य जाटों ने डटकर लडाई लडी।
सन् 1699 में गुरू गोविंद सिंह ने सिक्ख सम्प्रदाय को एक सैनिक सम्प्रदाय में बदल कर खालसा पंथ की नींव रख दी तथा मुगल सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया।
25 जनवरी सन् 1700 को आमेर के शासक के रूप में जय सिंह द्वितीय गद्दी पर बैठे।सम्राट ने जय सिंह को दक्षिण में चल रहे युद्ध में भाग लेने के लिए कई बुलावे भेजे।लेकिन यह टालमटोल करते रहे। इनकी इस हरकत से नाराज होकर औरंगजेब ने 13 सितम्बर सन् 1701 को इन्हें पदावनत कर मात्र 500 जात व 100 सवार का मनसबदार बना दिया। परन्तु इनका राजा का खिताब नहीं छीना। अब मजबूर होकर अक्टूबर सन् 1701 में ये दक्षिण पहुंचे। इन्हें औरंगजेब के पोते शाह बिदरबखत के साथ सहयोगी नियुक्त कर दिया गया। 11 मई सन् 1702 को जय सिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर, बिदरबखत की सिफारिश पर इन्हें 2000 का मनसबदार बना दिया गया। जब शहजादा बिदरबखत मालवा का सूबेदार बना। तब उसने जय सिंह की सेवाओं का सम्मान करते हुए मालवा का नायब सूबेदार बना दिया। जिसे औरंगजेब ने नामंजूर कर दिया तथा शहजादे बिदरबखत को एक फरमान लिखा कि आगे से किसी हिन्दू को मामूली फौजदार भी नहीं बनाया जाय। यह फरमान औरंगजेब की गैर मुस्लिम से घृणा को दर्शाता है।
चमकौर के युद्ध में 21-22-23 दिसंबर सन् 1704 को गुरू गोविंद सिंह जी के दो बेटे अजीत सिंह व जुझार सिंह शहीद हो गए। चमकौर से निकलते समय सरसा नदी पार करते हुए माता गूजरी व साहबजादे जोरावर सिंह व फतेह सिंह बिछुड गये।माता गूजरी दोनों साहबजादो को अपने यहां 20 वर्ष से रसोईये का काम कर रहे ब्राह्मण गंगू के यहाँ जा ठहरी। गंगू को लालच आ गया। क्योंकि माता गूजरी के पास गहने व सोने के सिक्के थे। गंगू ने मोरिणडा नगर के शहर कोतवाल को बताकर इन्हें गिरफ्तार करवा दिया। 26 दिसंबर सन् 1704 को सरहिंद के नवाब ने दोनों को दीवार में चुनवा कर मार डाला।
औरंगजेब दक्षिण में मराठों से संघर्ष करता हुआ 21 फरवरी सन् 1707 में मर गया। लेकिन औरंगजेब की कट्टरता ने मुगल सत्ता की जडे हिला दी।औरंगजेब की मृत्यु के बाद जय सिंह का मनसब बढाकर 5000 जात व 500 सवार का कर दिया गया।लेकिन कुछ परिस्थिति ऐसी बनी कि 10 जनवरी सन् 1708 को जय सिंह से आमेर की जागीर छीनकर इनके छोटे भाई विजय सिंह (चीमा जी) को दे दी गई। इन्हें मामूली मनसबदार बना दिया गया। इस संकट की घड़ी में मेवाड़ के राणा अमर सिंह ने जय सिंह का साथ दिया, राणा अमर सिंह ने अपनी पोती का विवाह जय सिंह से कर दिया तथा अपनी तीस हजार की सेना लेकर जोधपुर पर हमला कर 8 जुलाई 1708 को अपने अधिकार में ले लिया। चारों ओर भारतीय अपने हक के लिए संघर्ष कर रहे थे। मुगलों को मराठों व जाटों से समझौते करने पड़े।
सिक्खों ने बंदा बैरागी के नेतृत्व में सफल संघर्ष किया। सन् 1716 में बंदा बैरागी का बलिदान हो गया।बंदा बैरागी के बलिदान के बाद सिक्खों का संघर्ष रूक सा गया।
मुगल बादशाह बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी ने आमेर और मारवाड दोनों राजाओं को 7000 का मनसबदार बना दिया। अब की बार की मनसबदारी अपमान जनक आधार पर नहीं थी। यह एक सम्मान जनक संधि थी। दिल्ली के बादशाह ने जय सिंह को भरतपुर के जाट योद्धा चूडामण पर हमला करने का आदेश दिया। सितम्बर सन् 1722 को अपनी सेना लेकर मथुरा के लिए रवाना हुए। चूडामण जाट का पुत्र मोहकम सिंह इस समय जाटों का नेता था। परन्तु चूडामण का भतीजा बदन सिंह चूडामण से नाराज था, बदन सिंह इस अवसर पर जय सिंह से आ मिला। अब थूण के किले का घेरा डाल दिया गया। बदन सिंह के मुगल शासन में सहयोगी हो जाने पर मोहकम सिंह का साहस टूट गया। अब मोहकम सिंह निराश होकर गुप्त मार्ग से किला छोड़कर चला गया। अब किले पर जय सिंह का अधिकार हो गया। जय सिंह ने सूरजमल के पिता बदन सिंह को भरतपुर की जागीर दी तथा राजा का खिताब देकर बदन सिंह के पगड़ी बांधी। 19 जून सन् 1723 को ठाकुर बदन सिंह जाट ने आमेर (जयपुर)दरबार की सेवा करने व 83000 हजार रूपए बतौर सलाना पेशकश देना स्वीकार करके लिखित में यह समझौता किया कि बदन सिंह आमेर (जयपुर) के दशहरा दरबार में आया करेंगे। जय सिंह ने सन् 1727 में जयपुर नगर बसाने की नींव रखी।
धीरे-धीरे मराठों ने अपनी शक्ति का विस्तार किया तथा बाजीराव मल्हार पेशवा जो बडा बहादुर व सभी को सम भाव से देखने वाला व्यक्ति था,के नेतृत्व में सफल संघर्ष किया । महाराणा प्रताप व शिवाजी के बाद बाजीराव पेशवा का ही नाम आता है जिन्होंने मुगलों से लम्बे समय तक लोहा लिया। बाजीराव के समय महाराष्ट्र, गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड सहित 70 %से 80%भारत पर मराठों का कब्जा था। इतिहास में ऐसे कई वीर हुए हैं जिन्होंने मुगलों को दिल्ली तक समेट दिया था। उनमें से एक बाजीराव भी थे। बाजीराव ने मराठा छत्रपति साहू की ताकत का लोहा पूरे भारत में मनवाया। भारत में पहली बार "हिंदू पद पादशाही "का सिद्धांत भी बाजीराव ने ही दिया था। बाजीराव ने अपने कार्यकाल में धर्म व जाति के आधार पर किसी से अन्याय नहीं किया। होल्कर, सिंधिया, पंवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकते जो अस्तित्व में आयी, वे सब बाजीराव की देन थी। ग्वालियर, इंदौर, पूना व बडौदा जैसी ताकतवर रियासते बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आई। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा रही।
हिन्दुस्तान के इतिहास में बाजीराव अकेला ऐसा योद्धा था जिसने 41 लडाईया लडी और एक भी नहीं हारी। वर्ल्ड वार सेकेंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे प्रसिद्ध जनरल मांटगोमरी ने अपनी किताब "हिस्ट्री आंफ वाँरफेयर "में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है। दिल्ली पर आक्रमण उनका सबसे बड़ा साहसिक कदम था, बाजीराव का मानना था कि जब तक मुगलों की राजधानी दिल्ली पर ही हमला नहीं होगा, भारतीयों का मनोबल मुगलों के सामने गिरा ही रहेगा।बाजीराव ने तीन दिन तक दिल्ली को घेरे रखा। यह 28 मार्च 1737 की घटना है।
