गुरुवार, 25 जून 2020

क्षत्रियों के 36 कुल

प्राचीन पुस्तकों के अवलोकन से ऐसा ज्ञात होता है कि भारत में आर्य दो समूहों में आये। प्रथम लम्बे सिर वाले और द्वितीय चैडे़ सिर वाले। प्रथम समूह उत्तर-पश्चिम (ऋग्वेद के अनुसार) खैबरर्दरे से आये, जो पंजाब, राजस्थान, और अयोध्या में सरयू नदी तक फैल गये। इन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। 
 सोलंकियों के बारे मे पूर्व सोलंकी राजा, राजराज प्रथम के समय में वि.1079 (ई. 1022) के एक ताम्रपत्र के अनुसार भगवान पुरूषोत्तम की नाभि कमल से ब्रह्या उत्पन्न हुए, जिनेस क्रमशः सोम, बुद्ध व अन्य वंशजों में विचित्रवीर्य, पाण्ड, अर्जुन, अभिमन्यु, परीक्षित, जन्मेजय आदि हुए। इसी वंश के राजाओं ने अयोध्या पर राज किया था। विजयादित्य ने दक्षिण में जाकर राज्य स्थापित किया। इसी वंश में राजराज हुआ था।
सोलंकियों के शिलालेखों तथा कश्मीरी पंडित विल्हण द्वारा वि. 1142 में रचित 'विक्रमाक्ड़ चरित्र' में चालुक्यों की उत्पत्ति ब्रह्या की चुल्लु से उत्पन्न वीर क्षत्रिय से होना लिखा गया है जो चालुक्य कहलाया। पश्चिमी सोलंकी राजा विक्रमादित्य छठे के समय के शिलालेख वि. 1133 (ई.1076) में लिखा गया है कि चालुक्य वंश भगवान ब्रह्या के पुत्र अत्रि के नेत्र से उत्पन्न होने वाले चन्द्रवंश के अंतर्गत आते हैं।
अग्निकुल के दूसरे कुल चैहानों के विषय में वि. 1225 (ई.1168) के पृथ्वीराज द्वितीय के समय के शिलालेख में चैहानों को चंद्रवंशी लिखा है। 'पृथ्वीराज विजय' काव्य में चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है तथा बीसलदेव चतुर्थ के समय के अजमेर के लेख में भी चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है।
आबू पर्वत पर स्थित अचलेश्वर महादेव के मन्दिर में वि. 1377 (ई. 1320) के देवड़ा लुंभा के समय के लेख में चैहानों के बारे में लिखा है कि सूर्य और चंद्र वंश के अस्त हो जाने पर जब संसार में दानवों का उत्पात शुरू हुआ तब वत्स ऋषि के ध्यान और चंद्रमा के योग से एक पुरूष उत्पन्न हुआ।
क्षत्रियों की 36 रॉयल मार्शल क्लेन आफॅ क्षत्रिय (क्षत्रियों के 36 शाही कुल)
इन 36 शाही कुलों (रॉयल मार्शल क्लेन) में 10 सूर्यवंशी, 10 चंद्रवशी, 4 अग्निवंशी, 12 दूसरे वंश । सभी लेखकों जैसे कर्नल जेम्स टॉड, श्री गौरीशंकर ओझा, श्री जगदीशसिंह परिहार, रोमिला थापर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, राजवी अमरसिंह, बीकानेरए शैलेन्द्र प्रतापसिंह-बैसवाडे़ का वैभव, प्रो. लाल अमरेन्द्र-बैसवाड़ा एक ऐतिहासिक अनुशीलन भाग-1, रावदंगलसिंह-बैस क्षत्रियों का उद्भव एवं विकास, ठा. ईश्वरसिंह मडाढ़ - राजपूत वंशाली, ठा. देवीसिंह मंडावा इत्यादि ने यह माना है कि क्षत्रियों के शाही कुल 36 है लेकिन किसी ने सूची में इनकी संख्या बढ़ा दी है और किसी ने कम कर दी है।
  1. पहली सूची चंद्रवर्दायी जिन्होंने पृथ्वीराजरासो लिखा है बाद इन्होंने पृथ्वीराज रासो के छन्द 32 में छन्द के रूप में कुछ क्षत्रियों के कुल को लिखा है जो इस प्रकार है।
  2. पृथ्वीराज रासो में चंद्रवर्दायी ने कुछ कुलों को एक छन्द (दोहा) के रूप में लिखा है। जो द्वितीय सूची के रूप में प्रकाशित हुई
  3. तृतीय सूची में 36 क्षत्रिय कुल कर्नल टॉड ने नाडोल सिटी (मारवाड़) के जैन मंदिर के पुजारी से प्राप्त कर प्रकाशित किया
  4. चतुर्थ सूची में हेमचंद्र जैन ने "कुमार पालचरित्र" में 36 क्षत्रियों की सूची प्रकाशित की।
  5. पंचम सूची में मोगंजी खींचियों के भाट ने प्रकाशित की
  6. छठी सूची में नैनसी ने 36 शाही कुलों तथा उनके राजधानियों का वर्णन किया गया है
  7. सातवीं सूची में जो पद्मनाभ ने जारी की में प्रकाशित हुई
  8. आठवीं सूची में हमीरयाना जो भन्दुआ में प्रकाशित की। 
इसमें 30 कुल का वर्णन है। इस प्रकार से कुल क्षत्रियों की 8 सूचियाँ प्रकाशित हुई। और करीब करीब सभी ने गणना में 36 शाही कुल माने है। प्रारम्भिक 36 कुलों की सूची में मौर्यवंशी तथा नाग वंश का स्थान न मिलना यही सिद्ध करता है कि ये प्रारम्भ में वैदिक धर्म में नहीं आये तथा बौद्ध बने रहे। तथा इतिहासकारों जैसे राजवी अमरसिंह, बीकानेर, प्रो. अमरेन्द्रसिंह, जगदीशसिंह परिहार, राव दंगलसिंह, शैलेन्द्र प्रतापसिंह, ठा. ईश्वरसिंह, ठा. देवीसिंह मंडावा, बीकानेर क्षत्रिय वंश का इतिहास आदि ने भी 36 कुल का वर्णन किया है।

