बुधवार, 8 अगस्त 2018

स्वराज की राह में शहीद मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर -अशोक चौधरी मेरठ

भारत शूरवीरों की भूमि है, देश हित व व्यक्तिगत सम्मान के लिए जो कुर्बानी भारत के वीर योद्धाओं ने दी है, उनका विश्व में कोई सानी नहीं है। ऐसे ही एक योद्धा थे शिवाजी की अश्व सेना के सेनापति प्रताप राव गुर्जर।
प्रताप राव गुर्जर का शिवाजी व भारत के इतिहास में योगदान का इस बात से ही पता चल जाता है कि जहां शिवाजी के राज्याभिषेक  1674 से ठीक आठ वर्ष पहले तक प्रताप राव गुर्जर ही शिवाजी के प्रधान सेनापति रहे हैं। वहीं पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी के बीच सन् 1191 के तराइन युद्ध में भारतीय सेना की विजय के 480 वर्ष बाद फरवरी सन् 1672 में मुगल-मराठा के बीच सलहेर युद्ध में भारतीय सेना की विजय का वह नायक रहा है। सलहेर के युद्ध में मराठों की ओर से सेनापति प्रताप राव गुर्जर व पेशवा मोरोपंत सेनानायक थे। दूसरी ओर विश्व की सबसे शक्तिशाली मुगल सेना थी जिसमें राजपूत, रोहिल्ले और पठान सहायता में थे। मुगल सेनानायको में दिलेर खान (दक्षिण का सूबेदार), बहादुर खान (गुजरात का मनसबदार), सेनानायक इखलास खान व बहलोल खान प्रमुख थे। इस युद्ध की विजय के बाद सन्त रामदास ने शिवाजी को एक प्रसिद्ध पत्र लिखा। जिसमें गुरु रामदास ने अपने सम्बोधन में शिवाजी को गजपति, ह्रयपति (घुड़सवार सेना), गढ़पति और जलपति कहा है। इस युद्ध की विजय के बाद शिवाजी के छत्रपति बनने का रास्ता साफ हो गया था।
प्रताप राव गुर्जर एक सफल योजनाकार सेनापति था वह सिंहगढ, सलहेर व उमरानी के युद्धों का नायक था। अपने पक्ष की योजनाओं को सफल बनाने के लिए जान पर खेल जाना, उसके लिए मामूली बात थी। वह शिवाजी को सेनापति के रूप में कुदरत की ओर से मिला उपहार था। वह एक भावुक व्यक्ति था, उसकी भावुकता उसकी शक्ति भी थी और कमजोरी भी।
प्रताप राव गुर्जर का वास्तविक नाम कडतौजी गुर्जर था। वह वर्तमान महाराष्ट्र के जिला सातारा की तहसील खटाव में गांव भोसरे के निवासी थे। प्रताप राव गुर्जर की उपाधि शिवाजी ने औरंगजेब के प्रसिद्ध सेनानायक मिर्जा राजा जयसिंह के साथ युद्ध के समय दिखाई वीरता से प्रसन्न होकर दी थी।

प्रताप राव गूजर ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़ छावनी का सूबेदार बन गया।

इस बीच औरंगजेब ने जुलाई1659 में शाइस्तां खां को मुगल साम्राज्य के दक्कन प्रान्त का सूबेदार नियुक्त किया, तब तक मराठों का मुगलों से कोई टकराव नहीं था, वे बीजापुर सल्तनत के विरूद्ध अपना सफल अभियान चला रहे थे। औरंगजेब शिवाजी के उत्कर्ष को उदयीमान मराठा राज्य के रूप में देख रहा था। उसने शाइस्ता खाँ को आदेश दिया कि वह मराठों से उन क्षेत्रों को छीन ले जो उन्होंने बीजापुर से जीते हैं। आज्ञा पाकर शाईस्ता खां ने भारी लाव-लश्कर लेकर पूना को जीत लिया और वहां शिवाजी के लिए निर्मित प्रसिद्ध लाल महल में अपना शिविर डाल दिया। उसने चक्कन का घेरा डाल कर उसे भी जीत लिया, 1661 में कल्याण और भिवाड़ी को भी उसने जीत लिया।

प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। प्रताप राव गूजर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दक्कन में मुगलों की राजधानी औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय लिया।