बाजीराव ने मस्तानी नाम की एक मुस्लिम महिला से शादी कर ली थी। मस्तानी की कोख से बाजीराव को एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम बाजीराव ने कृष्णाराव रखा। लेकिन हिन्दू धर्म के संस्कार करने वाले ब्राह्मणों ने इस बच्चे का यज्ञोपवीत संस्कार करने से मना कर दिया। ब्राह्मणों की नजरों में बाजीराव की शादी अवैध थी, क्योंकि मस्तानी के बारे में बखर और लेखों से मालूम पड़ता है कि मस्तानी अफ़गान और गूजर जाति की थी। धर्म से मुसलमान थी। बाजीराव स्वयं चितपावन ब्राह्मण थे। अपने समय का सबसे बहादुर योद्धा अपनों से लडाई में हार गया। मजबूर होकर बाजीराव को मस्तानी के बेटे कृष्णाराव को मुसलमान बनाना पडा, अब कृष्णाराव का नाम शमशेर बहादुर हो गया। इस घटना से यह दिखाई देता है कि शैव धर्म की समानता को ब्राह्मणों ने बिलकुल विलुप्त ही कर दिया। सन् 1740 में बाजीराव की मृत्यु हो गई। दिल्ली के निकट तेवतिया जाट नेता गोपाल सिंह(सन् 1705) ने लागोन गांव के गुर्जरों की मदद से रियासत का निर्माण कर लिया था, इसी परिवार में बलराम सिंह (बल्लू) राजा हुए। जिनके नाम से इस रियासत का नाम बल्लभगढ़ पड़ा। भरतपुर के जाट राजा सूरजमल से बलराम सिंह की वैवाहिक संधि थी। मुगल सम्राट ने रियासत पर दबाव बनाने के लिए सीमा से अधिक कर लगा दिया। कर अदा न होने की स्थिति में मुगल सेनानायक ने बलराम सिंह के पिताजी को गिरफ्तार कर लिया। इस अपमान से क्रोधित होकर बलराम सिंह ने मुगल अधिकारी पर हमला कर जान से मार डाला।ऐसी परिस्थिति में अपने चार सैनिक अधिकारी सूरती राम गोर, भरत सिंह, दोलतराम और कृपा राम गुर्जर से घसेरा के किले में सलाह मशविरा कर 10 मई सन् 1753 को भरतपुर के राजा सूरजमल ने दिल्ली पर हमला कर अधिकार कर लिया। इस संघर्ष में 29 नवंबर सन्1753 में बलराम सिंह भी शहीद हो गए। बलराम सिंह की मृत्यु का सूरजमल जी को आघात लगा। अब मुगल सम्राट ने अपने को बचाने के लिए मराठों से गुहार लगाई।मराठों ने सेना भेजकर दिल्ली को सूरजमल से मुक्त करा लिया। इस घटना से मुगल शक्ति की कलई खुल गई। मराठों ने मुगल सम्राट को बचा लिया। सूरजमल के हमले का परिणाम यह निकला कि भारतीयों के मन में जो मुगल शक्ति की अहमियत थी वह शून्य हो गई। इन परिस्थितियों में रूहेलखंड के नजीबुद्दोला व अवध के मुस्लिम शासकों ने योजना बना कर अफगानिस्तान से अहमद शाह अब्दाली को दिल्ली पर हमले के लिए आमंत्रित किया। ये लोग जानते थे कि जब दिल्ली पर हमला होगा तो मुगल सम्राट मराठों को ही मदद के लिए पुकारेगा। इन परिस्थितियों के सन् 1761 में मराठों व अफगानो के मध्य पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ। जिसमें मराठा सेना हार गयी। एक बार फिर भारतीयों के मन पर मुस्लिम वर्चस्व छा गया। परन्तु सन् 1763 में सूरजमल ने फिर दिल्ली पर हमला कर दिया। इस युद्ध में सूरजमल शहीद हो