प्रत्येक व्यक्ति, समाज और देश विपत्ति से बचना चाहता है। कोई नहीं चाहता कि उस पर विपत्ति आये? इसके साथ ही दूसरी ओर विद्वानों ने विपत्ति के समय को स्वर्ण काल भी कहा है। यदि भगवान् राम को वनवास न होता, भगवान् कृष्ण पर कंस के रूप में विपत्ति न आयी होती तो ये दोनों महापुरुष आज अवतारों की श्रेणी में न होकर सामान्य राजाओं की श्रेणी में होते। यदि महाभारत का युद्ध न हुआ होता तो अभिमन्यु, घटोतकच और कर्ण जैसे योद्धाओं का पता ही नहीं लगता।
इसलिए जब भी किसी देश या समाज पर विपत्ति आती है और वहां संघर्ष की स्थिति सम्मुख होती है तब नये नायक समाज से प्रकट होते हैं, जो समाज एवं राष्ट्र के लिए प्रेरणा स्रोत बनते हैं। क्योंकि वंशो या उच्च कुल का परिचय समझौते की मेजों पर तो चलता है, लेकिन संघर्ष काल में पराक्रम का परिचय होता है, वहां कुल या वंश के परिचय पीछे छूट जाते हैं और समाज से नये नायकों का उदय होता है।
ऐसी ही संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में घोघा बापा ने अपने देश व कर्तव्य के मान की खातिर संघर्ष करते हुए बलिदान दिया और भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर उभरे।
यह सन् 1025 के समय की बात है। घोघा बापा चौहान गोत्र के गुर्जर थे। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय (सन् 805-833) ने अपने पराक्रम से राज्य विस्तार करते हुए कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया तथा उस समय के शाकुमंभरी के चौहान प्रमुख गुवक ने अपनी बहन कलावती का विवाह नागभट्ट द्वितीय से कर दिया था। अतः चौहान एक तरह से गुर्जर प्रतिहार शासन में बराबर के हिस्सेदार थे। गुजरात से लेकर सिंध तक का क्षेत्र चौहानो की ही निगरानी में था। नागभट्ट द्वितीय ने ही पुष्कर सरोवर (अजमेर) का निर्माण करवाया था।
अयोध्या मथुरा काशी और सोमनाथ का मन्दिर भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। चारों स्थान हिन्दुओं के मान-सम्मान और महान संस्कृति का प्रतीक है। इसलिए विदेशी व वि धर्मी हमलावरों ने जब-जब भारत पर आक्रमण किये और विजयी हुए तो भारतीय समाज को हतोत्साहित करने के लिए इन श्रद्धा के केंद्रों पर भी हमला किया।
ऐसे ही अनेक हमले सोमनाथ के मन्दिर पर हुए। सोमनाथ का मन्दिर कितना पुराना है इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं है। परन्तु सन् 649 में वल्लभी के यादव राजा ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। सन् 725 में अरबों की ओर से सिंध के गवर्नर अल-जुनैद ने तत्कालीन गुर्जर देश (वर्तमान में राजस्थान व गुजरात) की राजधानी भीनमाल पर हमला कर उसे भारी हानि पहुंचायी तथा उस क्षेत्र के सम्पूर्ण भारतीय समाज को ललकारते हुए सोमनाथ के मन्दिर को तोड दिया। गुर्जर प्रतिहार नागभट्ट प्रथम (सन् 730-760)ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर जुनैद को मार डाला तथा उज्जैन को अपनी राजधानी बनाकर गुर्जर देश का संचालन किया। नागभट्ट प्रथम ने जुनैद के खात्मे के साथ अपने भारतीय शत्रु राष्ट्रकूट राजा दन्ति दुर्ग को भी परास्त कर दिया। गुर्जर प्रतिहार राजाओं ने अरब के हमलों को विफल कर दिया। सन् 815 में नागभट्ट द्वितीय ने सोमनाथ मन्दिर का पुन:जीर्णोद्धार