सोमवार, 30 मार्च 2020

कुर्बानी की राह में एक और शहादत राजा सूरजमल-लेखक अशोक चौधरी मेरठ

अपने देश , धर्म,सम्मान व सम्पत्ति को बचाने के लिए भारतीयों ने अतुलनीय बलिदान दिये है,उन बलिदानी महापुरुषों मे एक नाम महाराजा सूरजमल का भी है,महाराजा सूरजमल एक जागीर दार के पुत्र के रूप में फरवरी सन् 1707 में पैदा हुए,22 मई सन् 1755 को उनका राजतिलक हुआ। सूरजमल जी ने सन् 1755 से लेकर पानीपत के तिसरे युद्ध 14 जनवरी सन् 1761 तक अपनी राजनीतिक कुशलता से अहमद शाह अब्दाली व मराठों के घमासान के बीच अपने आप को जिस प्रकार बचाये रखा,वह अपने आप में बेमिसाल है।
महाराजा सूरजमल ने सन् 1761के प्रारम्भ से लेकर अपनी मृत्यु 25 दिसम्बर सन् 1763 तक जिस आक्रामकता से ,पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के बाद  अहमद शाह अब्दाली के द्वारा रूहेलो,बलूचो व अफगानियो के शिकंजे में जकड़े हुए भारतीयों को मुक्त करा कर जो ग़ौरव प्रदान किया, उसके लिए भारतीय उन्हें सदा स्मरण करते रहेंगे।
जैसा कि हम सबको ज्ञात हैं कि गोकुला व राजाराम की शहादत के बाद गैर राजपूत किसानो का संघर्ष जो मुगल सत्ता से चल रहा था,का नेतृत्व राजाराम के छोटे भाई चूडामन के हाथों में आ गया था।
सन् 1707 मे सम्राट औरंगजेब की मृत्यु दक्षिण में औरंगाबाद में हो गई थी। मराठों के साथ संघर्ष में मुगल सत्ता की चूले हील गई थी। अतः औरंगजेब के बाद जो सम्राट बने उन्होंने भारतीयों से समझोते करने प्रारंभ कर दिए थे। भारतीय अपने पराक्रम से नई रियासतों का निर्माण भी कर रहे थे,इन्ही प्रयासों मे सन् 1710 मे तेवतिया जाटों ने लागोन के गुर्जरों की मदद से बल्लभगढ़ की रियासत बना ली थी, जिसे मुगल बादशाह ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी।
आमेर (जयपुर) के कछवाहा राजपूत मुगलों के साथ औरंगजेब की मृत्यु के बाद भी अकबर के समय जैसी निष्ठा  से ही खडे थे, अतः सन् 1717 मे मुगल बादशाह फर्रूखसियर ने कछवाह राजा सवाई जयसिंह को थूण  के किले में स्थित चूडामन को समाप्त करने का आदेश दिया।जय सिंह ने किले का घेरा डाल दिया। इस समय मुगल दरबार में धड़ेबाजी प्रारंभ हो गई थी।सवाई राजा जयसिंह व बूंदी के चौहान सम्राट के सीधे संपर्क में थे,दूसरा धडा सैयद बंधुओं का था, जोधपुर के अजीत सिंह राठौड़ व चूडामन सैयद बंधुओं के धड़े में थे। अतः जब जयसिंह ने चूडामन पर सैनिक दबाव बनाया तो सैयद बंधुओं ने सम्राट के सामने चूडामन को पेश कर समझोता करा दिया। जिस पर जयसिंह को थूण के किले का घेरा उठाकर बेरंग लोटना पडा। सन् 1719 मे सैयद बंधुओं ने मराठाओं  के सहयोग से सम्राट फरुखसियर की हत्या कर दी। 29 सितंबर सन् 1719 को अहमद शाह रंगीला बादशाह बना, उसने सैयद बंधुओं को मार डाला तथा अजीत सिंह राठौड़ व चूडामन को समाप्त करने के लिए सवाई राजा जयसिंह को आगरा का सूबेदार बनाकर भेजा। राजा जयसिंह ने अजीत सिंह राठौड़ को उसके छोटे बेटे बाघ सिंह के द्वारा जहर खिलाकर मरवा दिया।चूडामन अपने बड़े बेटे मोहकम सिंह की गलत हरकतों से परेशान होकर सन् 1721मे जहर खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुका था। अब विद्रोही किसानों का नेता मोहकम सिंह था, मोहकम सिंह ने अपने छोटे भाई जुलकरण सिंह व चाचा बदन सिंह को बुरी तरह परेशान कर रखा था। अतः परिवार में फूट पडी हुई थी,इन परिस्थितियों में राजा जयसिंह ने अपने 14000 सिपाहियो के साथ मोहकम सिंह को थूण के किले में जाकर घेर लिया। तीन सप्ताह तक मोहकम सिंह ने शाही सेना का सामना किया।अब भेद निति अपनाकर जय सिंह ने बदन सिंह से सम्पर्क साधा।बदन सिंह ने मोहकम सिंह की रणनीतिक कमजोरी जय सिंह को बता कर सेहगर व सांसनी की गढ़ियों पर जयसिंह का कब्जा करवा दिया। अपनी हार को देख मोहकम सिंह ने किले में रखें बारूद मे आग लगा कर भागने की योजना बनाई। जिस की सूचना बदन सिंह ने समय रहते ही जयसिंह को दे दी। अतः विस्फोट होने से पहले ही जयसिंह ने अपनी सेना को पीछे हटा लिया। विस्फोट इतना शक्तिशाली था कि यदि जय सिंह पिछे ना हटता तो सेना सहित समाप्त हो जाता। मोहकम सिंह किले के गुप्त रास्ते से निकल गया।यह घटना 7-8 नवम्बर सन 1722 की रात्रि की थी।जय सिंह ने थूण के किले को ढहा कर,उस पर गधों से हल चलवा दिया।
इस घटना के बाद सवाई जयसिंह व बदन सिंह मैं दोस्ती हो गई।बदन सिंह की सेवा को देखते हुए,2 दिसंबर सन् 1722 को जयसिंह ने तिलक लगाकर बदन सिंह को जागीर दार घोषित कर दिया,बदन सिंह को ठाकुर की पदवी दी तथा मुगल बादशाह ने ब्रजराज की उपाधि बदन सिंह को दी। बदन सिंह बहुत ही शील स्वभाव के व्यक्ति थे,वो पूरी आयु अपने को जयसिंह का सामंत ही बताते रहे, इस घटनाक्रम से मुगल सत्ता से जाटों का जो गला काट संघर्ष गोकुला के समय से चल रहा था उस पर विराम लग गया। आमेर के कछवाहो ने जो हानि अब तक किसान संघर्ष को पहुंचाई थी,सवाई जयसिंह की सूझबूझ से उस पर मरहम लग गया। सूरजमल इन्ही बदन सिंह के पुत्र थे।
सन् 1732 में बदनसिंह ने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर गांव के सोघरियों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सूरजमल ने सोघर को जीत लिया। वहाँ राजधानी बनाने के लिए किले का निर्माण शुरू कर दिया। भरतपुर में स्थित यह किला लोहागढ़  के नाम से जाना जाता है।
सन् 1735 मे चम्बल के पास गोहद के निकट समथर के नाम से एक गुर्जर रियासत का निर्माण नोनेशाह गुर्जर के द्वारा हो गया था।
सन 1737 के बाद दिल्ली के आसपास मराठों का दखल बढ़ गया था। सन् 1739 मे नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला कर लूट लिया था। मुगल सत्ता अपने सामंतो के बल पर चल रही थी।21 सितंबर सन् 1743 को सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गई।
सन् 1749 को दिल्ली के निकट मेरठ में पूर्वी परगना के नाम से एक गुर्जर रियासत का निर्माण हो गया था जिसकी राजधानी  किला-परिक्षत गढ़ थी,राजा जेत सिंह नागर इसके निर्माता थे।
सन् 1759 मे हरिद्वार के निकट लंढोरा नामक एक और गुर्जर रियासत अस्तित्व में आ गई थी,जिसके निर्माता राजा मनोहर सिंह पंवार थे।
राजा बदन सिंह और सूरजमल भरतपुर के लोहा गढ़ किले में सन् 1753 में आकर रहने लगे।
भरतपुर के किले का निर्माण- कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदनसिंह की आंखों की ज्योति क्षीण होने लगीं थी। अतः बदन सिंह ने विवश होकर राजकाज अपने योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को सौंप दिया। वस्तुतः बदनसिंह के समय भी शासन की असली बागडोर सूरजमल के हाथ में रही।
भरतपुर के  राजा सूरजमल की बल्लभगढ़ के बलराम सिंह से वैवाहिक संधि थी। मुगल सम्राट ने बल्लभ गढ़ रियासत पर दबाव बनाने के लिए सीमा से अधिक कर लगा दिया। कर अदा न होने की स्थिति में मुगल सेनानायक ने बलराम सिंह के पिताजी को गिरफ्तार कर लिया। इस अपमान से क्रोधित होकर बलराम सिंह ने मुगल अधिकारी पर हमला कर जान से मार डाला।ऐसी परिस्थिति में अपने चार सैनिक अधिकारी सूरती राम गोर, भरत सिंह, दोलतराम और कृपा राम गुर्जर से घसेरा के किले में सलाह मशविरा कर 10 मई सन् 1753 को भरतपुर के राजा सूरजमल ने दिल्ली पर हमला कर दिया। इस संघर्ष में 29 नवंबर सन्1753 में बलराम सिंह भी शहीद हो गए। बलराम सिंह की मृत्यु का सूरजमल जी को आघात लगा।  अब मुगल सम्राट ने अपने को बचाने के लिए मराठों से गुहार लगाई।मराठों ने मल्लाहर राव होलकर के नेतृत्व में सेना भेजकर दिल्ली को सूरजमल से मुक्त करा लिया। 

