मंगलवार, 8 दिसंबर 2020
भारत का किसान आंदोलन और सरकार-अशोक चौधरी मेरठ।
सोमवार, 12 अक्टूबर 2020
धाकड़ और किराड (किरार ) और गुर्जर जाति में सम्बन्ध- लेखक अशोक चौधरी मेरठ
बुधवार, 26 अगस्त 2020
ब्रिटिश भारत - संकलन कर्ता अशोक चौधरी मेरठ।
रविवार, 26 जुलाई 2020
भारत में किसान आंदोलन के जनक महान क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक (भूप सिंह) - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
बुधवार, 15 जुलाई 2020
भारतीय संस्कृति के रक्षक गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
आज के भारत में हम भारत के नागरिक जिस आजादी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं,उसे इस रूप में प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक संघर्ष किया तथा असंख्य बलिदान दिए हैं,ऐसा ही एक संघर्ष आठवीं सदी के प्रारंभ में शुरू हुआ।
सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु(सन् 647) के बाद से सन् 1947 तक के 1300 वर्ष के कालखंड में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (सन् 730 से सन् 980) 250 वर्षों तक भारत के एक बड़े भू-भाग पर स्थापित रहा।जो भारतीयों के लिए एक प्रकाश पुंज की तरह है। गुर्जर प्रतिहार राजाओं के शासन काल में ही भारतीय सनातन संस्कृति अपने चरम पर पहुची।इसी कालखंड में आदि शंकराचार्य का उदभव हुआ।आदि शंकराचार्य ने वैष्णव,शैव और शाक्य परम्पराओं की बडी सुंदर प्रस्तुति आम जनमानस के सामने रखी। हिंदूओं के चार धामों में चार पीठ,सप्त पुरियो,12 ज्योतिर्लिंग तथा देवी के कई शक्ति पीठ इसी कालखंड में स्थापित किए गये।
यह वह समय था जब भारत पर अरब के द्वारा इस्लामिक हमले शुरू हो गये थे।ये हमलावर मंदिरों को क्षतिग्रस्त कर रहे थे,सम्पदा को लूट रहे थे, निहत्थे और सात्विक पुजारी और भारतियों की हत्या कर रहें थे। सत्ता की ओर से गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने सभी स्थानीय शक्तियों को एकत्रित कर इन हमलावरों को रोकने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा रखी थी, परन्तु दूसरी ओर राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रकूट और पाल शासक या तो उदासीन थे या इन अरब हमलावरों से मिल जाते थे।
इन परिस्थितियों में आदि शंकराचार्य ने धर्म व धार्मिक स्थलों की सुरक्षा के लिए साधुओं में सैन्य पथ की स्थापना की। जिनको नागा साधु कहा गया। गुजरात की भाषा में नागा शब्द का अर्थ है लडाका।
उज्जैन/कन्नोज के प्रतिहार गुर्जर प्रतिहार कहलाये। अतः देखते हैं कि उज्जैन/कन्नोज के प्रतिहार वंश को किन समकालीन ग्रंथ व अभिलेखों में गुर्जर कहा है -
देखें परिशिष्ट नंबर- 2
सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885) की ग्वालियर प्रशस्ती में प्रतिहार वंश के राजाओं को राम जी के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया गया है।
सम्राट मिहिर भोज के दरबारी विद्वान राजशेखर जो मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्र पाल (सन् 885-910) के गुरू थे, ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी और रघुवंश तिलक कहा है।
राजशेखर ने ही महेंद्र पाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुकुट मणि कहा है।
उपरोक्त गुर्जर प्रतिहार परिचय के पश्चात् पाठकों को उस समय के घटनाक्रम को जानने के लिए जब अरब हमलावरों ने भारत पर आक्रमण प्रारंभ कर दिए थे। देखें-
परिशिष्ट नंबर-3
रामभद्र सूर्य का उपासक था तथा गुर्जर प्रतिहार वंश का तिसरा सम्राट था। वत्सराज गुर्जर प्रतिहार वंश के पहले सम्राट थे। सम्राट रामभद्र पर पाल राजा देवपाल ने हमला कर दिया, जिसे रामभद्र ने निष्फल कर दिया।इस हमले की जानकारी बादल स्तम्भ लेख व दौलतपुर दान पत्र से मिलती है।रामभद्र कुछ विलासी प्रवृत्ति का था अतः उसके मंत्रियों ने रामभद्र को हटाकर उसके पुत्र भोज को शासक बना दिया,जिसकी माता का नाम अप्पा देवी था।यही भोज सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885)के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भोज नाम के चार शासक भारतीय इतिहास में हुए हैं, सबसे पहले सम्राट मिहिर भोज जो नो वी शताब्दी में हुए, दूसरे उज्जैन के भोज परमार जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुए,तिसरे सवाई भोज बगड़ावत जो तेरहवीं शताब्दी में हुए और भगवान् देवनारायण के पिता थे, चौथे भोजराज जो राणा सांगा के पुत्र तथा संत मीराबाई के पति थे जिनका समय 16 वी शताब्दी है। यहां हमारे अध्ययन का केन्द्र नो वी शताब्दी के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज है।
सम्राट मिहिर भोज की दो उपाधियां और थी,एक आदि वराह (ग्वालियर प्रशस्ती) ,दूसरी प्रभास(दौलतपुर अभिलेख जोधपुर)।
सम्राट मिहिर भोज के द्वारा ही त्रिपक्षिय संघर्ष जो पाल, राष्ट्रकूट और प्रतिहारो के बीच चल रहा था, में अंतिम विजय प्रतिहारो की हुई तथा प्रतिहार राजा ( सन् 1036) अपने अंत तक कन्नौज पर काबिज रहे। सम्राट मिहिर भोज ने चांदी के द्रम सिक्के चलाये। ग्वालियर में चतुर्भुज भगवान का मंदिर बनवाया।मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी (900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी| अरबो के पास दो छोटे-छोटे राज्य रह गए थे जिनकी राजधानी अल मंसूरा और मुल्तान थी| अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान बचा ले। इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फूज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके और उसे अपनी राजधानी बना सके| सम्राट मिहिरभोज ने सिंधु और मुल्तान में स्थापित हो गए अरबों को कर देने के लिए मजबूर कर दिया। अरबों से कर वसूलने की जानकारी फारसी ग्रंथ हुदूद- उल-आलम से प्राप्त होती है।
