जब कोई व्यक्ति बिमार हो जाता है तो वह डाक्टर के पास जाता है, डाक्टर के लिए वह एक मरीज है,उस मरीज की बिमारी की पहचान कर डाक्टर उसे दवाई दे देता है।जब बिमारी ठीक हो जाती है तो मरीज की दवाई बंद कर देता है, ठीक ना हो तो दवाई की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होती,वह मरीज के स्वस्थ होने तक चलती है।
बिल्कुल उसी प्रकार भारतीय समाज रूपी मरीज को आपसी भेदभाव की बिमारी लगी हुई थी,देश के नेताओं अर्थात डाक्टरों ने मरीज को आरक्षण नाम की दवाई दी।क्योकि भेदभाव का आधार जाति थी अतः जातियों को ही समूहों में बांट कर इलाज प्रारंभ किया गया, जैसे एससी एसटी ओबीसी आदि।
आजादी के बाद जब भारत का नव निर्माण प्रारम्भ हुआ ।तब कुछ समझदार लोगों ने ऐसा महसूस किया कि किसी हाल की छत ज्यादा बड़ी हो तो वह छत बीच से टूट कर न गिर जाए, उसे मजबूती देने के लिए पीलर की सपोर्ट दे देते हैं।ये एससी एसटी और ओबीसी नाम के पीलर नये भारत रूपी हाल की छत को सपोर्ट देने के लिए हमारे संविधान के निर्माताओं ने लगाये।
लेकिन देश के एक तबके का यह प्रारम्भ से ही कहना रहा कि आरक्षण नही होना चाहिए, इससे प्रतिभा का हनन होता है, अर्थात आरक्षण दवाई नहीं बिमारी है।क्या वास्तव में आरक्षण से प्रतिभा का हनन होता है?क्या आरक्षण गुण पर ग्रहण लगाता है?
गुण समाज की उन्नति का आधार है, यदि गुण अथवा आरक्षण में से किसी का चुनाव करना पड़े तो चुनाव गुण का ही करना चाहिए। आइए इस पर विचार करते हैं।
साहित्य समाज का दर्पण है,जब कोई व्यक्ति दर्पण के सामने खड़ा होता है तो उसकी सूरत वैसी ही दिखती है जैसी होती है।जो दर्पण में अपनी सूरत देखकर डरते हैं उसमें दोष दर्पण का नही है।अपनी सूरत का है। हमारे यहां रामायण और महाभारत दो सबसे प्रसिद्ध साहित्य है। रामायण में भगवान राम सर्वगुण संपन्न मर्यादा पुरुषोत्तम महा बलशाली व्यक्तित्व है।वो गुणों का भंडार है।वो अपने भाईयों में सबसे बड़े थे। उन्हें राजा बनने के लिए तत्तकालीन समयानुसार आरक्षण का कवच भी प्राप्त था,क्योकि राजगद्दी राजा के बड़े पुत्र के लिए आरक्षित थी, यदि कोई बहुत बड़ा अवगुण बड़े पुत्र में हो ,तभी किसी छोटे भाई को राजा बनाया जा सकता था।
लेकिन सब समीकरण पक्ष में होते हुए भी राम को राजतिलक के स्थान पर वनवास मिला। यहां पर गुण व अधिकार को हानि किसने पहुंचाई।क्या आरक्षण ने? जबाव है नहीं।हानि निर्णय की शक्ति प्राप्त राजा दशरथ ने की।क्योकि उनके मन में उनकी रानी कैकेई ने अपने वरदानों की शक्ति से भेदभाव करने की मजबूरी पैदा कर दी। अर्थात हानि निर्णायक स्थान पर बैठै व्यक्ति के द्वारा भेदभाव करने के कारण हुई।जब भी समाज में अधर्म बढा उसके कारण सर्वाधिक हानि महिला की हुई। माता सीता वन में गई,उनका रावण द्वारा अपहरण हुआ।उनकी अग्नि परिक्षा ली गई।उनको पुनः वनवास दिया गया।