3- जून सन् 1754 को बने 14 वें मुगल बादशाह ने मराठों से संधि कर मराठों को मुगल साम्राज्य का संरक्षक बना दिया तथा इस संधि के अनुसार मराठों को वर्तमान राजपूताना राज्य, पंजाब व गंगा-जमुना के दोआबा से भू-राजस्व वसूली का अधिकार मिल गया।इस संधि पर मुगलों की ओर से मुगल बादशाह व मीरबख्शी इमादुलमुल्क तथा मराठों की ओर से सदाशिव राव भाऊ, रघुनाथ राव व मल्लाहर राव होलकर ने हस्ताक्षर किए।
अहमदशाह अब्दाली को यह मालूम था कि नादिरशाह के द्वारा लूट ली गई दिल्ली के पास तो कुछ बचा नहीं है परन्तु बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला  तथा भरतपुर के राजा सूरजमल पर खूब दोलत है अतः इन्हें लूटने के उद्देश्य से सन् 1756 के अंतिम महीने में अब्दाली दिल्ली की ओर चल दिया।मुल्तान और लाहोर पर विजय प्राप्त करने के बाद जब वह आगे बढ़ा तो अब्दाली के आने की सूचना दिल्ली में आ गई।इन परिस्थितियों में अब्दाली को रोकने के लिए भरतपुर के राजा सूरजमल, रूहेला सरदार निजामुद्दौला व इमादुतमुल्क के बीच तिलपत नामक स्थान पर बैठक हुई। राजा सूरजमल ने सुझाव दिया कि राजपूत राजाओं को साथ लेकर एक संघ बनाया जाय, परंतु इमादुतमुल्क मराठाओं को साथ लेना चाहता था।बैठक में कोई निर्णय न हो सका।इमादुतमुल्क मराठों की मदद लेने के लिए दक्षिण चला गया। परन्तु जनवरी सन् 1757 में जब अब्दाली दिल्ली के निकट आ धमका तों रूहेला सरदार नजीबुद्दौला अब्दाली से जा मिला।अब अब्दाली को रोकने वाला कोई नहीं था। जब अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली में प्रवेश किया तो मजबूर मुगल बादशाह ने उसका बाहर आ कर स्वागत किया। दोनों में सन्धि हो गई।अब्दाली ने रूहेला नजीबुद्दौला को अपना प्रतिनिधि मुगल बादशाह के यहां नियुक्त किया।अब्दाली के पुत्र को लाहोर का सूबेदार मुगल बादशाह द्वारा स्वीकार कर लिया गया तथा मुगल बादशाह ने अपनी पुत्री का विवाह अब्दाली के बेटे से कर दिया। अहमदशाह अब्दाली का विवाह मरहूम बादशाह अहमद शाह रंगीला की बेटी से कर दिया गया।
अब अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली में लूट मार शुरू करवा दी। दिल्ली से प्रर्याप्त राशन-पानी इकठ्ठा करने के बाद अब्दाली ने अपनी कुदृष्टि राजा सूरजमल पर डाली।
जब राजा सूरजमल को अहमदशाह अब्दाली के हमले की जानकारी हुई,तब राजा सूरजमल ने राजकुमार जवाहर सिंह को मथुरा की रक्षा के लिए सेना देकर भेजा।
अब्दाली ने राजा सूरजमल को फरमान भेजा कि वह सम्राट के विरोधी अंतजा मानकर,इमादुल मुल्क और राजा नागर मल के परिवार,जो भरतपुर में शरण लिए हुए है को लेकर व कर के रूप में नजराना लेकर खिदमत में पेश हो।
राजा सूरजमल ने जबाव दिया कि वह तो छोटा सा जागीर दार है, सम्राट किसी बड़े राजा को अपने हजूर में बुलाये तो अच्छा रहेगा। जो परिवार भरतपुर में शरण लिए हुए है वह उन्हें अपने जिंदा रहते नहीं दे सकता। राजा सूरजमल खुद डींग मैं मोर्चा लगाकर बैठ गये।
फ़रवरी 1757 मे अब्दाली मथुरा की ओर बढा।इस पर जवाहर सिंह ने अब्दाली की सेना पर हमला कर दिया तथा बहुत से अफगान सैनिकों को मारकर बल्लभ गढ़ चला गया।अब्दाली सेना लेकर जवाहर सिंह के पीछे लपका। परंतु जवाहर सिंह अब्दाली की सेना के पहुंचने से पहले ही बल्लभ गढ़ से निकल गया।अब्दाली ने बल्लभ गढ़ पर अधिकार करने के बाद वहां के समस्त नागरिकों के कत्लेआम का आदेश दे दिया।पूरा नगर लाशों से पट गया।
अब अब्दाली ने रूहेला नजीबुद्दौला व जहीन खां सहित मथुरा पर हमला कर दिया। मथुरा से आठ मील पहले चौमुंहा मे जवाहर सिंह ने अपने दस हजार सैनिकों के साथ अब्दाली का रास्ता रोक लिया।नौ घंटे तक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ओर से हजारों सैनिक मारे गए। जवाहर सिंह की सेना इस युद्ध में परास्त हो गई। परंतु इस संघर्ष से अब्दाली यह समझ गया कि राजा सूरजमल सैनिक शक्ति में इतना कमजोर नहीं है जितना वह समझे हुए था।
एक मार्च सन् 1757 को अब्दाली की सेना मथुरा में घुस गई। होली के त्यौहार को दो दिन ही बीते थे। राजा सूरजमल पर दबाव बनाने के लिए अब्दाली ने मथुरा के नागरिकों पर अमानुषिक अत्याचार किए। मथुरा के प्रत्येक स्त्री-पुरूष को नंगा किया गया।जो हिन्दू थे उन्हें मार डाला गया,जो मुसलमान थे उन्हें जिवित छोड दिया गया।सभी महिलाओं से बलात्कार किया गया,जो हिन्दू थी, उन्हें मार डाला गया,जो मुस्लिम थी उन्हें जीवित छोड़ दिया गया।
6-मार्च 1757 को अब्दाली की सेना वृंदावन पहुंची। वहां भी मथुरा वाला व्यवहार ही किया गया।