सम्राट मिहिर भोज के शासनकाल में सन् 851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार विवरण प्रस्तुत किया हैं|
सुलेमान तत्तकालीन समय के पाल राजा देवपाल तथा राष्ट्रकूट राजा शर्व अमोघ वर्ष तथा प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज के राज्य में रहा, उसने लिखा कि भारत में सबसे बडी अश्वसेना सम्राट मिहिर भोज के पास है, हाथियों की सेना राजा देवपाल के पास है तथा पैदल सेना शर्व अमोघ वर्ष के पास है।वह लिखता है कि पाल राजा देवपाल भारत का सबसे शक्तिशाली राजा है, राष्ट्रकूट राजा शर्व अमोघ वर्ष संसार के चार महान राजाओं में से एक है।
लेकिन सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह सम्राट मिहिर भोज के विषय में लिखता है कि मिहिरभोज अरबों का सबसे बड़ा शत्रु है। सम्राट मिहिर भोज का राज्य चोर और डाकुओं से सुरक्षित है। अरब हमलावरों से उस समय पूरा विश्व त्राहि-त्राहि कर रहा था,उनका सबसे बड़ा शत्रु सम्राट मिहिर भोज है। मिस्र के प्रधानमंत्री मलहबी ने भूगोल की एक पुस्तक लिखी,जिसका नाम"अजोजो" है, उसमें वह लिखता है कि कन्नौज भारत का सबसे बड़ा नगर है जिसमें जौहरियों की तीन सौ दुकाने है।
सम्राट मिहिर भोज के द्वारा लिखाई गई ग्वालियर प्रशस्ती में गुर्जर प्रतिहारो को भगवान् राम के भाई लक्ष्मण से जोडा गया है। भारत में श्री राम और श्री कृष्ण सबसे प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त देवता हैं,जब भी किसी व्यक्ति ने बडा कार्य किया है, उसने अपने आप को इन दोनों देवताओं से जरूर जोडा है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जब अपना राज्याभिषेक किया तो उन्होंने भी अपने आप को भगवान् राम से जोडा।यहा पर भी सम्राट मिहिरभोज ने अपने वंश के साथ जुड़े प्रतिहार शब्द को दिव्यता प्रदान करते हुए भगवान् राम के भाई लक्ष्मण के साथ जोड़ा तथा एक तरह से अपने को भारत भूमि और भारतीय संस्कृति का प्रतिहार (प्रहरी)कहा है।इस ग्वालियर प्रशस्ती में ही नागभट प्रथम को लिखा है कि वो नारायण की तरह प्रकट हुए और म्लेच्छो को भारत भूमि से बाहर फैंक दिया।यहा म्लेच्छ का मतलब अरब हमलावरों से है, इस प्रशस्ती में ही प्रतिहारो को आदि वराह कहा है,कि भगवान वराह ने अपनी चार भुजाओं से जिस प्रकार पृथ्वी को बचाया था उसी प्रकार वराह भगवान् की चार भुजाओं (नागभट प्रथम,बप्पा रावल, देवराज भाटी तथा अजयपाल चौहान) ने मलेच्छो को भारत भूमि से बाहर कर दिया। प्रतिहार राजाओं के इस महान कार्य में जो उनके सहयोगी सामंत रहे उनका नाम उजागर करना भी यहा आवश्यक है,जो निम्न हैं-
1- मंडोर (वर्तमान में जोधपुर)के बाऊक प्रतिहार
2- दिल्ली के तंवर
3- शेरगढ़ (राजस्थान में)के नागवंश (नागड़ी/नागर) के देवदत्त।
4-मतस्य(अलवर व आभानेरी/ दौसा) के निकुंभ।
5- महोबा के ननुक चंदेल।
6- चित्तौड़ के गुहिल/गहलोत।
7- सांभर के गुविक द्वितीय चौहान।
8- मांड (जैसलमेर) के भाटी।
9- राजौर गढ (अलवर)के बड़गुर्जर।
10- विजय गढ (बयाना)व तिमन गढ (करौली)के यादव।
11- मोरय।
12- योद्धेय।
13- खालोली,धनोट और हस्तकुंडी (राजस्थान)के राठौड़ (राठी)।
14- ग्वालियर के कच्छपघट (कछवाहे)।
15- आमेर,खोह (जयपुर) और मांच (जमुवा रामगढ़) के मीणा।
16-गोरखपुर(उत्तर प्रदेश) के सोढ देव प्रतिहार (काहता दान पत्र में उल्लेख)
सम्राट मिहिर भोज के समय सांभर के चौहान सबसे शक्तिशाली और विश्वसनीय सामंत थे, चौहान गुवक द्वितीय की बहन कलावती सम्राट मिहिर भोज की रानी थी, पेहवा (हरियाणा) घोड़ों के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था।
मिहिर भोज और उसके वंश की सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता उस अरब साम्राज्यवाद से भारत की रक्षा करना था, जिसने अल्पकाल में ही लगभग एक तिहाई पुरानी दुनिया को निगल, आठवी शताब्दी के आरम्भ में भारत की सीमा पर दस्तक दे दी थी| तीन शताब्दियों तक गुर्जर प्रतिहारो ने अरबो को भारत की सीमा पर रोक कर रखा| दक्कन के राष्ट्रकूट अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए जहाँ अरबो के साथ मिल गए, वही मिहिर भोज ने काबुल-पेशावर के हिन्दू शासक लल्लिया शाही और पंजाब के अलखान गुर्जर के साथ परिसंघ बनाकर अरबो का डट कर मुकाबला किया| आर. सी. मजुमदार के अनुसार मिहिर भोज “मुस्लिम आक्रमणों के सामने वह अभेद दीवार की भाति था| अपना यह गुण वह अपने उत्तराधिकारियों को विरासत में दे गया”।
सम्राट मिहिर भोज ने अपने पुत्र महेन्द्र पाल(सन् 914-943) की शिक्षा हेतु अपने समय के विद्वान राजशेखर को शिक्षक नियुक्त किया।इन्ही राजशेखर ने महेंद्र पाल को रघुग्रामिणी व रघुवंश तिलक कह कर सीधे भगवान् राम के वंश से जोडा। महेंद्र पाल के पुत्र महिपाल के अंतिम दिनों में चंदेल, चौहान, गहलोत, कच्छपघट तथा बड़गुर्जर( राजौर गढ,मोचडी और राजगढ़) प्रसिद्ध सामंत थे। इस समय गुर्जर प्रतिहार सत्ता कमजोर होने लगी थी,महोबा के चंदेल,सांभर के चौहान, चित्तौड़ के गुहिल तथा ग्वालियर के कच्छपघट एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गए थे। राजौर गढ के राजा मथनदेव बड़गुर्जर का सन् 960 का राजौर गढ में शिलालेख मिला है, राजौर गढ की स्थापना राज देव बड़गुर्जर ने की थी।राज गढ़ के बाघ सिंह बड़गुर्जर "भोमिया" देवता के रूप में राजस्थान में पूजे जाते हैं।
