सीमा पर खडा सिपाही बिना एक क्षण की देरी करें अपना बलिदान देश की रक्षा के लिए दे देता है।क्योकि उस सिपाही को अपने देश की सरकार व समाज पर यह विश्वास होता है कि उसकी मौत के बाद उसके देशवासी उसके परिवार के हितों का ध्यान रखेंगे। उसके बलिदान की सराहना करेंगे।इसी प्रकार हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उन्हें यह विश्वास था कि आजादी मिलने के बाद देश की आने वाली पीढ़ी उनके त्याग और बलिदान का स्मरण करेंगी। भारत की आज़ादी के आंदोलन में विजय सिंह पथिक एक ऐसे ही आजादी के योद्धा है। भारत में विजय सिंह पथिक, महात्मा गांधी व सरदार पटेल तीनो महापुरुष किसान आंदोलन के द्वारा ही अपने राजनीतिक सफर पर चलें तथा अपने जीवन के अंत तक भारत माता की सेवा करते रहें।देश आजाद होने के बाद महात्मा गांधी जी का चित्र देश के संविधान की जिल्द में लगा है,पूरी दुनिया उन्हें महात्मा, राष्ट्रपिता व बापू के नाम से आदर देती है। सरदार पटेल भारत के लौह पुरुष, भारत रत्न से सम्मानित है, दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के नाम से पटेल जी की प्रतिमा गुजरात में लगी है। परन्तु विजय सिंह पथिक(भूप सिंह गुर्जर) जिन्हें भारत के किसान आंदोलन का जनक तथा अनेक क्रांतिकारी घटनाओं का सूत्रधार माना जाता है। अपने किये गये कार्यों के अनुरूप आजाद भारत में सम्मान व आदर की उस ऊंचाई से दूर दिखाई देते हैं जिसके वो हकदार थे। सन् 1992 में दूरसंचार मंत्री श्री राजेश पायलट जी के द्वारा पथिक जी पर एक रूपए का डाक टिकट जारी किया गया था। यूं तो हमारे यहां एक कहावत है कि मान का तो पान ही काफी है। हमारे इस लेखन का उद्देश्य भी पथिक जी के महान कार्यों को भारत के जनमानस के सम्मुख उचित ढंग से प्रस्तुत करने का एक प्रयास मात्र है -
भारत में किसानों का उत्पीडन विदेशी तुर्की सत्ता की स्थापना के साथ ही प्रारंभ हो गया था। भारतीय राजा अपने किसानों से लगान के रुप में फसल का छठवां हिस्सा यानि 16% लेते थे। यदि किसान किसी कारण वश लगान नही दे पाता था,उस स्थिति में राजा किसान की समस्या को सुनता था, समस्या को दूर करने का प्रयास करता था। परंतु विदेशी शासकों ने जहां लगान को बढाकर फसल का आधा या उससे अधिक यानि 50% कर दिया था, वही लगान को बडी कठोरता से वसूला जाता था। लगान न देने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा दी जाती थी,उनकी महिलाओं को बेइज्जत कर दिया जाता था तथा किसानों के बच्चों को जिंदा आग में फेंक दिया जाता था।इन विदेशी शासकों से भारत के लोगों ने अनवरत संघर्ष किया। सन् 1192 में मोहम्मद गोरी के दिल्ली पर अधिकार हो जाने पर भारत के लोगों को गुलाम होने का अनुभव प्राप्त हुआ तथा मुगल सत्ता के स्थापित हो जाने तक भारतीय इन हमलावरों से संघर्ष करते रहे। परंतु अकबर ने सन् 1570 के आसपास कुछ भारतीयों को अपने साथ सत्ता में साझीदार कर लिया।जिन भारतीयों ने मुगलों के साथ यह सत्ता समझोता किया उन्हें मुगल+राजपूत समझोता भी कहा गया।अब भारतीय मुगल शासन में बडे बड़े मनसबदार बन गए तथा अकबर के नवरत्नों में से चार नवरत्न भारतीय थे। सन् 1615 में मेवाड़ के राणा अमर सिंह ने भी मुगल शासक जहांगीर से समझौता कर लिया।अब मुगल शासकों की शोषणकारी निति को कोई रोकने वाला नही था। दिल्ली और आगरा मुगल सत्ता के केन्द्र थे। अतः इसी क्षेत्र में सन् 1633 से ही आगरा और मथुरा के आसपास गेर राजपूत किसानों ने जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ कर दिया जो गोकुला जाट, राजाराम जाट तथा राजा सूरजमल के बलिदान के दौर से गुजरता हुआ जाट राजा सूरजमल के बेटे राजा जवाहर सिंह की मृत्यु सन् 1768 तक अनवरत चला।इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि मुगलों की तीन राजधानियों आगरा, फतेहपुर सीकरी तथा दिल्ली में से दो राजधानी आगरा और फतेहपुर सीकरी को भारतियों (जाटों) ने मुगलों से छीन लिया। दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों ने मुगल सत्ता की कमर तोड दी तथा सन् 1707 में मुगल बादशाह औरंगजेब दक्षिण में मर गया।