 मथुरा वृंदावन को लूट कर अफगान कमांडर सरदार खां गोकुल की ओर बढा,तब तक गोकुल में चार हजार नागा साधु इकट्ठा हो चुके थे।अफगाग सरदार खां के दस हजार सिपाहियों को चार हजार नागा साधुओं ने भगा भगाकर मारा।एक एक नागा साधु ने 100-100 अफगान सिपाहियों को मार डाला।जब अफगान सिपाही भागने लगे तब सरदार खां ने एक पत्र अहमद शाह अब्दाली को लिखा कि उसकी सेना में हैजा फैल गया है, इसलिए सिपाही मर गए हैं।

अहमदशाह अब्दाली ने बंगाल के एक कानून विद जुगल किशोर को अफगान सरदार खां द्वारा दी गई हैजा फैलने से सिपाहियों के मरने की सूचना की सत्यता की जांच का कार्य सोंपा। लेकिन सरदार खां ने एक बडी रिश्वत देकर जुगल किशोर से अपने मनमाफिक रिपोर्ट तैयार करवा ली। अर्थात जुगल किशोर ने भी रिपोर्ट दे दी कि सिपाही हैजा फैलने से ही मरे है। अहमदशाह अब्दाली ने गोकुल से लूट मे मिले धन की जानकारी चाही। जुगल किशोर और सरदार खां ने कह दिया कि गोकुल में सिर्फ झोपड़ी थी,वहा लूटने के लिए कुछ नही था।
राजा सूरजमल अपने किलों से बाहर नहीं आ सकते थे, क्योंकि खुले मैदान में अब्दाली की सेना का सामना करने में राजा सूरजमल की सेना असमर्थ थी,अब्दाली फंसने के डर से राजा सूरजमल पर हमला करने के लिए अंदर नहीं घुसना चाहता था।मराठा सेना रघुनाथ राव के नेतृत्व में चल चुकी थी, परंतु धन की कमी के कारण चौथ वसूली में देर लग रही थी, इसलिए सेना की रफ्तार धीमी थी।
21-मार्च सन् 1757 को 15000 घुडसवारो के साथ अब्दाली ने आगरा पर हमला कर दिया।आगरा में लूट मार करने के बाद अब्दाली ने वापस चलने का मन बना लिया। राजा सूरजमल कब्जे में आ नहीं रहा था, बंगाल का नवाब  सिराजुद्दौला अंग्रेजों के जबड़ों में था। ऐसी परिस्थिति में अब्दाली खीझ सा गया था। आगरा से वापस दिल्ली लोटते समय वह लगातार राजा सूरजमल पर धन देने का दबाव बना रहा था, राजा सूरजमल उसे अपने किलों में बुलाने का निमंत्रण दे रहे थे,अब्दाली फंस जाने के डर से राजा सूरजमल के किलो के मकड़जाल में नहीं जाना चाहता था,इसी उहापोह में अब्दाली दिल्ली पहुंच गया। उसने दोबारा मुगल बादशाह से धन की मांग रखी, बादशाह के पास कुछ था नहीं, अतः हरम की महिलाओं से मारपीट कर जो मिला अब्दाली उसे लेकर वापस चला गया तथा लाल किले को रूहेला सरदार नजीबुद्दौला की सुपुर्दगी में दे गया।

