शनिवार, 25 अगस्त 2018

गौरव गाथा -कवि हरिद त्त त्यागी

हरिदत त्यागी जी मेरठ के पास किला-परि क्षत गढ़ के मूल निवासी थे, पेशे से अध्यपक थे। सेवानिवृत्ति के बाद मेरठ में स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विश्व संवाद केन्द्र में मेरी उनसे प्रथम भेंट हुई। वे कविता लिखने में माहिर थे। मेरे (अशोक चौधरी) अनुरोध पर उन्होंने चार स्वतंत्रता सेनानियों पर कविता लिखी।इन कविताओं का गौरव गाथा के नाम से मार्च 2006 में प्रतापराव गुर्जर स्मृति समिति ने प्रकाशित करवाया। जो निम्न है -

क्रांतिकारी विजय सिंह "पथिक"(भूप सिंह)

भारत की मिट्टी का कण-कण, बलिदानों की गाथा कहता।
जैसे गंगा का पावन जल, आदिकाल से बहता रहता।।
फिर चाहे सतयुग या त्रेता, द्वापर या कलियुग की गाथा।
असुर-दनुज या सत्ता बल से, नंगे पैर राम टकराता।।
जनहित जीवन अर्पित करते, अवतारों की बनी श्रंखला।
बाल-युवा और वृद्ध नारियां, अबला हो जाती है सबला।।
हिंसक क्रूर यवन मुगलों से, आगे ब्रिटानिया सुत आये।
जिनका स्वागत किया देश ने, वो ही आंख दिखाते पाये।।
निश्छल मन के भारतवासी, उनकी नीति समझ न पाये।
बैर-भाव पाले अपनों से, गैरों को पर कंठ लगाये।।
विस्तृत सागर सा अपना उर, छोटी झीलों में बांटा तो।
आपस में ही लगे उलझने, हिस्सों में आया घाटा तो।।
बंदर समझ किया बंटवारा, अंग्रेजी कंजी बिल्ली ने।
वैसे-जैसे ताज बटोरे, सदियों तक गंजी दिल्ली ने।।
किन्तु सहन की सीमा से भी, पार गयी शत्रु- सत्ता।
अंधड़ और तूफान बना फिर, कोना-कोना पत्ता- पत्ता।।
ऐसा ही एक चक्रवात, बंगाल प्रान्त से खड़ा हुआ।
रास बिहारी, सचिन साथ में, भूप सिंह भी अडा हुआ।।
भूप सिंह थे कौन, यहां पर ठीक रहेगा बतलाना।
विजय सिंह "पथिक" नाम से प्रसिद्ध, जिला बुलंदशहर जाना-माना।।
गांव गुठावली कलां का यह गुर्जर, नाम से ही था जाता-जाना।
आगे बढ़ पीछे नहीं हटा, बेशक पड गया मिट जाना।।
मालागढ की स्टेट में, दादा इन्द्र सिंह दीवान हुए।
सन् सत्तावन के संग्राम में, वह भी थे बलिदान हुए।।
पिताजी भी क्रांति जुर्म में, अंग्रेजों ने पकड़ लिये।
जो भी साथी और नाति थे, सब जंजीरों में जकड़ लिए।।
उन वीरों का वंशज यह भूप सिंह, छद्म नाम पथिक कहना।
विजय सिंह धर नाम लिया, और पथिक रहा उसका गहना।।
23 दिसंबर 1912 दिल्ली, फैंका एक बम गवर्नर पर।
शंखनाद कर दिया क्रांति का, नारा गूँजा अम्बर पर।।
टोली का निर्णय था, देश में एक साथ विद्रोह का।
21 फरवरी, 1915 दिन, निश्चित किया समूहों का।।
विजय सिंह का भाग्य, भाग्य में क्षेत्र मिला राजस्थानी।
वीर-भूमि जौहर-भूमि, क्षत्रापण की रेगिस्तानी।।
गोपाल सिंह एक और साथी, उनका था अपनी टोली का।
दो हजार युवकों का दल, संग्रह था गोले-गोली का।।
मुखबिरों-भेदियों के बल पर, सम्पूर्ण क्रांति का भेद खुला।
अपनों की ही गद्दारी से, भारत फिर से गया छला।।
अजमेर कमिश्नर ने पकड़ा, गोपाल-पथिक को लश्कर संग।
टांड दुर्ग में कैद किया, आगे देखो वीरों के रंग।।
पता चला लाहौर केस में, भी उनको जाना होगा।
छू-मंतर हो गए कहीं, रह गया वहाँ उनका चोगा।।
रास बिहारी निकल गए, पहुंच गये जापान तभी।
किन्तु पथिक जी जमे रहे, थामे रहे कमान अभी।।
राजस्थानी वेश बनाकर, राजपूत कहलाने लगे।
विद्या की प्रचार सभा से, अपना मिशन चलाने लगे।।
लोकप्रिय हो गये शीघ्र ही, आन्दोलन कर दिया खड़ा।
सीताराम संत ने उनको, कृषक हित में दिया अडा।।
पीड़ित-शोषित किसानों के हित, बडा संगठन गठित किया।
बेतौल-वसूली के खिलाफ, एक जन-आंदोलन चला दिया।।
वहां बिजौलियां नामचीन, सामंती एक ठिकाना था।
बेगार, टैक्स, अधिभार के विरुद्ध, अलख जगाना था।।
गांव-गांव शाखाएं खोली, लगातार प्रचार किया।
समाचार-पत्रों के बल पर, महाराणा पर वार किया।।
वर्धा से राजस्थान केशरी, एक समाचार-पत्र निकला।
सम्पादक थे पथिक स्वयं, समाचार यह खूब चला।।
लगा प्रदर्शनी नागपुर में, दशा दिखाई कृषक की।
हुए प्रभावित गांधी जी भी, पर बाँहें थामी शोषक की।।
लोकमान्य ने किया समर्थन, पर गांधी ने रोका।
सामन्तों का तभी विरोध, किया पथिक ने और टोका।।
साम्राज्यवादी विदेश के, पायें है सामन्त यहां।
उनके बल पर टिके हुए, ब्रिटिश राज्य का अन्त कहां।।
यह छोटी-सी बात मगर, गांधी जी ने नहीं मानी।
जैसे फर्ज खिलाफत समझा, वैसे समझने की नहीं ठानी।।
नाम खिलाफत था जिसका, वह मांग मजहब की थी उनकी।
कांग्रेस के साथ नहीं थी, लीग मांग अपनी जिनकी।।
फिर भी पथिक रहे बढते, और आन्दोलन उनका फैला।
राजस्थान सेवा संघ से जुड, उमड़ पड़ा किसान रैला।।
चौरासी लागत कर में से, पैंतीस मांफ हुए उनके।
जुल्मी कारिंदे दफा किये, बेढंगे जुल्म रहे जिनके।।
विजय मिली बेजोड़ सार्थक, नाम विजय सिंह कर डाला।
असहयोग समाप्ति के निर्णय ने, किन्तु विघ्न फिर से डाला।।
पुनः मृत नेतृत्व उभारा, फिर उठा मृत आन्दोलन को।
पर करके गिरफ्तार पथिक, पिडित कर डाला मन को।।
पांच वर्ष की काट कैद, विजय सिंह पथिक बाहर आये। किन्तु चौधरी साथी को, फिर साथ नहीं वे कर पाये।।
पुनः अवज्ञा आन्दोलन में, कूद पड़े होकर निर्भय।
पूरा जीवन लगा दिया, जय-जय किसान, जय पथिक विजय।।
28 मई 1954 को, आ गई वीर को चिर निद्रा।
जागो भारत के नवयुवकों, सीखो छोड़ो अपनी तन्द्रा।।
मरना तो सबको पड़ता है, पर कुछ मर कर भी जी जाते।
आने वाली पीढ़ी के जन, ऐसे लोगों के यश गाते।। समाप्त

शहीद विजय सिंह -कल्याण सिंह

वर्तमान हरिद्वार जिले में है, लंढौरा नामक कस्बा।
कभी रियासत की राजधानी, का रखता था यह रूतबा।।
इसी रियासत का प्रखण्ड एक, गांव चवालिस थे उसमें।
नाम बहादुरपुर- कुन्जा है, रूडकी-छूटमलपुर मार्ग पे।।
ताल्लुकेदार बने विजय सिंह, 1819 में इसके।
कुशल प्रशासक दयावान, वंशज थे इसी रियासत के।।
अंग्रेजी शासन का शोषण, तब फैल गया था गांव-गांव।
बेबस से देशी राजा थे, था नहीं दिखता कहीं दांव।।
राजा थे मात्र नाम के ही, असली मालिक ब्रिटेन बना।
अधिकार सभी के सीमित थे, और दमन- चक्र हो गया घना।।
सुविधा विकास में रूचि नहीं, और घोर वसूली होती थी।
इस देश अभागे की जनता, खूनी आंसू से रोती थी।।
यह क्रूर दमन का विषम- चक्र, फैला था पूरे भारत में।
अन्दर- अन्दर ही सुलग रहा था, प्रतिशोध भाव एक भारत में।।
अनवरत मार सूखे की भी, तब झेल रहे थे वर्षों से।
कोई तो दाता मिल जाये, सब सोच रहे थे वर्षों से।।
घुट-घुट कर साँसे रह जाति, किसानों की अपने सीने में।
कुछ यही सोच रह जाते थे, क्या रहा फायदा जीने में।।
बालक भूखे-नंगे सूखे, मांओं की छाति सूखी थी।
वृक्ष और फसलें सूखी, धरती की गोद भी सूखी थी।।
दुर्दशा देख कर अपनो की, युवकों का पौरुष जाग उठा।
उठ गया ज्वार क्षत्रापन का, कोना-कोना हुंकार उठा।।
कोने-कोने में खड़े हुए, सत्ता से बागी हो टोले।
इनमें था एक कलुवा गुर्जर, कल्याण सिंह जिसको बोले।।
कल्याण सिंह उर्फ कलुवा था, फुर्तीला-रोबिला गबरू।
वीर बहादुर चतुर शूर, अनुपम सा जोशीला गबरू।।
विजय सिंह ने अवसर पा, जोडा इन सभी टोलियों को।
सबने नेतृत्व स्वीकार किया, जँच गया सभी टोलियों को।।
इसी बहाने खड़ी हुई, एक सेना मिली विजय सिंह को।
लोगों का मौन समर्थन भी, लेकिन था दिली विजय सिंह को।।
सो किला विजय सिंह का कुंजा, क्रांति- केन्द्र फिर कहलाया।
बर्मा में हार रहे हैं ब्रिटिश, जब सुना सोच मन हर्षाया।।
अंग्रेजों से टकराने का, मानो अच्छा अवसर पाया।
यह क्षेत्र हमारा अपना है, फिर क्यों विदेश की हो छाया।।
अब विजय सिंह के कहने पर, कलुवा ने हल्ला बोल दिया।
अंग्रेजी पिट्ठू दांग लिए, तलवारों पर बल तौल लिया।।
अंग्रेजी शासन क्रुद्ध हुआ, एकदम से हरकत में आया।
कलुवा को घेर पकडने को, स्पेशल दल उनका आया।। भगवानपुर के पास कहीं, मुठभेड़ हुई फिर जोरदार।
भागी टुकड़ी अंग्रेजों की, कुंद हो गई "शोर" धार।।
ये मि.शोर था मजिस्ट्रेट, जो चकरा गया वहां आकर।
पाला पड गया शूरमा से, क्या ले पाता वह टकरा कर।। सिरमौर कम्पनी सेना की, शोर ने फिर तैनात करी।
छापे दर छापे कलुवा के, उनकी भी नींद हराम करी।।
सात सितंबर चौबीस को, करतार पुर चौकी कब्जा ली। शस्त्र छीन लाये कलुवा, दुश्मन भागा होकर खाली।।
हफ्ते से पहले हमला कर, भगवानपुर को जीत लिया।
ज्वालापुर से था चला खजाना, कलुवा ने वह भी जब्त किया।।
चहुँ ओर भागे फिरते थे, अंग्रेजी चमचे घबरा कर।
कलुवा की ऐसी धाक जमी, शत्रु भागा फिर थर्रा कर।।
अब पता पड़ा अंग्रेजों को, सब विजय सिंह की है माया।
दे देंगे ताज हम राजा का, निश्चिंत रहो यह समझाया।।
लेकिन दे दो हमको कलुवा, यह शर्त हमारी है पहली।
हम शान्त करें बगावत को, बेदम कर दें कलुवा टोली।।
उत्तर दिया विजय सिंह ने, किस लालच मैदान छोड़ दू में।
क्यूँ झूठा राज खिताबी ले, अपनों से मुंह मोड़ लू में।।
राजा तो हम ही हैं यहाँ के,तुम हो दुष्ट अत्याचारी।
राजा विजय सिंह नाम मेरा, कल्याण सिंह है छत्रधारी।।
कर दिया स्वतंत्र घोषित मिलकर, दोनों ने अपने को।
मुक्त करें सहारनपुर भी, पूरा कर दें आजादी के सपने को।।
ये तेवर देख विजय सिंह के, पैरों से धरती खिसक गई।
गीदड़ भभकी से ना बात बने, साँस गले में अटक गई।।
जब आर-पार के तीर चलें, तो कैप्टन यंग चला सेना लेकर।
अब जंग आखिरी होनी थी, तैयारी दोनों की जमकर।।
सेना ने आकर घेर लिया, कुंजा के गढ़ को बाहर से।
अन्दर जम गये विजय सिंह, कल्याण सिंह फिर बाहर से।।
कल्याण सिंह बाहर युद्ध में, हो गए शहीद प्रथम पग पर।
पर विजय सिंह अन्दर से ही, खूब लडे फिर भी जमकर।।
लेकिन अंग्रेजों ने भारी तोपों से, गढ़ को तोड दिया।
विजय सिंह ने भी युद्ध में, अपने वीरों को छोड़ दिया।।
विजय सिंह लडते-लडते, हो गये शहीद किले में ही।
152 योद्धा भी शहीद, हो गये किले के अन्दर ही।।
3 अक्टूबर का दिन था, 1824 ईस्वी में।
है दर्ज सुनहरे पन्ने में, ब्रिटिश राज हिस्ट्री में।।
अंग्रेजी सेना लौटी थी, दोनों के धड-सिर लेकर।
पर एक मार्ग दिखा गए, दोनों अपने सर को देकर।।
1857 की ज्वाला भडकी थी, इसी चिंगारी से।
सदियों तक तेज निकलता है, रणचंडी तेग दुधारी से।। समाप्त

घोघा बापा

सोमनाथ का भव्य कलश, जो दिखता और दमकता है।
सरदार पटेल का दृढ़ निश्चय, कीर्ति स्तम्भ चमकता है।।
इन गाथाओं में भी गाथा, कुछ की पर अनजानी है।
अनगिन थे जो वीर- तपस्वी, और अदभुत बलिदानी है।।
निर्माणों की शिल्प कला में, ऊंचे भवन- कंगूरे भी।
कुछ एक सपने पूर्ण हुए तो, कुछ रह गए अधूरे भी।।
कितने शिला- खण्ड रह जाते, उन नींवो में ढके हुए।
पर प्रवाह को आतुर होते, चंचल शोले रूके हुए।।
अक्टूबर हजार चौबीस में, फिर से महमूद गजनवी चला।
सोमनाथ की अतुल सम्पदा, पाने का स्वार्थ साधें निकला।।
पहले से भी बहुत अधिक था, अबकी बार उसका लश्कर।
नाम जिहादी काम लूटना, घुड़सवार थे बड़े जबर।।
सिंधु नदी से उतरते ही थी, एक मुल्तानी चौकी।
दूजी थी लौहकोट, उससे आगे मरूस्थली चौकी।।
मरूस्थली किला पहाड़ी पर, सीधा था बना हुआ।
मानो सीमा रक्षक प्रहरी-सा, दिखता था तना हुआ।।
अस्सी वर्षीय घोघा बापा थे, इस गढ़ के स्वामी।
अस्सी के लगभग परिजन, थे सभी वीरता के हामी।।
गढी नहीं थी मात्र गढी, अंगद का पाँव था जमा हुआ।
कौरव-कुल से टकराने को, जो भीम खड़ा हो तना हुआ।।
ग्रीवा में हँसली माता के, और नथुनी में स्वर्ण कणी।
जिसकी रक्षा को बैठा हो, पवन- पुत्र बजरंगबली।।
गुर्जर भूमि तो रही प्रसिद्ध, यह भूमि है बलवानो की।
घोघा बापा भी बनें निशानी, जौहर और बलिदानों की।।
आयु जिनकी बांध न पायी, कभी वीरता की सीमा।
ॠषि दधीचि, बाबा भीष्म, और घोघा सी परिक्रमा।।
किसमें साहस था टकराये, महाकाल की ज्वाला से।
मिलती है आकर उपमा, राणा के साथी झाला से।।
आयु के अंतिम पड़ाव पर, दिखा गया ऐसा साका।
सभी शौर्य गाथाओं में, अमर हुआ घोघा बापा।।
अपना दूत भेजा गजनी ने, लेकर के हीरे मोती।
निर्विरोध पथ संग रसद की, इच्छा थी मन में सोती।।
पहली दोनों चौकी जीती, बिना लडें केवल भय से।
किन्तु तीसरी घोघा चौकी, अलग गयी उसकी लय से।।
आन-मान मर्यादा को, क्या भारत वीर तोड बैठे।
उत्तर था घोघा बापा का, कैसे मैदान छोड़ बैठे।।
जब तक साँस देह में बाकी, जब तक जान रहे तन में।
कोई राह नहीं पाओगे, इस मरूस्थल के निर्जन में।।
ग्यारह सौ पुरूष थे गढी में, और सात सौ महिलाएं।
कई गुनी सज्जित सेना को, कैसे अब रोका जाए।।
कुरूक्षेत्र का भी प्रसंग एक, स्वर्ण अक्षर में लिखा गया।
अर्जुन का बेटा अभिमन्यु, क्षत्रीय चरित्र जो दिखा गया।।
साधन से सम्पन्न सफलता, तो कोई भी पा लेगा।
किन्तु शूर वहीं होगा, जो प्राण विघ्न में डालेगा।।
करके सभी विचार युद्ध की, शुरू हुई थी तैयारी।
खाई-परकोटें दीवारें, शस्त्र बनें सम्बल भारी।।
अजगर सी सरकी आती थी, शत्रु विशाल सेना।
धूल उडाते अश्वारोही, भारी संख्या में सेना।।
किन्तु छोड़ घोघा चौकी, महमूद चला टेढ़ा-टेढा।
वापसी में उजाड़ देंगे, घोघा बापा का खेड़ा।।
दुश्मन का यह दाव शीघ्र ही, ताड़ गया घोघा बापा।
क्रोध में लाल अंगार आँख कर, खड़ा हुआ घोघा बापा।।
जिसकी सांठ साल की तैनाती में, पं क्षी तक भी जा न सका।
गजनी का महमूद दुष्ट, घोघा बापा को न समझ सका।।
सदा कौन रहा है कौन रहेगा, बस कदम निशानी रह जागी।
कर्तव्य-पथ पर मिटने वालों की, अमिट कहानी रह जागी।।
बोला गढवी से तुरत-फुरत, रचा जल्दी जाकर साका।
बाल, वृद्ध, बीमार निकल ले, बचा चलें अपना आपा।।
जो सक्षम हो साथ चलें वो, नहीं किसी पर पाबंदी।
मृत्यु के मुख में जाना है, दौड़ लगेगी अब अंधी।।
शत्रु सम्मुख जिन्दा रहते, हम शान नहीं घटने देंगे।
जीते-जी अपने मस्तक पर, दाग नहीं लगने देंगे।।
आसरा जिस भूमि पर पाया, शीतल जिसका नीर पीया।
खाकर अन्न पलें है जिसका, और बलिष्ठ शरीर किया।।
उसे छोड़कर भाग चलेंगे, नहीं स्वपन में भी सीखा।
माता का सम्मान बचावें, सर देकर यही बचा तरीका।।
राघव मल गढवी ने भी तो, यही बात दोहराई थी।
ग्यारह सौ कुल संख्या की, सेना गई सजाई थी।।
कुमकुम अक्षत ले थालों में, महिलाओं ने तिलक किया।
क्षत्रिय वहीं हैं जिसने जीवन, देश धर्म पर वार दिया।।
जयकारों-जयनादों से फिर, गूँज उठी घोघा चौकी।
अपना सर्वस्व वारने को, तैयार हुई घोघा चौकी।।
द्वार खोल फिर निकल पडी, केसरिया बानो की टोली।
जय-सोमनाथ जय-महादेव, निकली कंठों से बोली।।
शत्रु की दस गुनी सैन्य पर, बापा बिजली से झपटे।
उधर गढी में गगन चूमती, उठी ज्वाल-जौहर लपटें।।
काट हजारों की संख्या को, घोघा बापा स्वर्ग गये।
अस्सी से ऊपर वंशज संग, और हजारों साथ लिए।।
ऐसी यह गौरव गाथा है, शूरवीर घोघा बापा की।
श्रद्धा सुमन चढ़ा करते हैं, आज वंदना हम बापा की।।
समाप्त

सेनापति प्रताप राव गुर्जर

सर्वप्रथम प्रभु को प्रणाम, इस जग के स्वामी को।
स्वयं विधाता पालक दाता, क्षमाशील अंतर्यामी को।।
पुनः नमन है परम श्रेष्ठ, परम पवित्र भगवा ध्वज को।
त्याग, तपस्या और शौर्य के, प्रेरक परिचय चिर ध्वज को।।
जिसको देख याद आ जाते, ॠषि-मुनि, वीर सन्यासी।
यज्ञ वेदिका विजय वाहिनी, मथुरा- वृन्दावन- काशी।।
पुनः नमन है भारत भू को, वसुधा रत्न प्रसवनी को।
प्रभु के अवतारों की गोदी, महापुरुषों की जननी को।।
आदर से अब याद करें, उन बहनों को माताओं को।
रक्षाबंधन, पतिव्रत, और जौहर की ज्वालाओ को।।
यदि होता उजला प्रभात तो, रात अंधेरी भी होती।
होता है यदि जन्म जीव का, उसकी मृत्यु भी होती।।
उसी सरीखे निशा काल, दुर्घट भारत में भी आयें।
झंझावात और तूफानों के, काले बादल भी छायें।।
सुख-समृद्धि और सत्ता मद में, निंदा- द्वेष पाल बैठे।
भूल गए सहयोग भावना, भ्रम में शस्त्र डाल बैठे।।
हम भारतीय हैं भारत में, पहचान हेतु है कुल विचार।
ये स्वर्णकार, ये कुम्भकार, ये शिल्पकार, ये चर्मकार।।
यदि वीर एक थे राणा प्रताप, तो एक वीर प्रतापराव गुर्जर।
था एक वीर राजस्थानी, तो एक महाराष्ट्र से था गुर्जर।।
था शूर शिवा का सेनापति, वह वीर प्रताप राव गुर्जर।
जैसे राणा संग था झाला, वैसे संग शिवा के था गुर्जर।।
जैसे राणा का कवच बना, संकट में शूरवीर झाला।
ऐसा ही सिंह शिवाजी का, वह सेनापति था मतवाला।।
मस्त-मलंग सा मुगलों का दल, जब-जब चढ़ कर आता था।
चहुँ दिशाओं से सिंह-शावक दल, उसको लक्ष्य बनाता था।।
कभी तोप से गोले बरसे, कभी खडंग लहराती थी।
प्रतापराव की घुड़सेना, बड़े चमत्कार दिखलाती थी।।
उचित समय पहचान वीर, वह विद्युत गति से आता था।
लक्ष्य भेद कर अल्प समय में, वहीं कही छिप जाता था।।
बुझने नहीं दिया मरते दम तक, शत्रु विरोधी ज्वाला को।
सात माह तक थामे रखा, उसने दुर्ग पन्हाला को।।
सिंह गढ़, सलहेरी, उमरानी, उसका रणकौशल कहते।
अब्स, हवेली, गुलबर्गा, और बालाघाट डरे रहते।।
उदगीर और परांडा रौंदा, साथ में औरंगाबाद पिटे।
सेनापति मुगलों का मारा, दक्षिण में हजारों मुगल कटे।।
काट उंगलियां शाइस्ता खा की, सिंह गढ़ वीर शिवा आये।
क्रोधित हो मुगलों के दल-बल, वीर शिवा पर चढ़ धाये।।
तभी राजगढ़ से प्रताप राव गुर्जर, ले अपनी घुड़सवार सेना।
वहीं पहुंच टूट पड़े मुगलों पर, भूखे सिंहों का क्या कहना।।
आगे-आगे मुगली गीदड़, पीछे-पीछे सिंह प्रतापी थे।
सचमुच उस मुगल दल को, प्रताप राव ही काफी थे।।
ऐसा पहली बार हुआ था, भागे थे मुगली घोड़े।
पीछा किया दूर तलक, थे संख्या में चाहे थोड़े।।
प्रताप राव के रण-कौशल से, दुश्मन हारा अपमान हुआ।
पाला किसी शूर से है, दुश्मन को भी यह भान हुआ।।
दुनिया में उस समय बड़ी थी, मुगलों की सबसे सेना।
बारूदी तोपों से सज्जित, साधन युक्त सारी सेना।।
औरंगजेब ने प्रताप राव को, बंदी करने का हुक्म दिया।
सावधान था वीर बहुत, सो पहले ही खिसक लिया।।
छापामारी दस्ता था वह, शायद दुनिया में पहला।
सो मारता रहता था, वह नहले पर कसके दहला।।
गढ़ आला पर सिंह गेला, अब ताना का बलिदान हुआ।
अधिक भार बढ़ गया प्रताप पर, वीर शिवा को भान हुआ।।
किन्तु भरोसा था अटूट, सो अधिक वेग से वार किए।
थे चिन्ह दासता के जो भी, दोनों ने मिलकर मिटा दिए।।
अब शिवाजी बढ़ गये प्रहारों को, तो साथ प्रताप-पिंगले थे।
दस हज़ार थे घुड़सवार, इतने ही पैदल निकले थे।।
अक्टूबर 1670 था, फिर से सूरत पर वार किया।
दाऊद इखलास बकी खा संग, मुगली सेना ने कूच किया।।
मुगलों के छकके छुड़ा दिये, फिर वाणी और ढिडोरी में।
प्रताप-शिवाजी ताल-मेल, बंध गया गजब की डोरी में।।
जनवरी 72 में आकर, सलहेर दुर्ग को जीत लिया।
अपमान-हार की आंधी ने, औरंगजेब को क्रुद्ध किया।।
सूबेदार बहादुर खान और धूर्त सेनापति दिलेर।
ले विशाल एक सेना, आ धमके फिर से सलहेर।।
पहली टुकड़ी के दो हजार, बलिदान हो गए इस रण में।
बदली नीति हट गए वीर, सेना को ले पीछे क्षण में।।
मुगलों की सेना को आगे, बढ़ जाने दिया मराठों ने।
मौका देखा और दांव दिया, फिर गुर्जर वीर मराठों ने।।
तीव्र वेग से झपट पड़ा, आगे बढ़ प्रताप राव गुर्जर।
मोरोपंत भी आ धमके, मार लगाई फिर जमकर।।
पांच हजार काट दिए मुगल, और हाथ लगा काफी सौदा।
संकट में यदि हौसला हो, तो कोई नहीं रहती बाधा।।
सलहेर युद्ध तो फतेह हुआ, अब अगली जंग पन्हाला था।
मुगलों से दो-दो हाथ हुए, पठानों से जोर अाजमाना था।।
बीजापुर से पन्हाला छीन लिया, पलभर में वीर मराठों ने।
बहलोल खान ले फौज चला, युद्ध करने वीर मराठों से।।
वीर शिवा ने बात कही, अब किला वापसी नहीं देना।
रण को जाओ प्रताप राव, ले पन्द्रह हजार की घुड़सेना।।
उमरानी में हो गया सामना, जमकर युद्ध हुआ भारी।
एक तरफ प्रताप राव गुर्जर, दूजा बहलोल खान अत्याचारी।।
रणभूमि में बहलोल घेर लिया, प्रताप राव की सेना ने।
हुआ परास्त तो मृत्यु का भय, सता रहा था सेना से।।
अन्त समय को देख प्राणों की, भीख मांगने आया वो।
मन में तो था कपट लिए, पर बिल्ली सा मिमियाया वो।।
हाथ जोड़ फरियाद करी, प्रताप बख्श दे प्राण मेरा।
जाने दे वापस घर मुझको, किला पन्हाला हुआ तेरा।।
रणनीति या दया भाव, शत्रु को जीवन दान दिया।
पर वीर शिवा ने इस घटना पर, नाराजी का भान दिया।।
प्रताप राव तो दूर गए, पीछे शत्रु ने संधि तोडी।
कसमें वादे भूल गया, और चढ़ आया लेकर घोड़ी।।
यह सुन काल-गराल प्रताप, पलट बाज सरीखा झपट पड़ा।
कर दिए वार पर वार, एकदम दुश्मन को लिपट पड़ा।।
आगे-आगे बहलोल खान, पीछे-पीछे प्रताप राव गुर्जर।
अब अपने प्राण बचाने को, मारा-मारा फिरता जमकर।।
एक दिन खबरी ने खबर दी, प्रताप राव को यह आकर।
नैसारी दर्रा घट प्रभा नदी, दुश्मन बैठा है छिपकर।।
तंग राह भ्रांति हजार, इसलिए बेफिक्र बैठा है।
अपनी मांद में गीदड़, जाने किसके भरोसे ऐंठा है।।
सुन गुर्जर वीर ललकार उठा, हम खत्म कहानी कर देंगे।
चाहे जिसके भरोसे ऐंठा हो, सब पानी-पानी कर देंगे।।
आवेश में छ:वीर लेकर, चल पड़ा प्रताप राव गुर्जर।
दुश्मन पर जाकर टूट पड़ा, नहीं समय गंवाया फिर पलभर।।
फरवरी 1674, तिथि आत्मघात के निर्णय की।
युद्ध में बलिदान हुआ गुर्जर, अमर कथा यह निर्भय की।।
आखिरी दम सीख दे गया, वह भारत के युवकों को।
कोई काम कठिन नहीं है, दृढ़ निश्चयी नवयुवकों को।।
प्रताप राव बलिदान हुआ, जो वीर शिवा को खबर पडीं।
सुनकर वीर दहाड़ पड़ा, हा! ये भी आनी थी बुरी घडी।।
वीर शिवा यू कह उठें, प्रताप! मे तेरा कर्ज दार हुआ।
सुरपुर में जय-जयकार हुई, अपनों में हा-हाकार हुआ।।
समाप्त।

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