मुगल सत्ता लाल किले के अंदर तक सिमट कर रह गई। इतने में ही अंग्रेज भारत में शासन पर काबिज़ हो गये।जिन भारतीयों ने अकबर के समय मुगलों से सत्ता समझौता किया था उनके साथ साथ कुछ और भारतीय राजाओं ने जो मुगलों के साथ संघर्ष कर बने थे, ने सन् 1818 तक अंग्रेजों से समझौता कर लिया। अंग्रेजों के शोषण का केन्द्र भी भारत का किसान ही रहा। भारतीय जनता का अधिक से अधिक शोषण किया जा सके,उसके लिए अंग्रेजों ने भारतीयों राजाओं के राज्य हड़पने प्रारंभ कर दिए।जिस कारण सन् 1857 की क्रांति हुई। जिसमें भारतीय किसानों, सैनिकों तथा पीड़ित रजवाड़ों और जागीर दारो ने मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का प्रयास किया। अंग्रेज तो भारत से ना जा सके, परन्तु इस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से सत्ता निकलकर रानी विक्टोरिया के हाथ में चली गई। अंग्रेजों की समझ में आ गया कि भारतीय रजवाड़े जिन्हें वो समाप्त करना चाहते थे वो तो उनके शासन करने में सहायक थे अतः अब अंग्रेजों ने इन देशी रियासतों को समाप्त करने का विचार त्याग दिया तथा इनके माध्यम से अपने उद्देश्य की पूर्ति करनी शुरू कर दी।शासन चलाने के वित्त प्रबंधन के लिए किसानों से लगान प्राप्त करना एक बडा माध्यम था। ब्रिटिश भारत दो भागों में बंटा था,एक भाग तो सीधा अंग्रेजों के हाथ में था तथा दूसरा रियासत के राजाओं के हाथ में था जिनका अंग्रेजों के साथ समझौता था।इन रियासतों में भारत का किसान तीन लोगों के द्वारा शोषित होता था, एक अंग्रेज़ दूसरा रियासत का राजा तिसरा रियासत के राजा का जागीर दार।रियासत के राजा के राज में भी दो तरह की भूमि पर खेती करने वाले किसान थे,एक जागीर दार की भूमि होती थी,दूसरी जो सीधी राजा के पास होती थी,इस राजा के पास वाली भूमि को खालसा भूमि कहते थे। यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन है,जो कि वर्तमान राजस्थान की तत्कालीन समय की मेवाड़ (उदयपुर) रियासत में बिजौलियां तथा बेगूं नामक ठिकानों से चलाये गये थे । राजस्थान का यह क्षेत्र तथा यहां के लोग उन बहादुर लोगों की संतान है। जिन्होंने करीब 500 वर्षों तक भारत की अरब हमलावरों तथा तुर्क आक्रमणकारियों से रक्षा की थी। परन्तु जिस प्रकार लोहा पानी और हवा के सम्पर्क में आने के कारण अपने कठोरता के गुण को खो देता है, जिस प्रकार कोई हंस कौवों के साथ रहने लगे तो वह मोती के स्थान पर मैला खाने के लिए विवश हो जाता है,उसी प्रकार मुगल और अंग्रेज शासकों के साथ रहने के कारण ये भारतीय राजा अपनी जनता का शोषण देखने तथा करने के लिए विवश थे, बिल्कुल उसी तरह जैसे पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य तथा कर्ण ना चाहते हुए भी द्रोपदी का चीर हरण तथा दुर्योधन की ओर से लडने के लिए विवश थे।पांडव रुपी जनता को अपने बल पर ही लडना था अतः संघर्ष संचालन के लिए एक कृष्ण जी की आवश्यकता थी। जो विजय सिंह पथिक के रुप में यहां के किसानों को प्राप्त हुए। इतिहास अपने आप को पुनः दोहरा रहा था, जिस प्रकार सन् 1633 में जाट किसान नेताओं के नेतृत्व में मुगल सत्ता से संघर्ष प्रारंभ हुआ था और गुर्जर किसानों ने इनका सहयोग किया था उसी प्रकार सन् 1880 में मेवाड़ रियासत में चित्तौड़ के राश्मी परगने से जाट किसानों ने राजस्थान के क्षेत्र का पहला आंदोलन शुरू कर दिया था।इस राजस्थान क्षेत्र में हुए आंदोलनों को चलाने के लिए प्रमुख भूमिका में सहयोग करने के लिए श्री विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) परिस्थितीवश उपस्थित थे। आखिर ये विजय सिंह पथिक कौन थे,किस प्रकार राजस्थान में हुए किसान आंदोलनों में सक्रिय हो गए थे,इसे जानने के लिए हमे थोडा पीछे की ओर चलना होगा।
सन् 1857 की क्रांति में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले की माला गढ रियासत के नबाब वलीदाद खां के इन्द्र सिंह गुर्जर नाम के दीवान थे जो बुलंदशहर के गुठावली कला नामक गांव के निवासी थे। सन् 1857 की क्रांति में संघर्ष करते हुए इन्द्र सिंह गुर्जर शहीद हो गए थे।इन्द्र सिंह गुर्जर के हमीर सिंह गुर्जर नाम के पुत्र थे,इन हमीर सिंह गुर्जर के 27 फरवरी सन् 1882 को भूप सिंह गुर्जर नाम के एक पुत्र का जन्म हुआ।
भूप सिंह गुर्जर पर अपने परिवार की क्रान्तिकारी और देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा।10 अप्रैल सन् 1875 को आर्य समाज की स्थापना मुम्बई में हो गई थी। आर्य समाज के द्वारा लोगों में जनजागरण का कार्य किया जाने लगा था। सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गई थी।