कुछ दिनों बाद ही मराठे रघुनाथ राव के नेतृत्व में दिल्ली पहुंच गए। मराठों ने लाल किले  पर आक्रमण कर रूहेला सरदार नजीबुद्दौला को लाल किले से बाहर निकाल फैंका।लाल किले पर कब्जा होने के बाद रघुनाथ राव पंजाब की ओर बढा,अब्दाली का बेटा जो पंजाब पर काबिज हो गया था,को मराठों ने सन् 1758 मैं उसे लाहौर से पीट कर भगा दिया।पूरा क्षेत्र पहले की तरह मराठों के कब्जे में आ गया।अब्दाली को जब मराठों की इस कार्रवाई का पता चला तो वह आगबबूला हो गया तथा लाल किले पर दूसरे हमले की तैयारी में लग गया।
सन् 1760 मै अब्दाली एक मजबूत सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। दिल्ली पर हमला कर वह तीन लोगों को बर्बाद करना चाहता था। एक ईमादुलमुल्क जिसने अफगान प्रतिनिधि रूहेला सरदार नजीबुद्दौला को हटवा दिया था।दूसरा मराठे, जिन्होंने उसके पुत्र को पंजाब से भगा दिया था।तिसरे राजा सूरजमल को, जिसने अब्दाली को दस लाख रुपए देने का वादा किया था परंतु एक भी रूपया नहीं दिया था।जिस समय अब्दाली अफगानिस्तान से चला,उसी समय मैसूर के शासक हैदर अली ने मराठों पर हमला कर दिया। मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय ने सोचा कि मराठे हैदर अली व अहमदशाह अब्दाली के बीच पीसकर समाप्त हो जायेंगे, इसलिए बादशाह ने रघुनाथ राव द्वारा नियुक्त लोगों को हटा दिया तथा उनके स्थान पर रूहेला सरदार नजीबुद्दौला व अवध के नवाब शुजाउद्दोला को नियुक्त कर दिया।
अब्दाली के हमले की सूचना पाकर मराठा सरदार सदाशिव राव भाऊ 7 मार्च सन् 1760 को दक्षिण भारत से दिल्ली की ओर अपनी सेना लेकर चल दिया।मराठा सेना के साथ 40000 स्त्री-पुरूष व बच्चे भी थे जो पुष्कर, गढ़-मुक्तेश्वर,प्रयाग राज व काशी में विश्वनाथ मंदिर दर्शन कर तिर्थाटन का आनन्द ले रहे थे। सदाशिव राव भाऊ अति आत्मविश्वास से भरा हुआ था,वह अब्दाली को कुछ भी नहीं समझ रहा था। लेकिन वह राजा सूरजमल की इस युद्ध में अहमियत को जानता था।भाऊ ने राजा सूरजमल से सम्पर्क कर मराठों की ओर से लडने का आग्रह किया। राजा सूरजमल ने 10000सिपाहियो के साथ युद्ध में भाग लेने का वादा किया।3-जून 1760को राजा सूरजमल भाऊ से मिला।
अब राजा सूरजमल के आग्रह पर अब्दाली से लडने की रणनीति बनाने के लिए मथुरा में युद्ध-परिषद की एक बैठक बुलाई गई।बैठक में राजा सूरजमल ने भाऊ को सुझाव दिए कि मराठा महिलाओं, अनावश्यक सामग्री व बडी तोपों को ग्वालियर के किले में ही रोक लिया जाय।अब्दाली से मुकाबला गोरिल्ला युद्ध निति से किया जाय।
मथुरा की युद्ध-परिषद के बाद भाऊ व सूरजमल ने मिलकर दिल्ली पर हमला कर अधिकार कर लिया। राजा सूरजमल मराठों से वही स्थान चाहता था जो अब्दाली ने रूहेला सरदार नजीबुद्दौला को दे रखा था। सूरजमल लाल किले की सुरक्षा अपने अधिकार में चाहता था,इमादुलमुल्क को वजीर का पद चाहता था। परंतु भाऊ ने नारोशंकर को वजीर बना दिया। सूरजमल चाहता था कि मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय को मार डाला जाय क्योकि शाहआलम द्वितीय ने ही अब्दाली को बुलाने के लिए पत्र लिखा था। परंतु भाऊ मुगल बादशाह पर बहुत नरम था। कुल मिलाकर स्थिति यह हुई कि भाऊ सूरजमल पर नाराज हो गया। तकरार इतनी बढी कि भाऊ ने सूरजमल पर पहरा बैठा दिया। होलकर व सिंधिया को ऐसा लगा कि दिल्ली में सूरजमल की जान को खतरा हो सकता है, अतः इन्होंने सूरजमल को दिल्ली से जाने की सलाह दी, सूरजमल रात को ही दिल्ली से निकल कर बल्लभ गढ़ पहुंच गए। मराठा सेना को रसद पहुंचाने का काम सूरजमल पर था, मराठों की यह कडी टूट गई थी।जब अब्दाली को राजा सूरजमल और मराठों के बीच तकरार की सूचना मिली तो उसने राजा सूरजमल से समझौता कर अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। परंतु सूरजमल ने अब्दाली के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
अब्दाली राजनीति में माहिर था, उसने घोषणा की कि वह अफगानिस्तान से भारत  में 200 साल से स्थापित मुस्लिम सत्ता को बचाने के लिए आया है जिसे मराठे समाप्त करना चाहते हैं, अतः प्रत्येक मुसलमान इस युद्ध में उसका साथ दे।अब्दाली का आव्हान होते ही समस्त उत्तर भारत की मुस्लिम शक्ति उसके पक्ष में आ गई।रुहेला सरदार नजीबुद्दौला तो पहले से ही अब्दाली के साथ था।
दूसरी ओर मराठा सरदार सदाशिव राव भाऊ ने भी आव्हान किया कि विधर्मी विदेशियों को भारत से खदेड़ने के लिए सभी हिन्दू शक्तियां इस युद्ध में मदद करे।भाऊ को उम्मीद थी कि पंजाब के सिक्ख,बनारस का राजा जो अवध के नवाब शुजाउद्दोला का विरोधी था तथा वर्तमान राजस्थान के राजपूत अपने पर हुए मुस्लिम अत्याचारों को याद कर मराठों का युद्ध में साथ देंगे। परंतु अफसोस, समस्त हिन्दू शक्तियां मराठों ने उनसे कैसे चौथ वसूली की,इसका हिसाब लगाती रही, मुस्लिम अत्याचारों का हिसाब देखा ही नहीं।भाऊ की मदद को कोई नहीं आया।अब मराठों ने अपने बल पर ही अब्दाली से युद्ध की ठान ली। अगस्त सन् 1760 मे मराठों ने अफगानों पर हमला कर दिया तथा दिल्ली से 60 मील दूर पानीपत में अब्दाली से लडने का निर्णय लिया।अब्दाली मराठों के पहुंचने से पहले ही पानीपत पहुच गया।इस तरह नवंबर सन् 1760 मे दोनों सेनाएं युद्ध के लिए आमने-सामने डट गई।
यह ऐसी लडाई थी जिसमें दोनों पक्ष मुगल बादशाह की बादशाहत को बचाने के लिए लड़ने का दावा कर रहे थे, परंतु बादशाह का एक भी सिपाही इस युद्ध में भाग नहीं ले रहा था। रूहेला सरदार नजीबुद्दौला के द्वारा अब्दाली की सेना को रसद लगातार मिल रही थी, मराठा सेना की रसद रूकी पडी थी।इन परिस्थितियों में 14 जनवरी (मकर संक्रांति) सन् 1761को युद्ध शुरू हो गया जिसमें मराठा सेना बुरी तरह पराजित हो गई। सदाशिव राव भाऊ, विश्वास राव, जशवंत राव पंवार, तुकोजी सिंधिया शहीद हो गए,नाना फडनिस व मल्लावराव होलकर युद्ध के मैदान से बच निकले। हजारों की संख्या में मराठा महिलाओं व बच्चों को अब्दाली की सेना ने मार डाला। हजारों की संख्या में युद्ध के मैदान से भागे मराठा सेनिक जब भरतपुर राज्य में पहुंचे तो राजा सूरजमल ने अपनी सेना लगाकर,इन सैनिकों को खाना खिलाकर प्रत्येक मराठे को एक रूपया, एक वस्त्र व एक सेर अन्न देकर मराठों के ग्वालियर राज्य में छुडवा दिया।
अहमदशाह अब्दाली ने हाथी पर बैठकर विजेता के रूप में दिल्ली में प्रवेश किया तथा मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय को एक साधारण कोठरी में बंद करवा दिया।अब्दाली के सैनिकों ने बादशाह शाहआलम द्वितीय की शहजादियों व मुगल अमीरों की बेटियों तथा बेगमों के साथ बहुत ही अपमान जनक व्यवहार किया।
अब अब्दाली ने राजा सूरजमल पर हमले की सोची, परंतु उसकी यह योजना परवान न चढ सकी।
लेकिन अब्दाली ने अपने आदमी भेजकर राजा सूरजमल से उन रूपयों की मांग की जो उसे पिछली बार दो करोड़ से शुरू हो कर दस लाख पर आने के बाद एक रूपया भी नहीं मिला था।अब्दाली ने राजा सूरजमल से एक करोड़ रुपए की मांग की। राजा सूरजमल ने अब्दाली के आदमियों का खूब सत्कार किया, उन्हें अच्छे उपहार भेंट में दे कर कहला भेजा कि वह तो सिर्फ छः लाख रुपए ही दे सकता है।अब्दाली ने सोचा जो मिल जाए वही ठीक।जब राजा सूरजमल से छः लाख रुपए मांगे तो सूरजमल ने एक लाख रुपए दे दिए और कहा कि बाकी बाद में दे दिए जायेंगे।अब्दाली ने एक लाख रुपए ही रख लिए।
अहमदशाह अब्दाली ने लाल किले को छोड़ने से पहले अपने लोगों को आगरा के किले का किलेदार,रूहेलो को भोगांव, मैनपुरी व इटावा, बुलंदशहर,कोल (अलीगढ़),जलेसर, सिकंदरा बाद,कासगंज व सोरों के क्षेत्र  दे दिए। अनूप शहर,स्याना हापुड़ भी रुहेलो को ही मिले।