गए। अब भरतपुर के राजा सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह बन गए। सन् 1764 में भरतपुर के राजा सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह ने होल्कर व सिक्खों को साथ लेकर दिल्ली पर हमला बोल दिया। क्षेत्र में प्रचलित किवदंती के अनुसार जवाहर सिंह के मित्र दिल्ली के निकट के गांव फतेहपुर बैरी गांव के बल्ले सिंह तंवर ने दिल्ली के किले का दरवाजा तोड दिया। जिसमें बल्ले सिंह तंवर की शहादत हो गई। गांव-देहात में आज भी इस संघर्ष पर बनी रागनी लोग बड़े चाव से सुनते हैं।जवाहर सिंह दिल्ली से किले के दरवाजे को उखाड़ कर भरतपुर ले गया, जिन दरवाजों को अलाउद्दीन खिलजी कभी चित्तौड़ के किले से उखाड़ लाया था। इस हमले से भारतियों के मन से पुनः मुस्लिम सैनिक वर्चस्व का भय समाप्त हो गया।
सन् 1771 में मराठो ने पुनः अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए महादजी शिंदे (सिंधिया) ने दिल्ली से अफगान शासन का अंत कर मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को गद्दी पर बैठा दिया। मुगल बादशाह अब नाम का ही शासक था। सन् 1783 में करोड़सिंहिया मिसल के नायक जट सिक्ख बघेल सिंह ने 30 हजार की सेना लेकर दिल्ली पर हमला कर दिया। दिल्ली पहुंच कर जहां बघेल सिंह की सेना रूकी वहां आज तीस हजारी कोर्ट स्थापित है। बघेल सिंह ने लाल किले पर कब्जा कर खालिस्तानी ध्वज फहरा दिया। बघेल सिंह नौ महीने दिल्ली पर काबिज रहा तथा उसने दिल्ली में सात गुरुद्वारों का निर्माण कराया। जो निम्न है -गुरूद्वारा माता सुंदरी, गुरुद्वारा बंगला साहिब, गुरूद्वारा रकाबगंज, गुरूद्वारा शीशगंज, गुरूद्वारा मजनू का टीला, गुरूद्वारा बाला साहिब, गुरूद्वारा मोतीबाग।
रूहेला सरदार नजीबुद्दोला के पोते गुलाम कादिर ने दिल्ली पर कब्जा कर मुगल बादशाह की आंख फोड़ कर अंधा कर दिया। मराठा महादजी शिंदे ने गुलाम कादिर पर आक्रमण कर मार डाला तथा अक्टूबर 1789 में अंधे शाहआलम को पुनः दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया।
इस प्रकार दिल्ली पर पेशवा बाजीराव ने सन् 1737 में जिस हमले का श्रीगणेश किया था सन् 1789 तक आठ हमले दिल्ली पर भारतीयों द्वारा किए गए। इन हमलों में चार हमले मराठों ने किये तथा तीन हमले भरतपुर के जाटो ने किये व एक हमला खालसा सेना ने किया।
इस समय भारत में एक प्रकार से मुगल सत्ता का अंत ही हो चुका था।
संदर्भ ग्रंथ
1- डॉ सुशील भाटी -
(क)जम्बू दीप का सम्राट कनिष्क कोशानो।
(ख) शिव भक्त सम्राट मिहिर कुल हूण।
2- विद्याधर महाजन -प्राचीन भारत का इतिहास।
3- भारत का इतिहास -डॉ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव।
शुक्रवार, 23 अगस्त 2019
भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में धर्म, जाति व वंश का योगदान (प्रारम्भ से मुगल शासन के पतन तक) -लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
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