कर भव्य मंदिर बनवाया। उत्थान और पतन प्रकृति का नियम है। अब भारत पर उत्तर-पश्चिम की ओर से तुर्को के हमले प्रारम्भ हो गए। इन हमलों में महमूद गजनवी के हमले भी है। महमूद गजनवी की आकृति राजाओं जैसी नहीं थी। उसका कद मध्यम और शरीर हृष्ट-पुष्ट था। दिखने में वह कुरूप था, वह कोई बड़ा योद्धा भी नहीं था। वह एक साहसी डाकू, लालची लुटेरा तथा कला का निर्दयी नाशक था। वह जहां भी गया वहां अत्यंत निर्दयता पूर्वक उसने हत्याकांड किये। धन का अत्याधिक लालच उसके जीवन का सबसे बड़ा कलंक था। जो विजेता अपने पीछे उजड़े नगरों, गांवों तथा निर्दोष मनुष्यों की लाशों को छोड़ जाता है, उसे भावी पीढ़ियां केवल आततायी राक्षस समझकर ही याद रख सकती है। शासक की हैसियत से भारत या अफगानिस्तान के इतिहास में महमूद गजनवी का कोई स्थान नहीं है। उत्तरी भारत की राजधानी कन्नौज पर सन् 1018 में महमूद गजनवी ने हमला कर दिया। कन्नौज में उस समय गुर्जर प्रतिहार राजा राजपाल का शासन था। हमलावर के अधिक शक्तिशाली होने के कारण राजपाल अपनी सेना लेकर भारत के अन्दर की ओर चला गया। अपनी शक्ति बचाकर, अपने सामंतों के साथ मिलकर ज्यादा शक्ति से हमला किया जाय, ऐसी योजना राजपाल की थी। परन्तु राजपाल के सामन्त चंदेल राजा विद्याधर को यह बात समझ नहीं आई। क्रोध के वशीभूत चंदेल राजा ने अपने सम्राट राजपाल की हत्या कर दी। इस बात की सूचना जैसे ही महमूद गजनवी को चली, उसने चंदेल राजा पर हमला कर दिया। परंतु चंदेल राजा महमूद गजनवी का सामना न कर सका। स्थिति यह हो गई की उत्तरी भारत में गुर्जर प्रतिहार नामक छतरी टूट गई। केंद्रीय सत्ता समाप्त हो गई। उन हालातों में सन् 1025 में महमूद गजनवी ने भारत के सोमनाथ के मन्दिर पर हमला किया। यह भारत पर गजनवी का 17 वाँ हमला था। 17 अक्टूबर सन् 1024 के दिन एक विशाल सेना लेकर महमूद, गजनी से चल पड़ा। भारत पर सबसे पहला हमला उसने सन् 1000 में 15000 घुड़सवारों की सेना की मदद से किया था। परन्तु सोमनाथ पर हमले के दौरान महमूद के पास पहले से भी बड़ी सेना थी। इतनी बड़ी सेना का उसने पहले कभी संचालन नहीं किया था। सिन्धु नद भारतीय सीमा पर नदी है, इसका विस्तार देखकर ही इसे नदी न कहकर नद कहते हैं। तत्कालीन समय सिन्धु नदी से ही भारत की सीमा प्रारम्भ होती थी तथा भारत की पहली चौकी मुल्तान की पडती थी। मुल्तान के बाद मे लोहकोट की चौकी थी।
इसके बाद मरूस्थली के सर पर घोघागढ नामक एक छोटा सा किला था। किला एक ऊँची सीधी खड़ी हुई अगम चट्टान की चोटी पर था। दुर्गम गिरी पर विराजमान यह छोटा सा दुर्ग उस समय बहुत महत्व रखता था। बिना इस दुर्ग की दृष्टि में पडे कोई भी इस मरूस्थली में प्रविष्ट नहीं हो सकता था। घोघा बापा इस गढी के गढपति थे। इस समय घोघा बापा की आयु लगभग 80 वर्ष थी। वह अपने जीवन के अन्तिम पडाव पर थे। लेकिन घोघा बापा थे बड़े वीर और साहसी। उनकी वीरता एवं साहस के किस्से आसपास के क्षेत्र में प्रचलित थे।
घोघा बापा के परिवार में नाति-पोते सब मिलाकर 82 पुरूष थे। घोघाबापा के इस गढ़ में अन्य सैनिकों एवं कार्यसेवको सहित कुल मिलाकर 1100 पुरूष तथा 700 महिलाएं थी, बच्चे भी थे।