युवावस्था में भूप सिंह गुर्जर का सम्पर्क अजमेर गुट के राव गोपाल सिंह खरवा से हो गया था तथा भूप सिंह गुर्जर राव गोपाल सिंह खरवा के सचिव बन गए थे,राव गोपाल सिंह खरवा आर्य समाज से जुड़े हुए थे,राव गोपाल सिंह"खरवा"जागीर के जागीर दार थे।राव गोपाल सिंह खरवा राजपूत जाति के थे। एक बार बंगाल के क्रांतिकारी अरविंद घोष राजस्थान आये थे तभी गोपाल सिंह खरवा का परिचय अरविन्द घोष से हुआ।जब आर्य समाज का भारत धर्म महामंडल राजस्थान से बंगाल गया तब गोपाल सिंह खरवा भी इस मंडल में बंगाल गये थे,वही पर पुनः गोपाल सिंह खरवा की मुलाकात अरविन्द घोष,रास विहारी बोस व सचिन सन्याल से हुई। सन् 1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया। इस अवसर पर भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग के दिल्ली प्रवेश के समय राव गोपाल सिंह खरवा व भूप सिंह गुर्जर ने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ जुलूस पर बम फेंक कर लार्ड हार्डिग को मारने की कोशिश की। रास बिहारी बोस,राव गोपाल सिंह खरवा, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, भूप सिंह गुर्जर व अन्य सभी सम्बन्धित क्रान्तिकारी अंग्रेजो के हाथ नहीं आये और फरार हो गए।
आर्य समाज के सम्पर्क में एक गोविंद गिरि नाम के व्यक्ति आये।जो बंजारा जाति के थे,यह जाति वर्तमान में अनुसूचित जनजाति में आती है।इन गोविंद गिरि ने भील जाति के लोगों को जागृत करना प्रारंभ कर दिया। गोविंद गिरि का कार्यक्षेत्र उदयपुर रियासत के अंदर ही था जो वर्तमान में बांसवाड़ा जिले में आता है।17 नवम्बर सन् 1913 को मान गढ़ पहाड़ी पर भील सम्मेलन पर शासन के द्वारा अंधाधुंध फायरिंग की गई तथा 1500 भील मार डाले गए। अनुसूचित जनजाति का यह आंदोलन भगत आंदोलन के नाम से जाना जाता है। किसी भी समाचार पत्र में न छपने के कारण इस नरसंहार का देश के लोगों को पता ही नहीं चला। भीलों की आवाज बलपूर्वक दबा दी गई।
सन् 1915 में रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों पर 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। भारतीय इतिहास में इसे गदर आन्दोलन कहते है।
9 जनवरी सन् 1915 को गांधी जी विदेश से भारत आ गये। भारत आने पर गांधी जी ने गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बना लिया तथा कांग्रेस में कार्य करने लगे।
रास बिहारी बोस की योजना यह थी कि एक तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाय जाये दूसरी तरफ देशी राजाओं और उनकी सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को संचालित करने का दायित्व राव गोपाल सिंह खरवा व भूप सिंह गुर्जर को सौंपा गया। उस समय भूप सिंह गुर्जर फिरोजपुर षडयंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनो ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र की।ब्यावर में क्रांति की जिम्मेदारी राव गोपाल सिंह खरवा व दामोदर दास राठी पर थी और अजमेर व नसीराबाद में क्रांति की जिम्मेदारी भूप सिंह गुर्जर पर थी। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सरकार पर क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारयों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। भूप सिंह गुर्जर और गोपाल सिंह ने गोला बारूद्व भूमिगत कर दिया और सैनिकों को बिखेर दिया । परन्तु कुछ दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज कमिश्नर ने पांच सौ सैनिकों के साथ भूप सिंह गुर्जर और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया गया। उन्हीं दिनों लाहौर षडयंत्र केस में भूप सिंह गुर्जर का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर राव गोपाल सिंह खरवा और भूप सिंह गुर्जर को मिल गई और वो टाडगढ़ के किले से फरार हो गए।
