रविवार, 26 जुलाई 2020

भारत में किसान आंदोलन के जनक महान क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक (भूप सिंह) - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

सीमा पर खडा सिपाही बिना एक क्षण की देरी करें अपना बलिदान देश की रक्षा के लिए दे देता है।क्योकि उस सिपाही को अपने देश की सरकार व समाज पर यह विश्वास होता है कि उसकी मौत के बाद उसके देशवासी उसके परिवार के हितों का ध्यान रखेंगे। उसके बलिदान की सराहना करेंगे।इसी प्रकार हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उन्हें यह विश्वास था कि आजादी मिलने के बाद देश की आने वाली पीढ़ी उनके त्याग और बलिदान का स्मरण करेंगी। भारत की आज़ादी के आंदोलन में विजय सिंह पथिक एक ऐसे ही आजादी के योद्धा है। भारत में विजय सिंह पथिक, महात्मा गांधी व सरदार पटेल तीनो महापुरुष किसान आंदोलन के द्वारा ही अपने राजनीतिक सफर पर चलें तथा अपने जीवन के अंत तक भारत माता की सेवा करते रहें।देश आजाद होने के बाद महात्मा गांधी जी का चित्र देश के संविधान की जिल्द में लगा है,पूरी दुनिया उन्हें महात्मा, राष्ट्रपिता व बापू के नाम से आदर देती है। सरदार पटेल भारत के लौह पुरुष, भारत रत्न से सम्मानित है, दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के नाम से पटेल जी की प्रतिमा गुजरात में लगी है। परन्तु विजय सिंह पथिक(भूप सिंह गुर्जर) जिन्हें भारत के किसान आंदोलन का जनक तथा अनेक क्रांतिकारी घटनाओं का सूत्रधार माना जाता है। अपने किये गये कार्यों के अनुरूप आजाद भारत में सम्मान व आदर की उस ऊंचाई से दूर दिखाई देते हैं जिसके वो हकदार थे। सन् 1992 में दूरसंचार मंत्री श्री राजेश पायलट जी के द्वारा पथिक जी पर एक रूपए का डाक टिकट जारी किया गया था। यूं तो हमारे यहां एक कहावत है कि मान का तो पान ही काफी है। हमारे इस लेखन का उद्देश्य भी पथिक जी के महान कार्यों को भारत के जनमानस के सम्मुख उचित ढंग से प्रस्तुत करने का एक प्रयास मात्र है -
भारत में किसानों का उत्पीडन विदेशी तुर्की सत्ता की स्थापना के साथ ही प्रारंभ हो गया था। भारतीय राजा अपने किसानों से लगान के रुप में फसल का छठवां हिस्सा यानि 16% लेते थे। यदि किसान किसी कारण वश लगान नही दे पाता था,उस स्थिति में राजा किसान की समस्या को सुनता था, समस्या को दूर करने का प्रयास करता था। परंतु विदेशी शासकों ने जहां लगान को बढाकर फसल का आधा या उससे अधिक यानि 50% कर दिया था, वही लगान को बडी कठोरता से वसूला जाता था। लगान न देने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा दी जाती थी,उनकी महिलाओं को बेइज्जत कर दिया जाता था तथा किसानों के बच्चों को जिंदा आग में फेंक दिया जाता था।
इन विदेशी शासकों से भारत के लोगों ने अनवरत संघर्ष किया। सन् 1192 में मोहम्मद गोरी के दिल्ली पर अधिकार हो जाने पर भारत के लोगों को गुलाम होने का अनुभव प्राप्त हुआ तथा मुगल सत्ता के स्थापित हो जाने तक भारतीय इन हमलावरों से संघर्ष करते रहे। परंतु अकबर ने सन् 1570 के आसपास कुछ भारतीयों को अपने साथ सत्ता में साझीदार कर लिया।जिन भारतीयों ने मुगलों के साथ यह सत्ता समझोता किया उन्हें मुगल+राजपूत समझोता भी कहा गया।अब भारतीय मुगल शासन में बडे बड़े मनसबदार बन गए तथा अकबर के नवरत्नों में से चार नवरत्न भारतीय थे। सन् 1615 में मेवाड़ के राणा अमर सिंह ने भी मुगल शासक जहांगीर से समझौता कर लिया।अब मुगल शासकों की शोषणकारी निति को कोई रोकने वाला नही था। दिल्ली और आगरा मुगल सत्ता के केन्द्र थे। अतः इसी क्षेत्र में सन् 1633 से ही आगरा और मथुरा के आसपास गेर राजपूत किसानों ने जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ कर दिया जो गोकुला जाट, राजाराम जाट तथा राजा सूरजमल के बलिदान के दौर से गुजरता हुआ जाट राजा सूरजमल के बेटे राजा जवाहर सिंह की मृत्यु सन् 1768 तक अनवरत चला।इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि मुगलों की तीन राजधानियों आगरा, फतेहपुर सीकरी तथा दिल्ली में से दो राजधानी आगरा और फतेहपुर सीकरी को भारतियों (जाटों) ने मुगलों से छीन लिया। दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों ने मुगल सत्ता की कमर तोड दी तथा सन् 1707 में मुगल बादशाह औरंगजेब दक्षिण में मर गया।
मुगल सत्ता लाल किले के अंदर तक सिमट कर रह गई। इतने में ही अंग्रेज भारत में शासन पर काबिज़ हो गये।जिन भारतीयों ने अकबर के समय मुगलों से सत्ता समझौता किया था उनके साथ साथ कुछ और भारतीय राजाओं ने जो मुगलों के साथ संघर्ष कर बने थे, ने सन् 1818 तक  अंग्रेजों से समझौता कर लिया। अंग्रेजों के शोषण का केन्द्र भी भारत का किसान ही रहा। भारतीय जनता का अधिक से अधिक शोषण किया जा सके,उसके लिए अंग्रेजों ने भारतीयों राजाओं के राज्य हड़पने प्रारंभ कर दिए।जिस कारण सन् 1857 की क्रांति हुई। जिसमें भारतीय किसानों, सैनिकों तथा पीड़ित रजवाड़ों और जागीर दारो ने मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का प्रयास किया। अंग्रेज तो भारत से ना जा सके, परन्तु इस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से सत्ता निकलकर रानी विक्टोरिया के हाथ में चली गई। अंग्रेजों की समझ में आ गया कि भारतीय रजवाड़े जिन्हें वो समाप्त करना चाहते थे वो तो उनके शासन करने में सहायक थे अतः अब अंग्रेजों ने इन देशी रियासतों को समाप्त करने का विचार त्याग दिया तथा इनके माध्यम से अपने उद्देश्य की पूर्ति करनी शुरू कर दी।शासन चलाने के वित्त प्रबंधन के लिए किसानों से लगान प्राप्त करना एक बडा माध्यम था। ब्रिटिश भारत  दो भागों में बंटा था,एक भाग तो सीधा अंग्रेजों के हाथ में था तथा दूसरा रियासत के राजाओं के हाथ में था जिनका अंग्रेजों के साथ समझौता था।इन रियासतों में भारत का किसान तीन लोगों के द्वारा शोषित होता था, एक अंग्रेज़ दूसरा रियासत का राजा तिसरा रियासत के राजा का जागीर दार।रियासत के राजा के राज में भी दो तरह की भूमि पर खेती करने वाले किसान थे,एक जागीर दार की भूमि होती थी,दूसरी जो सीधी राजा के पास होती थी,इस राजा के पास वाली भूमि को खालसा भूमि कहते थे। यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन है,जो कि वर्तमान राजस्थान की तत्कालीन समय की मेवाड़ (उदयपुर) रियासत में बिजौलियां तथा बेगूं नामक ठिकानों से चलाये गये थे । राजस्थान का यह क्षेत्र तथा यहां के लोग  उन बहादुर लोगों की संतान है। जिन्होंने करीब 500 वर्षों तक भारत की अरब हमलावरों तथा तुर्क आक्रमणकारियों से रक्षा की थी। परन्तु जिस प्रकार लोहा पानी और हवा के सम्पर्क में आने के कारण अपने कठोरता के गुण को खो देता है, जिस प्रकार कोई हंस कौवों के साथ रहने लगे तो वह मोती के स्थान पर मैला खाने के लिए विवश हो जाता है,उसी प्रकार मुगल और अंग्रेज शासकों के साथ रहने के कारण ये भारतीय राजा अपनी जनता का शोषण देखने तथा करने के लिए विवश थे, बिल्कुल उसी तरह जैसे पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य तथा कर्ण ना चाहते हुए भी द्रोपदी का चीर हरण तथा दुर्योधन की ओर से लडने के लिए विवश थे।पांडव रुपी जनता को अपने बल पर ही लडना था अतः संघर्ष संचालन के लिए एक कृष्ण जी की आवश्यकता थी। जो विजय सिंह पथिक के रुप में यहां के किसानों को प्राप्त हुए। इतिहास  अपने आप को पुनः दोहरा रहा था, जिस प्रकार सन् 1633 में जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ हुआ था और गुर्जर किसानों ने इनका सहयोग किया था उसी प्रकार सन् 1880 में मेवाड़ रियासत में चित्तौड़ के राश्मी परगने से जाट किसानों ने राजस्थान के क्षेत्र का पहला आंदोलन शुरू कर दिया था।इस राजस्थान क्षेत्र में हुए आंदोलनों को चलाने के लिए प्रमुख भूमिका में सहयोग करने के लिए श्री विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) परिस्थितीवश उपस्थित थे। आखिर ये विजय सिंह पथिक कौन थे,किस प्रकार राजस्थान में हुए किसान आंदोलनों में सक्रिय हो गए थे,इसे जानने के लिए हमे थोडा पीछे की ओर चलना होगा।
सन् 1857 की क्रांति में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले की माला गढ रियासत के नबाब वलीदाद खां के इन्द्र सिंह गुर्जर नाम के दीवान थे जो बुलंदशहर के गुठावली कला नामक गांव के निवासी थे। सन् 1857 की क्रांति में संघर्ष करते हुए इन्द्र सिंह गुर्जर शहीद हो गए थे।इन्द्र सिंह गुर्जर के हमीर सिंह गुर्जर नाम के पुत्र थे,इन हमीर सिंह गुर्जर के 27 फरवरी सन् 1882 को भूप सिंह गुर्जर नाम के एक पुत्र का जन्म हुआ।
भूप सिंह गुर्जर पर अपने परिवार की क्रान्तिकारी और देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा।10 अप्रैल सन् 1875 को आर्य समाज की स्थापना मुम्बई में हो गई थी। आर्य समाज के द्वारा लोगों में जनजागरण का कार्य किया जाने लगा था। सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गई थी।
युवावस्था में भूप सिंह गुर्जर का सम्पर्क अजमेर गुट के राव गोपाल सिंह खरवा से हो गया था तथा भूप सिंह गुर्जर राव गोपाल सिंह खरवा के सचिव बन गए थे,राव गोपाल सिंह खरवा आर्य समाज से जुड़े हुए थे,राव गोपाल सिंह"खरवा"जागीर के जागीर दार थे।राव गोपाल सिंह खरवा राजपूत जाति के थे। एक बार बंगाल के क्रांतिकारी अरविंद घोष राजस्थान आये थे तभी गोपाल सिंह खरवा का परिचय अरविन्द घोष से हुआ।जब आर्य समाज का भारत धर्म महामंडल राजस्थान से बंगाल गया तब गोपाल सिंह खरवा भी इस मंडल में बंगाल गये थे,वही पर पुनः गोपाल सिंह खरवा की मुलाकात अरविन्द घोष,रास विहारी बोस व सचिन सन्याल से हुई। सन् 1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया। इस अवसर पर भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग के दिल्ली प्रवेश के समय राव गोपाल सिंह खरवा व भूप सिंह गुर्जर ने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ जुलूस पर बम फेंक कर लार्ड हार्डिग को मारने की कोशिश की। रास बिहारी बोस,राव गोपाल सिंह खरवा, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, भूप सिंह गुर्जर व अन्य सभी सम्बन्धित क्रान्तिकारी अंग्रेजो के हाथ नहीं आये और  फरार हो गए।
आर्य समाज के सम्पर्क में एक गोविंद गिरि नाम के व्यक्ति आये।जो बंजारा जाति के थे,यह जाति वर्तमान में अनुसूचित जनजाति में आती है।इन गोविंद गिरि ने भील जाति के लोगों को जागृत करना प्रारंभ कर दिया। गोविंद गिरि का कार्यक्षेत्र उदयपुर रियासत के अंदर ही था जो वर्तमान में बांसवाड़ा जिले में आता है।17 नवम्बर सन् 1913 को मान गढ़ पहाड़ी पर भील सम्मेलन पर शासन के द्वारा अंधाधुंध फायरिंग की गई तथा 1500 भील मार डाले गए। अनुसूचित जनजाति का यह आंदोलन भगत आंदोलन के नाम से जाना जाता है। किसी भी समाचार पत्र में न छपने के कारण इस नरसंहार का देश के लोगों को पता ही नहीं चला। भीलों की आवाज बलपूर्वक दबा दी गई।
सन् 1915 में रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों पर 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। भारतीय इतिहास में इसे गदर आन्दोलन कहते है।
9 जनवरी सन् 1915 को गांधी जी विदेश से भारत आ गये। भारत आने पर गांधी जी ने गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बना लिया तथा कांग्रेस में कार्य करने लगे।
रास बिहारी बोस की योजना यह थी कि एक तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाय जाये दूसरी तरफ देशी राजाओं और उनकी सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को संचालित करने का दायित्व राव गोपाल सिंह खरवा व भूप सिंह गुर्जर को सौंपा गया। उस समय भूप सिंह गुर्जर फिरोजपुर षडयंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनो ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र की।ब्यावर में क्रांति की जिम्मेदारी राव गोपाल सिंह खरवा व दामोदर दास राठी पर थी और अजमेर व नसीराबाद में क्रांति की जिम्मेदारी भूप सिंह गुर्जर पर थी। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सरकार पर क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारयों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। भूप सिंह गुर्जर और गोपाल सिंह ने गोला बारूद्व भूमिगत कर दिया और सैनिकों को बिखेर दिया । परन्तु कुछ  दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज कमिश्नर ने पांच सौ सैनिकों के साथ भूप सिंह गुर्जर और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया गया। उन्हीं दिनों लाहौर षडयंत्र केस में भूप सिंह गुर्जर का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर राव गोपाल सिंह खरवा और भूप सिंह गुर्जर को मिल गई और वो टाडगढ़ के किले से फरार हो गए।
राव गोपाल सिंह खरवा को पुनः पकड़ लिया गया।राव गोपाल सिंह खरवा करीब पांच वर्ष जेल में बंद रहे। परंतु भूप सिंह गुर्जर अंग्रेजों की पकड में नही आये। भूप सिंह गुर्जर ने अपना भेष बदल लिया,अपनी दाढ़ी और मूंछें बढ़ा ली तथा अपना नाम बदलकर विजय सिंह पथिक रख लिया।अब विजय सिंह पथिक चित्तौड़ के एक गांव ओछड़ी में विद्या प्रचारिणी सभा चलाने लगे।इस संस्था के नाम से ही जान पड रहा है कि आम लोगों में शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाना इस संगठन का उद्देश्य होगा। विद्या प्रचारिणी सभा के अधिवेशन में साधु सीताराम दास जो बिजौलियां ठिकाने के पुस्तकालय में नौकरी करते थे, परन्तु किसान हितैषी थे,भी पहुंचे।साधु सीताराम दास जी ने विजय सिंह पथिक जी से प्रभावित होकर बिजौलियां किसानों के आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह पथिक जी से किया। सन् 1916 में विजय सिंह पथिक जी ने बिजौलियां किसान आंदोलन में प्रवेश किया।
हम पाठको को बिजौलियां ठिकाने के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देने की जरूरत समझेंगे। ताकि इस आंदोलन के माध्यम से पथिक जी के महान कार्यों पर उचित प्रकाश पड़ सके-
बिजौलियां ठिकाना मेवाड़ राज्य के 16 प्रथम श्रेणी के ठिकानों में से एक था।जो वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में आता है। वर्तमान भरतपुर के पास जगनेर नामक स्थान के अशोक परमार नामक एक व्यक्ति थे, जिन्होंने सन् 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से युद्ध किया था। अशोक परमार को उनकी  सैनिक सेवा से प्रसन्न होकर राणा सांगा ने उपरमाल नाम की एक जागीर दी थी। बिजोलिया इस उपरमाल नामक जागीर का मुख्यालय था।इस ठिकाने में 79 गांव थे। बिजौलियां ठिकाने की सीमा ग्वालियर,कोटा और बूंदी  रियासतों को छूती थी। बिजौलियां ठिकाने में धाकड़ जाति के किसान बसे हुए थे।इन किसानों के अपने ठिकाने के ठाकुर के साथ बडे मधुर सम्बन्ध थे। बिजौलियां ठिकाने के ठाकुर राव केशव दास के साथ इन धाकड़ जाति के किसानों ने मिलकर अपने क्षेत्र से मराठों को बाहर निकाल दिया था।यह तालमेल राव गोविन्द दास जो बिजौलियां ठिकाने के ठाकुर थे, की मृत्यु सन् 1894 तक बना रहा।राव गोविन्द दास की मृत्यु के बाद राव कृष्णा सिंह बिजौलियां के ठाकुर बने।राव कृष्णा सिंह ने 84 प्रकार के कर अपने ठिकाने के किसानों पर लगा दिए। भू-राजस्व नगदी में लेने का आदेश पारित किया गया।यही से किसान आंदोलन की नींव पड गई। बिजौलियां किसान आंदोलन भारत ही क्या विश्व का सबसे लम्बा चलने वाला आंदोलन माना जाता है।यह आंदोलन  44 वर्ष तक चला।इस आंदोलन को तीन भागों में बांटा जाता है।प्रथम चरण सन् 1897-1915, द्वितीय चरण सन् 1915-1923, तृतीय चरण सन् 1923-1941तक।
प्रथम चरण में यह आंदोलन स्थानिय किसानों के नेतृत्व में चला। बिजौलियां के किसानों ने अपनी स्थानिय समस्याओं के निराकरण के लिए धाकड़ पंचायत के नाम से एक संगठन बना रखा था। बिजौलियां ठिकाने में गिरधर पुर नाम का एक गांव था,इस गांव में गंगाराम धाकड़ नाम के एक किसान के पिता की मृत्यु हो गई थी।इस मृत्यु भोज में आसपास के किसान एकत्रित हुए, जिसमें इन असिमित लगें कर से छूटकारा प्राप्त करने के लिए विचार विमर्श हुआ।इन किसानों का सम्पर्क साधु सीताराम दास जी से हुआ,जो बिजोलिया ठिकाने के पुस्तकालय में नौकरी करते थे। किसानों ने अपनी समस्या साधु सीताराम दास जी के सामने रखी। सीताराम जी ने किसानों को सलाह दी कि आप अपने ठाकुर की शिकायत उदयपुर जाकर मेवाड़ के राणा फतेह सिंह जी से करें। सीताराम दास जी की सलाह के अनुसार दो किसान नानाजी पटेल व ठाकरी पटेल राणा जी से मिल कर शिकायत कर आये।राणा जी ने हामिद नाम का एक जांच अधिकारी बिजौलियां मे भेजा। हामिद ने अपनी रिपोर्ट किसानों के हित में दी तथा ठिकाने के ठाकुर कृष्णा सिंह को दोषी माना।जब राव कृष्णा सिंह को इस घटना का पता चला तो उसने नाराज किसानों को कुछ सहुलियत देकर मना लिया, लेकिन जो दो किसान शिकायत करने राणा जी के पास गये थे,उनको अपने क्षेत्र से निष्कासित कर दिया।यह सन् 1899 की घटना है। कुछ समय शांति से व्यतीत हुआ, परन्तु सन् 1903 में राव कृष्णा सिंह ने  चंवरी के नाम से एक नया कर किसानों पर लगा दिया।इस कर के अनुसार किसान जब अपनी लड़की की शादी करेगा तो 5 रुपए चंवरी कर के रूप में ठाकुर को  देगा।इस कर को लेकर किसानों में रोष व्याप्त हो गया। भारत में यह प्रथा है कि लडकी की शादी में कन्यादान के रूप में धन दिया जाता है यहां धन लेने की बात थी। किसानों ने दो साल तक अपनी लड़कियों की शादी नही की। सन् 1905 में दो सो किसान इकट्ठा होकर राव कृष्णा सिंह के पास पहुंचे और इस चंवरी कर को हटाने का आग्रह किया।जिस पर राव कृष्णा सिंह नही माने।ये सब दो सो किसान राव कृष्णा सिंह का क्षेत्र छोड़कर पास के राज्य ग्वालियर में चले गए।जब किसान ही नहीं रहें तो कर कौन देगा।इस परिस्थिति में राव कृष्णा सिंह ने किसानों को वापस बुला लिया तथा चंवरी कर हटा दिया। कुछ सहुलियत और भी किसानों को दी गई। सन् 1906 में राव कृष्णा सिंह की मृत्यु हो गई।राव कृष्णा सिंह निसंतान थे। अतः नये ठाकुर के रूप में पृथ्वी सिंह बने जो भरतपुर के पास जगनेर नामक स्थान से लाकर बनाये गये थे।जब कोई नया ठाकुर ठिकाने का बनता था तब वह उत्तराधिकारी बनने के नियमानुसार अपने राणा को तलवार बधांई के नाम से कुछ धन भेंट करता था।राव पृथ्वी सिंह ने इस तलवार बंधाई की धन राशि के लिए अपने ठिकाने के किसानों पर एक कर और लगा दिया। किसानों ने इस कर का विरोध किया। परंतु राव पृथ्वी सिंह ने किसान नेता फतह करण चारण व ब्रह्म देव को क्षेत्र से निष्कासित कर दिया।साधु सीताराम दास को भी नौकरी से निकाल दिया। परंतु अब किसान जागरूक हो चुके थे यह सन् 1915तक का संघर्ष था।