महमूद गजनवी सिन्धु नदी को पार कर 20 नवम्बर सन् 1024 को मुल्तान पहुंच गया। मुल्तान और लोहकोट की चौकी की रक्षा की जिम्मेदारी निभाने वाले सामन्तो ने गजनवी की विशाल सेना को देखकर आत्मसमर्पण कर दिया।इस कारण महमूद का ऐसा आतंक बैठा कि रास्ते में पडने वाले इन सूबेदार और सामंतों ने मृत्यु के भय से अपने-अपने गढ़ों पर सुलह का सफेद झण्डा फहराकर महमूद को निकलने का मार्ग और रसद दे दी, तो कच्छ के रण-सीमांत में स्थित एक छोटी सी गढीं के नायक की बिसात ही क्या थी? यही सोचकर महमूद ने अपना संदेश घोघाबापा को भेजा था। महमूद की अवाई सुनकर घोघागढ में भी उत्तेजना व चिंता की लहर फैल गई थी, जब महमूद का दूत घोघाबापा के सामने पहुंचा और बोला "आपकी शूरवीरता और बुजुर्गी बेमिसाल है, गजनी के अमीर अमीनुद्दोला महमूद ने यह तुच्छ भेंट आपसे मित्रता के उपलक्ष्य में भेजी है। कुबूल फर्माकर ममनून किजिये।" घोघाबापा ने पूछा आपका अमीर क्या चाहता है? दूत बोला "आप मरूस्थली के महाराज है, अमीर मरूस्थली से होकर आगे जाने की इजाजत चाहता है।" इतना कहकर दूत ने हीरो से भरा थाल सामने की ओर पेश कर दिया। घोघाबापा ने कसकर एक लात उस हीरो से भरे थाल में लगाई और वहाँ से चल दिए तथा बोले "अपने अमीर से कहो कि लात ही मेरा उत्तर है।" गढ़ के उस कमरे में वे हीरे बिखरकर वहां की धूल की शोभा बढाने लगे।
दूत के जाने के कुछ देर बाद घोघाबापा प्राकृतिक अवस्था में आ गए, उनका क्रोध न जाने कहां चला गया। घोघाबापा ने अपने पुत्रों व अनुयायियों को बुलाया और कहा "अरे सूर्य और चंद्र के वंशजों ने प्राणों के मोह और चमकीले कंकड़- पत्थरों के लालच में अपना कर्तव्य बेच दिया। हमारी मुल्तान और लोहकोट की चौकी बिना लडे ही टूट गई। परन्तु अभी हम जिंदा है इसलिए चिंता नहीं। मैं भगवान् सोमनाथ की चौकी पर यहाँ मरूस्थली के मुख्य द्वार पर मुस्तैद हूँ। गजनी के महमूद की क्या मजाल जो मेरे जीते-जी मेरी मरूभूमि में पैर रख दें।"
घोघाबापा को अंदाजा था कि महमूद को यहां पहुंचने में एक पखवाड़ा लग जायेगा। अब वृद्ध घोघाबापा युवा पुरूष की भांति व्यस्त कार्यक्रम में जुट गए। उन्होंने अपने बड़े बेटे को राजा के पास सूचना देने के लिए भेज दिया तथा मरम्मत योग्य स्थलों की मरम्मत प्रारम्भ करा दी, अनावश्यक द्वारों को ईंट- पत्थरों से भरवा दिया। खाई की सफाई करायी, पुल उठवा दिया, गढी के द्वार बंद कर दिए, केवल मोरी खुली रखी। गढी के लोहारो की धोकनी आग की चिंगारियो से रात-दिन मनोरंजक खेल खेलने लगी। ढेर के ढेर तीर, बरछे और तलवारें तैयार होने लगी। वृद्ध घोघाबापा नित्य सायं और सवेरे गढी के बुर्ज पर खड़े होकर दूर क्षितिज की ओर गजनी के महमूद की सेना को व्यग्र भाव से देखा करते थे। घोघाबापा को यह सत्य मालूम था कि महमूद की सेना के सामने वह और उनके मुठ्ठी भर सैनिक अधिक देर तक नहीं टिक नहीं सकेगें। अब सामने दो ही विकल्प थे, पहला महमूद के सामने प्राण रक्षा के लिए घुटने टेक देना और दूसरा रणभूमि में वीरगति पाना।
और एक दिन जिसका इंतजार था वह घड़ी आ गई। दूर क्षितिज में विशाल अजगर की भांति सरकती हुई महमूद गजनवी की सेना आ रही थी, उस सेना का आदि-अंत न था। घोड़ों के खुरों से उडती हुईं गर्द ने आकाश ढाप लिया था। गर्द के बादलों में बिजली की भांति सेना के शस्त्र चमक रहे थे। काले-पीले उछलते-कूदते बादलों के समान उमड़ती हुईं महमूद की घुड़सवार सेना आगे बढती आ रही थी।