मराठे, शिवाजी के नेतृत्व, में एक छद्म बारात का आयोजन कर उसके शिविर में घुस गये और शाइस्ता खां पर हमला कर दिया। शाइस्ता खां किसी प्रकार अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु इस संघर्ष में शिवाजी की तलवार के वार से उसके हाथ की तीन ऊँगली कट गयी। इस घटना के परिणाम स्वरूप एक मुगल सेना अगली सुबह सिंहगढ़ पहुंच गयी। मराठों ने मुगल सेना को सिंहगढ़ के किले के नजदीक आने का अवसर प्रदान किया। जैसे ही मुगल सेना तोपों की हद में आ गयी, मराठों ने जोरदार बमबारी शुरू कर दी। उसी समय प्रताप राव अपनी घुड़सवार सेना लेकर सिंहगढ़ पहुंच गया और मुगल सेना पर भूखे सिंह के समान टूट पड़ा, पल भर में ही मराठा घुड़सवारों ने सैकड़ों मुगल सैनिक काट डाले, मुगल घुड़सवारों में भगदड़ मच गयी,प्रताप राव गूजर ने अपनी सेना लेकर उनका पीछा किया। इस प्रकार मुगल घुड़सवार सेना मराठों की घुड़सवार सेना के आगे-आगे हो ली। यह पहली बार हुआ था कि मुगलों की घुड़सवार सेना का मराठा घुड़सवार सेना ने पीछा किया हो। सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रताप राव गूजर ने जिस बहादुरी और रणकौशल का परिचय दिया,शिवाजी उससे बहुत प्रसन्न हुए। अपनी इस शानदार सफलता से उत्साहित प्रताव राव ने मुगलों की बहुत सी छोटी सैन्य टुकड़ियों को काट डाला और मुगलों को अपनी सीमा चौकियों को मजबूत करने के लिए बाध्य कर दिया।

 शाइस्ता खां इस हार और अपमान से बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसकी सेना का मनोबल गिर गया। उनके दिल में मराठों का भय घर कर गया, शाइस्ता खां की इस मुहिम की विफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी और उनका दक्कन का सूबा खतरे में पड़ गया। दक्कन में तनाव इस कदर बढ़ गया कि लगने लगा कि अब औरंगजेब स्वयं दक्कन कूच करेगा परन्तु कश्मीर और पश्चिमी प्रान्त में विद्रोह हो जाने के कारण वह ऐसा न कर सका। फिर भी उसने शाइस्ता खां को दक्कन से हटा कर उसकी जगह शहजादा मुअज्जम को दक्कन का सूबेदार बना दिया।

मराठों ने पूरी तरह मुगल विरोधी नीति अपना ली और1664 ई० में मुगल राज्य के एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत, प्रसिद्ध बन्दरगाह और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र,सूरत पर हमला कर दिया । इस तीव्रगति के आक्रमण में शिवाजी के साथ प्रताप राव गूजर और मोरो पन्त पिंगले और चार हजार मवाली सैनिक थे। सूरत पर हमले से मराठों को एक करोड़ रूपये  प्राप्त हुए जिसके प्रयोग से मराठा राज्य को प्रशासनिक और सैनिक सुदृढ़ता प्राप्त हुई। सूरत की लूट औरंगजेब सहन नहीं कर सका। इधर मराठों ने मक्का जाते हुए हज यात्रियों के एक जहाज पर हमला कर दिया। इस घटना ने आग में घी का काम किया और औरंगजेब गुस्से से आग-बबूला हो उठा। उसने तुरन्त मिर्जा राजा जय सिंह और दिलेर खां के नेतृत्व में विशाल सेना मराठों का दमन करने के लिए भेज दी। दक्कन पहुंचते ही दिलेर खां ने पुरन्दर का घेरा डाल दिया, जय सिंह ने सिंहगढ़ को घेर लिया और अपनी कुछ टुकड़ियों को राजगढ़ और लोहागढ़ के विरूद्ध भेज दिया। जय सिंह जानता था कि मराठों को जीतना आसान नहीं है, अत: वह पूर्ण तैयारी के साथ आया था। उसके साथ 80000 चुने हुए योद्धा थे। स्थित की गम्भीरता को देखते हुए शिवाजी ने पहली बार रायगढ़ में एक युद्ध परिषद् की बैठक बुलायी। संकट की इस घड़ी में नेताजी पालकर जो कि उस समय प्रधान सेनापति थे तथा शिवाजी की पत्नी पुतलीबाई पालकर के परिवार से थे राजद्रोही हो गये। शिवाजी ने उन्हें स्वराज्य की सीमा की चौकसी का आदेश दे रखा था लेकिन जय सिंह की सेना के आने पर वह मराठों की मुख्य सेना को लेकर बहुत दूर निकल गये। शिवाजी ने उन्हें फौरन सेना को लेकर वापिस आने का आदेश्  दिया। परन्तु नेता जी पालकर वापिस नहीं आये। नेता जी वास्तव में जय सिंह से मिल गये थे जिसने उन्हें मुगल दरबार में उच्च मनसब प्रदान कराने का वायदा किया था। सेनापति के इस आचरण से मुगल आक्रमण का संकट और अधिक गहरा गया।