अब महाभारत को देखते हैं तो इस काल में भी राजगद्दी राजा के बड़े पुत्र के लिए ही आरक्षित थी। धृतराष्ट्र बड़े थे लेकिन उनका सबसे बड़ा अवगुण यह था कि वो नेत्रहीन थे। अतः आरक्षण का कवच उनके अधिकार की रक्षा नहीं कर सका। उनके छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया।महाराज पांडु की असमय मृत्यु के कारण धृतराष्ट्र गद्दी पर बैठे।महाराज पांडु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर बड़े होने के कारण तथा गुणवान होने के कारण राजगद्दी के अधिकारी थे। परंतु निर्णय देने की शक्ति वाले राजा धृतराष्ट्र के मन में भेदभाव था वो अपने पुत्र दुर्योधन को राजा बनाना चाहते थे। इसलिए आरक्षण का कवच होते हुए भी व गुणवान होते हुए भी पांडु पुत्रो को वन में भटकना पडा।इस काल में भी सबसे ज्यादा पीडा महिला के हिस्से में आयी। द्रोपदी सबसे अधिक अपमानित हुई।यह वह काल था जिसमें मनुष्यों की एक श्रेणी जिसे दास कहते थे,के कोई मानवाधिकार नही थे।दासी को भरी राजसभा में वस्त्रहीन किया जाय तो कोई बचाने वाला नहीं था।रानी द्रोपदी को दासी बनाकर उसको भरी सभा में वस्त्रहीन करने का प्रयास किया गया।यह पाप आरक्षण के कारण नहीं हुआ।बल्कि निर्णय करने की शक्ति जिसके पास थी,उसके मन में व्याप्त भेदभाव के कारण हुआ।
अब हम नये भारत पर दृष्टि डालते हैं।ईसा से 300 वर्ष पूर्व सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय उनके दरबारी मेगनिथिज ने इंडिका नामक ग्रंथ लिखा, उसमें भारतीय समाज का विवरण है जिसमें किसी प्रकार का कोई भेदभाव दिखाई नहीं देता। सन् 400 के लगभग एक चीनी यात्री फाईयांग भारत भ्रमण के लिए आया था उसने अपनी पुस्तक में उस समय के भारतीय समाज का वर्णन किया है। जिसमें वह भारत में एक वर्ग का वर्णन करता है जिसे हम पुराने समय में अछूत तथा वर्तमान समय में अनुसूचित जाति कहते हैं। सन 620 के बाद चीनी यात्री ह्वेनसांग भी अपने ग्रंथ में अछूतों की बात करता है। उससे आगे सन् 1100 के बाद वर्तमान राजस्थान में हम देखते है कि नरवर के कछवाहो ने आमेर के मीणाओ से जो आमेर के शासक थे, आमेर को छीन लिया। सन् 1241 के आसपास चौहानों ने बूंदी के मीणाओ से बूंदी को तथा कोटा के भील शासकों से कोटा को छीन लिया। दोनों ही शासक वर्ग आदिवासी कहे जाते हैं तथा नये भारत में अनुसूचित जनजाति में आते हैं जो तत्कालीन समय में शासक वर्ग थे। सन् 1192 मैं दिल्ली पर तुर्की शासन की स्थापना के बाद से भारत के किसानों का लगातार शोषण किया गया, भारतीय राजा अपने किसानों से फसल का छठा हिस्सा यानि 16% लगान के रूप में लिया करते थे, विदेशी तुर्की शासकों ने अपने शासन के अंतर्गत आने वाले किसानों से फसल का आधा भाग यानि 50% लगान लेना शुरू किया। भारतीय राजाओं को जब किसान किसी कारण वश लगान नहीं दे पाता था तो राजा किसान की समस्या सुनता था, समस्या को दूर करने की कोशिश करता था। परंतु विदेशी शासकों द्वारा लगान बडी कठोरता से वसूला जाता था। समस्या तो सुनी ही नहीं जाती थी, लगान ना देने पर किसानों की झोपड़ियों में आग लगा देना,उनकी महिलाओं को अपमानित करना तथा छोटे बच्चों को जलती आग में फेंक दिया जाता था। जिसका प्रतिकार भारतीय करते रहे परंतु अकबर के समय सन् 1570 के लगभग जो भारतीय मुगल सत्ता में भागीदारी बनें, तथा सत्ता में भागीदार भारतीयों ने अपने भारतीय किसानों का शोषण करवाने में विदेशीयों का जो सहयोग किया। अकबर के शासनकाल में भी लगान फसल का 50% ही लिया जाता था। अकबर के समय शासक वर्ग के दो चेहरे बन गए थे,एक चेहरा जो दूर से देखने में बड़ा उदार दिखता था जिसमें भारतीय बड़े बड़े मनसबदार थे, अकबर के नवरत्नों में से कई नवरत्न भारतीय थे।ऐसा लगता था कि शासन आम जनमानस के लिए न्यायकारी है। परन्तु ऐसा था नहीं। अकबर ने भारतीयों को ही आम किसान को लूटने के लिए अपनी सत्ता में साझीदार बना लिया था।अकबर के समय के तत्तकालीन रामचरितमानस के रचियता तुलसी दास जी ने अपनी चोपाई में अकबर के शासनकाल के समय आम आदमी की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली।
बनिक को न बनिज,न चाकर को चाकरी।।
जिविका विहीन लोग,सीधमान सोच बस।
कहे एक एकन सो,कहां जाय का करी।।
मुगल शासकों की इस लूट से बचने के लिए किसानों ने भारी संघर्ष किया,जिसे भारतीय इतिहास में जाटों का विद्रोह कहते हैं। किसानों का मुगल सत्ता से सन् 1636 से लेकर अंग्रेजों के दिल्ली पर काबिज होने तक संघर्ष जारी रहा।
इसके बाद सन् 1818 में अंग्रेजों का भारत पर अधिकार हो गया। अंग्रेजों के शासन में किसानों का शोषण मुगलों के समय से भी अधिक था। अंग्रेजों ने देशी राजाओं से संधि करके उनकी सुरक्षा हेतु अपनी सेना तेनात कर दी।इस सेना का खर्च भारतीय राजा वहन करते थे, अपने व अपनी सेना के खर्चों की पूर्ति के लिए किसानों पर कर बढा दिये गये। शोषण इतना बढ़ा कि सन् 1857 में क्रांति हो गई।
क्रांति के परिणाम स्वरूप इस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया परन्तु रानी विक्टोरिया का शासन आ गया। किसान फिर भी प्रताड़ित होता रहा। बड़े किसान आन्दोलन हुए। इन आंदोलनों के विजय सिंह पथिक प्रसिद्ध नेता रहे। राजस्थान का बिजोलिया किसान आंदोलन जो सन्1897 से लेकर सन् 1941 तक 44 वर्ष चला।यह वह स्थान था कि किसान को अपनी बेटी की शादी करने के लिए भी चंवरी कर के नाम से 5 रुपए कर देना पडता था।17 नवम्बर सन् 1913 को राजस्थान में भील आंदोलन हुआ जिसमें अंग्रेजी सरकार ने गोली से 1500 भीलों को मार डाला।13 अप्रैल सन् 1919 को जलियांवाला बाग कांड हुआ, जिसमें 379 लोगों के मारे जाने व 200 लोगों के घायल होने की बात अंग्रेजों की सरकार ने स्वीकार की।2 अप्रैल सन् 1921 में राजस्थान में भील आंदोलन के दौरान 1200 भीलों को मार डाला। 14 मई सन् 1925 को नीमूचान किसान आंदोलन के अंतर्गत राजस्थान के अलवर में आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस अधिकारी छाजू सिंह ने गोली चलवा दी जिससे सैकड़ों किसान मारे गए।महात्मा गांधी ने इस कांड को दूसरा जलियांवाला बाग बताया। राजस्थान में ये नरसंहार स्थानिय रियासत के राजाओं के माध्यम से किये गये।
20 मार्च सन् 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड़ नामक स्थान पर डा अम्बेडकर ने तालाब से अछूतों को पानी पीने के लिए आंदोलन किया,2 मार्च सन् 1930 को नासिक जिले में स्थित कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए अम्बेडकर जी ने आंदोलन किया। यहां भारतीय ही भारतीयों को तालाब से पानी नही पीने दे रहे थे तथा मंदिर में नहीं जाने दे रहे थे। सन् 1931के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में डा अम्बेडकर जी ने दलितों का पक्ष लंदन में अंग्रेजों के सामने रखा तथा दलितों के लिए राजनेतिक क्षेत्र व सरकारी नौकरी में आरक्षण प्राप्त कर लिया।
उपरोक्त परिस्थितियों के कारण भारतीय समाज में भारतीयों में एक सत्ता समर्थित वर्ग तथा दूसरा इनसे संघर्ष के कारण पिछडा वर्ग भी बन गया।
सन् 1947 में अंग्रेजों ने ब्रिटिश भारत का भारत व पाकिस्तान में विभाजन कर दिया।उस समय भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे।इस बंटवारे में करीब डेढ़ करोड़ लोगों का पलायन बहुमत सम्प्रदाय के देश में जाने के लिए हुआ। करीब 20 लाख लोग मारे गए। बंटवारा करने से पहले लोगों के जान-माल की सुरक्षा के जो उपाय शासक वर्ग को करने चाहिए थे वो नही किए गए। जिस कारण इतनी हानि हुई। अब भारत का शासन चलाने के लिए संविधान की रचना की गई।क्योकि सत्ता का हस्तांतरण भारतीयों को अंग्रेजों के द्वारा किया गया था, इसलिए जो देश की नौकरशाही थी वह अंग्रेजों के द्वारा ही बनाईं हुई थी।इस नौकरशाही को भारतीयों को ही लूटने खसोटने का प्रशिक्षण अंग्रेजों ने दे रखा था,वह ज्यो की त्यो भारतीय जनता की छाती पर बैठी हुई थी। इसमें धीरे धीरे हजारों वर्षों से मुगल व अंग्रेजों के शासन के विरोधी रहे समुदायों के लोगों का भी प्रवेश हो उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। राजनेतिक समानता, आर्थिक समानता तथा सामाजिक समानता के लिए आरक्षण के माध्यम से सरकारी तंत्र में तथा देश में गरीबों के उत्थान के लिए बनायी योजनाओं के लिए एक संवेदनशील तंत्र विकसित हो,इसकी व्यवस्था भारत की संसद को करनी थी। लेकिन जब व्यवस्था को लागू करने की सामर्थ्य प्राप्त लोगों के मन में भेदभाव हो तो वह कैसे लागू होती।जैसा हम बता चुके हैं कि देश के बंटवारे के समय जो पलायन व नरसंहार हुआ,उसे रोकने की समुचित व्यवस्था अंतिम गवर्नर जनरल माउंटबेटन तथा अंतरिम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को करनी थी जो उन्होंने नही की। देश आजाद होने के बाद आजाद हिन्द फौज के करीब 70000 सिपाही जिनको अंग्रेज सरकार ने लाल किला ट्रायल के दौरान मांफ कर दिया था, को आजाद भारत में पुनः नोकरी पर नही रखा गया,जबकि सन् 1857 की क्रांति से सम्बंधित लगभग 24000 अपदस्थ सिपाहियो को अंग्रेज अधिकारी जान लोरेंस ने नवम्बर सन 1858 में कम्पनी का शासन समाप्त हो जाने के बाद ब्रिटिश सेना की सेवा में ले लिया था। नेहरू जी अंग्रेजों से भी अधिक सख्त निकले। एससी एसटी को आरक्षण तो ब्रिटिश सरकार ने ही दे दिया था, परंतु ओबीसी के आरक्षण के लिए संविधान में धारा 340 के अंतर्गत व्यवस्था की गई थी।
29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग महान साहित्यकार काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ, जिसे काका कालेलकर आयोग कहा गया।कालेलकर साहब ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंदीय सरकार को सौंपी थी।
इस महान साहित्यकार ने अपनी अनुशंसाओं में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने, सम्पूर्ण स्त्री वर्ग को पिछड़ा मानते हुए मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70%, सभी सरकारी व स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी में 25%, द्वितीय श्रेणी में 33.33% तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 40% आरक्षण की सिफारिश की थी।
तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु ने कालेलकर आयोग की सिफारिशें ख़ारिज कर दी और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा दिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा अतः इसे लागू न किया जाय।
पंडित जवाहरलाल नेहरू विदेशी अंग्रेजों के अंतरिम सरकार में बनाए प्रधानमंत्री थे तथा आजाद भारत में भी प्रधानमंत्री बने।उनके इस पद पर बने रहने के कारण तो भारतीय समाज में गडबड नही हुई, परंतु गरीबों की उन्नति के लिए कुछ सुधार करने में उन्हें गडबड दिखाई दे रही थी।वो अपने जीवन में कश्मीर की समस्या, चीन के द्वारा हमले के दोरान भारत की हार के लिए दोषी होते हुए भी। अपने आप को अपनी ही अध्यक्षता में भारत रत्न लेकर दुनिया से रुखसत हुए।क्योकि उन्हें इस बात का आभास था कि उनके बाद के नेता उनकी भारत को दी गई महान सेवाओं का मूल्यांकन नही कर पायेंगे और वो भारत रत्न को खो देंगे।
भारत के आजाद होते ही जो अंग्रेज परस्त भारतीय सरकारी सेवाओं में थे उन्होंने यह प्रचार प्रारंभ कर दिया कि एससी-एसटी को जो आरक्षण दिया गया है उसके कारण से प्रतिभा हनन हो रहा है, इसलिए आरक्षण प्राप्त लोगों को हानि पहुंचाने की आजादी के प्रारंभ से ही कोशिश शुरू कर दी गई।पद के योग्य उम्मीदवार नही मिल रहे यह बहाना लेकर आरक्षित पदो को गेर आरक्षित वर्ग से भरा गया।
किसी भी शासन में सबसे महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका होता है। न्यायाधीश तभी सही मे न्याय कर सकता है,तब उसके मन में सभी के प्रति करुणा (संवेदनशीलता)हो,न्याय का आधार करुणा है और करुणा का आधार सम्बंध है। परंतु भारत में जातिय आधार पर बटा समाज एक दूसरे के प्रति सम्बन्ध से कटा हुआ है।क्योकि न्यायाधीश भी इसी समाज से जाते हैं इसलिए वह भी इस दोष से मुक्त नही होते। इसलिए भारत के न्यायालयों के निर्णय एससी-एसटी व निर्बल वर्ग के विरोध में जाते दिखाई देते हैं। सन् 60-70 के दशक में अधिकांश न्यायाधीश जमींदारों के परिवार से होते थे।एक न्यायाधीश के सुब्बाराव ने तीन भूमि सुधारों के विरोध में फैसला दिया तथा सन् 1967 में अपने पद से इस्तीफा देकर जमींदारों की स्वतंत्र पार्टी से राष्ट्रपति का चुनाव लडा। सन् 1997-2002 तक भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन जी थे। उनके सामने उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की फाइल कोलोजियम के माध्यम से पहुची तब राष्ट्रपति महोदय ने नियुक्ति की फाइल पर नोटिंग कर वापस भेज दिया। राष्ट्रपति महोदय के सचिव गोपाल कृष्ण गांधी ने उस फ़ाइल पर लिखा कि एससी-एसटी के योग्य उम्मीदवार होने के बाद भी उनकी जजों के पद पर नियुक्ति ना होना ठीक नहीं है।तब जस्टिस केजी बालाकृष्णन सुप्रिम कोर्ट में पहले एससी-एसटी वर्ग के न्यायाधीश बने थे। भारत की जेलों में 67% लोग बिना सजा के बंद है जिसमें 66% एससी एसटी वर्ग के हैं। भारत की न्यायपालिका में मुसलमान व ईसाई समुदाय से एक जज अवश्य रहता है।तीन तलाक़ व राम मंदिर के निर्णय के लिए जो पांच जजों की पीठ थी उसमें पांच जजों में से एक मुस्लिम जज भी था। परंतु आरक्षण पर सुनवाई करने वाली पीठ में आरक्षित वर्ग से कोई जज नहीं होता। इसलिए आरक्षण के विरूद्ध फैसले तुरंत आ जाते हैं।
लम्बे समय तक पिछड़ों का क़ानूनी अधिकार समाजवादियों के नारों में “सोशलिस्ट पार्टी बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ” गूंजता रहा।1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने तथा चौधरी चरण सिंह जी गृहमंत्री बने तब कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बजाय पुनः दुबारा दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (यादव) के नेतृत्व में 1 जनवरी 1979 को बनाया गया, जिसे मंडल आयोग कहा गया।
मंडल साहब ने पूरे देश में घूम-घूमकर लगभग 3,000 जातियों को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा घोषित कर 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी। मान्यवर कांशीराम जी के द्वारा बनाए गए नैतिक दबाव तथा श्री शरद यादव जी के अथक प्रयास से इस रिपोर्ट के आधार पर सन् 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिश पर ओबीसी को आरक्षण दिया गया।
सन् 1995 से लेकर 2011 तक करीब तीन लाख किसानों ने आत्म हत्या कर ली । जो आज तक जारी है। मजदूर वर्ग का पलायन शहर की ओर को बढ़ गया। शहर में झुग्गी झोपड़ी की बस्तियां बढ़ गई।
इन परिस्थितियों से निपटने के लिए सरकार ने समय समय पर आयोग बनाए, जिसमें सन 2006 में स्वामी नाथन आयोग ने किसानों के विषय में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कहा, किसानों के कर्ज भी माफ हुए। सन् 2006 में ही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बताया कि देश में मुस्लिमो की स्थिति दलितों से भी खराब बताई गई है। अर्जुन सेन गुप्ता कमिशन ने अप्रैल 2009 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश की 75% आबादी भूखमरी के कगार पर है। इससे निबटने के लिए भारत सरकार ने मनरेगा योजना का प्रारम्भ किया।
देश की निति निर्धारक पदो पर ये ही गेर आरक्षित श्रेणी के लोग आज भी बहुमत मे है, लेकिन आजाद भारत के 73 सालों में भारत की गरीबी, किसानों के हालत सबके सामने है। भारत की 80% आबादी गरीबी से त्राहि-त्राहि कर रही है। भारत के संविधान का अभिभावक भारत का सुप्रिम कोर्ट है। वहां एससी एसटी ओबीसी के जजों की संख्या न के बराबर है।शुरू में यह दलिल दी जाती थी कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के नम्बर गेर आरक्षित वर्ग से कम होने पर नोकरी लग रही है कितना बड़ा अन्याय हो रहा है, परन्तु अब आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के नम्बर गेर आरक्षित वर्ग से ज्यादा होने पर वो नोकरी से वंचित हो रहे हैं तो इस पर सब मोन है, उत्तर प्रदेश से सांसद श्रीमती अनुप्रिया पटेल जी ने यह विषय संसद में बडी मजबूती से रखा है।सही मायने में इन आरक्षण विरोधियों का उद्देश्य देश के नागरिकों के साथ न्याय नहीं है, किसी भी तरीके से देश के सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाये रखने का है। इसलिए इन लोगों ने आरक्षण नाम की दवाई को बीमारी घोषित कर रखा है। भारत रूपी मकान की छत गिरे या बचे,इनको इससे कोई मतलब नहीं है, एससी एसटी ओबीसी नामक जो पिलर छत की सपोर्ट के लिए जो भारत के संविधान निर्माताओं ने खडे किए हैं,ये उन पिलरो को छत के नीचे से निकाल देना चाहते हैं। जो देश हित में नहीं है।
समाप्त
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