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने पृथ्वीराज रासो वर्णित पद्य को अपनी पुस्तक 'मिडाइवल हिन्दू इण्डिया' में 36 शाखाओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि रवि, राशि और यादव वंश तो पुराणों में वर्णित वंश है, इनकी 36 शाखाएँ हैं। एक ही शाखा वाले का उसी शाखा में विवाह नहीं हो सकता। इसे नीचे से ऊपर की ओर पढ़ने से क्रमशः निम्न शाखाएँ हैः 1. काल छरक्के 'कलचुरि' यह हैहय वंश की शाखा है। 2. कविनीश 3. राजपाल 4. निकुम्भवर धान्यपालक 6. मट 7. कैमाश 'कैलाश' 8. गोड़ 9. हरीतट्ट 10. हुल-कर्नल टॉड ने इसी शाखा को हुन लिख दिया है जिससे इसे हूणों की भा्रंति होती है। जबकि हुल गहलोत वंश की खांप है। 11. कोटपाल 12. कारट्टपाल 13. दधिपट-कर्नल टॉड साहब ने इसे डिडियोट लिखा है। 14. प्रतिहार 15. योतिका टॉड साहब ने इसे पाटका लिखा है। 16. अनिग-टॉड साहब ने इसे अनन्ग लिखा है। 17. सैन्धव 18. टांक 19. देवड़ा 20. रोसजुत 21. राठौड़ 22. परिहार 23. चापोत्कट 'चावड़ा' 24. गुहीलौत 25. गोहिल 26. गरूआ 27. मकवाना 28. दोयमत 29. अमीयर 30. सिलार 31. छदंक 32. चालुक्य 'चालुक्य' 33. चाहुवान 34. सदावर 35. परमार 36. ककुत्स्थ ।

श्री मोहनलाला पांड्या ने इस सूची का विश्लेषण करते हुए ककुत्स्थ को कछवाहा, सदावर को तंवर, छंद को चंद या चंदेल, दोयमत को दाहिमा लिखा है। इसी सूची में वर्णित रोसजुत, अनंग, योतिका, दधिपट, कारट्टपाल, कोटपाल, हरीतट, कैमाश, धान्यपाल, राजपाल आदि वंश आजकल नहीं मिलते। जबकि आजकल के प्रसिद्ध वंश वैस, भाटी, झाला, सेंगर आदि वंशों की इस सूची में चर्चा ही नहीं हुई।

मतिराम के अनुसार छत्तीस कुल की सूची इस प्रकार है:-
1. सुर्यवंश 2. पेलवार 3. राठौड़ 4. लोहथम्भ 5. रघुवंशी 6. कछवाहा 7. सिरमौर 8. गहलोत 9. बघेल 10. काबा 11. सिरनेत 12. निकुम्भ 13. कौशिक 14. चन्देल 15. यदुवंश 16. भाटी 17. तोमर 18. बनाफर 19. काकन 20.रहिहोवंश 21. गहरवार 22. करमवार 23. रैकवार 24. चंद्रवंशी 25. शकरवार 26. गौर 27. दीक्षित 28. बड़वालिया 29. विश्वेन 30. गौतम 31. सेंगर 32. उदयवालिया 33. चैहान 34. पडि़हार 35. सुलंकी 36. परमार। इन्होनें भी कुछ प्रसिद्ध वंशों को छोड़कर कुछ नये वंश लिख दिये है। इन्होंने भी प्रसिद्ध बैस वंश को छोड़ दिया है।

कर्नल टॉड के पास छत्तीस कुलों की पाँच सूचियाँ थी जो उन्होंने इस प्रकार प्राप्त की थी:-
  1. यह सूची उन्होंने मारवाड़ के अंतर्गत नाडौल नगर के एक जैन मंदिर के यती से ली थी। यह सूची यती जी ने किसी प्राचीन ग्रंथ से प्राप्त की थी।
  2. यह सूची उन्होंने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि चन्दबरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासों से ग्रहण की थी।
  3. यह सूची उन्होंने कुमारपाल चरित्र से ली थी। यह ग्रंथ महाकवि चन्दबरदाई के समकालीन जिन मण्डोपाध्याय कृत हैं। इसमें अनहिलावाड़ा पट्टन राज्य का इतिहास है।
  4. यह सूची खींचियों के भाट से मिली थीं
  5. पाँचवीं सूची उन्हें भाटियों के भाट से मिली थी।

इन सभी सूचियों से सामग्री निकालकर उन्होंने यह सूची प्रकाशित की थी:-
1. ग्रहलोत या गहलोत 2. यादु (यादव) 3. तुआर 4. राठौर 5. कुशवाहा 6. परमार 7. चाहुवान या चैहान 8. चालुक या सोलंकी 9. प्रतिहार या परिहार 10. चावड़ा या चैरा 11. टाक या तक्षक 12. जिट 13. हुन या हूण 14. कट्टी 15. बल्ला 16. झाला 17. जैटवा, जैहवा या कमरी 18. गोहिल 19. सर्वया या सरिअस्प 20. सिलार या सुलार 21. डाबी 22. गौर 23. डोर या डोडा 24. गेहरवाल 25. चन्देला 26. वीरगूजर 27. सेंगर 28. सिकरवाल 29. बैंस 30. दहिया 31. जोहिया 32. मोहिल 33. निकुम्भ 34. राजपाली 35. दाहरिया 36. दाहिमा।

मंगलवार, 23 जून 2020

आपातकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका-लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

जब भी आपातकाल की याद आती है तभी भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही तथा उस तानाशाही को समाप्त करने के लिए किये गये संघर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके स्वयं सेवकों द्वारा दिए गए बलिदानों की ओर प्रत्येक भारतीय का ध्यान अपने आप ही चला जाता है।
सन् 1969-71 के मध्य इंदिरा गांधी जी ने अपने आपको भारत की राजनीति में स्थापित कर लिया था।इंदिरा जी को इस समय जनता के बीच उनकी करिश्माई अपील का समर्थन प्राप्त था। इसका एक और कारण सरकार द्वारा लिए गए फैसले भी थे। इसमें जुलाई सन् 1969 में प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण व सितम्बर सन् 1970 में राज भत्ते(प्रिवी पर्स) से उन्मूलन शामिल हैं । इसके बाद, सिंडीकेट और अन्य विरोधियों के विपरीत, इंदिरा को "गरीब समर्थक , अर्थशास्त्र और धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद के साथ पूरे देश के विकास के लिए खड़ी, एक छवि के रूप में देखा गया। प्रधानमंत्री को विशेष रूप से वंचित वर्गों-गरीब, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों द्वारा बहुत समर्थन मिला। उनके लिए, वह उनकी इंदिरा अम्मा थी। सन् 1971 के आम चुनावों में, "गरीबी हटाओ" का इंदिरा जी का लोकलुभावन नारा लोगों को इतना पसंद आया कि पुरस्कार स्वरुप उन्हें एक विशाल बहुमत (518 में से 352 सीटें) से जीता दिया।दिसंबर सन् 1971 में, इनके सक्रिय युद्ध नेतृत्व में भारत ने पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) को अपने कट्टर दुश्मन पाकिस्तान से स्वतंत्रता दिलवाई। अगले महीने ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया, भारत के विपक्षी नेता आदरणीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने भी उन्हें दुर्गा के स्वरूप माना।
लेकिन सन् 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था।  चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी जी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया है, तय सीमा से अधिक खर्च किया है और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किया है। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया ।
सन् 1975 में  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी जी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी ।
यूँ तो इससे पहले दो बार देश में आपातकाल लगाया जा चुका था। एक, भारत-चीन युद्ध के समय सन् 1962 में तथा दूसरी बार, भारत-पाक युद्ध के समय 1971 के दौरान भी इमरजेंसी लगाई गई थी।
इन दोनों ही परिस्थितियों में बाहरी विपदाओं के कारण आपातकाल लगाया गया था मगर इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल पर आंतरिक सुरक्षा का हवाला दिया था ।
25 जून सन् 1975 की रात, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद से अनुरोध कर आपातकाल की घोषणा की। संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार देश में आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह पर करते हैं, हालाँकि आपातकाल की जानकारी ख़ुद कैबिनेट को अगले दिन सुबह 6 बजे मिली। एक बार आपातकाल की घोषणा होते ही सभी संघीय शक्तियाँ निरस्त हो जाती हैं और देश में केवल एक केंद्रीय सत्ता रहती है। ऐसे क्षण में जनता के मूल अधिकार भी उनसे छीन लिए जाते हैं। यहाँ तक कि अपने अधिकारों के हनन के लिए कोई व्यक्ति न्यायालय भी नहीं जा सकता था। आपातकाल लागू होते ही इंदिरा गाँधी ने अपना तानाशाही रवैया लागू करना शुरू कर दिया। आपातकाल लागू होते ही कई विपक्षी नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। इनमें राजनारायण, विजयराजे सिंधिया, जयप्रकाश नारायण, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, जीवनराम कृपलानी, अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी इत्यादि शामिल थे। ख़ुद कांग्रेस सरकार में मंत्री मोहन धारिया और चंद्रशेखर ने इस्तीफ़ा दे दिया। तमिलनाडु में एम करुणानिधि की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया व उनके बेटे स्टालिन को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक परम पूजनीय श्री बाला साहब देवरस थे।
जेल में बंद नेताओं का थर्ड डिग्री का उत्पीड़न किया जा रहा था। कई नेताओं को पुलिस द्वारा डंडों से पीटा गया, कई नेताओं के नाखून उखड़वा दिए गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस समय नेता व संगठन अपनी गिरफ़्तारी व संगठन को निरस्त किये जाने का न तो विरोध कर सकते थे, न ही उसे न्यायालय में चुनौती दे सकते थे। 
 इस आपातकाल को उखाड़ फेंकने में सबसे अहम किरदार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ही रहा था, इसे इंडियन रिव्यू के संपादक, पूर्व जस्टिस के टी थॉमस, शाह कमीशन भी मान चुके है।
तानाशाही का रवैया ऐसा था कि सरकार के विरोध में उठने वाले हर प्रयास को नाकाम कर, उन व्यक्तियों को जेल भेज दिया जाता था अथवा यदि वे किसी संगठन से जुड़े हैं तो उसे प्रतिबंधित किया जाता था। सरकार ने अनेक विरोध व हड़तालों को रोक दिया। कई सारे राजनेता, सरकार द्वारा गिरफ्तारी से बचने और अपना विरोध जारी रखने के लिए भूमिगत हो गए। सरकार के विरुद्ध लिखी जाने वाली हर ख़बर को सेंसर अर्थात निंदा मान छापने से रोक दिया जाता था और छापने पर गिरफ़्तार किया जाता था। अखबारों ने विरोध के तौर पर अपने सम्पादकीय पृष्ठ को ख़ाली छोड़ना शुरू किया।
इसी बीच आपातकाल का विरोध करने के लिए कई पत्रकारों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। तानाशाह होने का सबसे बड़ा रूप इंदिरा गाँधी ने अपने एक फ़ैसले में दिखाया, जिसे वह संविधान में संशोधन के रूप में लेकर आईं। इस फ़ैसले के द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के कार्यालय के फैसलों को न्यायालय में चुनौती दिया जाना असंभव कर दिया गया। संविधान में 42वें संशोधन द्वारा अनैतिक व काले कानून जोड़े गए। इसके माध्यम से आम चुनाव की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गयी थी, और ऐसे भी नियम बनाए गए थे कि आपातकाल में चुनाव की अवधि एक वर्ष अधिक बढ़ा दी जाए।
इंदिरा गांधी का यह प्रयास ऐसा था मानो वह कभी चाहती ही नहीं थी कि चुनाव कराए जाएं।  इंदिरा जी व उनके  बेटे संजय गाँधी के नेतृत्व में देशभर में जबरन नसबंदी के कार्यक्रम चलाए गए। संजय गाँधी  जबरन नसबंदी कराने पर उतारू हो गए थे। इसके कारण देशभर के अनेक लोग उत्पीड़ित किये गए, जिनमें से कई ने अपनी जान तक गंवाई।
कई लोगों की जबरन दो बार नसबंदी कराई गयी और कई आजीवन विकलांग बन गए। केवल इतना ही नहीं नसबंदी के लिए पुलिस ने कई जगह दंगों जैसे हालात बना दिए और कई जगह पर तो उन्हें आँसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े थे। उत्पीड़न की सीमा यहीं समाप्त नहीं हुई, प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार को जब सरकार के लिए एक कार्यक्रम में गाने को कहा गया तो उन्होंने मना कर दिया, जिसके बाद से गैर आधिकारिक रूप से रेडियो पर उनके गाने चलाने बन्द कर दिए गए।
दूरदर्शन और रेडियो का प्रयोग सरकार के एजेंडे को चलाने के लिए किया गया। कई फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया व उन्हें रिलीज़ होने से रोक दिया। 
आपातकाल का सबसे पहला विरोध समाचार पत्रों व पत्रिकाओं ने किया। उनमें लेख लिखकर, संपादकीय खाली छोड़ कर, सेंसरशिप के सामने झुकने के बजाए बन्द हो जाने के रास्ते को चुनकर पत्रिकाओं ने आपातकाल का सबसे पहला विरोध किया। अवार्ड वापसी का दौर उस समय भी चला था हालाँकि उस समय इंदिरा गांधी के डर के कारण अवार्ड वापस करने के लिए बहुत अधिक नाम सामने नहीं आ सके थे ऐसे में हिंदी के साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपना पद्मश्री सम्मान व कर्नाटक से कन्नड़ साहित्यकार शिवर्म करनाथ ने अपना पद्म भूषण लौटा दिया था।
विरोध का सिलसिला यहीं नहीं थमा, देश के 9 उच्च न्यायालयों ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई कि आपातकाल होने के बावजूद देश की जनता को अपनी गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ न्यायालय जा कर उसे चुनौती देने का अधिकार मिलना ही चाहिए, जिसे इंदिरा गाँधी द्वारा नियुक्त किये गए न्यायाधीश ए एन राय ने खारिज कर दिया। आपातकाल का अगर किसी संगठन ने मुखर रूप से विरोध किया और उसे समाप्त किया तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन था। प्रतिबंधित होने के बावजूद संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं (जिनमें आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी थे) ने योजना बनाकर, जेल में बंद नेताओं से मुलाक़ात करते हुए आपातकाल का विरोध जारी रखा। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक आपातकाल में हिरासत में लिए गए कार्यकर्ताओं व नेताओं की संख्या 1 लाख 40 हज़ार से भी अधिक थी और उनमें 1 लाख से भी अधिक कार्यकर्ता व नेता आरएसएस से जुड़े थे।
उन दिनों ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने संघ को ‘विश्व का एकमात्र ग़ैर वामपंथी क्रांतिकारी संघठन’ घोषित किया था। कुछ दिनों पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस के टी थॉमस, आरएसएस को आपातकाल से मुक्त कराने वाला बता चुके हैं। संघ के तृतीय वर्ष शिविर में उन्होंने कहा- “अगर किसी संगठन को आपातकाल से देश को मुक्त कराने के लिए क्रेडिट दिया जाना चाहिए, तो मैं आरएसएस को दूंगा।” आपातकाल के दौरान संघ ने देशभर में सत्याग्रह का आयोजन किया जिसमें तकरीबन 1 लाख 30 हज़ार लोग जुड़े और उनमें से भी 1 लाख से अधिक लोग संघ के ही कार्यकर्ता थे। इतना ही नहीं, जो साहित्य आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित किए जाते थे, संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं ने पूँजी लगाकर उन्हें प्रकाशित कराया और उनका वितरण भी किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता अधिकांश बंदी गृह और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हो गए। उनमे संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीरसागर भी थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों ने इस आपातकाल के दौरान अहिंसा व सत्याग्रह जैसे रास्तों का सहारा लेकर इंदिरा गांधी को महात्मा गांधी जी का वह मार्ग दिखाया, जिससे वह भटक चुकी थीं।
करीबन 19 महीने आपातकाल चलने के बाद इंदिरा गाँधी को यह एहसास हुआ कि अब शायद देश में उनका विरोध समाप्त हो गया है और फिर उन्होंने चुनाव कराने का फैसला किया। जनवरी सन् 1977 में चुनावों की घोषणा हुई, हालाँकि आपातकाल मार्च सन् 1977 में चुनावों के साथ समाप्त हुआ। इस तरह 21 महीने इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन में भारतीय लोकतंत्र को बंदी बनकर रहना पड़ा। चुनाव के दौरान अधिकांश विपक्षी दल एकजुट होकर जनता पार्टी के रूप में जनता के सामने आए, उन्होंने लोकतंत्र को जीवित रखने की ख़ातिर इंदिरा गांधी को हटाने का आह्वान किया। जनता मन बना चुकी थी, इस तरह सन् 1977 में तानाशाही की हार हुई। जनता पार्टी 298 सीटें लेकर बहुमत में आई और पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसमें मोरारजी देसाई देश के पहले ग़ैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस 92 सीटों पर सिमट कर रह गयी, जिनमें से अधिकांश सीटें उसे दक्षिण भारत में मिली। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। इंदिरा जी व उनके बेटे संजय गाँधी स्वयं चुनाव हार गए। आने वाले समय में जनता पार्टी ने इंदिरा गाँधी को जेल भी भेजा, संविधान में हुए बदलावों को ठीक किया और दो सालों तक देश को इंदिरा गाँधी से मुक्त रखा।
देश की जनता को साम्राज्यवादी मानसिकता से बचाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्ञात व अज्ञात उन सभी कार्यकर्ताओं को शत् शत् नमन।
समाप्त।

शनिवार, 20 जून 2020

राजस्थान का नामकरण संकलन- अशोक चौधरी मेरठ।

जार्ज थामस आयरलैंड के रहने वाले थे,वह सन् 1800 से सन् 1805 तक ग्वालियर के राजा दोलतराव सिंधिया के सेनापति रहे।इस समय में वो अपनी दैनिक दिनचर्या की एक डायरी लिखते थे, सन् 1805 मे जार्ज थामस का तबादला हो गया, उनके स्थान पर विलियम फ्रेंकलिन अधिकारी बन कर आये।जाते समय जार्ज थामस की वह डायरी ग्वालियर में ही छूट गई तथा विलियम फ्रेंकलिन को मिल गई।इन विलियम फ्रेंकलिन ने इस डायरी को पुस्तक के रुप में छपवाया।इस डायरी में ही राजपूताना शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1800 ई. में जॉर्ज थॉमस ने किया।

विलियम फ्रेंकलिन ने 1805 में ‘मिल्ट्री मेमोयर्स ऑफ मिस्टर जार्ज थॉमस‘ नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें उसने कहा कि जार्ज थॉमस सम्भवतः पहला व्यक्ति था, जिसने राजपूताना शब्द का प्रयोग इस भू-भाग के लिए किया था।

कर्नल टॉड सन् 1817 से सन् 1822 तक मेवाड़ रियासत के रेजिडेंट बनकर रहे तथा सन् 1826 में लंदन वापस चले गए। लंदन जाने के तीन वर्ष बाद सन् 1829 में कर्नल टॉड ने एक पुस्तक लिखी,जिसका नाम था Annals & Antiquities of Rajas'than' (or Central and Western Rajpoot States of India) इस पुस्तक को भारतीय विद्वान टॉड  नामा के नाम से भी कहते हैं। कर्नल टॉड के मित्र विलियम क्रुक ने इस पुस्तक का संपादन किया, कर्नल टॉड ने इस पुस्तक को अपने भारतीय गुरू जैनयति  ज्ञानचंद्र को समर्पित किया।

इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद सन् 1927 में पं गोरी शंकर हरीचंद ओझा जो राजस्थान के सिरोही जिले के रहने वाले थे, ने किया तथा इस हिन्दी अनुवाद की गई पुस्तक का नाम राजपूताने का इतिहास रखा। कर्नल टॉड की इस पुस्तक का लेखन संसमरणात्मक है अर्थात लंदन जाकर जो उनको राजस्थान के विषय में संस्मरण में था, उन्होंने लिख दिया। परन्तु पं ओझा के हिंदी अनुवाद में राजपूताने का इतिहास शीर्षक देने के कारण भारतीय विद्वानों ने इसको कर्नल टॉड के द्वारा लिखा राजपूताने का इतिहास ही समझ लिया।

कर्नल जेम्स टॉड ने इस प्रदेश का नाम ‘रायथान‘ क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को ‘रायथान‘ कहते थे। उन्होंने 1829 ई. में लिखित अपनी प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तक 'Annals & Antiquities of Rajas'than' (or Central and Western Rajpoot States of India) में सर्वप्रथम इस भौगोलिक प्रदेश के लिए राजस्थान शब्द का प्रयोग किया।

सन् 1832 में लंदन में ही"द ट्रैवलर्स इन वैस्टर्न इंडिया"नाम से एक और पुस्तक लिखी।जो सन् 1839 में कर्नल टॉड की मृत्यु के बाद उनके मित्र विलियम क्रुक के द्वारा ही सम्पादित कर प्रकाशित की गई।

संदर्भ

विनोद कश्यप, सितंबर सन् 2019,यू ट्यूब-राजस्थान का नामकरण।

https://youtu.be/xWcq6r_rmyk

बुधवार, 10 जून 2020

भारतीय समाज में व्याप्त भेद-भाव को दूर करने के लिए आरक्षण, दवा है या बीमारी -लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

जब कोई व्यक्ति बिमार हो जाता है तो वह डाक्टर के पास जाता है, डाक्टर के लिए वह एक मरीज है,उस मरीज की बिमारी की पहचान कर डाक्टर उसे दवाई दे देता है।जब बिमारी ठीक हो जाती है तो मरीज की दवाई बंद कर देता है, ठीक ना हो तो दवाई की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होती,वह मरीज के स्वस्थ होने तक चलती है।
बिल्कुल उसी प्रकार भारतीय समाज रूपी मरीज को आपसी भेदभाव की बिमारी लगी हुई थी,देश के नेताओं अर्थात डाक्टरों ने मरीज को आरक्षण नाम की दवाई दी।क्योकि भेदभाव का आधार जाति थी अतः जातियों को ही समूहों में बांट कर इलाज प्रारंभ किया गया, जैसे एससी एसटी ओबीसी आदि।
आजादी के बाद जब भारत का नव निर्माण प्रारम्भ हुआ ।तब कुछ समझदार लोगों ने ऐसा महसूस किया कि  किसी हाल की छत ज्यादा बड़ी हो तो वह छत बीच से टूट कर न गिर जाए, उसे मजबूती देने के लिए पीलर की सपोर्ट दे देते हैं।ये एससी एसटी और ओबीसी नाम के पीलर नये भारत रूपी हाल की छत को सपोर्ट देने के लिए हमारे संविधान के निर्माताओं ने लगाये।
लेकिन देश के एक तबके का यह प्रारम्भ से ही कहना रहा कि आरक्षण नही होना चाहिए, इससे प्रतिभा का हनन होता है, अर्थात आरक्षण दवाई नहीं बिमारी है।क्या वास्तव में आरक्षण से प्रतिभा का हनन होता है?क्या आरक्षण गुण पर ग्रहण लगाता है?
गुण समाज की उन्नति का आधार है, यदि गुण अथवा आरक्षण में से किसी का चुनाव करना पड़े तो चुनाव गुण का ही करना चाहिए। आइए इस पर विचार करते हैं। 
साहित्य समाज का दर्पण है,जब कोई व्यक्ति दर्पण के सामने खड़ा होता है तो उसकी सूरत वैसी ही दिखती है जैसी होती है।जो दर्पण में अपनी सूरत देखकर डरते हैं उसमें दोष दर्पण का नही है।अपनी सूरत का है। हमारे यहां रामायण और महाभारत दो सबसे प्रसिद्ध साहित्य है। रामायण में भगवान राम सर्वगुण संपन्न मर्यादा पुरुषोत्तम महा बलशाली व्यक्तित्व है।वो गुणों का भंडार है।वो अपने भाईयों में सबसे बड़े थे। उन्हें राजा बनने के लिए तत्तकालीन समयानुसार आरक्षण का कवच भी प्राप्त था,क्योकि राजगद्दी  राजा के बड़े पुत्र के लिए आरक्षित थी, यदि कोई बहुत बड़ा अवगुण बड़े पुत्र में  हो ,तभी किसी छोटे भाई को राजा बनाया जा सकता था।
लेकिन सब समीकरण पक्ष में होते हुए भी राम को राजतिलक के स्थान पर वनवास मिला। यहां पर गुण व अधिकार को हानि किसने पहुंचाई।क्या आरक्षण ने? जबाव है नहीं।हानि निर्णय की शक्ति प्राप्त राजा दशरथ ने की।क्योकि उनके मन में उनकी रानी कैकेई ने अपने वरदानों की शक्ति से भेदभाव करने की मजबूरी पैदा कर दी। अर्थात हानि निर्णायक स्थान पर बैठै व्यक्ति के द्वारा भेदभाव करने के कारण हुई।जब भी समाज में अधर्म बढा उसके कारण सर्वाधिक हानि महिला की हुई। माता सीता वन में गई,उनका रावण द्वारा अपहरण हुआ।उनकी अग्नि परिक्षा ली गई।उनको पुनः वनवास दिया गया।
अब महाभारत को देखते हैं तो इस काल में भी राजगद्दी राजा के बड़े पुत्र के लिए ही आरक्षित थी। धृतराष्ट्र बड़े थे लेकिन उनका सबसे बड़ा अवगुण यह था कि वो नेत्रहीन थे। अतः आरक्षण का कवच उनके अधिकार की रक्षा नहीं कर सका। उनके छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया।महाराज पांडु की असमय मृत्यु के कारण धृतराष्ट्र गद्दी पर बैठे।महाराज पांडु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर बड़े होने के कारण तथा गुणवान होने के कारण राजगद्दी के अधिकारी थे। परंतु निर्णय देने की शक्ति वाले राजा धृतराष्ट्र के मन में भेदभाव था वो अपने पुत्र दुर्योधन को राजा बनाना चाहते थे। इसलिए आरक्षण का कवच होते हुए भी व गुणवान होते हुए भी पांडु पुत्रो को वन में भटकना पडा।इस काल में भी सबसे ज्यादा पीडा महिला के हिस्से में आयी। द्रोपदी सबसे अधिक अपमानित हुई।यह वह काल था जिसमें मनुष्यों की एक श्रेणी जिसे दास कहते थे,के कोई मानवाधिकार नही थे।दासी को भरी राजसभा में वस्त्रहीन किया जाय तो कोई बचाने वाला नहीं था।रानी द्रोपदी को दासी बनाकर उसको भरी सभा में वस्त्रहीन करने का प्रयास किया गया।यह पाप आरक्षण के कारण नहीं हुआ।बल्कि निर्णय करने की शक्ति जिसके पास थी,उसके मन में व्याप्त भेदभाव के कारण हुआ।
अब हम नये भारत पर दृष्टि डालते हैं।ईसा से 300 वर्ष पूर्व सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय उनके दरबारी मेगनिथिज ने इंडिका नामक ग्रंथ लिखा, उसमें भारतीय समाज का विवरण है जिसमें किसी प्रकार का कोई भेदभाव दिखाई नहीं देता। सन् 400 के लगभग एक चीनी यात्री फाईयांग भारत भ्रमण के लिए आया था उसने अपनी पुस्तक में उस समय के  भारतीय समाज का वर्णन किया है। जिसमें वह भारत में एक वर्ग का वर्णन करता है जिसे हम पुराने समय में अछूत तथा वर्तमान समय में अनुसूचित जाति कहते हैं। सन 620 के बाद चीनी यात्री ह्वेनसांग भी अपने ग्रंथ में अछूतों की बात करता है। उससे आगे सन् 1100 के बाद वर्तमान राजस्थान में हम देखते है कि नरवर के कछवाहो ने आमेर के मीणाओ से जो आमेर के शासक थे, आमेर को छीन लिया। सन् 1241 के आसपास चौहानों ने बूंदी के मीणाओ से बूंदी को तथा कोटा के भील शासकों से कोटा को छीन लिया। दोनों ही शासक वर्ग आदिवासी कहे जाते हैं तथा नये भारत में अनुसूचित जनजाति में आते हैं जो तत्कालीन समय में शासक वर्ग थे। सन् 1192 मैं दिल्ली पर तुर्की शासन की स्थापना के बाद से भारत के किसानों का लगातार शोषण किया गया, भारतीय राजा अपने किसानों से फसल का छठा हिस्सा यानि 16% लगान के रूप में लिया करते थे, विदेशी तुर्की शासकों ने अपने शासन के अंतर्गत आने वाले किसानों से फसल का आधा भाग यानि 50% लगान लेना शुरू किया। भारतीय राजाओं को जब किसान किसी कारण वश लगान नहीं दे पाता था तो राजा किसान की समस्या सुनता था, समस्या को दूर करने की कोशिश करता था। परंतु विदेशी शासकों द्वारा लगान बडी कठोरता से वसूला जाता था। समस्या तो सुनी ही नहीं जाती थी, लगान ना देने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा देना,उनकी महिलाओं को अपमानित करना तथा छोटे बच्चों को जलती आग में फेंक दिया जाता था।  जिसका प्रतिकार भारतीय करते रहे परंतु अकबर के समय सन् 1570 के लगभग जो भारतीय मुगल सत्ता में भागीदारी बनें, तथा सत्ता में भागीदार भारतीयों ने अपने भारतीय किसानों का शोषण करवाने में विदेशीयों का जो सहयोग किया। अकबर के शासनकाल में भी लगान फसल का 50% ही लिया जाता था। अकबर के समय शासक वर्ग के दो चेहरे बन गए थे,एक चेहरा जो दूर से देखने में बड़ा उदार दिखता था जिसमें भारतीय बड़े बड़े मनसबदार थे, अकबर के नवरत्नों में से कई नवरत्न भारतीय थे।ऐसा लगता था कि शासन आम जनमानस के लिए न्यायकारी है। परन्तु ऐसा था नहीं। अकबर ने भारतीयों को ही आम किसान को लूटने के लिए अपनी सत्ता में साझीदार बना लिया था।अकबर के समय के तत्तकालीन रामचरितमानस के रचियता तुलसी दास जी ने अपनी चोपाई में अकबर के शासनकाल के समय आम आदमी की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली।
बनिक को न बनिज,न चाकर को चाकरी।।
जिविका विहीन लोग,सीधमान सोच बस।
कहे एक एकन सो,कहां जाय का करी।।
मुगल शासकों की इस लूट से बचने के लिए किसानों ने भारी संघर्ष किया,जिसे भारतीय इतिहास में जाटों का विद्रोह कहते हैं। किसानों का मुगल सत्ता से सन् 1636 से लेकर अंग्रेजों के दिल्ली पर काबिज होने तक संघर्ष जारी रहा।
इसके बाद सन् 1818 में अंग्रेजों का भारत पर अधिकार हो गया। अंग्रेजों के शासन में किसानों का शोषण मुगलों के समय से भी अधिक था। अंग्रेजों ने देशी राजाओं से संधि करके उनकी सुरक्षा हेतु अपनी सेना तेनात कर दी।इस सेना का खर्च भारतीय राजा वहन करते थे, अपने व अपनी सेना के खर्चों की पूर्ति के लिए किसानों पर कर बढा दिये गये। शोषण इतना बढ़ा कि सन् 1857 में क्रांति हो गई।
क्रांति के परिणाम स्वरूप इस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया परन्तु रानी विक्टोरिया का शासन आ गया। किसान फिर भी प्रताड़ित होता रहा। बड़े किसान आन्दोलन हुए। इन आंदोलनों के विजय सिंह पथिक प्रसिद्ध नेता रहे। राजस्थान का बिजोलिया किसान आंदोलन जो सन्1897 से लेकर सन् 1941 तक 44 वर्ष चला।यह वह स्थान था कि किसान को अपनी बेटी की शादी करने के लिए भी चंवरी कर के नाम से 5 रुपए कर देना पडता था।17 नवम्बर सन् 1913 को राजस्थान में भील आंदोलन हुआ जिसमें अंग्रेजी सरकार ने गोली से 1500 भीलों को मार डाला।13 अप्रैल सन् 1919 को जलियांवाला बाग कांड हुआ, जिसमें 379 लोगों के मारे जाने व 200 लोगों के घायल होने की बात अंग्रेजों की सरकार ने स्वीकार की।2 अप्रैल सन् 1921 में राजस्थान में भील आंदोलन के दौरान 1200 भीलों को मार डाला। 14 मई सन् 1925 को नीमूचान किसान आंदोलन के अंतर्गत राजस्थान के अलवर में आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस अधिकारी छाजू सिंह ने गोली चलवा दी जिससे सैकड़ों किसान मारे गए।महात्मा गांधी ने इस कांड को दूसरा जलियांवाला बाग बताया। राजस्थान में ये नरसंहार स्थानिय रियासत के राजाओं के माध्यम से किये गये।
20 मार्च सन् 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड़ नामक स्थान पर डा अम्बेडकर ने तालाब से अछूतों को पानी पीने के लिए आंदोलन किया,2 मार्च सन् 1930 को नासिक जिले में स्थित कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए अम्बेडकर जी ने आंदोलन किया। यहां भारतीय ही भारतीयों को तालाब से पानी नही पीने दे रहे थे तथा मंदिर में नहीं जाने दे रहे थे। सन् 1931के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में डा अम्बेडकर जी ने दलितों का पक्ष लंदन में अंग्रेजों के सामने रखा तथा दलितों के लिए राजनेतिक क्षेत्र व सरकारी नौकरी में आरक्षण प्राप्त कर लिया।
उपरोक्त परिस्थितियों के कारण भारतीय समाज में भारतीयों में एक सत्ता समर्थित वर्ग तथा दूसरा इनसे संघर्ष के कारण पिछडा वर्ग भी बन गया।
सन् 1947 में अंग्रेजों ने ब्रिटिश भारत का भारत व पाकिस्तान में विभाजन कर दिया।उस समय भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे।इस बंटवारे में करीब डेढ़ करोड़ लोगों का पलायन बहुमत सम्प्रदाय के देश में जाने के लिए हुआ। करीब 20 लाख लोग मारे गए। बंटवारा करने से पहले लोगों के जान-माल की सुरक्षा के जो उपाय शासक वर्ग को करने चाहिए थे वो नही किए गए। जिस कारण इतनी हानि हुई। अब भारत का शासन चलाने के लिए संविधान की रचना की गई।क्योकि सत्ता का हस्तांतरण भारतीयों को अंग्रेजों के द्वारा किया गया था, इसलिए जो देश की नौकरशाही थी वह अंग्रेजों के द्वारा ही बनाईं हुई थी।इस नौकरशाही को भारतीयों को ही लूटने खसोटने का प्रशिक्षण अंग्रेजों ने दे रखा था,वह ज्यो की त्यो भारतीय जनता की छाती पर बैठी हुई थी। इसमें धीरे धीरे हजारों वर्षों से मुगल व अंग्रेजों के शासन के विरोधी रहे समुदायों के लोगों का भी प्रवेश हो उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। राजनेतिक समानता, आर्थिक समानता तथा सामाजिक समानता के लिए आरक्षण के माध्यम से सरकारी तंत्र में तथा देश में गरीबों के उत्थान के लिए बनायी योजनाओं के लिए एक संवेदनशील तंत्र विकसित हो,इसकी व्यवस्था भारत की संसद को करनी थी। लेकिन जब व्यवस्था को लागू करने की सामर्थ्य प्राप्त लोगों के मन में भेदभाव हो तो वह कैसे लागू होती।जैसा हम बता चुके हैं कि देश के बंटवारे के समय जो पलायन व नरसंहार हुआ,उसे रोकने की समुचित व्यवस्था अंतिम गवर्नर जनरल माउंटबेटन तथा अंतरिम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को करनी थी जो उन्होंने नही की। देश आजाद होने के बाद आजाद हिन्द फौज के करीब 70000 सिपाही जिनको अंग्रेज सरकार ने लाल किला ट्रायल के दौरान मांफ कर दिया था, को आजाद भारत में पुनः नोकरी पर नही रखा गया,जबकि सन् 1857 की क्रांति से सम्बंधित लगभग 24000 अपदस्थ सिपाहियो को अंग्रेज अधिकारी जान लोरेंस ने नवम्बर सन 1858 में कम्पनी का शासन समाप्त हो जाने के बाद  ब्रिटिश सेना की सेवा में ले लिया था।  नेहरू जी अंग्रेजों से भी अधिक सख्त निकले। एससी एसटी को आरक्षण तो ब्रिटिश सरकार ने ही दे दिया था, परंतु ओबीसी के आरक्षण के लिए संविधान में धारा 340 के अंतर्गत व्यवस्था की गई थी।
29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग महान साहित्यकार काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ, जिसे काका कालेलकर आयोग कहा गया।कालेलकर साहब ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंदीय सरकार को सौंपी थी।

इस महान साहित्यकार ने अपनी अनुशंसाओं में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने, सम्पूर्ण स्त्री वर्ग को पिछड़ा मानते हुए मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70%, सभी सरकारी व स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी में 25%, द्वितीय श्रेणी में 33.33% तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 40% आरक्षण की सिफारिश की थी।

तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु ने  कालेलकर आयोग की सिफारिशें ख़ारिज कर दी  और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा दिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा अतः इसे लागू न किया जाय।

पंडित जवाहरलाल नेहरू विदेशी अंग्रेजों के अंतरिम सरकार में बनाए प्रधानमंत्री थे तथा आजाद भारत में भी प्रधानमंत्री बने।उनके इस पद पर बने रहने के कारण तो भारतीय समाज में गडबड नही हुई, परंतु गरीबों की उन्नति के लिए कुछ सुधार करने में उन्हें गडबड दिखाई दे रही थी।वो अपने जीवन में कश्मीर की समस्या, चीन के द्वारा हमले के दोरान भारत की हार के लिए दोषी होते हुए भी। अपने आप को अपनी ही अध्यक्षता में भारत रत्न लेकर दुनिया से रुखसत हुए।क्योकि उन्हें इस बात का आभास था कि उनके बाद के नेता उनकी भारत को दी गई महान सेवाओं का मूल्यांकन नही कर पायेंगे और वो भारत रत्न को खो देंगे।
भारत के आजाद होते ही जो अंग्रेज परस्त भारतीय सरकारी सेवाओं में थे उन्होंने यह प्रचार प्रारंभ कर दिया कि एससी-एसटी को जो आरक्षण दिया गया है उसके कारण से प्रतिभा हनन हो रहा है, इसलिए आरक्षण प्राप्त लोगों को हानि पहुंचाने की आजादी के प्रारंभ से ही कोशिश शुरू कर दी गई।पद के योग्य उम्मीदवार नही मिल रहे यह बहाना लेकर आरक्षित पदो को गेर आरक्षित वर्ग से भरा गया। 
किसी भी शासन में सबसे महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका होता है। न्यायाधीश तभी सही मे न्याय कर सकता है,तब उसके मन में सभी के प्रति करुणा (संवेदनशीलता)हो,न्याय का आधार करुणा है और करुणा का आधार सम्बंध है। परंतु भारत में जातिय आधार पर बटा समाज एक दूसरे के प्रति सम्बन्ध से कटा हुआ है।क्योकि न्यायाधीश भी इसी समाज से जाते हैं इसलिए वह भी इस दोष से मुक्त नही होते। इसलिए भारत के न्यायालयों के निर्णय एससी-एसटी व निर्बल वर्ग के विरोध में जाते दिखाई देते हैं। सन् 60-70 के दशक में अधिकांश न्यायाधीश जमींदारों के परिवार से होते थे।एक न्यायाधीश के सुब्बाराव ने तीन भूमि सुधारों के विरोध में फैसला दिया तथा सन् 1967 में अपने पद से इस्तीफा देकर जमींदारों की स्वतंत्र पार्टी से राष्ट्रपति का चुनाव लडा। सन् 1997-2002 तक भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन जी थे। उनके सामने उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की फाइल कोलोजियम के माध्यम से पहुची तब राष्ट्रपति महोदय ने नियुक्ति की फाइल पर नोटिंग कर वापस भेज दिया। राष्ट्रपति महोदय के सचिव गोपाल कृष्ण गांधी ने उस फ़ाइल पर लिखा कि एससी-एसटी के योग्य उम्मीदवार होने के बाद भी उनकी जजों के पद पर नियुक्ति ना होना ठीक नहीं है।तब जस्टिस केजी बालाकृष्णन सुप्रिम कोर्ट में पहले एससी-एसटी वर्ग के न्यायाधीश बने थे। भारत की जेलों में 67% लोग बिना सजा के बंद है जिसमें 66% एससी एसटी वर्ग के हैं। भारत की न्यायपालिका में मुसलमान व ईसाई समुदाय से एक जज अवश्य रहता है।तीन तलाक़ व राम मंदिर के निर्णय के लिए जो पांच जजों की पीठ थी उसमें पांच जजों में से एक मुस्लिम जज भी था। परंतु आरक्षण पर सुनवाई करने वाली पीठ में आरक्षित वर्ग से कोई जज नहीं होता। इसलिए आरक्षण के विरूद्ध फैसले तुरंत आ जाते हैं।
लम्बे समय तक पिछड़ों का क़ानूनी अधिकार समाजवादियों के नारों में “सोशलिस्ट पार्टी बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ” गूंजता रहा।1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने तथा चौधरी चरण सिंह जी गृहमंत्री बने तब  कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बजाय पुनः दुबारा दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (यादव) के नेतृत्व में 1 जनवरी 1979 को बनाया गया, जिसे मंडल आयोग कहा गया।

मंडल साहब ने पूरे देश में घूम-घूमकर लगभग 3,000 जातियों को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा घोषित कर 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी। मान्यवर कांशीराम जी के द्वारा बनाए गए नैतिक दबाव तथा श्री शरद यादव जी के अथक प्रयास से इस रिपोर्ट के आधार पर सन् 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिश पर ओबीसी को आरक्षण दिया गया।

सन् 1995 से लेकर 2011 तक करीब तीन लाख किसानों ने आत्म हत्या कर ली । जो आज तक जारी है। मजदूर वर्ग का पलायन शहर की ओर को बढ़ गया। शहर में झुग्गी झोपड़ी की बस्तियां बढ़ गई।
इन परिस्थितियों से निपटने के लिए सरकार ने समय समय पर आयोग बनाए, जिसमें  सन 2006 में स्वामी नाथन आयोग ने किसानों के विषय में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कहा, किसानों के कर्ज भी माफ हुए। सन् 2006 में ही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बताया कि देश में मुस्लिमो की स्थिति दलितों से भी खराब बताई गई है। अर्जुन सेन गुप्ता कमिशन ने अप्रैल 2009 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश की 75% आबादी भूखमरी के कगार पर है। इससे निबटने के लिए भारत सरकार ने मनरेगा योजना का प्रारम्भ किया।
 देश की निति निर्धारक पदो पर ये ही गेर आरक्षित श्रेणी के लोग आज भी बहुमत मे है, लेकिन आजाद भारत के 73 सालों में भारत की गरीबी, किसानों के हालत सबके सामने है। भारत की 80% आबादी गरीबी से त्राहि-त्राहि कर रही है। भारत के संविधान का अभिभावक भारत का सुप्रिम कोर्ट है। वहां एससी एसटी ओबीसी के जजों की संख्या न के बराबर है।शुरू में यह दलिल दी जाती थी कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के नम्बर गेर आरक्षित वर्ग से कम होने पर नोकरी लग रही है कितना बड़ा अन्याय हो रहा है, परन्तु अब आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के नम्बर गेर आरक्षित वर्ग से ज्यादा होने पर वो नोकरी से वंचित हो रहे हैं तो इस पर सब मोन है, उत्तर प्रदेश से सांसद श्रीमती अनुप्रिया पटेल जी ने यह विषय संसद में बडी मजबूती से रखा है।सही मायने में  इन आरक्षण विरोधियों का उद्देश्य देश के नागरिकों के साथ न्याय नहीं है, किसी भी तरीके से देश के सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाये रखने का है। इसलिए इन लोगों ने आरक्षण नाम की दवाई को बीमारी घोषित कर रखा है। भारत रूपी मकान की छत गिरे या बचे,इनको इससे कोई मतलब नहीं है, एससी एसटी ओबीसी नामक जो पिलर छत की सपोर्ट के लिए जो भारत के संविधान निर्माताओं ने खडे किए हैं,ये उन पिलरो को छत के नीचे से निकाल देना चाहते हैं। जो देश हित में नहीं है।
समाप्त