फरीदाबाद, बटेश्वर, फर्रूखनगर, बहादुर गढ बलूचो के पास रहे,गढी हरसरन मेवों के पास रही। रेवाड़ी, झज्जर, पटोदी,चरखी-दादरी,सोहना, गुड़गांव भी रूहेलो को ही मिले तथा दिल्ली के लाल किले की सुरक्षा की जिम्मेदारी रूहेला सरदार नजीबुद्दौला को दे कर अहमदशाह अब्दाली अफगानिस्तान लौट गया।
अहमदशाह अब्दाली के लौटने के बाद उत्तर भारत की राजनीति बुरी तरह हिचकोले खा रही थी। समस्त हिन्दू जनता का मनोबल गिर गया था। मराठा शक्ति तेज खो चुकी थी, राजपूत शक्ति दड साधे हुए थी। निर्धन, असहायों की कोई सुध लेने वाला नहीं था। कृषि, पशुपालन, कुटीर धंदे सब बंद पड़े थे।
इस निराशा भरे माहौल में राजा सूरजमल अपनी 25000 की सेना के साथ ऐसे बाहर निकल पड़े, जैसे घनघोर अंधेरी रात के बाद सूरज निकलता है। राजा सूरजमल ने आगरा के लाल किले पर अधिकार करने के लिए 3-मई सन् 1761को अपने सैनिक अधिकारी बलराम सिंह के नेतृत्व में हमला कर दिया।आगरा के किले दार ने किले को बचाने के लिए संघर्ष किया।इस हमले में राजा सूरजमल के 200 सैनिक शहीद हो गए।
24-मई सन् 1761को राजा सूरजमल की सेना ने मथुरा से कोल (अलीगढ़) पहुंच कर,कोल के साथ जलेसर पर भी अधिकार कर लिया।
आगरा के किले के किले दार के परिवार को पकड़ लिया गया। दबाव बनने पर किले दार ने एक लाख रुपए व पांच गांव की जागीर की मांग रखी। राजा सूरजमल ने किले दार की मांग मान ली।12-जून सन् 1761को आगरा के लाल किले पर राजा सूरजमल का अधिकार हो गया। राजा ने ताजमहल में लगे चांदी के दो दरवाजों उतरवा कर, उनकी चांदी उतरवा ली।रूहेलो ने मराठा सरदारों से मैनपुरी, इटावा आदि को छीन लिया था, राजा सूरजमल ने रूहेलो से इन सब क्षेत्रों को छीन लिया तथा रूहेलो को काली नदी के पार धकेल दिया। बुलंदशहर, सिकंदरा बाद, कासगंज व सोरों के क्षेत्रों से भी राजा सूरजमल ने रुहेलो को मार भगाया। अनूप शहर,स्याना, गढ़-मुक्तेश्वर हापुड़ आदि क्षेत्रों से रूहेलो व अफगानियो को मार कर भगा दिया गया। फतेहपुर सीकरी, खेरागढ़, धौलपुर पर भी राजा सूरजमल ने अधिकार कर लिया।
अब राजा सूरजमल ने राजकुमार जवाहर सिंह व नाहर सिंह को वर्तमान हरियाणा के क्षेत्रों में मेवों व बलूचो पर हमला करने के लिए भेजा। जवाहर सिंह ने फरीदाबाद, बटेश्वर और राजा खेड़ा पर अधिकार कर लिया। सिकरवार राजपूतों से सिकरवार ठिकाना,भदावर राजपूतों से भदावर ठिकाना भी जवाहर सिंह ने जीत लिया।
जवाहर सिंह ने रुहेलो से रेवाड़ी, झज्जर, पटोदी, चरखी-दादरी तथा गुड़गांव को भी छीन लिया। सन् 1763 मे फर्रूखनगर के अधिकार को लेकर,बलूचो से जमकर युद्ध हुआ।मुसाबीखां बलूच ने जब जवाहर सिंह को कब्जा नहीं दिया तब राजा सूरजमल को युद्ध में भाग लेना पड़ा।12- दिसंबर सन् 1763 को फर्रूखनगर पर राजा सूरजमल का अधिकार हो गया।मुसाबीखां को गिरफ्तार कर भरतपुर के किले में भेज दिया गया। गढ़ी हरसरन एक पक्की गढ़ी थी।इस पर मेवों का कब्जा था। गढ़ी के दरवाजों में नुकीली कीलें लगी हुई थी,मेव अंदर मोर्चा लगाये हुए थे,हाथी की टक्कर से भी जब गढ़ी के दरवाजे नहीं टूटे।तब जवाहर सिंह ने अपने कुल्हाड़ी दल को सीताराम कोटवाल के नेतृत्व में हमले को भेजा।इस दल ने गढ़ी का दरवाजा तोड़ दिया,गढी के अंदर मोर्चा लिए सभी दुश्मनों को मार डाला गया।रोहतक पर भी जवाहर सिंह ने अधिकार कर लिया। इसके बाद जवाहर सिंह ने सेना लेकर दिल्ली से 12 कोस दूर बहादुर गढ़ का रूख किया। बहादुर गढ पर एक बलोच सरदार बहादुर खां का अधिकार था। बहादुर खां को मार भगा कर राजा सूरजमल ने इस क्षेत्र को भी अपने अधिकार में ले लिया। मुगलों की तीन राजधानियों आगरा, फतेहपुर सीकरी व दिल्ली में से दोनों राजधानी आगरा व फतेहपुर सीकरी सहित दिल्ली के चारों ओर के क्षेत्रों पर राजा सूरजमल का अधिकार हो चुका था।अब दिल्ली के लालकिले में बैठे रुहेला सरदार नजीबुद्दौला पर हमला करने का समय आ गया था। राजा सूरजमल ने राजकुमार जवाहर सिंह को फर्रूखाबाद के दुर्ग में रुकने के लिए कहा तथा 23- दिसंबर सन् 1763 को यमुना पार करके राजा सूरजमल गाजियाबाद आ गए।अब राजा सूरजमल ने रूहेला सरदार नजीबुद्दौला को लाल किले से बाहर आ कर युद्ध करने के लिए ललकारा। रूहेला सरदार दिल्ली से बाहर निकल कर अपनी सेना लेकर खिज्राबाद में आ गया।24- दिसंबर सन् 1763 की रात्रि को रुहेला सरदार नजीबुद्दौला रात के अंधेरे में 25- दिसंबर की सुबह हिंडन नदी के पश्चिमी तट पर अपनी सेना सहित पहुंच गया। नजीबुद्दौला के पास 10000 सिपाही थे। राजा सूरजमल के पास 25000 सिपाही थे। राजा सूरजमल ने नजीबुद्दौला को तीन ओर से घेरने की योजना बनाई। अतः राजा सूरजमल ने अपने 5000 सिपाही नजीबुद्दौला की सेना के पीछे की ओर भेज दिए।
ऐसा लग रहा था कि पांडवों की इंद्रप्रस्थ नाम की दिल्ली, अनंगपाल तोमर की दिल्ली, पृथ्वीराज चौहान की दिल्ली बहुत जल्द सूरजमल की दिल्ली भी हो जायेगी। परंतु समय को कुछ और ही मंजूर था।
25- दिसंबर सन् 1763 की शाम को राजा सूरजमल अपने अंगरक्षकों के साथ अपनी सेना की स्थति का अवलोकन करने के लिए निकले। राजा सूरजमल के आगमन की सूचना रुहेला सैनिकों को मिल गई। रूहेला सैनिक हिंडन नदी के कटान में छुप कर बैठ गए। जब राजा सूरजमल सामने से निकले,तभी दुश्मनों ने राजा सूरजमल पर हमला कर दिया। सैयद मोहम्मद खां बलूच ने अपना खंजर कई बार राजा सूरजमल के पेट में घोंप दिया। एक रूहेला सैनिक की तलवार के वार से राजा सूरजमल की भुजा कट कर दूर जा गिरी। राजा सूरजमल व उनके अंगरक्षकों को संभलने का अवसर ही नहीं मिला। सूरज छिपने के लिए जा रहा था तभी राजा सूरजमल के जीवन का सूरज भी छिप गया।उनकी शहादत को शत् शत् नमन।
अगले दिन सुबह जब राजा सूरजमल के बलिदान की सूचना रुहेला सरदार नजीबुद्दौला को लगी तो उसने चेन की सांस ली।वह अपनी सेना के साथ वापस लाल किले में चला गया।
राजा सूरजमल ने अपने पराक्रम से अब्दाली द्वारा दिल्ली के चारों ओर काबिज किये गये क्षेत्रों पर से अफगान,रुहेलो,बलूचो को मार कर भगा दिया था। राजा सूरजमल की शहादत के समय दिल्ली के चारों ओर भारत के हिन्दू उसी शान के साथ जागीरों व भूखंडों पर उसी प्रकार काबिज थे जिस प्रकार मोहम्मद गोरी के दिल्ली पर कब्जे से पहले पृथ्वी राज चौहान के समय में थे। गुर्जरों की समथर,किला-परिक्षत गढ,लंढोरा रियासत अपने बल पर बन गई थी, वहीं जाटों की बल्लभगढ़, भरतपुर तथा रेवाड़ी में अहीरों की रियासत बन गई थी।
सन् 1192से लेकर सन् 1763तक 571 वर्षों के इस्लाम के शासन में भारत के लोग इस्लाम की तलवार के नीचे से अपने धर्म,सम्पत्ती व सम्मान को बचाकर साफ निकल आए थे।
जिस प्रकार अरब हमलावरों से 300 वर्ष तक (सन् 735से सन् 1008) भारत को बचाने का श्रेय गुर्जर प्रतिहार राजाओं को जाता है उसी प्रकार 100 वर्ष (सन् 1666से सन् 1763)तक दिल्ली के चारों ओर भारतीय समाज को मुगलों व अफगानों से बचाने का श्रेय जाटों को जाता है।गोकुला, राजाराम व राजा सूरजमल के नेतृत्व मैं जो बलिदान दिये गये वो भुलाने योग्य नहीं है।इन मुस्लिम आक्रांताओं के सामने जाट शक्ति दीवार बन कर खडी हो गई।
ऐसा लगने लगा था कि भारत माता के बेटों के सर से मुसीबत समाप्त हो गई है, परंतु ऐसा था नहीं। अभी भारत माता अपने पुत्रों से और बलिदान चाहती थी। इसलिए ही भारत में पूरब से इस्ट इंडिया कम्पनी के रुप में अंग्रेज़ दिल्ली की ओर बडी तेजी से बढ़े आ रहे थे।(समाप्त)

संदर्भ ग्रंथ


1-डा आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव-मध्य भारत का इतिहास।

2-डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां (136,139,149,150,152,153,154)


शुक्रवार, 27 मार्च 2020

कुर्बानी की राह का पथिक वीर राजाराम-लेखक अशोक चौधरी मेरठ

औरंगजेब सम्राट बनने से पहले ही गेर मुस्लिम धर्म के पूजा स्थलों से नफरत करता था,जब वह गुजरात में तैनात था तब भी उसका व्यवहार पुजा स्थलो के प्रति अच्छा नहीं था, सम्राट बनने के बाद वह ओर उग्र हो गया। तत्कालीन मुगल सल्तनत के विस्तार के लिए अकबर ने जिस कार्यप्रणाली को अमल में लाकर समझोते की निति के द्वारा जो सल्तनत का विस्तार  किया था तथा भारत के आम जनमानस में जो सम्मान अर्जित किया था,उस कार्यप्रणाली को औरंगजेब उचित नहीं मानता था और मानता भी क्यो? क्योंकि किसी वस्तु की कीमत तब ही पता चलती है जब वह पास से चली जाती है। औरंगजेब का मानना था कि उसकी सेना सत्ता चलाने के लिए काफी है, उसमें भारतीयों का सहयोग हो या ना हो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए औरंगजेब ने अपने राज्य को इस्लामिक राज्य घोषित कर दिया।गेर मुस्लिमो पर जजिया कर लगा दिया तथा इस्लाम के कानून के अनुसार बुत खानो (मंदिरों)को तोड़ने के फरमान जारी कर दिए।ब्रज क्षेत्र में तों उसने यह कार्य सन् 1666से ही प्रारंभ कर दिया था। परंतु 9अप्रेल सन् 1669को लिखित में यह सरकारी आदेश  जारी कर दिया कि मुगल सल्तनत में कोई मंदिर ना बचे। मथुरा-वृंदावन में जब इस आदेश की सूचना पहुची तब मंदिर के पुजारी अधिकतर मूर्तियों को लेकर वर्तमान राजस्थान के राजाओं की शरण में पहुंचे। जोधपुर के राठौड़ व आमेर के कछवाहे राजपरिवार सीधे मुगल राजपरिवार के रिश्तेदार थे, अतः उन्हें यह विश्वास था कि उनका सम्मान मुगल सल्तनत द्वारा रखा जायेगा। मेवाड़ के राज परिवार को भी यह विश्वास था कि मुगल बादशाह उनके साथ ज्यादा सख्त कार्रवाई नहीं कर पायेगा। इन बातों को ध्यान में रखकर इन राजपरिवारों ने अपने यहां मूर्तियां स्थापित कर मंदिर बनवा दिए, मेवाड़ के तत्तकालीन राणा राज सिंह ने पुजारियों को यह विश्वास दिलाया कि वो बेफिक्र रहें, मेवाड़ के एक लाख सिपाहियों के सर काटे बिना यहां कोई इन मंदिरों को क्षति नहीं पहुचा सकता। औरंगजेब को जैसे ही यह सूचना मिली कि मथुरा-वृंदावन से हटकर मंदिर इन राज्यों में स्थानांतरित हो गये है, उसने तुरन्त अपनी निगाह गडा दी। सन् 1680मे औरंगजेब ने दक्षिण में मराठों व शिया मुसलमानों की रियासत निजाम शाही व कुतुब शाही को समाप्त करने के लिए जाने की तैयारी शुरू कर दी। अतः जाते हुए 24जनवरी सन् 1680को मेवाड़ की राजधानी उदय पुर का रुख किया और अपने सेनानायक हसन अली खान को उदयपुर में बने मंदिरों को तोड़ने के लिए भेज दिया। मेवाड़ के महाराणा  ने विशाल मुगल सेना का सामना करने में अपने आप को असमर्थ पाया।इस परिस्थिति में राणा  अपनी सेना लेकर जंगलों में चले गए।29जनवरी सन् 1680को हसन अली खान ने औरंगजेब को सूचित किया कि उदयपुर के 172मंदिर तोड दिए गए हैं। औरंगजेब ने मेवाड़ के राणा से दो परगने जजिया कर के रुप में छीन लिए। मुगल राजपरिवार के रिश्तेदार आमेर राज्य के मंदिर भी तोड़ दिए गए। जून 1680को अबूत राव नामक सैनिक अधिकारी ने औरंगजेब को सूचित किया कि आमेर में बने 66मंदिर तोड़ दिए गए हैं।राजा जसवंत सिंह राठौड़ की मृत्यु के बाद जोधपुर रियासत को औरंगजेब ने जब्त कर लिया था, जसवंत सिंह राठौड़ के बेटे अजीत सिंह राठौड़ को बचाने के लिए वीर दुर्गादास राठौड़ मारे-मारे फिर रहे थे।
उपरोक्त सूचना देने की आवश्यकता इसलिए हैं कि औरंगजेब ने अपने इन कृत्यों से भारतीय जनमानस को यह संदेश दिया कि मुगल सत्ता को किसी भारतीय राजा की मदद की आवश्यकता नहीं है।जिनको भारत के लोग अपने राजा मानते हैं वो उनका सम्मान व सम्पत्ति बचाने की सामर्थ्य नहीं रखते।
अब औरंगजेब अपने साथ भारी-भरकम सेना लेकर दक्षिण को चला गया। उत्तरी भारत में दोयम दर्जे की सेना मौजूद थी। वर्तमान राजस्थान के राजा यदि चाहते तो शिवाजी की तरह मुगल सत्ता को छिन्न-भिन्न कर सकते थे, परंतु वह ऐसा करने का साहस ना जुटा सके तथा उदासीन हो गये। आमेर के कछवाहे तथा बूंदी के चौहान अब भी मुगल सत्ता के हमदर्द बने हुए थे और सम्राट औरंगजेब की नजरों में चढ़ने का कोई अवसर प्राप्त हो जाये,इसी ताक में लगे हुए थे।
मुगल सेना ने लगान के नाम पर लूट मचा रखी थी।जिसका विरोध किसान पहले ही गोकुला के नेतृत्व में कर चुके थे। अब किसानों के नेता सिनसनी गांव के ब्रजराज सिंह व उसका  छोटा भाई भज्जा सिंह  थे। किसान हित के लिए ब्रजराज सिंह ने सन् 1682मे मुगल सेना से संघर्ष करते हुए अपना बलिदान दे दिया था। ब्रजराज सिंह की मृत्यु के पश्चात उनके एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम बदन सिंह था,इन बदन सिंह के पुत्र राजा सूरजमल थे।भज्जा सिंह सीधे सादे व्यक्ति थे, उनके दो पुत्र थे, जिनमें बड़े पुत्र का नाम राजाराम था तथा छोटे पुत्र का नाम चूडामण था।इन परिस्थितियों में किसानों का नेतृत्व राजाराम के हाथ में आ गया।
सिनसिनी से उत्तर की ओर, आऊ नामक एक समृद्ध गाँव था। यहाँ मुगलों का सैन्य दल नियुक्त था। लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए एक चौकी बनाई गयी थी। इस चौकी अधिकारी का नाम  लालबेग था। एक दिन एक अहीर जाति का किसान अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका। लालबेग के एक कर्मचारी ने इस दम्पत्ति को देखा तथा इसकी सूचना लालबेग को दी। लालबेग नेअपने सिपाही भेजकर अहीर पति और पत्नी को जबरन अपनी चौकी पर बुला लिया। लालबेग के सिपाहियो ने पति को तो छोड़ दिया ।लेकिन पत्नी को लालबेग के निवास में भेज दिया।

यह खबर आग की तरह आम जनमानस में फैल गई तथा किसानों के नेता राजाराम के कानों में पड़ी। किसानों ने राजाराम के साथ तय किया कि  मुग़ल थानेदार को सबक सिखाया जाएगा । राजाराम ने अपने सैन्य को युद्ध के लिए तैयार किया और लालबेग को मारने की यॊजना बनाई। यॊजना के अंतर्गत राजाराम अपने सिपाहियों के साथ गोवर्धन में वार्षिक मेले में जानेवाली घास की बैल गाड़ियों में छुप कर वहां पहुंच गया जहां वो अपनी योजना के अनुसार जाना चाहते थे। लालबेग को अंदाज़ा भी नहीं था की राजाराम और उसके सिपाही घास के अंदर छुपे हुए हैं , लालबेग ने गाड़ियों को अंदर जाने की अनुमति दे दी। चौकी को पार करते ही राजाराम और उसके सिपाहियों ने गाड़ियों में आग लगा दी। उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ , जिसमें लालबेग मारा गया।

इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपनी  सुव्यवस्थित सेना बनानी प्रारम्भ कर दी। अस्त्र-शस्त्रों से युक्त उसकी सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को हमेशा तैयार रहती थी। राजाराम ने अपने क्षेत्र के सुरक्षित जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवादी। इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया जिन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर होता था।
अब राजाराम ने आगरा के सूबेदार पर भी हमला कर दिया। राजाराम ने अपने आसपास के क्षेत्र में मुगल व्यवस्था तहस नहस कर दी।इन परिस्थितियों में मुगल शासक ने राजाराम को दिल्ली बुलाया।शासन ने राजाराम को मथुरा की सरदारी व 575गांव की जागीर दी। मुगल शासक ने यह समझा कि राजाराम इस जागीर को लेकर मुगल सत्ता का वफादार हो जायेगा। लेकिन राजाराम ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए खुद को शक्तिशाली बना लिया, उसने अपने सहयोगियों के साथ एक मजबूत सेना खडी कर ली तथा अपने क्षेत्र में सभी मुगल सरकारी आदेश ठप कर दिए। मुगल सरकारी खजाना छीन लिया।
इन परिस्थितियों में मुगल शासन ने शफी खां को आगरा का सूबेदार बनाकर राजाराम की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए तेनात किया। राजाराम को जैसे ही शफी खां के आने की सूचना मिली। इससे पहले कि शफी खां राजाराम के विरुद्ध कोई कार्रवाई करता, उससे पहले ही राजाराम ने आगरा के किले में स्थित शफी खां पर हमला कर दिया। शफी खां इस अप्रत्याशित हमले से हक्का-बक्का रह गया।वह डर कर किले के अंदर घुस गया, मुगल शासन की मुहिम असफल हो गई। शफी खां की असफलता के बाद मुगलों की ओर से केवलदास जफर जंग को भेजा गया,जफर जंग का हाल भी शफी खां जैसा ही हुआ।
अब राजाराम के विरुद्ध निर्णायक लडाई के लिए मुगल शासन ने औरंगजेब के पोते बेदार बख्त के नेतृत्व में सन् 1687मे एक बड़ी सेना को भेजा। जब राजाराम को मुगलों की इस मुहिम का पता चला तो उसने भी अपनी तैयारी प्रारंभ कर दी। राजाराम ने सिनसिनवार जाटों व रामकी चाहर की अध्यक्षता में, सोगरिया जाटों के साथ  जिनके पास सोगर का किला था, को अपने सहयोग मे ले लिया।गूजरो के सैनिक दस्ते, जिन्हें मुगल परस्त डाकूओं के गिरोह बताते फिरते थे,भी राजाराम के साथ आ मिले।मार्च सन् 1688के अन्तिम सप्ताह में बेदार बख्त की सेना के पहुंचने से पहले ही राजाराम ने मुगल ठिकानों पर हमला कर दिया। राजाराम ने मुगल समर्थक गांव व खुर्जा परगना की सरकारी सम्पत्ति को छीन लिया।पलवल के मुगल थानेदार को गिरफ्तार कर लिया।अंत में आगरा में सिकंदरा में स्थित अकबर के मकबरे पर हमला कर दिया। राजाराम ने मकबरे की छत में लगे सोने चांदी को उतरवा लिया तथा मकबरे में लगे कांसे के दरवाजो को उखाड़ लिया। मकबरे में बनी कब्र से निकाल कर अकबर की हड्डीयो को जला दिया।
राजाराम ने अकबर की हड्डियों को जलाकर मुगल शासन को यह संदेश दे दिया कि यदि सत्ता भारतीयों की धार्मिक आस्थाओं व भावनाओं का सम्मान नहीं करती तो हम भारतीय भी उनकी किसी भावना का सम्मान नहीं करेंगे। अकबर की हड्डियों के जलने के साथ ही मुगल शासकों द्वारा स्थापित हिन्दू मुस्लिम भाई चारा भी औरंगजेब के कारण जल कर राख हो गया था।बेदार बख्त के असफल होने के बाद मुगल शासन ने आमेर के कछवाहे राजा बिशन सिंह से सम्पर्क साधा तथा उसे राजाराम पर कार्रवाई करने के लिए मुगलों की ओर से अधिकृत किया।बिशन सिंह तो ऐसे किसी
अवसर की ताक में था ताकि औरंगजेब की नजरों में अपनी अहमियत दिखा सके। आमेर नरेश बिशन सिंह के साथ चार जुलाई सन् 1688को बिजल नामक स्थान पर आमने-सामने के युद्ध में राजाराम शहीद हो गया। राजाराम का साथी रामहि चाहर गिरफ्तार कर लिया गया।राजा बिशन सिंह ने राजाराम का सर काट कर दिल्ली मुगल दरबार में भेज दिया। गिरफ्तार रामहि चाहर का सर काट कर आगरा के किले के सामने लटका दिया गया।
दिल्ली की मुगल सरकार ने राजा बिशन सिंह को राजाराम के सहयोगियों के पूर्ण दमन करने का आदेश दिया,मुगल शासन के आदेश का पालन करते हुए राजा बिशन सिंह ने राजाराम के हजारों सहयोगियों को मार डाला।
भारत में एक कहावत है कि जिस कूंए से पानी निकाला जाता रहता है उसमें पानी समाप्त नहीं होता। राजाराम की शहादत के बाद कुर्बानी की राह विरान नहीं हुई, राजाराम के छोटे भाई चूडामन किसानों के संघर्ष का नेतृत्व करने के लिए उपस्थित था।(समाप्त)
संदर्भ ग्रंथ

1-डा आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव-मध्य भारत का इतिहास।

2-डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां (51)

3-डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां (87)



गुरुवार, 26 मार्च 2020

अमर बलिदानी गोकुला -लेखक अशोक चौधरी मेरठ

सन् 1192मे मोहम्मद गोरी से पृथ्वी राज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली में विदेशी व विधर्मी शासन स्थापित हो गया था,इस शासन का उद्देश्य भारतीय समाज का उत्थान करना नहीं था,बल्कि बल पूर्वक शोषण कर धन संग्रह करके अपना शासन बनाये रखना था। मोहम्मद गोरी से लेकर अकबर के शासन काल के प्रारंभ (सन् 1556)तक ये विधर्मी भारतीयों के साथ कोई विशेष तालमेल न बना सके।  वर्तमान राजस्थान (तत्कालीन समय के गुर्जर देश) में गुर्जर प्रतिहार राजाओं के पतन के बाद सन् 1100 मे वर्तमान मध्य प्रदेश के नरवर से गये कछवाहे तथा सन् 1194 मे कन्नोज के राजा जयचंद गाहड़वाल को गोरी द्वारा मार डालने के बाद, बदायूं के राय सिहा के नेतृत्व में राठौड़ राजस्थान में जाकर बस गए, कछवाहो ने मीणाओ से आमेर को छीनकर अपना राज्य स्थापित कर लिया।इन दोनों (कछवाहो व राठौड़) से ही अकबर ने वेवाहिक संधि कर भारतीयों को इनके नेतृत्व में मुगल सत्ता में साझिदार बनाया।
मुगल सम्राटो ने भारी-भरकम मुगल सेना तथा  अपने ठाट-बाट के लिए धन की आपूर्ति के लिए ,अपने भारतीय सहयोगियों के माध्यम से भारत के आम आदमी का शोषण करवाना प्रारंभ कर दिया।जो सत्ता में सहयोगी थे उन्होंने अपने आप को बचाकर, बाकि बचे भारतीय किसानों के धन साधन को अपने निशाने पर ले लिया।इस कारण जो संघर्ष मुगल+राजपूत (कछवाह+राठौड़) के साथ गेर राजपूत किसानों के बीच प्रारंभ हुआ, उसे भारतीय इतिहासकारों ने जाटों का विद्रोह कहा। मुगल सत्ता के साथ इस संघर्ष का नेतृत्व जाट किसानों ने किया, गुर्जर अहीर मेव मीणा आदि इस संघर्ष में जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में कंधे से कंधा मिलाकर मुगलों से लड़ें।
आज के उत्तर भारत के दिल्ली, भरतपुर,धोलपुर, बीकानेर,चुरू, झुंझुनूं,आगरा, मथुरा,मेवात,मेरठ, पलवल, फरीदाबाद, अलीगढ़ तथा दक्षिण में चम्बल नदी के तट के पास गोहद तक का क्षेत्र जाट किसानों की बहुलता के कारण जटवाड़ा कहलाता था।इस क्षेत्र में पलवल, गुड़गांव के पास अहीर, मेव, गुर्जर किसानों की आबादी भी थी तथा मेरठ,लोनी, दादरी-सिकंदराबाद में गुर्जर किसान बडी संख्या में आबाद थे।
जाट किसानों की संख्या अधिक होने के कारण जाट मुगल शासकों के निशाने पर आ गए। मुगल बादशाह शाहजहां ने अपने शासन काल में जाटों को घोड़े की सवारी करने, बंदूक रखने व दुर्ग बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
सन् 1636 मे ब्रज मंडल के जाटों को कुचलने के लिए शाहजहां ने मुर्शीदकुली खा तुर्कमान को कामापहाडी, मथुरा व महावन परगनो का फौजदार नियुक्त किया। मथुरा में कृष्ण जन्माष्टमी का मेला बड़ी धूमधाम से लगता था।इस मेले में आसपास की जनता बडे उत्साह से भाग लेती थी।मुगल फौजदार ने हिंदू भेष बनाकर अपने सिपाही साथ लेकर मेले में भाग लिया तथा मेले में आयी सुन्दर हिन्दू युवतियों का बलात अपहरण कर, नावों में बेठाकर अनजान जगह भेज दिया।जो कभी नहीं मिली। इस नीच कार्य से जनता में आक्रोश पैदा हो गया। साधारण जनता तो कुछ न कर सकी । परन्तु सन् 1638 मे सम्भल के निकट स्थित जटवाड़ा नामक स्थान के निकट जाटों ने इस मुगल फौजदार का वध कर, उसे उसकी नीचता की सजा दे दी।मुगल अधिकारी की इस हत्या से सरकार व जाटों के बीच ठन गई।
अब शाहजहां ने आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह को अपने सम्मान की लडाई लड रहे किसानों के दमन के लिए नियुक्त किया। जैसा ऊपर बता दिया गया है कि आमेर के कछवाहे मूल रूप से आमेर के रहने वाले नहीं थे, इसलिए कछवाहो का सत्ता लाभ के अतिरिक्त यहां के समाज से कोई सारोकार नहीं था। अतः मिर्जा राजा जयसिंह ने न्याय-अन्याय का भान न रखते हुए बडी संख्या में जाटों, गुर्जरों व मेवों को मार डाला तथा अपने जाति भाईयों को जाटों, गुर्जरों व मेवों की जमीन पर बसा दिया।
यह संघर्ष चलता रहा। औरंगजेब सम्राट बन गया। औरंगजेब ने पहले से अधिक सख्ती बरती। औरंगजेब ने मथुरा व वर्तमान राजस्थान में स्थित मंदिरों को तोड़ने के आदेश भी सन् 1666 मे ही देने प्रारंभ कर दिए थे।मुगल सेना के अत्याचार से तंग आकर सन 1666 मे तिलपत गांव के जमींदार गोकुला जाट के नेतृत्व में गेर राजपूत किसान पुनः संगठित हो गये। मुगल सेना के अत्याचार व बढते दबाव के कारण गोकुला तिलपत छोड़कर महावन आ गया।अब गोकुला ने जाट,मेव,मीणा, गुर्जर, अहीर, पंवार जाति के किसानों का सम्मेलन कर मुगल शासक को लगान ना देने के लिए सहमत कर लिया। औरंगजेब को जब यह सूचना प्राप्त हुई तब सम्राट ने मुगल सेना नायक अब्दुल नवी खां को गोकुला के विरुद्ध कार्रवाई के लिए भेजा।मुगल सेनानायक ने सहुर गांव में ठहरे गोकुला पर हमला कर दिया।गोकुला के साथ हुए इस युद्ध में मुगल सेनानायक अब्दुल नवी खां मारा गया।मुगल सेनानायक को मारने के बाद गोकुला की किसान सेना ने मुगल समर्थित सादाबाद गांव को नेस्तनाबूद कर जला डाला।
ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने के कारण औरंगजेब खुद मोर्चे पर आ गया। उसने गोकुला की सेना को घेर लिया।गोकुला की सेना शाही सेना से संख्या बल में काफी कम थी। ऐसी स्थिति में घिर जाने के कारण महिलाओं ने अपने सम्मान को बचाने के लिए जौहर कर लिया तथा गोकुला के हजारों किसान सैनिक इस युद्ध में शहीद हो गए।गोकुला को गिरफ्तार कर लिया गया तथा सम्राट के सामने पेश किया गया। औरंगजेब ने गोकुला को मुसलमान बन जाने पर माफी कर देने की शर्त रखी, जिसे गोकुला ने अस्वीकार कर दिया।एक जनवरी सन् 1670को आगरा में लाल किले में स्थित कोतवाली के सामने गोकुला को टुकड़े टुकड़े कर के मार डाला गया।
गोकुला पराजय पीड़ा और कष्ट का विष पीकर अपनी आजादी को बनाए रखने के लिए तिल तिल कर प्राण गंवा कर शहीद हो गया तथा आने वाले वाले समय में होने वाले संघर्ष के लिए कुर्बानी की आधारशिला रख गया।(समाप्त)
संदर्भ ग्रंथ
1-डा आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव-मध्य भारत का इतिहास।
2-डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां (65)

https://youtu.be/2Ena-Pzvqlw