इन्ही साधु सीताराम दास जी के आग्रह पर विजय सिंह पथिक जी ने बिजौलियां किसान आंदोलन में सन् 1916 में प्रवेश किया। सन् 1916 में ही लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें कांग्रेस के नरम दल व गरम दल तथा मुस्लिम लीग एक हो कर कांग्रेस में मिल गये थे।
विजय सिंह पथिक जी ने बिजोलिया पहुंच कर इस आंदोलन में प्राण फूंक दिए। विजय सिंह पथिक जी ने उपरमाल पंच बोर्ड के नाम से एक संगठन बनाया तथा इसका सरपंच माना पटेल को बनाया। उपरमाल सेवा समिति के नाम से क्षेत्र के युवाओं को जोडा। जिन्हें गांव गांव जाकर आंदोलन का प्रचार करना तथा" उपरमाल का डंका" के नाम से छपा पर्चा वितरण करना था।इस समय प्रथम विश्व युद्ध के लिए चंदा भी वसूल किया जा रहा था। अतः सावन की अमावस्या अर्थात जुलाई-अगस्त सन् 1917 को बैरीसाल गांव से आंदोलन का बिगुल बजा दिया। सन् 1917 में अप्रेल में बिहार का चम्पारण सत्याग्रह भी नील की खेती की तिनकठिया निति के विरोध में हुआ था, जिसमें महात्मा गांधी जी ने भाग लिया था।क्योकि बिजौलियां में पथिक जी ने सन् 1916 से ही आंदोलन शुरू कर दिया था, अतः पथिक जी को भारत के किसान आंदोलन का जनक कहा जाता है। पथिक जी ने आंदोलन के प्रचार के लिए तत्तकालीन समय के समाचार पत्रों से सम्पर्क किया।उस समय कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी जी के द्वारा"प्रताप"नामक समाचार पत्र निकाला जाता था। पथिक जी ने गणेश शंकर विद्यार्थी जी को चांदी की राखी भेजकर  बिजौलियां आंदोलन के लिए मदद मांगी।इसके साथ तिलक के मराठा, प्रयाग के अभ्युदय, कलकत्ता के भारत मित्र तथा अजमेर से नवीन राजस्थान नामक समाचार पत्रों में बिजौलियां आंदोलन के समाचार प्रकाशित कर आंदोलन को भारत में पहुंचा दिया। दूसरी ओर जमुना लाल बजाज के माध्यम से आंदोलन में कांग्रेस की मदद के लिए भी प्रयास प्रारंभ कर दिया। सन् 1918 में गुजरात के खेड़ा में भी सरदार पटेल ने किसानों का आंदोलन शुरू कर दिया, जिसमें गांधी जी ने भी भाग लिया।इस प्रकार भारत में किसान आंदोलन शुरू हो गये। सन् 1919 में अमृतसर में कांग्रेस के अधिवेशन में पथिक जी बिजौलियां आंदोलन में मदद के लिए पहुंचे। वहां पर पथिक जी ने बाल गंगाधर तिलक को मदद के लिए तैयार कर लिया। कांग्रेस के अधिवेशन में बिजौलियां आंदोलन के विषय में समर्थन के लिए बालगंगाधर तिलक व केलकर ने प्रस्ताव रख दिया। परन्तु महात्मा गांधी जी व मदनमोहन मालवीय जी ने इस प्रस्ताव को रोक दिया। गांधी जी का कहना था कि जो भारत सीधे अंग्रेजों के हाथ में है कांग्रेस उसमें ही भाग लेगी।जो भारत देशी राजाओं के हाथ में है,जहा अंग्रेजों की अप्रत्यक्ष सत्ता है, उसमें कांग्रेस आम जनता के लिए किए जा रहे आंदोलन में भाग नहीं लेगी। लेकिन बिजौलियां के किसानों की समस्या का हल हो,इसके लिए मेवाड़ के राणा को गांधी जी व तिलक जी ने पत्र लिखे तथा मदन मोहन मालवीय जी को राणा से मिलने के लिए भेजा। अब राणा ने बिंदुलाल भट्टाचार्य,अमर सिंह तथा अफजल अली के नेतृत्व में एक जांच आयोग बिजौलियां के किसानों की परेशानी को जानने के लिए बना दिया। कांग्रेस व जांच आयोग से किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। सन् 1919 में ही महाराष्ट्र के वर्धा में राजस्थान सेवा संघ के नाम से विजय सिंह पथिक जी ने एक संगठन बनाया। 13 अप्रैल सन् 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा गोलीकांड कर दिया गया।ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था।
 पथिक जी ने सन् 1920 में राजस्थान सेवा संघ का मुख्यालय अजमेर में बना लिया।इस संगठन में विजय सिंह पथिक,साधु सीताराम दास, माणिक्य लाल वर्मा व जमुना लाल बजाज, रामनारायण चौधरी आदि थे। सन् 1920 के कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में विजय सिंह पथिक अपने साथ बिजौलियां के तीन किसान कालू जी, गोकुल जी व नंदराम जी को लेकर पहुंचे। अधिवेशन में चित्रों के माध्यम से प्रदर्शनी लगाकर बिजौलियां के किसानों की हालत को दर्शाया गया।गांधी जी ने अपने निजी सचिव महादेव देसाई को राणा से वार्ता करने के लिए भेजा।गांधी जी का यह मत था कि सबसे पहले अंग्रेजों को भारत से भगाया जाय। यदि कांग्रेस देशी राजाओं के साथ उलझ गई तो देशी राजा अंग्रेजों के पक्ष में आ जायेगे,जिस कारण आजादी की लडाई में अवरोध पैदा हो जायेगा। लेकिन भारत के देशी राजा और नबाब तो अंग्रेजों की कठपुतली थे।यही सोच कर गाधी जी ने खिलाफत आन्दोलन (मार्च सन् 1919- जनवरी सन् 1921) में मुस्लिमो का समर्थन किया था कि भारत का मुस्लिम अंग्रेजों के विरुद्ध कांग्रेस के साथ आ जाएं। दूसरी ओर विजय सिंह पथिक और डा अम्बेडकर जैसे नेताओं का यह मत था कि किसी व्यक्ति का शोषण घर का व्यक्ति करें या बाहर का। शोषित व्यक्ति को पीड़ा बराबर ही होती है। इसलिए डा अम्बेडकर ने कहा था कि कांग्रेस फ्रिडम आफ इंडिया तो चाहती है परन्तु फ्रिडम आफ पिपुल आफ इंडिया नही चाहती।यानि भारत की आज़ादी तो चाहती है परन्तु भारत के नागरिक की आजादी नही चाहती।
राजपूताना मध्य भारत संघ नामक संगठन जो जमुना लाल बजाज के नेतृत्व में चलता था ने बिजोलिया किसानों की स्थति की जांच के लिए अपने संगठन की ओर से भवानी दयाल नाम के एक कार्यकर्ता को नियुक्त कर दिया।ऐसी स्थिति में मेवाड़ के राणा फतह सिंह ने पुनः दूसरा जांच आयोग बना दिया, जिसमें राज सिंह मेहता,तख्त सिंह मेहता व रमाकांत मालवीय को रखा गया। इन तीनों ने बिजोलिया से 15 किसानों को बातचीत के लिए उदयपुर में बुलाया। लेकिन किसानों को कोई लाभ नहीं दिया। विजय सिंह पथिक का गिरफ्तारी वारंट निकाल दिया। विजय सिंह पथिक मेवाड़ रियासत के बाहर उमा जी का खेडा नामक गांव में चले गए।अब राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी अंग्रेज अधिकारी विलकिम से मिले। पुनः किसानों की समस्या के हल पर विचार विमर्श के सन् 1922 में  एक जांच समिति का गठन कर दिया गया।इस कमेटी में राबर्ट हालेंड(AGG),आगतवी (सचिव),प्रभाष चंद्र चटर्जी (मेवाड़ के दीवान) तथा बिहारी लाल थे।इस जांच समिति ने बिजोलिया के किसान मोतीराम सरपंच व नारायण जी पटेल से बातचीत कर किसानों की मांग सुनी और 35 कर समाप्त कर दिए।जिससे किसान प्रसन्न हो गए, लेकिन बिजौलियां के ठाकुर ने इस समझौते को नही माना।
बिजोलिया में चल रहे इस आंदोलन को देखकर समस्त राजस्थान के किसानों तथा अन्य वर्गों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई। परिणाम स्वरूप कई जगह आंदोलन प्रारंभ हो गये।भोमट भील आंदोलन के नाम से भील और गरासिया जनजाति ने मिलकर आंदोलन प्रारंभ कर दिया।इस आंदोलन का नेतृत्व मोतीलाल तेजावत जो ओसवाल जाति के थे तथा झाडोल ठिकाने में कामदार थे, ने किया तथा एक किसान नेता गोकुल जाट ने सहयोग किया।7 नवम्बर सन् 1922 को मेजर शर्टन ने विजय नगर रियासत के नीमडा गांव में एकत्रित भीलों पर फायरिंग करवा दी, जिसमें 1200 भील शहीद हो गए। बेगूं, बूंदी, शेखावाटी में जो आंदोलन हुए राजस्थान सेवा संघ ने इन आंदोलनों का नेतृत्व किया।
बिजोलिया और बेगूं के आंदोलन का नेतृत्व स्वयं विजय सिंह पथिक जी ने किया। बेगूं के किसान सन् 1921 में विजय सिंह पथिक जी के पास आये, पथिक जी ने बेगूं के किसानों का नेतृत्व करने के लिए राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी को भेजा। बेगूं भी मेवाड़ रियासत का एक ठिकाना था। इसमें भी बिजौलियां की तरह धाकड़ जाति के किसान रहते थे। मेवाड़ रियासत के चार ठिकाने क्रमशः सलूम्बर,आमेट, बेगूं और देवगढ़ राणा लाखा के बडे पुत्र चूड़ा जिन्हें आधुनिक युग का भिष्म कहा जाता है को दे दिए गए थे।उनकी संतानें ही इन ठिकानों के ठाकुर थे। अकबर के साथ चित्तौड़ के युद्ध में जो फत्ता सिसोदिया वीर गति को प्राप्त हुए थे वो आमेट ठिकाने के जागीर दार थे। बेगूं में किसानों पर 54 प्रकार के कर लगे हुए थे। यहां के ठिकाने दार अनूप सिंह थे। रामनारायण चौधरी मेवाड़ के दीवान से बेगूं की समस्या के समाधान के लिए मिलें। सन् 1922 में मंडावरी नामक स्थान पर सभा कर रहे किसानों पर लाठी चार्ज किया गया। परन्तु किसान आंदोलन चलता रहा।मजबूर होकर बेगूं के ठिकाने दार अनूप सिंह ने जून सन् 1922 में अजमेर में जाकर विजय सिंह पथिक जी की मध्यस्थता में किसानों के साथ समझौता कर लिया।
इस समय गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चला रखा था। जिसमें चौरी चौरा कांड हो गया।चौरी चौरा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के पास का एक कस्बा है जहाँ 4 फ़रवरी 1922 को  भारतीयों ने बिट्रिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी थी जिससे उसमें छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जल के मर गए थे। इस घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
जब बेगूं के किसानों के समझौते की सूचना मेवाड़ के राणा फतेह सिंह को पहुंची तो ठाकुर अनूप सिंह को उदयपुर बुलाकर कैद कर लिया।
बिजौलियां में राणा का समझौता ठिकाने दार नही मान रहा था, बेगूं में ठिकाने दार का समझौता राणा नही मान रहा था। कुल मिलाकर मेवाड़ का नेतृत्व किसानों को सहूलियत नही देना चाहता था।अब 13 जून सन् 1923 को मेवाड़ के सेटलमेंट कमिश्नर ट्रेंच को बेगूं के किसानों की समस्या को हल करने के लिए भेजा गया। ट्रेंच ने बेगूं के किसानों से कहा कि बातचीत में बेगूं से बाहर का कोई व्यक्ति भाग नही लेगा।इस पर किसान तैयार नहीं हुए, किसान राजस्थान सेवा संघ को बातचीत से बाहर नही चाहते थे। अतः 13 जुलाई सन् 1923 को किसान गोविंद पुरा नामक गांव में एकत्रित हुए।इस समय किसानों पर ट्रेंच के द्वारा लाठीचार्ज व फायरिंग करवा दी गई। जिसमें 500 किसान गिरफ्तार कर लिए गए तथा रूपा जी धाकड़ व कृपा जी धाकड़ नाम के दो किसान शहीद हो गए।जब यह समाचार पथिक जी को प्राप्त हुआ तो वह अपने आप को रोक नहीं पाये तथा किसानों का मनोबल बढ़ाने के लिए अजमेर से बेगूं आ गये। जहां 10 सितंबर सन् 1923 को पथिक जी को गिरफ्तार कर लिया गया तथा पांच वर्ष के लिए उदयपुर जेल में भेज दिया गया।अब बेगूं किसान आंदोलन की कमान माणिक्य लाल वर्मा ने सम्भाली। मार्च सन् 1925 में लगभग 34 प्रकार के कर मेवाड़ सरकार ने बेगूं के किसानों से हटा कर समझौता कर लिया। बेगूं का आंदोलन समाप्त हो गया।
बिजौलियां की सीमा से लगा बूंदी राज्य का बरड क्षेत्र था,यहा के गुर्जर किसानों ने बेगार व भ्रष्टाचार के विरुद्ध बूंदी सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।इस आंदोलन का नेतृत्व राजस्थान सेवा संघ के एक कार्यकर्ता नयनू शर्मा ने किया।2 अप्रैल सन् 1923 को डाबी नाम के स्थान पर किसानों की सभा पर बूंदी प्रशासन ने गोली चला दी, जिसमें नानक भील व देवीलाल गुर्जर शहीद हो गए।
पथिक जी की गिरफ्तारी के बाद सन् 1923-1941 का समय बिजौलियां आंदोलन का अंतिम चरण है। वहीं राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी इस अवधि में अनेक आंदोलन हुए। अलवर रियासत में राजपूत जाति के किसानों के द्वारा लगान की बढी दरों को लेकर आंदोलन किया गया।जो निमूचाना आंदोलन के नाम से जाना जाता है।इस आंदोलन में 14 मई सन् 1925 को अलवर रियासत की सेना ने कमांडर छाजू सिंह के नेतृत्व में किसानों पर अंधाधुंध फायरिंग की। जिसमें 156 किसान मारे गए,39 गिरफ्तार कर लिए गए। हजारों की संख्या में किसान और पशु घायल हुए।इस नरसंहार को गांधी जी ने दोहरी डायरशाही कह कर अपने यंग इंडिया समाचार पत्र में भर्त्सना की।
 सन् 1926 में अंग्रेज अधिकारी ट्रेंच को बिजौलियां की भूमि का बंदोबस्त करने के लिए भेजा गया। ट्रेंच ने जो सिंचित भूमि थी,उस पर कर घटा दिया तथा असिंचित भूमि पर कर बढ़ा दिया।ऐसा उल्टा काम देख किसान आंदोलित हो उठे। किसानों ने आपस में सलाह की, सन् 1927 में विजय सिंह पथिक भी जेल से छूटकर आ गये थे। किसानों की यह योजना बनी कि असिंचित भूमि के पट्टे ठिकाने दार को वापस कर दिए जाएं।जब जमीन खाली हो जायेगी तो ठिकाने दार अपने आप समझौता करेगा।सभी किसानों ने अपनी जमीन के पट्टे वापस कर दिए। परन्तु साहूकारों व सम्पन्न किसानों ने वो पट्टे ठिकाने दार से खरीद लिए।इस समय विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, माणिक्य लाल वर्मा व जमुना लाल बजाज में भी आपसी मतभेद हो गये थे।जब बात गांधीजी तक पहुंची,तो जमुना लाल बजाज से आंदोलन के नेतृत्व का आग्रह किया गया। परन्तु यह उनके बस का काम नही था, हरिभाऊ उपाध्याय नाम के एक कार्यकर्ता को गांधी जी ने बिजौलियां भेजा। मदन मोहन मालवीय जी ने एक पत्र मेवाड़ प्रशासन को लिखा। मेवाड़ प्रशासन ने माणिक्य लाल वर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया।समय व्यतीत होता रहा।
सन् 1927 में अंग्रेजों ने भरतपुर के जाट राजा किशन सिंह को हटा कर उनकेे अल्पव्यस्क पुत्र को राजा बना दिया। सन् 1930 में अंग्रेजों ने मेवाड़ के राणा फतेह सिंह के स्थान पर उनके पुत्र भोपाल सिंह को राणा बना दिया।
 सन् 1931 में अक्षय तृतीया के दिन बिजौलियां के किसानों ने अपनी उन जमीनों पर जिनके पट्टे ठिकाने दार को वापस कर दिए थे, में अपने हल चलाने प्रारंभ कर दिए।इन किसानों पर ठिकाने दार के सैनिकों ने, मेवाड़ रियासत के सैनिकों ने तथा उन किसानों ने जिन्होंने ये पट्टे खरीद लिए थे, ने मिलकर हमला कर दिया।
सन् 1933 में अंग्रेजों ने अलवर के राजा जय सिंह को हटाकर एक जागीरदार तेज सिंह को अलवर का राजा बना दिया तथा राजा जयसिंह को देश निकाला दे कर पेरिस भेज दिया।
 सन् 1938 में किसानों ने लिखकर मेवाड़ के राणा भोपाल सिंह को दिया कि वो आगे कोई आंदोलन नही करेंगे,उनकी जमीन वापस दे दी जाय। 
सन् 1938 में सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा कि अब कांग्रेस रियासत के राजाओं द्वारा शोषित जनता के लिए राजाओं के क्षेत्रों में भी आंदोलन में सक्रिय सहयोग करेगी।
12 मार्च सन् 1939 में पथिक जी के अनन्य सहयोगी राव गोपाल सिंह खरवा का देहांत हो गया।
अतः सन् 1941 में बिजौलियां के किसानों को अपनी जमीन वापस मिल गई।इस प्रकार इस बिजौलियां आंदोलन का अंत हो गया।विजय सिंह पथिक जी के लम्बे संघर्ष ने राजाओं की शक्ति के नीचे दबी जनता में अभूतपूर्व चेतना व आत्मबल का संचार किया।जिस कारण पूरा राजस्थान आंदोलित हो उठा।विजय सिंह पथिक आंदोलनकारी नेता के साथ एक विचारक व लेखक भी थे। पथिक जी ने भारत की रियासतों के विषय में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम है "व्हाट आर द इंडियन स्टेट्स"।
15 अगस्त सन् 1947 को देश आजाद हो गया। देश में लोकतंत्र स्थापित हो गया।18 अप्रैल सन् 1948 को राजस्थान के तृतीय चरण का एकीकरण होने पर मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह राजस्थान के राजप्रमुख तथा माणिक्य लाल वर्मा राजस्थान के प्रधानमंत्री बने।
26 जनवरी सन् 1950 को देश का संविधान लागू हो गया। सन् 1952 में आजाद भारत का पहला चुनाव सम्पन्न हुआ। पथिक जी के शिष्य माणिक्य लाल वर्मा जी टोंक से १९५२ में लोकसभा के सांसद चुने गए ।विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) जी ने  अंग्रेजी शासन की जुल्मों भरी भयानकता तथा अपने जीवन की अंतिम बेला में आजाद भारतीय जनता की प्रसन्नता को अपनी आंखों से देखा।
पथिक जी जीवनपर्यन्त निःस्वार्थ भाव से देश सेवा  में जुटे रहें। भारत माता का यह महान सपूत 28 मई, 1954 में चिर निद्रा में सो गया। पथिक जी की देशभक्ति निःस्वार्थ थी और  मृत्यु के समय उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था, जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माथुर ने पथिक जी का वर्णन राजस्थान की जागृति के अग्रदूत महान क्रान्तिकारी के रूप में किया।
क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक व उन हजारों सत्याग्रहियों को जो आंदोलनों में शहीद हो गए,को शत-शत नमन।
समाप्त
सन्दर्भ ग्रंथ
1- डा सुशील भाटी - बिजौलिया के गांधी - विजय सिंह पथिक।
2 - रमन भारद्वाज (यू ट्यूब) - बिजौलियां व बेगूं किसान आंदोलन राजस्थान।



बुधवार, 15 जुलाई 2020

भारतीय संस्कृति के रक्षक गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

आज के भारत में हम भारत के नागरिक जिस आजादी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं,उसे इस रूप में प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक संघर्ष किया तथा असंख्य बलिदान दिए हैं,ऐसा ही एक संघर्ष आठवीं सदी के प्रारंभ में शुरू हुआ।

सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु(सन् 647) के बाद से सन् 1947 तक के 1300 वर्ष के कालखंड में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (सन् 730 से सन् 980) 250 वर्षों तक भारत के एक बड़े भू-भाग पर स्थापित रहा।जो भारतीयों के लिए एक प्रकाश पुंज की तरह है। गुर्जर प्रतिहार राजाओं के शासन काल में ही भारतीय सनातन संस्कृति अपने चरम पर पहुची।इसी कालखंड में आदि शंकराचार्य का उदभव हुआ।आदि शंकराचार्य ने वैष्णव,शैव और शाक्य परम्पराओं की बडी सुंदर प्रस्तुति आम जनमानस के सामने रखी। हिंदूओं के चार धामों में चार पीठ,सप्त पुरियो,12 ज्योतिर्लिंग तथा देवी के कई शक्ति पीठ इसी कालखंड में स्थापित  किए गये।

यह वह समय था जब भारत पर अरब के द्वारा इस्लामिक हमले शुरू हो गये थे।ये हमलावर मंदिरों को क्षतिग्रस्त कर रहे थे,सम्पदा को लूट रहे थे, निहत्थे और सात्विक पुजारी और भारतियों की हत्या कर रहें थे। सत्ता की ओर से गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने सभी स्थानीय शक्तियों को एकत्रित कर इन हमलावरों को रोकने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा रखी थी, परन्तु दूसरी ओर राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रकूट और पाल शासक या तो उदासीन थे या इन अरब हमलावरों से मिल जाते थे।

इन परिस्थितियों में आदि शंकराचार्य ने धर्म व धार्मिक स्थलों की सुरक्षा के लिए साधुओं में सैन्य पथ की स्थापना की। जिनको नागा साधु कहा गया। गुजरात की भाषा में नागा शब्द का अर्थ है लडाका।

इस समय सोरसेनी प्राकृत साहित्य में वृद्धि हुई।विक्रमी संवत् की उत्तरी भारत में लोकप्रियता अपने चरम पर पहुची। हिन्दू तीर्थों की पुनर्स्थापना हुई।यह हिन्दू धर्म का स्वर्ण युग भी कहा जा सकता है।
यहां हमारे लेखन का उद्देश्य इस कालखंड में हुए संघर्ष में गुर्जर प्रतिहार तथा उनके सहयोगियों के पराक्रम व बलिदान पर प्रकाश डालते हुए सम्राट मिहिर भोज के द्वारा स्थापित विशाल साम्राज्य के बारे में पाठकों को बताना है-
प्रतिहार शब्द की विवेचना के लिए देखें परिशिष्ट नंबर-1

 उज्जैन/कन्नोज के प्रतिहार  गुर्जर प्रतिहार कहलाये। अतः देखते हैं कि उज्जैन/कन्नोज के प्रतिहार वंश को किन समकालीन ग्रंथ व अभिलेखों में गुर्जर कहा है -

देखें परिशिष्ट नंबर- 2

सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885) की ग्वालियर प्रशस्ती में प्रतिहार वंश के राजाओं को राम जी के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया गया है।

सम्राट मिहिर भोज के दरबारी विद्वान राजशेखर जो मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्र पाल (सन् 885-910) के गुरू थे, ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी और रघुवंश तिलक कहा है।

राजशेखर ने ही महेंद्र पाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुकुट मणि कहा है।

 उपरोक्त गुर्जर प्रतिहार परिचय के पश्चात् पाठकों को उस समय के घटनाक्रम को जानने के लिए  जब अरब हमलावरों ने भारत पर आक्रमण प्रारंभ कर दिए थे। देखें-

परिशिष्ट नंबर-3

  रामभद्र सूर्य का उपासक था तथा गुर्जर प्रतिहार वंश का तिसरा सम्राट था। वत्सराज गुर्जर प्रतिहार वंश के पहले सम्राट थे। सम्राट रामभद्र पर पाल राजा देवपाल ने हमला कर दिया, जिसे रामभद्र ने निष्फल कर दिया।इस हमले की जानकारी बादल स्तम्भ लेख व दौलतपुर दान पत्र से मिलती है।रामभद्र कुछ विलासी प्रवृत्ति का था अतः उसके मंत्रियों ने रामभद्र को हटाकर उसके पुत्र भोज को शासक बना दिया,जिसकी माता का नाम अप्पा देवी था।यही भोज सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885)के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भोज नाम के चार शासक भारतीय इतिहास में हुए हैं, सबसे पहले सम्राट मिहिर भोज जो नो वी शताब्दी में हुए, दूसरे उज्जैन के भोज परमार जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुए,तिसरे सवाई भोज बगड़ावत जो तेरहवीं शताब्दी में हुए और भगवान् देवनारायण के पिता थे, चौथे भोजराज जो राणा सांगा के पुत्र तथा संत मीराबाई के पति थे जिनका समय 16 वी शताब्दी है। यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र नो वी शताब्दी के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज है।

सम्राट मिहिर भोज की दो उपाधियां और थी,एक आदि वराह  (ग्वालियर प्रशस्ती) ,दूसरी प्रभास(दौलतपुर अभिलेख जोधपुर)।

सम्राट मिहिर भोज के द्वारा ही त्रिपक्षिय संघर्ष जो पाल, राष्ट्रकूट और प्रतिहारो के बीच चल रहा था, में अंतिम विजय प्रतिहारो की हुई तथा प्रतिहार राजा ( सन् 1036) अपने अंत तक कन्नौज पर काबिज रहे। सम्राट मिहिर भोज ने चांदी के द्रम सिक्के चलाये। ग्वालियर में चतुर्भुज भगवान का मंदिर बनवाया।मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी (900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी| अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी| अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा ले। इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी राजधानी बना सके| सम्राट मिहिरभोज ने सिंधु और मुल्तान में स्थापित हो गए अरबों को कर देने के लिए मजबूर कर दिया। अरबों से कर वसूलने की जानकारी फारसी ग्रंथ हुदूद- उल-आलम से प्राप्त होती है।

 सम्राट मिहिर भोज के शासनकाल में सन् 851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं| 

सुलेमान तत्तकालीन समय के पाल राजा देवपाल तथा राष्ट्रकूट राजा शर्व अमोघ वर्ष तथा प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज के राज्य में रहा, उसने लिखा कि भारत में सबसे बडी अश्वसेना सम्राट मिहिर भोज के पास है, हाथियों की सेना राजा देवपाल के पास है तथा पैदल सेना शर्व अमोघ वर्ष के पास है।वह लिखता है कि पाल राजा देवपाल भारत का सबसे शक्तिशाली राजा है, राष्ट्रकूट राजा शर्व अमोघ वर्ष संसार के चार महान राजाओं में से एक है।

लेकिन सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह सम्राट मिहिर भोज के विषय में लिखता है कि मिहिरभोज अरबों का सबसे बड़ा शत्रु है। सम्राट मिहिर भोज का राज्य चोर और डाकुओं से सुरक्षित है। अरब हमलावरों से उस समय पूरा विश्व त्राहि-त्राहि कर रहा था,उनका सबसे बड़ा शत्रु सम्राट मिहिर भोज है। मिस्र के प्रधानमंत्री मलहबी ने भूगोल की एक पुस्तक लिखी,जिसका नाम"अजोजो" है, उसमें वह लिखता है कि कन्नौज भारत का सबसे बड़ा नगर है जिसमें जौहरियों की तीन सौ दुकाने है।

सम्राट मिहिर भोज के द्वारा लिखाई गई ग्वालियर प्रशस्ती में गुर्जर प्रतिहारो को भगवान् राम के भाई लक्ष्मण से जोडा गया है। भारत में श्री राम और श्री कृष्ण सबसे प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त देवता हैं,जब भी किसी व्यक्ति ने बडा कार्य किया है, उसने अपने आप को इन दोनों देवताओं से जरूर जोडा है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जब अपना राज्याभिषेक किया तो उन्होंने भी अपने आप को भगवान् राम से जोडा।यहा पर भी सम्राट मिहिरभोज ने अपने वंश के साथ जुड़े प्रतिहार शब्द को दिव्यता प्रदान करते हुए भगवान् राम के भाई लक्ष्मण के साथ जोड़ा तथा एक तरह से अपने को भारत भूमि और भारतीय संस्कृति का प्रतिहार (प्रहरी)कहा है।इस ग्वालियर प्रशस्ती में ही नागभट प्रथम को लिखा है कि वो नारायण की तरह प्रकट हुए और म्लेच्छो को भारत भूमि से बाहर फैंक दिया।यहा म्लेच्छ का मतलब अरब हमलावरों से है, इस प्रशस्ती में ही प्रतिहारो को आदि वराह कहा है,कि भगवान वराह ने अपनी चार भुजाओं से जिस प्रकार पृथ्वी को बचाया था उसी प्रकार वराह भगवान् की चार भुजाओं (नागभट प्रथम,बप्पा रावल, देवराज भाटी तथा अजयपाल चौहान) ने मलेच्छो को भारत भूमि से बाहर कर दिया। प्रतिहार राजाओं के इस महान कार्य में जो उनके सहयोगी सामंत रहे उनका नाम उजागर करना भी यहा आवश्यक है,जो निम्न हैं-

1- मंडोर (वर्तमान में जोधपुर)के बाऊक प्रतिहार

2- दिल्ली के तंवर

3- शेरगढ़ (राजस्थान में)के नागवंश (नागड़ी/नागर) के देवदत्त।

4-मतस्य(अलवर व आभानेरी/ दौसा) के निकुंभ।

5- महोबा के ननुक चंदेल।

6- चित्तौड़ के गुहिल/गहलोत।

7- सांभर के गुविक द्वितीय चौहान।

8- मांड (जैसलमेर) के भाटी।

9- राजौर गढ (अलवर)के बड़गुर्जर।

10- विजय गढ (बयाना)व तिमन गढ (करौली)के यादव।

11- मोरय।

12- योद्धेय।

13- खालोली,धनोट और हस्तकुंडी (राजस्थान)के राठौड़ (राठी)।

14- ग्वालियर के कच्छपघट (कछवाहे)।

15- आमेर,खोह (जयपुर) और मांच (जमुवा रामगढ़) के मीणा।

16-गोरखपुर(उत्तर प्रदेश) के सोढ देव प्रतिहार (काहता दान पत्र में उल्लेख)

सम्राट मिहिर भोज के समय सांभर के चौहान सबसे शक्तिशाली और विश्वसनीय सामंत थे, चौहान गुवक द्वितीय की बहन कलावती सम्राट मिहिर भोज की रानी थी, पेहवा (हरियाणा) घोड़ों के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था।

मिहिर भोज और उसके वंश की सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता उस अरब साम्राज्यवाद से भारत की रक्षा करना था, जिसने अल्पकाल में ही लगभग एक तिहाई पुरानी दुनिया को निगल, आठवी शताब्दी के आरम्भ में भारत की सीमा पर दस्तक दे दी थी| तीन शताब्दियों तक गुर्जर प्रतिहारो ने अरबो को भारत की सीमा पर रोक कर रखा| दक्कन के राष्ट्रकूट अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए जहाँ अरबो के साथ मिल गए, वही मिहिर भोज ने काबुल-पेशावर के हिन्दू शासक लल्लिया शाही और पंजाब के अलखान गुर्जर के साथ परिसंघ बनाकर अरबो का डट कर मुकाबला किया| आर. सी. मजुमदार के अनुसार मिहिर भोज मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति थाअपना यह गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”।

 सम्राट मिहिर भोज ने अपने पुत्र महेन्द्र पाल(सन् 914-943) की शिक्षा हेतु अपने समय के विद्वान राजशेखर को शिक्षक नियुक्त किया।इन्ही राजशेखर ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी व रघुवंश तिलक कह कर सीधे भगवान् राम के वंश से जोडा। महेंद्र पाल के पुत्र महिपाल के अंतिम दिनों में चंदेल, चौहान, गहलोत, कच्छपघट तथा बड़गुर्जर( राजौर गढ,मोचडी और राजगढ़) प्रसिद्ध सामंत थे। इस समय गुर्जर प्रतिहार सत्ता कमजोर होने लगी थी,महोबा के चंदेल,सांभर के चौहान, चित्तौड़ के गुहिल तथा ग्वालियर के कच्छपघट एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गए थे। राजौर गढ के राजा मथनदेव बड़गुर्जर का सन् 960 का राजौर गढ में शिलालेख मिला है, राजौर गढ की स्थापना राज देव बड़गुर्जर ने की थी।राज गढ़ के बाघ सिंह बड़गुर्जर "भोमिया" देवता के रूप में राजस्थान में पूजे जाते हैं।

सन् 1018 में जब कन्नौज का राजा राजपाल था तब मोहम्मद गजनवी ने हमला किया। राजपाल गजनवी का सामना नही कर सका तथा कन्नौज से पलायन कर गया,गजनवी ने कन्नौज को लूट लिया।गजनवी के इस हमले का जिक्र गजनवी के दरबारी उत्बी द्वारा लिखित"तारीख-ए-यामिनी"में मिलता है।गजनवी के साथ अलबरूनी नाम का विद्वान भी आया था, जिसने"तहकीक-ए-हिन्द" नाम की एक किताब लिखी।यह किताब ग्यारहवीं सदी का भारत का दर्पण कही जाती है। 

लेकिन इस समय नागभट प्रथम और बप्पा रावल जैसे सुलझे हुए व्यक्ति नही थे, चंदेल राजा विद्याधर और अर्जुन कछवाहे ने महमूद गजनवी के विरूद्ध कोई मोर्चा बनाने के स्थान पर अपने ही राजा राजपाल पर हमला कर उसकी हत्या कर दी।दुबकुंड अभिलेख से राजा राजपाल की अर्जुन कछवाहे के तीर से मृत्यु हो जाने की जानकारी प्राप्त होती है।

इस प्रकार भारत की सुरक्षा का जो द्वार सन् 730 में नागभट प्रथम ने बनाया था वह सन् 1018 में टूट गया।

गुर्जर प्रतिहार राजाओं के शासनकाल में अनेक स्थापत्य कला के कार्य हुए।अनेक मंदिर निर्माण किये गये। भारत में हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत तक मंदिर नागर शैली में बने हैं, शिखर पर खड़ी रेखाएं होने के कारण इस शैली को आर्य रेखिय शिखर शैली भी कहते हैं। दक्षिण भारत में कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली में मंदिर बने हैं,इस शैली की एक विशेषता यह है कि, मंदिर का तोरणद्वार जिसे गोपुरम  कहा जाता है,भव्य बनाया जाता है।कृष्णा नदी से लेकर विंध्याचल पर्वत तक बेसर शैली,जो नागर+द्रविड़/चालुक्य होयसल शैली में मंदिर बने हैं। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने अपनी अलग शैली बनाई, जिसे महामारू शैली कहा गया,इस शैली को नागर शैली का विकसित रुप कहा गया।यह नागर शैली ही मानी गई। प्रतिहार राजाओं ने निम्न मंदिर बनवाए-

1- नीलकंठ मंदिर राजौर गढ (अलवर)

2- हर्षद माता मंदिर आभानेर (दौसा)

3- विष्णु मंदिर मंडोर (जोधपुर)

4-वराह मंदिर आहड़ (गुर्जर प्रतिहार राजाओं के कुल देवता)

5- नारायणी माता मंदिर राजगढ़

6-हरिहर मंदिर व महावीर मंदिर ओसियां

7-कामेश्वर महादेव मंदिर,सुमाली माता मंदिर आउवा

8- सिद्धेश्वर महादेव मंदिर जोधपुर

9- आशावरी माता मंदिर राजौर गढ।

गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने जहां तीन सो वर्षों तक भारत की अरबी हमलावरों से रक्षा की,वही दूसरी ओर एक उल्लेखनीय कार्य शानदार जल प्रबंधन और सिंचाई प्रणाली के रूप में किया। उन्होंने पश्चिमी और उत्तरी पश्चिमी उपमहाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में भी एक समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।

सन् 1090 में गुर्जर प्रतिहार राजाओं के सामंत रहे चन्द्र देव गहरवाल ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।

गुर्जर प्रतिहार राजाओं के पतन के बाद से भारत की आज़ादी सन् 1947 तक एक समीक्षा देखें-