देखते ही देखते महमूद की सेना ने गढी इस तरह घेर ली जैसे सांप कुंडली मार कर बैठ जाता है। घोघागढ के कंगूरो पर घोघाबापा के धनुर्धारी योद्धा भी जमकर बैठ गए। महमूद की सेना निरूपाय थी, उसके हाथी-घोडें गढी के सीधे परकोटे पर चढ़ ही नहीं सकते थे। दुर्जय पर्वत पर घोघागढ का वह अजय दुर्गम दुर्ग घोघाबापा की तरह ही सिर ऊँचा किए खड़ा था।
महमूद का दूत सफेद झंडा फहराता हुआ अकेला दुर्ग की ओर आगे बढा। उस समय सूर्य देव छिपने की तैयारी में थे। शत्रु की ओर से एक सवार को आगे आते देख, गढवी ने बाण सीधा कर ललकार कर कहा, "वहीं खड़ा रह, बता क्या चाहता है।" सवार ने कहा, "में अमीर का दूत हूँ द्वार खोल दो मुझे घोघाबापा से अमीर का संदेश निवेदन करना है।" जब महमूद का संदेश वाहक घोघाबापा के सामने संदेश लेकर पहुंचा तो क्रोध की अधिकता से 80 वर्षिय उस वीर पुरूष का चेहरा तमतमा गया। सुलगती आंखों से संदेशवाहक को भस्म-सा करते हुए वे बोले, "जाओ और अपने स्वामी से कह देना कि घोघाबापा इस मरूस्थल का रक्षक है, माँ मरूचंडी की आन, प्राण रहते महमूद को सोमनाथ तीर्थ जाने का मार्ग देना तो दूर, मरूभूमि की रेत पर पैर तक नहीं रखने दूंगा।"
घोघाबापा के शौर्य और पराक्रम की कथाएँ महमूद रास्ते में पहले ही सुन चुका था। उसने घोघाबापा की शपथ सुनकर गढी का घेरा उठा सोमनाथ की ओर कूच कर दिया। महमूद जानता था कि घोघाबापा शक्ति में उससे ज्यादा नहीं है, परन्तु वह टकराने से इसलिए बच रहा था कि कहीं भारतीयों में संघर्ष होने पर उत्साह का संचार न हो जाए। वह तो सोमनाथ की दौलत को लूटकर जल्द से जल्द वापस अपने वतन लौट जाना चाहता था।
इसलिए महमूद गजनवी ने गढी का घेरा उठा अपने रास्ते चलने का निर्णय लिया। घोघागढ के रक्षकों ने देखा, महमूद की सेना धीरे-धीरे दुर्ग का घेरा छोड़कर इस प्रकार मरूस्थली में धँस रही है जैसे साँप बांमी में धसता है।
गढवी ने दौड़कर घोघाबापा को सूचना दी और कहा, "बापा महमूद मरूस्थली में घुस रहा है" घोघाबापा खड़े हो गए, वह महमूद की चाल समझ गए। उन्होंने तलवार उठा ली, क्रोध में भरकर बोले, "मैं जब से मरूस्थली का स्वामी बना हूँ, तब से लेकर आज तक मेरी मंजूरी के बिना एक चिड़िया भी मरूस्थली में नहीं घूस सकी है। अब यह गजनी का महमूद घोघाबापा के सिर पर पैर रखकर, मेरी चौकी को लांघकर मरूस्थली में पैर धरेगा? यह मेरे जीते-जी नहीं हो सकता। जा बेटा, साका रचने की तैयारी कर तब तक में आता हूँ।" गढवी ने घोघाबापा के मंसूबे को समझ लिया। उसने हाथ बांध कर घोघाबापा की ओर देखकर कुछ कहने की कोशिश की, पर वह कह न सका। घोघाबापा ने उसका अभिप्राय समझ, जलती हुई आँखों से उसकी ओर देखा। गढवी ने साहस बटोर कर कहा, "बापू,शत्रु की सेना असंख्य है।" सो इससे क्या हुआ रे? घोघाबापा अब शत्रु को गिनकर अपना कर्तव्यपालन करेगा? गढवी का और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ, वह सिर झुकाकर तेजी से चल दिया। छण भर बाद ही वह छोटी सी गढी विविध रणबाजों तथा जयनाद की ध्वनि से गूंज उठीं। गढ़ में भागदौड़ मच गयी। बेटे पोते और सम्बन्धी तथा सब सहयोगी शस्त्र चमकाते हुए गढी के आंगन में आ जुटे। घोड़े और ऊंटों की हिनहिनाहट व बलबलाहट से कान के पर्दे फटने लगे।