राव गोपाल सिंह खरवा को पुनः पकड़ लिया गया।राव गोपाल सिंह खरवा करीब पांच वर्ष जेल में बंद रहे। परंतु भूप सिंह गुर्जर अंग्रेजों की पकड में नही आये। भूप सिंह गुर्जर ने अपना भेष बदल लिया,अपनी दाढ़ी और मूंछें बढ़ा ली तथा अपना नाम बदलकर विजय सिंह पथिक रख लिया।अब विजय सिंह पथिक चित्तौड़ के एक गांव ओछड़ी में विद्या प्रचारिणी सभा चलाने लगे।इस संस्था के नाम से ही जान पड रहा है कि आम लोगों में शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाना इस संगठन का उद्देश्य होगा। विद्या प्रचारिणी सभा के अधिवेशन में साधु सीताराम दास जो बिजौलियां ठिकाने के पुस्तकालय में नौकरी करते थे, परन्तु किसान हितैषी थे,भी पहुंचे।साधु सीताराम दास जी ने विजय सिंह पथिक जी से प्रभावित होकर बिजौलियां किसानों के आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह पथिक जी से किया। सन् 1916 में विजय सिंह पथिक जी ने बिजौलियां किसान आंदोलन में प्रवेश किया।
हम पाठको को बिजौलियां ठिकाने के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देने की जरूरत समझेंगे। ताकि इस आंदोलन के माध्यम से पथिक जी के महान कार्यों पर उचित प्रकाश पड़ सके-
बिजौलियां ठिकाना मेवाड़ राज्य के 16 प्रथम श्रेणी के ठिकानों में से एक था।जो वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में आता है। वर्तमान भरतपुर के पास जगनेर नामक स्थान के अशोक परमार नामक एक व्यक्ति थे, जिन्होंने सन् 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से युद्ध किया था। अशोक परमार को उनकी सैनिक सेवा से प्रसन्न होकर राणा सांगा ने उपरमाल नाम की एक जागीर दी थी। बिजोलिया इस उपरमाल नामक जागीर का मुख्यालय था।इस ठिकाने में 79 गांव थे। बिजौलियां ठिकाने की सीमा ग्वालियर,कोटा और बूंदी रियासतों को छूती थी। बिजौलियां ठिकाने में धाकड़ जाति के किसान बसे हुए थे।इन किसानों के अपने ठिकाने के ठाकुर के साथ बडे मधुर सम्बन्ध थे। बिजौलियां ठिकाने के ठाकुर राव केशव दास के साथ इन धाकड़ जाति के किसानों ने मिलकर अपने क्षेत्र से मराठों को बाहर निकाल दिया था।यह तालमेल राव गोविन्द दास जो बिजौलियां ठिकाने के ठाकुर थे, की मृत्यु सन् 1894 तक बना रहा।राव गोविन्द दास की मृत्यु के बाद राव कृष्णा सिंह बिजौलियां के ठाकुर बने।राव कृष्णा सिंह ने 84 प्रकार के कर अपने ठिकाने के किसानों पर लगा दिए। भू-राजस्व नगदी में लेने का आदेश पारित किया गया।यही से किसान आंदोलन की नींव पड गई। बिजौलियां किसान आंदोलन भारत ही क्या विश्व का सबसे लम्बा चलने वाला आंदोलन माना जाता है।यह आंदोलन 44 वर्ष तक चला।इस आंदोलन को तीन भागों में बांटा जाता है।प्रथम चरण सन् 1897-1915, द्वितीय चरण सन् 1915-1923, तृतीय चरण सन् 1923-1941तक।
प्रथम चरण में यह आंदोलन स्थानिय किसानों के नेतृत्व में चला। बिजौलियां के किसानों ने अपनी स्थानिय समस्याओं के निराकरण के लिए धाकड़ पंचायत के नाम से एक संगठन बना रखा था। बिजौलियां ठिकाने में गिरधर पुर नाम का एक गांव था,इस गांव में गंगाराम धाकड़ नाम के एक किसान के पिता की मृत्यु हो गई थी।इस मृत्यु भोज में आसपास के किसान एकत्रित हुए, जिसमें इन असिमित लगें कर से छूटकारा प्राप्त करने के लिए विचार विमर्श हुआ।इन किसानों का सम्पर्क साधु सीताराम दास जी से हुआ,जो बिजोलिया ठिकाने के पुस्तकालय में नौकरी करते थे। किसानों ने अपनी समस्या साधु सीताराम दास जी के सामने रखी। सीताराम जी ने किसानों को सलाह दी कि आप अपने ठाकुर की शिकायत उदयपुर जाकर मेवाड़ के राणा फतेह सिंह जी से करें। सीताराम दास जी की सलाह के अनुसार दो किसान नानाजी पटेल व ठाकरी पटेल राणा जी से मिल कर शिकायत कर आये।राणा जी ने हामिद नाम का एक जांच अधिकारी बिजौलियां मे भेजा। हामिद ने अपनी रिपोर्ट किसानों के हित में दी तथा ठिकाने के ठाकुर कृष्णा सिंह को दोषी माना।जब राव कृष्णा सिंह को इस घटना का पता चला तो उसने नाराज किसानों को कुछ सहुलियत देकर मना लिया, लेकिन जो दो किसान शिकायत करने राणा जी के पास गये थे,उनको अपने क्षेत्र से निष्कासित कर दिया।यह सन् 1899 की घटना है। कुछ समय शांति से व्यतीत हुआ, परन्तु सन् 1903 में राव कृष्णा सिंह ने चंवरी के नाम से एक नया कर किसानों पर लगा दिया।इस कर के अनुसार किसान जब अपनी लड़की की शादी करेगा तो 5 रुपए चंवरी कर के रूप में ठाकुर को देगा।इस कर को लेकर किसानों में रोष व्याप्त हो गया। भारत में यह प्रथा है कि लडकी की शादी में कन्यादान के रूप में धन दिया जाता है यहां धन लेने की बात थी। किसानों ने दो साल तक अपनी लड़कियों की शादी नही की। सन् 1905 में दो सो किसान इकट्ठा होकर राव कृष्णा सिंह के पास पहुंचे और इस चंवरी कर को हटाने का आग्रह किया।जिस पर राव कृष्णा सिंह नही माने।ये सब दो सो किसान राव कृष्णा सिंह का क्षेत्र छोड़कर पास के राज्य ग्वालियर में चले गए।जब किसान ही नहीं रहें तो कर कौन देगा।इस परिस्थिति में राव कृष्णा सिंह ने किसानों को वापस बुला लिया तथा चंवरी कर हटा दिया। कुछ सहुलियत और भी किसानों को दी गई। सन् 1906 में राव कृष्णा सिंह की मृत्यु हो गई।राव कृष्णा सिंह निसंतान थे। अतः नये ठाकुर के रूप में पृथ्वी सिंह बने जो भरतपुर के पास जगनेर नामक स्थान से लाकर बनाये गये थे।जब कोई नया ठाकुर ठिकाने का बनता था तब वह उत्तराधिकारी बनने के नियमानुसार अपने राणा को तलवार बधांई के नाम से कुछ धन भेंट करता था।राव पृथ्वी सिंह ने इस तलवार बंधाई की धन राशि के लिए अपने ठिकाने के किसानों पर एक कर और लगा दिया। किसानों ने इस कर का विरोध किया। परंतु राव पृथ्वी सिंह ने किसान नेता फतह करण चारण व ब्रह्म देव को क्षेत्र से निष्कासित कर दिया।साधु सीताराम दास को भी नौकरी से निकाल दिया। परंतु अब किसान जागरूक हो चुके थे यह सन् 1915तक का संघर्ष था।
इन्ही साधु सीताराम दास जी के आग्रह पर विजय सिंह पथिक जी ने बिजौलियां किसान आंदोलन में सन् 1916 में प्रवेश किया। सन् 1916 में ही लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें कांग्रेस के नरम दल व गरम दल तथा मुस्लिम लीग एक हो कर कांग्रेस में मिल गये थे।
विजय सिंह पथिक जी ने बिजोलिया पहुंच कर इस आंदोलन में प्राण फूंक दिए। विजय सिंह पथिक जी ने उपरमाल पंच बोर्ड के नाम से एक संगठन बनाया तथा इसका सरपंच माना पटेल को बनाया। उपरमाल सेवा समिति के नाम से क्षेत्र के युवाओं को जोडा। जिन्हें गांव गांव जाकर आंदोलन का प्रचार करना तथा" उपरमाल का डंका" के नाम से छपा पर्चा वितरण करना था।इस समय प्रथम विश्व युद्ध के लिए चंदा भी वसूल किया जा रहा था। अतः सावन की अमावस्या अर्थात जुलाई-अगस्त सन् 1917 को बैरीसाल गांव से आंदोलन का बिगुल बजा दिया। सन् 1917 में अप्रेल में बिहार का चम्पारण सत्याग्रह भी नील की खेती की तिनकठिया निति के विरोध में हुआ था, जिसमें महात्मा गांधी जी ने भाग लिया था।क्योकि बिजौलियां में पथिक जी ने सन् 1916 से ही आंदोलन शुरू कर दिया था, अतः पथिक जी को भारत के किसान आंदोलन का जनक कहा जाता है। पथिक जी ने आंदोलन के प्रचार के लिए तत्तकालीन समय के समाचार पत्रों से सम्पर्क किया।उस समय कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी जी के द्वारा"प्रताप"नामक समाचार पत्र निकाला जाता था। पथिक जी ने गणेश शंकर विद्यार्थी जी को चांदी की राखी भेजकर बिजौलियां आंदोलन के लिए मदद मांगी।इसके साथ तिलक के मराठा, प्रयाग के अभ्युदय, कलकत्ता के भारत मित्र तथा अजमेर से नवीन राजस्थान नामक समाचार पत्रों में बिजौलियां आंदोलन के समाचार प्रकाशित कर आंदोलन को भारत में पहुंचा दिया। दूसरी ओर जमुना लाल बजाज के माध्यम से आंदोलन में कांग्रेस की मदद के लिए भी प्रयास प्रारंभ कर दिया। सन् 1918 में गुजरात के खेड़ा में भी सरदार पटेल ने किसानों का आंदोलन शुरू कर दिया, जिसमें गांधी जी ने भी भाग लिया।इस प्रकार भारत में किसान आंदोलन शुरू हो गये। सन् 1919 में अमृतसर में कांग्रेस के अधिवेशन में पथिक जी बिजौलियां आंदोलन में मदद के लिए पहुंचे। वहां पर पथिक जी ने बाल गंगाधर तिलक को मदद के लिए तैयार कर लिया। कांग्रेस के अधिवेशन में बिजौलियां आंदोलन के विषय में समर्थन के लिए बालगंगाधर तिलक व केलकर ने प्रस्ताव रख दिया। परन्तु महात्मा गांधी जी व मदनमोहन मालवीय जी ने इस प्रस्ताव को रोक दिया। गांधी जी का कहना था कि जो भारत सीधे अंग्रेजों के हाथ में है कांग्रेस उसमें ही भाग लेगी।जो भारत देशी राजाओं के हाथ में है,जहा अंग्रेजों की अप्रत्यक्ष सत्ता है, उसमें कांग्रेस आम जनता के लिए किए जा रहे आंदोलन में भाग नहीं लेगी। लेकिन बिजौलियां के किसानों की समस्या का हल हो,इसके लिए मेवाड़ के राणा को गांधी जी व तिलक जी ने पत्र लिखे तथा मदन मोहन मालवीय जी को राणा से मिलने के लिए भेजा। अब राणा ने बिंदुलाल भट्टाचार्य,अमर सिंह तथा अफजल अली के नेतृत्व में एक जांच आयोग बिजौलियां के किसानों की परेशानी को जानने के लिए बना दिया। कांग्रेस व जांच आयोग से किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। सन् 1919 में ही महाराष्ट्र के वर्धा में राजस्थान सेवा संघ के नाम से विजय सिंह पथिक जी ने एक संगठन बनाया। 13 अप्रैल सन् 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा गोलीकांड कर दिया गया।ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था।
पथिक जी ने सन् 1920 में राजस्थान सेवा संघ का मुख्यालय अजमेर में बना लिया।इस संगठन में विजय सिंह पथिक,साधु सीताराम दास, माणिक्य लाल वर्मा व जमुना लाल बजाज, रामनारायण चौधरी आदि थे। सन् 1920 के कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में विजय सिंह पथिक अपने साथ बिजौलियां के तीन किसान कालू जी, गोकुल जी व नंदराम जी को लेकर पहुंचे। अधिवेशन में चित्रों के माध्यम से प्रदर्शनी लगाकर बिजौलियां के किसानों की हालत को दर्शाया गया।गांधी जी ने अपने निजी सचिव महादेव देसाई को राणा से वार्ता करने के लिए भेजा।गांधी जी का यह मत था कि सबसे पहले अंग्रेजों को भारत से भगाया जाय। यदि कांग्रेस देशी राजाओं के साथ उलझ गई तो देशी राजा अंग्रेजों के पक्ष में आ जायेगे,जिस कारण आजादी की लडाई में अवरोध पैदा हो जायेगा। लेकिन भारत के देशी राजा और नबाब तो अंग्रेजों की कठपुतली थे।यही सोच कर गाधी जी ने खिलाफत आन्दोलन (मार्च सन् 1919- जनवरी सन् 1921) में मुस्लिमो का समर्थन किया था कि भारत का मुस्लिम अंग्रेजों के विरुद्ध कांग्रेस के साथ आ जाएं। दूसरी ओर विजय सिंह पथिक और डा अम्बेडकर जैसे नेताओं का यह मत था कि किसी व्यक्ति का शोषण घर का व्यक्ति करें या बाहर का। शोषित व्यक्ति को पीड़ा बराबर ही होती है। इसलिए डा अम्बेडकर ने कहा था कि कांग्रेस फ्रिडम आफ इंडिया तो चाहती है परन्तु फ्रिडम आफ पिपुल आफ इंडिया नही चाहती।यानि भारत की आज़ादी तो चाहती है परन्तु भारत के नागरिक की आजादी नही चाहती।
राजपूताना मध्य भारत संघ नामक संगठन जो जमुना लाल बजाज के नेतृत्व में चलता था ने बिजोलिया किसानों की स्थति की जांच के लिए अपने संगठन की ओर से भवानी दयाल नाम के एक कार्यकर्ता को नियुक्त कर दिया।ऐसी स्थिति में मेवाड़ के राणा फतह सिंह ने पुनः दूसरा जांच आयोग बना दिया, जिसमें राज सिंह मेहता,तख्त सिंह मेहता व रमाकांत मालवीय को रखा गया। इन तीनों ने बिजोलिया से 15 किसानों को बातचीत के लिए उदयपुर में बुलाया। लेकिन किसानों को कोई लाभ नहीं दिया। विजय सिंह पथिक का गिरफ्तारी वारंट निकाल दिया। विजय सिंह पथिक मेवाड़ रियासत के बाहर उमा जी का खेडा नामक गांव में चले गए।अब राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी अंग्रेज अधिकारी विलकिम से मिले। पुनः किसानों की समस्या के हल पर विचार विमर्श के सन् 1922 में एक जांच समिति का गठन कर दिया गया।इस कमेटी में राबर्ट हालेंड(AGG),आगतवी (सचिव),प्रभाष चंद्र चटर्जी (मेवाड़ के दीवान) तथा बिहारी लाल थे।इस जांच समिति ने बिजोलिया के किसान मोतीराम सरपंच व नारायण जी पटेल से बातचीत कर किसानों की मांग सुनी और 35 कर समाप्त कर दिए।जिससे किसान प्रसन्न हो गए, लेकिन बिजौलियां के ठाकुर ने इस समझौते को नही माना।
बिजोलिया में चल रहे इस आंदोलन को देखकर समस्त राजस्थान के किसानों तथा अन्य वर्गों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई। परिणाम स्वरूप कई जगह आंदोलन प्रारंभ हो गये।भोमट भील आंदोलन के नाम से भील और गरासिया जनजाति ने मिलकर आंदोलन प्रारंभ कर दिया।इस आंदोलन का नेतृत्व मोतीलाल तेजावत जो ओसवाल जाति के थे तथा झाडोल ठिकाने में कामदार थे, ने किया तथा एक किसान नेता गोकुल जाट ने सहयोग किया।7 नवम्बर सन् 1922 को मेजर शर्टन ने विजय नगर रियासत के नीमडा गांव में एकत्रित भीलों पर फायरिंग करवा दी, जिसमें 1200 भील शहीद हो गए। बेगूं, बूंदी, शेखावाटी में जो आंदोलन हुए राजस्थान सेवा संघ ने इन आंदोलनों का नेतृत्व किया।
बिजोलिया और बेगूं के आंदोलन का नेतृत्व स्वयं विजय सिंह पथिक जी ने किया। बेगूं के किसान सन् 1921 में विजय सिंह पथिक जी के पास आये, पथिक जी ने बेगूं के किसानों का नेतृत्व करने के लिए राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी को भेजा। बेगूं भी मेवाड़ रियासत का एक ठिकाना था। इसमें भी बिजौलियां की तरह धाकड़ जाति के किसान रहते थे। मेवाड़ रियासत के चार ठिकाने क्रमशः सलूम्बर,आमेट, बेगूं और देवगढ़ राणा लाखा के बडे पुत्र चूड़ा जिन्हें आधुनिक युग का भिष्म कहा जाता है को दे दिए गए थे।उनकी संतानें ही इन ठिकानों के ठाकुर थे। अकबर के साथ चित्तौड़ के युद्ध में जो फत्ता सिसोदिया वीर गति को प्राप्त हुए थे वो आमेट ठिकाने के जागीर दार थे। बेगूं में किसानों पर 54 प्रकार के कर लगे हुए थे। यहां के ठिकाने दार अनूप सिंह थे। रामनारायण चौधरी मेवाड़ के दीवान से बेगूं की समस्या के समाधान के लिए मिलें। सन् 1922 में मंडावरी नामक स्थान पर सभा कर रहे किसानों पर लाठी चार्ज किया गया। परन्तु किसान आंदोलन चलता रहा।मजबूर होकर बेगूं के ठिकाने दार अनूप सिंह ने जून सन् 1922 में अजमेर में जाकर विजय सिंह पथिक जी की मध्यस्थता में किसानों के साथ समझौता कर लिया।
इस समय गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चला रखा था। जिसमें चौरी चौरा कांड हो गया।चौरी चौरा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के पास का एक कस्बा है जहाँ 4 फ़रवरी 1922 को भारतीयों ने बिट्रिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी थी जिससे उसमें छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जल के मर गए थे। इस घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
जब बेगूं के किसानों के समझौते की सूचना मेवाड़ के राणा फतेह सिंह को पहुंची तो ठाकुर अनूप सिंह को उदयपुर बुलाकर कैद कर लिया।
बिजौलियां में राणा का समझौता ठिकाने दार नही मान रहा था, बेगूं में ठिकाने दार का समझौता राणा नही मान रहा था। कुल मिलाकर मेवाड़ का नेतृत्व किसानों को सहूलियत नही देना चाहता था।अब 13 जून सन् 1923 को मेवाड़ के सेटलमेंट कमिश्नर ट्रेंच को बेगूं के किसानों की समस्या को हल करने के लिए भेजा गया। ट्रेंच ने बेगूं के किसानों से कहा कि बातचीत में बेगूं से बाहर का कोई व्यक्ति भाग नही लेगा।इस पर किसान तैयार नहीं हुए, किसान राजस्थान सेवा संघ को बातचीत से बाहर नही चाहते थे। अतः 13 जुलाई सन् 1923 को किसान गोविंद पुरा नामक गांव में एकत्रित हुए।इस समय किसानों पर ट्रेंच के द्वारा लाठीचार्ज व फायरिंग करवा दी गई। जिसमें 500 किसान गिरफ्तार कर लिए गए तथा रूपा जी धाकड़ व कृपा जी धाकड़ नाम के दो किसान शहीद हो गए।जब यह समाचार पथिक जी को प्राप्त हुआ तो वह अपने आप को रोक नहीं पाये तथा किसानों का मनोबल बढ़ाने के लिए अजमेर से बेगूं आ गये। जहां 10 सितंबर सन् 1923 को पथिक जी को गिरफ्तार कर लिया गया तथा पांच वर्ष के लिए उदयपुर जेल में भेज दिया गया।अब बेगूं किसान आंदोलन की कमान माणिक्य लाल वर्मा ने सम्भाली। मार्च सन् 1925 में लगभग 34 प्रकार के कर मेवाड़ सरकार ने बेगूं के किसानों से हटा कर समझौता कर लिया। बेगूं का आंदोलन समाप्त हो गया।
बिजौलियां की सीमा से लगा बूंदी राज्य का बरड क्षेत्र था,यहा के गुर्जर किसानों ने बेगार व भ्रष्टाचार के विरुद्ध बूंदी सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।इस आंदोलन का नेतृत्व राजस्थान सेवा संघ के एक कार्यकर्ता नयनू शर्मा ने किया।2 अप्रैल सन् 1923 को डाबी नाम के स्थान पर किसानों की सभा पर बूंदी प्रशासन ने गोली चला दी, जिसमें नानक भील व देवीलाल गुर्जर शहीद हो गए।
पथिक जी की गिरफ्तारी के बाद सन् 1923-1941 का समय बिजौलियां आंदोलन का अंतिम चरण है। वहीं राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी इस अवधि में अनेक आंदोलन हुए। अलवर रियासत में राजपूत जाति के किसानों के द्वारा लगान की बढी दरों को लेकर आंदोलन किया गया।जो निमूचाना आंदोलन के नाम से जाना जाता है।इस आंदोलन में 14 मई सन् 1925 को अलवर रियासत की सेना ने कमांडर छाजू सिंह के नेतृत्व में किसानों पर अंधाधुंध फायरिंग की। जिसमें 156 किसान मारे गए,39 गिरफ्तार कर लिए गए। हजारों की संख्या में किसान और पशु घायल हुए।इस नरसंहार को गांधी जी ने दोहरी डायरशाही कह कर अपने यंग इंडिया समाचार पत्र में भर्त्सना की।
सन् 1926 में अंग्रेज अधिकारी ट्रेंच को बिजौलियां की भूमि का बंदोबस्त करने के लिए भेजा गया। ट्रेंच ने जो सिंचित भूमि थी,उस पर कर घटा दिया तथा असिंचित भूमि पर कर बढ़ा दिया।ऐसा उल्टा काम देख किसान आंदोलित हो उठे। किसानों ने आपस में सलाह की, सन् 1927 में विजय सिंह पथिक भी जेल से छूटकर आ गये थे। किसानों की यह योजना बनी कि असिंचित भूमि के पट्टे ठिकाने दार को वापस कर दिए जाएं।जब जमीन खाली हो जायेगी तो ठिकाने दार अपने आप समझौता करेगा।सभी किसानों ने अपनी जमीन के पट्टे वापस कर दिए। परन्तु साहूकारों व सम्पन्न किसानों ने वो पट्टे ठिकाने दार से खरीद लिए।इस समय विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, माणिक्य लाल वर्मा व जमुना लाल बजाज में भी आपसी मतभेद हो गये थे।जब बात गांधीजी तक पहुंची,तो जमुना लाल बजाज से आंदोलन के नेतृत्व का आग्रह किया गया। परन्तु यह उनके बस का काम नही था, हरिभाऊ उपाध्याय नाम के एक कार्यकर्ता को गांधी जी ने बिजौलियां भेजा। मदन मोहन मालवीय जी ने एक पत्र मेवाड़ प्रशासन को लिखा। मेवाड़ प्रशासन ने माणिक्य लाल वर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया।समय व्यतीत होता रहा।
सन् 1927 में अंग्रेजों ने भरतपुर के जाट राजा किशन सिंह को हटा कर उनकेे अल्पव्यस्क पुत्र को राजा बना दिया। सन् 1930 में अंग्रेजों ने मेवाड़ के राणा फतेह सिंह के स्थान पर उनके पुत्र भोपाल सिंह को राणा बना दिया।
सन् 1931 में अक्षय तृतीया के दिन बिजौलियां के किसानों ने अपनी उन जमीनों पर जिनके पट्टे ठिकाने दार को वापस कर दिए थे, में अपने हल चलाने प्रारंभ कर दिए।इन किसानों पर ठिकाने दार के सैनिकों ने, मेवाड़ रियासत के सैनिकों ने तथा उन किसानों ने जिन्होंने ये पट्टे खरीद लिए थे, ने मिलकर हमला कर दिया।
सन् 1933 में अंग्रेजों ने अलवर के राजा जय सिंह को हटाकर एक जागीरदार तेज सिंह को अलवर का राजा बना दिया तथा राजा जयसिंह को देश निकाला दे कर पेरिस भेज दिया।
सन् 1938 में किसानों ने लिखकर मेवाड़ के राणा भोपाल सिंह को दिया कि वो आगे कोई आंदोलन नही करेंगे,उनकी जमीन वापस दे दी जाय।
सन् 1938 में सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा कि अब कांग्रेस रियासत के राजाओं द्वारा शोषित जनता के लिए राजाओं के क्षेत्रों में भी आंदोलन में सक्रिय सहयोग करेगी।
12 मार्च सन् 1939 में पथिक जी के अनन्य सहयोगी राव गोपाल सिंह खरवा का देहांत हो गया।
अतः सन् 1941 में बिजौलियां के किसानों को अपनी जमीन वापस मिल गई।इस प्रकार इस बिजौलियां आंदोलन का अंत हो गया।विजय सिंह पथिक जी के लम्बे संघर्ष ने राजाओं की शक्ति के नीचे दबी जनता में अभूतपूर्व चेतना व आत्मबल का संचार किया।जिस कारण पूरा राजस्थान आंदोलित हो उठा।विजय सिंह पथिक आंदोलनकारी नेता के साथ एक विचारक व लेखक भी थे। पथिक जी ने भारत की रियासतों के विषय में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम है "व्हाट आर द इंडियन स्टेट्स"।
15 अगस्त सन् 1947 को देश आजाद हो गया। देश में लोकतंत्र स्थापित हो गया।18 अप्रैल सन् 1948 को राजस्थान के तृतीय चरण का एकीकरण होने पर मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह राजस्थान के राजप्रमुख तथा माणिक्य लाल वर्मा राजस्थान के प्रधानमंत्री बने।
26 जनवरी सन् 1950 को देश का संविधान लागू हो गया। सन् 1952 में आजाद भारत का पहला चुनाव सम्पन्न हुआ। पथिक जी के शिष्य माणिक्य लाल वर्मा जी टोंक से १९५२ में लोकसभा के सांसद चुने गए ।विजय सिंह पथिक (भूप सिंह गुर्जर) जी ने अंग्रेजी शासन की जुल्मों भरी भयानकता तथा अपने जीवन की अंतिम बेला में आजाद भारतीय जनता की प्रसन्नता को अपनी आंखों से देखा।
पथिक जी जीवनपर्यन्त निःस्वार्थ भाव से देश सेवा में जुटे रहें। भारत माता का यह महान सपूत 28 मई, 1954 में चिर निद्रा में सो गया। पथिक जी की देशभक्ति निःस्वार्थ थी और मृत्यु के समय उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था, जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माथुर ने पथिक जी का वर्णन राजस्थान की जागृति के अग्रदूत महान क्रान्तिकारी के रूप में किया।
क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक व उन हजारों सत्याग्रहियों को जो आंदोलनों में शहीद हो गए,को शत-शत नमन।
समाप्त
सन्दर्भ ग्रंथ
1- डा सुशील भाटी - बिजौलिया के गांधी - विजय सिंह पथिक।
2 - रमन भारद्वाज (यू ट्यूब) - बिजौलियां व बेगूं किसान आंदोलन राजस्थान।
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