संकट के इन क्षणों में प्रताप राव गूजर ने शिवाजी का भरपूर साथ दिया था। उसने एक हद तक मुगल सेना की रसद पानी रोकने में सफलता प्राप्त की और उसने बहुत सी मुगल टुकड़ियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वह लगातार मुगल सेना की हलचल की खबर शिवाजी को देता रहा। संकट की इस घड़ी में प्रताप राव के संघर्ष से प्रसन्न होकर ही शिवाजी ने उसे सरे नौबत का पद और प्रताप राव की उपाधि प्रदान की।

 शिवाजी युद्ध की स्थिति का जायजा लेकर, इस नतीजे पर पहुंचे कि जय सिंह को आमने-सामने की लड़ाई में हराना सम्भव नहीं है। अत: उन्होंने प्रताप राव गूजर को जय सिंह का वध करने का कार्य सौंपा। एक योजना के अन्तर्गत प्रताप राव जय सिंह के साथ मिल गये और एक रात मौका पाकर उन्होंने जय सिंह को उसके शिविर में मारने का एक जोरदार प्रयास किया परन्तु अंगरक्षकों के चौकन्ना होने के कारण जय सिंह बच गया। प्रताप राव गूजर शत्रुओं के हाथ नहीं पड़ा और वह शत्रु शिविर से जान बचाकर निकलने में सफल रहा। प्रताप राव का यह दुस्साहिक प्रयास भी स्वराज्य के काम न आ सका। जय सिंह से संधि की बातचीत शुरू कर दी गयी। जिसके परिणामस्वरूप 1665 में पुरन्दर की संधि हुई। सन्धि के अन्तर्गत शिवाजी को अपने 35 में से 23महत्वपूर्ण दुर्ग मुगलों को सौंपने पड़े। बीजापुर के कुछ क्षेत्रों पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। शिवाजी के पुत्र संभाजी को मुगल सेना में पांच हजारी मनसब प्रदान किया गया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों का साथ देने का वचन दिया।

परन्तु बीजापुर के विरूद्ध मुगल-मराठा संयुक्त अभियान सफल न हो सका। इस अभियान के असफल होने से मुगल दरबार में जय सिंह की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। अत: उसने औरंगजेब को अपना महत्व दर्शाने के लिए शिवाजी को दक्षिण का सूबेदार बनवाने का वादा करके बादशाह से  मिलाने के लिए आगरा भेजा। मुगल दरबार में उचित सम्मान न मिलने से शिवाजी रूष्ट हो गये और तत्काल मुगल दरबार छोड़ कर चले गये। औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर उन्हें गिरफ्तार करा लिया। एक वर्ष तक शिवाजी आगरा में कैद रहे फिर एक दिन मुगल सैनिकों को चकमा देकर वह कैद से निकल गये और सितम्बर 1666 में रायगढ़ पहुंच गये। जब तक शिवाजी कैद में रहे स्वराज्य की रक्षा का भार पेशवा और प्रधान सेनापति प्रताप राव गूजर के जिम्मे रहा। शिवाजी की अनुपस्थिति में दोनों ने पूरी राजभक्ति और निष्ठा से स्वराज्य की रक्षा की।

आगरा से वापस आने के बाद शिवाजी तीन वर्ष तक चुप रहे। उन्होंने मुगलों से संधि कर ली। जिसके द्वारा पुरन्दर की संधि को पुन: मान्यता दे दी गयी और संभा जी को पांच हजारी मनसब प्रदान कर दिया गया। संभाजी अपने  पांच हजार घुड़सवारों के साथ दक्कन की मुगल राजधानी औरंगाबाद में रहने लगे। परन्तु कम उम्र होने के कारण इस सैन्य टुकड़ी का भार प्रताप राव गूजर को सौंप कर वापस चले आये। मुगल-मराठा शान्ति अधिक समय तक कायम न रह सकी। औरंगजेब को शक था कि शहजादा मुअज्जम शिवाजी से मिला हुआ है। उसने शहजादे को औरंगाबाद में मौजूदा प्रताप राव गूजर को गिरफ्तार कर उसकी सेना को नष्ट करने का हुक्म दिया। परन्तु सम्राट के हुक्म के पहुचने से पहले ही प्रताप राव गूजर अपने पांच हजार घुड़सवारों को लेकर औरंगाबाद से सुरक्षित निकल आया।

अब मराठों ने  मुगल प्रदेशों पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने पुरन्दर की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये अनेक किले फिर से जीत लिये। 1670 में सिंहगढ़ और पुरन्दर सहित अनेक महत्वपूर्ण किले वापस ले लिये गये। 13 अक्टूबर 1670 को मराठों ने सूरत पर फिर से हमला बोल दिया । तीन दिन के इस अभियान में मराठों के हाथ 66 लाख रूपये  लगे। वापसी में शिवाजी जब वानी-दिदोरी के समीप पहुंचे तो उनका सामना दाऊद खान के नेतृत्व वाली मुगल सेना से हुआ। ऐसे में खजाने को बचाना एक मुश्किल काम था। शिवाजी ने अपनी सेना को चार भागों में बांट दिया। उन्होंने प्रताप राव के नेतृत्व वाली टुकड़ी को खजाने को सुरक्षित कोकण ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी और स्वयं दाऊद खान से मुकाबले के लिए तैयार हो गये। मराठों ने इस युद्ध में मुगलों को बुरी तरह पराजित कर दिया। दूसरी और प्रताप राव खजाने को सुरक्षित निकाल ले गया।

सूरत से लौटकर प्रताव राव गूजर ने खानदेश और बरार पर हमला कर दिया। प्रताप राव ने मुगल क्षेत्र के कुंरिजा नामक नगर सहित बहुत से नगरों, कस्बों और ग्रामों को बर्बाद कर दिया। प्रताप राव गूजर के इस युद्ध अभियान का स्मरणीय तथ्य यह है कि वह रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों के मुखियाओं से, शिवाजी को सालाना ‘चौथ’ नामक कर देने का लिखित वायदा लेने में सफल रहा। चौथ नामक कर मराठे शत्रु क्षेत्र की जनता को अपने हमले से होने वाली हानि से बचाने के बदले में लेते थे। इस प्रकार हम वह तारीख निश्चित कर सकते हैं जब पहली बार मराठों ने मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूली की। यह घटना राजनैतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थी। इससे महाराष्ट्र में मराठों की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक थी कि महाराष्ट्र मराठों का है मुगलों का नहीं।

 अंतत: मुगल सम्राट ने गुजरात के सूबेदार बहादुर खान और दिलेर खान को दक्षिण का भार सौंपा। इन दोनों ने सलहेरी के किले का घेरा डाल दिया। और कुछ टुकड़ियों को वहीं छोड़कर दोनों ने पूना और सूपा पर धावा बोल दिया। सलहेरी का दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। अत: शिवाजी इसे हर हाल में बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। शिवाजी सेना लेकर सलहेरी के निकट शिवनेरी के दुर्ग में पहुंच गये। इस बात की सूचना मिलते ही दिलेर खां पूना से सलहेरी की ओर दौड़ पड़ा और उसने शिवाजी द्वारा भेजे गये दो हजार मराठा घुड़सवारों को एक युद्ध में परास्त कर काट डाला। मराठों की स्थिति बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी। शिवाजी ने मोरोपन्त पिंगले और प्रताप राव गूजर को बीस-बीस हजार घुड़सवारों के साथ सलहेरी पहुंचने का हुक्म दिया। मराठों की इन गतिविधियों को देखते हुए बहादुर खां ने इखलास खां के नेतृत्व में अपनी सेना के मुख्य भाग को प्रताप राव गूजर के विरूद्ध भेज दिया।

सेनापति प्रतापराव गूजर और उनकी 15,000 की सेना ने  मुगल किलों औंधा, पट्टा , त्र्यंबक पर कब्जा कर लिया और जनवरी 1671 में साल्हेर और मुल्हेर पर हमला किया ।  इसके कारण औरंगजेब ने अपने दो सेनापतियों इखलास खान और बहलोल खान को 12,000 घुड़सवारों के साथ भेजा। अक्टूबर 1671 में, मुगल सेना ने सल्हेर पर घेराबंदी की । 

50,000 मुगलों ने 6 महीने से अधिक समय तक किले को घेर रखा था। शिवाजी सल्हेर के सामरिक महत्व को जानते थे क्योंकि यह महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों पर मुख्य किला था। इस बीच दिलेरखान ने पुणे पर भी आक्रमण कर दिया था और शिवाजी पुणे को नहीं बचा सके क्योंकि उनकी मुख्य सेनाएँ दूर थीं। शिवाजी ने दिलेरखान को सल्हेर पहुँचाने के लिए मजबूर कर उसे मोड़ने की योजना तैयार की। उन्होंने मोरोपंत को आदेश दिया जो दक्षिण कोंकण में थे और प्रतापराव   औरंगाबाद के पास छापा मार युद्ध कर रहे थे तथा किले को बचाने के लिए सल्हेर में मुगलों पर हमला करने की योजना बना रहे थे। अपने सेनापतियों को लिखे अपने पत्र में शिवाजी ने लिखा था 'उत्तर की ओर जाओ और सल्हेर पर आक्रमण करो और शत्रु को हराओ'। दोनों मराठा सेनाएं वाणी गाँव के पास मिलीं, उन्होंने नासिक में मुगल शिविर को दरकिनार कर दिया और सल्हेर के पास पहुँच गईं। कुल मराठा शक्ति 40,000 (20,000 पैदल सेना + 20,000 घुड़सवार) की थी। यह इलाका घुड़सवार सेना की लड़ाई के लिए उपयुक्त नहीं था इसलिए मराठा कमांडरों ने विभिन्न स्थानों पर मुगल सेना को लुभाने, विभाजित करने और खत्म करने का फैसला किया। योजना के अनुसार प्रतापराव गूजर ने 5,000 घुड़सवारों के साथ मुगलों पर धावा बोल दिया और कई अप्रशिक्षित सैनिकों को मार डाला। आधे घंटे के बाद मुगल पूरी तरह से तैयार हो गए और प्रतापराव अपनी सेना के साथ भागने लगे। 25,000 की पूरी मुगल घुड़सवार सेना ने मराठों का पीछा करना शुरू कर दिया। प्रतापराव ने सल्हेर से 25 किमी दूर एक दर्रे में मुगल घुड़सवार सेना को लुभाया, जहां आनंदराव मकाजी के अधीन 15,000 घुड़सवार छिपे हुए थे। प्रतापराव ने दर्रे से मुंह मोड़ लिया और एक बार फिर मुगलों पर आक्रमण कर दिया। 15,000 आनंदराव के अधीन  नई घुड़सवार सेना ने दर्रे के दूसरे छोर को अवरुद्ध कर दिया और मुगलों को चारों तरफ से घेर लिया गया। ताजा मराठा घुड़सवारों ने 2-3 घंटे में थकी हुई मुगल घुड़सवार सेना को बुरी तरह हरा दिया। हजारों मुगल युद्ध से भाग गए।

मोरोपंत ने बाद में अपनी 20,000 पैदल सेना के साथ सल्हेर में 25,000 मजबूत मुगल पैदल सेना को घेर लिया और हमला कर दिया। प्रमुख मराठा सरदार और शिवाजी के बचपन के दोस्त सूर्याजी काकडे इस युद्ध में एक जाम्बुराक तोप से मारे गए थे। 

सभासद बखर ने युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया है "जैसे ही लड़ाई शुरू हुई, धूल का ऐसा बादल उठ गया कि तीन किलोमीटर के दायरे मे दोस्त और दुश्मन को अलग नहीं किया जा सकता था। हाथी मारे गए, दस हजार सैनिक युद्ध में खेत रहे। घोड़े, ऊंट, हाथी (मारे गए) गिनती से बाहर थे। रक्त की बाढ़ (युद्ध के मैदान में) प्रवाहित हुई। रक्त ने एक मैला कुंड बना लिया और उसमें लोग डूबने लगे।

 सलहेरी के युद्ध में मराठों की सफलता अपने आप में एक पूर्ण विजय थी और इसका सर्वोच्च नायक था प्रताप राव गूजर। सलहेरी के युद्ध में मराठों को 125 हाथी, 700ऊट, 6 हजार घोड़े, असंख्य पशु और बहुत सारा धन सोना, चांदी, आभूषण और युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। सलहेरी की विजय मराठों की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। आमने-सामने की लड़ाई में मराठों की मुगलों के विरूद्ध यह पहली महत्वपूर्ण जीत थी। इसी जीत ने मराठा शौर्य की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा दिया। इस युद्ध के पश्चात् दक्षिण में मराठों का खौफ बैठ गया। युद्ध का सबसे पहला असर यह हुआ कि मुगलों ने सलहेरी का घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गये।

1672 के अन्त में मराठों और बीजापुर में पुन: सम्बन्ध विच्छेद हो गये। अपने दक्षिणी क्षेत्रों की रक्षा की दृष्टि से मराठों ने पन्हाला को बीजापुर से छीन लिया। सुल्तान ने पन्हाला वापिस पाने के लिये बहलोल खान उर्फ अब्दुल करीम के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। बहलोल खान ने पन्हाला का घेरा डाल दिया। शिवाजी ने प्रताप राव गूजर को पन्हाला को मुक्त कराने के लिये भेजा। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला को मुक्त कराने के लिये एक अद्भुत युक्ति से काम लिया। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला कूच करने के स्थान पर आदिलशाही राजधानी बीजापुर पर जोरदार हमला बोल दिया और उसके आसपास के क्षेत्रों को बुरी तरह उजाड़ दिया। उस समय बीजापुर की रक्षा के लिए वहां कोई सेना नहीं थी अत: बहलोल खान पन्हाला का घेरा उठाकर बीजापुर की रक्षा के लिए भागा। लेकिन प्रताप राव ने उसे बीच रास्ते में उमरानी के समीप जा घेरा। बहलोल खान की सेना की रसद रोक कर प्रताप राव ने उसे अपने जाल में फंसा लिया और उसकी बहुत सी अग्रिम सैन्य टुकड़ियों का पूरी तरह सफाया कर दिया।यह अप्रेल सन् 1673 की घटना है। उस समय गर्मी अपने चरम पर थी, उस समय पानी सबसे महत्वपूर्ण था। एक दिन दो दिन नहीं बल्कि पूरा एक महीने की घेराबंदी होने पर बहलोल खान और उसकी सेना की स्थिति यह हो गई कि उसके सैनिक व घोड़े प्यास से मरने लगे। वक्त का तकाजा यह था कि या तो बहलोल खान युद्ध करके मरे या प्यासा मरे। ऐसी हालत में बहलोल खान ने घुटनों के बल बैठ कर प्रताप राव गुर्जर से प्रार्थना की कि वह उसे और उसके सिपाहियों को सिर्फ पीने के लिए पानी दे दे। बदले में जो कुछ भी उनके पास है ले ले। उनकी जान बख्श दे। प्रताप राव गुर्जर धर्म संकट में फंस गया था। उसका हिन्दू हृदय प्यासे और अधमरे दुश्मन पर हमला करने की इजाजत नहीं दे रहा था। वह तो बहलोल खान को समाप्त करने के लिए आया था, हिन्दू धर्म में प्यास से मरते को पानी पिलाना सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। परंतु यहां प्यास से मरने वाला कोई सामान्य आदमी नहीं, उसके राजा का सबसे बड़ा शत्रु था। कुल मिलाकर स्थिति यह हुई कि प्रताप राव गुर्जर निहत्थे व प्यासे बहलोल खान की सेना पर हमला न कर सका। उसने उसे भाग जाने का रास्ता दे दिया। प्रताप राव ने पन्हाला को मुक्त कराकर शिवाजी को अपनी सफलता का पत्र लिखा। शिवाजी जानते थे कि बहलोल खान जैसे की जबान की कोई ही कीमत नहीं है। एक राज्य को खड़ा करने में कितने सिपाहियों का लहू लगता है, उसकी कीमत वह जानते थे। अतः शिवाजी ने प्रताप राव गुर्जर को एक कड़ा पत्र लिखा। जिसमें कहा कि वह बहलोल खान जैसे दुश्मन को कैसे छोड़ सकता है। जब तक बहलोल खान को समाप्त न कर दे रायगढ़ में आकर अपना चेहरा न दिखाए। प्रताप राव गुर्जर ने जब पत्र पढा तो उसे क्या करना है उसने तय कर लिया।आज प्रताप राव के सामने वह स्थिति थी जो कभी लक्ष्मण के सामने दुर्वासा ॠषि को रोकने के कारण उत्पन्न हो गई थी, जब वह राम के आदेश की अवहेलना कर उनके वार्तालाप में दाखिल हो गए थे, राम ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया था और लक्ष्मण ने उस त्याग दुखी होकर आत्म बलिदान कर दिया था। इतिहास अपने आप को दोहरा रहा था।
वह शिवाजी की सेना का सिपाही था। अपने राजा की इच्छा के सामने वह अपनी जान की कोई कीमत नहीं मानता था। प्रताप राव गुर्जर जैसे ही अपनी सेना लेकर दूसरी ओर को चला। बहलोल खान अपनी सेना लेकर पन्हाला की ओर चल दिया। प्रताप राव को जैसे ही सूचना मिली। वह तुरन्त वापस लौटा। अब प्रताप राव को प्रत्यक्ष दिखा कि शिवाजी गलत नहीं थे। अब बात उसके व्यक्तिगत सम्मान की थी। प्रताप राव ने अपनी मुख्य सेना को पीछे कर 1200 सिपाहियों के साथ थोड़ा आगे मोर्चा बना लिया। बहलोल खान अपनी 15000 की सेना के साथ था। प्रताप राव गुर्जर चाहता था कि बहलोल खान कम सेना को देख उस पर आक्रमण कर दे। ताकि आमना-सामना हो सके। परन्तु बहलोल खान प्रताप राव के जंगी दाव व बहादुरी से वाकिफ था। वह अपनी मोर्चाबंदी में चुप बैठा रहा। प्रताप राव अपने व्यक्तिगत सम्मान के लिए अपने 1200 सैनिकों को हमले का आदेश दे कर उन्हें आत्महत्या के लिए नहीं झोंक सकता था। इसी ऊहापोह में 24 फरवरी सन् 1674 की सुबह प्रताप राव गुर्जर अपने छ: बहादुर साथियों बीसाजी बल्लाल, दीपाजी राउत राव, बिट्टठल पिल्लाजी अत्रेय, कृष्णाजी भास्कर, सिद्धी हलाल और बिठोजी शिंदे के साथ सेना के निरिक्षण पर थे तभी एक घुड़सवार आता दिखाई दिया। उसने प्रताप राव गुर्जर को बताया कि बहलोल खान आधा मील की दूरी पर है। बहलोल खान का नाम सुनते ही प्रताप राव का खून खौल गया,वह दहाड़ पडा, उसका हाथ अपनी तलवार पर चला गया और प्रताप राव ने अपने घोड़े को बहलोल खान की दिशा में दोडा दिया। अपने सेनापति का अनुसरण करते हुए वे छ: भी पीछे चल दिए। बहलोल खान की सेना ने जब सात घुड़सवारों को हमले की मुद्रा में आते देखा तो तुरन्त सूचना बहलोल खान को दी। बहलोल खान ने देखा की घुड़सवारों को नेतृत्व मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर कर रहा है। बहलोल खान ने तुरंत अपनी सेना को हमले का आदेश दे दिया। एक ओर सात दूसरी ओर 15000। एक स्थान पर दोनों पक्ष टकराये। वो सात बड़ी बहादुरी से लडते हुए रणभूमि में खो गए। वास्तव में यह युद्ध नहीं था यह तो एक योद्धा की अपने व्यक्तिगत सम्मान के लिए दी गई कुर्बानी थी।इतिहासकार इसे नेसरी का युद्ध कहते हैं। शिवाजी को जब यह समाचार मिला तो वे दहाड़ मारकर रो पड़े। शिवाजी ने प्रताप राव गुर्जर के बलिदान के लिए खुद को दोषी माना। शिवाजी महाराज ने प्रताप राव गुर्जर की  पुत्री जानकी बाई का विवाह अपने छोटे बेटे राजाराम से सात मार्च सन् 1680 को कर दिया तथा जानकी बाई को महारानी घोषित कर दिया। तीन अप्रैल सन् 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई। शिवाजी का बडा बेटा सम्भा जी जो उस समय पन्हाला के किले में नजरबंद था को शिवाजी के तत्कालीन सेनापति हम्मीर राव मोहिते ने किले से आजाद कराकर राजा बना दिया। परन्तु सन् 1681 में औरंगजेब बड़ी सेना लेकर दक्षिण पहुंच गया। 11 मार्च सन् 1689को  सम्भाजी की मृत्यु हो गई।सम्भा जी के सात वर्ष के बेटे साहू तथा सम्भाजी की पत्नी यशुुुुबाई एवं शिवाजी की पत्नी सकूराबाई गायकवाड़ को औरंगजेब ने 3 नवम्बर सन् 1689 को बंदी बना लिया अब राजाराम छत्रपति बने तथा जानकीबाई महारानी बनी।

प्रताप राव गुर्जर के तीन पुत्र थे।प्रताप राव गुर्जर के एक पुत्र का नाम सिद्धों जी गुर्जर था। सन् 1693 में छत्रपति राजाराम के आदेश पर सिधो जी गुर्जर ने शिवाजी महाराज द्वारा निर्मित नो सेना की कमान संभाली थी।सिधो जी गूजर की सन् 1698 में मृत्यु हो गई।इनके बाद कान्होजी आंग्रे ने  मराठा बेड़े के सरखेल (एडमिरल) के रूप में पदभार संभाला।

 सन् 1700 में राजाराम की मृत्यु हो गई तथा जानकीबाई राजाराम के शव के साथ सती हो गई। अपनी आदत के अनुसार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज के पोत्र साहू महाराज को ( 9 मई सन् 1703)  मुसलमान बनने का आदेश दिया।

जब साहू जी ने मुसलमान बनने में असमर्थता जताई,तब औरंगजेब ने साहू के स्थान पर किसी दूसरे प्रभावशाली मराठा परिवार के मुसलमान बनने की शर्त पर साहू जी को मुसलमान न बनाने की बात कही। इस संकट की घड़ी में प्रताप राव गुर्जर के दो  बेटे खंडेराव गुर्जर व जगजीवन गुर्जर आगे आए।16मई सन् 1703को मोहर्रम के दिन साहू जी को बचाने के लिए प्रताप राव गुर्जर के दोनों बेटे मुसलमान बन गए।अब खंडेराव गुर्जर का नाम अब्दुल रहीम व जगजीवन गुर्जर का नाम अब्दुल रहमान हो गया।12जनवरी सन् 1708को साहू जी छत्रपति बने। छत्रपति शाहूजी ने सतारा के पास सालगांव की जागीर अब्दुल रहीम व अब्दुल रहमान को दी। आज भी इन दोनों भाई के वंशज सतारा के पास परली गांव में निवास करते हैं।

प्रताप राव गूजर और उसके छह साथियों के बलिदान की यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक है। प्रतापराव और उसके साथियों के इस दुस्साहिक बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमग राज ने ‘वीदात मराठे वीर दुआदले सात’ नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध पा’र्व गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है। प्रताप राव गूजर के बलिदान स्थल नैसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है।  

दक्षिण भारत ही नहीं उत्तरी भारत में भी प्रताप राव गुर्जर की मान्यता है। उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में सन् 2002 से "प्रताप राव गुर्जर स्मृति समिति" के तत्वावधान में प्रताप राव गुर्जर के बलिदान दिवस की स्मृति में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है। बारह वर्ष से लगातार "प्रताप" वार्षिकी पत्रिका का प्रकाशन भी समिति की ओर से किया जाता है।
संदर्भ ग्रंथ
1- Nil Kant, s - A History of The Great Maratha Empire, Dehradun 1992
2- Duff Grant -History of Maratha
3- Srivastav, Ashrivadilal -Bharat ka Itihas
4- Dr Sushil Bhati -हिन्दवी स्वराज की स्थापना की नींव मराठा सेनापति प्रताप राव गुर्जर।

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