घोघाबापा ने जरीनाबाग पहना, सिर पर केसरी पाग बांधी, मस्तक पर कुमकुम तिलक लगाया, कमर में दोहरी तलवार बाँधी। फिर सिंह की भांति ज्वलंत नेत्रों से उन्होंने कुमकुम अक्षत के थाल हाथों में सजाये, अपनी कुलांगनाओं को झरोखों में खड़े देखा। अपने कुल की महिलाओं और बच्चों को देख घोघाबापा की आँखों में मोहवश पानी आ गया, परन्तु कर्तव्य-पथ पर मोह का क्या काम? दुर्ग के बाहर मौजूद अपने शत्रु का ख्याल आते ही क्रोध में घोघाबापा की आँखें लाल हो गई और फिर उन्होंने उच्च स्वर में कहा, "चलों पुत्रियों, हम आज कैलाश गमन करते हैं, तुम सब हमसे प्रथम वहां पहुंचकर, इसी प्रकार अक्षत कुमकुम से हमारा सत्कार करना। इसमें अब देर नहीं कुछ ही घड़ी की बात है।" कुमारियां मंगलगान कर उठी। कुलगुरू ने आगे बढ़कर कुमकुम का तिलक घोघाबापा के मस्तक पर लगाया और उच्च स्वर में कहा, "हे अंधकार का नाश करने वाले सूर्य तेरा यश अमर रहे।" बाहर सेना में जयनाद हुआ। घोघाबापा ने गढी में एकत्रित अपने सगे-संबंधी व अनुयायियों से कहा, "सेवक, दुकानदार और बीमार सब पहले गढ़ से बाहर चले जाए और जो भी कोई प्राण बचाना चाहे, स्त्री-पुरुषों सहित तथा जो सामग्री ले जाना चाहें लेकर चला जाये।" थोड़ी देर तक घोघाबापा ने इंतजार किया, परन्तु एक भी व्यक्ति जाने को तैयार नहीं हुआ। घोघाबापा ने एक दृष्टि चारों ओर फेरी,चारों तरफ केसरी पाग हिलोरें ले रही थी।
घोघाबापा ने राघवमल गढवी को पुकार कर कहा, "राघव द्वार खोल दे वीर, गढ़ तेरा है।"
राघवमल ने जोर से कहा, "नहीं अन्नदाता, मैं चरणों में हूँ, गढ़ गुरुदेव को ही समर्पित किजिये।"
"तब ऐसा ही हो। कुलगुरू जी, गढ़, अनंतपुर और हमारी कुल- मर्यादा आपके हाथ रही।"
जयकारों से दिशाएँ गूंज उठी। हल्की चित्कार करके दुर्ग के फाटक खुल गए, विषधर सर्प की भांति फुफकार मारती यह मर-मिटने वाले वीरों की छोटी सी मंडली घोघागढ के सिंह- द्वार से सवेरे की पहली किरण में स्नान करती हुई युद्ध भूमि में आगे बढ़ गई।
महमूद ने देखा तो असमंजस में पड़ गया। इस प्रकार इच्छा करके मृत्यु का वरण करने का अर्थ वह समझ ही नहीं सका। परन्तु एक चतुर सेनानायक की भांति वह पैंतरा काट घूम पड़ा। उसने झटपट रसद और जल से भरे हुए ऊँट, अशरफियों से लदे हाथी और सेना के एक भाग को द्रुतगति से मरूस्थली में प्रविष्ट करा दिए। सेना के दूसरे भाग को जिसमें हाथी, ऊंट व तीरंदाज थे, को घोघाबापा की ओर बढ़ा दिए। दोनों सेनाएं एक स्थान पर टकराई। घोघाबापा के सिर पर सैकड़ों तलवारें छा गई। दोनों ओर से लाशें बिछने लगी।
देखते-देखते घोघाबापा सहित सभी योद्धा शहीद हो गए। इन सभी की शहादत को शत-शत नमन।
इतिहास के पन्नों में घोघाबापा को उचित स्थान नहीं मिला। एक छोटी सी गढी के नायक होने के कारण तत्कालीन इतिहासकारों ने अपनी लेखनी में उन्हें जगह नहीं दी। परन्तु भारतीय जनमानस के दिलों में वे छा गए। घोघाबापा को बागड़ का देवता भी कहा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जाहरवीर, घोघापीर के नाम से मेले लगाये जाते हैं। गूजरों में इनकी सर्वाधिक मान्यता है, गूजर जाति के पुरुष और महिलाए इनके मेलों में सबसे अधिक संख्या में भाग लेते हैं। उत्तरी भारत से गूजर ही सबसे अधिक बागड़ को चाप लेकर जाते हैं। रिश्तेदारी में प्याज व दाल प्रसाद के रूप में भेजा जाता है। जिस रिश्तेदार के यहां यह प्रसाद पहुंच जाता है। उसे हर हाल में बागड़ से वापसी के दिन बुलाने वाले के यहां जाना होता है। प्रतिक के रूप में यह युद्ध का बुलावा है। सन् 1719 व सम्वत् 1776 को जोधपुर के राजा अजीत सिंह के शासन काल में मंडोर नामक स्थान पर घोघाबापा की घोड़े पर सवार पत्थर की मूर्ति लगायी गयी थी।
बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता, बलिदान कभी भुलाया नहीं जाता। घोघाबापा का बलिदान भी व्यर्थ नहीं गया।
सन् 1025 से लेकर अंग्रेजों के आने तक सोमनाथ मन्दिर पर अलाउद्दीन खिलजी व औरंगजेब द्वारा भी हमले किए गए। सन् 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तो सरदार पटेल भारत के गृहमंत्री बने। 13 नवम्बर सन् 1947 को सरदार पटेल ने भारत सरकार के तत्कालीन निर्माण मंत्री श्री गाडगिल के साथ सौराष्ट्र प्रदेश के सोमनाथ मन्दिर का दौरा किया। सरदार पटेल का हृदय धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत था। एक हिन्दू होने के नाते वह सोमनाथ के महत्व को समझते थे। सोमनाथ का मन्दिर भारत की धार्मिक भावनाओं का प्रतीक था। मन्दिर की दुर्दशा देख कर पटेल जी का हृदय विदीर्ण हो गया और उन्होंने मन्दिर का पुन:निर्माण कराने का संकल्प किया। सरदार पटेल के संकल्प की प्रतिक्रिया देश के कोने-कोने में हुई। धनराशि एकत्रित हो गईं। भारत सरकार ने कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति नियुक्त की। सौराष्ट्र सरकार ने अपने राज प्रमुख की अध्यक्षता में एक ट्रस्टी बोर्ड स्थापित किया।
अब सोमनाथ के प्राचीन मन्दिर का स्थान खोजने के लिए खुदाई की गई। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के प्रतिनिधियों ने इस कार्य में सहायता दी। इन अन्वेषण से सोमनाथ के एक के ऊपर एक पाँच प्राचीन मन्दिर भू- गर्भ में मिले।
अन्त में यह निर्णय किया गया कि प्राचीन मन्दिरों के खंडहरों को हटा कर एक नये मन्दिर का निर्माण किया जाए। मूल पांचवे मन्दिर के आधार नये मन्दिर का एक ढांचा तैयार किया गया तथा उसे कार्यरूप में परिणत करने की व्यवस्था की गई। इस मन्दिर की मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह 11 मई सन् 1951 को किया गया और उसमें तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भाग लिया। इस प्रकार सरदार पटेल के संकल्प द्वारा भारत की एक महती राष्ट्रीय आकांक्षा की पूर्ति की गई।
सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार ही घोघाबापा व उनके बहादुर साथियों को सच्ची श्रद्धांजलि थी।
संदर्भ ग्रंथ
1- भारत का इतिहास (महमूद गजनवी व महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत) -डॉ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव।
2- सरदार वल्लभ भाई पटेल :व्यक्ति और विचार -विश्व प्रकाश गुप्ता, मोहिनी गुप्ता।
3- सरदार वल्लभ भाई पटेल :एज आई न्यू हिम, पृष्ठ 409 -मोरारजी देसाई।
4- पांचजन्य, 19 सितंबर, 2004 -नरेंद्र कोहली।
5-Jaya Somnath [1- Ghoghagarh Faces the Storm, 2- Ghogha Bapa's Supreme Gesture ]- K M Munshi।
5- सोमनाथ -आचार्य चतुरसेन।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें