सन् 730 से विदेशी अरब आक्रमणकारियों का प्रतिकार कर रहे गुर्जर प्रतिहार राजाओं का सन् 1018 में महमूद गजनवी के आक्रमणों के कारण पतन हो गया तथा उत्तरी भारत में एक केंद्रीय सत्ता का ढांचा समाप्त हो गया। स्थानीय सामंत अपना रूतबा और क्षेत्र बढाने के लिए आपस में ही लडने लगे थे, वर्तमान राजस्थान में सबसे अधिक शक्तिशाली मेवाड़ के गहलोत तथा अजमेर के चौहान राज्य थे,इस अस्थिरता की घडी में अजमेर के चौहानों ने भारतीय अस्मिता को बचाने के लिए जहां एक बडा संघर्ष किया,वही पर वर्तमान राजस्थान के बाहर से भी दो नये समूह इस क्षेत्र में स्थापित हुए,जो कछवाह और राठोड़ नाम से जाने गए।
सन् 1094-1184 के मध्य में वर्तमान मध्य प्रदेश के नरवर के सोढा देव जो प्रसिद्ध राजा नल की 21वी पीढ़ी के थे के पुत्र तेजकरण उर्फ दूल्हे राय का विवाह दौसा के चौहान राजा की पुत्री सुजान कंवर के साथ हो गया था। चौहान राजा ने दूल्हे राय की मदद से बडगूजरो को दौसा से हटा दिया।
इस समय चौहान एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित थे, मेवाड़ के गहलोत और दिल्ली के तोमर इनके सहायक थे। परन्तु सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान की मोहम्मद गोरी से पराजय के पश्चात इस क्षेत्र में मुस्लिम शक्ति का भी दखल हो गया।
दौसा से आगे आमेर जो वर्तमान में जयपुर जिले की एक तहसील है के आसपास मीणाओ का राज्य था। दूल्हे राय कछवाहे ने गैटोर,अलणासी और जमुआराम गढ़ को मीणाओ से छीन लिया तथा दूल्हे राय के पुत्र कोकिल देव ने सन् 1207 में आमेर को अपनी राजधानी बनाया।
इसी प्रकार कन्नोज अथवा बदायूं के राव सिहा राठोड़ ने सन् 1240 में वर्तमान के राजस्थान के पाली जिले में अपने आपको स्थापित कर लिया।जिला पाली के बींठू गांव में एक राव सिहा का एक शिलालेख मिला है जिसमें राव सिहा राठोड़ का कार्यकाल सन् 1240-73 अंकित है।राठोडो ने सन् 1273-91 के समय में गुजरात के ईडर नामक स्थान को भील राजाओं से छीन कर अपने अधिकार में ले लिया।
सन् 1241 में नाडोल के देवा सिंह चौहान ने बूंदी मीणा के द्वारा बसाया गया बूंदी शहर को तत्तकालीन बूंदी के शासक जैता मीणा से छीन कर अपने शासन की स्थापना कर दी। सन् 1274 में बूंदी के तत्तकालीन शासक जेत्र सिंह चौहान ने कोटा नगर के शासक कोटिल्या भील से कोटा को छीन कर अपने बूंदी राज्य में मिला लिया।
सन् 1298-1301 तक दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ के गहलोत रावल रतन सिंह तथा रणथंभौर के चौहान शासक हम्मीर देव को पराजित कर दोनों किलों को छीन लिया।जिस कारण इस क्षेत्र में गहलोत व चौहान शासकों की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। परन्तु गहलोत(सिसोदिया) व चौहान इस क्षेत्र में फिर भी सबसे अधिक शक्तिशाली शासक बने रहे। लेकिन मेवाड़ के गहलोत शासक राणा लाखा ने बूंदी के चौहानों को अपने अधीन कर लिया, इस प्रकार राणा लाखा के समय में मेवाड़ के गहलोत शासकों के नेतृत्व में वर्तमान राजस्थान के सभी शासक आ गए।
शासन विस्तार के इस संघर्ष में भाटी, चौहान व सांकला शासकों से राठोडो की शत्रुता हो गई।इस संघर्ष में 15 मार्च सन् 1423 को राव चूडा राठौड़ मारे गए। राव चूडा राठौड़ के बेटे रणमल राठौड़ जो अपने पिता से नाराज़ होकर मेवाड़ में रह रहे थे, ने मेवाड़ के राणा लाखा से अपनी बहन की शादी करके वैवाहिक संबंध जोड़ लिए तथा अपने पिता की मृत्यु के बाद मेवाड़ की सेना का सहयोग लेकर मारवाड़ का शासक बन गया।राणा लाखा की सन् 1421 में मृत्यु के बाद उनका छोटा बेटा राणा मोकल जो रणमल राठौड़ की बहन का बेटा था मेवाड़ का राणा बना,रणमल राठौड़ ने अपनी बहन की शादी राणा लाखा से करने के पहले ही राणा लाखा और उसके बड़े पुत्र चूड़ा से यह वचन ले लिया था कि मेवाड़ का शासक उसकी बहन का बेटा ही होगा, इसलिए राणा मोकल राजा बने तथा चूड़ा मल राज्य के संरक्षक बने।रणमल राठौड़ मेवाड़ पर भी अधिकार करना चाहता था। इसलिए उसने अपनी बहन को भड़काकर चूडामल को मेवाड़ से बाहर निकलवा दिया तथा स्वयं मेवाड़ का संरक्षक बन कर राज्य के मुख्य पदो पर सिसोदिया सरदारों को हटाकर राठोड़ नियुक्त कर दिए।इस पर चूडामल के दूसरे भाई ने विरोध किया तो रणमल राठौड़ ने उसकी हत्या करवा दी,इस घटना की प्रतिक्रिया में रणमल राठौड़ की भी हत्या कर दी गई।आगे चलकर राणा मोकल की भी हत्या सन 1433 में उनके भाई जिनके नाम चाचा और मेरा थे, ने कर दी।
गुर्जर प्रतिहार शासको ने भील,मीणा, चौहान, गहलोत,भाटी, पंवार , सोलंकी शासको के बीच सामाजिक संतुलन बनाकर अरब हमलावरों का सफलतापूर्वक सामना किया था वह छिन्न भिन्न हो चुका था, पहले भील और मीणा शासकों से उनके राज्य छीन लिए गए तथा अब सत्ता के लिए परिवार में ही गृह युद्ध प्रारंभ हो चुके थे,भाई को भाई मार रहा था, चारों ओर महाभारत शुरू हो चुका था, विकास की कोई योजना नहीं बन रही थी,योजना सिर्फ षड्यंत्र रच कर एक दूसरे की सत्ता हड़पने की बन रही थी,जो विदेशी तुर्क शासक थे वो भारतीय किसानों को अपने शासन क्षेत्र में जी भरकर लूट रहे थे।इस समय देश की परिभाषा शासक का अपना क्षेत्र था तथा सिपाही की देश भक्ति भी अपने शासक तक ही सीमित थी।
उन विषम परिस्थितियों में राणा मोकल के पुत्र राणा कुम्भा ने मेवाड़ राज्य की बागडोर संभाली। उन्होंने मेवाड़ महाराज्य की स्थापना की।कुंभलगढ़ जैसा विशाल दुर्ग बनवाया।
इस समय मारवाड़ के राठोड़ राजा राव जोधा थे,राव जोधा ने सन् 1459 में जोधपुर नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया।
परन्तु राणा कुम्भा का बडा पुत्र जिसका नाम उदय सिंह प्रथम था,जल्द ही शासक बनना चाहता था अत सन् 1468 में राणा कुम्भा की उदय सिंह ने हत्या कर दी। मेवाड़ के सरदारों ने उदय सिंह को शासक स्वीकार नहीं किया,राणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल मेवाड़ के राणा बने।
उधर राव जोधा के पुत्र बीका ने सन् 1465 में अपने अलग राज्य की स्थापना की तथा राती घाटी नामक स्थान पर अपने एक जाट मित्र जिसका नाम नरा था,के सहयोग से सन् 1488 में बीकानेर नामक नगर बसा कर अपनी राजधानी बनायी।
दूसरी ओर मेवाड़ के राणा रायमल के पुत्रों में आगे चलकर फिर गृह युद्ध की स्थिति बन गई,राणा रायमल के बडे पुत्र पृथ्वीराज राणा ने अपने चौथे नम्बर के भाई राणा सांगा पर हमला कर उसकी एक आंख फोड़ दी,जिस कारण राणा सांगा अजमेर चले गए। लेकिन कुछ समय बाद ही राणा पृथ्वीराज तथा दूसरे भाई जो राणा सांगा को मारना चाहते थे,गृह कलह में ही मर गये,अब राणा रायमल ने राणा सांगा को युवराज घोषित कर दिया।राणा सांगा मेवाड़ के सन् 1509 में शासक बन गए।राणा सांगा ने अपनी वीरता तथा दयालुता से सभी स्थानीय राजाओं को अपना सहयोगी बना लिया,राणा सांगा ने अपने आसपास की सभी मुस्लिम शक्तियों को परास्त कर दिया,ऐसा लगने लगा कि भारत पुनः पृथ्वीराज चौहान के समय के गौरव को प्राप्त कर लेगा।उन परिस्थितियों में मुस्लिम शासन के हितेषी कुछ मुस्लिम अमीरों ने बाबर को भारत आने का निमंत्रण दिया। सन् 1527 में राणा सांगा और बाबर के मध्य खानवा का प्रसिद्ध युद्ध हुआ।इस युद्ध में ना बाबर हारा ना राणा सांगा। परन्तु सन् 1528 में राणा सांगा की मृत्यु हो गई। मेवाड़ में पुनः सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो गया।राणा सांगा के बाद राणा बने राणा रतन सिंह को राणा सांगा की रानी कर्मावती के भाई ने मार डाला तथा इस संघर्ष में वह खुद भी मर गया। दूसरे राणा विक्रम सिंह को बनवीर ने मार डाला तथा उदय सिंह को बडी मुश्किल से पन्ना धाय ने बचाया।इस समय जोधपुर के शासक मालदेव राठोड़ थे जो सन् 1531 में शासक बने थे।इन मालदेव राठोड़ की सहायता से उदय सिंह ने बनवीर को मेवाड़ से भगा दिया तथा मेवाड़ के राणा बन गए।राव मालदेव राठोड़ ने बीकानेर पर हमला कर अपने राज्य में मिला लिया, बीकानेर का राजकुमार राव कल्याणमल राठोड़ शेरशाह सूरी के पास मदद के लिए पहुंचा। शेरशाह सूरी ने अपनी सेना के द्वारा बीकानेर को राव मालदेव से मुक्त कराकर कल्याण मल को बीकानेर का पुनः शासक बना दिया।
इन मालदेव राठोड़ के पुत्र ही राव चंद्र सेन राठौड़ थे,जो 30 जुलाई सन् 1541 में पैदा हुए थे।राव मालदेव राठोड़ के दो पुत्र राम सिंह राठौड़ और उदय सिंह राठौड़ भी थे,राव मालदेव राठोड़ ने राव चंद्र सेन राठौड़ को युवराज घोषित कर दिया था।इस निर्णय से नाराज़ हो कर राम सिंह राठौड़ मेवाड़ चले गए,जहा मेवाड़ के राणा उदय सिंह ने उन्हें केलवा की जागीर दे दी।राव मालदेव राठोड़ ने अपने दूसरे बेटे उदय सिंह राठौड़ को फलोदी (जोधपुर) की जागीर दे दी। सन् 1562 में राव मालदेव राठोड़ की मृत्यु हो गई।राव चंद्र सेन राठौड़ शासक बन गए।इस क्षेत्र की राजनीति में सन् 1562 में एक महत्वपूर्ण घटना और घटी।इस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का अधिकार था।अकबर अपने राज्य विस्तार के लिए भारतीय राजाओं से सन्धि करने का अवसर तलाश रहा था।जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि वर्तमान राजस्थान में दो वंश शक्तिशाली थे एक अजमेर के चौहान, दूसरे मेवाड़ के गहलोत। पृथ्वीराज चौहान के बाद मेवाड़ के गहलोत ही प्रभावशाली थे, राठौड़ प्रारंभ से ही मेवाड़ के सानिध्य में थे तथा आमेर के कछवाहे चौहानों के सानिध्य में थे।
इस समय चौहान कमजोर थे तथा आमेर में भी सत्ता संघर्ष के कारण गृह युद्ध की स्थिति बन गई थी। आमेर के शासक रतन सिंह की उसके छोटे भाई आसकरण ने हत्या कर दी, परन्तु आसकरण के परिवार के भारमल ने भाई के हत्यारे आसकरण को हटा कर आमेर की सत्ता पर कब्जा कर लिया।इस पर आसकरण शेरशाह सूरी के पुत्र सलीम शाह सूरी के पास मदद के लिए पहुचा। सलीम शाह ने अपनी सेना आमेर के विरोध में आसकरण के साथ भेज दी। लेकिन भारमल ने बिना युद्ध किये ही सलीम शाह को धन देकर संधि कर ली,तथा आसकरण को नरवर की जागीर दे कर संतुष्ट कर दिया। लेकिन कुछ समय पश्चात ही भारमल के परिवार का एक और भाई मालवा के मुगल सूबेदार के पास मदद के लिए जा पहुंचा।भारमल ने धन देकर संधि का प्रयास किया।आमेर के कछवाह जो बहुत छोटे से राज्य के स्वामी थे। अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे थे। आमेर के राजा भारमल के बेटे को मेवात (अलवर+भरतपुर) के मुगल जागीरदार मिर्जा सरफुद्दीन ने जमानत के तौर पर बंदी बना लिया था। उन परिस्थितियों में राजा भारमल की मुलाकात नारनौल के मुगल जागीरदार मजनू खान ने अकबर से करवा दी।इस मुलाकात के पश्चात अकबर ने भारमल के पुत्र को मुक्त करा दिया।अपने राज्य की सुरक्षा के लिए राजा भारमल ने अपनी पुत्री का विवाह जनवरी सन् 1562 में अकबर से कर दिया तथा मुगल सत्ता से वैवाहिक संधि कर ली।
राव चंद्र सेन राठौड़ के दोनों भाई जोधपुर की सत्ता छीनना चाहते थे अतः दोनों ने राव चंद्र सेन राठौड़ पर हमला कर दिया।जिस कारण लोहावट का युद्ध हुआ,राव चंद्र सेन राठौड़ ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की।अब राव चंद्र सेन राठौड़ के भाई राम सिंह राठौड़ अकबर के पास मदद के लिए पहुंचे।अकबर तो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में था, उसने अपने सेनानायक हुसैन कुली खां के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना सन् 1564 में भेजी।राव चंद्र सेन राठौड़ इस सेना का मुकाबला ज्यादा समय तक नही कर सके तथा जोधपुर से निकल कर भद्राजून (जालोर) में चले गए। वर्तमान राजस्थान के इस क्षेत्र पर नियंत्रण करने के लिए मेवाड़ शासको पर नियंत्रण आवश्यक था, अतः अकबर ने सन 1567 में चित्तोड पर हमला कर दिया। लम्बे संघर्ष के बाद अकबर का चित्तोड पर अधिकार हो गया,जयमल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया दुर्ग की रक्षा करते हुए बलिदान हो गये,अकबर ने भारतीयों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जयमल और फत्ता की प्रतिमा आगरा में लगवा दी।जिससे यह संदेश चला जाय कि अकबर वीरो का सम्मान करता है चाहे वो किसी भी पक्ष के हो। आमेर के राजा भारमल से सलाह मशविरा कर अकबर ने सन् 1570 में नागोर में एक दरबार का आयोजन किया, उसमें वर्तमान के सभी राजाओं को आने का निमंत्रण दिया गया,इस समय क्षेत्र में सूखा पड रहा था, अतः जनता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अकबर ने शुक्रताल नामक एक तालाब का निर्माण करवाया।इस दरबार में मेवाड़ को छोड़कर करीब करीब सभी क्षेत्रीय शासक पहुंचे।राव चंद्र सेन राठौड़ और उनके दोनों भाई भी इस दरबार में पहुंचे। बीकानेर के राव कल्याणमल राठोड़, जैसलमेर के हरिराय भाटी, बूंदी के सुरजन हांडा आदि से अकबर की संधि हो गई, परन्तु राव चंद्र सेन राठौड़ अकबर की निती से नाखुश हो कर, दरबार के बीच से ही उठकर चले आए।
इस दरबार के परिणाम स्वरूप ज्यादातर शासक अकबर की अधिनता में आ गए। मेवाड़ के उदय सिंह,राव चंद्र सेन राठौड़ और समवाली (बाड़मेर) के गुर्जर ही मुगल बादशाह के विरूद्ध थे।
अकबर ने एक शक्तिशाली सेना भेजकर राव चंद्र सेन राठौड़ पर हमला किया,अब चंद्र सेन राठौड़ को भद्राजून को छोड़कर सीवाणा (बाड़मेर) में जाना पडा। मुगल सेना ने सोजत पर हमला कर राव चंद्र सेन राठौड़ के सहयोगी कल्ला राठौड़ को अपने अधीन कर लिया।
अकबर ने राव चंद्र सेन राठौड़ के भाई उदय सिंह राठौड़ को सेना देकर समवाली के गुर्जरों पर हमला करने के लिए भेजा।उदय सिंह राठौड़ ने समवाली को अपने अधीन कर लिया।राव चंद्र सेन राठौड़ के दूसरे भाई राम सिंह राठौड़ को शाही सेना देकर मिर्जा बंधुओं के दमन के लिए भेज दिया।
28 फरवरी सन् 1572 को राणा प्रताप मेवाड़ के शासक बने।अकबर ने राणा प्रताप को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए सितंबर सन् 1572 में जलाल खां को, सन् 1573 में पहले मान सिंह कछवाहे को तथा उसके बाद मान सिंह कछवाहे के पिता भगवान दास कछवाहे को भेजा, दिसंबर सन् 1573 में राजा टोडरमल को भेजा। परंतु महाराणा प्रताप ने अधीनता स्वीकार करने के लिए मना कर दिया।राणा प्रताप ने राव चंद्र सेन राठौड़ की राह पकड़ी। इसलिए राव चंद्र सेन राठौड़ को राणा प्रताप का अग्रगामी भी कहा जाता है।
18 जून सन् 1576 को महाराणा प्रताप और अकबर की मुगल सेना के बीच एक प्रसिद्ध युद्ध हुआ, जिसे समकालीन इतिहास कार गोगुंदा का युद्ध तथा कर्नल टॉड ने हल्दी घाटी का युद्ध कहा है।इस युद्ध में मुगल सेना ने उदयपुर पर तो अधिकार कर लिया परन्तु महाराणा प्रताप ने मुगल सेना को गोगुंदा की पहाड़ियों में घेरकर भारी क्षति पहुंचाई।अब राणा प्रताप कुम्भल गढ़ के दुर्ग से संघर्ष कर रहे थे।13 अक्टुबर सन् 1576 को अकबर ने फिर महाराणा प्रताप पर हमला किया। परन्तु महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध से अकबर की सेना को भारी क्षति पहुंचाई।अब अकबर ने अपने एक सेनानायक शाहबाज खान के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी।3 अप्रेल सन् 1578 को शाहबाज खान ने राणा प्रताप से कुंभलगढ़ का किला छीन लिया।राणा प्रताप जंगलो में चले गए।
यह वह समय था जब वर्तमान राजस्थान के दो वीर राव चंद्र सेन राठौड़ और राणा प्रताप अरावली के जंगलों में रहकर मुगल सेना से संघर्ष कर रहे थे।
आखिर ऐसा क्या था जो इन दोनों को अकबर की अधीनता स्वीकार करने में बाधा बना हुआ था, उसे जानने के लिए हम पाठको को अकबर के शासन की व्यवस्था की ओर लिए चलते हैं-
सन् 1192 मैं दिल्ली मे मोहम्मद गोरी के द्वारा विदेशी सत्ता स्थापित हो गई थी। सन् 1192 से पहले भारतीय राजाओं द्वारा किसानों से लगान के रूप में फसल का छठा हिस्सा यानि 16%भाग लिया जाता था। यदि कोई किसान इस लगान को नहीं दे पाता था तो राजा उस किसान की समस्या सुनता था, उसे दूर करने की कोशिश करता था। यदि भारतीय राजाओं मे आपस में युद्ध हो जाता था तो उनकी सेनाएं शत्रु पक्ष के किसानों की फसल को क्षति नहीं पहुचाती थी।
परंतु विदेशी हमलावरों ने इन बातों का ध्यान नहीं रखा।उनका उद्देश्य भारतीय जनता से अधिक से अधिक धन प्राप्त कर अपनी सत्ता को बनाए रखना था।इन विदेशी शासकों ने अपनी सत्ता के क्षेत्रों से भारतीय किसानों पर उनकी फसल का आधे से अधिक यानि 50-60% लगान लगा दिया। विदेशी शासकों के सिपाही इस लगान को बडी कठोरता से वसूल करते थे।वो किसानों की कोई समस्या नहीं सुनते थे। लगान न दे पाने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा देते थे,उनकी महिलाओं को अपमानित करते थे तथा उनके बच्चों को जिंदा आग में फेंक देते थे।यह क्रम सन् 1192से लेकर सन् 1570 तक। मोहम्मद गोरी से लेकर अकबर के शासन काल तक एक तरफा चलता रहा। भारतीय भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार इन विदेशी शासकों से अपने स्थानिय राजाओं के नेतृत्व में संघर्ष करते रहे।
परंतु अकबर ने कुछ भारतीय राजाओं से संधि कर उन्हें अपना मनसबदार बना लिया तथा अपने शासन मे सैनिक व असैनिक नोकरी पर रख कर भारतीय किसानों से की जा रही लूट में हिस्सेदार बना लिया।अकबर ने अपने चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा लिया था,जो यह दिखाता था कि अकबर भारतीयों को बराबर का अधिकार देता है,उसकी सेना में बड़े-बड़े मनसबदार भारतीय थे, उसके नवरत्नों में चार हिन्दू थे,अकबर के शासनकाल में किसानों से फसल का आधा यानि 50%लगान लिया जाता था। अकबर को अकबर महान कहा जाता है परंतु अकबर के समय जनता कितने कष्टों मे थी इसका वर्णन उस समय के रामचरितमानस के रचियता तुलसी दास जी ने अपने एक छंद में इस प्रकार किया है-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली।
बनिक को न बनिज,न चाकर को चाकरी।।
जिविका विहीन लोग,सीधमान सोच बस।
कहे एक एकन सो,कहां जाय का करी।।
दूसरी ओर मुगल दरबार में दरबारे आम और दरबारे खास के समय कोई भी शासक या जागीर दार बैठ नही सकता था, बूढ़े जागीर दारो के लिए रस्सी लटकी हुई रहती थी,जो उसे पकड़ सकते थे। बादशाह के सामने बात रखने के लिए नंगे पैर जाना होता था।इस व्यवस्था को देखकर ही तो शिवाजी महाराज भड़क गए थे।यह अपमान जनक स्थिति स्वाभिमानी राणा प्रताप और राव चंद्र सेन राठौड़ दोनों को ही अधीनता स्वीकार करने से रोक रही थी।जनता का शोषण और अपना खुद का सम्मान दोनों ही दांव पर थे।
अतः राव चंद्र सेन राठौड़ के द्वारा छापामार प्रणाली से सारण के जंगलों में जो पाली जिले के अंतर्गत आते हैं में रह कर आयु के अन्तिम समय तक संघर्ष किया गया। अपनी जनता के हित व अपने सम्मान के लिए अंत समय तक अकबर से लडते हुए 11 जून सन् 1581 को राव चंद्र सेन राठौड़ इस नश्वर संसार को छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। राव चंद्र सेन राठौड़ के संघर्ष को शत-शत नमन।
समाप्त
संदर्भ ग्रंथ
श्री रमन भारद्वाज(यू ट्यूब)- History of Rao jodha,Jaipur Riyasat Part-3,Marwad Riyasat part-10, बीकानेर रियासत-1, मेवाड़ रियासत-5,6,12।
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