सन् 1018 में जब कन्नौज का राजा राजपाल था तब मोहम्मद गजनवी ने हमला किया। राजपाल गजनवी का सामना नही कर सका तथा कन्नौज से पलायन कर गया,गजनवी ने कन्नौज को लूट लिया।गजनवी के इस हमले का जिक्र गजनवी के दरबारी उत्बी द्वारा लिखित"तारीख-ए-यामिनी"में मिलता है।गजनवी के साथ अलबरूनी नाम का विद्वान भी आया था, जिसने"तहकीक-ए-हिन्द" नाम की एक किताब लिखी।यह किताब ग्यारहवीं सदी का भारत का दर्पण कही जाती है।
लेकिन इस समय नागभट प्रथम और बप्पा रावल जैसे सुलझे हुए व्यक्ति नही थे, चंदेल राजा विद्याधर और अर्जुन कछवाहे ने महमूद गजनवी के विरूद्ध कोई मोर्चा बनाने के स्थान पर अपने ही राजा राजपाल पर हमला कर उसकी हत्या कर दी।दुबकुंड अभिलेख से राजा राजपाल की अर्जुन कछवाहे के तीर से मृत्यु हो जाने की जानकारी प्राप्त होती है।
इस प्रकार भारत की सुरक्षा का जो द्वार सन् 730 में नागभट प्रथम ने बनाया था वह सन् 1018 में टूट गया।
गुर्जर प्रतिहार राजाओं के शासनकाल में अनेक स्थापत्य कला के कार्य हुए।अनेक मंदिर निर्माण किये गये। भारत में हिमालय से लेकर विंध्याचल पर्वत तक मंदिर नागर शैली में बने हैं, शिखर पर खड़ी रेखाएं होने के कारण इस शैली को आर्य रेखिय शिखर शैली भी कहते हैं। दक्षिण भारत में कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली में मंदिर बने हैं,इस शैली की एक विशेषता यह है कि, मंदिर का तोरणद्वार जिसे गोपुरम कहा जाता है,भव्य बनाया जाता है।कृष्णा नदी से लेकर विंध्याचल पर्वत तक बेसर शैली,जो नागर+द्रविड़/चालुक्य होयसल शैली में मंदिर बने हैं। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने अपनी अलग शैली बनाई, जिसे महामारू शैली कहा गया,इस शैली को नागर शैली का विकसित रुप कहा गया।यह नागर शैली ही मानी गई। प्रतिहार राजाओं ने निम्न मंदिर बनवाए-
1- नीलकंठ मंदिर राजौर गढ (अलवर)
2- हर्षद माता मंदिर आभानेर (दौसा)
3- विष्णु मंदिर मंडोर (जोधपुर)
4-वराह मंदिर आहड़ (गुर्जर प्रतिहार राजाओं के कुल देवता)
5- नारायणी माता मंदिर राजगढ़
6-हरिहर मंदिर व महावीर मंदिर ओसियां
7-कामेश्वर महादेव मंदिर,सुमाली माता मंदिर आउवा
8- सिद्धेश्वर महादेव मंदिर जोधपुर
9- आशावरी माता मंदिर राजौर गढ।
गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने जहां तीन सो वर्षों तक भारत की अरबी हमलावरों से रक्षा की,वही दूसरी ओर एक उल्लेखनीय कार्य शानदार जल प्रबंधन और सिंचाई प्रणाली के रूप में किया। उन्होंने पश्चिमी और उत्तरी पश्चिमी उपमहाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में भी एक समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।
सन् 1090 में गुर्जर प्रतिहार राजाओं के सामंत रहे चन्द्र देव गहरवाल ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
गुर्जर प्रतिहार राजाओं के पतन के बाद से भारत की आज़ादी सन् 1947 तक एक समीक्षा देखें-
परिशिष्ट नंबर-4
समाप्त
परिशिष्ट नंबर-1
आइए सबसे पहले हम प्रतिहार शब्द की विवेचना करते हैं।बंधुओ प्रतिहार शब्द का अर्थ प्रहरी से जुडा हुआ है। भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण जब वनवास में राम जी के साथ गये,तब अपने भाई राम व माता सीता की सुरक्षा हेतु एक प्रहरी के रूप में जो सेवा लक्ष्मण जी ने प्रदान की,उस कारण लक्ष्मण जी को राम जी का प्रतिहार कहा गया। परंतु जिस कालखंड की घटना के बारे में हम लिख रहे हैं उस समय मांडखेत (वर्तमान सोलापुर- महाराष्ट्र)के राष्ट्रकूट राजा अपने देश की रक्षा हेतु जो सामंत नियुक्त करते थे ,वो उनको प्रतिहार नामक पद से सुशोभित करते थे, अतः आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में महाराष्ट्र से उज्जैन और वर्तमान राजस्थान के क्षेत्र में जो राष्ट्रकूट राजाओं के सामंत दुर्गों में विराजमान थे वो प्रतिहार कहलाते थे। आठवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट शासक दन्ती दुर्ग ने उज्जैन में पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया था,इस समय नागभट प्रथम उज्जैन के प्रतिहार थे।इस तरह तत्तकालीन समय में 6 जगह के प्रतिहार प्रसिद्ध हुए हैं,1- मंडोर (वर्तमान राजस्थान में जोधपुर),2-मेडता,3-राजौर गढ़/राजगढ़ (अलवर),4-जालौर,5-उज्जैन,6-कन्नौज। इनमें उज्जैन और कन्नौज के प्रतिहार एक ही है।सत्रहवी सदी के लेखक मुहणोत नेन्सी ने प्रतिहारो की 26 शाखाओं का उल्लेख किया।जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि प्रतिहार एक पद का नाम है और भारतीय समाज में उस समय भी जातियां विद्यमान थी, अतः ये सभी प्रतिहार भी किसी ना किसी जाति के अवश्य होगे।
सातवीं शताब्दी में मांडव्यपुर (मंडोर) के प्रतिहार हरिश्चंद्र ने अपना पहला प्रतिहार राज्य स्थापित किया,जो वर्तमान राजस्थान में था।राजा हरिश्चंद्र की दो उपाधियां थी एक रोहिल्लादि तथा दूसरी विप्र राजन्य। यहां विप्र का अर्थ विद्वान से है, परन्तु आधुनिक ब्राह्मण जाति के इतिहासकारों ने अपने जातिय प्रेम के कारण राजा हरिश्चंद्र को ब्राह्मण जाति का बताने का प्रयास किया। परन्तु राजा हरिश्चंद्र ने अपने आपको क्षत्रिय कहा है।यदि वो ब्राह्मण जाति से होते तो अपने आप को भगवान् परशुराम जी से जोडते।
परिशिष्ट नंबर-2
इतिहासकारों का एक वर्ग जिनमे ए. एम. जैक्सन, जेम्स केम्पबेल, वी. ए. स्मिथ, विलयम क्रुक, डी .आर. भंडारकार, रमाशंकर त्रिपाठी, आर. सी मजूमदार और बी एन पुरी आदि सम्मिलित हैं प्रतिहारो को गुर्जर (आधुनिक गूजर) मूल का मानते हैं
सज्जन ताम्र पत्र, बड़ौदा ताम्र पत्र,माने ताम्र पत्र में प्रतिहार वंश को गुर्जर कहा गया है।
1-नीलकुण्ड,2-राधनपुर,3-देवली,4-करहड के राष्ट्रकूट अभिलेखों में गुर्जर कहा है।
राजौर के अभिलेखों में उज्जैन/कन्नौज के प्रतिहार वंश को गुर्जर कहा है।
ऐहोल व नवसारी के शिलालेखो में इन्है गुर्जरेश्वर कहा है।
चंदेल शिलालेखो में गुर्जर प्रतिहार कहा है।
अरब यात्रियों ने इनको जुर्ज कहा है।
जिनसेन सूरि का हरिवंश पुराण, उद्योतन सूरि(सन् 778) का कुवलय माला तथा कल्हण की राजतरंगिणी(बारहवीं शताब्दी) तथा जयानक की पृथ्वीराज विजय(बारहवीं शताब्दी) में गुर्जर राज और मरू गुर्जर कहा है।
राष्ट्रकूट शासक इंद्र III के 915 ई. के बेगुमरा प्लेट अभिलेख में कृष्ण II के ‘गर्जद गुर्जर’ के साथ युद्ध का उल्लेख हैं| इतिहासकार ने ‘गर्जद गुर्जर’ प्रतिहार शासक महीपाल के रूप में की हैं|
पम्पा द्वारा लिखित विक्रमार्जुन विजय में तत्तकालीन गुर्जर प्रतिहार सम्राट महिपाल (सन् 912-944) को गुर्जर राजा कहा है।
अरब लेखक अबू ज़ैद और अल मसूदी के अनुसार उत्तर भारत में अरबो का संघर्ष ‘जुज्र’ (गुर्जर) शासको से हुआ| इतिहासकारों के अनुसार जुज्र गूजर शब्द का अरबी रूपांतरण हैं| अरब यात्री सुलेमान (851 ई.), इब्न खुरदादबेह (Ibn Khurdadaba), अबू ज़ैद (916 ई.) और अल मसूदी (943ई.) ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को जुर्ज़ अथवा जुज्र (गूजर) कहा हैं| अबू ज़ैद कहता हैं कि कन्नौज एक बड़ा क्षेत्र हैं और जुज्र के साम्राज्य का निर्माण करता हैं| उस समय कन्नौज प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी थी, अतः यह साम्राज्य जुज्र अर्थात गूजर कहलाता था| सुलेमान के अनुसार बलहर (राष्ट्रकूट राजा) जुज्र (गूजर) राजा के साथ युद्धरत रहता था| अल मसूदी कहता हैं कन्नौज के राजा की चार सेनाये हैं जिसमे दक्षिण की सेना हमेशा मनकीर (मान्यखेट) के राजा बलहर (राष्ट्रकूट) के साथ लडती हैं| वह यह भी बताता हैं कि राष्ट्रकूटो का क्षेत्र कोंकण जुज्र के राज्य के दक्षिण में सटा हुआ हैं| इस प्रकार यह भी स्पष्ट होता हैं कि राष्ट्रकूटो के अभिलेखों में जिन गुर्जर राजाओ का उल्लेख किया गया हैं वो कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार हैं|
अल इदरीसी (1154 ई,) के अनुसार के अनुसार प्रतिहार शासको उपाधि ‘गुर्जर’ थी तथा उनके साम्राज्य का नाम भी ‘गुर्जर’ था| गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य उत्तर भारत में विस्तृत था|
राजोर गढ़ के गुर्जर प्रतिहार- मथनदेव के 960 ई. के ‘राजोर अभिलेख’ के चौथी पंक्ति में उसे ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ कहा गया हैं| इसी अभिलेख की बारहवी पंक्ति में गुर्ज्जर जाति के किसानो का स्पष्ट उल्लेख हैं| बारहवी पंक्ति में “गुर्जरों द्वारा जोते जाने वाले सभी पडोसी खेतो के साथ” शब्दों में स्पष्ट रूप से गुर्जर जाति का उल्लेख हैं अतः इतिहासकारों के बड़े वर्ग का कहना हैं कि चौथी पंक्ति में भी गुर्जर शब्द जाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं न की किसी स्थान या भोगोलिक इकाई के लिए नहीं| इस कारण से इतिहासकारो ने ‘गुर्जर प्रतिहारानवय’ का अर्थ गुर्जर जाति का प्रतिहार वंश बताया हैं| मथनदेव गुर्जर जाति के प्रतिहार वंश का हैं| इस अभिलेख से इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रतिहार गुर्जर जाति का एक वंश था, अतः कन्नौज के प्रतिहार भी गुर्जर जाति के थे|
बूढी चंदेरी के प्रतिहार- दसवी शताब्दी के अंत में ‘कड़वाहा अभिलेख’ में बूढी चंदेरी के प्रतिहार शासक हरिराज को ‘गरजने वाले गुर्जरों का भीषण बादल’ कहा गया हैं तथा उसका गोत्र प्रतिहार बताया गया हैं|
परिशिष्ट नंबर-3
जब इस्लाम का झंडा लेकर अरब के खलीफा के आदेशानुसार इस्लामी सेना दुनिया को दारुल हरब से दारुल इस्लाम में बदलने के लिए निकल पड़ी तथा सन् 637 से 647 ईसवी के बीच हुए सैन्य अभियानों में सीरिया, ईरान, ईराक और मिश्र पर मदीना का नियंत्रण स्थापित हो गया। कुछ ही दशकों में अरबी साम्राज्य मिश्र स्थित नील नदी से लेकर भारत की सीमा तक फेल गया।
दूसरी तरफ अरबों द्वारा सन् 666 ईसवी में पश्चिमोत्तर भारत विजय अभियान को काबुल शाही द्वारा प्रतिरोध कर अरबों के काबुल जितने के प्रयास को असफल कर दिया।
इधर मुल्तान के दक्षिण में स्थित निचला सिंधु घाटी क्षेत्र जो सिंध कहलाता हैं, चचनामा के अनुसार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस स्थान पर राजा दाहिर अपनी राजधानी ब्रहमना बाद से सिंध पर शासन करता था। देबल सिंधु उसका मुख्य शहर था। सीलोन (श्री लंका) के राजा ने कुछ कीमती उपहार समुद्र के रास्ते एक जहाज से ईरान के अरबी गवर्नर हज्जाज के लिए भिजवाए थे। जिन्हें रास्ते में देबल में लूट लिया गया, अरब के खलीफा ने इसके लिए राजा दाहिर को जिम्मेदार ठहराया। इस घटना का बहाना लेकर ईरान के गवर्नर हज्जाज के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सन् 712 में सिंध स्थित देबल बंदरगाह पर हमला कर दिया तथा राजा दाहिर को हराकर उसका क्षेत्र अपने कब्जे में ले लिया। सन् 723 में मुल्तान पर विजय प्राप्त कर इस्लामी सेना ने अपनी सिंधु विजय पूर्ण कर ली।
मुहम्मद बिन कासिम ने ही जोगरफिकल व कल्चरल रूप से सिंध नदी के दूसरी ओर के भूभाग को हिंदुस्तान व यहां रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा।
सिंध विजय के बाद अरबों ने उत्तर भारत की विजय के लिए अभियान आरंभ कर दिए। अरब खलीफा हिशाम (सन् 724 से 743 ईसवी) ने जुनैद को सिंध का गवर्नर नियुक्त किया।
जुनैद के सेनापति मातीन ने सिंध को पार कर तत्तकालीन समय के गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल (जालौर) के चावड़ा शासक मामा चौहान तथा चित्तौड़ के शासक मान मोरय व मांड (वर्तमान जैसलमेर)के देवराज भाटी, सांभर के अजयपाल चौहान पर अति तीव्र हमले किए।इस हमले में भीनमाल (जालौर)के मामा चौहान वीर गति को प्राप्त हो गये,मामा चौहान आज भी वर्तमान राजस्थान में लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। चित्तौड़ के मान मोरय दुर्ग तो बचा ले गये परंतु अत्याधिक कमजोर हो गए।अरब हमलावार जुनैद ने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को भी तोड दिया। स्थति को भांप कर नागदा (वर्तमान उदयपुर में) के शासक कालभोज/ बप्पा रावल ने आगे बढ़ कर चित्तौड़ दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया।अरब हमले की गम्भीरता को देखते हुए उज्जैन के प्रतिहार नागभट प्रथम ने आगे बढ़कर भीनमाल (जालौर) और भड़ौच पर अधिकार कर भीनमाल (जालौर) के दुर्ग को निर्मित कर शक्तिशाली बना लिया।बप्पा रावल और नागभट प्रथम ने संयुक्त रूप से एक गठबंधन बनाया तथा अपने साथ मांड (वर्तमान जैसलमेर) के देवराज भाटी तथा सांभर के अजयपाल चौहान को मिला लिया तथा इस संयुक्त सेना ने जुनैद की सेना को मारवाड़ के क्षेत्र में हुए युद्ध मे हरा दिया तथा अपने क्षेत्र से मारकर सिंधु नदी के पार भगा दिया।अरब हमलावरों की इस हार की जानकारी हमें तत्तकालीन समय के मुसलमानों के फारसी ग्रंथ फुतुहलबदाना से प्राप्त होती है।मेवाडी ग्रंथों में भी हमें इस युद्ध के विषय में जानकारी प्राप्त होती है,मेवाडी ग्रंथ के अनुसार बप्पा रावल ने ईरान खुरासान को विजित कर लिया तथा वहां की राजकुमारी से विवाह किया तथा वर्तमान पाकिस्तान में स्थित रावलपिंडी नगर को बसाया।यहा जब हम ईरान का जिक्र देखते हैं तो हमारा ध्यान वर्तमान समय के ईरान पर जाता है। परंतु सही जानकारी के लिए हमें तत्तकालीन समय के ईरान के क्षेत्र को देखना होगा। ईरान के शासक डेरियस प्रथम जिसे भारतीय दारा कहते थे, के समय आज का पंजाब ईरान के अधिकार में था तथा पंजाब ईरान का 20 वां प्रांत था। अतः बप्पा रावल ने आज का पंजाब, जो तत्तकालीन समय में ईरान के क्षेत्र के रुप में प्रचलित था, तक अपना सैन्य अभियान किया,इसी क्षेत्र के राजा की राजकुमारी से विवाह किया तथा रावलपिंडी नगर बसाया।
भारतीयों का अरब हमलावरों के विरूद्ध गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम,बप्पा रावल, देवराज भाटी, अजयपाल चौहान के इस सैन्य अभियान की तुलना यूरोप(फ्रांस) के सेनापति चार्ल्स सेसेवियर के यूरोप और ईसाई धर्म को अरब हमलावरों से बचाने के लिए किए गए सैन्य अभियान से की गई है। जिस तरह चार्ल्स सेसेवियर ने अरब हमलावरों से यूरोप में ईसाई धर्म को सुरक्षित किया ,उसी प्रकार गुर्जर प्रतिहार नागभट प्रथम ने गठबंधन बनाकर भारत की सनातन संस्कृति को अरब के मुस्लिम हमलावरो से बचा लिया। नागभट प्रथम के इस महान कार्य में उनके सबसे बडे सहयोगी बप्पा रावल थे,यह भारत का सोभाग्य ही था कि उस समय नागभट प्रथम और बप्पा रावल जैसे दूरदर्शी और बहादुर व्यक्ति मौजूद थे, जिन्होंने अपने क्षेत्र की सभी भारतीय शक्तियों को एकत्रित कर अरब हमलावरों को भारत में घुसने से रोक दिया। यहां हम थोडा सा बप्पा रावल के विषय में अपने पाठकों को जानकारी देना चाहेंगे-
बप्पा रावल के पूर्वज गुहिल ने सन् 566 में गुहिल वंश की स्थापना की जिनके सहयोगी आगे चलकर गहलौत तथा और आगे चलकर सिसोदिया कहलाये।गुहिल को वर्तमान राजस्थान के भील अपना शासक मानते थे,वो भीलो में ही रहते थे, अतः सामान्य तौर पर देखा जाए तो वह भील समाज के राजा थे,राजा गुहिल की आंठवी पीढी में नागादित्य नामक एक शासक हुए,बप्पा रावल इन्ही नागादित्य के पुत्र थे।नागादित्य के समय में भील समुदाय में आपस में किसी विषय को लेकर संघर्ष हो गया,इस संघर्ष में नागादित्य की मृत्यु हो गई। अतः गहलोत अर्थात राजा गुहिल के समर्थक और विरोधी दो फाड़ हो गये।बप्पा रावल ने बडे होकर गहलोत राज्य की स्थापना की।बप्पा रावल भगवान् एकलिंग (शिव शंकर) के भक्त थे।बप्पा रावल ने वर्तमान उदयपुर के पास भगवान् एकलिंग का भव्य मंदिर बनवाया,बप्पा रावल भगवान् एकलिंग को ही अपने राज्य का स्वामी मानते थे तथा खुद को उनका दीवान कहते थे।बप्पा रावल ने जो अपनी मुद्रा सोने के सिक्के के रुप में चलाई,उस पर शिव लिंग,गाय और सूर्य तथा एक नतमस्तक आदमी का चित्र है,वह नतमस्तक आदमी बप्पा रावल का प्रतिक है,वो गौ भक्त थे। बचपन में अपने शिक्षाकाल में अपने श्रृषि के आश्रम में वह आश्रम की गाय भी चराते थे।बप्पा रावल ने सन् 753 में संन्यास ले लिया तथा अपने पुत्र खुम्माण प्रथम को शासन की बागडोर सोप कर , उसे देश हित के संघर्ष के लिए नागभट प्रथम के साथ कर दिया। नागभट प्रथम ने मेड़ता (वर्तमान जोधपुर)को अपनी राजधानी बनाया। नागभट प्रथम की एक उपाधि नाहड़ तथा दूसरी नागावलोक थी। नागभट प्रथम ने ही प्रतिहार साम्राज्य की नींव रखी। नागभट प्रथम (सन् 730-756) के बाद उनका भतीजा कुकुस्थ शासक बना तथा कुकुस्थ के बाद कुकुस्थ का छोटा भाई देवराज शासक बना। इन दोनों शासकों की कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही। देवराज के बाद देवराज का पुत्र वत्सराज (सन् 783-816)शासक बना। वत्सराज के समय में ही कन्नौज को लेकर गुर्जर प्रतिहार,पाल और राष्ट्रकूट में तिकोना संघर्ष प्रारंभ हुआ। कन्नौज जिसका एक नाम कान्यकुब्ज तथा दूसरा नाम महोदया नगर भी है,इस संघर्ष के कारण ही कन्नौज को सम्राटों की रण भूमि भी कहा जाता है।वत्स राज की एक उपाधि एकलिंग क्षत्रिय पुंगल थी जिसका अर्थ है क्षत्रिय राजाओं में श्रेष्ठ। दूसरी उपाधि अवंति राज थी।वत्स राज को अपने समय में चार मोर्चों पर लडना पड़ा।पाल, राष्ट्रकूट और अरब हमलावरों से तथा चौथा जो किसी भी शासक को लडना पडता है, अपने आंतरिक विरोधियों से।
वत्स राज गुर्जर प्रतिहार राजाओं में पहले सम्राट थे।वत्सराज के बाद नागभट द्वितीय (सन् 816-833) शासक बने। नागभट द्वितीय ने अपने शासन काल में कई महत्वपूर्ण सफलताएं अर्जित की। नागभट द्वितीय ने चित्तौड़ के गहलोत व सौराष्ट्र के बाहकधवल के सहयोग से उणियारा (वर्तमान में टांक राजस्थान में)नामक स्थान पर पाल शासक धर्मपाल को पराजित कर दिया तथा सांभर के चौहान राजा गुवक प्रथम की सहायता से मत्स्य देश (वर्तमान अलवर राजस्थान में) के निकुंभ राजा को भी पराजित कर दिया। नागभट द्वितीय ने प्रसन्न होकर चौहान राजा गुवक प्रथम को "वीर" की उपाधि से विभूषित किया। राजा हर्षवर्धन के बाद नागभट द्वितीय को एक शक्तिशाली सम्राट माना जाता है, जिसके राज्य की सीमा हिमालय से लेकर नर्मदा नदी के तट तक थी। नागभट द्वितीय की एक उपाधि नागावलोक तथा दूसरी उपाधि"परमेश्वर परमभट्टारक महाराजाधिराज"थी।नागभट द्वितीय भगवती के उपासक थे, उन्होंने जुनैद के द्वारा तोड़ दिए गए सोमनाथ के मंदिर का विस्तृत निर्माण कर भव्यता प्रदान की।नागभट द्वितीय ने अपने बेटे रामभद्र को शासन सौंपकर हरिद्वार में हर की पैड़ी पर जलसमाधि ले ली।
परिशिष्ट नंबर- 4
गुर्जर प्रतिहारो के पतन के बाद चौहान राजाओं ने भारत की रक्षा का भार संभाला तथा अजमेर को राजधानी बनाकर गजनवी के हमलों को विफल कर दिया। चौहानों के शासक पृथ्वीराज चौहान जिन्हें भारत का अन्तिम हिन्दू सम्राट भी कहा जाता है। चित्तौड़ के गहलोत और दिल्ली के तंवर जिनके सामंत थे, ने सन् 1192 तक भारत की रक्षा की। इन्हीं पृथ्वीराज चौहान के दरबारी जयानक ने पृथ्वीराज विजय में पृथ्वीराज चौहान को गुर्जर राज और मरू गुर्जर लिखा है। सन् 1192 में दिल्ली पर मोहम्मद गोरी का अधिकार हो गया।
सन् 1200 तक गुर्जर प्रतिहार वंश के पराक्रम की छांव में संघर्ष हुआ, परन्तु पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद दिल्ली में सल्तनत काल प्रारंभ हो गया और जो गुर्जर नाम का छत्र एक तरह से समाप्त हो गया। सन् 1300 तक भारतीय रजवाड़े अपने नये शत्रुओं का सामना करते रहें। परन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने इन भारतीय रजवाड़ों पर घातक हमले किए। उसमें सब कुछ बिखर कर रह गया। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में इन भारतीय रजवाड़ों के राजाओं को मुस्लिम शासकों द्वारा राजपूत नाम से पुकारा। मेवाड़ के सिसोदिया इनके नेता थे।राणा कुम्भा ने कुछ सफलताएं अर्जित की तथा चित्तौड़ में विजय स्तम्भ बनवाया। सन् 1300 से सन् 1562 यानि अकबर के समय तक इन भारतीय राजाओं से किसी भी मुस्लिम शासक ने सम्बन्ध नही बनाया,इनको अपने शासन की केबिनेट में स्थान नही दिया। अकबर एक पहला शासक था जिसने भारतीय खासतौर पर हिंदूओं को शासन में भागेदारी दी। अकबर के साथ संधि में राजपूत राजा दो हिस्सों में बट गये,एक वो राजा थे जिन्होंने अकबर से वैवाहिक संधि नही की, मेवाड़ के सिसोदिया, बूंदी के चौहान और बड गूजर इनमें प्रमुख थे। दूसरे वो राजा थे जिन्होंने अकबर से मनसबदारी प्राप्त करने के लिए वैवाहिक संधि कर ली।इन दूसरे दर्जे के राजाओं के नेता आमेर के कछवाहे तथा जोधपुर के राठौड़ थे।इन दोनों ने भारतीय जनता तथा भारत के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को सर्वाधिक कष्ट पहुचाये।ये अकबर के फरजंद (पुत्र) बने,ये मिर्जा बने अर्थात भाई। इन्होने ही छत्रपति शिवाजी महाराज को मुगलो के दरबार तक पहुचाया।
मुगलों के समर्थक इन राजाओं ने ही जो वर्षों तक मेवाड़ के सामंत रहें थे, ने राणा प्रताप का साथ ना देकर मुगलों का साथ दिया।एक समय ऐसा भी आया कि जब मेवाड़ के महाराणा प्रताप और जोधपुर के राव चंद्र सेन राठौड़ तो अरावली के जंगलों में भटक रहे थे, बाकि सभी रजवाड़ों के राजा अकबर के साथ संधि कर अपने महलों में आनंद ले रहे थे।
मेवाड़ के साथ मुगलों की सन्धि सन् 1615 में हुई। मेवाड़ के साथ संधि होते ही मुगल शासकों ने भारतीयों को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया।क्योकि अब कोई रोकने वाला भारत में नहीं था। परंतु सन् 1636 में ही आगरा के आसपास भारत के गेर राजपूत किसानों ने जाटों के नेतृत्व में संघर्ष प्रारंभ कर दिया।
दूसरी ओर दक्षिण में छत्रपति शिवाजी ने मुगलों के विरोध में मोर्चा खोल दिया।
मुगलों के विरूद्ध यह संघर्ष गोकुला जाट, राजाराम जाट व राजा सूरजमल के बलिदान दिसम्बर सन् 1763 तथा उसके पश्चात् राजा जवाहर सिंह की मृत्यु सन् 1768 तथा भरतपुर राज्य के राजा नवल सिंह (1771-76ई’) के समय मुगल साम्राज्य और भरतपुर राज्य के बीच 15 सितम्बर 1773 को हुए दनकौर युद्ध में भरतपुर राजा नवल सिंह के अलीगढ़ (कोल) प्रांत के सूबेदार चंद्र सिंह गुर्जर के दनकौर युद्ध में हुए बलिदान तक चला। गुर्जर प्रतिहार राजाओं की तरह ही जाटों ने 137 वर्षों तक संघर्ष करके मुगलो की राजधानी दिल्ली,आगरा और फतेहपुर सीकरी में से आगरा और फतेहपुर सीकरी को मुगलों से छीन लिया। विदेशी मुगल सत्ता को लाल किले के अंदर तक सिमित कर दिया। दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को स्थापित कर दिया। मराठा पेशवा के समय मुगल बादशाह नाम मात्र के ही शासक थे।
इसके बाद अंग्रेज आ गये, सन् 1857 की प्रसिद्ध क्रांति हुई, लाखों भारतीयों ने बलिदान दिये।
इस क्रांति में नाना साहब पेशवा,मेरठ के कोतवाल धन सिंह, चौधरी शाहमल सिंह,राव कदम सिंह, ठाकुर नरपत सिंह,रानी लक्ष्मीबाई,बाबू कुंवर सिंह आदि हजारों लाखों लोग शहीद हो गए। सन् 1857 के बाद भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकलकर रानी विक्टोरिया के हाथ में आ गया।अब आंदलनों के माध्यम से भारत की आज़ादी का संघर्ष प्रारंभ हो गया। स्वामी दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी,संघ के संस्थापक डा हेडगेवार तथा डा अम्बेडकर, सुभाषचन्द्र बोस तथा किसान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विजय सिंह पथिक एवं सरदार पटेल जैसे विचार शील व्यक्तियों के संघर्ष के कारण सन् 1947 में देश आजाद हुआ।
ऐसा विद्वानों का मत है कि इस्लाम और ईसाई शासक जहां 25 वर्ष तक रहै, वहां इनके अलावा कोई दूसरा नहीं बचा। यह हमारे पूर्वजों का पराक्रम और बलिदान ही था जो सैकड़ों वर्षों तक इन दोनो की तलवार के नीचे से भारतीय संस्कृति सकुशल बच गई।
सन् 730 के समय के मीणा, भील तथा जाट, गुर्जर , राजपूत और मराठा जातियों में गोत्र के रूप में राठोड़, चौहान,तोमर,बड़गुर्जर जैसे तमाम समूह पहले की तरह ही सत्ता और सम्पत्ति पर सन् 1947 में आजादी के समय भी काबिज थे।जाट, गुर्जर और राजपूत जातियों में से कुछ समूह मुस्लिम बन गए थे।
26 जनवरी सन् 1950 को भारत का संविधान बना।भील और मीणा जाति जो सत्ता से बाहर हो गई थी को अनुसूचित जनजाति के रूप मेें आरक्षण देकर सत्ता में भागीदारी दी गई। आजाद भारत के प्रत्येक नागरिक को एक वोट,एक वैल्यू,एक नागरिक के रूप में समान अधिकार दे दिए गए। भारत पुनः एकरूप हुआ।
संदर्भ ग्रंथ
1- मनोज सिंह (यू ट्यूब)- राजस्थान गुर्जर प्रतिहार राजवंश पार्ट 1, 2
https://youtu.be/k2xzChbGlrM
https://youtu.be/RhrPVNf9YR0
2- रमन भारद्वाज (यू ट्यूब)- मेवाड़ रियासत-1।
https://youtu.be/fODUh0JFKX4
3- डां सुशील भाटी- श्रीमद् आदिवराह मिहिरभोज की राजनैतिक एवं सैन्य उपलब्धियां।
4- डा सुशील भाटी- पूर्व मध्यकालीन प्रतिहार वंश की शाखाओ का गुर्जर सम्बन्ध
गुरुवार, 9 जुलाई 2020
राणा प्रताप के अग्रगामी मारवाड़ का योद्धा राव चंद्र सेन राठौड़-लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
बुधवार, 1 जुलाई 2020
धन सिंह कोतवाल और पांचली का बलिदान (4 जुलाई सन् 1857) - लेखक अशोक चौधरी मेरठ।
बागपत रोड पर पाचली खुर्द नामक गांव है, तत्तकालीन समय में इस गांव के मुखिया सालगराम थे, सालगराम मुखिया के सात बेटे थे, जिनके नाम क्रमशः चैनसुख, नैनसुख, हरिसिंह, धनसिंह, मोहर सिंह, मैरूप सिंह व मेघराज सिंह थे, इनमें धनसिंह सालगराम मुखिया के चौथे पुत्र थे, धन सिंह का जन्म 27 नवम्बर सन् 1814 दिन रविवार (सम्वत् 1871 कार्तिक पूर्णिमा) को प्रात:करीब छ:बजे माता मनभरी के गर्भ से हुआ था। धन सिंह मेरठ की सदर कोतवाली में पुलिस में थे।क्रांति की तैयारी चल रही थी, गांव गांव रोटी और कमल का फूल लेकर प्रचार किया जा रहा था, नाना साहब पेशवा के प्रचारक साधुओं के भेष में भारतीय सेना व पुलिस के सिपाहियो, तथा जिन जागीरदार तथा रियासत के राजाओं से अंग्रेजों ने जागीर छीन ली थी, से सम्पर्क कर रहे थे। इन सब प्रयासों के कारण क्रांति की तिथि 31 मई निश्चित की गई थी, क्योंकि धनसिंह पुलिस में थे, वो जानते थे कि सब कार्य क्रांतिकारियों की योजना से होने मुश्किल है, अंग्रेजों का खुफिया तंत्र हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा रहेगा, अतः धनसिंह ने अपने गांव के आसपास अपने सजातीय बंधुओं को यह समझा दिया था कि वह हर समय तैयार रहे, ताकि आवश्यकता पडने पर कम से कम समय में जहां जरूरत हो पहुंच सके।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था। मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो पैदल रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। उन्हें भारतीय सिपाहियों से मेरठ में कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा था। 10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया।तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। धनसिंह कोतवाल ने योजना के अनुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वही रहने का आदेश दिया। आदेश का पालन करते हुए अंग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी क्रांतिकारी घटनाओं के दौरान कोतवाली में ही बैठे रहे। दूसरी तरफ धनसिंह कोतवाल ने क्रांतिकारी योजनाओं से सहमत सिपाहियों को क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी, मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
परंतु 10 मई की क्रांति की घटनाओं के बाद से अंग्रेजों की गतिविधियों व भारतीयों की गतिविधियों में एक बड़ा अंतर रहा, जहां अंग्रेजों की गतिविधि अत्यधिक तेज थी वहीं भारतीयों की गतिविधियां मन्द गति से चल रही थी। उसका सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक संचार प्रणाली का होना था। सन् 1853 में ही भारत में इलेक्ट्रॉनिक टेलिग्राफ का प्रवेश हो गया था। सन् 1857 तक अंग्रेजों ने भारत के सभी महत्वपूर्ण नगरों को टेलिग्राफ के द्वारा जोड़ दिया था।
मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे। इस फोर्स को लेकर सबसे पहले क्रांतिकारियों के गढ़ धनसिंह कोतवाल के गांव पांचली, नगला, घाट गांव पर कार्रवाई करने की योजना बनी।
धनसिंह कोतवाल पुलिस में थे, अतः उनके पास भी अपना सूचना तंत्र था, धनसिंह को इस हमले की भनक लग गई। तीन जुलाई की शाम को ही वह अपने गांव पहुंच गए। धनसिंह ने पांचली, नंगला व घाट के लोगों को हमले के बारे में बताया और तुरंत गांव से पलायन की सलाह दी। तीनों गांव के लोगों ने अपने परिवार की महिलाएं, बच्चों, वृद्धों को अपनी बैलगाड़ियो में बैठाकर रिश्तेदारों के यहाँ को रुखसत कर दिया। धनसिंह जब अपनी हबेली से बाहर निकले तो उन्होंने गांव की चौपाल पर अपने भाई बंधुओं को हथियारबंद बैठे देखा, ये वही लोग थे जो धनसिंह के बुलावे पर दस मई को मेरठ पहुंचे थे। धनसिंह ने उनसे वहां रूकने व एकत्र होने का कारण पूछा। जिस पर उन्होंने जबाब दिया कि हम अपने जिंदा रहते अपने गांव से नहीं जायेंगे, जो गांव से जाने थे वो जा चुके हैं। आप भी चले जाओ। धन सिंह परिस्थिती को समझ गए कि उनके भाई बंधु साका के मूड में आ गए हैं। जो लोग उनके बुलावे पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ने मेरठ पहुंच गए थे, उन्हें आज मौत के मुंह में छोड़कर कैसे जाएं। धनसिंह ने अपना निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने गाँव के क्रांतिकारियों को हमले का मुकाबला करने के लिए जितना हो सकता था मोर्चाबंद कर लिया।
चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने गांव पर हमला कर दिया। अँग्रेज अफसर ने जब गाँव में मुकाबले की तैयारी देखी तो वह हतप्रभ रह गया। वह इस लड़ाई को लम्बी नहीं खींचना चाहता था, क्योंकि लोगों के मन से अंग्रेजी शासन का भय निकल गया था, कहीं से भी रेवेन्यू नहीं मिल रहा था और उसका सबसे बड़ा कारण था धनसिंह कोतवाल व उसका गांव पांचली। अतः पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 46 कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को फांसी दे दी गई। मृतकों की किसी ने शिनाख्त नहीं की। इस हमले के बाद धनसिंह कोतवाल की कहीं कोई गतिविधि नहीं मिली, सम्भवतः धनसिंह कोतवाल भी इसी गोलीबारी में अपने भाई बंधुओं के साथ शहीद हो गए। उनकी शहादत को शत् -शत् नमन।
संदर्भ ग्रन्थ
1- 1857 की जनक्रांति के जनक धनसिंह कोतवाल -डॉ सुशील भाटी।
2- 1857 के क्रांतिनायक शहीद धनसिंह कोतवाल का सामान्य जीवन परिचय -तस्वीर सिंह चपराणा(स्मारिका अमर शहीद धन सिंह कोतवाल ,3 जुलाई सन् 1918 मेरठ सदर थाना)
3- UTTAR PRADESH DISTRICT GAJETTEERS MEERUT -shrimati Esha Basanti JoshI
4- क्षेत्र में प्रचलित किवदंतियां।
5- दैनिक जागरण मेरठ 8 मई 2007 -वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई, धन सिंह गुर्जर: क्रांति के कर्मठ सिपाही।
शनिवार, 27 जून 2020
गुरुवार, 25 जून 2020
क्षत्रियों के 36 कुल
- पहली सूची चंद्रवर्दायी जिन्होंने पृथ्वीराजरासो लिखा है बाद इन्होंने पृथ्वीराज रासो के छन्द 32 में छन्द के रूप में कुछ क्षत्रियों के कुल को लिखा है जो इस प्रकार है।
- पृथ्वीराज रासो में चंद्रवर्दायी ने कुछ कुलों को एक छन्द (दोहा) के रूप में लिखा है। जो द्वितीय सूची के रूप में प्रकाशित हुई
- तृतीय सूची में 36 क्षत्रिय कुल कर्नल टॉड ने नाडोल सिटी (मारवाड़) के जैन मंदिर के पुजारी से प्राप्त कर प्रकाशित किया
- चतुर्थ सूची में हेमचंद्र जैन ने "कुमार पालचरित्र" में 36 क्षत्रियों की सूची प्रकाशित की।
- पंचम सूची में मोगंजी खींचियों के भाट ने प्रकाशित की
- छठी सूची में नैनसी ने 36 शाही कुलों तथा उनके राजधानियों का वर्णन किया गया है
- सातवीं सूची में जो पद्मनाभ ने जारी की में प्रकाशित हुई
- आठवीं सूची में हमीरयाना जो भन्दुआ में प्रकाशित की।
- यह सूची उन्होंने मारवाड़ के अंतर्गत नाडौल नगर के एक जैन मंदिर के यती से ली थी। यह सूची यती जी ने किसी प्राचीन ग्रंथ से प्राप्त की थी।
- यह सूची उन्होंने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि चन्दबरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासों से ग्रहण की थी।
- यह सूची उन्होंने कुमारपाल चरित्र से ली थी। यह ग्रंथ महाकवि चन्दबरदाई के समकालीन जिन मण्डोपाध्याय कृत हैं। इसमें अनहिलावाड़ा पट्टन राज्य का इतिहास है।
- यह सूची खींचियों के भाट से मिली थीं
- पाँचवीं सूची उन्हें भाटियों के भाट से मिली थी।