परिशिष्ट नंबर-4

 समाप्त

परिशिष्ट नंबर-1

आइए सबसे पहले हम प्रतिहार शब्द की विवेचना करते हैं।बंधुओ प्रतिहार शब्द का अर्थ प्रहरी से जुडा हुआ है। भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण जब वनवास में राम जी के साथ गये,तब अपने भाई राम व माता सीता की सुरक्षा हेतु एक प्रहरी के रूप में जो सेवा लक्ष्मण जी ने प्रदान की,उस कारण लक्ष्मण जी को राम जी का प्रतिहार कहा गया। परंतु जिस कालखंड की घटना के बारे में हम लिख रहे हैं उस समय मांडखेत (वर्तमान सोलापुर- महाराष्ट्र)के राष्ट्रकूट राजा अपने देश की रक्षा हेतु जो सामंत नियुक्त करते थे ,वो उनको प्रतिहार नामक पद से सुशोभित करते थे, अतः आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में महाराष्ट्र से उज्जैन और वर्तमान राजस्थान के क्षेत्र में जो राष्ट्रकूट राजाओं के सामंत दुर्गों में विराजमान थे वो प्रतिहार कहलाते थे। आठवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट शासक दन्ती दुर्ग ने उज्जैन में पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया था,इस समय नागभट प्रथम उज्जैन के प्रतिहार थे।इस तरह तत्तकालीन समय में 6 जगह के प्रतिहार प्रसिद्ध हुए हैं,1- मंडोर (वर्तमान राजस्थान में जोधपुर),2-मेडता,3-राजौर गढ़/राजगढ़ (अलवर),4-जालौर,5-उज्जैन,6-कन्नौज। इनमें उज्जैन और कन्नौज के प्रतिहार एक ही है।सत्रहवी सदी के लेखक मुहणोत नेन्सी ने प्रतिहारो की 26 शाखाओं का उल्लेख किया।जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि प्रतिहार एक पद का नाम है और भारतीय समाज में उस समय भी जातियां विद्यमान थी, अतः ये सभी प्रतिहार भी किसी ना किसी जाति के अवश्य होगे।

सातवीं शताब्दी में मांडव्यपुर (मंडोर) के प्रतिहार हरिश्चंद्र ने अपना पहला प्रतिहार राज्य स्थापित किया,जो वर्तमान राजस्थान में था।राजा हरिश्चंद्र की दो उपाधियां थी एक रोहिल्लादि तथा दूसरी विप्र राजन्य। यहां विप्र का अर्थ विद्वान से है, परन्तु आधुनिक ब्राह्मण जाति के इतिहासकारों ने अपने जातिय प्रेम के कारण राजा हरिश्चंद्र को ब्राह्मण जाति का बताने का प्रयास किया। परन्तु राजा हरिश्चंद्र ने अपने आपको क्षत्रिय कहा है।यदि वो ब्राह्मण जाति से होते तो अपने आप को भगवान् परशुराम जी से जोडते।

परिशिष्ट नंबर-2

इतिहासकारों का एक वर्ग जिनमे ए. एम. जैक्सन, जेम्स केम्पबेल, वी. ए. स्मिथ, विलयम क्रुक, डी .आर. भंडारकार, रमाशंकर त्रिपाठी, आर. सी मजूमदार और बी एन पुरी आदि सम्मिलित हैं प्रतिहारो को गुर्जर (आधुनिक गूजर) मूल का मानते हैं


सज्जन ताम्र पत्र, बड़ौदा ताम्र पत्र,माने ताम्र पत्र में प्रतिहार वंश को गुर्जर कहा गया है।

1-नीलकुण्ड,2-राधनपुर,3-देवली,4-करहड के राष्ट्रकूट अभिलेखों में गुर्जर कहा है।

राजौर के अभिलेखों में उज्जैन/कन्नौज के प्रतिहार वंश को गुर्जर कहा है।

ऐहोल व नवसारी के शिलालेखो में इन्है गुर्जरेश्वर कहा है।

चंदेल शिलालेखो में गुर्जर प्रतिहार कहा है।

अरब यात्रियों ने इनको जुर्ज कहा है।

जिनसेन सूरि का हरिवंश पुराण, उद्योतन सूरि(सन् 778) का कुवलय माला तथा कल्हण की राजतरंगिणी(बारहवीं शताब्दी) तथा जयानक की पृथ्वीराज विजय(बारहवीं शताब्दी) में गुर्जर राज और मरू गुर्जर कहा है।

राष्ट्रकूट शासक इंद्र III के 915 ई. के बेगुमरा प्लेट अभिलेख में कृष्ण II के ‘गर्जद गुर्जर’ के साथ युद्ध का उल्लेख हैं| इतिहासकार ने ‘गर्जद गुर्जर’ प्रतिहार शासक महीपाल के रूप में की हैं|

पम्पा द्वारा लिखित विक्रमार्जुन विजय में तत्तकालीन गुर्जर प्रतिहार सम्राट महिपाल (सन् 912-944) को गुर्जर राजा कहा है।

अरब लेखक अबू ज़ैद और अल मसूदी के अनुसार उत्तर भारत में अरबो का संघर्ष ‘जुज्र’ (गुर्जर) शासको से हुआ| इतिहासकारों के अनुसार जुज्र गूजर शब्द का अरबी रूपांतरण हैं| अरब यात्री सुलेमान (851 ई.), इब्न खुरदादबेह (Ibn Khurdadaba), अबू ज़ैद (916 ई.) और अल मसूदी (943ई.) ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को जुर्ज़ अथवा जुज्र (गूजर) कहा हैं| अबू ज़ैद कहता हैं कि कन्नौज एक बड़ा क्षेत्र हैं और जुज्र के साम्राज्य का निर्माण करता हैं| उस समय कन्नौज प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी थी, अतः यह साम्राज्य जुज्र अर्थात गूजर कहलाता था| सुलेमान के अनुसार बलहर (राष्ट्रकूट राजा) जुज्र (गूजर) राजा के साथ युद्धरत रहता था| अल मसूदी कहता हैं कन्नौज के राजा की चार सेनाये हैं जिसमे दक्षिण की सेना हमेशा मनकीर (मान्यखेट) के राजा बलहर (राष्ट्रकूट) के साथ लडती हैं| वह यह भी बताता हैं कि राष्ट्रकूटो का क्षेत्र कोंकण जुज्र के राज्य के दक्षिण में सटा हुआ हैं| इस प्रकार यह भी स्पष्ट होता हैं कि राष्ट्रकूटो के अभिलेखों में जिन गुर्जर राजाओ का उल्लेख किया गया हैं वो कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार हैं|


अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार प्रतिहार शासको उपाधि ‘गुर्जर’ थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी ‘गुर्जर’ था| गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में विस्तृत था| 

राजोर गढ़ के गुर्जर प्रतिहार- मथनदेव के 960 ई. के ‘राजोर अभिलेख’ के चौथी पंक्ति में उसे ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ कहा गया हैं| इसी अभिलेख की बारहवी पंक्ति में गुर्ज्जर जाति के किसानो का स्पष्ट उल्लेख हैं| बारहवी पंक्ति में “गुर्जरों द्वारा जोते जाने वाले सभी पडोसी खेतो के साथ” शब्दों में स्पष्ट रूप से गुर्जर जाति का उल्लेख हैं अतः इतिहासकारों के बड़े वर्ग का कहना हैं कि चौथी पंक्ति में भी गुर्जर शब्द जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं न की किसी स्थान या भोगोलिक इकाई के लिए नहीं| इस कारण से इतिहासकारो ने ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ का अर्थ गुर्जर जाति का प्रतिहार वंश बताया हैं| मथनदेव गुर्जर जाति के प्रतिहार वंश का हैं| इस अभिलेख से इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रतिहार गुर्जर जाति का एक वंश था, अतः कन्नौज के प्रतिहार भी गुर्जर जाति के थे|

बूढी चंदेरी के प्रतिहार- दसवी शताब्दी के अंत में ‘कड़वाहा अभिलेख’ में बूढी चंदेरी के प्रतिहार शासक हरिराज को ‘गरजने वाले गुर्जरों का भीषण बादल’ कहा गया हैं तथा उसका गोत्र प्रतिहार बताया गया हैं|


परिशिष्ट नंबर-3

जब इस्लाम का झंडा लेकर अरब के खलीफा के आदेशानुसार इस्लामी सेना दुनिया को दारुल हरब से दारुल इस्लाम में बदलने के लिए निकल पड़ी तथा सन् 637 से 647 ईसवी के बीच हुए सैन्य अभियानों में सीरिया, ईरान, ईराक और मिश्र पर मदीना का नियंत्रण स्थापित हो गया। कुछ ही दशकों में अरबी साम्राज्य मिश्र स्थित नील नदी से लेकर भारत की सीमा तक फेल गया।

दूसरी तरफ अरबों द्वारा सन् 666 ईसवी में पश्चिमोत्तर भारत विजय अभियान को काबुल शाही द्वारा प्रतिरोध कर अरबों के काबुल जितने के प्रयास को असफल कर दिया।

इधर मुल्तान के दक्षिण में स्थित निचला सिंधु घाटी क्षेत्र जो सिंध कहलाता हैं, चचनामा के अनुसार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस स्थान पर राजा दाहिर अपनी राजधानी ब्रहमना बाद से सिंध पर शासन करता था। देबल सिंधु उसका मुख्य शहर था। सीलोन (श्री लंका) के राजा ने कुछ कीमती उपहार समुद्र के रास्ते एक जहाज से ईरान के अरबी गवर्नर हज्जाज के लिए भिजवाए थे। जिन्हें रास्ते में देबल में लूट लिया गया, अरब के खलीफा ने इसके लिए राजा दाहिर को जिम्मेदार ठहराया। इस घटना का बहाना लेकर ईरान के गवर्नर हज्जाज के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सन् 712 में सिंध स्थित देबल बंदरगाह पर हमला कर दिया तथा राजा दाहिर को हराकर उसका क्षेत्र अपने कब्जे में ले लिया। सन् 723 में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर इस्लामी सेना ने अपनी सिंधु विजय पूर्ण कर ली।

मुहम्मद बिन कासिम ने ही जोगरफिकल व कल्चरल रूप से सिंध नदी के दूसरी ओर के भूभाग को हिंदुस्तान व यहां रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा।

सिंध विजय के बाद अरबों ने उत्तर भारत की विजय के लिए अभियान आरंभ कर दिए। अरब खलीफा हिशाम (सन् 724 से 743 ईसवी) ने जुनैद को सिंध का गवर्नर नियुक्त किया।

जुनैद के सेनापति मातीन ने सिंध को पार कर तत्तकालीन समय के गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल (जालौर) के चावड़ा शासक मामा चौहान तथा चित्तौड़ के शासक मान मोरय व मांड (वर्तमान जैसलमेर)के देवराज भाटी, सांभर के अजयपाल चौहान पर अति तीव्र हमले किए।इस हमले में भीनमाल (जालौर)के मामा चौहान वीर गति को प्राप्त हो गये,मामा चौहान आज भी वर्तमान राजस्थान में लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। चित्तौड़ के मान मोरय दुर्ग तो बचा ले गये परंतु अत्याधिक कमजोर हो गए।अरब हमलावार जुनैद ने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को भी तोड दिया। स्थति को भांप कर नागदा (वर्तमान उदयपुर में) के शासक कालभोज/ बप्पा रावल ने आगे बढ़ कर चित्तौड़ दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया।अरब हमले की गम्भीरता को देखते हुए उज्जैन के प्रतिहार नागभट प्रथम ने आगे बढ़कर भीनमाल (जालौर) और भड़ौच पर अधिकार कर भीनमाल (जालौर) के दुर्ग को निर्मित कर शक्तिशाली बना लिया।बप्पा रावल और नागभट प्रथम ने संयुक्त रूप से एक गठबंधन बनाया तथा अपने साथ मांड (वर्तमान जैसलमेर) के देवराज भाटी तथा सांभर के अजयपाल चौहान को मिला लिया तथा इस संयुक्त सेना ने जुनैद की सेना को मारवाड़ के क्षेत्र में हुए युद्ध मे हरा दिया तथा अपने क्षेत्र से मारकर सिंधु नदी के पार भगा दिया।अरब हमलावरों की इस हार की जानकारी हमें तत्तकालीन समय के मुसलमानों के  फारसी ग्रंथ फुतुहलबदाना से प्राप्त होती है।मेवाडी ग्रंथों में भी हमें इस युद्ध के विषय में जानकारी प्राप्त होती है,मेवाडी ग्रंथ के अनुसार बप्पा रावल ने ईरान खुरासान को विजित कर लिया तथा वहां की राजकुमारी से विवाह किया तथा वर्तमान पाकिस्तान में स्थित रावलपिंडी नगर को बसाया।यहा जब हम ईरान का जिक्र देखते हैं तो हमारा ध्यान वर्तमान समय के ईरान पर जाता है। परंतु सही जानकारी के लिए हमें तत्तकालीन समय के ईरान के क्षेत्र को देखना होगा। ईरान के शासक डेरियस प्रथम जिसे भारतीय  दारा कहते थे, के समय आज का पंजाब ईरान के अधिकार में था तथा पंजाब ईरान का 20 वां प्रांत था। अतः बप्पा रावल ने आज का पंजाब, जो तत्तकालीन समय में ईरान के क्षेत्र के रुप में प्रचलित  था, तक अपना सैन्य अभियान किया,इसी क्षेत्र के राजा की राजकुमारी से विवाह किया तथा रावलपिंडी नगर बसाया।

भारतीयों का अरब हमलावरों के विरूद्ध गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम,बप्पा रावल, देवराज भाटी, अजयपाल चौहान के इस सैन्य अभियान की तुलना यूरोप(फ्रांस) के सेनापति चार्ल्स सेसेवियर के यूरोप और ईसाई धर्म को अरब हमलावरों से  बचाने के लिए किए गए सैन्य अभियान से की गई है। जिस तरह चार्ल्स सेसेवियर ने अरब हमलावरों से यूरोप में ईसाई धर्म को सुरक्षित किया ,उसी प्रकार गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम ने गठबंधन बनाकर भारत की सनातन संस्कृति को अरब के मुस्लिम हमलावरो से बचा लिया। नागभट प्रथम के इस महान कार्य में उनके सबसे बडे सहयोगी बप्पा रावल थे,यह भारत का सोभाग्य ही था कि उस समय नागभट प्रथम और बप्पा रावल जैसे दूरदर्शी और बहादुर व्यक्ति मौजूद थे, जिन्होंने अपने क्षेत्र की सभी भारतीय शक्तियों को एकत्रित कर अरब हमलावरों को भारत में घुसने से रोक दिया। यहां हम थोडा सा बप्पा रावल के विषय में अपने पाठकों को जानकारी देना चाहेंगे-

बप्पा रावल के पूर्वज गुहिल ने सन् 566 में गुहिल वंश की स्थापना की जिनके सहयोगी आगे चलकर गहलौत तथा और आगे चलकर सिसोदिया कहलाये।गुहिल को वर्तमान राजस्थान के भील अपना शासक मानते थे,वो भीलो में ही रहते थे, अतः सामान्य तौर पर देखा जाए तो वह भील समाज के राजा थे,राजा गुहिल की आंठवी पीढी में नागादित्य नामक एक शासक हुए,बप्पा रावल इन्ही नागादित्य के पुत्र थे।नागादित्य के समय में भील समुदाय में आपस में किसी विषय को लेकर संघर्ष हो गया,इस संघर्ष में नागादित्य की मृत्यु हो गई। अतः गहलोत अर्थात राजा गुहिल के समर्थक और विरोधी दो फाड़ हो गये।बप्पा रावल ने बडे होकर गहलोत राज्य की स्थापना की।बप्पा रावल भगवान् एकलिंग (शिव शंकर) के भक्त थे।बप्पा रावल ने वर्तमान उदयपुर के पास भगवान् एकलिंग का भव्य मंदिर बनवाया,बप्पा रावल भगवान् एकलिंग को ही अपने राज्य का स्वामी मानते थे तथा खुद को उनका दीवान कहते थे।बप्पा रावल ने जो अपनी मुद्रा सोने के सिक्के के रुप में चलाई,उस पर शिव लिंग,गाय और सूर्य तथा एक नतमस्तक आदमी का चित्र है,वह नतमस्तक आदमी बप्पा रावल का प्रतिक है,वो गौ भक्त थे। बचपन में अपने शिक्षाकाल में अपने श्रृषि के आश्रम में वह आश्रम की गाय भी चराते थे।बप्पा रावल ने सन् 753 में संन्यास ले लिया तथा अपने पुत्र खुम्माण   प्रथम को शासन की बागडोर सोप कर , उसे देश हित के संघर्ष के लिए नागभट प्रथम के साथ कर दिया। नागभट प्रथम ने मेड़ता (वर्तमान जोधपुर)को अपनी राजधानी बनाया। नागभट प्रथम की एक उपाधि नाहड़ तथा दूसरी नागावलोक थी। नागभट प्रथम ने ही प्रतिहार साम्राज्य की नींव रखी। नागभट प्रथम (सन् 730-756) के बाद उनका भतीजा कुकुस्थ शासक बना तथा कुकुस्थ के बाद कुकुस्थ का छोटा भाई देवराज शासक बना। इन दोनों शासकों की कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही। देवराज के बाद देवराज का पुत्र वत्सराज (सन् 783-816)शासक बना। वत्सराज के समय में ही कन्नौज को लेकर गुर्जर प्रतिहार,पाल और राष्ट्रकूट में तिकोना संघर्ष प्रारंभ हुआ। कन्नौज जिसका एक नाम कान्यकुब्ज तथा दूसरा नाम महोदया नगर भी है,इस संघर्ष के कारण ही कन्नौज को सम्राटों की रण भूमि भी कहा जाता है।वत्स राज की एक उपाधि एकलिंग क्षत्रिय पुंगल थी जिसका अर्थ है क्षत्रिय राजाओं में श्रेष्ठ। दूसरी उपाधि अवंति राज थी।वत्स राज को अपने समय में चार मोर्चों पर लडना पड़ा।पाल, राष्ट्रकूट और अरब हमलावरों से तथा चौथा जो किसी भी शासक को लडना पडता है, अपने आंतरिक विरोधियों से।

वत्स राज गुर्जर प्रतिहार राजाओं में पहले सम्राट थे।वत्सराज के बाद नागभट द्वितीय (सन् 816-833) शासक बने। नागभट द्वितीय ने अपने शासन काल में कई महत्वपूर्ण सफलताएं अर्जित की। नागभट द्वितीय ने चित्तौड़ के गहलोत व सौराष्ट्र के बाहकधवल के सहयोग से उणियारा (वर्तमान में टांक राजस्थान में)नामक स्थान पर पाल शासक धर्मपाल को पराजित कर दिया तथा सांभर के चौहान राजा गुवक प्रथम की सहायता से मत्स्य देश (वर्तमान अलवर राजस्थान में) के निकुंभ राजा को भी पराजित कर दिया। नागभट द्वितीय ने प्रसन्न होकर चौहान राजा गुवक प्रथम को "वीर" की उपाधि से विभूषित किया। राजा हर्षवर्धन के बाद नागभट द्वितीय को एक शक्तिशाली सम्राट माना जाता है, जिसके राज्य की सीमा हिमालय से लेकर नर्मदा नदी के तट तक थी। नागभट द्वितीय की एक उपाधि नागावलोक तथा दूसरी उपाधि"परमेश्वर परमभट्टारक महाराजाधिराज"थी।नागभट द्वितीय भगवती के उपासक थे, उन्होंने जुनैद के द्वारा तोड़ दिए गए सोमनाथ के मंदिर का विस्तृत निर्माण कर भव्यता प्रदान की।नागभट द्वितीय ने अपने बेटे रामभद्र को शासन सौंपकर हरिद्वार में हर की पैड़ी पर जलसमाधि ले ली।

परिशिष्ट नंबर- 4

गुर्जर प्रतिहारो के पतन के बाद चौहान राजाओं ने भारत की रक्षा का भार संभाला तथा अजमेर को राजधानी बनाकर गजनवी के हमलों को विफल कर दिया। चौहानों के शासक पृथ्वीराज चौहान जिन्हें भारत का अन्तिम हिन्दू सम्राट भी कहा जाता है। चित्तौड़ के गहलोत और दिल्ली के तंवर जिनके सामंत थे, ने सन् 1192 तक भारत की रक्षा की। इन्हीं पृथ्वीराज चौहान के दरबारी जयानक ने पृथ्वीराज विजय में पृथ्वीराज चौहान को गुर्जर राज और मरू गुर्जर लिखा है। सन् 1192 में दिल्ली पर मोहम्मद गोरी का अधिकार हो गया। 

सन् 1200 तक गुर्जर प्रतिहार वंश के पराक्रम की छांव में संघर्ष हुआ, परन्तु पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद दिल्ली में सल्तनत काल प्रारंभ हो गया और जो गुर्जर नाम का छत्र एक तरह से समाप्त हो गया। सन् 1300 तक भारतीय रजवाड़े अपने नये शत्रुओं का सामना करते रहें। परन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने इन भारतीय रजवाड़ों पर घातक हमले किए। उसमें सब कुछ बिखर कर रह गया। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में इन भारतीय रजवाड़ों के राजाओं को मुस्लिम शासकों द्वारा राजपूत नाम से पुकारा। मेवाड़ के सिसोदिया इनके नेता थे।राणा कुम्भा ने कुछ सफलताएं अर्जित की तथा चित्तौड़ में विजय स्तम्भ बनवाया। सन् 1300 से सन् 1562 यानि अकबर के समय तक इन भारतीय राजाओं से किसी भी मुस्लिम शासक ने सम्बन्ध नही बनाया,इनको अपने शासन की केबिनेट में स्थान नही दिया। अकबर एक पहला शासक था जिसने भारतीय खासतौर पर हिंदूओं को शासन में भागेदारी दी। अकबर के साथ संधि में राजपूत राजा दो हिस्सों में बट गये,एक वो राजा थे जिन्होंने अकबर से वैवाहिक संधि नही की, मेवाड़ के सिसोदिया, बूंदी के चौहान और बड गूजर इनमें प्रमुख थे। दूसरे वो राजा थे जिन्होंने अकबर से मनसबदारी प्राप्त करने के लिए वैवाहिक संधि कर ली।इन दूसरे दर्जे के राजाओं के नेता आमेर के कछवाहे तथा जोधपुर के राठौड़ थे।इन दोनों ने भारतीय जनता तथा भारत के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को सर्वाधिक कष्ट पहुचाये।ये अकबर के फरजंद (पुत्र) बने,ये मिर्जा बने अर्थात भाई। इन्होने ही छत्रपति शिवाजी महाराज को मुगलो के दरबार तक पहुचाया।

मुगलों के समर्थक इन राजाओं ने ही जो वर्षों तक मेवाड़ के सामंत रहें थे, ने राणा प्रताप का साथ ना देकर मुगलों का साथ दिया।एक समय ऐसा भी आया कि जब मेवाड़ के महाराणा प्रताप और जोधपुर के राव चंद्र सेन राठौड़ तो अरावली के जंगलों में भटक रहे थे, बाकि सभी रजवाड़ों के राजा अकबर के साथ संधि कर अपने महलों में आनंद ले रहे थे। 

मेवाड़ के साथ मुगलों की सन्धि सन् 1615 में हुई। मेवाड़ के साथ संधि होते ही मुगल शासकों ने भारतीयों को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया।क्योकि अब कोई रोकने वाला भारत में नहीं था। परंतु सन् 1636 में ही आगरा के आसपास भारत के गेर राजपूत किसानों ने जाटों के नेतृत्व में संघर्ष प्रारंभ कर दिया।

दूसरी ओर दक्षिण में छत्रपति शिवाजी ने मुगलों के विरोध में मोर्चा खोल दिया।

मुगलों के विरूद्ध यह संघर्ष गोकुला जाट, राजाराम जाट व राजा सूरजमल के बलिदान दिसम्बर सन् 1763 तथा उसके पश्चात् राजा जवाहर सिंह की मृत्यु सन् 1768 तथा भरतपुर राज्य के राजा नवल सिंह (1771-76ई’) के समय मुगल साम्राज्य और भरतपुर राज्य के बीच 15 सितम्बर 1773 को हुए दनकौर युद्ध में भरतपुर राजा नवल सिंह के अलीगढ़ (कोल) प्रांत के सूबेदार चंद्र सिंह गुर्जर के दनकौर युद्ध में हुए बलिदान तक चला। गुर्जर प्रतिहार राजाओं की तरह ही जाटों ने 137 वर्षों तक संघर्ष करके मुगलो की राजधानी दिल्ली,आगरा और फतेहपुर सीकरी में से आगरा और फतेहपुर सीकरी को मुगलों से छीन लिया। विदेशी मुगल सत्ता को लाल किले के अंदर तक सिमित कर दिया। दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को स्थापित कर दिया। मराठा पेशवा के समय मुगल बादशाह नाम मात्र के ही शासक थे।

इसके बाद अंग्रेज आ गये, सन् 1857 की प्रसिद्ध क्रांति हुई, लाखों भारतीयों ने बलिदान दिये। 

 इस क्रांति में नाना साहब पेशवा,मेरठ के कोतवाल धन सिंह, चौधरी शाहमल सिंह,राव कदम सिंह, ठाकुर नरपत सिंह,रानी लक्ष्मीबाई,बाबू कुंवर सिंह आदि हजारों लाखों लोग शहीद हो गए। सन् 1857 के बाद भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकलकर रानी विक्टोरिया के हाथ में आ गया।अब आंदलनों के माध्यम से भारत की आज़ादी का संघर्ष प्रारंभ हो गया। स्वामी दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी,संघ के संस्थापक डा हेडगेवार तथा डा अम्बेडकर, सुभाषचन्द्र बोस तथा किसान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विजय सिंह पथिक एवं सरदार पटेल जैसे विचार शील व्यक्तियों के संघर्ष के कारण सन् 1947 में देश आजाद हुआ।

ऐसा विद्वानों का मत है कि इस्लाम और ईसाई शासक जहां 25 वर्ष तक रहै, वहां इनके अलावा कोई दूसरा नहीं बचा। यह हमारे पूर्वजों का पराक्रम और बलिदान ही था जो सैकड़ों वर्षों तक इन दोनो की तलवार के नीचे से भारतीय संस्कृति सकुशल बच गई।

 सन् 730 के समय के मीणा, भील तथा जाट, गुर्जर , राजपूत और मराठा जातियों में गोत्र के रूप में राठोड़, चौहान,तोमर,बड़गुर्जर जैसे तमाम समूह पहले की तरह ही सत्ता और सम्पत्ति पर सन् 1947 में आजादी के समय भी काबिज थे।जाट, गुर्जर और राजपूत जातियों में से कुछ समूह मुस्लिम बन गए थे।

26 जनवरी सन् 1950 को भारत का संविधान बना।भील और मीणा जाति जो सत्ता से बाहर हो गई थी को अनुसूचित जनजाति के रूप मेें आरक्षण देकर सत्ता में भागीदारी दी गई। आजाद भारत के प्रत्येक नागरिक को एक वोट,एक वैल्यू,एक नागरिक के रूप में समान अधिकार दे दिए गए। भारत पुनः एकरूप हुआ।

संदर्भ ग्रंथ

1- मनोज सिंह (यू ट्यूब)- राजस्थान गुर्जर प्रतिहार राजवंश पार्ट 1, 2

https://youtu.be/k2xzChbGlrM

https://youtu.be/RhrPVNf9YR0

2- रमन भारद्वाज (यू ट्यूब)- मेवाड़ रियासत-1।

https://youtu.be/fODUh0JFKX4

3- डां सुशील भाटी- श्रीमद् आदिवराह मिहिरभोज की राजनैतिक एवं सैन्य उपलब्धियां।

4- डा सुशील भाटी- पूर्व मध्यकालीन प्रतिहार वंश की शाखाओ का गुर्जर सम्बन्ध




















गुरुवार, 9 जुलाई 2020

राणा प्रताप के अग्रगामी मारवाड़ का योद्धा राव चंद्र सेन राठौड़-लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

राणा प्रताप का अकबर के साथ संघर्ष भारतीयों के मानस पटल पर एक स्वर्णिम यादगार के रूप में अंकित है, परन्तु राणा प्रताप से भी पहले से संघर्ष कर रहे राव चंद्र सेन राठौड़ के संघर्ष को वो पहचान नही मिल सकी,जो उसे मिलनी चाहिए थी।इस लेखन का उद्देश्य राव चंद्र सेन राठौड़ के संघर्ष को आम जनमानस तक पहुंचाना  है। -
सन् 730 से विदेशी अरब आक्रमणकारियों का प्रतिकार कर रहे गुर्जर प्रतिहार राजाओं का सन् 1018 में महमूद गजनवी के आक्रमणों के कारण पतन हो गया तथा उत्तरी भारत में एक केंद्रीय सत्ता का ढांचा समाप्त हो गया। स्थानीय सामंत अपना रूतबा और क्षेत्र बढाने के लिए आपस में ही लडने लगे थे, वर्तमान राजस्थान में सबसे अधिक शक्तिशाली मेवाड़ के गहलोत तथा अजमेर के चौहान राज्य थे,इस अस्थिरता की घडी में अजमेर के चौहानों ने भारतीय अस्मिता को बचाने के लिए जहां एक बडा संघर्ष किया,वही पर वर्तमान राजस्थान के बाहर से भी दो नये समूह इस क्षेत्र में स्थापित हुए,जो कछवाह और राठोड़ नाम से जाने गए। 
सन् 1094-1184 के मध्य में वर्तमान मध्य प्रदेश के नरवर के सोढा देव जो प्रसिद्ध राजा नल की 21वी पीढ़ी के थे के पुत्र तेजकरण उर्फ दूल्हे राय का विवाह दौसा के चौहान राजा की पुत्री सुजान कंवर के साथ हो गया था। चौहान राजा ने दूल्हे राय की मदद से बडगूजरो को दौसा से हटा दिया।
इस समय चौहान  एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित थे, मेवाड़ के गहलोत और दिल्ली के तोमर इनके सहायक थे। परन्तु सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान की मोहम्मद गोरी से पराजय के पश्चात इस क्षेत्र में मुस्लिम शक्ति का भी दखल हो गया।
दौसा से आगे आमेर जो वर्तमान में जयपुर जिले की एक तहसील है के आसपास मीणाओ का राज्य था। दूल्हे राय कछवाहे ने गैटोर,अलणासी और जमुआराम गढ़ को मीणाओ से छीन लिया तथा दूल्हे राय के पुत्र कोकिल देव ने सन् 1207 में आमेर को अपनी राजधानी बनाया।
इसी प्रकार कन्नोज अथवा बदायूं के राव सिहा राठोड़ ने सन् 1240 में वर्तमान के राजस्थान के पाली जिले में अपने आपको स्थापित कर लिया।जिला पाली के बींठू गांव में एक राव सिहा का एक शिलालेख मिला है जिसमें राव सिहा राठोड़ का कार्यकाल सन् 1240-73 अंकित है।राठोडो ने सन् 1273-91 के समय में गुजरात के ईडर नामक स्थान को भील राजाओं से छीन कर अपने अधिकार में ले लिया।
सन् 1241 में नाडोल के देवा सिंह चौहान ने बूंदी मीणा के द्वारा बसाया  गया बूंदी शहर को तत्तकालीन बूंदी के शासक जैता मीणा से छीन कर अपने शासन की स्थापना कर दी। सन् 1274 में बूंदी के तत्तकालीन शासक जेत्र सिंह चौहान ने कोटा नगर के शासक कोटिल्या भील से कोटा को छीन कर अपने बूंदी राज्य में मिला लिया।
सन् 1298-1301 तक दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ के गहलोत रावल रतन सिंह तथा रणथंभौर के चौहान शासक हम्मीर देव को पराजित कर दोनों किलों को छीन लिया।जिस कारण इस क्षेत्र में गहलोत व चौहान शासकों की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। परन्तु गहलोत(सिसोदिया) व चौहान इस क्षेत्र में फिर भी सबसे अधिक शक्तिशाली शासक बने रहे। लेकिन मेवाड़ के गहलोत शासक राणा लाखा ने बूंदी के चौहानों को अपने अधीन कर लिया, इस प्रकार राणा लाखा के समय में मेवाड़ के गहलोत शासकों के नेतृत्व में वर्तमान राजस्थान के सभी शासक आ गए।
शासन विस्तार के इस संघर्ष में भाटी, चौहान व सांकला शासकों से राठोडो की शत्रुता हो गई।इस संघर्ष में 15 मार्च सन् 1423 को राव चूडा राठौड़ मारे गए। राव चूडा राठौड़ के बेटे रणमल राठौड़ जो अपने पिता से नाराज़ होकर मेवाड़ में रह रहे थे, ने मेवाड़ के राणा लाखा से अपनी बहन की शादी करके वैवाहिक संबंध जोड़ लिए तथा अपने पिता की मृत्यु के बाद  मेवाड़ की सेना का सहयोग लेकर मारवाड़ का शासक बन गया।राणा लाखा की सन् 1421 में मृत्यु के बाद उनका छोटा बेटा राणा मोकल जो रणमल राठौड़ की बहन का बेटा था मेवाड़ का राणा बना,रणमल राठौड़ ने अपनी बहन की शादी राणा लाखा से करने के पहले ही राणा लाखा और उसके बड़े पुत्र चूड़ा से यह वचन ले लिया था कि मेवाड़ का शासक उसकी बहन का बेटा ही होगा, इसलिए राणा मोकल राजा बने तथा चूड़ा मल राज्य के संरक्षक बने।रणमल राठौड़ मेवाड़ पर भी अधिकार करना चाहता था। इसलिए उसने अपनी बहन को भड़काकर चूडामल को मेवाड़ से बाहर निकलवा दिया तथा स्वयं मेवाड़ का संरक्षक बन कर राज्य के मुख्य पदो पर सिसोदिया सरदारों को हटाकर राठोड़ नियुक्त कर दिए।इस पर चूडामल के दूसरे भाई ने विरोध किया तो रणमल राठौड़ ने उसकी हत्या करवा दी,इस घटना की प्रतिक्रिया में रणमल राठौड़ की भी हत्या कर दी गई।आगे चलकर राणा मोकल की भी हत्या सन 1433 में उनके भाई जिनके नाम चाचा और मेरा थे, ने कर दी।
गुर्जर प्रतिहार शासको ने भील,मीणा, चौहान, गहलोत,भाटी, पंवार , सोलंकी शासको के बीच सामाजिक संतुलन बनाकर अरब हमलावरों का सफलतापूर्वक सामना किया था वह छिन्न भिन्न हो चुका था, पहले भील और मीणा शासकों से उनके राज्य छीन लिए गए तथा अब सत्ता के लिए परिवार में ही गृह युद्ध प्रारंभ हो चुके थे,भाई को भाई मार रहा था, चारों ओर महाभारत शुरू हो चुका था, विकास की कोई योजना नहीं बन रही थी,योजना सिर्फ षड्यंत्र रच कर एक दूसरे की सत्ता हड़पने की बन रही थी,जो विदेशी तुर्क शासक थे वो भारतीय किसानों को अपने शासन क्षेत्र में जी भरकर लूट रहे थे।इस समय देश की परिभाषा शासक का अपना क्षेत्र था तथा सिपाही की देश भक्ति भी अपने शासक तक ही सीमित थी।
उन विषम परिस्थितियों में राणा मोकल के पुत्र राणा कुम्भा ने मेवाड़ राज्य की बागडोर संभाली। उन्होंने मेवाड़ महाराज्य की स्थापना की।कुंभलगढ़ जैसा विशाल दुर्ग बनवाया।
इस समय मारवाड़ के राठोड़ राजा राव जोधा थे,राव जोधा ने सन् 1459 में जोधपुर नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया।
 परन्तु राणा कुम्भा का बडा पुत्र जिसका नाम उदय सिंह प्रथम था,जल्द ही शासक बनना चाहता था अत सन् 1468 में राणा कुम्भा की उदय सिंह ने हत्या कर दी। मेवाड़ के सरदारों ने उदय सिंह को शासक स्वीकार नहीं किया,राणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल मेवाड़ के राणा बने।
उधर राव जोधा के पुत्र बीका ने सन् 1465 में अपने अलग राज्य की स्थापना की तथा राती घाटी नामक स्थान पर अपने एक जाट मित्र जिसका नाम नरा था,के सहयोग से सन् 1488 में बीकानेर नामक नगर बसा कर अपनी राजधानी बनायी।
दूसरी ओर मेवाड़ के राणा रायमल के पुत्रों में आगे चलकर फिर गृह युद्ध की स्थिति बन गई,राणा रायमल के बडे पुत्र पृथ्वीराज राणा ने अपने चौथे नम्बर के भाई राणा सांगा पर हमला कर उसकी एक आंख फोड़ दी,जिस कारण राणा सांगा अजमेर चले गए। लेकिन कुछ समय बाद ही राणा पृथ्वीराज तथा दूसरे भाई जो राणा सांगा को मारना चाहते थे,गृह कलह में ही मर गये,अब राणा रायमल ने राणा सांगा को युवराज घोषित कर दिया।राणा सांगा मेवाड़ के सन् 1509 में शासक बन गए।राणा सांगा ने अपनी वीरता तथा दयालुता से सभी स्थानीय राजाओं को अपना सहयोगी बना लिया,राणा सांगा ने अपने आसपास की सभी मुस्लिम शक्तियों को परास्त कर दिया,ऐसा लगने लगा कि भारत पुनः पृथ्वीराज चौहान के समय के गौरव को प्राप्त कर लेगा।उन परिस्थितियों में मुस्लिम शासन के हितेषी कुछ मुस्लिम अमीरों ने बाबर को भारत आने का निमंत्रण दिया। सन् 1527 में राणा सांगा और बाबर के मध्य खानवा का प्रसिद्ध युद्ध हुआ।इस युद्ध में ना बाबर हारा ना राणा सांगा। परन्तु सन् 1528 में राणा सांगा की मृत्यु हो गई। मेवाड़ में पुनः सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो गया।राणा सांगा के बाद राणा बने राणा रतन सिंह को राणा सांगा की  रानी कर्मावती के भाई ने मार डाला तथा इस संघर्ष में वह खुद भी मर गया। दूसरे राणा विक्रम सिंह को बनवीर ने मार डाला तथा उदय सिंह को बडी मुश्किल से पन्ना धाय ने बचाया।इस समय जोधपुर के शासक मालदेव राठोड़ थे जो सन् 1531 में शासक बने थे।इन मालदेव राठोड़ की सहायता से उदय सिंह ने बनवीर को मेवाड़ से भगा दिया तथा मेवाड़ के राणा बन गए।राव मालदेव राठोड़ ने बीकानेर पर हमला कर अपने राज्य में मिला लिया, बीकानेर का राजकुमार राव कल्याणमल राठोड़ शेरशाह सूरी के पास मदद के लिए पहुंचा। शेरशाह सूरी ने अपनी सेना के द्वारा बीकानेर को राव मालदेव से मुक्त कराकर कल्याण मल को बीकानेर का पुनः शासक बना दिया।
इन मालदेव राठोड़ के पुत्र ही राव चंद्र सेन राठौड़ थे,जो 30 जुलाई सन् 1541 में पैदा हुए थे।राव मालदेव राठोड़ के दो पुत्र राम सिंह राठौड़ और उदय सिंह राठौड़ भी थे,राव मालदेव राठोड़ ने राव चंद्र सेन राठौड़ को युवराज घोषित कर दिया था।इस निर्णय से नाराज़ हो कर राम सिंह राठौड़ मेवाड़ चले गए,जहा मेवाड़ के राणा उदय सिंह ने उन्हें केलवा की जागीर दे दी।राव मालदेव राठोड़ ने अपने दूसरे बेटे उदय सिंह राठौड़ को फलोदी (जोधपुर) की जागीर दे दी। सन् 1562 में राव मालदेव राठोड़ की मृत्यु हो गई।राव चंद्र सेन राठौड़ शासक बन गए।इस क्षेत्र की राजनीति में सन् 1562 में एक महत्वपूर्ण घटना और घटी।इस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का अधिकार था।अकबर अपने राज्य विस्तार के लिए भारतीय राजाओं से सन्धि करने का अवसर तलाश रहा था।जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि वर्तमान राजस्थान में दो वंश शक्तिशाली थे एक अजमेर के चौहान, दूसरे मेवाड़ के गहलोत। पृथ्वीराज चौहान के बाद मेवाड़ के गहलोत ही प्रभावशाली थे, राठौड़ प्रारंभ से ही मेवाड़ के सानिध्य में थे तथा आमेर के कछवाहे चौहानों के सानिध्य में थे।
इस समय चौहान कमजोर थे तथा आमेर में भी सत्ता संघर्ष के कारण गृह युद्ध की स्थिति बन गई थी। आमेर के शासक रतन सिंह की उसके छोटे भाई आसकरण ने हत्या कर दी, परन्तु आसकरण के परिवार के भारमल ने भाई के हत्यारे आसकरण को हटा कर आमेर की सत्ता पर कब्जा कर लिया।इस पर आसकरण शेरशाह सूरी के पुत्र सलीम शाह सूरी के पास मदद के लिए पहुचा। सलीम शाह ने अपनी सेना आमेर के विरोध में आसकरण के साथ भेज दी। लेकिन भारमल ने बिना युद्ध किये ही सलीम शाह को धन देकर संधि कर ली,तथा आसकरण को नरवर की जागीर दे कर संतुष्ट कर दिया। लेकिन कुछ समय पश्चात ही भारमल के परिवार का एक और भाई मालवा के मुगल सूबेदार के पास मदद के लिए जा पहुंचा।भारमल ने धन देकर संधि का प्रयास किया।आमेर के कछवाह जो बहुत छोटे से राज्य के स्वामी थे। अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे थे। आमेर के राजा भारमल के बेटे को मेवात (अलवर+भरतपुर) के मुगल जागीरदार मिर्जा सरफुद्दीन ने जमानत के तौर पर बंदी बना लिया था। उन परिस्थितियों में राजा भारमल की मुलाकात नारनौल के मुगल जागीरदार मजनू खान ने अकबर से करवा दी।इस मुलाकात के पश्चात अकबर ने भारमल के पुत्र को मुक्त करा दिया।अपने राज्य की सुरक्षा के लिए राजा भारमल ने अपनी पुत्री का विवाह जनवरी सन् 1562 में अकबर से कर दिया तथा मुगल सत्ता से वैवाहिक संधि कर ली।
राव चंद्र सेन राठौड़ के दोनों भाई जोधपुर की सत्ता छीनना चाहते थे अतः दोनों ने राव चंद्र सेन राठौड़ पर हमला कर दिया।जिस कारण लोहावट का युद्ध हुआ,राव चंद्र सेन राठौड़ ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की।अब राव चंद्र सेन राठौड़ के भाई राम सिंह राठौड़ अकबर के पास मदद के लिए पहुंचे।अकबर तो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में था, उसने अपने सेनानायक हुसैन कुली खां के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना सन् 1564 में भेजी।राव चंद्र सेन राठौड़ इस सेना का मुकाबला ज्यादा समय तक नही कर सके तथा जोधपुर से निकल कर भद्राजून (जालोर) में चले गए। वर्तमान राजस्थान के इस क्षेत्र पर नियंत्रण करने के लिए मेवाड़ शासको पर नियंत्रण आवश्यक था, अतः अकबर ने सन 1567 में चित्तोड पर हमला कर दिया। लम्बे संघर्ष के बाद अकबर का चित्तोड पर अधिकार हो गया,जयमल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया दुर्ग की रक्षा करते हुए बलिदान हो गये,अकबर ने भारतीयों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जयमल और फत्ता की प्रतिमा आगरा में लगवा दी।जिससे यह संदेश चला जाय कि अकबर वीरो का सम्मान करता है चाहे वो किसी भी पक्ष के हो। आमेर के राजा भारमल से सलाह मशविरा कर अकबर ने सन् 1570 में नागोर में एक दरबार का आयोजन किया, उसमें वर्तमान के सभी राजाओं को आने का निमंत्रण दिया गया,इस समय क्षेत्र में सूखा पड रहा था, अतः जनता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अकबर ने शुक्रताल नामक एक तालाब का निर्माण करवाया।इस दरबार में मेवाड़ को छोड़कर करीब करीब सभी क्षेत्रीय शासक पहुंचे।राव चंद्र सेन राठौड़ और उनके दोनों भाई भी इस दरबार में पहुंचे। बीकानेर के राव कल्याणमल राठोड़, जैसलमेर के हरिराय भाटी, बूंदी के सुरजन हांडा आदि से अकबर की संधि हो गई, परन्तु राव चंद्र सेन राठौड़ अकबर की निती से नाखुश हो कर, दरबार के बीच से ही उठकर चले आए।
इस दरबार के परिणाम स्वरूप ज्यादातर शासक अकबर की अधिनता में आ गए। मेवाड़ के उदय सिंह,राव चंद्र सेन राठौड़ और समवाली (बाड़मेर) के गुर्जर ही मुगल बादशाह के विरूद्ध थे।
अकबर ने एक शक्तिशाली सेना भेजकर राव चंद्र सेन राठौड़ पर हमला किया,अब चंद्र सेन राठौड़ को भद्राजून को छोड़कर सीवाणा (बाड़मेर) में जाना पडा। मुगल सेना ने सोजत पर हमला कर राव चंद्र सेन राठौड़ के सहयोगी कल्ला राठौड़ को अपने अधीन कर लिया।
अकबर ने राव चंद्र सेन राठौड़ के भाई उदय सिंह राठौड़ को सेना देकर समवाली के गुर्जरों पर हमला करने के लिए भेजा।उदय सिंह राठौड़ ने समवाली को अपने अधीन कर लिया।राव चंद्र सेन राठौड़ के दूसरे भाई राम सिंह राठौड़ को शाही सेना देकर मिर्जा बंधुओं के दमन के लिए भेज दिया।
28 फरवरी सन् 1572 को राणा प्रताप मेवाड़ के शासक बने।अकबर ने राणा प्रताप को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए सितंबर सन् 1572 में जलाल खां को,  सन् 1573 में पहले मान सिंह कछवाहे को तथा उसके बाद मान सिंह कछवाहे के पिता भगवान दास कछवाहे को भेजा, दिसंबर सन् 1573 में राजा टोडरमल को भेजा। परंतु महाराणा प्रताप ने अधीनता स्वीकार करने के लिए मना कर दिया।राणा प्रताप ने राव चंद्र सेन राठौड़ की राह पकड़ी। इसलिए राव चंद्र सेन राठौड़ को राणा प्रताप का अग्रगामी भी कहा जाता है।
18 जून सन् 1576 को महाराणा प्रताप और अकबर की मुगल सेना के बीच एक प्रसिद्ध युद्ध हुआ, जिसे समकालीन इतिहास कार गोगुंदा का युद्ध तथा कर्नल टॉड ने हल्दी घाटी का युद्ध कहा है।इस युद्ध में मुगल सेना ने उदयपुर पर तो अधिकार कर लिया परन्तु महाराणा प्रताप ने मुगल सेना को गोगुंदा की पहाड़ियों में घेरकर भारी क्षति पहुंचाई।अब राणा प्रताप कुम्भल गढ़ के दुर्ग से संघर्ष कर रहे थे।13 अक्टुबर सन् 1576 को अकबर ने फिर महाराणा प्रताप पर हमला किया। परन्तु महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध से अकबर की सेना को भारी क्षति पहुंचाई।अब अकबर ने अपने एक सेनानायक शाहबाज खान के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी।3 अप्रेल सन् 1578 को शाहबाज खान ने राणा प्रताप से कुंभलगढ़ का किला छीन लिया।राणा प्रताप जंगलो में चले गए।
यह वह समय था जब वर्तमान राजस्थान के दो वीर राव चंद्र सेन राठौड़ और राणा प्रताप अरावली के जंगलों में रहकर मुगल सेना से संघर्ष कर रहे थे।
आखिर ऐसा क्या था जो इन दोनों को अकबर की अधीनता स्वीकार करने में बाधा बना हुआ था, उसे जानने के लिए हम पाठको को अकबर के शासन की व्यवस्था की ओर लिए चलते हैं-
सन् 1192 मैं दिल्ली मे मोहम्मद गोरी के द्वारा विदेशी सत्ता स्थापित हो गई थी। सन् 1192 से पहले भारतीय राजाओं द्वारा किसानों से लगान के रूप में फसल का छठा हिस्सा यानि 16%भाग लिया जाता था। यदि कोई किसान इस लगान को नहीं दे पाता था तो राजा उस किसान की समस्या सुनता था, उसे दूर करने की कोशिश करता था। यदि भारतीय राजाओं मे आपस में युद्ध हो जाता था तो उनकी सेनाएं शत्रु पक्ष के किसानों की फसल को क्षति नहीं पहुचाती थी।
परंतु विदेशी हमलावरों ने इन बातों का ध्यान नहीं रखा।उनका उद्देश्य भारतीय जनता से अधिक से अधिक धन प्राप्त कर अपनी सत्ता को बनाए रखना था।इन विदेशी शासकों ने अपनी सत्ता के क्षेत्रों से भारतीय किसानों पर उनकी फसल का आधे से अधिक यानि 50-60% लगान लगा दिया। विदेशी शासकों के सिपाही इस लगान को बडी कठोरता से वसूल करते थे।वो किसानों की कोई समस्या नहीं सुनते थे। लगान न दे पाने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा देते थे,उनकी महिलाओं को अपमानित करते थे तथा उनके बच्चों को जिंदा आग में फेंक देते थे।यह क्रम सन् 1192से लेकर सन् 1570 तक। मोहम्मद गोरी से लेकर अकबर के शासन काल तक एक तरफा चलता रहा। भारतीय भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार इन विदेशी शासकों से अपने स्थानिय राजाओं के नेतृत्व में संघर्ष करते रहे।
परंतु अकबर ने कुछ भारतीय राजाओं से संधि कर उन्हें अपना मनसबदार बना लिया तथा अपने शासन मे सैनिक व असैनिक नोकरी पर रख कर भारतीय किसानों से की जा रही लूट में हिस्सेदार बना लिया।अकबर ने अपने चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा लिया था,जो यह दिखाता था कि अकबर भारतीयों को बराबर का अधिकार देता है,उसकी सेना में बड़े-बड़े मनसबदार भारतीय थे, उसके नवरत्नों में चार हिन्दू थे,अकबर के शासनकाल में किसानों से फसल का आधा यानि 50%लगान लिया जाता था।  अकबर को अकबर महान कहा जाता है परंतु अकबर के समय जनता कितने कष्टों मे थी इसका वर्णन उस समय के रामचरितमानस के रचियता तुलसी दास जी ने अपने एक छंद में इस प्रकार किया है-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली।
बनिक को न बनिज,न चाकर को चाकरी।।
जिविका विहीन लोग,सीधमान सोच बस।
कहे एक एकन सो,कहां जाय का करी।।
दूसरी ओर मुगल दरबार में दरबारे आम और दरबारे खास के समय कोई भी शासक या जागीर दार बैठ नही सकता था, बूढ़े जागीर दारो के लिए रस्सी लटकी हुई रहती थी,जो उसे पकड़ सकते थे। बादशाह के सामने बात रखने के लिए नंगे पैर जाना होता था।इस व्यवस्था को देखकर ही तो शिवाजी महाराज भड़क गए थे।यह अपमान जनक स्थिति स्वाभिमानी राणा प्रताप और राव चंद्र सेन राठौड़ दोनों को ही अधीनता स्वीकार करने से रोक रही थी।जनता का शोषण और अपना खुद का सम्मान दोनों ही दांव पर थे।
अतः  राव चंद्र सेन राठौड़ के द्वारा  छापामार प्रणाली से सारण के जंगलों में जो पाली जिले के अंतर्गत आते हैं में रह कर  आयु के अन्तिम समय तक संघर्ष किया गया। अपनी जनता के हित व अपने सम्मान के लिए अंत समय तक अकबर से लडते हुए 11 जून सन् 1581 को राव चंद्र सेन राठौड़ इस नश्वर संसार को छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। राव चंद्र सेन राठौड़ के संघर्ष को शत-शत नमन।
समाप्त
संदर्भ ग्रंथ
श्री रमन भारद्वाज(यू ट्यूब)- History of Rao jodha,Jaipur Riyasat Part-3,Marwad Riyasat part-10, बीकानेर रियासत-1, मेवाड़ रियासत-5,6,12।



बुधवार, 1 जुलाई 2020

धन सिंह कोतवाल और पांचली का बलिदान (4 जुलाई सन् 1857) - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

  10 मई 1857 को ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के शोषण के विरूद्ध भारतीयों ने जो संघर्ष प्रारंभ किया, उसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया है।इस संघर्ष का प्रारम्भ मेरठ से हुआ। 

बागपत रोड पर  पाचली खुर्द नामक गांव है, तत्तकालीन समय में इस गांव  के मुखिया सालगराम थे, सालगराम मुखिया के सात बेटे थे, जिनके नाम क्रमशः चैनसुख, नैनसुख, हरिसिंह, धनसिंह, मोहर सिंह, मैरूप सिंह व मेघराज सिंह थे, इनमें धनसिंह सालगराम मुखिया के चौथे पुत्र थे, धन सिंह का जन्म 27 नवम्बर सन् 1814 दिन रविवार (सम्वत् 1871 कार्तिक पूर्णिमा) को प्रात:करीब छ:बजे माता मनभरी के गर्भ से हुआ था। धन सिंह मेरठ की सदर कोतवाली में पुलिस में थे।क्रांति की तैयारी चल रही थी, गांव गांव रोटी और कमल का फूल लेकर प्रचार किया जा रहा था, नाना साहब पेशवा के प्रचारक साधुओं के भेष में भारतीय सेना व पुलिस के सिपाहियो, तथा जिन जागीरदार तथा रियासत के राजाओं से अंग्रेजों ने जागीर छीन ली थी, से सम्पर्क कर रहे थे। इन सब प्रयासों के कारण क्रांति की तिथि 31 मई निश्चित की गई थी, क्योंकि धनसिंह पुलिस में थे, वो जानते थे कि सब कार्य क्रांतिकारियों की योजना से होने मुश्किल है, अंग्रेजों का खुफिया तंत्र हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा रहेगा, अतः धनसिंह ने अपने गांव के आसपास अपने सजातीय बंधुओं को यह समझा दिया था कि वह हर समय तैयार रहे, ताकि आवश्यकता पडने पर कम से कम समय में जहां जरूरत हो पहुंच सके।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था। मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो पैदल रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। उन्हें भारतीय सिपाहियों से मेरठ में कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा था। 10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया।तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। धनसिंह कोतवाल ने योजना के अनुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वही रहने का आदेश दिया। आदेश का पालन करते हुए अंग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी क्रांतिकारी घटनाओं के दौरान कोतवाली में ही बैठे रहे। दूसरी तरफ धनसिंह कोतवाल ने क्रांतिकारी योजनाओं से सहमत सिपाहियों को क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी, मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।

परंतु 10 मई की क्रांति की घटनाओं के बाद से अंग्रेजों की गतिविधियों व भारतीयों की गतिविधियों में एक बड़ा अंतर रहा, जहां अंग्रेजों की गतिविधि अत्यधिक तेज थी वहीं भारतीयों की गतिविधियां मन्द गति से चल रही थी। उसका सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक संचार प्रणाली का होना था। सन् 1853 में ही भारत में इलेक्ट्रॉनिक टेलिग्राफ का प्रवेश हो गया था। सन् 1857 तक अंग्रेजों ने भारत के सभी महत्वपूर्ण नगरों को टेलिग्राफ के द्वारा जोड़ दिया था।
 मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे। इस फोर्स को लेकर सबसे पहले क्रांतिकारियों के गढ़ धनसिंह कोतवाल के गांव पांचली, नगला, घाट गांव पर कार्रवाई करने की योजना बनी।
धनसिंह कोतवाल पुलिस में थे, अतः उनके पास भी अपना सूचना तंत्र था, धनसिंह को इस हमले की भनक लग गई।  तीन जुलाई की शाम को ही वह अपने गांव पहुंच गए। धनसिंह ने पांचली, नंगला व घाट के लोगों को हमले के बारे में बताया और तुरंत गांव से पलायन की सलाह दी। तीनों गांव के लोगों ने अपने परिवार की महिलाएं, बच्चों, वृद्धों को अपनी बैलगाड़ियो में बैठाकर रिश्तेदारों के यहाँ को रुखसत कर दिया। धनसिंह जब अपनी हबेली से बाहर निकले तो उन्होंने गांव की चौपाल पर अपने भाई बंधुओं को हथियारबंद बैठे देखा, ये वही लोग थे जो धनसिंह के बुलावे पर दस मई को मेरठ पहुंचे थे। धनसिंह ने उनसे वहां रूकने व एकत्र होने का कारण पूछा। जिस पर उन्होंने जबाब दिया कि हम अपने जिंदा रहते अपने गांव से नहीं जायेंगे, जो गांव से जाने थे वो जा चुके हैं। आप भी चले जाओ। धन सिंह परिस्थिती को समझ गए कि उनके भाई बंधु साका के मूड में आ गए हैं। जो लोग उनके बुलावे पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ने मेरठ पहुंच गए थे, उन्हें आज मौत के मुंह में छोड़कर कैसे जाएं। धनसिंह ने अपना निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने गाँव के क्रांतिकारियों को हमले का मुकाबला करने के लिए जितना हो सकता था मोर्चाबंद कर लिया।
चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने गांव पर हमला कर दिया। अँग्रेज अफसर ने जब गाँव में मुकाबले की तैयारी देखी तो वह हतप्रभ रह गया। वह इस लड़ाई को लम्बी नहीं खींचना चाहता था, क्योंकि लोगों के मन से अंग्रेजी शासन का भय निकल गया था, कहीं से भी रेवेन्यू नहीं मिल रहा था और उसका सबसे बड़ा कारण था धनसिंह कोतवाल व उसका गांव पांचली। अतः पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 46 कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को फांसी दे दी गई। मृतकों की किसी ने शिनाख्त नहीं की। इस हमले के बाद धनसिंह कोतवाल की कहीं कोई गतिविधि नहीं मिली, सम्भवतः धनसिंह कोतवाल भी इसी गोलीबारी में अपने भाई बंधुओं के साथ शहीद हो गए। उनकी शहादत को शत् -शत् नमन।

संदर्भ ग्रन्थ

1- 1857 की जनक्रांति के जनक धनसिंह कोतवाल -डॉ सुशील भाटी।

2- 1857 के क्रांतिनायक शहीद धनसिंह कोतवाल का सामान्य जीवन परिचय -तस्वीर सिंह चपराणा(स्मारिका अमर शहीद धन सिंह कोतवाल ,3 जुलाई सन् 1918 मेरठ सदर थाना)

3- UTTAR PRADESH DISTRICT GAJETTEERS MEERUT -shrimati Esha Basanti JoshI

4- क्षेत्र में प्रचलित किवदंतियां।

5- दैनिक जागरण मेरठ 8 मई 2007 -वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई, धन सिंह गुर्जर: क्रांति के कर्मठ सिपाही।